32 हिन्दी साहित्य के इतिहास में परम्परा और प्रगति का सम्बन्ध

डॉ. प्रेमशंकर सिंह

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  1.  पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन से आप –

      • साहित्यिक सन्दर्भ में परम्परा और प्रगति के अर्थ तथा इनकी अवधारणा को समझ सकेंगे।
      • साहित्य के सन्दर्भ में परम्परा और और प्रगतिशीलता के सन्दर्भ में सामाजिक संस्कृति को समझ सकेंगे।
      • विभिन्‍न आलोचकों की दृष्टि से साहित्येतिहास, परम्परा और प्रगति को समझ सकेंगे।
      • भक्तिकाल में परम्परा और सामजिक प्रगति को समझ सकेंगे।
      • आधुनिक हिन्दी आलोचना की साहित्येतिहास-दृष्टि, परम्परा और प्रगति को समझ सकेंगे।
      1. प्रस्तावना

 

परम्परा और प्रगति एक दूसरे पर आश्रित हैं। परम्परा का मूल्यांकन व निर्वहन किए बिना प्रगति सम्भव नहीं है। हिन्दी साहित्य के इतिहास के विभिन्‍न कालों-आन्दोलनों में परम्परा और प्रगति के इसी अन्योन्याश्रय सम्बन्ध को विभिन्‍न आलोचकों और साहित्येतिहासकारों की दृष्टि से समझने-समझाने का प्रयास इस पाठ में किया गया है।

      1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की साहित्येतिहास-दृष्टि में परम्परा और प्रगति

 

जब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के कई पूर्ववर्ती इतिहासों को इतिहास न मानते हुए ‘कविवृत्त संग्रह मात्र’ कहा तो उनका आशय यही था कि इन इतिहासों में इतिहास-दृष्टि नहीं है। कालानुक्रम मात्र ही इतिहास नहीं है। महत्त्व इस बात का है कि उनमें निहित कारकों और क्रियाओं की पहचान किस रूप में की जाए। आचार्य शुक्ल ने इसीलिए साहित्य का इतिहास लिखने का आरम्भ करते हुए ही अपनी इतिहास-दृष्टि को परिभाषित करना उचित समझा। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने साहित्य के इतिहास के शुरु में ही ‘काल विभाग’ खण्ड के अन्तर्गत अपनी इतिहास-दृष्टि को इस तरह परिभाषित किया– ‘जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्‍च‍ित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।’ स्पष्ट है कि ‘जनता की चित्तवृत्ति’ साहित्य में परिवर्तन के लिए आवश्यक है और यहाँ ‘परिवर्तन’ प्रगति का सूचक है और प्रगति ‘जनता की चित्तवृत्तियों’ की परम्परा के साथ-साथ साहित्य की अपनी परम्पराओं के सामंजस्य का परिणाम। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि आचार्य शुक्ल सही अर्थों में हिन्दी साहित्य के पहले इतिहासकार थे जिन्होंने ‘परम्परा’ और ‘प्रगति’ के आपसी सम्बन्ध से साहित्य के साथ-साथ समाज के परिवर्तन की रूपरेखा प्रस्तुत की। इसी प्रक्रिया में उन्होंने न सिर्फ साहित्य और समाज के आपसी सम्बन्धों की पड़ताल की बल्कि साहित्यिक परम्पराओं के उद्भव, विकास, पतन, उनके आपसी संघर्ष और इन सबके बावजूद परम्पराओं की निरन्तरता का भी लेखा जोखा प्रस्तुत किया। परम्पराओं की बहुवचनात्मकता की खोज और उनके आपसी सामंजस्य से विकसित साहित्यिक निरन्तरताओं की भी पड़ताल की। परम्परा का एक रूप विकसित होता हुआ भविष्य की रचनात्मकता को आधार प्रदान करता है तो एक रूप वह भी होता है जो ऐतिहासिक रूप से किसी समय और समाज में मौजूद रहते हुए जीवन्त नहीं रह जाती और क्षरणशीलता का शिकार होती हैं। ऐसी परम्पराएँ ऐतिहासिक विकास में, एक युग से दूसरे में संक्रमण के समय मौजूद जरूर रहती है, पर उनका नष्ट होना अवश्यम्भावी है। ऐसा साहित्य में भी घटित होता है। शुक्ल जी का इतिहास ऐसी परम्पराओं की तीव्र आलोचना भी प्रस्तुत करता है।

 

साहित्य के इतिहासकार का दायित्व परम्परा और प्रगति के आपसी सम्बन्ध की पहचान करना है। इस सम्बन्ध की पहचान के बाद ही साहित्य का इतिहासकार सार्थक परम्पराओं की रक्षा और उसके विकास में सहायक हो सकता है। साहित्य का इतिहास किसी एक परम्परा की निरन्तरता का इतिहास नहीं होता। ध्यान देने की बात यह है कि परम्परा के विकास में बराबर निरन्तरता ही नहीं होती, कई बार अन्तराल की स्थितियाँ भी आती हैं। यही नहीं, परम्पराओं की विकास की प्रक्रिया में सामंजस्य के अतिरिक्त अन्तर्विरोध भी होते हैं। साहित्य के इतिहास में परम्पराओं के विकास पर विचार करते समय निरन्तरता और अन्तराल तथा सामंजस्य और संघर्ष के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध की पहचान आवश्यक है। इसी प्रसंग में एक बात और विचारणीय है कि परम्परा की सार्थकता वर्तमान रचनाशीलता को गति देने में है, उसके पैरों की बेड़ी बनने में नहीं। परम्परा का मूल्यांकन वर्तमान रचनाशीलता के सन्दर्भ में होना चाहिए, समकालीन रचनाशीलता के ऊपर परम्परा को प्रतिष्ठित करने के लिए नहीं।’

 

आचार्य शुक्ल इतिहास में समाज और साहित्य के विकास के चलते निर्मित होती साहित्यिक प्रवृत्तियों का रेखांकन गहरे परम्पराबोध के साथ करते हुए दिखते हैं। परम्परा से इस जुड़ाव के चलते ही वे भविष्यगामी साहित्यिक प्रवृत्तियों की रक्षा कर पाते है और नई प्रवृत्तियों की पहचान भी। आदिकाल को वीरगाथा काल कहते हुए भी वे यह बताना नहीं भूलते कि ‘लिखित साहित्य के रूप में ठीक बोलचाल की भाषा या जनसाधारण के बीच कहे-सुने जाने वाले गीत, पद्य आदि रक्षित करने की ओर मानो किसी का ध्यान नहीं था। जैसे पुराना चावल ही बड़े आदमियों के खाने के योग्य समझा जाता है, वैसे ही अपने समय से कुछ पुरानी पड़ी हुई परम्परा के गौरव से युक्त भाषा ही पुस्तक रचने वालों के व्यवहार योग्य समझी जाती थी। पश्‍च‍िम की बोलचाल, गीत मुख प्रचलित पद्य आदि का नमूना जिस प्रकार हम खुसरो की कृति में पाते हैं, उसी प्रकार बहुत पूरब का नमूना विद्यापति की पदावली में। उसके पीछे फिर भक्तिकाल के कवियों ने प्रचलित देशभाषा और साहित्य के बीच पूरा-पूरा सामंजस्य घटित कर दिया।’ (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.- 56)

 

नवजागरण कालीन चेतना से निर्मित आचार्य शुक्ल का इतिहासकार मन वैज्ञानिकता और विवेक से प्रेम करने के कारण, न तो समाज और न ही साहित्य में परम्परा के नाम पर किसी ऐसी प्रवृत्ति को स्वीकार कर सका जो आस्था, अन्धविश्‍वास, आध्यात्मिकता और रहस्यवाद के आस-पास ठहरता हो। विद्यापति के शृंगारपरक तथा लौकिक पदों की प्रशंसा करने वाले शुक्ल जी विद्यापति को ‘आध्यात्मिक रंग के चश्मे’ से देखने के विरोधी थे और यही कारण था कि आदिकाल के सिद्ध, नाथ साहित्य से लेकर कबीर से होते हुए आधुनिक छायावाद तक को उनकी तीखी आलोचना का शिकार होना पड़ा। आध्यात्मिकता और रहस्यवाद देशी हो अथवा विदेशी, वह मनुष्य को उसकी भौतिक आकांक्षा से दूर ले जाता है। केन्द्र में यहाँ भी मनुष्य और उसकी रचनात्मकता है। अन्यथा वे पन्त के रहस्यवाद की प्रशंसा उसमें व्यक्त सहज मानवीय जिज्ञासा के कारण न करते – पन्त जी की रहस्य भावना स्वाभाविक है, साम्प्रदायिक नहीं। ऐसी रहस्यभावना जगत के नाना रूपों को देख प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के मन में कभी-कभी उठा करती है। व्यक्त जगत नाना रूपों और व्यापारों के भीतर किसी अज्ञात चेतन सत्ता का अनुभव-सा करता हुआ कवि इसे केवल अतृप्‍त जिज्ञासा के रूप में प्रकट करता है। (वही, पृष्ठ 487) – यह सही है कि कई जगह यह आलोचना अतिरेक का शिकार हो गई है, जिसकी तरफ बाद में अन्य चिन्तकों ने उचित ही इशारा किया। आगे उन प्रसंगों की चर्चा की जाएगी।

 

इसी से जुड़ी एक और महत्त्वपूर्ण बात है साहित्य की जनवादी तथा मुक्ति संघर्ष की चेतना को वहन करने वाली रचनाशील परम्परा के महत्त्व का उद्घाटन। यह काम आचार्य शुक्ल ने बिना किसी भेदभाव के आधुनिक विचार दृष्टियों से संवाद बना कर किया। वे आँख मूँद कर किसी प्रभाव को स्वीकारने के पक्षपाती न थे, बल्कि विचार और तर्क की कसौटी पर कसकर ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ चाहते थे। अनुकरण का कारण स्पष्ट होना चाहिए, नया या पुराना उसकी कोई कसौटी नहीं है– ‘बाहर से सामग्री आए, खूब आए, पर वह कूड़ा करकट रूप में न इकट्ठी की जाए। उसकी कड़ी परीक्षा हो, उस पर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाए, जिससे हमारे साहित्य के स्वतन्त्र और व्यापक विकास में सहायता पहुँचे।’

 

शुक्ल जी ने ‘जनता की चित्तवृत्ति के संचित प्रतिबिम्ब’ के रूप में साहित्य की व्याख्या की और उन चित्तवृत्तियों को निर्मित करने वाली परिस्थितियों की भी चर्चा की। राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक, तथा धार्मिक – ये ही वे परिस्थितियाँ थीं। जाहिर है कि परिस्थितियाँ ज्यादा समसामयिक और सीधी प्रतिक्रि‍या पैदा करने वाली थीं। इसीलिए शुक्ल जी के इतिहास में चित्तवृत्तियों की प्रतिक्रिया का स्वरूप ही ज्यादा उभरता है, उनकी निरन्तरता का नहीं। वीरगाथा काल को हिन्दू राजाओं की मुसलमानों के खिलाफ विजय की प्रतिक्रया के रूप में देखना, भक्ति आन्दोलन को इस्लाम की प्रतिक्रया मान लेना, ‘निर्गुण बानी’ खासकर कबीर की  कविता में गर्वोक्ति सुनना, छायावाद को विदेशी बताना… ऐसे कई पड़ाव हैं जिनके उत्तर शुक्ल जी की इतिहास-दृष्टि से बाद के इतिहासकारों ने पूछे हैं।  यह सही है कि शुक्ल जी ने साहित्य का सम्बन्ध जनता की चित्तवृत्तियों से जोड़ा और इस प्रकार साहित्य के इतिहास को सामाजिक चेतना के एक खास अंग के इतिहास के रूप में समझा, किन्तु इतना ही पर्याप्‍त न था। सवाल यह भी था कि जिस सामाजिक चेतना की उपज साहित्य है, उस चेतना का स्वरूप क्या है और वह किन भौतिक कारकों से निर्मित हुई है? सवाल यह भी है कि यह सामाजिक चेतना समाज के किस हिस्से की चेतना है, भले ही उसे समाज के सभी हिस्सों ने अपना लिया है।

 

परम्पराएँ इतिहास और संस्कृति के अनिवार्य हिस्से की तरह होती हैं। इसी नाते अगर इतिहास के साथ संस्कृति को भी जोड़ लिया जाए तो कहा जा सकता है कि सांस्कृतिक सौन्दर्य की चर्चा करते हुए आम तौर पर सामाजिक सच की अवहेलना ही की जाती है। कोसम्बी ने लिखा है– ‘भारत में दुर्बोध और रहस्य दर्शन है, चक्‍करदार धर्म है, अलंकृत साहित्य है, सुन्दर मूर्तियों से सुसज्जित भवन है और कोमल संगीत है। यह सब उसी ऐतिहासिक प्रक्रिया की देन है, जिसमें भुखमरी के शिकार भावशून्य ग्रामीण जन हैं, तो सुसंस्कृत माने जाने वाले लोगों का संवेदनहीन अवसरवाद और दीमकों जैसा लालच भी है। यह एक दूसरे के परिणाम है।’

      1. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की साहित्येतिहास-दृष्टि में परम्परा और प्रगति

 

हिन्दी साहित्य की भूमिका  में आचार्य द्विवेदी ने साहित्य के विकास में ‘जनता की चित्तवृत्तियों’ की जगह लोकचिन्ता को स्थापित किया गया। मतों, आचार्यों, सम्प्रदायों और दार्शनिक चिन्ताओं के मानदण्ड से लोकचिन्ताओं को मापने की बजाय लोकचिन्ताओं की अपेक्षा में उन्हें देखने की सिफारिश की। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इतिहास को मनुष्यता के जीवित दस्तावेज के रूप में देखने की सिफारिश करते हैं– ‘इतिहास जीवन्त मनुष्य के विकास की जीवन कथा होता है, जो अपने काल प्रवाह से नित्य उद्घाटित होते रहने वाली नव-नव घटनाओं और परिस्थितियों के भीतर से मनुष्य की विजय यात्रा का चित्र उपस्थित करता है और जो काल के पर्दे पर होने वाले नए-नए दृश्यों को हमारे सामने सहज भाव से उद्घाटित करता है।’

 

समाज की प्रगति की अवधारणा संघर्ष और परिवर्तन की प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा है। इतिहास सम्बन्धी उपर्युक्त परिभाषाएँ इतिहास को अतीत की वस्तु मानने की बजाय मानव जाति के विकास के आरोह-अवरोहों के अध्ययन पर जोर देती हैं। कहना न होगा, नायकोन्मुखी इतिहास की अवधारणा के बरक्स इतिहास के अध्ययन की यह जनोन्मुखी अवधारणा है जो अतीत का अध्ययन भविष्य की मंगल कामना के ध्येय के साथ करती है। साहित्य के इतिहास में संस्कृति से जुड़ी हुई तीसरी महत्त्वपूर्ण धारणा परम्परा की है। इतिहासकार साहित्य और संस्कृति की अपनी धारणाओं के अनुसार परम्परा की खोज और उसके मूल्यांकन का काम करता है। जनसंस्कृति की उपेक्षा करनेवाली इतिहासदृष्टि परम्परा की खोज में भी अभिजन की सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्पराओं को महत्त्व देती है। इसके विपरीत साहित्य और संस्कृति की जनवादी दृष्टि जनजीवन से जुड़ी सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्पराओं के मूल्यांकन का प्रयत्‍न करती है। जीवन्त परम्परा को रूढ़ि से अलगाने का विवेक भी इतिहास लेखक में होना जरूरी है, अन्यथा वह परम्परा के नाम पर रूढ़ि का समर्थन करते हुए साहित्य के इतिहास को दिग्भ्रमित करने का अपराध कर सकता है।

 

असल में आचार्य शुक्ल द्वारा प्रयुक्त ‘जनता’ शब्द व्यापक है और वह समाज की अविभाजित और अमूर्त धारणा को व्यक्त करता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास के सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जब इस शब्द का व्यवहार किया, तो जाहिर है कि उन्होंने यह ध्यान में न रखा होगा कि एक वर्ग विभाजित समाज में शोषितों के विचार बहुधा शोषकों के ही विचार होते है। इस असावधानी का एक परिणाम यह हुआ कि ‘जनता की चित्तवृत्तियाँ’ अचानक ही शिक्षित जनसमूह की बदलती हुई प्रवृत्तियों पर केन्द्रित हो गईं (हिन्दी साहित्य के इतिहास  का प्रथम संस्करण का वक्तव्य)। जबकि इसके उलट ‘लोक’ शब्द का व्यवहार करने वाले एक अन्य महत्त्वपूर्ण आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी निश्‍चय ही उसे शास्‍त्र से अलग करके निम्‍न वर्ग के अर्थ में इस्तेमाल करते हैं। आचार्य द्विवेदी ने यह भी प्रस्तावित किया कि साहित्य की अपनी परम्पराएँ होती हैं जो प्रवहमान रहती हैं। उनका विश्‍वास है कि ईस्वी सन् के प्रारम्भ से ही भारतीय मनीषा लोकोन्मुखी होती गई। बौद्ध दर्शन और साहित्य के प्रभाव से विकसित हिन्दी का सिद्ध और नाथ साहित्य, जिसे शुक्ल जी ने ‘धार्मिक प्रचार’ कहकर खारिज कर दिया था, के सामजिक-सांस्कृतिक महत्त्व का उद्घाटन अपनी लोक के प्रति प्रतिबद्धता के चलते निर्मित इतिहास-दृष्टि के कारण ही की। इतना ही नहीं, उन्होंने कबीर आदि निर्गुण कवियों के विद्रोह का सामाजिक आधार भी बताया और उसे सिद्धों-नाथों की साहत्यिक परम्परा से जोड़ा। उनकी दृष्टि में परम्परा की प्रवहमानता ज्यादा महत्त्वपूर्ण थी, न कि सामजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के आघात से उत्पन्‍न प्रतिक्रया। इसीलिए वे घोषित कर पाए – ‘ऐसा करके मैं इस्लाम के महत्त्व को भूल नहीं रहा हूँ, लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा वह आज है। परम्परा की प्रवहमान धारा ही साहित्य के निर्माण में अपनी भूमिका अदा करती है। इसीलिए वे घोषित कर पाए कि  हिन्दी साहित्य : भारतीय चिन्ता का स्वाभाविक विकास  है, किन्तु ऐसा क्यों कर सम्भव हुआ, मनुष्य की भौतिक परिस्थिति में वे कौन से कारक थे, जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में लोक से उपजी चिन्तनधारा को प्रभुत्व प्रदान कर दिया। इसका उत्तर द्विवेदी जी के यहाँ नहीं मिलता। द्विवेदी जी की लोक के प्रति प्रतिबद्धता निश्‍चय ही एक विकसित समझ को दर्शाती है, पर दो हजार वर्षों से विकसित हो रही भारतीय चिन्तनधारा में लोक के प्रभुत्व की कल्पना का आधार वे प्रस्तुत नहीं कर पाते। दरअसल चेतना के इतिहास को भौतिक परिस्थितियों, उत्पादन की प्रक्रियाओं और सम्बन्धों से स्वायत्त मानने के चलते उक्त प्रश्‍नों का हल उनके यहाँ नहीं मिलता, लेकिन तब भी द्विवेदी जी के द्वारा हिन्दी साहित्येतिहास के संवेदनशील पड़ावों और मोड़ों पर विचार करते हुए जिस इतिहास-दृष्टि का परिचय दिया गया है, वह महत्त्वपूर्ण है। सांस्कृतिक प्रक्रिया वर्ग निरपेक्ष नहीं होती है और उसकी निरन्तरता होती है, यह समझ हमें आचार्य द्विवेदी की इतिहास-दृष्टि से मिलती है। भक्ति आन्दोलन में कबीर के महत्त्व के रेखांकन के बाद हिन्दी कविता के सबसे सम्भावनाशील काव्यान्दोलन के रूप में द्विवेदी जी ने प्रगतिशील काव्यान्दोलन  को चिह्न‍ित किया। हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास  में द्विवेदी जी ने लिखा कि ‘प्रगतिवादी आन्दोलन बहुत महान उद्देश्य से चालित है। इसमें साम्प्रदायिक भाव का प्रवेश नहीं हुआ तो इसकी सम्भावनाएँ सबसे अधिक हैं। भक्ति के महान आन्दोलन के समय जिस प्रकार एक अदम्य दृढ़ आदर्श, निष्ठा दिखाई पड़ी थी, जो समाज को नए जीवन दर्शन से चालित करने का संकल्प वहन करने के कारण अप्रतिरोध शक्ति के रूप में प्रकट हुई थी, उसी प्रकार यह आन्दोलन भी हो सकता है। भक्ति का महान आन्दोलन साम्प्रदायिकता की चट्टान से टकराकर चूर्ण-विचूर्ण हो गया। इस आन्दोलन में भी एक प्रकार की साम्प्रदायिकता के उगने के चिह्न दिखने लगे हैं। आशा करनी चाहिए कि वह बढ़ नहीं पाएगा और मनुष्य को सब प्रकार के शोषणों एवं बन्धनों से मुक्त करने की महिमामयी साधना सफल होगी।’ कहना न होगा कि भक्ति आन्दोलन के बाद प्रगतिशील आन्दोलन ने ही समूचे भारतीय साहित्य में सबसे नई प्राणवायु भरी है। यह जरूर है कि आज अपने प्रगतिशील अतीत को कोसने वाले भी बहुतेरे हैं जो मुक्तिकामी विचारधारा से मुक्त होने की कामना भी रखते हैं, प्रगतिशील आन्दोलन के भीतर साम्प्रदायिकता को पल्लवित-पुष्पित करने में उनकी भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण भी रही है, किन्तु ‘अगर मनुष्यों को सब प्रकार के शोषणों और बन्धनों से मुक्त करने की महिमामयी साधना’ अभी तक सफल नहीं हो पाई और इसकी जरूरत अभी तक बनी हुई है तो यह समझना चाहिए कि इतिहास खास-समय के सन्दर्भ में मनुष्यों की ऐतिहासिक भूमिकाएँ भी तय करता है। जरूरत है आज फिर इस ऐतिहासिक आवश्यकता को समझते हुए अपनी भूमिकाएँ निर्धारित करने की। अपने निबन्ध प्रायश्‍च‍ित की घड़ी, में द्विवेदी जी भारतीय समाज की कड़ी सचाई, जाति व्यवस्था की समस्या पर विचार करते हुए लिखते हैं कि ‘जनजागृति जिस दिन सचमुच होगी, उस दिन ऊँची मर्यादा वाले इनका उद्धार नहीं करेंगे, ये स्वयं अपनी मर्यादा उच्‍च बनाएँगे। वह एक अपूर्व समय होगा जब शताब्दियों से पददलित, निर्वाक, निरन्‍न जनता समुद्र की लहरियों के फुत्कार के समान गर्जन से अपना अधिकार माँगेंगी। उस दिन हमारी सभी कल्पनाएँ न जाने क्या रूप धारण करेंगी, जिन्हें हम ‘भारतीय सभ्यता’, ‘हिन्दू संस्कृति’ आदि अस्पष्ट भुलाने वाले शब्दों से प्रकट किया करते है। मैं हैरानी के साथ सोचता हूँ कि क्या हममें उस महान ऐतिहासिक घटना को सहने का साहस है? निस्सन्देह यह जागृति धर्म और समाज-सुधार का सहारा नहीं लेगी। वह राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों पर कब्जा करेंगी।’

 

द्विवेदी जी को आम तौर पर मानवतावादी, नैतिक आलोचक मानकर यह बताने की कोशिश की जाती है कि मध्यवर्गीय नैतिकता के सहारे वे वर्गभेद तथा आर्थिक विषमता को समाप्‍त करने का रास्ता खोजते हैं। स्वाधीनता के बाद हमारे देश के भीतर यह मध्यवर्ग कितना अनैतिक और गैर जिम्मेदार सिद्ध हुआ है और उसकी इस प्रवृत्ति की बड़ी तीखी और सार्थक आलोचना किसी को देखनी हो, तो अकेले मुक्तिबोध का साहित्य लेखन पर्याप्‍त होगा। द्विवेदी जी भी इनसे कोई उम्मीद नहीं लगाते हैं। मानुष-सत्य-शोधक आचार्य के रूप में द्विवेदी जी की गणना करते हुए यह भी देखना चाहिए कि वर्तमान कालिक चुनौतियों का सामना करने के लिए उनकी दृष्टि किन पड़ावों पर ठहरती है। असल में साहित्य का समाज से, समाज में रहने वाले मनुष्य के जीवन संघर्ष से और मनुष्य के जीवन संघर्ष का सामाजिक जनान्दोलन से एक रिश्ता होता है। इसके चलते अतीत की सारी उपलब्धियाँ एक सामूहिक दायित्वबोध भी पैदा करती हैं, जिसे पूरा करने वाला मनुष्य ही ऐतिहासिक मनुष्य होने का हकदार होता है।

      1. मार्क्सवादी साहित्येतिहास-दृष्टि में परम्परा और प्रगति

 

इतिहास के बारे में क्या दृष्टि अपनाई जाए, इसे लेकर पहला गम्भीर चिन्तन यूरोपीय पुनर्जागरण से पैदा हुआ। मानववाद, प्रगति की अवधारणा, काल के प्रत्यय में बदलाव, इहलौकिकता आदि ऐसे मूल्य थे, जिन्होंने मनुष्य के अतीत की नई व्याख्या को सम्भव बनाया। इतिहास की अवधारणा को दूसरा क्रान्तिकारी मोड़ कार्ल मार्क्स के चिन्तन से प्राप्‍त हुआ। यह चिन्तन पुनर्जागरण के मूल्यों का वारिस था और साथ ही उसका नूतन विकास भी। मार्क्स ने मनुष्य के इतिहास में अधिशेष के ग्रहण के लिए वर्गों के अस्तित्व में आने की व्याख्या की और इस नतीजे पर पहुँचे कि ‘अब तक का सारा इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।’ कम्युनिस्ट घोषणा पत्र के सन् 1888 के संस्करण में उनके मित्र एंगेल्स ने इस पंक्ति को बदलकर उसमें एक शब्द और जोड़ दिया। वह शब्द था ‘लिखित’। अब तक का सारा लिखित इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।

 

साहित्य की मार्क्सवादी इतिहास-दृष्टि अपनाने वाले चिन्तकों ने ‘समाज’ अथवा ‘लोक’ की अपेक्षा वर्ग पर अधिक बल दिया। प्रगतिवाद के दौर में पहली बार साहित्य की वर्गदृष्टि को समझने के प्रयास हुए। साहित्य के इतिहास के सवालों पर भी प्रगतिवादियों ने वर्गदृष्टि से ही विचार करना उचित समझा। कई लोग जो सांस्कृतिक प्रक्रिया को वर्ग निरपेक्ष (या कभी-कभी तो समाज निरपेक्ष तक) मानना चाहते थे, उन्होंने इसका जबर्दस्त विरोध भी किया। कई लोगों को वर्ग की दृष्टि से आधुनिक और समकालीन रचनाओं पर विचार तो ग्राह्य था पर साहित्य के इतिहास के सन्दर्भ में वे इसे आरोपण ही समझते थे। आचार्य द्विवेदी ने यह प्रस्तावित किया था कि साहित्य की अपनी परम्पराएँ होती हैं जो प्रवहमान रहती है। अतः साहित्य ठीक-ठीक सामाजिक बदलावों के समानान्तर नहीं बदलता। इस बात को मार्क्सवाद भी मानता है कि आधार और अधिरचना में समानान्तरता का नहीं, द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध होता है। ऐसा नहीं होता कि उत्पादन के सम्बन्ध बदलते ही विचारधारा, राजनीति, साहित्य, कला में तत्काल परिवर्तन घटित हो जाते हैं। इन सभी अधिरचनात्मक तत्त्वों की अपेक्षित स्वायत्तता होती है और अनुवांशिक भी, जो कि उत्पादन प्रक्रिया पर असर डालती है, किन्तु अन्तिम विश्‍लेषण में अधिरचना आधार से ही स्थापित होती है। इस अन्तिम विश्‍लेषण के तर्क को जो लोग भुला देते हैं, वे आपेक्षित स्वायत्तता के स्थान पर पूर्ण स्वायत्तता के इलाके में पहुँच जाते हैं।

 

1. परम्परा का मूल्यांकन और सामाजिक प्रगति : रामविलास शर्मा

 

वास्तव में साहित्य की इतिहास-दृष्टि को लेकर आधुनिक हिन्दी आलोचना में जो भी बहसें हैं वे खुद साहित्य के स्वरूप और सम्बन्धों पर कालान्तर की समझदारियों से पैदा हुई हैं। इस बहस में प्रगतिवाद ने एक लम्बी लकीर खींच दी थी। शीर्षस्थ मार्क्सवादी आलोचक और इतिहासकार रामविलास शर्मा का नाम इसमे अग्रणी है।  परम्परा का मूल्यांकन  की भूमिका में उन्होंने लिखा – ‘साहित्य की परम्परा के मूल्यांकन की समस्या आलोचना की महत्त्वपूर्ण समस्या है, मार्क्सवादी आलोचना के लिए वह विशेष महत्त्वपूर्ण है।’ रामविलास शर्मा परम्परा के मूल्यांकन की कसौटी साहित्य में युग परिवर्तन को बनाते हैं और परम्परा के मूल्यांकन को ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ जितना जरूरी ठहराते हैं– ‘जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, जो लकीर के फ़कीर नहीं हैं, जो रूढ़ियाँ तोड़कर क्रान्तिकारी साहित्य रचना चाहते हैं, उनके लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान सबसे ज्यादा आवश्यक है। जो लोग समाज में बुनियादी परिवर्तन करके वर्गहीन शोषण मुक्त समाज की रचना चाहते हैं, वे अपने सिद्धान्तों को ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से पुकारते हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इतिहास के बिना ऐतिहासिक भौतिकवाद का ज्ञान असम्भव है? कम-से-कम ऐतिहासिक भौतिकवाद के संस्थापकों की पुस्तकें पढ़ने से ऐसा नहीं लगता। जो महत्त्व भौतिकवाद के लिए इतिहास का है, वही आलोचना के लिए साहित्य की परम्परा का है।’ रामविलास शर्मा के लिए परम्परा के मूल्यांकन के पीछे के उद्देश्य भी बिल्कुल साफ़ थे– ‘साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल्य निर्धारित करते हैं, जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिम्बित करता है। इसके साथ हम उस साहित्य का मूल्यांकन करते हैं, जिसकी रचना का आधार शोषित जनता का श्रम है, और यह देखने का प्रयत्‍न करते हैं कि वह वर्तमान काल में जनता के लिए कहाँ तक उपयोगी है और उसका उपयोग किस तरह हो सकता है। इसके अलावा जो साहित्य सीधे सम्पत्तिशाली वर्गों की देखरेख में लिखा गया और उनके वर्गहितों को प्रतिबिम्बित करता है, उसे भी परखकर देखना चाहिए कि यह अभ्युदयशील वर्ग का साहित्य है या ह्रासमान वर्ग का।’

 

अपनी इन धारणाओं को ही रामविलास शर्मा साहित्य की परम्पराओं के मूल्यांकन के लिए प्रयोग करते हैं। जहाँ एक तरफ उनकी नजर भारतीय समाज के अन्दरूनी दिक्‍कत सामन्तवाद की आलोचना विकसित करते हुए भक्ति आन्दोलन से लेकर आधुनिककाल के जातीय साहित्य का व्यापक पुनर्मूल्यांकन करती है, वहीं साम्राज्यवादी राजनीतिक और सांस्कृतिक संकट भी उनसे ओझल नहीं है। उन्होंने सामन्तवाद और साम्राज्यवाद विरोध को पुनर्मूल्यांकन का केन्द्रीय आधार बनाया है। ‘तुलसी साहित्य के सामन्त विरोधी मूल्य’, भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, निराला, रामचन्द्र शुक्ल आदि का पुनर्मूल्यांकन इसका परिणाम है। नई कविता के दौर में प्रगतिशील साहित्यक परम्पराओं पर हो रहे आधुनिकतावादी हमलों से भी रामविलास शर्मा टकराते दिखते हैं, लेकिन उनके परम्परा सम्बन्धी दृष्टिकोण की कुछ दिक्‍कतें भी हैं, जैसे कि प्रधान और मुख्य अन्तर्विरोध का निर्धारण और परम्परा की सर्वोच्‍चता को ही नई रचनाशीलता के ऊपर भी  लागू करना। शमशेर और मुक्तिबोध के मामले में रामविलास जी यही करते हैं। जब वे छायावादी रहस्यवाद का विरोध करते हुए इन दोनों कवियों को भी रहस्यवादी घोषित कर देते हैं।

 

2 साहित्येतिहास की प्रगतिवादी दृष्टि : मुक्तिबोध

 

उनकी इस कमाजोरी की आलोचना करते हुए बाद में मुक्तिबोध, नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय आदि आलोचकों ने मार्क्सवादी इतिहास-दृष्टि से परम्परा के मूल्यांकन को आगे बढाया है। परम्परा के भीतर वर्चस्व और प्रतिरोध की प्रक्रियाएँ लगातार जारी रहती हैं। शोषकों के विचार गजानन माधव मुक्तिबोध का साहित्य चिन्तन साहित्येतिहास की प्रगतिवादी दृष्टि के श्रेष्ठतम रूपों का प्रतिनिधित्व करता है। जिस प्रकार अधिरचनात्मक रूपों को आधार से पूर्ण स्वायत्त मानने वाले चिन्तक साहित्य की बेहतर इतिहास-दृष्टि से वंचित रह जाते हैं, ठीक उसी तरह अधिरचनात्मक रूपों की आपेक्षिक स्वायत्तता को न मानकर अन्तिम विश्‍लेषण के तर्क को प्रारम्भिक बना देने वाले आलोचक एक कुत्सित समाजशास्‍त्र की ओर रुख करते हैं। यह प्रगतिवादी खेमे की कमजोरी है, जिस पर मुक्तिबोध ने प्रहार किए। किसी भी साहित्यकार की इतिहास-दृष्टि को समझने के लिए आवश्यक नहीं कि उसने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा हो। वास्तव में साहित्य का समग्र इतिहास लिखने वाले आलोचकों से कम महत्त्वपूर्ण उन आलोचकों का चिन्तन नहीं है जिन्होंने साहित्य के इतिहास के किन्हीं खास पड़ावों या मोड़ों पर विचार किया है। मुक्तिबोध ऐसे ही आलोचक हैं जिन्होंने साहित्य के इतिहास के संवेदनशील पड़ावों और मोड़ों पर अपने विचार व्यक्त करते हुए अपनी साहित्य की इतिहास-दृष्टि का परिचय दिया है। मुक्तिबोध की इतिहास-दृष्टि के सन्दर्भ में- प्रतिबद्धता का महत्त्व इस बात से समझा जा सकता है कि इतिहास के अन्त की घोषणा करने वाली विचारधारा में उत्तर-आधुनिकता का मुख्य जोर इसी बात पर है कि प्रतिबद्धता जैसी कोई चीज नहीं होती। अब मुक्ति के महाख्यान नहीं रचे जा सकते, लेकिन बगैर किसी प्रतिबद्धता, दृष्टि या दर्शन के इतिहास लिखा नहीं जा सकता। उत्तर-आधुनिकता की मुख्य लड़ाई इसी दर्शन से है। मुक्तिबोध आलोचना के लिए जिस ‘ऐतिहासिक समाजशास्‍त्रीय पद’ का इस्तेमाल करते हैं, वहाँ समाज एक वर्ग विभाजित समाज है तथा इतिहास इन्हीं वर्गों के संघर्षों का इतिहास है। इसलिए मुक्तिबोध के लिए इतिहास कभी समाप्‍त न होने वाली अवधारणा है और इतिहास-दृष्टि शोषित मनुष्य के मुक्ति के रास्ते खोजने का बौद्धिक तरीका। आलोचना की सामाजिकता में मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है, ‘उस बौद्धिकता का लक्ष्य मनुष्य की स्वाधीनता है, मनुष्य की अमूर्त अवधारणा की दार्शनिक स्वतन्त्रता नहीं, समाज में पराधीनता के शिकार मनुष्यों की सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतन्त्रता।’ एक प्रतिबद्ध इतिहास-दृष्टि का महत्त्व इस बात से भी पता चलता है कि हिन्दी साहित्य के पहले सुव्यवस्थित इतिहास लेखक रामचन्द्र शुक्ल आधुनिक होते हुए भी कई बार इतिहास की पतनशील शक्तियों के साथ दिखाई देते हैं, वहीं हजारीप्रसाद द्विवेदी परम्परा के प्रति आग्रही होते हुए भी प्रगतिशील दिखाई पड़ते है, किन्तु इतिहास-दृष्टि का प्रतिबद्धता से एक खास और सुसंगत सम्बन्ध मुक्तिबोध के यहाँ दिखाई देता है जहाँ प्रतिबद्धता एक पुष्ट विचारधारात्मक आग्रह के साथ प्रकट होती है। इसके कारण ही वे साहित्य में इतिहास, समाज, मनोविज्ञान को परस्पर अन्तर्गुम्फित मानते हुए विधाओं तथा कलाओं के ऐतिहासिक विश्‍लेषण पर बल देते हैं। कहना न होगा कि मुक्तिबोध के लिए ‘समीक्षा’ एक बौद्धिक तत्त्व है और कलाओं का ऐतिहासिक विश्‍लेषण बौद्धिक विचारधारात्मक आधार पर टिका हुआ है।

 

भक्ति आन्दोलन सम्बन्धी मुक्तिबोध का लेख भक्तिकाव्य के साथ ही साहित्य के इतिहास में, साहित्य की परम्परा और उसके विकास में उनकी रुचि और दृष्टि का परिचायक है। किसी एक आन्दोलन के भीतर सत्ता के वर्ग चरित्र की व्यापकता और इस व्यापकता के प्रभुत्व के रूप में परिणति ही मुक्तिबोध के भक्ति आन्दोलन सम्बन्धी अवधारणा की खासियत है। मुक्तिबोध भक्तिकाल के अन्तर्विरोधों पर वर्ग-दृष्टि से नजर डालते हैं और निर्गुण-सगुण विवाद को दो वर्गों के रूपक के बतौर चिह्नित करते हैं। वे प्रस्तावित करते है – ‘किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्‍न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अंग है? दूसरे यह कि उसका अन्तःस्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आन्तरिक तत्त्व रूपायित किए हैं? तीसरे उसके प्रभाव क्या हैं, किन सामाजिक शक्तियों ने उसका उपयोग या दुरुपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्त्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है?’ मुक्तिबोध रामभक्ति शाखा और खासकर तुलसीदास की कविता में व्याप्‍त वर्ण, धर्म, जाति की रूढ़ियों की आलोचना करते हुए लिखते हैं – ‘‘साधारण जनों के लिए कबीर का सदाचारवाद तुलसी के सन्देश से अधिक क्रान्तिकारी था। तुलसी को भक्ति का यह मूल तत्त्व तो स्वीकार करना ही पड़ा कि राम के सामने सब बराबर है, किन्तु चूँकि राम ही ने सारा समाज उत्पन्‍न किया है, इसलिए वर्णाश्रम धर्म और जातिवाद को तो मानना ही होगा। रामचन्द्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं। इसके पीछे उनकी सारी पुराण-मतवादी चेतना बोलती है।’ वे निष्कर्ष निकालते हैं – ‘‘जो भक्ति आन्दोलन जनसाधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपन के विरुद्ध जनसाधारण की सांस्कृतिक आशा आकांक्षाएँ बोलती थीं, उसका ‘मनुष्य सत्य’ बोलता था, उसी भक्ति आन्दोलन को उच्‍च वर्गीयों ने आगे चलकर अपनी तरह बना लिया और उससे समझौता करके फिर उस पर अपना प्रभाव कायम करके और अनन्तर जनता के अपने तत्त्वों को उनमें से निकालकर, उन्होंने अपना पूरा प्रभुत्व स्थापित कर लिया।’’

 

एक अन्य बात यह भी थी कि हिन्दी क्षेत्र में भक्ति आन्दोलन के अन्तिम कवि तुलसीदास का वही महत्त्व है जो समर्थ रामदास का मराठी भक्ति आन्दोलन में है, लेकिन ‘आश्‍चर्यजनक बात यह है कि आजकल प्रगतिवादी क्षेत्रों में तुलसीदास के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा गया है, उसमें जिस सामाजिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के तुलसीदास अंग थे, उसको जान-बूझकर भुलाया गया है।’ इस लेख के अन्त में मुक्तिबोध यह फिर दोहराते है कि ‘किसी भी साहित्य का वास्तविक विश्‍लेषण तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक धरातल पर आत्म प्रकटीकरण किया है। कबीर, तुलसीदास आदि सन्तों के अध्ययन के लिए यह सर्वाधिक आवश्यक है। मैं इस ओर प्रगतिवादी क्षेत्रों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।

 

3 साहित्येतिहास की प्रगतिवादी दृष्टि : नामवर सिंह

 

मुक्तिबोध के इस ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर नामवर सिंह ने दूसरी परम्परा की खोज  में विचार करते हुए लिखा – ‘मुक्तिबोध की मुख्य स्थापना यह है कि निचली जातियों के बीच से पैदा होने वाले सन्तों के द्वारा निर्गुण भक्ति के रूप में भक्ति आन्दोलन एक क्रान्तिकारी आन्दोलन के रूप में पैदा हुआ, किन्तु आगे चलकर ऊँची जातिवालों ने इसकी शक्ति को पहचानकर इसे अपनाया और क्रमशः उसे अपने विचारों के अनुरूप ढालकर कृष्ण और राम की सगुण भक्ति का रूप दे डाला, जिससे उसके क्रान्तिकारी तत्त्व बचे रह गए, लेकिन रामभक्ति में जाकर तो रहे-सहे तत्त्व भी गायब हो गए। ‘क्या यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि रामभक्ति शाखा के अन्तर्गत, एक भी प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण कवि निम्‍नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया! क्या यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि कृष्णभक्ति शाखा के अन्तर्गत रसखान और रहीम जैसे हृदयवान मुसलमान कवि बराबर रहे आए, किन्तु रामभक्ति शाखा के अन्तर्गत एक भी मुसलमान और एक भी शूद्र कवि, प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण रूप से अपनी काव्यात्मक प्रतिभा विशद नहीं कर सका? क्या कारण है कि तुलसीदास भक्ति आन्दोलन (हिन्दी क्षेत्र में) के अन्तिम कवि थे।’

 

इन प्रश्‍नों के उत्तर इसी धारणा की ओर ले जाते हैं कि इन सबके लिए भक्ति आन्दोलन पर उच्‍चवंशी उच्‍चजातीय वर्गों का प्रभुत्व जिम्मेदार है और अन्ततः भक्ति आन्दोलन की शिथिलता तथा समाप्ति के लिए भी वही दोषी है। इस विवेचन से भक्तिकाल के बाद रीतिकाव्य के उदय का कारण भी स्पष्ट हो जाता है। यदि आरम्भ के शास्‍त्र-निरपेक्ष निर्गुण काव्य की शास्‍त्र-सापेक्ष सगुण परिणति की ओर ध्यान दें तो शास्‍त्रीयतावाद के पुनरुत्थान के रूप में रीतिकाव्य के प्रसार की भी संगति लग जाती है।’’

 

नामवर सिंह ने मुक्तिबोध की इस मान्यता को अन्तिम निष्कर्ष तक पहुँचाया है। रामचन्द्र शुक्ल निर्गुण मत और काव्य को लोक-विरोधी मानते थे, तो नामवर सिंह सगुण मत और काव्य को लोक-विमुख तथा लोक-विरोधी कहते हैं।

 

इस निर्गुण बनाम सगुण के विवाद में जाति और वंश वाला मुक्तिबोध का तर्क विचित्र है और उससे नामवर सिंह की सहमति आश्‍चर्यजनक। नामवर सिंह ने हजारीप्रसाद द्विवेदी के प्रसंग में लिखा है, ‘‘किसी लेखक के दृष्टिकोण को उसे पैदा करने वाले जाति, वर्ग या समाज के आधार पर, निर्धारित करने का प्रयास फूहड़ समाजशास्‍त्र है।’’ अगर यह मान्यता सही है तो केवल हजारीप्रसाद द्विवेदी के प्रसंग में ही नहीं, कबीर, सूर, मीरा और तुलसी के प्रसंग में भी सही होगी। ऐसी स्थिति में निर्गुण और सगुण कवियों के दृष्टिकोण को उनके वंश और जाति के आधार पर निर्धारित करने का प्रयास भी ‘फूहड़ समाजशास्‍त्र’ ही है। इस समाजशास्‍त्र में जाति और वर्ग पर्यायवाची बन गए हैं। वैसे यह समाजशास्‍त्र तथ्य से अधिक अनुमान पर आश्रित है। यह कौन नहीं जानता कि कबीर, रैदास, सेन, घना आदि निर्गुण सन्तों के गुरु रामानन्द सगुण भक्त थे। साथ ही यह भी तथ्य है कि सगुण धारा में अनेक मुसलमान और निम्‍नजातियों से आए भक्त शामिल थे।’’ तथ्य तो यह भी है कि आधुनिक काल में प्रगतिशील आन्दोलन के अन्तर्गत भी कोई महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली कवि निम्‍नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया। क्या प्रगतिवाद के बड़े कवि उच्‍चवंशी उच्‍चजातीय वर्गों के प्रभुत्व के प्रमाण हैं। महत्त्वपूर्ण तथ्य और भी हैं। प्रेमचंद ने ठाकुर का कुआँ और सद्गति  जैसी कहानियाँ लिखी हैं और नागार्जुन ने  हरिजन गाथा  जैसी कविता। इन रचनाओं के लेखक शूद्र समुदाय से नहीं आए हैं, इसलिए क्या उनका कोई महत्त्व नहीं है? हिन्दी साहित्य के इतिहास में रामचन्द्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह से मुक्तिबोध तक की धारणाओं में परम्परा और प्रगति के पारस्परिक सम्बन्धों पर गहन विचार हुआ है।

      1. निष्कर्ष

 

विद्वानों की उक्त बहस में वाद-विवाद का पहलू भारी पड़ा है। मुक्तिबोध ने इस लेख के शीर्षक में ही स्पष्ट कर दिया है कि वे भक्तिकाल के एक पहलू मात्र को विश्‍लेषित कर रहे हैं, न कि उसका समग्र मूल्यांकन। दूसरे, मुक्तिबोध जिस मध्यकाल के साहित्यिक आन्दोलन (भक्ति आन्दोलन) की बात कर रहे हैं, उस काल में जाति और वर्ग का अन्तर्गुम्फन आधुनिक काल की अपेक्षा कहीं अधिक था। यह निष्कर्ष निकालने का कोई कारण नहीं कि मुक्तिबोध निर्गुण और सगुण को आत्यान्तिक रूप से क्रमशः निम्‍न और उच्‍च जातियों की रचना प्रवृत्तियों के रूप में देखते हैं। आखिरकार, सन्त ज्ञानेश्‍वर ब्राह्मण थे, जिन्हें वे गरीब किसान जनता का मार्ग प्रशस्त करने वाला बताते है। मुक्तिबोध दरअसल भक्तिकाव्य के सामाजिक आधार को रेखांकित कर, उसमें द्वन्द्वरत ताकतों की गति के साथ मिलाकर भक्तिकाल की परिणति को सामने लाना चाहते हैं। भक्तिकाल की निर्गुण धारा में श्रमिक जातियों के कवियों का होना और सगुण धारा की कृष्ण भक्ति में मुसलमान कवियों का होना और सगुण धारा की राम भक्ति शाखा में इनका अभाव के जिन सन्दर्भों में उन्होंने उठाया है, उसकी तुलना प्रगतिशील काव्य में निम्‍नजातीय मूलों से आए कवियों के अभाव से नहीं किया जा सकता। पूरा युग-परिवेश बदला हुआ है। प्रगतिशील ही क्या, किसी भी अन्य आधुनिक काव्य धारा में इन तबकों के कवियों का अभाव ही था, जबकि भक्तिकाल में ऐसा नहीं था। वाचिक परम्परा में अनपढ़ भी कवि हो सकते थे। छापेखाने के बाद के आधुनिक लिखित साहित्य में उनकी भूमिका नहीं हो सकती थी। जैसे-जैसे शिक्षा का अधिकार इन निम्‍नजातियों ने लड़कर हासिल किया। वैसे-वैसे वे आधुनिक साहित्य में अपनी जगह बनाती गईं। निर्गुण भक्ति मार्गी जातिवाद विरोधी आन्दोलन की असफलता के कारणों को मुक्तिबोध ने इस रूप में व्याख्यायित किया– ‘‘उसका मूल कारण यह है कि भारत में पुरानी समाज-रचना को समाप्‍त करने वाली पूँजीवादी क्रान्तिकारी शक्तियाँ उन दिनों विकसित नहीं हुई थी। भारतीय स्वदेशी पूँजीवादी की प्रधान भौतिक वास्तविक भूमिका विदेशी पूँजीवादी साम्राज्यवाद ने बनाई। स्वदेशी पूँजीवाद के विकास के साथ ही भारतीय राष्ट्रवाद का अभ्युदय और सुधारवाद का जन्म हुआ और उसने सामन्ती समाज-रचना के मूल आर्थिक आधार यानी पेशेवर जातियों द्वारा सामाजिक उत्पादन की प्रणाली समाप्‍त कर दी।’’ इस प्रकार जहाँ मुक्तिबोध सामन्ती समाज रचना के नाश हेतु क्रान्तिकारी पूँजीवादी शक्तियों को आवश्यक पाते हैं और भक्ति आन्दोलन की विफलता के लिए इसे भी सम्भव न हो पाने को उत्तरदायी ठहराते है वही स्वाधीनता आन्दोलन के साथ विकसित स्वदेशी पूँजीवाद पर भी उनकी नजर है।

 

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