19 हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में हिन्दी-उर्दू का सम्बन्ध
डॉ. प्रभात कुमार मिश्र मिश्र
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- साहित्येतिहास लेखन के संदर्भ में हिन्दी और उर्दू के सम्बन्ध को समझ पाएँगे।
- हिन्दी और उर्दू के सन्दर्भ में औपनिवेशिक भाषा-नीति से परिचित हो सकेंगे।
- हिन्दी-उर्दू से सम्बन्धित प्रमुख विवादों और सुझावों का ज्ञान प्राप्त करेंगे।
- प्रस्तावना
साहित्य का इतिहास केवल साहित्य का इतिहास ही नहीं होता, साहित्य के साथ उसमें सम्बद्ध भाषा, और समाज का भी इतिहास होता है। इस आधार पर हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में हिन्दी भाषा, हिन्दी समाज और हिन्दी साहित्य का इतिहास मिलता है। समस्या यह है कि हिन्दी साहित्य जिस भूभाग में शताब्दियों से रचा जा रहा है, उसकी भाषा केवल वही नहीं रही है, जिसे हम ‘हिन्दी’ के नाम से आज जानते हैं। अवधी, ब्रजभाषा, बुन्देली, पहाड़ी, मैथिली आदि उसकी अनेक उपभाषाएँ हैं, जिनमें लिखा गया साहित्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना गया है। यह मानकर कि एक व्यापक हिन्दी समाज (जिसे हिन्दी जाति भी कहा गया है) है, जो इन सभी भाषाओं में लिखे गए साहित्य को अपना जातीय साहित्य समझता आ रहा है, हिन्दी साहित्य के इतिहास में इन सभी भाषाओं के कवियों को जगह मिली है। आदिकाल एवं मध्यकाल के कवियों द्वारा स्थान-स्थान पर प्रयुक्त ‘हिन्दवी’ या कि ‘हिन्दुई’ जैसे शब्दों द्वारा इन्हीं भाषाओं को सामूहिक रूप से अभिहित किया जाता था। इन सभी भाषाओं में रचा गया साहित्य ही हिन्दी साहित्य समझा गया है।
इस सहज बोध के सामने कठिनाई आती है उर्दू को लेकर। उर्दू भी इसी भूभाग में बोली जाने वाली एक भाषा है, अवधी या कि ब्रज की ही तरह। यह और बात है कि उर्दू में फ़ारसी के शब्दों की संख्या अधिक है। यह मानी हुई बात है कि किसी भाषा में अन्य भाषा के कुछ या अधिक शब्द मिल जाएँ तो इससे उस भाषा का कुछ रूप बदल जा सकता है परन्तु वह भाषा अन्य भाषा नहीं बन जाती। लोगों ने बताया है कि उर्दू भाषा की रीढ़ हिन्दी भाषा के सर्वनाम, विभक्तियाँ, प्रत्यय और क्रियाएँ ही हैं। उसकी शब्द योजना भी अधिकतर हिन्दी भाषा के समान ही होती है। ऐसी अवस्था में वह अन्य भाषा नहीं कही जा सकती। हालाँकि, उर्दू को हिन्दी से एकदम जुदा भाषा माननेवालों की संख्या भी कम नहीं है। यहाँ आकर यह सवाल खड़ा होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते हुए उसमें उर्दू में रचे गए साहित्य को शामिल किया जाएगा, या कि उर्दू साहित्य का इतिहास अलग ही होगा। हिन्दी साहित्य के कुछ इतिहासों में जहाँ विभिन्न कारणों से हिन्दी के साथ-साथ उर्दू के साहित्य को भी लिया गया है, वहीं अधिकांश इतिहास ग्रन्थों में उर्दू साहित्य की चर्चा या तो नहीं है, अथवा नहीं के बराबर है।
- हिन्दी-उर्दू : ‘एक भाषा दो लिपि’
एक भाषा के रूप में ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग मुसलमानों के आने के बाद से ही शुरू हुआ। उन्होंने भारत को हिन्द और यहाँ की भाषा को ज़बान-ए-हिन्दी कहना शुरू किया था। अमीर खुसरो ने अपने नुहेसिपर में उस समय की जिन ग्यारह भाषाओं की चर्चा की है उनमें ‘हिन्दवी’ शामिल तो नहीं है किन्तु अनेक स्थानों पर उन्होंने इसका प्रयोग एक भाषा के नाम के रूप में किया है। खुसरो ने जिस अर्थ में ‘हिन्दवी’ का प्रयोग किया है, उसी अर्थ में कबीर (भाषा बहता नीर), जायसी (लिखि भाषा चैपाई कहे) और तुलसीदास (भाषा भनति मोर मति थोरी) ने ‘भाषा’ या ‘भाखा’ का प्रयोग किया है।
ऐहतेशाम हुसैन ने उर्दू साहित्य का इतिहास लिखते हुए हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए बताया है, “खड़ी बोली में, जो दिल्ली के बाजारों की भाषा थी, अरबी-फ़ारसी के शब्द प्रवेश करते रहे, जिनका प्रयोग राजनीतिक एकता के लिए आवश्यक था। इस खड़ी बोली में जो परिवर्तन हुआ, उससे वह भाषा बनी जिसको साधारणतः ‘हिन्दुस्तानी’ कहा जाता है। इस ‘हिन्दुस्तानी’ के दो साहित्यिक रूप हैं– पहला उर्दू, जिसमें अरबी-फ़ारसी के शब्द अधिक होते हैं और जिसे फ़ारसी लिपि में लिखा जाता है और दूसरा हिन्दी, जिसमें संस्कृत शब्दों का प्रयोग होता है और जिसे देवनागरी में लिखते हैं।”
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने हिन्दी भाषा और उसके साहित्य के विकास सम्बन्धी पुस्तक में लिखा है, “हिन्दी भाषा वहाँ की भाषा थी, जहाँ पर मुसलमानों के साम्राज्य का केन्द्र था, और जहाँ उनकी विजय वैजयन्ती उस समय तक उड़ती रही, जब तक उनका साम्राज्य ध्वंस नहीं हुआ। इसीलिए हिन्दी भाषा पर उनकी भाषा का बहुत अधिक प्रभाव देखा जाता है। अरबी मुसलमानों की धार्मिक भाषा थी। विजयी मुसलमान भारत में अरब से ही नहीं, ईरान और तुर्किस्तान से भी आए। इसलिए हिन्दी भाषा पर अरबी, फ़ारसी और तुर्की तीनों का प्रभाव पड़ा। इन तीनों भाषाओं के शब्द अधिकता से उसमें पाए जाते हैं। अधिकता का प्रत्यक्ष प्रमाण उर्दू है, जो कठिनता से हिन्दी कही जा सकती है।”
हरिऔध जी का जोर अरबी-फ़ारसी-तुर्की भाषा के शब्दों की ‘अधिकता’ पर है, जिसके कारण उर्दू अलग ठहरती है। जब तक यह प्रभाव ‘अधिक’ नहीं था तब तक हिन्दी-उर्दू का ऐसा भेद भी नहीं था। रामविलास शर्मा ने इस सन्दर्भ में लिखा है, “जितना ही हम पुराने जमाने के उर्दू लेखकों की रचनाएँ पढ़ते हैं, उतना ही साधारणतः अरबी-फ़ारसी के शब्दों की खपत कम मिलती है और जितना ही बीसवीं सदी की ओर बढ़ते हैं, उतना ही यह खपत बढ़ती जाती है।”
वैसे भी एक भाषा के नाम के तौर पर ‘उर्दू’ का जीवन सम्भवतः ‘ज़बान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला शाहज़हाँबाद’ के रूप में आरम्भ हुआ और इसका आशय था ‘शाहज़हाँबाद के शह्र-ए-मुअल्ला की भाषा’। समय के साथ यह वाक्यांश संक्षिप्त होकर ‘ज़बान उर्दू-ए-मुअल्ला’, फिर ‘ज़बान उर्दू’ और फिर ‘उर्दू’ रह गया। ग़ालिब को भी ‘उर्दू’ भाषा के नाम के रूप में प्रयोग करने में संकोच था। ग़ालिब का, ‘रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब, कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था’, कहकर खुद को उर्दू का नहीं, रेख़्ता का कवि समझना ही संकेत करता है। ग़ालिब की भाषा के सम्बन्ध में यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि एक तो यह उसी हिन्दी की परम्परा थी जो मीर से आई थी और जिसे आगे जाकर भारतेन्दु ने नए चाल में ढाला था, भले ही वह फ़ारसी लिपि में लिखी गई हो। दूसरे, यह ‘हिन्दी’ गिलक्राइस्ट के विशेष प्रयत्न से उत्पन्न ‘उर्दू’ से अलग थी और ग़ालिब के सामने मीर की हिन्दी ही नहीं, गिलक्राइस्ट की उर्दू भी मौजूद थी। फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना सन् 1800 में हुई थी और भाषा के रूप में उर्दू का प्रयोग सन् 1802 में शुरू हुआ था। ग़ालिब उसके बाद आए थे लेकिन उन्होंने अपने को ‘उर्दू’ से नहीं जोड़ा था। अठारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में फ़ारसी लिपि में जो खड़ी बोली लिखी जा रही थी, वह ‘उर्दू’ नाम से प्रसिद्ध न हुई थी। ग्राहम बेली ने अपने सन् 1930 के एक लेख उर्दू दि नेम ऐण्ड दि लैंग्वेज में लिखा है कि कवि मुसहफी़ (सन् 1750-1824) ने सम्भवतः पहली बार केवल भाषा के अर्थ में उर्दू शब्द का व्यवहार किया था। मुसहफी़ ने लिखा था ‘ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हमने सुनी है मीर ओ मिर्जा की, कहें किस मुँह से हम ऐ मुसहफी़ उर्दू हमारी है’। रामविलास शर्मा के अनुसार उर्दू शब्द का व्यवहार करने वाले गिलक्राइस्ट पहले व्यक्ति रहे हों, चाहे न रहे हों, एक बात निश्चित है कि अंग्रेजी शिक्षा विभाग ने संगठित रूप से हिन्दी से अलग उर्दू को शिक्षा का माध्यम बनाया और हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा कहकर उससे स्वतन्त्र एक अन्य भाषा के लिए उर्दू शब्द का प्रचार उन्होंने जोरों से किया।
अयोध्याप्रसाद खत्री ने सन् 1887 में खड़ी बोली का पद्य नामक किताब छपवाई थी। ‘गद्य की गद्दी पर पद्य की पदवी भी पहुँचे’ का उद्देश्य लेकर खत्री जी ने खड़ी बोली की उपलब्ध कविताओं में से चुनकर न केवल उन्हें प्रकाशित कराया बल्कि खड़ी बोली की पाँच शैलियाँ भी निर्धारित कीं। उनके अनुसार “खड़ी बोली के मैंने पाँच भेद माने हैं– ठेठ हिन्दी, पण्डित जी की हिन्दी, मुंशी जी की हिन्दी, मौलवी साहिब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी। ठेठ हिन्दी वह है कि जिसमें न विदेशी शब्द हों और न संस्कृत के। इसमें तद्भव और देशज शब्द अधिक रहते हैं। पण्डित जी की हिन्दी में संस्कृत के बड़े और कठिन शब्द रहते हैं, विदेशी शब्द प्रायः नहीं रहते हैं। मुंशी जी की हिन्दी पण्डित जी और मौलवी साहब की हिन्दी के बीच की हिन्दी है और इसको यूरोपियन विद्वान् हिन्दुस्तानी कहते हैं। मौलवी साहब की हिन्दी फ़ारसी-अरबी संज्ञाओं से भरी रहती है। इसको मौलवी साहब उर्दू कहकर पुकारते हैं। यूरेशियन हिन्दी में अंगरेजी के तत्सम संज्ञा शब्द आते हैं। मौलवी साहब फ़ारसी और यूरोपियन अंगरेजी अक्षर पसन्द करते हैं। खड़ी बोली में, पण्डित जी ने पद्य लिखने की आज तक चेष्टा नहीं की है। इसके कवि केवल मौलवी साहब हैं।”
इससे यह जाहिर होता है आज की हिन्दी और उर्दू दोनों का ही सम्बन्ध खड़ी बोली से है। फिराक गोरखपुरी ने भी जोर देकर कहा है कि उर्दू भाषा हिन्दी के उस रूप से बनी है जिसमें लोग दिल्ली के आसपास मुसलमानों के आने के पहले बातचीत किया करते थे। उनके अनुसार वह खड़ी बोली थी जिसका अपने-अपने ढंग से निखरा हुआ रूप ही आज की हिन्दी और उर्दू है। फिराक साहब ने लिखा है, “जहाँ तक खड़ी बोली का सम्बन्ध है यह प्रलय काल तक नहीं हो सकता कि अच्छी उर्दू की खड़ी बोली कुछ और हो और अच्छी हिन्दी की खड़ी बोली कुछ और। खड़ी बोली एक थी, एक है और एक रहेगी।” यही कारण है कि वे समझते हैं, “उर्दू भाषा की कहानी शायद तमाम भाषा की कहानियों से निराली है और रोचक भी। एक बनी-बनाई भाषा को ईरान और अरब के शब्दों से इस तरह रचा देना, इस तरह सँवार देना, इस तरह निखार देना कि वह एक अलग सजीव और सुसंस्कृत भाषा बन जाए, भाषाओं के इतिहास में एक अद्वितीय घटना है।”
हिन्दी की खड़ी बोली के ढाँचे पर फ़ारसी शब्दावली का खोल चढ़ाकर जो नई भाषा गढ़ी गई उसे उर्दू कहा गया और बोलचाल की हिन्दी में संस्कृत शब्दावली की भरमार करके जो दूसरी भाषा गढ़ी गई उसे हिन्दी कहा गया। यही कारण है कि दोनों भाषाओं का क्षेत्र एक है, व्याकरण एक है, सांस्कृतिक परिवेश एक है, केवल शब्दावली अलग है और आगे चलकर जैसे-जैसे इस अलगाव का आग्रह बढ़ता गया, वैसे-वैसे शब्दावली के साथ जुड़ी स्मृतियों का कोष भी अलग होता गया। उन्हें दो भाषा सिद्ध करने का सैद्धान्तिक आधार मिला ब्रिटिश सत्ता की साम्प्रदायिक नीति से। अंग्रेजों की विभाजक भाषानीति के कारण हिन्दी का हिन्दुओं से और उर्दू का मुसलमानों से कोई सम्बन्ध न होने पर भी यह सम्बन्ध आज हमारे सहजबोध का अंग बन गया है।
- हिन्दी-उर्दू का अलगाव और औपनिवेशिक भाषा-नीति
आलोक राय ने अपनी किताब हिन्दी नेशनलिज्म में भाषाई विवाद के कई कारण गिनाए हैं। उन्होंने हिन्दी-उर्दू के बीच भेद के पीछे खास तौर से दो कारणों को अहम माना है। पहला, फोर्ट विलियम कॉलेज में सर जॉन गिलक्राइस्ट द्वारा हिन्दी व उर्दू को अलग-अलग भाषा मानकर उनके लिए अलग-अलग तरीके से अध्ययन व लेखन के तरीकों को प्रस्तावित करना। उन्होंने लिखा है कि फोर्ट विलियम कॉलेज से जो अहम चीज निकली, वह थी दो भाषा का सिद्धान्त। फोर्ट विलियम कॉलेज ने इस विचार को लगभग सांस्थानिक अनुमोदन प्रदान किया कि वास्तव में हिन्दुस्तानी के दो रूप हैं– एक वह जिसने मिली-जुली भाषा को अपनाया और दूसरी वह जिसमें से हिन्दुओं को ध्यान में रखकर अरबी-फ़ारसी के शब्दों को निकाल दिया गया। दूसरा कारण आलोक राय ने यह बताया है कि कलकत्ते के पास श्रीरामपुर में ईसाई मिशनरियों द्वारा 18वीं सदी के अन्त में जब छापाखाना खोला गया, तब अक्षरों का टाइप तैयार करने के लिए उन्होंने हिन्दी का खास रूप तैयार किया जो आम बोलचाल के नजदीक होते हुए भी उर्दू से अलग था। उनके द्वारा कलकत्ता, आगरा व इलाहाबाद में स्कूल बुक सोसाइटियों की भी स्थापना की गई। इसके लिए हिन्दी के मानकीकृत रूप की तलाश शुरू हुई। नई शब्दावली, व्याकरण पर जोर बढ़ा व हिन्दुओं की हिन्दुस्तानी तथा मुस्लिमों की हिन्दुस्तानी का अलग-अलग ढंग से विकास हुआ।
हिन्दी-उर्दू का अलगाव उन्नीसवीं सदी में पैदा हुआ। मुगलों के बाद भारत की सत्ता अंग्रेजों के हाथ में आ गई थी। अंग्रेजों ने भी आरम्भ में मुगलों की ही भाँति फ़ारसी को राजकाज की भाषा मान लिया था। सन् 1837 में यह प्रस्ताव सामने आया कि किसी प्रान्त की प्रान्तीय भाषा ही वहाँ के राजकाज एवं अदालतों भी भाषा होगी। इस प्रस्ताव के सामने आने पर संयुक्त प्रान्त एवं बिहार के आभिजात्य मुसलमानों एवं कायस्थों ने, जिनकी सामाजिक-आर्थिक हैसियत सरकारी पदों पर रहने के कारण अच्छी थी, उर्दू का पक्ष लिया। उनकी इस उर्दू में अरबी-फ़ारसी का जोर था। यह जानकर इन प्रदेशों के हिन्दुओं ने इस उर्दू का विरोध करना तथा नागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी का समर्थन करना शुरू किया। इस प्रकार मूलतः सामाजिक-आर्थिक जरूरतों से शुरू हुआ राजकाज की भाषा हिन्दी-उर्दू का यह विवाद बाद में भाषा, लिपि, साहित्य, संस्कृति और साम्प्रदायिकता तक फैलता गया। अन्ततः हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा एवं उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में बाँटा गया। असल में इस विवाद के मूल में वह शक्ति समीकरण था जिसे हिन्दू भद्रवर्ग बदलना चाहता था और मुस्लिम भद्रवर्ग बरकरार रखना चाह रहा था। रामविलास शर्मा के अनुसार, “ब्रिटिशपूर्व भारत के अभिजात वर्ग ने भारतीय भाषाओं को अपदस्थ करके फ़ारसी को यहाँ राजभाषा बनाया था। स्वभावतः हिन्दी में जितने ही ज्यादा अरबी-फ़ारसी के शब्द आएँ, उतना ही उनकी दृष्टि में वह सभ्य भाषा बनती थी। अभिजात वर्ग और जनसाधारण के भाषा-सम्बन्धी भेद को अंग्रेजों ने मुसलमानों और हिन्दुओं का भेद बना दिया।”
भारत की सामासिक संस्कृति को अपने साम्राज्य के लिए खतरा समझते हुए अंग्रेजों ने एक नए तरह के इतिहासबोध का प्रचार करना शुरू किया। उनका यह इतिहासबोध भारतीय इतिहास को हिन्दूकाल, मुस्लिमकाल और ब्रिटिश काल में बाँटकर देखता था। राजनीतिक धरातल पर उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के सम्भ्रान्त तबके को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना चाहा। अपनी इस मंशा में उन्हें सफलता भी मिली। निहित स्वार्थों के चलते अलग-अलग हिन्दू और मुस्लिम राष्ट्रीयता का विकास होना शुरू हुआ। समूचा मध्यकाल जहाँ एक तरफ हिन्दुओं के लिए पराजय और गुलामी के तौर पर दिखाया जाने लगा, वहीं मुसलमानों के लिए वही समय गौरवपूर्ण बताया गया। जबकि आधुनिक काल से पहले का हिन्दी साहित्य का इतिहास यह बताता है कि भाषा से काम लेने के सम्बन्ध में हिन्दू-मुसलमान का भेद नहीं था, मुसलमानों ने ब्रजभाषा और अवधी में उसी प्रकार रचनाएँ की हैं, जिस प्रकार हिन्दुओं ने। भारतीय साहित्य के इतिहास में कुतुबन, रसखान, जायसी और रहीम के नाम उसी आदर से लिए जाते हैं, जैसे तुलसीदास, सूर और मीरा के। औपनिवेशिक नीतियों और प्रचार के परिणामस्वरूप हिन्दू और मुसलमान दोनों एक नहीं हैं, जब यह भावना लोगों के दिलों में घर करने लगी और जब दोनों के बीच द्वेषभाव उत्पन्न हुआ, तब इन दोनों भाषाओं में रस्साकशी होने लगी। कुछेक लोगों ने, जिसमें संस्कृत के शब्द होते थे उस भाषा को हिन्दी कहा और उसमें से अरबी-फ़ारसी के शब्दों को खोजकर निकालना शुरू किया तथा कुछ ने फ़ारसी तथा अरबी भाषा के शब्दों से युक्त भाषा को उर्दू कहा और उसमें चलने वाले संस्कृत शब्दों को निकाल बाहर किया।
हिन्दी-उर्दू विवाद की कटुता दिखाती है कि भाषाओं के बीच एकता और समानता होने पर भी उनके बोलने वालों के बीच दूरियाँ रह सकती हैं। भाषाई समानता का कोई मतलब नहीं रह जाता है, अगर लोग भाषाओं के साथ अपने राजनीतिक उद्देश्यों या दूसरे मनोगत अभिप्रायों को जोड़ दें। बोलचाल की एक भाषा के आधार पर हिन्दी और उर्दू नाम से जो दो भाषाएँ बन गई थीं उस पर प्रेमचन्द को मलाल था। उन्होंने बड़े दुख के साथ लिखा था, “यह सारी करामात फोर्ट विलियम कॉलेज की है जिसने एक ही ज़बान के दो रूप मान लिए। इसमें भी उस वक्त कोई राजनीति काम कर रही थी या उस वक्त भी दोनों जबानों में फर्क आ गया था यह हम नहीं कह सकते। जिन-जिन हाथों ने यहाँ की ज़बान के उस वक्त दो टुकड़े कर दिए, उसने हमारी क़ौमी ज़िन्दगी के दो टुकड़े कर दिए।”
- हिन्दुस्तानी: ‘द ग्रैण्ड पॉपुलर स्पीच ऑफ हिन्दुस्तान’
फोर्ट विलियम कॉलेज के भाषा सम्बन्धी प्रयत्नों से पहले ‘हिन्दुस्तानी’ से मतलब उस ज़बान से था, जिसे उत्तर भारत के युक्त प्रान्त और दोआब के लोग और दिल्ली, मेरठ, आगरा आदि के रहनेवाले मुसलमान बोलते थे और जो दक्षिण के मुसलमानों में भी प्रचलित हो गई थी। लगभग उसी अर्थ में इसका प्रयोग होता था, जिस अर्थ में आज हम उर्दू को जानते हैं। “इस नाम पर सरकारी सनद की बकायदा छाप उस समय लगी जब सन् 1803 में कलकत्ते के फोर्ट विलियम में, डॉक्टर जॉन गिलक्राइस्ट की देखरेख में, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के यूरोपियन कर्मचारियों को देशी भाषा सिखाने के लिए एक महकमा कायम किया गया और हिन्दू मुसलमान विद्वानों से उर्दू-हिन्दी में पुस्तकें लिखवाई गईं। हिन्दी लेखकों में पण्डित सदल मिश्र और पण्डित लल्लू जी लाल प्रमुख थे, और मुसलमानों में मीर ‘अम्मन’ देहलवी आदि थे। इन लेखकों को ऐसी भाषा तैयार करने के लिए नियुक्त किया गया था, जो सर्व-साधारण की भाषा हो, न मौलवियाना उर्दू-ए-मुअल्ला और न पण्डिताऊ संस्कृतनुमा हिन्दी।” ध्यान देने की बात है कि यहाँ भाषा ‘तैयार करने’ का निर्देश दिया गया था। गिलक्राइस्ट के इन प्रयासों से जो भाषा कॉलेज ने तैयार की वह थी हिन्दुस्तानी। जाहिर है कि एक तैयार की हुई भाषा में जिस तरह की कृत्रिमता हो सकती थी वह इस हिन्दुस्तानी में भी है।
हिन्दुस्तानी से गिलक्राइस्ट का तात्पर्य उस भाषा से था जिसके व्याकरण के सिद्धान्त, क्रिया-रूप आदि तो ‘हिन्दवी’ या ‘ब्रजभाषा’ के आधार पर स्थित थे, लेकिन जिसमें अरबी-फ़ारसी के संज्ञा-शब्दों का विशेष रूप से प्रयोग रहता था। यह भाषा केवल वे ही हिन्दू और मुसलमान बोलते थे, जो पढ़े-लिखे थे, और जिनका सम्बन्ध राजदरबारों तथा कचहरियों से था, या जो सरकारी नौकर और उच्च श्रेणी के थे। लिखने में फ़ारसी लिपि का प्रयोग किया जाता था। इसी भाषा को गिलक्राइस्ट ‘द ग्रैण्ड पॉपुलर स्पीच ऑफ हिन्दुस्तान’ कहते थे। द ओरिएण्टल लिंग्विस्ट की भूमिका में अरबी, फ़ारसी का हिन्दुस्तानी से सम्बन्ध बताने के लिए उन्होंने हिन्दुस्तानी भाषा का एक सूत्र भी दिया है : हिन्दवी + अरबी + फ़ारसी = हिन्दुस्तानी। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी का यह विकास उसी तरह का है जिस तरह से सैक्सन भाषा में लातीनी और फ्रांसीसी के मिलते चले जाने से अंग्रेजी का विकास हुआ।
गिलक्राइस्ट ने ‘हिन्दी’ के स्थान पर ‘हिन्दुस्तानी’ शब्द इसलिए पसन्द किया ताकि ‘हिन्दवी’ ‘हिन्दुई’ (जिनका ठेठ हिन्दी, ‘भाखा’ और ‘खड़ीबोली’ अर्थ में प्रयोग होता था) और ‘हिन्दी’ शब्दों से, जो बहुत-कुछ मिलते-जुलते हैं, कोई गड़बड़ी पैदा न हो सके। ‘हिन्दवी’ को वे केवल हिन्दुओं की भाषा मानते थे। मुसलमानी आक्रमण से पहले यही भाषा उत्तर भारत में प्रचलित थी, जो नागरी लिपि में लिखी जाती थी, जिसमें संस्कृत शब्दों का प्रयोग होता था, और जिसके आधार पर हिन्दुस्तानी का भवन खड़ा हुआ था।
- साहित्येतिहास लेखन में हिन्दी-उर्दू सम्बन्ध
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का पहला प्रयास फ्रेंच विद्वान गार्सां-द-तासी का ही समझा जाता है, उनहोंने धर्म के आधार पर हिंदी उर्दू का भेद किया। अपने ग्रन्थ में उन्होंने उर्दू के कवियों के साथ हिन्दी के कवियों का भी उल्लेख किया। इसके पश्चात् ग्रियर्सन ने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा। अपने ग्रन्थ की प्रस्तावना में ग्रियर्सन ने लिखा, “ध्यान देने की बात है कि मैं आधुनिक भाषा साहित्य का ही विवरण प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। अतः मैं संस्कृत में ग्रन्थ रचना करने वाले लेखकों का विवरण नहीं दे रहा हूँ, प्राकृत में लिखी पुस्तकों को भी विचार के बाहर रख रहा हूँ। भले ही प्राकृत कभी बोलचाल की भाषा रही हो, पर आधुनिक भाषा के अन्तर्गत नहीं आती। मैं न तो अरबी-फ़ारसी के भारतीय लेखकों का उल्लेख कर रहा हूँ, और न विदेश से लाई गई साहित्यिक उर्दू के लेखकों का ही और मैंने इस अन्तिम को, उर्दू वालों को, अपने इस विचार क्षेत्र से जान-बूझकर बहिष्कृत कर दिया, क्योंकि इन पर पहले ही गार्सां द तासी ने पूर्णरूप से विचार कर लिया है।”
इसके अलावा शिवसिंह सेंगर के शिवसिंह सरोज और मिश्रबन्धुओं के मिश्रबन्धुविनोद के रूप में हिन्दी साहित्य के इतिहासलेखन का प्रयत्न दिखाई पड़ता है। शिवसिंह सरोज में अहमद, आदिल, अलीमन, अनीस कादर, खान सुलतान, बाजीदा, जयकवि, चतुर सिंह जैसे कवियों को शिवसिंह ने शामिल किया है जिन्होंने भाषा भले ही उर्दू रखी, किन्तु उनके द्वारा जिन छन्दों का प्रयोग किया गया, वे हिन्दी के पारम्परिक छन्द थे। इससे जाहिर होता है कि शिवसिंह सेंगर की दृष्टि में हिन्दी-उर्दू का विभेद मूलतः छन्दों का ही है, शब्दों का नहीं। दूसरी तरफ मिश्रबन्धुओं की दृष्टि में हिन्दी का आदर्श रूप वह भाषा है जिसे राजा लक्ष्मण सिंह ने व्यवहृत किया था। मिश्रबन्धुओं ने लिखा है, “राजा लक्ष्मण सिंह ने ब्रजभाषा पद्य और खड़ी बोली गद्य के अनुवाद ग्रन्थ रचे। इन्होंने खिचड़ी हिन्दी (इससे इनका आशय हिन्दुस्तानी से है) को हटाकर विशुद्ध खड़ी बोली का मान बढ़ाया।”
यह ‘विशुद्ध खड़ी बोली’ मिश्रबन्धुओं की दृष्टि में उन्नत श्रेणी की हिन्दी अथवा साहित्यिक हिन्दी या कि वह हिन्दी जिसका प्रयोग तुलसी, देव और बिहारी ने किया है। इनके अनुसार “कुछ दिन खिचड़ी भाषा के व्यवहार का प्रश्न हिन्दी में रहा, जिसका तात्पर्य यह है कि उन्नत श्रेणी की हिन्दी एकदम लोप होकर केवल उर्दू-मिश्रित साधारण बोलचाल की भाषा रह जाए। विद्वानों और अपढ़ों की बोली में सदा ही सभी देशों में अन्तर रहता है, सो हम लोगों को यह कैसे पसन्द हो सकता है कि हमारे पढ़े-लिखे लोग भी तुलसी, देव और बिहारी की रचनाओं को समझें ही नहीं? भाषा सुगम अवश्य होनी चाहिए और बोलचाल में प्रचलित विदेशी एवं अन्य भाषाओं के शब्द उसमें जरूर रखने चाहिए, पर यह कदापि नहीं हो सकता कि हिन्दी साधु-भाषा को एकदम तिलांजलि दे दी जाए।”
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य का इतिहास में हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य के इतिहास के आपसी सम्बन्ध को बराबर ध्यान में रखा है। वास्तव में उन्होंने हिन्दी भाषा के स्वरूप पर विचार करते हुए ही हिन्दी शब्द सागर की भूमिका के रूप में हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा था। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी-उर्दू के बीच के विभेद को बढ़ावा देने की साम्राज्यवादी कोशिशों की आलोचना की है। शुक्ल जी की मान्यता है कि आधुनिक काल से पहले साहित्य की भाषा ब्रजभाषा और समुदाय के परस्पर व्यवहार की भाषा खड़ी बोली थी। उनका कहना है, “औरंगजेब के समय से फ़ारसी मिश्रित खड़ी बोली या रेख्ता में शायरी भी शुरू हो गई और उसका प्रचार फ़ारसी पढ़े-लिखे लोगों में बराबर बढ़ता गया। इस प्रकार खड़ी बोली को लेकर उर्दू साहित्य खड़ा हुआ, जिसमें आगे चलकर विदेशी भाषा के शब्दों का मेल भी बराबर बढ़ता गया और जिसका आदर्श भी विदेशी होता गया।”
आचार्य शुक्ल के अनुसार किसी भाषा का समझा जाना अधिकतर उसकी शब्दावली पर आधारित होता है। शब्दावली की भिन्नता को शुक्ल जी उर्दू और हिन्दी के साहित्य के अलग होने का एक बड़ा कारण मानते हैं। उर्दू से अरबी-फ़ारसी शब्दों को निकाल देने से आधुनिक हिन्दी के विकास वाले ग्रियर्सन आदि के तर्क से शुक्ल जी सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा “कुछ लोगों का यह समझना कि मुसलमानों के द्वारा ही खड़ी बोली अस्तित्व में आई और उसका मूल रूप उर्दू है, जिससे आधुनिक हिन्दी गद्य की भाषा अरबी-फ़ारसी शब्दों को निकालकर गढ़ ली गई, शुद्ध भ्रम या अज्ञान है।” इस अज्ञान का कारण शुक्ल जी ने यह बताया है कि साहित्य की भाषा चूँकि अब तक ब्रजभाषा ही बनी रही इसलिए खड़ी बोली को खड़े होने का अवसर नहीं मिला। पर किसी भाषा का साहित्य में व्यवहार नहीं होना शुक्ल जी के अनुसार इस बात का प्रमाण नहीं है कि उस भाषा का अस्तित्व ही नहीं था। शुक्ल जी के अनुसार जिस समय अंग्रेजी राज भारत में प्रतिष्ठित हुआ उस समय सारे उत्तर भारत में खड़ी बोली व्यवहार की शिष्ट भाषा हो गई थी। उनके अनुसार यह और बात है कि इस खड़ी बोली का रूप-रंग मुसलमानों ने उसमें विदेशी भावों का भण्डार भरकर बदला और तब वह एक प्रकार की कृत्रिम भाषा हो गई जिसका प्रयोग मौलवी, मुंशी आदि फ़ारसी तालीम पाए हुए लोग ही करते थे। इस प्रकार से शुक्ल जी के अनुसार अंग्रेजों को “शिष्ट समाज के बीच दो ढंग की भाषाएँ चलती मिलीं। एक तो खड़ी बोली का सामान्य देशी रूप, दूसरा वह दरबारी रूप जो मुसलमानों ने उसे दिया था और उर्दू कहलाने लगा था।”
शुक्ल जी के अनुसार असली हिन्दी का नमूना वही है, जिसे राजा लक्ष्मण सिंह ने रघुवंश के अपने गद्यानुवाद में रखा है। शुक्ल जी कहते हैं कि यह भाषा ठेठ और सरल होते हुए भी साहित्य में चिरकाल से व्यवहृत संस्कृत के कुछ रसिक शब्द लिए हुए है। इसी तरह की परम्परागत हिन्दी भाषा की सेवा करने के लिए शुक्ल जी ने फ्रेडरिक पिनकॉट की प्रशंसा और हिन्दी के पक्ष में बोलने वालों का उपहास करने के लिए गार्सा द तासी की तीखी आलोचना की है।
शुक्ल जी के अनुसार हिन्दी भाषा का निखरा हुआ और सामान्य रूप वह है, जिसका प्रयोग भारतेन्दु ने किया है। इसमें न तो सदासुखलाल का पण्डिताऊपन है, न ही लल्लूलाल का ब्रजभाषापन, न तो सदल मिश्र का पूरबीपन और न ही राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन। इन सब तरह के ‘पनों’ से मुक्त होकर ही भारतेन्दु की भाषा में सफाई आई थी। शुक्ल जी के अनुसार “हरिश्चन्द्रकाल के सब लेखकों में अपनी भाषा की प्रकृति की पूरी परख थी। संस्कृत के ऐसे शब्दों और रूपों का व्यवहार वे करते थे जो शिष्ट समाज के बीच प्रचलित चले आते थे। जिन शब्दों या उनके जिन रूपों से केवल संस्कृतभाषी ही परिचित होते हैं और जो भाषा प्रवाह के साथ ठीक चलते नहीं, उनका प्रयोग वे बहुत औचट में पड़कर ही करते हैं।”
शुक्ल जी द्वारा भाषा में इस प्रकार से विदेशी रूप-रंग भरने की अस्वाभाविक कोशिशों का विरोध करने के पीछे एक सुचिन्तित दृष्टिकोण था। उनका कहना था, “किसी देश के साहित्य का सम्बन्ध उस देश की संस्कृति परम्परा से होता है। अतः साहित्य की भाषा उस संस्कृति का परित्याग करके नहीं चल सकती। भाषा में जो रोचकता या शब्दों में जो सौन्दर्य का भाव रहता है वह देश की प्रकृति के अनुसार होता है। इस प्रवृत्ति के निर्माण में जिस प्रकार देश के प्राकृतिक रूप-रंग, आचार-व्यवहार आदि का योग रहता है उसी प्रकार परम्परा से चले आते हुए साहित्य का भी। संस्कृत शब्दों में थोड़े-बहुत मेल से भाषा का जो रुचिकर रूप हजारों वर्षों से चला आता था, उसके स्थान पर एक विदेशी रूप-रंग की भाषा गले में उतारना देश की प्रकृति के विरुद्ध था ।” अपने इतिहास में शुक्ल जी ने उर्दू के साहित्य को जगह नहीं दी है, उसके पीछे का यह सैद्धान्तिक आधार है।
शुक्ल जी के बाद के साहित्येतिहास लेखकों ने प्रायः शुक्ल जी की ही मान्यताओं का अनुकरण किया है। यद्यपि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास में लिखा, “कुछ हिन्दी इतिहासकार विद्वानों का विश्वास है कि सर जान गिलक्राइस्ट हिन्दी को उर्दू से भिन्न स्वतन्त्र और शिष्ट भाषा मानते थे, परन्तु यह भ्रम ही है। वे उर्दू को ही शिष्ट भाषा समझते थे। हिन्दुई या हिन्दवी को इस भाषा की आधारभूत भाषा मानने के कारण ही वे इस ‘गँवारू’ भाषा की पढ़ाई की व्यवस्था के लिए चिन्तित हुए थे, इसे शिष्ट भाषा समझकर नहीं।” द्विवेदी जी के अनुसार “हिन्दी-प्रचार-आन्दोलन का प्रधान लक्ष्य नागरी लिपि का प्रचार और भाव और भाषा को भारतीय रूप देना था।” स्पष्ट है कि द्विवेदी जी की दृष्टि में हिन्दी-उर्दू का विभेद केवल लिपि के धरातल पर ही नहीं, बल्कि भाव एवं भाषा के धरातल पर भी है। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य के अपने विभिन्न इतिहास ग्रन्थों में द्विवेदी जी ने उर्दू के साहित्य को शामिल नहीं किया है।
रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अपने हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास में यह माना, “और इतने पर भी कुछ बात है कि इन सारी बोलियों के समूह और संश्लेष को पहले भी ‘हिन्दी’, ‘हिन्दवी’, ‘हिन्दुई’ कहा जाता था, और आज भी ‘हिन्दी’ कहा जाता है। कबीर और मुल्ला वजही, जायसी और तुलसी, सूर और मीराबाई, भारतेन्दु, मैथिलीशरण गुप्त, निराला और अज्ञेय समान रूप से और सम भाव से हिन्दी के कवि हैं। इनकी रचनाओं का इतिहास हिन्दी संवेदना का इतिहास है।” यद्यपि चतुर्वेदी जी की धारणा है कि संवेदना के धरातल पर हिन्दी और उर्दू एक होते हुए भी काव्यभाषा के धरातल पर आकर अलग हो जाते हैं। उनका मानना है कि उर्दू, जो बोल-चाल में खड़ी बोली का ही एक रूप है, हिन्दी काव्यभाषा से अलग हो जाती है। चतुर्वेदी जी के अनुसार यह अलगाव साम्प्रदायिक धरातल पर कभी नहीं रहा। अलगाव का यदि कोई आधार रहा तो यह कि उर्दू दरबार से जुड़ी रही– यद्यपि बाजार से भी उसका सम्बन्ध बराबर बना रहा– और हिन्दी विविध बोलियों के रूप में जनसाधारण में प्रयुक्त होती रही। चतुर्वेदी जी के अनुसार “हिन्दी-उर्दू में अन्तर बोलचाल के स्तर पर नहीं है। अन्तर साहित्य के स्तर पर है। कुछ तो भिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से, कुछ छन्द-विधान को लेकर, पर अधिकतर काव्यभाषा की प्रयोग-विधि में अन्तर के कारण। …उर्दू ने वर्णिक या मात्रिक, भारतीय परम्परा के किसी छन्द-विधान को स्वीकार नहीं किया।… उर्दू काव्यभाषा में अर्थ-क्षमता बोलचाल के मुहावरे से उपजती है, न कि कवियों द्वारा विकसित विशिष्ट बिम्ब-विधान से।” चतुर्वेदी जी के अनुसार “यों उर्दू, जो बोलचाल के स्तर पर आधुनिक परिनिष्ठित हिन्दी के सबसे निकट है, काव्यभाषा के स्तर पर साफगोई और मुहाविरे से परिचालित होने के कारण हिन्दी की संश्लिष्ट और द्वन्द्वात्मक अर्थ-प्रक्रिया से दूर पड़ जाती है। …यही कारण है कि मीर और ग़ालिब आधुनिक परिनिष्ठित हिन्दी की दृष्टि से अधिक बोधगम्य भाषा का प्रयोग करने के बावजूद हिन्दी के कवि नहीं कहे जा सकते।”
नागरी प्रचारिणी सभा के हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास (16 खंडों में) , भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग के हिन्दी साहित्य तथा डॉ. नगेन्द्र सम्पादित हिन्दी साहित्य का इतिहास जैसे सामूहिक तौर पर लिखे गए इतिहास ग्रन्थों में हिन्दी साहित्य के इतिहास की चर्चा के प्रसंग में उर्दू की चर्चा से बचने का प्रयत्न नहीं किया गया है।
- निष्कर्ष
जिस भाषा को आज हम उर्दू कह रहे हैं, वह हिन्दी से एकदम अलग नहीं रही है, भाषा के नज़रिए से भी और साहित्य के नज़रिए से भी। उर्दू के आरम्भिक कवियों ने अपनी भाषा को हिन्दवी कहकर ही पुकारा है। बाद के दौर में विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में पहले तो जनसामान्य की भाषा के रूप में ब्रजभाषा का स्थान खड़ी बोली ने लिया और फिर इस खड़ी बोली में अरबी-फ़ारसी शब्दावली के बढ़ते जाने से उर्दू का विकास हुआ। यही कारण है इन दोनों ही भाषाओं की साहित्यिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि एक-सी रही है। साहित्य का इतिहास चूँकि एक साथ भाषा, समाज, संस्कृति का भी इतिहास होता है, इसीलिए बहुत दूर तक हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी हिन्दी-उर्दू की इस सामान्य भूमि का प्रभाव देखा जाता है। जिस तरह हिन्दी के रीतिकालीन कवियों जैसे बिहारीलाल और घनानन्द को बिना फ़ारसी शायरी के ज्ञान के ठीक से नहीं समझा जा सकता उसी तरह से हिन्दी साहित्य की पुरानी और आधुनिक परम्परा को भी उर्दू के बिना नहीं समझा जा सकता। हिन्दी साहित्य का इतिहास उर्दू के बिना सम्भव नहीं है। यह और बात है साम्राज्यवाद के दौर में उनकी नीतियाँ और बाद में उन नीतियों के परिणामस्वरूप विकसित साम्प्रदायिक आधार पर भाषा को देखने की हमारी दृष्टि की वजह से हिन्दी साहित्य के इतिहासों में इस प्रश्न पर मतभेद लगातार बना रहा है।
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