27 हिन्दी निबन्ध का विकास
डॉ. समीक्षा ठाकुर
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन करने के उपरान्त आप –
- हिन्दी निबन्ध के इतिहास की रूपरेखा समझ सकेंगे।
- हिन्दी निबन्ध के आरम्भिक निबन्धकारों – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान समझ सकेंगे।
- निबन्ध के क्षेत्र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की निबन्धों का मूल्यांकन कर पाएँगे।
- हिन्दी निबन्ध के इतिहास में ललित निबन्ध तथा व्यंग्यात्मक निबन्ध की भूमिका जान पाएँगे।
- प्रस्तावना
स्वतन्त्र एवं प्रतिष्ठित साहित्यिक विधा के रूप में ‘निबन्ध’ साहित्य का उदय हिन्दी के आधुनिक युग की देन है। आधुनिक काल में देश में राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों में हलचल, मुद्रण के अभूतपूर्व प्रयोग और पत्र-पत्रिकाओं के व्यापक प्रचार-प्रसार की स्थिति बनी। इनके बीच भारतेन्दु मण्डल के लेखकों ने पहली बार हिन्दी में निबन्ध विधा का प्रयोग किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने निबन्ध को गम्भीर तथा सुविचारित स्वरूप प्रदान किया, तो आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने ललित निबन्धों के द्वारा इस विधा को नई ऊँचाई दी। आज निबन्ध का दायरा इतना व्यापक हो गया कि ज्ञान विज्ञान के कई रूप इसके भीतर समाहित हैं।
- भारतेन्दु मण्डल
कभी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने निबन्ध का महत्त्व रेखांकित करते हुए कहा था – “यदि गद्य कवियों और लेखकों की कसौटी है तो निबन्ध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबन्धों में ही सबसे अधिक सम्भव होता है।” तथ्य है कि हिन्दी में खड़ी बोली गद्य का निखार निबन्धों के ही माध्यम से हुआ। अंग्रेजी में जिसे ‘एसे’ कहते हैं, उस अर्थ में ‘निबन्ध’ विधा का आरम्भ भारतेन्दु से ही हुआ। भारतेन्दु (सन् 1850-1885) की प्रतिभा सर्वतोन्मुखी थी। वे मुख्यतः नाटककार थे, किन्तु समाज-सुधार, धर्म, राजनीति, देश-प्रेम, अध्यात्म, अतीत गौरव, आर्थिक दुर्दशा जैसे विषयों पर लिखकर उन्होंने निबन्ध को एक स्वतन्त्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया। स्वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन,
इंग्लैण्ड और भारतवर्ष, हम मूर्तिपूजक हैं, भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती हैं, कंकड़ स्तोत्र आदि निबन्ध भारतेन्दु की निबन्ध-कला की विविधता के द्योतक हैं।
भारतेन्दु मण्डल के दो प्रमुख निबन्धकार है – बालकृष्ण भटट् (सन् 1845-1915) और प्रताप नारायण मिश्र (सन् 1854- 1894)। आचार्य शुक्ल के शब्दों में ‘इन दोनों ने हिन्दी गद्य साहित्य में वही कार्य किया, जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया था।’ इस मण्डल में सबसे समर्थ निबन्धकार बालकृष्ण भट्ट थे। अपनी पत्रिका हिन्दी प्रदीप के माध्यम से उन्होंने विविध विषयों पर निबन्ध लिखे। उनकी भाषा अधिकतर वैसी होती थी, जैसी खरी-खरी सुनाने के काम में लाई जाती है। जहाँ एक ओर उन्होंने सामाजिक समस्याओं पर बाल विवाह, स्त्रियाँ और उनकी शिक्षा, राजा और प्रजा, कृषकों की दुरवस्था, महिला स्वातन्त्र्य आदि का विवेचन किया, वहीं दूसरी ओर आँख, कान, नाक जैसे विषयों को भी अपने निबन्ध का विषय बनाया। भट्ट जी की गम्भीर प्रकृति का परिचय उनके कल्पना और आत्मनिर्भरता शीर्षक निबन्धों में मिलता है। मुहावरेदार भाषा उनके निबन्धों की विशेषता है।
प्रताप नारायण मिश्र अपनी मनमौजी प्रकृति और विनोदप्रियता के लिए जाने जाते हैं। इसलिए उनकी व्यंग्यपूर्ण वक्रता का परिचय उनके निबन्धों में मिलता है। अपना ब्राह्मण पत्र उन्होंने विविध विषयों पर निबन्ध लिखने के लिए निकाला था। घूरे का लत्ता बीनै, कनातन कडौल बाँधै, समझदार की मौत, बात, आप, मनोयोग, भौ जैसे शीर्षकों से ही उनके निबन्धों के विषय और शैली का अन्दाजा लगाया जा सकता है। आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि “भारतेन्दु युग के निबन्धों में प्रत्येक लेखक के व्यक्तित्व की गहरी छाप मिलती है और सजीवता या जिन्दादिली इस युग के लेखकों का सामान्य गुण है।” निबन्ध वस्तुत; उन्नीसवीं शताब्दी के हिन्दी साहित्य की मुख्य विधा है।
- द्विवेदी युग
महावीर प्रसाद द्विवेदी (सन् 1864-1938) ने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से हिन्दी गद्य के परिष्कार के साथ ही निबन्ध के विषय विस्तार और शैली विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया। द्विवेदी जी ने बेकन विचार रचनावली नाम से बेकन के निबन्धों का अनुवाद करके निबन्ध को गम्भीरता की ओर उन्मुख किया। स्वयं द्विवेदी जी के निबन्धों की संख्या लगभग तीन सौ है। आचार्य शुक्ल ने इन निबन्धों को बातों का संग्रह कहा है। निश्चय ही इन निबन्धों में विचार की वैसी गहराई नहीं मिलती, पर ‘साफगोई’ उनकी बड़ी विशेषता है। द्विवेदी जी के निबन्धों में जोर विश्लेषण पर नहीं, संग्रह पर है, लेकिन उनमें आदि से अन्त तक एक व्यवस्था मिलती है। जैसे उनके भाषा, व्याकरण भाषा की बात, उत्तरी ध्रुव की यात्रा, साहित्य की महत्ता आदि निबन्ध काफी चर्चित हुए।
महावीर प्रसाद द्विवेदी के समकालीन होते हुए भी बालमुकुन्द गुप्त (सन् 1865-1907) भारतेन्दु युग की याद दिलाने वाले निबन्धकार हैं। जिनके लिखे शिवशम्भू के चिट्ठे अपनी व्यंग्यात्मक शैली, मुहावरेदार भाषा और तीखे राजनीतिक विचारों के लिए हिन्दी निबन्ध के इतिहास में अमर हैं। ये चिट्ठे उन्होंने अपने पत्र भारत मि़त्र (सन् 1904-1905) में प्रकाशित किए, जो तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड कर्जन को सम्बोधित करके लिखे गए थे। बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, बालमुकुन्द गुप्त के अखबार को भाषा गढ़ने की टकसाल कहते थे। उस टकसाल का कोई सिक्का गुप्त जी की छाप के बिना नहीं निकलता था।
इस युग के सबसे महत्त्वपूर्ण निबन्धकार हैं, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी (सन् 1883-1920)। गुलेरी जी के निबन्धों की संख्या कम है, किन्तु प्रत्येक निबन्ध वाग्वैदग्ध और प्रसंग गर्भत्व के लिए बेजोड़ हैं। मारेसि मोहि कुठाँव, कछुवा धर्म, घण्टाघर, धर्मसंकट, अप्रैल फूल, होली की ठिठोली आदि निबन्धों के द्वारा उन्होंने हिन्दी में ललित निबन्धों की परम्परा आरम्भ की। इसके अतरिक्त गुलेरी जी ने मनोवैज्ञानिक आधार पर हिन्दी भाषा के स्रोतों का अध्ययन पुरानी हिन्दी के निबन्धों में प्रस्तुत किया। यही नहीं, उन्होंने वैदिक, औपनिषदिक तथा पौराणिक आख्यानों का भाषिक अध्ययन निबन्धों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उदाहरणस्वरूप; महर्षि च्यवन का रामायण, देवकुल, मनु वैवस्वत, शुनः शेप की कहानी का नाम लिया जा सकता है। गुलेरी जी के निबन्ध अपने सरस पाण्डित्य और मधुर व्यंग्य के लिए आज भी पठनीय बने हुए है।
सरदार पूर्ण सिंह (सन् 1889-1931) ने भी गुलेरी जी के समान ही बहुत कम निबन्ध लिखे, पर वे अपनी विलक्षण भाषा शैली के कारण हिन्दी निबन्ध साहित्य में अप्रतिम माने जाते है। सच्ची वीरता, आचरण की सभ्यता, मजदूरी और प्रेम, पवित्रता, कन्यादान, अमेरिका का मस्त योगी व्हाट ह्विटमैन शीर्षक निबन्ध सहज भावोच्छवास तथा लाक्षणिक भाषा प्रयोगों के द्वारा एक नई शैली का सूत्रपात करते हैं। पूर्ण सिंह के निबन्धों में ह्विटमैन और रामतीर्थ की मस्ती का मिला-जुला रूप मिलता है। बाबू गुलाब राय इसी परम्परा के लेखक हैं। उन्होंने कर्तव्य सम्बन्धी, निदान और चिकित्सा, समाज और कर्तव्य पालन, फिर निराशा क्यों आदि कई विषयों पर विचारात्मक और भावात्मक निबन्ध लिखे।
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और उनके समकालीन
विचार गाम्भीर्य और भाषिक प्रौढ़ता की दृष्टि से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (सन् 1884-1941) के निबन्ध संग्रह चिन्तामणि भाग – 1, 2, 3 हिन्दी निबन्ध का सुमेरु है। भावों और मनोविकारों पर भारतेन्दु मण्डल के लेखकों ने भी लिखा है। आचार्य शुक्ल ने भी लोभ और प्रीति, श्रद्वा और भक्ति, उत्साह, करुणा, लज्जा और ग्लानि, क्रोध, घृणा, ईष्या, भय जैसे निबन्धों में भाव और मनोविकारों पर प्रकाश डाला है, लेकिन दोनों के साहित्यिक स्तर में फर्क है। शुक्ल जी के निबन्धों की परिपक्वता दर्शाती है कि कुछ वर्षो में ही हिन्दी निबन्ध ने विकास यात्रा का अगला पड़ाव पार कर लिया। शुक्ल जी ने इन निबन्धों को अपनी अन्तर्यात्रा के प्रदेश कहा। यह यात्रा ‘बुद्वि पर हृदय को साथ लेकर जारी रही’। इन निबन्धों में प्रधानता विषय की है, पर सर्वत्र निबन्धकार के व्यक्तित्व की गहरी छाप भी है। इसलिए इनमें गम्भीरता के बीच कही-कहीं व्यंग्य विनोद का सुखद स्पर्श भी मिलता है। विचारात्मकता, भाव प्रवणता एवं व्यंग्य प्रियता शुक्ल जी के निबन्ध शैली की विशेषताएँ हैं। तत्वान्वेषिणी प्रज्ञा, स्वाभिमान, देश-प्रेम, प्रकृति-प्रेम, सूक्ष्म सौन्दर्य चेतना, लोकमंगल की भावना, सख्त पसन्द-नापसन्द उनके व्यक्तित्व और गद्य शैली के घटक हैं। वे एक अच्छे विचारक ही नहीं, सहृदय रचनाकार भी हैं। उनकी भाषा रचनात्मक सजीवता, मूर्तिमत्ता, व्यंजकता से युक्त है। लोभ और प्रीति के इस उद्वरण से ऐसे ही सहृदय रचनाकार का व्यक्तित्व मूर्तिमान होता है – “रसखान तो किसी की ‘लकुटी अरु कमरिया’ पर तीनों पुरों का राजसिंहासन त्यागने को तैयार थे, पर देश प्रेम की दुहाई देने वालों में से कितने अपने थके-माँदे भाई के फटे-पुराने कपडों और धूल भरे पैरों पर रीझ कर या कम-से-कम न खीझ कर, बिना मन मैला किए कमरे की फर्श भी मैली होने देंगे? मोटे आदमियो! तुम जरा दुबले हो जाते, अपने अन्देशों से सही, तो न जाने कितनी ठठरियों पर माँस चढ़ जाता!”
महाराज कुमार रघुवीर सिंह ने शेष स्मृतियाँ में भावात्मक शैली में मुगलों के वैभव-पराभव का अद्भुत चित्रण किया है। शिवपूजन सहाय, पाण्डे बेचन शर्मा ‘उग्र’ और निराला ‘मतवाला मण्डल’ के लेखक जाने जाते थे। शिवपूजन सहाय का कुछ, उग्र के व्यक्तिगत, बुढ़ापा, निराला के प्रबन्ध-प्रतिमा, चाबुक, चयन, रवीन्द्र कविता-कानन तथा जयशंकर प्रसाद का काव्य कला तथा अन्य निबन्ध आदि निबन्ध इस युग के उत्कृष्ट कोटि के निबन्ध के उदाहरण हैं। इन निबन्धों में इस काल के लेखकों की निबन्ध कला का सुन्दर परिपाक हुआ है।
- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और उनके समकालीन
स्वातन्त्र्योत्तर भारत के सर्वश्रेष्ठ निबन्धकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी (सन् 1907-1979) हैं। ललित निबन्ध का सर्वोत्कृष्ट रूप द्विवेदी जी के निबन्धों में ही दिखाई पड़ता है। इनके निबन्धों में पाण्डित्य का बहुत सहज रूप दिखाई देता है। वे इतिहास, पुराण और साहित्य के गम्भीर विषयों पर लिखते रहे। उन विषयों को वे अपनी यायावरी कल्पना, अप्रासंगिक प्रासंगिकताओं, विषयान्तर, शब्दों और वाक्यों की काव्यमय अनुगूँज और लोकोक्तियों के मार्मिक प्रयोग से अनूठा बना देते थे। इसीलिए उनके निबन्धों में अध्ययन और सर्जन, पाण्डित्य और प्रतिभा, बौद्विकता और हार्दिकता, शास्त्र और लोक का ऐसा संयोग हिन्दी में दुर्लभ है। द्विवेदी जी के निबन्ध संग्रह हैं – अशोक के फूल (सन् 1948), ‘विचार और वितर्क’, ‘कल्पलता’, ‘विचार प्रवाह और कुटज’ आदि। उनके यहाँ वृक्ष और फूल भारतीय सांस्कृतिक सन्दर्भ के रूप में प्रस्तुत हैं।
अशोक के फूल, शिरीष के फूल, आम फिर बौरा गए हैं, कुटज, देवदारु जैसे ललित निबन्धों द्वारा द्विवेदी जी ने हिन्दी निबन्ध को एक नया सांस्कृतिक आयाम प्रदान किया है। इन निबन्धों में द्विवेदी जी ने संस्कृति के किसी-न-किसी एक पक्ष का विवेचन किया है, अथवा अपने व्यक्तित्व की झलक दिखाई है। देवदारु निबन्ध का यह अन्तिम वाक्य “हजारों वर्षों के उतार-चढाव का ऐसा निर्मम साथी दुर्लभ है।” इस बात का साक्षी है। उनके निबन्धों में एक ओर संस्कृत की तत्सम शब्दावली से संपृक्त उदात्त भाषा शैली है, तो दूसरी ओर ठेठ देशज और तद्भव शब्दों से सजी हुई यथार्थ की वर्णन शैली। कुटज निबन्ध का उद्वरण “कुटज क्या केवल जी रहा है ? वह दूसरों के द्वार पर भीख माँगने नही जाता; अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता, आत्मोन्नित के हेतु नीलम नहीं धारण करता, दाँत नहीं निपोरता, जीता है और शान से जीता है।” उदाहरणस्वरूप देखा जा सकता है। द्विवेदी जी ने ललित निबन्धों के अलावा विचारपरक, शोधपरक और समीक्षात्मक निबन्ध भी लिखे हैं, जो उनकी विद्वता और सहृदयता के साथ गुलेरी जी के निबन्ध परम्परा की अगली कड़ी जान पडते हैं।
इस काल के अन्य निबन्धकारों में सियाराम शरण गुप्त (झूठ सच), पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी (अतीत स्मृति, उत्सव), ‘रामलाल पण्डित’, शान्तिप्रिय द्विवेदी (कवि और काव्य साहित्यिकी), प्रभाकर माचवे (खरगोश के सींग) आदि उल्लेखनीय हैं।
भारतीय स्त्री की मुक्ति को आधार बना कर लिखे गए निबन्धों में महादेवी वर्मा के निबन्ध संग्रह – शृंखला की कडियाँ (सन् 1942), उनके विचारात्मक गद्य संग्रह साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जैनेन्द्र कुमार ने अपने निबन्ध संग्रह जड़ की बात, हित्य का श्रेय और प्रेय, सोच विचार, मन्थन, ये और वे, इतस्ततः आदि में राजनीति, दर्शन, धर्म, साहित्य, प्रेम जैसे विषयों पर अपने चिन्तन की छाप छोड़ी है। रामधारी सिंह दिनकर ने अपने निबन्ध संग्रह मिट्टी की ओर, अर्द्धनारीश्वर, हमारी सांस्कृतिक एकता, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता और आधुनिकता बोध आदि में ओजस्वी भाषा में अपनी विचारशीलता को व्यक्त किया है। कवि-कथाकार अज्ञेय के ‘कुट्टिचातन’ उपनाम से लिखे गए निबन्धों का संग्रह सबरंग (सन् 1956) है। इसके अतरिक्त उनके आत्मनेपद, लिखि कागद कोरे, भवन्ती, युग सन्धियों पर आदि निबन्ध संग्रहों में भाषा, संस्कृति, साहित्य परम्परा, आधुनिकता, भारतीयता और धर्मनिरपेक्षता आदि विषयों पर गहन विचार व्यक्त हुए है। अन्य निबन्धकारों में रामवृक्ष बेनीपुरी ने गेहूँ और गुलाब (सन् 1950) और भदन्त आनन्द कौशल्यायन ने जो भूल न सका में सामाजिक विषमता और उत्पीड़न के विषय पर प्रभावशाली तर्क प्रस्तुत किए हैं। वासुदेव शरण अग्रवाल ने पृथ्वी पुत्र और कला और संस्कृति में तथा भागवत शरण उपाध्याय ने ठण्डा आम और सांस्कृतिक निबन्ध द्वारा इतिहास तथा संस्कृति के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित किया।
उत्तरशती के निबन्धकारों में हरिशंकर परसाई ने अपनी व्यंग्यात्मक शैली के माध्यम से अपनी अलग पहचान बनाई। उन्होंने अपने व्यंग्यात्मक निबन्धों सदाचार का ताबीज (1967) शिकायत मुझे भी है (1970) तब की बात और थी, विकलांग श्रद्वा का दौर, वैष्णव की फिसलन, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, बोलती रेखाएँ, तिरछी रेखाएँ, सुनो भाई साधौ, तुलसीदास चन्दन घिसे, हँसते है रोते है तथा पाखंड का ध्यात्म आदि के द्वारा समसामयिक राजनीतिक-सामाजिक विषयों पर व्यंग्य किया। उनके व्यंग्य की धार को हम विकलांग श्रद्वा का दौर की इन पंक्तियों में देख सकते हैं ” श्रद्वेय बन जाने की इस हल्की इच्छा के साथ ही मेरा डर बरकरार है। श्रद्वेय बनने का मतलब है ‘नान परसन’ ’अव्यक्ति’ हो जाना। श्रद्वेय वह है जो चीजों को हो जाने दे। किसी चीज का विरोध न करें। “परसाई जी की परम्परा में श्रीलाल शुक्ल ने ऐसी मौलिक व्यंग्यभाषा निर्मित की जिसमें हास्य और व्यंग्य दोनों का पुट है। उनके निबन्ध संग्रह – अंगद का पाँव (सन् 1958), यहाँ से वहाँ (सन् 1970) कुछ जमीन पर कुछ हवा में, आओं बैठ ले कुछ देर आदि में समाज की मूल्यहीनता पर व्यंग्य किया गया है। आगे चलकर शरद जोशी ने भी अनेक व्यंग्यात्मक निबन्धों की रचना की।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की परम्परा में ललित निबन्ध लिखने वालों में विद्यानिवास मिश्र, शिवप्रसाद सिंह तथा कुबेरनाथ राय प्रमुख हैं। कुबेरनाथ राय ने प्रिया नीलकण्ठी (सन् 1968), रस आखेटक, वाणी का क्षीर सागर, अंधकार में अग्निशिखा तथा आराम की नाव में भारतीय संस्कृति पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। शिवप्रसाद सिंह ने शिखरों के सेतु (सन् 1962) कस्तूरी मृग, किस-किस का नमन करूँ, कहूँ कुछ कहा न जाय आदि निबन्ध संग्रहों में मानवीय मूल्यों पर अपनी चिताएँ की। विवेकी राय के निबन्ध संग्रह किसान और गाँव पर केन्द्रित हैं, तो धर्मवीर भारती के निबन्धों में विविधता दिखाई देती है। एक ओर ठेले पर हिमालय में हास्य व्यंग्य की झलक दिखाई देती है, तो दूसरी ओर पश्यन्ती (सन् 1969), कहनी-अकहनी, कुछ चेहरे कुछ चिन्तन तथा शाब्दिता से उनकी भावप्रवण शैली का प्रमाण मिलता है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद ललित निबन्धों में पं. विद्यानिवास मिश्र ने सर्वाधिक ख्याति प्राप्त की। उनके लगभग दो दर्जन निबन्ध संग्रहों में प्रमुख हैं – छितवन की छाँह (सन् 1953), मेरे राम का मुकुट भींज रहा है, शेफाली झर रही हैं सोऽहम्, भारतीय चिन्तनधारा, शिरीष की याद आई, थोडी सी जगह दे, कितने मोरचे, बसन्त आ गया है पर कोई उत्कंठा नही, कँटीले तारों के आर पार आदि में इन संग्रहों भारतीय संस्कृति और मिट्टी की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। भारतीय परम्परा में अटूट आस्था उनके निबन्धों की पहचान है। उनके अनुसार – “हिन्दू धर्म पोथी धर्म नहीं है, पण्डित धर्म भी नहीं है, वह लोक द्वारा जीवित धर्म है, किसी की दुखती रग को छुए बिना आनन्द की समरसता लाना ही उसका बड़ा पुरुषार्थ है।”
बौद्विक और वैचारिक निबन्धकारों में सबसे समर्थ निबन्धकार गजानन माधव मुक्तिबोध हैं। मुक्तिबोध के निबन्ध संग्रहों में नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबन्ध, नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, एक साहित्यक की डायरी तथा समीक्षा की समस्याएँ प्रमुख हैं। मुक्तिबोध के ये निबन्ध वैचारिक और कलात्मक प्रौढ़ता के परिचायक हैं। विजयदेव नारायण साही ने लघुमानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस (सन् 1960-61) के द्वारा अपनी ओर ध्यान आकर्षित किया। डॉ. रामविलास शर्मा के निबन्ध संग्रह विराम चिह्न में श्री गणेश, लक्ष्मी पूजा, नामकरण, छोटी बहू, धूल, अतिथि जैसे ललित निबन्ध शामिल हैं। वे स्वयं इसकी भूमिका में लिखते हैं – “यह बात दूसरी है कि मेरा कोई भी निबन्ध संग्रह अच्छा न बन पड़ा हो, किन्तु उनमें अन्धों में काने राजा के समान ही सही, यह विराम चिह्न सर्वोपरि है।” इसके अलावा उन्होंने कई वैचारिक व साहित्यिक निबन्ध भी लिखे हैं।
प्रसिद्ध कथाकार निर्मल वर्मा ने निबन्धों की एक नई शैली विकसित की। निर्मल वर्मा ने यात्रा वृतान्त तथा संस्मरणों को निबन्ध का विषय बनाया। अपने प्रारम्भिक निबन्धों में वे पश्चिमी साहित्य और चिन्तन से प्रभावित दिखते हैं, जबकि बाद में वे भारतीय चिन्तन परम्परा तथा परम्परागत रूढ़ियों के प्रति आकृष्ट दिखाई देते हैं। चीड़ो पर चाँदनी (1964), हर बारिश में, शब्द और स्मृति, कला का जोखिम, ढलान से उतरते हुए, भारत और यूरोप, प्रतिश्रुति के क्षेत्र तथा आदि अन्त और आरम्भ में उन्होंने निबन्ध को धर्म, संस्कृति, इतिहास, समाज-परिवेश से जोड़ने का प्रयास किया है। निर्मल वर्मा जादुई भाषा के लिए जाने जाते हैं।
आज निबन्ध के स्वरूप में परिवर्तन दिखाई देता है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों पर ‘स्तम्भ’ लिखे जाने लगे हैं, जिसके लिए शब्द संख्या और स्थान सीमित हैं। इसलिए अब निबन्धकार की जगह ‘स्तम्भकार’ शब्द प्रचलन में है। आज के निबन्धकारों में कुँवरनारायण, नन्दकिशोर आचार्य, रमेशचन्द्र शाह, अशोक बाजपेयी, विश्वनाथ त्रिपाठी, चन्द्रकान्त वान्दिवडेकर, प्रभाकर श्रोत्रिय, विजय मोहन सिंह, ज्ञान चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं।
- निष्कर्ष
कुल मिलाकर, अपनी एक शताब्दी से भी अधिक की विकास यात्रा में हिन्दी निबन्ध ने अपनी समृद्ध परम्परा में अनेक महत्त्वपूर्ण लेखकों की रचनाएँ प्रस्तुत कीं। आज निबन्ध विधा इतनी व्यापक और विस्तृत हो गई है कि इसके अन्तर्गत इतिहास, समाजशास्त्र, धर्म, समाज, सम्प्रदाय, रंगमंच, सिनेमा, चित्रकला विषय भी समाहित हो गए हैं। इस दिशा में निबन्ध ने काफी विकास किया है। विचारात्मक, भावात्मक, ललित निबन्ध तथा व्यंग्यात्मक निबन्ध इसमें प्रमुख हैं, किन्तु इतने विकास के बावजूद आजकल प्रायः निबन्ध कहने से व्यक्ति व्यंजक ढंग के ललित निबन्ध से ही आशय होता है।
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