29 हिन्दी आलोचना का विकास

प्रो. रामबक्ष जाट जाट

epgp books

 

 

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

 इस पाठ का अध्ययन करने के उपरान्त आप –

  1. हिन्दी आलोचना के इतिहास की रूपरेखा समझ सकेंगे।
  2. हिन्दी आलोचना के इतिहास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के योगदान का मूल्यांकन कर पाएँगे।
  3. हिन्दी आलोचना के इतिहास में मार्क्सवादी आलोचना के योगदान को समझ पाएँगे।
  4. हिन्दी आलोचना के इतिहास में आधुनिकतावादी आलोचना का महत्त्व समझ पाएँगे।

 

प्रस्तावना

 

हिन्दी आलोचना का विधिवत आरम्भ आधुनिक काल में खड़ी बोली में विकसित हुआ, हालाँकि ब्रजभाषा में संस्कृत काव्यशास्‍त्र की मान्यताओं से हिन्दी कविता परिचित हो चुकी थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी आलोचना की नींव रखी। उनके पश्‍चात आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और नन्ददुलारे वाजपेयी ने इसका विस्तार किया। बाद में हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना, प्राचीन काव्यशास्‍त्रीय आलोचना और आधुनिकतावादी आलोचना का विकास हुआ। सम्पूर्ण हिन्दी आलोचना की प्रकृति को देखकर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी आलोचना मुख्यतः व्यावहारिक आलोचना है पर हिन्दी आलोचना साहित्यिक सिद्धान्तों का उपयोग करती है, शास्‍त्र चिन्तन की तरफ वह उतनी विकसित नहीं हो पा रही है।

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार हिन्दी आलोचना का प्रारम्भ ब्रजभाषा में हुआ। उनके अनुसार कृपाराम की हिततरंगिणी  में थोड़ा-बहुत रस निरूपण मिलता है। उनके पश्‍चात आचार्य केशवदास ने “काव्य रीति का सम्यक समावेश पहले-पहले किया था। लेकिन हिन्दी में रीति-ग्रन्थों की ‘अविरल और अखण्डित परम्परा का प्रसार केशवदास की कविप्रिया  के तीस वर्ष बाद से चला।” हिन्दी में रीतिकाल में अनेक रीति ग्रन्थ लिखे गए, परन्तु उन ग्रन्थों में मौलिक शास्‍त्र-निरूपण नहीं मिलता, सिर्फ संस्कृत काव्यशास्‍त्र की ‘संक्षिप्‍त उद्धरणी’ मिलती है। आचार्य शुक्ल ने संस्कृत काव्यशास्‍त्र की विशेषता स्पष्ट करते हुए लिखा, “संस्कृत में समालोचना का पुराना ढंग यह था कि जब भी कोई आचार्य या साहित्य मीमांसक कोई नया लक्षण-ग्रन्थ लिखता था तब जिन काव्य रचनाओं को वह उत्कृष्ट समझता था उन्हें रस, अलंकार आदि के रूप में उद्धृत करता था और जिन्हें दुष्ट समझता था उदाहरणों में देता था।” यही परम्परा हिन्दी के रीति ग्रन्थकारों ने भी अपना रखी थी।

 

इस तरह हम कह सकते हैं कि हिन्दी आलोचना का विकास संस्कृत काव्यशास्‍त्र की परम्परा से नहीं हुआ। हिन्दी में आलोचना की परम्परा ‘यूरोप’ से आई। हिन्दी आलोचना के विकास पर बात करने वाले आलोचकों का विचार है कि हिन्दी आलोचना का प्रारम्भ भारतेन्दु युग में हुआ था और पुस्तक-समीक्षा के रूप में इसका जन्म हुआ। हिन्दी साहित्य का इतिहास में आचार्य शुक्ल ने लिखा है- “समालोचना का सूत्रपात हिन्दी में एक प्रकार से भट्टजी और चौधरी साहब ने ही किया था। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके गुण-दोषों के विस्तृत निरूपण की चाल उन्हीं ने चलाई। बाबू गदाधर सिंह ने बंग विजेता का जो अनुवाद किया था उसकी आलोचना कादम्बनी में पाँच पृष्ठों में हुई थी। लाला श्रीनिवासदास के संयोगिता स्वयंवर की बड़ी विस्तृत और कठोर समालोचना चौधरीजी ने कादम्बिनी के इक्‍कीस पृष्ठों में निकाली थी।” भारतेन्दु युग के पश्‍चात किसी पुस्तक की आलोचना के लिए नई पुस्तक लिखने का काम सबसे पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया। इस विषय पर हिन्दी में कालिदास की आलोचना इस तरह की पहली पुस्तक है। इसके बाद फिर हिन्दी में कई आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हुई।

 

हिन्दी आलोचना के प्रारम्भिक विकास में ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ (सन् 1893) का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। नागरी प्रचारिणी सभा ने भारत के प्राचीन साहित्य की खोज का कार्य अपने हाथ में लिया। सभा की खोज की रिपोर्टें प्रकाशित होने लगीं। सभा ने हिन्दी भाषा का व्याकरण तैयार किया, हिन्दी शब्द-कोश का निर्माण कार्य किया। हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास लिखवाया। हिन्दी की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका सरस्वती का प्रकाशन किया। वस्तुतः प्रारम्भिक हिन्दी आलोचना के विकास का श्रेय इस संस्था को जाता है। इसके पश्‍चात काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय, बनारस में हिन्दी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन का कार्य प्रारम्भ हुआ। इस समय हिन्दी में मिश्र बन्धुओं की आलोचना की धूम थी। उन्होंने हिन्दी के नौ महत्त्वपूर्ण लेखकों को अपनी आलोचना का विषय बनाया। हिन्दी नवरत्‍न नामक आलोचनात्मक पुस्तक में उन्होंने देव को प्रतिष्ठित किया। बिहारी समर्थक आलोचकों ने इसका प्रतिवाद किया, जिससे ‘देव बड़े कि बिहारी’ का झगड़ा प्रारम्भ हुआ। इससे हिन्दी में तुलनात्मक आलोचना का सूत्रपात हुआ। इस बहस में पण्डित कृष्ण बिहारी मिश्र, लाला भगवानदीन, पण्डित पद्मसिंह शर्मा आदि विद्वानों ने भी हिस्सा लिया। उस काल में कुछ समय तक यही हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा मुद्दा था।

 

इसके अलावा आचार्य शुक्ल ने ‘अर्थ-क्रीड़ा’ की प्रवृति का जिक्र किया है, “किसी पद्य का अर्थ करना उनके बाएँ हाथ का खेल है। तुलसीदासजी की चौपाइयों के बीस-बीस अर्थ करने वाले अभी मौजूद हैं। अभी थोड़े दिन हुए, हमारे एक मित्र ने सारी बिहारी सतसई का शान्तपरक अर्थ करने की धमकी दी थी।” इसके साथ प्रभाववादी आलोचनात्मक प्रवृत्ति का भी आचार्य शुक्ल ने जिक्र किया है तथा उसकी आलोचना की है, इस आलोचना का विकास छायावाद के जमाने में खूब हुआ था। शान्तिप्रिय द्विवेदी इस प्रवृत्ति के महत्त्वपूर्ण आलोचक माने जाते हैं।

  1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

 

हिन्दी आलोचना का वास्तविक आरम्भ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से होता है। उन्होंने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखकर सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य की रूपरेखा प्रस्तुत की। इस इतिहास में उन्होंने सभी कवियों-रचनाकारों का स्थान निर्धारित कर दिया, थोड़े-बहुत फेर-बदल के साथ वे स्थान निर्धारण आज भी मान्य हैं। उन्होंने रीतिकाल के कवियों देव और बिहारी के झगड़े को समाप्‍त करके यह स्थापित किया कि घनानन्द साक्षात् रसमूर्ति थे। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दी साहित्य को समझने की एक दृष्टि दी, जो आज हिन्दी के लेखकों और पाठकों का साहित्यिक संस्कार बनी हुई है। हिन्दी साहित्य का इतिहास के अलावा आचार्य शुक्ल ने गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास और जायसी पर विस्तृत समीक्षाएँ लिखीं। ‘लोकमंगल’ इत्यादि नए अवधारणात्मक पद दिए। आलोचना के इस लेखन से हिन्दी में गम्भीर आलोचना का नया क्षितिज खुला। आज भी हमें इन रचनाकारों पर कुछ कहना हो, तो आचार्य शुक्ल की मान्यताओं को जानना चाहते हैं। आचार्य शुक्ल के पश्‍चात हिन्दी में अनेक लेखकों पर स्वतन्त्र आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी जाने लगीं। कबीर को समझने के लिए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर पुस्तक लिखी। निराला को समझने के लिए डॉ. राम विलास शर्मा की निराला की साहित्य साधना और दूधनाथ सिंह की निराला आत्महंता आस्था पुस्तक को पढ़ना अनिवार्य है। हिन्दी आलोचना में यह परम्परा अब तक कायम है। इसी तरह हिन्दी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए भी अनेक ग्रन्थ लिखे गए जिनमें आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की हिन्दी साहित्य की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके बाद के अन्य ग्रन्थों को वह प्रतिष्ठा नहीं मिली। हिन्दी साहित्य के इतिहास सम्बन्धी विभिन्‍न तथ्यों का समावेश इन ग्रन्थों में हो गया, जिससे हमें इस सम्बन्ध में आवश्यक प्रामाणिक सूचनाएँ मिल जाती हैं। इसी क्रम में आगे चलकर साहित्य की अन्य विधाओं के विकासक्रम को रेखांकित करने वाले अनेक ग्रन्थ सामने आए, जिनमें नाटक, उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि के विकास को रेखांकित किया गया है। साहित्य में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिए इन ग्रन्थों का अपना महत्त्व है।

 

प्रेमचन्द को समझने के लिए प्रेमचन्द घर में (शिवरानी देवी), प्रेमचन्द और भारतीय किसान (रामबक्ष) कबीर पर हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक के साथ परशुराम चतुर्वेदी की पुस्तक कबीर साहित्य की परख, मीरा को समझने के लिए विश्‍वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक मीरा का काव्य को संस्तुत किया जाता है। हिन्दी के लगभग प्रत्येक कवि पर एकाध पठनीय पुस्तक अवश्य मिल जाती है। इसी तरह साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझने के लिए हिन्दी आलोचना में पर्याप्‍त आलोचनात्मक पुस्तकें उपलब्ध हैं। हिन्दी आलोचना को समझने के लिए विश्‍वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक हिन्दी आलोचना या नन्द किशोर नवल की जानकारियों भरी हुई परिचयात्मक पुस्तक हिन्दी आलोचना का विकास उल्लेखनीय है। समकालीन हिन्दी आलोचना को विश्‍लेषित करने के लिए रामबक्ष की पुस्तक समकालीन हिन्दी आलोचक और आलोचना को पढ़ा जा सकता है। नई कहानी को समझने के लिए कहानी नयी कहानी (नामवर सिंह) के साथ देवीशंकर अवस्थी के महत्त्वपूर्ण निबन्धों का अध्ययन किया जा सकता है। इसी तरह रीतिकाल, भारतेन्दु युग, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कहानी को समझने के लिए हिन्दी आलोचना की अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकें उपलब्ध हैं। इस परम्परा का सूत्रपात आचार्य शुक्ल की आलोचना से होता है। यह परम्परा हिन्दी में अब तक चल रही है।

  1. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

 

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी संस्कृत के पण्डित थे, परन्तु उनका सम्पूर्ण साहित्य हिन्दी पाठक को सम्बोधित है। हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत है कि आज का आम भारतीय अपने प्राचीन साहित्य और संस्कृति की बातों से ‘अपरिचित’ हो गया है। इतना अपरिचित कि उसे वे सब बातें बड़ी विचित्र, अद्भुत, नई और रोमांचकारी लगती हैं। जिन बातों को वह जानता है, उनका भी इतना ‘अभ्यस्त’ हो गया है कि उनमें उसकी कोई दिलचस्पी ही नहीं रह गई है। पण्डितजी ऐसे नादान, अभ्यस्त पाठक को प्राचीन ज्ञान-भण्डार में घुमाते हैं।

 

अपनी पुस्तक समकालीन हिन्दी आलोचक और आलोचना में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बारे में रामबक्ष ने आगे लिखा है, “उनकी रचनाएँ पढ़कर अपने देश की प्राचीन परम्पराओं से हम पुनः परिचय प्राप्‍त करते हैं। स्वयं आचार्य द्विवेदी को इसमें ‘रस’ आता है और इस ‘रस’ को पाने के लिए वह अपने पाण्डित्य को परे हटाने के लिए तैयार हो जाते हैं। यहाँ यह प्रश्‍न उठ सकता है कि यदि कोई व्यक्ति प्राचीन संस्कृत साहित्य का ज्ञाता है, पुरानी पोथियों का जानकार है, क्या उसे द्विवेदी जी की रचनाओं में कुछ नहीं मिलता? ऐसा नहीं है। वह ‘अध्ययनपरक’ लेखक नहीं हैं। उन्होंने सिर्फ सूचना संगृहीत नहीं की है, बल्कि शुक्ल जी की भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि उन्होंने प्राचीन संस्कृति के ‘मार्मिक स्थलों की पहचान’ की है। दुष्यन्त-शकुन्तला के प्रेम में डूबे हुए संस्कृत सहृदय को भी द्विवेदी जी बताते हैं (सम्भवतः नए रूप में)। “अशोक को जो सम्मान कालिदास में मिला वह अपूर्व था। सुन्दरियों के आसिंजनकारी नूपुर वाले चरणों के मृदु आघात से वह फूलता था, कोमल कपोलों पर कर्णावतंस के रूप में झूलता था और चंचल नील अलकों की अचंचल शोभा को सौ गुना बढ़ा देता था।” कालिदास का यह नया परिचय है। उन्होंने संस्कृत साहित्य की विलुप्‍त सामग्री को उपलब्ध करने-करवाने के लिए शोध नहीं किया, बल्कि उन समस्याओं की मूलभूमि की खोज की है, जिन पर हिन्दी साहित्य रचा जा रहा था।”

 

इस तरह कहा जा सकता कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के ललित निबन्ध भी मात्र ललित निबन्ध नहीं हैं, वे सभी उनकी व्यापक चिन्ताधारा के हिस्सा है। उन्हें भी द्विवेदी जी के आलोचना की श्रेणी में ही रखा जाना चाहिए। वे कालिदास के परम प्रशंसक थे। उन्होंने सबसे पहले सूर साहित्य पर पुस्तक लिखी। बाद में हिन्दी साहित्य की भूमिका और कबीर से उनकी ख्याति बढ़ी। कबीर में उन्होंने अपने से भिन्‍न विचार के लेखक की तारीफ़ में पुस्तक लिखी, जो अपने आप में अद्भुत है। उनका यह लेखन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के लेखन के समानान्तर है, कई मामलों में उनसे भिन्‍न है। हालाँकि वे कभी आचार्य शुक्ल से विवाद नहीं करते, परन्तु उनसे एक अलग विचार अवश्य प्रस्तुत करते हैं। यह विचार उनकी हिन्दी साहित्य की भूमिका और अन्य पुस्तकों में भी देखा जा सकता है।

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी के अत्यन्त आदरणीय आलोचक हैं। परवर्ती काल के आलोचक उन्हें सम्मान के साथ उद्धृत करते हैं। उनसे सहमति और असहमति को भी गम्भीरता के साथ रेखांकित किया जाता रहा है। इसके अलावा परवर्ती आलोचक उनसे कुछ अलग बातों पर चर्चा करना पसन्द करते हैं, क्योंकि उनका कार्य लगभग निर्विवाद कार्य की श्रेणी में आता है। नन्ददुलारे वाजपेयी ने छायावादी काव्यधारा का सम्यक् मूल्यांकन किया। उनकी पुस्तक हिन्दी साहित्य : बीसवी शताब्दी उनके आलोचना-कर्म की बानगी प्रस्तुत करती है। उनके पश्‍चात हिन्दी आलोचना के अनेक स्वरूप आते हैं, जिनमें मार्क्सवादी आलोचना, प्राचीन भारतीय काव्यशास्‍त्रीय आलोचना, पश्‍च‍िम की आधुनिकतावादी आलोचना आदि प्रमुख हैं। शैली विज्ञान पर भी कुछ आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी गई हैं, परन्तु यह प्रवृत्ति हिन्दी में ज्यादा दिनों तक चली नहीं।

 

भारतीय काव्यशास्‍त्र को केन्द्र में रखते हुए डॉ. नगेन्द्र ने रस सिद्धान्त शीर्षक एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी। इसके अलावा रीतिकाव्य की भूमिका में भारतीय काव्यशास्‍त्र के विभिन्‍न सम्प्रदायों का परिचयात्मक विश्‍लेषण किया। राम अवध द्विवेदी, राममूर्ति त्रिपाठी, भगीरथ मिश्र, आनन्द प्रकाश दीक्षित आदि ने शास्‍त्र चिन्तन के विभिन्‍न पक्षों पर प्रकाश डाला। निर्मला जैन ने रस सिद्धान्त और सौन्दर्य शास्‍त्र में भारतीय और पाश्‍चात्य काव्यशास्‍त्र की विविध मान्यताओं से हिन्दी पाठकों को परिचित करवाया। पाश्‍चात्य काव्यशास्‍त्र मेंᅳ विशेष रूप से मार्क्सवादी आलोचना के सैद्धान्तिक पक्षों पर रामविलास शर्मा के अलावा मैनेजर पाण्डेय ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उनसे पहले शिवकुमार मिश्र ने कई आलोचनात्मक पुस्तकें इस क्षेत्र में लिखीं। यह अवश्य है कि हिन्दी में शास्‍त्र चिन्तन पर अपेक्षाकृत कम रुचि देखने को मिलती है। शास्‍त्र निर्माण का शास्‍त्रीय कार्य तो हिन्दी में लगभग हुआ ही है। हिन्दी का शास्‍त्र चिन्तन व्यावहारिक आलोचना के भीतर ही समाया हुआ है। भारतीय काव्यशास्‍त्र पर मराठी विद्वानों द्वारा लिखी गई कुछ पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद हुआ है, जो हिन्दी में बहुत लोकप्रिय है। राधावल्लभ त्रिपाठी ने कई महत्त्वपूर्ण संस्कृत ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद करवाया है तथा अपने लेखन द्वारा भी इस विशाल ज्ञानराशि से हिन्दी पाठकों को परिचित करवाया है। यह कार्य डॉ. नगेन्द्र की देख-रेख में पहले भी हुआ है। हिन्दी की वर्तमान आलोचना संस्कृत काव्यशास्‍त्र का कोई सर्जनात्मक उपयोग नहीं करती। हिन्दी का पाठक मात्र इसकी जानकारी प्राप्‍त करके आगे बढ़ जाता है।

  1. मार्क्सवादी आलोचना

 

हिन्दी में प्रगतिवादी लेखक संघ की स्थापना (सन्1936) के साथ ही मार्क्सवादी आलोचना का प्रारम्भ हुआ। मार्क्सवादी आलोचना का दार्शनिक आधार मार्क्सवादी दर्शन से निर्मित हुआ है। मार्क्सवाद समाज का विश्‍लेषण आधार और अधिरचना के रूप में करता है। मनुष्य अपने खाने-पीने एवं रहने के लिए उत्पादन करता है, जिस तरह से उत्पादन करता है, वह उत्पादन की पद्धति है, जिन साधनों से उत्पादन करता है, वे उत्पादन के साधन हैं। उत्पादन के दौरान जो आपसी मानवीय सम्बन्ध बनते हैं, वे उत्पादन सम्बन्ध होते हैं। यह समाज का आधार है। इसी के आधार पर समाज का ऊपरी ढाँचा बनता है, जिनमें परिवार, संस्थाएँ, राजनीतिक संस्थाएँ, कानूनी संस्थाएँ, सेना-पुलिस आदि की व्यवस्थाएँ शामिल होती हैं। साहित्य इस ऊपरी ढाँचे का हिस्सा है। आधार और इस ऊपरी ढाँचे में द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध होते हैं। मनुष्य के विचार और कल्पना इन्हीं ठोस परिस्थितियों में निर्मित होते हैं। मार्क्सवाद की इन मूलभूत मान्यताओं को साहित्य में लागू किया जाता है। इनमें सबसे अहम मान्यता कार्ल मार्क्स के इस वक्तव्य में है कि ‘दार्शनिकों ने तरह-तरह से दुनिया को समझने की कोशिश की, दुनिया की व्याख्या की है, परन्तु प्रश्‍न दुनिया को बदलने का है।’ मार्क्सवाद दुनिया को बदलने का दर्शन है।अब इस मान्यता को साहित्य पर लागू करें, तो कहेंगे जो रचना यथास्थिति का वर्णन करती है, यथास्थिति का समर्थन करती है, यथास्थिति में प्रसन्‍न है, वह रचना प्रगतिशील नहीं है। प्रगतिशील रचना परिवर्तन में विश्वास करती है, यथास्थिति को स्वीकार नहीं करती, ‘अस्वीकार का साहस’ जिसमें हो, वह कबीरदास अच्छा है, रीतिकाल अच्छा नहीं है, क्योंकि रीतिकाल वर्तमान जीवन का आनन्द भोग करना चाहता है, भक्तिकाव्य के कवियों में बेचैनी है, इसलिए वह कविता अच्छी है। जब से परिवर्तन की आकांक्षा आई है, नवजागरण हुआ है, वह भारतेन्दु युग अच्छा है। प्रेमचन्द अच्छे हैं। प्रसाद शायद उतने अच्छे नहीं हैं। यशपाल, रेणु, रांगेय राघव सब अच्छे हैं। मार्क्सवाद अच्छा है। मार्क्सवादी सब अच्छे हैं क्योंकि वे सत्ता संरचना के समर्थक नहीं हैं। ये सब बातें इस मान्यता से आई हैं।

 

मार्क्स ने कहा कि अब तक का मानव-इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास है। आप कोई रचना देखें, पात्र देखें, परिस्थितियाँ देखें, सबसे पहले उसका वर्ग विश्‍लेषण करें। प्रेमचन्द के गोदान में राय साहब और होरी के विवाद का असल कारण उनका वर्ग भेद है। कबीर और तुलसी में वर्ग भेद है – राम और रावण का द्वन्द्व मत देखें, ब्राह्मणवाद और दलित जीवन का वर्ग संघर्ष देखें। इस दृष्टि से भक्ति काव्य का पाठ होना चाहिए। इस वर्ग-संघर्ष में मार्क्सवाद निम्‍न वर्ग का पक्षधर है। अतः जो रचना मजदूरों या किसानों का पक्ष मजबूत करती है, वह अच्छी है। इसलिए प्रेमचन्द श्रेष्ठ हैं। कामायनी में मजदूर वर्ग का चित्रण नहीं है, नदी के द्वीप और शेखर एक जीवनी की पीड़ा मजदूरों-किसानों की पीड़ा नहीं है, अतः उनका दर्द वैयक्तिक, मनोवैज्ञानिक और थोथा है। कबीर का अनुभव एक जुलाहे श्रमिक का अनुभव है। मार्क्सवादी आलोचना ने इस संघर्ष को, संघर्ष की परिणति को महत्त्व दिया। इसे रेखांकित किया। इसलिए मार्क्सवादी आलोचना लिखी जाती है। सिर्फ रचना को समझना हमारा काम नहीं है, हम यह समझना चाहते हैं कि अमुक प्रवृत्ति या वर्ग शासक-शोषक वर्ग का है; अतः शोषक वर्ग का कोई भी पात्र ‘अच्छा’ नहीं हो सकता। वह अच्छा दिखना चाहता है, अच्छा होता नहीं। वह अच्छा हो ही नहीं सकता। उसे नायक कैसे बनाया जा सकता है। जो लेखक राजा-महाराजाओं को नायक बनाते हैं, वे सब के सब प्रतिक्रियावादी हैं, चाटुकार हैं। आदिकाल को हमारे आलोचक समर्थन की नजर से नहीं देखते। हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना में ऐसी रचनाओं को आलोचना के योग्य ही नहीं समझा जाता। रीतिकालीन कविता पर शायद ही किसी मार्क्सवादी आलोचक ने कोई पुस्तक लिखी हो। छिटपुट आलोचनात्मक लेख अवश्य लिखे हैं। बुर्जुआ पतनशील प्रवृत्तियों के लेखक को हम पसन्द नहीं करते। यहाँ तक कि मार्क्सवादी आलोचक ऐसे रचनाकारों को पढ़ना भी नहीं चाहते। मार्क्सवादी आलोचना ने अपनी विशिष्ट दृष्टि से सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य का विश्‍लेषण किया तथा आलोचना के मानक तैयार किए। उनसे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, परन्तु हिन्दी साहित्य में उनकी आलोचना की जीवन्त उपस्थिति अवश्य महसूस की जा सकती है।

  1. आधुनिकतावादी आलोचना

 

हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना के साथ-साथ ही उसकी विरोधी विचारधारा की आलोचना की भी शुरुआत हुई। इस परम्परा का नेतृत्व अज्ञेय ने किया। अज्ञेय ने प्रगतिवाद की मूल मान्यताओं का खण्डन किया और पश्‍च‍िम की मार्क्सवाद विरोधी परम्परा के तर्क हिन्दी में प्रस्तुत किए। टी.एस. इलियट और नई समीक्षा की अनेक मान्यताएँ हिन्दी संसार के बहस का हिस्सा बनने लगीं। आगे चलकर विजयदेव नारायण साही ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। उन्होंने साहित्य और समाज के रिश्ते को नकारा, इतिहास की अवधारणा की आलोचना की और साहित्य की साहित्यिकता एवं स्वायत्तता पर बल दिया।

 

इसी समय हिन्दी में प्रयोगवाद और नई कविता का आन्दोलन चला। इस आन्दोलन के आसपास हिन्दी आलोचना निर्मित एवं विकसित होती रही। ‘नई कविता’ की तरह ‘नई कहानी’ से जुडी हुई आलोचना भी हिन्दी में आई। नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्थी, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्‍वर ने अपने लेखन और भाषणों से हिन्दी आलोचना को समृद्ध किया। इसी तरह ‘नई कविता’ के समर्थक जगदीश गुप्‍त, डॉ. रघुवंश, विपिन कुमार अग्रवाल, लक्ष्मीकान्त वर्मा आदि अनेक चिन्तक विचारक आए तथा ‘परिमल’ संस्था के द्वारा इन्होनें प्रगतिवादी आलोचना से बहस की। इस वाद-विवाद से हिन्दी आलोचना समृद्ध हुई। मार्क्सवादी आलोचना ने अपने पक्ष में तर्क दिए तथा इनके तर्कों का खण्डन किया। हिन्दी में यह परम्परा आगे भी चली। इसका रूप भी बदला। आगे चलकर मलयज, अशोक वाजपेयी जैसे आलोचक इस परम्परा से जुड़े तथा इन लोगों ने जीवन्त गद्य की रचना की तथा वाद-विवाद को नए धरातल पर ले गए।

 

आधुनिक काल में हिन्दी में गद्य की अनेक नई विधाओं का उद्भव और विकास हुआ। इनके साथ इनकी आलोचना भी विकसित हुई। कहानी के विकास के साथ कहानी के आलोचक भी आए, जिनमें नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्थी, विजय मोहन सिंह आदि मुख्य हैं। इनके अलावा कहानीकारों ने भी आलोचनात्मक लेखन किया।इनमें मोहन राकेश, कमलेश्‍वर, राजेन्द्र यादव आदि मुख्य हैं। इसी तरह उपन्यास की आलोचना के क्षेत्र में नेमिचन्द्र जैन की पुस्तक अधूरे साक्षात्कार उल्लेखनीय है। नाटक की अलोचना के क्षेत्र में दशरथ ओझा, नेमिचन्द्र जैन, गिरीश अस्थाना, सत्येन्द्र तनेजा, जयदेव तनेजा आदि विद्वानों ने कार्य किया है। हालाँकि हिन्दी नाटक की आलोचना उतनी समृद्ध नहीं हो पाई। यही स्थिति कथेतर गद्य की आलोचना की भी है। इन क्षेत्रों पर शोधार्थियों ने शोध-प्रबन्ध अवश्य लिखे हैं, परन्तु उन्हें आलोचना की कोटि में रखना सम्भव नहीं है।

 

इसी तरह हिन्दी में स्‍त्री लेखन और दलित लेखन से सम्बन्धित कुछ आलोचनात्मक मान्यताएँ भी सामने आ रही हैं। इन्होंने जो प्रश्‍न उठाए हैं, उनके आधार पर हिन्दी में नए ढंग की आलोचना लिखी जाने लगी है। स्‍त्री लेखन के क्षेत्र में रोहिणी अग्रवाल, अर्चना वर्मा, आनामिका तथा दलित लेखन के क्षेत्र में धर्मवीर, श्योरोज सिंह बेचैन, कँवल भारती आदि प्रमुख हैं।

  1. निष्कर्ष

 

इस तरह हम कह सकते हैं कि हिन्दी आलोचना का व्यवस्थित रूप आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने निर्मित किया। उन्होंने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा, रस का विधिवत विवेचन किया, हिन्दी शब्द सागर के निर्माण में सहयोगी रहे, तथा तुलसीदास, सूरदास और जायसी की विस्तृत समीक्षाएँ लिखीं। आगे चलकर आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की भूमिका और कबीर  लिखकर हिन्दी आलोचना का विस्तार किया। इनके पश्‍चात हिन्दी में मार्क्सवादी और आधुनिकतावादी आलोचना का जोर रहा, जिनमें रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मुक्तिबोध, विश्‍वनाथ त्रिपाठी, नित्यानद तिवारी तो दूसरी ओर अज्ञेय, मलयज, अशोक वाजपेयी आदि प्रमुख हैं। इसके साथ गद्य साहित्य की विविध विधाओं के साथ दलित एवं स्‍त्रीलेखन सम्बन्धी आलोचना भी विकसित हो रही है।

 

you can view video on हिन्दी आलोचना का विकास

 

वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE
  2. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%86%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE_(%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF)
  3. https://www.youtube.com/watch?v=kJSm59uA4rE