30 हिन्दीतर भारतीय भाषाएँ और हिन्दी साहित्य
डॉ. गजेन्द्र पाठक
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- हिन्दी और हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के साहित्य के सांस्कृतिक सम्बन्ध की पारस्परिकता से परिचित हो सकेंगे।
- मध्यकाल में हिन्दी साहित्य के विकास में हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के रचनाकारों के योगदान को समझ सकेंगे।
- हिन्दी साहित्य की काव्यशैली पर हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के काव्यशैलियों के प्रभाव से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
हिन्दी कहने से आज हम जिस भाषा का अर्थ लेते हैं, सदा से हिन्दी का वही अर्थ नहीं रहा है। हिन्दी सिर्फ एक भाषा नहीं है, वह एक भाषा समूह भी है। मैथिली, भोजपुरी, बुंदेलखण्डी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, हरियाणवी, अवधी, ब्रज, राजस्थानी, खड़ी बोली आदि कई भाषाएँ, उप-भाषाएँ और बोलियाँ हिन्दी के अन्तर्गत ही मानी जाती रही हैं। आगे हम जब हिन्दी भाषा का व्यवहार सिर्फ खड़ी बोली के सन्दर्भ में नहीं करेंगे, बल्कि हिन्दी भाषा परिवार के रूप में करेंगे।
भारत भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विविधता वाला देश है, परन्तु भारत में अनेक कारणों से आपसी सांस्कृतिक आकर्षण की स्थिति हमेशा विद्यमान रही है। हिन्दी साहित्य के विकास में आदिकाल से ही हिन्दी क्षेत्र की भाषाओं के साहित्य पर पड़ोसी भाषाओं के विभिन्न साहित्यिक रूपों का प्रभाव रहा है। मध्यकाल में हिन्दी क्षेत्र की भाषाओं के रचनाकारों का हिन्दीतर क्षेत्रों से और हिन्दीतर भाषाओं के रचनाकारों का हिन्दी क्षेत्र से गहन सांस्कृतिक आकर्षण था। धार्मिक यात्राओं की इसमें बड़ी भूमिका थी। इस कारण हिन्दी क्षेत्र में रची जा रही भक्तिपरक रचनाओं से प्रभावित होकर हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के रचनाकारों ने या तो हिन्दी क्षेत्र की भाषाओं में रचनाएँ की या अपनी भाषा में रचित साहित्य में उनसे प्रभाव ग्रहण किया।
- हिन्दीतर भारतीय भाषाओं और हिन्दी साहित्य के सम्बन्ध पर विभिन्न विद्वानों के मत
रामधारी सिंह दिनकर ने हिन्दी की सांस्कृतिक परिधि पर विचार किया था। उन्होंने उस रोचक स्थिति का ध्यान दिलाया कि विद्यापति जितने हिन्दी, मैथिली के हैं, उतने ही बांग्ला के। हिन्दी के पश्चिमी छोर पर स्थित मीराँ के साथ भी यही स्थिति है। मीराँ जितनी हिन्दी, राजस्थानी की हैं, उतनी ही गुजराती की। किसी बांग्ला भाषी से विद्यापति को हिन्दी का कहना ठीक उसी तरह है, जिस तरह किसी गुजराती से मीराँ को हिन्दी का कहना। यह हिन्दी की समस्या नहीं, बल्कि ताकत है, जिसकी वजह से नवजागरण काल के हिन्दीतर भाषी लेखकों और विचारकों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने का स्वप्न देखा था।
राहुल सांकृत्यायन ने जब खड़ी बोली के प्रारम्भिक कवि के रूप में अमीर खुसरो को न देखकर दक्खिनी के कवियों से इसकी शुरुआत मानी थी, तब बहुत लोगों ने आश्चर्य प्रकट किया था। ये वही लोग थे, जो उस बात की तह तक जाने की जरूरत नहीं समझते थे, जिसके कारण कभी गांधीजी और प्रेमचन्द ने हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी की बात की थी। गांधी जी को पता था कि उर्दू से मिली हुई हिन्दी के बल पर ही हिन्दी को तमिलनाडु तक विस्तार दिया जा सकता है। वे दक्षिण भारत में सिर्फ दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के संस्थापक ही नहीं थे, बल्कि उस हिन्दी प्रचार में उत्तर से दक्खिन के बीच दक्खिनी हिन्दी के उस सेतु धर्मी चरित्र की भी पहचान रखते थे, जिसके लिए उन्हें हिन्दी से ज्यादा मुफीद हिन्दुस्तानी लगती थी। राहुल जी ने जब खड़ी बोली हिन्दी को दक्खिनी कवियों से जोड़ा, तब हिन्दी का भूगोल ही नहीं, हिन्दी की भूमि और भूमिका का भी विस्तार किया। बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश तक विस्तृत हिन्दी की परिधि अपनी परिधि से विपरीतमुखी नहीं थी, बल्कि उसका सम्बन्ध मुखामुखम का था। प्यार और सद्भाव के आधार पर दूसरी भाषाओं का दिल जीतने वाली हिन्दी। यूरोप की नहीं, भारत की भाषायी संस्कृति।
इस पृष्ठभूमि में हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन पर विचार करते हुए दुख होता है कि जिस भक्ति आन्दोलन में हिन्दी का हृदय ही नहीं, भूगोल भी विस्तृत हुआ, वह हृदय और भूगोल दोनों रीतिकाल में सीमित हो गए। रीतिकाल में हिन्दी उत्तर-प्रदेश के एक छोटे से इलाके तक सिमट कर रह गई। साहित्य के समाजशास्त्र और इतिहास-दृष्टि दोनों के लिए यह विचारणीय प्रश्न है। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर विचार करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने दूसरे संस्करण की भूमिका में रामानन्द और नामदेव जैसे तमिल और मराठी सन्तों पर विचार किया। आचार्य शुक्ल ने भक्तिकाल के सामान्य परिचय के अन्तर्गत तीन पृष्ठों में नामदेव की विस्तार से चर्चा की। नामदेव और ज्ञानदेव से जुड़े कुछ प्रसंगों के साथ उनके आठ पदों को उद्धृत करते हुए शुक्ल जी ने उत्साहपूर्वक हिन्दी के विस्तार का अहसास कराया।
हिन्दी की साहित्यिक परिधि के विस्तार को भारत की सांस्कृतिक परिधि से जोड़ने की कोशिश में एक जमाने में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना ने दो महत्त्वपूर्ण किताबें प्रकाशित कीं। राहुल सांकृत्यायन की दक्खिनी हिन्दी काव्य-धारा तथा आचार्य विनय मोहन शर्मा की हिन्दी में मराठी सन्तों की देन । जिन कारणों से शुक्ल जी को मराठी सन्त कवियों के हिन्दी काव्य ने प्रभावित किया था, उन्हीं कारणों से उत्साहित होकर आचार्य विनय मोहन शर्मा ने इस शोधपरक अध्ययन को अंजाम दिया था। इस किताब की भूमिका में उल्लेख है– “मराठी सन्तों की हिन्दी के प्रति सहज ममता रही है। मध्ययुग से लेकर आज तक लगातार मराठी सन्त कीर्तन-भजन के अवसर पर मराठी अभंगों और पदों के साथ एक-दो हिन्दी पद गाते आ रहे हैं। जो मराठी सन्त कवि प्रतिभा सम्पन्न रहे हैं, उन्होंने मराठी पदों के साथ हिन्दी पदों की रचना स्वयं की है। जो केवल कीर्तनकार रहे हैं, उनकी मराठी अभंगों आदि के साथ किसी प्रसिद्ध हिन्दी सन्त के पद गाने की परिपाटी रही है। सन्तों ने प्रान्त या भाषा भेद को स्वीकार नहीं किया।” इस पुस्तक का परिचय-वक्तव्य देते हुए आचार्य शिवपूजन सहाय ने लिखा– “देश भर की राष्ट्र भाषा हिन्दी की व्यापकता देखकर हिन्दीतर भाषाओं के विद्वान और महात्मा भी उसके माध्यम से अपने सिद्धान्त और सन्देश का अधिकाधिक प्रचार करना चाहते थे। आखिर उनकी रचना का उद्देश्य भी यही होता था कि वह गेय पद अथवा श्रव्य काव्य के रूप में हो, तो अधिक से अधिक लोगों के कण्ठ में बसे– अधिक-से-अधिक लोगों के कर्ण-पुट को पवित्र करे। इसलिए भी सन्तों ने अपनी वाणी का अमृत हिन्दी को पिलाया कि वह उस दिव्य-प्रसाद का वितरण आसेतुहिमाचल कर देगी। भारतीय भाषाओं में विशेषतः हिन्दी को ही यह सौभाग्य प्राप्त है कि उसके साहित्य को अन्य भाषा-भाषियों कि देन सदैव समृद्ध करती आई है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में अन्य भाषा-भाषी साहित्यकारों की सेवाएँ आज भी सादर स्मरणीय हैं। इससे उसके राष्ट्रभाषा पद का औचित्य ही सिद्ध होता है।”
हिन्दी के साथ एक समस्या यह भी रही है कि हिन्दी भाषी अन्य भाषाओं के प्रति उदासीन रहे हैं। त्रिभाषा सूत्र को ध्वस्त करने में हिन्दी प्रदेश अग्रणी रहा। दूसरी बात यह कि हिन्दीतर भाषी व्यक्ति जब हिन्दी में लिखता है तब उसके प्रति भी हम उपेक्षा का भाव रखते हैं। हिन्दी कि मुख्यधारा के प्रति हमारी केन्द्रीयता आत्ममुग्धता की जिस अवस्था तक पहुँची हुई है, उसे देखते हुए हिन्दीतर भाषी व्यक्ति हिन्दी लिखना तो दूर बोलने से भी परहेज करे, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हिन्दी का स्वभाव ऐसा नहीं रहा। हिन्दी कभी भी मुख्यधारा की भाषा नहीं रही। इसलिए हिन्दी के नाम पर मुख्यधारा की अवधारणा विकसित करने वाले हिन्दी की मूल चेतना के साथ अन्याय करने वाले लोग हैं। हिन्दी के लोकतन्त्र में सर्वाधिक जगह हाशिए की होनी चाहिए, वह हाशिया नायकत्व का हो, विषय का हो, चाहे भूगोल का।
- हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में हिन्दी साहित्य
हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के सन्तों का हिन्दी लेखन हिन्दी साहित्य सम्बन्धी हमारी समझ को विस्तार देता है। इसी सन्दर्भ में विनय मोहन शर्मा ने महाराष्ट्र में हिन्दी के दो रूपों की चर्चा की है। उन्हीं के शब्दों में– “महाराष्ट्र में हिन्दी के दो रूप विकसित हुए, एक वह जिसमें अरबी-फ़ारसी के शब्दों का थोड़ा-बहुत मिश्रण और स्थानीय भाषाओं की छाया दिखाई देती है। इस रूप को दक्खिनी हिन्दी अथवा रेख़्ता कहा गया है और दूसरा वह जिसमें खड़ी बोली, ब्रजभाषा आदि के मिश्रण के साथ मराठी का पुट परिलक्षित हुआ। इसे मराठी हिन्दी के नाम से अभिहित किया जा सकता है।” राहुल सांकृत्यायन ने जिस तरह खड़ी बोली कविता की शुरुआत का श्रेय दक्खिनी काव्यधारा को दिया है उसी तरह विनय मोहन शर्मा ने इस किताब में निर्गुण पद्य की शुरुआत का श्रेय नामदेव को दिया। वे लिखते हैं – “यह सत्य है कि कबीर के समान नामदेव की रचनाएँ प्रचुर मात्रा में नहीं मिलतीं, परन्तु जो कुछ प्राप्य है उसमें उत्तर भारत की सन्त परम्परा का पूर्व आभास मिलता है और उनके परवर्ती सन्तों पर निश्चय ही उनका प्रभाव पड़ा है, जिसे उन्होंने मुक्त-कण्ठ से स्वीकार किया है। ऐसी दशा में उन्हें उत्तर भारत में निर्गुण भक्ति का प्रवर्तक मानने में हमें कोई झिझक नहीं होनी चाहिए। सम्भवतः हिन्दी जगत तक उनके सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी न पहुँच सकने के कारण उन्हें वह स्थान नहीं प्राप्त हो सका जिसके वे उत्तराधिकारी हैं।”
यह विचारणीय है कि खड़ी बोली और निर्गुण कविता दोनों के पुरस्कर्ता कवि तथाकथित हिन्दी प्रदेश से बाहर हैं। हिन्दी में कविता लिखने वाले नामदेव अकेले कवि नहीं हैं। नामदेव से पहले मुसलमान आक्रमण से पूर्व (मराठी या यादवकालीन) चक्रधर, मह्दामिसा, दामोदर पण्डित, ज्ञानेश्वर, और मुक्ताबाई जैसे सन्त कवियों ने इसकी विधिवत पृष्ठभूमि निर्मित की थी। दूसरे चरण अर्थात् मुसलमान आक्रमण के पश्चात जिन कवियों ने हिन्दी में अपने पदों की रचना की उसमें सबसे प्रमुख नामदेव हैं। नामदेव के अलावा उस दौर में गोंदा महाराज, सेनानाई, भानुदास महाराज, सन्त एकनाथ, अनन्त महाराज, श्यामसुन्दर और सन्तजन जसवन्त का नाम प्रमुख है। मुसलमान वर्चस्व के ह्रास काल में अर्थात् शिवाजी महाराज के समय में तुकाराम, कान्होवा, समर्थ रामदास, रंगनाथ, वामन पण्डित, मानसिंह, बयाबाई, हरिहर केशस्वामी, गोपालनाथ का नाम प्रमुख रूप से उभर कर आता है। चौथे चरण में अर्थात् पेशवा के समय में और उनके बाद जिन हिन्दीसेवी मराठी सन्त कवियों का नाम उभर कर सामने आता है, उनमें मध्वमुनीश्वर, शिवदीन केशरी, अमृतराय, सिद्धेश्वर महाराज, माधव, नरहरिदास, कृष्णदास, देवनाथ महाराज, दयालनाथ, विष्णुदास, गुलाबराव, गंगाधर और भामिक प्रमुख हैं।
इतने नामों की सूची ही यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि हिन्दी साहित्य का कोई भी इतिहास इन नामों की उपेक्षा करके प्रामाणिक नहीं हो सकता। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास के दूसरे संस्करण में नामदेव जैसे कवियों की चर्चा संख्या के बल पर नहीं, काम के बल पर ही की थी। और यह काम सिर्फ ऐतहासिक महत्त्व ही नहीं रखता। डॉ. रामविलास शर्मा ने नवजागरण की अवधारणा के विकास क्रम में जब भक्ति काल के महत्त्व का आकलन किया था तब उन्हें जिस व्यापक लोकजागरण का संसार दिखा था वह भक्तिकाल में भक्ति-आन्दोलन की इसी चेतना से जुड़ा था। पूरे भारत को सांस्कृतिक रूप से झकझोरने और जगाने वाला लोकजागरण, जिसमें भाषा, जाति और मजहब की तमाम दीवारें चरमरा कर गिरने लगी थीं। उत्तर और दक्षिण के नाम पर लम्बे समय से जो विभाजक रेखा खींचकर रखी गई थी या है, उसका उल्लंघन भी भक्तिकाल के सन्तों ने किया था। शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म का प्रतिकार करने के लिए उत्तर भारत की यात्रा का जो सिलसिला शुरू किया था उसका विकास भक्ति-आन्दोलन में भी हुआ। मध्वाचार्य, वल्ल्लाभाचार्य, निम्बार्काचार्य, रामानन्द जैसे सन्तों ने उत्तरभारत के सन्त कवियों को प्रभावित किया था। कहने का आशय यह है कि जिस प्रकार नवजागरण काल में संवाद की संस्कृति ने एक दूसरे से सीखने की जरूरत पर बल दिया, उसी तरह भक्ति आन्दोलन में भी एक दूसरे से सीखने की जरूरत समझी गई थी। देश की भावना अर्थात् देश से प्रेम की भावना उससे परिचय के बगैर विकसित होने वाली नहीं थी। जिस प्रकार नवजागरण काल के सभी लेखक पत्रकारिता से जुड़े थे उसी प्रकार भक्तिकाल के सभी कवि अनिवार्य रूप से यात्री थे। वे लम्बी यात्राएँ करते थे और ये यात्राएँ महज तीर्थयात्राएँ नहीं थीं।
मराठी के हिन्दी में लिखने वाले सन्त कवियों की एक और विशेषता यह है कि उन्होंने मराठी में प्रचलित छन्दों में कविताएँ लिखकर हिन्दी साहित्य को शिल्प के स्तर पर समृद्ध किया है। ओवी छन्द, जो कि मराठी का एक लोकप्रिय लोक छन्द है, जिसमें महाराष्ट्र की ग्रामीण स्त्रियाँ अपने दैनिक व्यवहार में गीत गाती हैं : चक्की पीसते हुए, बच्चों को लिए लोरी सुनाते हुए, खेतों में धान काटते हुए, खलिहान में उसे ओसाते हुए, अर्थात् जीवन के बिल्कुल सरल-सहज और दैनिक रूप का प्रतिनिधि है यह छन्द, इन कवियों द्वारा हिन्दी साहित्य को मिला हुआ एक अनमोल उपहार है। यह एक तरह से गुम्फित छन्द होता है जिसमें तीन चरण होते हैं। ओवी की तरह ही अभंग एक लोक-छन्द है। नामदेव जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण कवियों ने इस छन्द में अपने पदों की रचना की है। अभंग का अर्थ होता है ‘जिसको भंग न किया जा सके’ अर्थात् अटूट। एक ऐसा छन्द जिसकी लम्बाई की कोई सीमा नहीं होती। अभंग और ओवी में समानता इस दृष्टि से है कि दोनों के दूसरे और तीसरे चरण में यमक अलंकार आता है। उदाहरण :
नाम प्यारा है भगत, उसे जानत है जगत
बम्मन आया घुडंत-घुडंत, लगत-लगत गाव मो
बम्मन कहे नामदेव, मुजे पूजना भूदेव
इति बात मुजे देव, बहा देव गंगा मो।
(गोदा महाराज)
इसी तरह भारुण और गारुण काव्य-शैली में सामाजिक पाखण्डों पर व्यंग्य लिखने की एक लम्बी परम्परा भी मराठी कवियों में दिखाई पड़ती है। सन्त एकनाथ अपने गारुण छन्द के लिए मशहूर हैं। आडम्बरधारी जोगियों, सँपेरों और फकीरों पर उनका यह पद दृष्टव्य है :
यारो, देखो-रे देखो गायबी गारुड़ी आया।
पहिला पहिला कुछ नहीं देखे, निराकार निजरूपा।
अलख हात मो पलक बतावे, माया सगुण रूपा।
चल चल चल चल।
री री री री गा गा गा गा।
बा बा बा बा।
अन्य प्रमुख मराठी छन्द जिसमें सन्त कवियों ने अपनी रचनाएँ की हैं, वे क्रमशः ध्रुपद, ख्याल और लावनी हैं। लावनी मुख्य रूप से शृंगार प्रधान रचनाओं के लिए मुफीद छन्द है। पेशवाओं के समय में इसका खूब प्रचार-प्रसार हुआ। हिन्दी के रीतिकाल में जिस तरह राधिका-कन्हाई सुमिरन के बहाने बने थे, उसी तरह लावनियों के माध्यम से भक्तिपरक रचनाएँ शृंगार की ओर बढ़ चलीं। भक्ति और शृंगार के समन्वित प्रयोग के लिए लावनियाँ काफी प्रसिद्ध हैं। मराठी के इन सभी छन्दों ने हिन्दी के मध्यकालीन साहित्य को जो विस्तार दिया है, उससे हिन्दी का शिल्प समृद्ध हुआ है।
- निष्कर्ष
हिन्दी साहित्य के इतिहास चिन्तन में इन हिन्दीतर कवियों की हिन्दी काव्य-साधना की उपेक्षा नहीं की जा सकती। मध्यकाल में रचित हिन्दी साहित्य के भाव और शिल्प दोनों पर हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के साहित्य का गहरा प्रभाव है। यह प्रभाव इतना गहरा है कि मीराँ और विद्यापति जैसे हिन्दी क्षेत्र की भाषाओं के कवियों को इनके सीमान्त हिन्दीतर भाषाओं के लोग अपना कवि मानते हैं। मध्यकाल में हिन्दी साहित्य के विकास को हिन्दीतर भाषाओं के साहित्य के अध्ययन के बिना समझना मुश्किल है।
हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते समय हिन्दी प्रदेश की पड़ोस की अहिन्दी भाषाओं और उसके साहित्य का गहरा ज्ञान होना आवश्यक है। ऐसा नहीं होने पर हिन्दी पर उन हिन्दीतर भाषाओं और उन भाषाओं पर हिन्दी के पड़ने वाले प्रभाव को नहीं समझा जा सकता। उदाहरण के लिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जब हिन्दी साहित्य का इतिहास लिख रहे थे, तब उन्होंने न सिर्फ अपभ्रंश का हिन्दी पर प्रभाव देखा बल्कि आधिक काल में उन्होंने बांग्ला का प्रभाव भी लक्षित किया था। शायद इसीलिए शुक्ल जी का इतिहास आज भी हिन्दी साहित्य के इतिहासों में सबसे अधिक प्रामाणिक माना जाता है।
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- https://en.wikipedia.org/wiki/Hindi_literature