17 साहित्यिक भाषा के रूप में अवधी का विकास
डॉ. ओमप्रकाश सिसह
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- अवधी भाषा के क्षेत्र और समाज बारे में जान सकेंगे।
- विभिन्न कालों में लिखे गए अवधी साहित्य से परिचित हो सकेंगे।
- अवधी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य के बारे में जान सकेंगे।
- साहित्यिक भाषा के रूप में अवधी की विशेषताएँ समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
नाम से ही स्पष्ट है कि, अवधी भाषा उत्तर-प्रदेश के अवध क्षेत्र की भाषा है। उत्तर-प्रदेश में लखनऊ-फैजाबाद के आसपास का क्षेत्र अवध कहलाता है। अवध क्षेत्र में लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली, लखीमपुर-खीरी, सीतापुर, गोण्डा, बहराइच, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, बाराबंकी, फ़ैजाबाद, फतेहपुर जिले शामिल हैं। अवधी भाषा के कई रूप और नाम हैं। इसे ‘कोसली’ और ‘बैसवाड़ी’ भी कहते हैं। रायबरेली जिले का एक क्षेत्र बैसवारा है। बैसवारा की बोली बैसवाड़ी के नाम से जानी जाती है। अवधी भाषा का सम्बन्ध अर्द्धमागधी प्राकृत से माना जाता है। अर्द्ध मागधी से विकसित पूर्वी हिन्दी की बोलियों में अवधी सर्वप्रमुख बोली है।
- अवधी का आरम्भिक प्रयोग
अवधी काव्य के विकास क्रम के सम्बन्ध में विद्वानों के अलग-अलग विचार हैं। कोसली का उल्लेख आठवीं शती के ग्रन्थ कुवलयमाल में हुआ है। सिद्ध डोम्मिया (जन्म सन् 840) का योगचर्या नामक ग्रन्थ मिलता है। इसमें अवधी के आरम्भिक रूप मिलते हैं।
गंगा जउना माझेरे बहर नाइ।
ताहि बुडिली मांतगि पोइआली ले पारकरइ।
बाहुत डोम्बी बाह लो डोम्बी बाटत भईल उछारा ।
सद्गुरु पाऊ पए जाइबपुपु जिणउरा।
हिन्दी के एक प्राचीनतम ग्रन्थ रोडा कृत राउरबेल में साहित्यिक अवधी का उदाहरण दिखाई देता है। जिसे विद्वानों ने ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण की रचना माना है। यह शिलांकित कृति है, जिसमें उत्तर भारत के छह प्रदेशों की स्त्रियों के वर्णन मिलते हैं, जिनकी भाषा अलग-अलग है। इसमें से एक नायिका की पहचान कन्नौज की स्त्री के रूप में की गई है, जिसकी भाषा अवधी मानी जाती है। दूसरा उदाहरण दामोदर पण्डित रचित उक्तिव्यक्तिप्रकरण में उपलब्ध होता है जिसकी भाषा का रूप बोलचाल की भाषा के अधिक निकट है। हेमचन्द के प्राकृत व्याकरण, काव्यानुशासन, प्राकृतपैंगलम् में भी प्राचीन अवधी के प्रयोग मिलते हैं। अवधी में उकार के प्रचुर प्रयोग का उदाहरण दिया गया है। जैसे – जागु, माणु, जासु आदि। अवधी में करण कारक की ‘ए’ विभक्ति के भी प्रयोग की बहुलता है; जैसे – विराजैं, अवराजैं। पृथ्वीराज रासो में भी अवधी के साथ विभिन्न भाषाओं के शब्द हैं। अवधी का भाषा के रूप में स्पष्ट उल्लेख अमीर खुसरो ने अपने ग्रन्थ खालिकबारी में किया है। अमीर खुसरो ने अपने समय में प्रचलित भाषाओं का वर्णन करते हुए उसमें अवधी को भी शामिल किया है। इस तरह अवधी हिन्दी प्रदेश की अन्य भाषाओं के सामान खालिकबारी में भी उपस्थित है।
- सूफी काव्यधारा में काव्यभाषा के रूप में अवधी
अवधी भाषा में काव्यरचना का उदाहरण मुल्ला दाऊद कृत लोरकहा या चन्दायन (सन् 1379) है। यह पूरा काव्य अवधी में लिखा गया है। हालाँकि ज्योतिरीश्वर की पुस्तक वर्णरत्नाकर में लोरिक नृत्य का उल्लेख है, जो 14 वीं शताब्दी की कृति है। तब भी अवधी को काव्यभाषा की दृष्टि से प्रतिष्ठित करने का श्रेय मुल्ला दाऊद को ही जाता है। गजेटियर में इनकी चन्द्रेनी नामक कृति का उल्लेख है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल इसे 15वीं से 19वीं सदी के मध्य की रचना मानते हैं। यहीं से अवधी का काव्यभाषा के रूप में विकास प्रारम्भ होता है। मुल्ला दाऊद ने एक बोलचाल की भाषा को श्रेष्ठ काव्यभाषा का सृजनात्मक रूप प्रदान किया। काव्यभाषा के रूप में यहीं से अवधी का विकास प्रारम्भ हुआ। चन्दायन काव्य का रचना-कौशल जैन चरित-काव्यों की कड़वक पद्धति पर आधारित है। जैन मतावलम्बियों की धार्मिक भाषा के रूप में अर्द्धमागधी कई शताब्दियों से लोकप्रिय रही थी, इसका प्रभाव यहाँ दिखाया जा सकता है। मुल्ला दाऊद को फारसी काव्य-परम्परा का अच्छा ज्ञान था। चन्दायन में उन्होंने पारम्परिक और समकालीन अपभ्रंश काव्य परम्परा के साथ–साथ फ़ारसी काव्य-परम्परा का अद्भुत संयोजन किया। इस प्रकार से उन्होंने अवधी भाषा में एक नई काव्यशैली का निर्माण किया। उन्होंने आमजन की भाषा को ध्वन्यात्मक प्रभाव से सम्पन्न कर सृजनात्मकता के उत्कर्ष पर पहुँचा दिया –
दाऊद कवि जो चाँदा गाई।
जेंइ रे सुना सो गा मुरझाई।।
चन्दायन मुख्यतः शृंगार रस से ओत-प्रोत रचना है, जिसमें इसके दोनों पक्षों – संयोग और वियोग के मनोरम चित्रण में कवि को पूरी सफलता मिली है। नायिका के नख-शिख वर्णन में कवि ने नए-नए उपमानों के साथ ही पारम्परिक लौकिक उपमानों का भी प्रयोग किया है। वियोग पक्ष के लिए बारहमासा पद्धति का प्रयोग किया गया है।
इसी विकास-क्रम में मैनासत का उल्लेख आता है। श्री अगरचन्द नाहटा के मतानुसार सन् 1902 की खोज रिपोर्ट (नागरी प्रचारिणी सभा काशी) में यह विवरण प्रकाशित है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त के अनुसार मैनासत के दो पाठ हैं – एक तो स्वतन्त्र रूप में उपलब्ध और दूसरा चतुर्भुज दास निगम की मधुमालती के कुछ पाठों में समाहित हैं। इसे श्री अगरचन्द नाहटा 16 वीं सदी की रचना मानते हैं और डॉ. माताप्रसाद गुप्त सन् 1561 या उससे पूर्व की। हरिहर प्रसाद द्विवेदी सन् 1480 के बाद की रचना मानते हैं। इसके रचयिता के नाम की प्रामाणिक सूचना उपलब्ध नहीं है। जो भी हो, मध्य युग में अवधी में काव्य रचना होने लगी थी, इसे सभी विचारक स्वीकार करते हैं ।
चन्दायन की परम्परा में ‘मृगावती’ की रचना सन् 1503 में हुई। ठेठ अवधी भाषा में रचित इस रचना में कथ्य और काव्यरूप भी ‘चन्दायन’ जैसा है। इसके रचनाकार कुतुबन दाऊद की अपेक्षा अपभ्रंश काव्य परम्परा से कुछ अधिक प्रभावित दिखाई देते हैं। अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग भी बहुत कम है। इसकी भाषा की प्रमुख विशेषता है ठेठ अवधी का माधुर्य । कवि ने स्वयं लिखा है – ‘सासत्रीय आखर बहु आए। औ देसी चुनी चुनी सब लाए।’
कुतुबन का परिचय देते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है – “ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे और जौनपुर के बादशाह हुसैन शाह के आश्रित थे। अत: इनका समय विक्रम की 16वीं शताब्दी का मध्यभाग (संवत 1550) था। इन्होंने मृगावती नाम की एक कहानी चौपाई दोहे के क्रम से सन् 909 हिजरी (संवत 1558) में लिखी।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 66) लगभग इसी समय अवधी भाषा में एक लघु प्रबन्ध काव्य सत्यवती कथा ईश्वरदास ने लिखा। इस ग्रन्थ में प्रयुक्त भाषा अयोध्या के आस-पास की ठेठ अवधी है। ईश्वरदास ने सूफी कवियों की सहृदयता की भावना को अपनाया और मानव भावनाओं के साथ प्रकृति के सामंजस्य को दिखाया। इसके पश्चात जायसी का पदार्पण हुआ है ।
एक साहित्यिक भाषा के रूप में अवधी को पल्लवित, पुष्पित करने का श्रेय मलिक मुहम्मद जायसी को जाता है। उन्होंने ठेठ अवधी का प्रयोग कर चौदह ग्रन्थों की रचना की। जिसमें पद्मावत, अखरावट, चित्ररेखा (चित्रावत), कहरानामा (महरीबाईसी), आखिरी कलाम, कान्हावत आदि प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें पद्मावत सबसे अधिक महत्वपूर्ण रचना है। जिसकी रचना सन् 1527-1540 के बीच हुई। इसकी भाषा ठेठ अवधी है, जिसमें तत्सम पदावली का प्रयोग न के बराबर हुआ है। यह अवश्य है कि ठेठ अवधी के बीच-बीच में कहीं-कहीं प्राकृत अपभ्रंश के कुछ प्रयोग (दिनकर>दिनिअर, पृथ्वी> पुहुमी) तथा कहीं-कहीं पूर्वी पश्चिमी कई प्रकार के पद इनकी भाषा में दिख जाते हैं। कविता को अधिक से अधिक सामान्य-जन तक पहुँचाने के लिए कवि ने तद्भव शब्दों का व्यापक प्रयोग किया है और इसके लिए ‘ऊ’ ध्वनि को शब्दों के साथ जोड़कर उन्हें अवधी बना लिया है, जैसे – मिठासू, छहूँ, जोगू, नरेसू, इन्दू। पद्मावत की अवधी में लोकजीवन के मुहावरों से अत्यन्त सधा हुआ प्रयोग है – ‘हिय फटा’, ‘सूधी अँगुरि न निकसै घीऊ’। इसके साथ ही जायसी ने अरबी-फ़ारसी के उन्हीं शब्दों का प्रयोग किया जो बोलचाल की भाषा के अंग बन गए थे। सम्पूर्ण साहित्य में उनका यही प्रयास रहा कि भाषा अपने ठेठपन, देसीपन को खोए बिना, मिठास और लोकसंस्कृति को धारण करते हुए कथ्य को व्यक्त करे। लोकजीवन की स्वाभाविकता उनके शब्द-चयन में स्पष्टतः दिखाई देती है। उदाहरण के लिए, जायसी ने एक जगह ‘दवंगरा’ शब्द का प्रयोग किया है, जो अवध प्रान्त में मानसून की प्रथम वर्षा के लिए प्रयुक्त होता है। यह शब्द पढ़ते ही अवध की लोकसंस्कृति का चित्र आँखों के समक्ष सजीव हो उठता है।
इसके अतिरिक्त, जायसी की काव्यप्रतिभा अत्यन्त उर्वर और आध्यात्मिक साधना सम्पन्न थी। जायसी की काव्य-भाषा की बिम्ब-योजना तथा अप्रस्तुत योजना अद्भुत है। बिम्ब-योजना की सफलता मूलतः लोक-बिम्बों के निर्माण पर ही टिकी है। नागमती के वियोग प्रसंग की ये पंक्तियाँ अदभुत रूप से बिम्बात्मक हैं –
जेठ जरै जब बहै लुवारा। उठे बवण्डर धिकै पहारा।
चारिहु पवन झकोरै आगि। लंका दाहि पलंका लागि।।
पद्मावत में प्रयुक्त अवधी की सबसे बड़ी विशेषता इसकी मिठास है। रचनाकार ने भाषा का ऐसा प्रयोग किया है कि भाषा सीधे संवेदना से जुड़ने में समर्थ हो सकी है। उदाहरण के लिए –
यह तन जारौं छार के कहौ कि पवन उड़ाव।
मकु तेहि मारग उड़ि परै कंत धरै जहँ पाँव।।
भाषा की इसी मिठास को महसूस करके आचार्य शुक्ल ने लिखा – “जायसी की भाषा बहुत ही मधुर है, पर उसका माधुर्य निराला है। वह माधुर्य भाषा का माधुर्य है, संस्कृत का माधुर्य नहीं। वह संस्कृत की कोमलकान्त पदावली पर अवलम्बित नहीं। उसमें अवधी अपनी निज की स्वाभाविक मिठास लिए हुए है।” (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रन्थावली, सं. ओमप्रकाश सिंह, पृ. 179) भाषा और काव्यरूप दोनों ही दृष्टियों से पद्मावत में सूफी प्रेमकाव्य की वही पद्धति अपनाई गई है, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग मुल्ला दाऊद ने किया और कुतुबन ने उसका अनुसरण किया, जो अपभ्रंश के चरित-काव्य एवं फारसी के मसनवी शैली की रचनाओं से मिलकर बनी थी।
पद्मावत मूलतः एक प्रेमकाव्य है, जिसमें कवि ने बड़ी कुशलता से लौकिक कथा के माध्यम से आध्यात्मिक संकेतों का आभास कराया है। जायसी ने विभिन्न प्रकार की वस्तुओं और मनोभावों का अद्भुत वर्णन किया है। पद्मावत में नगर-वर्णन, प्रकृति-वर्णन, समुद्र, सरोवर, गढ़, विवाह, आदि के वर्णनों की भरमार है। इसके अलावा इसमें नायिका के सौन्दर्य वर्णन, वियोग वर्णन और बारहमासा वर्णन भी मिलता है।
सूफी काव्य परम्परा में जायसी के ही समकालीन कवि मंझन ने भी ठेठ अवधी भाषा में मधुमालती की रचना की। मंझन ने अपभ्रंश में प्रचलित पुराने शब्दों का प्रयोग नहीं किया। शब्दों के पुराने रूपों के प्रयोग के कारण कहीं-कहीं पद्मावत क्लिष्ट हो गया, मधुमालती में सर्वत्र प्रसाद गुण बना हुआ है। सन् 1528 में हरि चरित्र और सन् 1530 में भागवत दशम स्कन्ध भाषा नामक पुस्तकें अवधी मिली भाषा में कवि लालच दास ने लिखी, इन्हें जायसी का समकालीन माना जाता है।
इसके बाद सतरहवीं सदी में प्रेमाख्यान परम्परा में उसमान कृत चित्रावली (सन् 1613), शेख नबी की ज्ञानदीप (सन् 1619) एवं जानकवि (न्यामत खाँ) द्वारा रचित 21 ग्रन्थों की गणना की जाती है। काव्य रचना में उसमान ने जायसी को आदर्श माना, और उनका पूरा अनुकरण किया। शेख नबी ने अपनी भाषा में तत्सम शब्दों के प्रति अपना आकर्षण व्यक्त किया। वे लिखते हैं –“ललित रूप जो आखर गढ़े। चुनि-चुनि अमरकोस से काढ़े।” शब्द चयन और अलंकार प्रयोग की दृष्टि से शेख नबी एक सजग कवि जान पड़ते हैं।
जान कवि ने इतने अधिक ग्रन्थों की रचना की, कि उन्होंने भाषा पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। उनकी भाषा अधिकतर सपाट है। उनकी अवधी ब्रज मिश्रित है। अवधी के बीच-बीच में उन्होंने शुद्ध ब्रजभाषा के भी सवैये डाल दिए हैं।
इसके पश्चात सन् 1925 में हुसैन अली (सदानन्द) ने पुहुपावती और सन् 1736 में कासिम शाह ने हंस जवाहिर, नूर मुहम्मद ने इन्द्रावती और अनुराग बाँसुरी, शेख-निसार ने युसूफ जुलेखा की रचना की। पुहुपावती पर ब्रजभाषा का पूरा-पूर प्रभाव है। हंस जवाहिर की भाषा बोलचाल की अवधी है। अपने समकालीन कवियों से अलग उनकी भाषा पर ब्रजभाषा का प्रभाव अधिक दिखाई नहीं देता। उन्होंने फ़ारसी के शब्दों का भी अधिक प्रयोग किया है। इन्द्रावती की भाषा में ब्रज और भोजपुरी शब्दों की मिलावट दिखाई देती है। अनुराग बाँसुरी की भाषा अवधी ही है, पर उसमें ब्रज, खड़ी बोली आदि का प्रभाव दिखाई देता है। अरबी-फ़ारसी के अत्यधिक प्रभाव के कारण अनुराग बाँसुरी, भाषा विचार युग की खिचड़ी भाषा बन गई। जायसी के बाद अधिकांश सूफी कवियों की भाषा अवधी ही रही है पर इस भाषा में क्रमशः परिवर्तन आता गया है। तुलसी के बाद के सूफी कवियों ने भाषा में तत्सम तथा अर्द्ध तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक किया है। सम्भवतः तुलसी की विराट प्रतिभा और उनके ग्रन्थ रामचरितमानस की अपार ख्याति ने ही सूफी कवियों की भाषा को प्रभावित किया होगा। यह प्रभाव सबसे अधिक नजर आता है नूर मुहम्मद की अनुराग बाँसुरी में। शुक्ल जी ने इसे लक्षित करते हुए लिखा है कि अनुराग बाँसुरी और… सब सूफी रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृत गर्भित है। शेख निसार की भाषा सामान्य ही रही। उन्होंने भारतीय लोक-कथा का आधार न लेकर फ़ारसी की युसुफ-जुलेखा की कथा का आधार लिया। सन् 1809 में शाह नजफ़ अली सलोनी ने प्रेम चिनगारी नामक काव्य रचना अवधी में की। देवा (बाराबंकी) और जौनपुर के सूफी उर्स में सूफी सन्तों की काव्य रचनाएँ निरन्तर गाई जा रही हैं। जिसमें मुस्लिम कवि अधिक हैं।
बीसवीं सदी में ख्वाजा अजमद ने नूरजहाँ, शेख रहीम ने भाषा प्रेम रहस्य तथा कवि नसीर ने प्रेमदर्पण की रचना की। ये सभी ग्रन्थ दोहा चौपाई शैली में हैं। इनमें से कुछ पश्चिमी अवधी, कुछ पूर्वी हिन्दी और कुछ बैसवाड़ी अवधी में लिखी गई हैं। राजा चित्रमुकुट और रानी चन्द्रकिरन नाम से एक अवधी प्रेमकाव्य नागरी प्रचारिणी सभा काशी में सुरक्षित है।
- रामभक्ति काव्यधारा में अवधी का विकास
अवधी में रामकाव्य का सर्जन सर्वप्रथम रामानन्द जी ने पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी के मध्य में किया; फिर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखकर अवधी को मान्य साहित्यिक भाषा बना दिया। अब तक अवधी में काव्य-रचना करने वाले कवि प्रायः उस सूफी परम्परा से आते थे जिनको कुछ हद तक अपभ्रंश और फारसी काव्य-परम्परा का तो ज्ञान था, पर जो संस्कृत परम्परा से अनभिज्ञ थे। तुलसी के रूप में अवधी को एक ऐसा कवि मिला, जिसने संस्कृत परम्परा का भी गहरा अध्ययन किया था।
तुलसी और प्रकारान्तर से रामकाव्यधारा के अन्य कवियों की काव्यभाषा की मूल विशेषता, जो उन्हें सूफियों की काव्यभाषा से अलग करती है, तत्सम शब्दों का प्रचुर प्रयोग है। ये तत्सम शब्द अवधी को संस्कृत नहीं बनाते बल्कि उनके सम्भावित अवधी रूप में प्रयुक्त करते थे। उदाहरण के लिए ‘हंसगामिनी’, ‘अमृत’, ‘करुणा’ और ‘वन’ शब्द उनके यहाँ क्रमशः ‘हंसगवनि’, ‘अमिय’, ‘करुना’ और ‘बन’ हो गए हैं। इस प्रक्रिया में तत्सम शब्दों का अवधीकरण हो गया है और वे बेमेल प्रतीत नहीं होते। जैसे –
लोचन जल रहे लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना।
तुलसी आदि रामभक्त कवियों की भाषा में अवधी केवल तत्सम शब्दों तक सिमट गई हो, ऐसा नहीं है। एक ओर तुलसी ने अपने समय में प्रचलित अरबी-फ़ारसी शब्दों से परहेज नहीं किया है, तो दूसरी ओर देशज-तद्भव शब्द भी उनके यहाँ काफी मात्रा में है। उदाहरण के लिए फ़ारसी शब्द गरीबनेवाज तुलसी द्वारा राम के लिए प्रयुक्त सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषण है। इसके अतिरिक्त बकसीस, दरबार, कसक आदि विदेशी शब्द भी काव्य में आए हैं। भोजपुरी, राजस्थानी तथा खड़ी बोली के भी कई प्रयोग उन्होंने किए हैं, और ठेठ अवधी के देशज शब्दों – बाँझ, अहेर आदि के प्रयोग भी उनमें मिलते हैं।
नवीन प्रयोगों के माध्यम से तुलसीदास ने अवधी भाषा का संस्कार किया।
‘ध्वनि-मैत्री’ का अप्रतिम कौशल तुलसी की भाषा की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। अलंकार प्रयोग की निपुणता उनकी भाषा का विशिष्ट गुण है। उन्होंने अनुप्रास अलंकार का प्रयोग बड़ी ही सहजता से किया है। इसके अतिरिक्त उपमा, सांगरूपक जैसे अलंकार तथा अद्भुत प्रतीक व बिम्ब योजना तुलसी के साहित्य में प्रयुक्त अवधी भाषा को गहरे कलात्मक स्तर पर आसीन करा देती है। उपमानों की नवीनता की माँग प्रयोगवादी कवियों ने तो आधुनिक काल में की, तुलसी यह माँग भक्तिकाल में ही कर रहे थे –
सब उपमा कबि रहे जुठारी। कहि पटतरौं बिदेह कुमारी।
पूर्व प्रचलित प्रायः सभी काव्य शैलियों को उन्होंने अपने साहित्य में अवधी और ब्रजभाषा के माध्यम से आत्मसात किया। उन्होंने रामकाव्य के लिए अवधी के साथ ही ब्रज भाषा का भी प्रयोग किया। अपभ्रंश की कडवक शैली, सूफी काव्य की दोहा-चौपाई शैली का प्रयोग उन्होंने नए रूप में किया। रचना कौशल, सहृदयता, प्रबन्ध-पटुता, मार्मिक स्थलों की पहचान आदि के संयोजन से रामचरितमानस विश्व के श्रेष्ठ काव्यग्रन्थों में गिना जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है – “भाषा पर जैसा अधिकार गोस्वामीजी का था, वैसा और किसी हिन्दी कवि का नहीं। पहली बात तो यह ध्यान देने की है कि ‘अवधी’ और ‘ब्रज’ काव्यभाषा की दोनों शाखाओं पर उनका समान और पूर्ण अधिकार था। रामचरितमानस उन्होंने ‘अवधी’ में लिखा, जिसमें पूरबी और पछाहीं (अवधी) दोनों का मेल है। कवितावली, विनयपत्रिका और गीतावली – तीनों की भाषा ब्रज है। कवितावली तो ब्रज की चलती भाषा का सुन्दर नमूना है। पार्बतीमंगल, जानकीमंगल और रामललानहछू ये तीनों पूरबी अवधी में हैं। भाषा पर ऐसा विस्तृत अधिकार किसी और कवि को नहीं था। न सूर अवधी लिख सकते थे, न जायसी ब्रज।” (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रन्थावली भाग-1, सं. ओमप्रकाश सिंह, पृ. 466)
अवधी रामकाव्य परम्परा में तुलसीदास के अतिरिक्त सूरजदास, अग्रदास, नाभादास, प्राणचन्द्र चौहान, लालदास, आदि का नाम उल्लेखनीय है।
- हिन्दू प्रेमाख्यानों की अवधी
सूफी काव्यधारा एवं रामभक्ति काव्यधारा के अतिरिक्त मध्यकाल में कुछ ऐसे कवि भी थे, जिन्हें विद्वानों ने हिन्दू प्रेमाख्यानकार कहा है इन कवियों में नरपति व्यास, गोवर्धनदास तथा दुखहरन जैसे कवि प्रमुख हैं। इनकी भाषा में अपभ्रंश, ब्रजभाषा का प्रभाव तो है ही, संस्कृत का बढ़ता हुआ प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई देता है। इन कवियों की भाषा में व्यक्तिगत अन्तर काफी अधिक हैं, इसीलिए इस परम्परा का विकास अधिक नहीं हुआ। दुखहरन की निम्नलिखित चौपाई से इस धारा की भाषा का सामान्य परिचय मिलता है –
रोवत नैन रक्त कै धारा। टेसु फूलि बन भा रतनारा।
जौ सिंगार कोई बरबस करई। अनिल समान होई सो जरई।।
- आधुनिक काल : अवधी काव्य
बीसवीं सदी के प्रथम दशक के बाद अवधी साहित्य में खासी कमी आ गई है। खड़ी बोली के हिन्दी प्रदेश की भाषा बनने तथा मानक भाषा बनने से ऐसा होने लगा। खड़ी बोली के रूप में मानक भाषा के विकास के कारण अवधी साहित्य प्रायः नहीं लिखा जा रहा है। आधुनिक काल में अवधी में रचना करने वाले साहित्यकारों में बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढी़स’, वंशीधर शुक्ल, चन्द्रभूषण द्विवेदी (रमई काका), दयाशंकर दीक्षित देहाती, ब्रजनन्दन, आदि उल्लेखनीय हैं। रमई काका की रचना नेताजी नाम से आल्हा शैली में है जो सुभाषचन्द्र बोस के विदेश गमन और आजाद हिन्द सेना की स्थापना से सम्बन्धित है। इनकी फुटकर कविताएँ हास्य-व्यंग्य के प्रहसन और आकाशवाणी के लिए उनके नाटक बहरे बाबा आदि रचनाएँ अनमोल धरोहर हैं। इनकी अवधी भाषा में खड़ी बोली और बैसवाड़ी अवधी का प्रयोग है। वंशीधर शुक्ल की भाषा पर खड़ी बोली का प्रभाव दिखाई देता है। बलभद्र प्रसाद दीक्षित की भाषा पर खड़ी बोली और बैसवाड़ी का प्रभाव है।
विद्वानों ने पूर्वी अवधी और पूर्वोत्तर अवधी को आदर्श अवधी कहा है। अवधी का पश्चिमी अवधी, दक्षिण या बघेली अवधी, पश्चिमोत्तरी या गाजरी अवधी, बैसवाड़ी अवधी आदि के नाम से उल्लेख है। सन् 1757-1857 तक समस्त हिन्दी प्रदेश अंग्रेजों के अधीन हो गया था। शासन परिवर्तन से देश प्रभावित होता है। उसकी सांस्कृतिक मान्यताएँ बदलने लगती हैं। उसकी भाषा और साहित्य में उलट फेर होने लगता है। अंग्रेजी शासन की स्थापना से खड़ी बोली हिन्दी का प्रभाव बढ़ा। हिन्दी और उर्दू के शब्दों में दो-चार अंग्रेजी शब्दों की मिलावट को ‘फैशन’ और ‘शिष्टता’ का द्योतक समझा जाने लगा। परिणामस्वरूप इधर सौ-डेढ़ सौ वर्षों में हिन्दी की बोलियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। अतः अवधी की आधुनिक कविता की भाषा के अध्ययन के लिए संक्षेप में भाषा की बदलती हुई झाँकी पर दृष्टि-निक्षेप आवश्यक है। अवधी के विकास को देखने के लिए उसे दो विभागों में विभाजित किया जा सकता है – प्राचीन तथा आधुनिक अवधी। यह भेद करने पर उसे परसर्गों, सर्वनामों, क्रियारूपों, क्रियाविशेषणों, अव्ययों तथा उसकी विभक्तियों और संज्ञाओं सभी में कुछ-न-कुछ परिवर्तन दिखता है। भाषा-विज्ञान में इस परिवर्तन को ही विकास कहते हैं। कहा भी गया है, ”भाषा बहता नीर।”आधुनिक युग में विभक्तियों का लोप होता जा रहा है, उनका स्थान परसर्ग ले रहे हैं। कुछ विभक्तियाँ बिलकुल लुप्त हो गई हैं। उदाहरण के लिए ‘हि’ या ‘हिं’ विभक्ति को देखा जा सकता है। पहले इनका प्रयोग सभी कारकों में होता था। बाद में वह कर्म और सम्प्रदान में सीमित हो गई, परन्तु आज समाप्तप्राय है। पुरुषवाचक सर्वनामों को छोड़कर अन्य सर्वनामों में वह परसर्गीय रूपों के साथ शेष रह गई है। जैसे ‘जेहिका’, ‘वहिका’। इसका एक परिवर्तित रूप सम्बन्ध कारक में विकल्प से प्रयुक्त किया जाता है। वहाँ हकार का लोप हो जाता है और ‘हि’ ‘ए’ रूप में उच्चरित होती है। यथा – ‘घरका जाउ’ कथन का विकल्प ‘घरै जाउ’ भी है। जिसकी विभक्ति निश्चित ही ‘हि’ विभक्ति का परिवर्तित (घरहि-घरै) रूप है।
प्राचीन अवधी में ‘न्हि’ तथा ‘न्ह’ विभक्तियों का प्रयोग भी बदला है। ‘न्ह’ का महाप्राणत्व समाप्त होकर न हो गया है। जैसे – विप्रन्ह का विप्रन।
इसी प्रकार परसर्ग रूपों में भी परिवर्तन हुआ है। सर्वनाम और क्रिया रूप भी बदले हैं। डॉ. उदय नारायण तिवारी के मतानुसार उक्ति व्यक्ति प्रकरण के अपभ्रंश में अनुस्वार ध्वनि लुप्त हो गई और आधुनिक कोसली के समान उसका उच्चारण न हो गया था। गुरु गोरखनाथ की भाषा का ढाँचा अवधी है। क्रियाएँ और कारक अवधी के हैं, पर उनकी काव्यभाषा में पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली तथा भोजपुरी आदि के शब्द मिलते हैं। सरहपा के दोहाकोश और चर्यागीतों में ठेठ अवधी के शब्द प्रयुक्त हैं। अवधी में काव्य रचना करने वाले कवि सहज ही दोहा-चौपाई का व्यवहार करते थे। विद्वानों के मतानुसार बारहवीं शताब्दी में अवधी ने जो रूप धारण किया, वह आज तक प्रचलित है।
आधुनिक काल में खड़ी बोली के सामान अवधी भाषा भी धीरे धीरे विकसित हुई है। भारतेन्दु हालाँकि ब्रज भाषा में कविता लिखा करते थे, परन्तु उन्होंने खड़ी बोली में भी काव्य रचना की। सन् 1857 का केन्द्र चूँकि अवध था, इसलिए अवधी में इस बीच बहुत-सा मौखिक साहित्य रचा गया। कुछ स्थानीय कवि अवधी में पुराने ढंग की कविताएँ लिख रहे थे। आगे चलकर बलभद्रप्रसाद दीक्षित ‘पढीस’, बंशीधर शुक्ल और रमई काका सक्रिय हुए। छायावाद और प्रगतिवाद के संधिकाल में ‘पढीस’ जी और बंशीधर शुक्ल ने अवधी में प्रचुर साहित्य लिखा। खड़ी बोली के विकास के साथ अवधी का विकास अवरुद्ध हो गया।
अवधी भाषा के काव्यरूप का विकासक्रम देखने से स्पष्ट है कि यह निरन्तर विकासोन्मुख रहा और आंचलिक साहित्य में इस भाषा का प्रयोग व्यापक और प्रभावोत्पादक ढंग से हुआ।
- निष्कर्ष
साहित्यिक भाषा के रूप अवधी के विकास का लम्बा इतिहास है। अवधी भाषा का साहित्यिक प्रयोग हमें छिटपुट रूप में आदिकाल से ही मिलने लगता है। भक्तिकाल में भक्त कवियों, विशेष रूप से तुलसीदास ने अवधी के रूप में निखार लाकर उसको उत्कर्ष प्रदान किया। रहीम की रचनाएँ भी अवधी का श्रेष्ठ नमूना हैं। भक्तिकाल के बाद भी अवधी का प्रयोग काव्य भाषा के रूप में होता रहा, यह जरूर था कि इसका प्रयोग कम हो गया था। आधुनिक काल में अवधी का प्रयोग साहित्य लेखन के लिए हो रहा है। लोक साहित्य और भाषा विज्ञान के अध्ययन की दृष्टि से अवधी का महत्त्व आज भी बना हुआ है।
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वेब लिंक्स
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