16 साहित्यिक भाषा के रूप में ब्रजभाषा का विकास

डॉ. ओमप्रकाश सिसह

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ का अध्ययन करने के उपरान्त आप –

  • ब्रजभाषा और उसके क्षेत्र से परिचित हो सकेंगे।
  • ब्रजभाषा का साहित्यिक विकास समझ सकेंगे।
  • ब्रजभाषा में विभिन्‍न कालों में लिखी गई रचनाओं से परिचित हो सकेंगे।
  • हिन्दी साहित्य में ब्रजभाषा का महत्त्व समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

हिन्दी साहित्य के इतिहास में ब्रजभाषा की अत्यन्त समृद्ध एवं सुदीर्घ परम्परा रही है। ब्रज पश्‍च‍िमी हिन्दी की एक प्रमुख बोली है जो कि शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित हुई। आज जिस क्षेत्र में ब्रजभाषा बोली जाती है, वहाँ छठी-सातवीं सदी में अपभ्रंश बोली जाती थी। आज ब्रजभाषा उत्तर-प्रदेश के मथुरा, अलीगढ़, आगरा, बुलन्दशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूँ तथा बरेली जिले में, हरियाणा में गुड़गाँव जिले की पूर्वी पट्टी, राजस्थान में भरतपुर, धौलपुर, करौली तथा जयपुर के पूर्वी भाग, मध्यप्रदेश  में ग्वालियर के पश्‍च‍िमी भाग में बोली जाती है, किन्तु विशुद्ध ब्रजभाषा मथुरा, अलीगढ़ और आगरा जिले में बोली जाती है। स्थानीय भेद के कारण ब्रजभाषा की कई बोलियाँ हैं, जिनमें से कुछ अपने प्रभाव के कारण उल्लेखनीय हैं – भुक्सा (नैनीताल), गाँववारी (आगरा जिला का पूर्वी भाग), ढोलपुरी (ढोलपुर), जादोबाटी (भरतपुर, करौली), डाँगी (धौलपुर और पूर्वी जयपुर), अन्तर्वेदी (एटा, मैनपुरी, बदायूँ और बरेली), मथुहरी (मथुरा, वृन्दावन)।

  1. ब्रजभाषा के प्रारम्भिक प्रयोग : सूरपूर्व ब्रजभाषा

 

आरम्भिक चरण की ब्रजभाषा शौरसेनी अपभ्रंश से धीरे-धीरे अपना रूप ग्रहण कर रही थी। यद्यपि ब्रजभाषा नाम का प्रयोग अठारहवीं शताब्दी में पहली बार, हुआ तथापि किसी न किसी रूप में इसकी भाषिक प्रवृत्तियाँ पहले भी दिखाई देती हैं। इसके पूर्व यह ‘पिंगल’ तथा ‘भाखा’ नाम से प्रसिद्द थी। डॉ. शिवप्रसाद सिंह के अनुसार महाराष्ट्र में रचित ब्रजभाषा काव्य का कुछ संकेत चालुक्य नरेश सोमेश्‍वर (सन् 1127) के मानसोल्लास  नामक ग्रन्थ में मिलता है। (सूरपूर्व ब्रजभाषा, शिवप्रसाद सिंह, पृ. 220) हेमचन्द्र के व्याकरण के उद्धृत दोहों एवं उनके कोश देशीनाममाला  में संगृहीत शब्दों में ब्रजभाषा का पूर्व रूप झलकता है। जैसे – ‘सासानल जल झलक्‍क‍ियउ’ में अपभ्रंश शब्द ‘झलक्‍क‍ियउ’ से ही ब्रज का ‘झलक्‍को’ शब्द व्युत्पन्‍न हुआ। इसी प्रकार ‘बाउल्लो’ से ‘बावरा’, ‘चोट्टी’ से ‘चोटी’, ‘लग्गि’ से ‘लागि’ आदि उल्लेखनीय है। इसके साथ ही पिंगल की प्रामाणिक रचनाओं में श्रीधर व्यास का रणमल्ल छन्द, प्राकृतपैंगलम  में चारण शैली के पद, पृथ्वीराज रासो  के प्रमाणित छप्पय, उक्ति व्यक्ति प्रकरण तथा कहीं-कहीं कीर्तिलता में भी ब्रजभाषा का पूर्व रूप दिखाई देता है। यथा – ‘नअण झम्पियो’ (प्राकृतपैंगलम) तथा ‘ओ परमेसर हर सिर सोहई’ (कीर्तिलता) उपयुक्त उदाहरण में ओकारान्त की प्रवृत्ति ब्रजभाषा का ही प्राणतत्त्व है। सिद्धों-नाथों की सधुक्‍कड़ी भाषा में भी ब्रजभाषापन दिखाई देता है। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के कई पदों में ब्रजभाषा का पुट दिखाई देता है –

 

पखेरु ऊडिसीआय लीयो बीसराय।

ज्यों ज्यों नर स्वारथ करे कोई न सजायौ काम।।

जोगी सोई जाणिये जग तैं रहे उदास।

तत निरंजण पाईये कहै कहै मछंदरनाथ।।

इस पद में ओकारान्त ब्रजभाषा की ही पृष्ठभूमि है।

 

ब्रजभाषा का पहला स्वतन्त्र प्रयोग करने का श्रेय आदिकालीन कवि अमीर खुसरो को दिया जा सकता है। यद्यपि उनकी भाषा में फ़ारसी, खड़ी बोली और अवधी तीनों भाषिक परम्पराएँ मिलती हैं, पर निश्‍च‍ित रूप से उनकी रचनाओं में ऐसे कई उदाहरण हैं, जो ब्रजभाषा के मधुर रूप का आभास कराते हैं। जैसे –

 

खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।

तन मेरो मन पिउ को, दोऊ भए एक रंग।।

 

तेरहवीं सदी तक ब्रजभाषा का कोई रूप स्थिर नहीं हुआ था। सूरदास से पूर्व कुछ और कवि ब्रजभाषा का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। चौदहवीं सदी में कवि सुधीर अग्रवाल की प्रद्युम्‍न चरित  (सन् 1354) में ब्रजभाषा के कुछ लक्षण प्राप्‍त होते हैं। इसे ब्रजभाषा की पहली रचना कहते हैं। जाखू मणयार का हरिचन्दपुराण जो राजा हरिश्‍चन्द की कथा पर आधारित है, उसमें भी ब्रजभाषा विकसित होती हुई दिखाई देती है। इसके बाद ब्रज काव्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कवि  के रूप में विष्णुदास का नाम आता है। उनकी चार रचनाएँ प्रकाश में आई – महाभारत कथा, स्वर्गारोहण, रुकमणिमंगल और स्‍नेहलीला। विष्णुदास जी ने प्रारंभिक ब्रजभाषा की ठोस साहित्यिक नींव तैयार की। यथा –

 

मोहन महलन करत विलास।

कन मन्दिर में केलि करत हैं और कोउ नाहिं पास।

 

इसके बाद मानिक की बैताल पचीसी (सन् 1469), नारायण दास की छिताइ वार्ता, मेघनाथ की गीताभाषा (सन् 1500), थाकुरसी की पंचेन्द्रियबेली, चतरुमल की नेमे वरगीत तथा धर्मदास की कुछ रचनाओं को ब्रजभाषा के प्रथम चरण के रूप में देखा जा सकता है। महाराष्ट्र के सन्त नामदेव ने भी कुछ पदों की रचना की, जिनमें ब्रजभाषा के शब्द मिलते हैं। सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव ने अपनी वाणी और अपने पूर्व के चार गुरुओं – देव, अंगद, रामदास और अमरदास के अतिरिक्त कबीर, त्रिलोचन, बेनी, रामानन्द, धन्‍ना, पीपा, सेन, रैदास आदि भक्तों की वाणी का संग्रह किया, जिनमें ब्रजभाषा का तत्कालीन रूप मिलता है। गुरु अर्जुनदेव की भाषा पंजाबी मिश्रित ब्रजभाषा कही जा सकती है। जैसे –

 

जनम जनम का बिछुड़िया मिलिया, साध क्रिया ते सूखा हरिया।

 

वस्तुतः, पुरातन मध्यदेश की शौरसेनी अपभ्रंश का स्थान कालान्तर में ब्रजभाषा ने ग्रहण किया। अपने इस प्रारम्भिक चरण में उक्त कवियों की भाषा धीरे-धीरे ब्रजभाषा की ओर मुड़ रही थी। इसमें अभी अपभ्रंश के पुट विद्यमान थे, परन्तु इसी अपभ्रंश से जीवन रस लेकर मध्यकाल में ब्रजभाषा हिन्दी क्षेत्र की प्रमुख काव्यभाषा बन गई।

 

प्रथम चरण की ब्रजभाषा के कुछ महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण हैं, जिनमें अकारान्त आनुनासिकता की प्रवृत्ति मिलती है। जैसे – ‘कँह’, ‘मँह’, ‘अँधार’। ‘ण’ और ‘न’ के प्रयोग को लेकर स्थिरता है। बहुत से शब्दों में ‘ण’ पाया जाता है। जैसे – ‘वयण’, ‘नयण’, ‘जाणिये’, ‘निरंजण’ आदि। बाद की ब्रजभाषा में ण नहीं है। जैसे – गनपति, सरन आदि। ‘श’ लिखा जाता था, पर इसका उच्‍चारण ‘ख’ होता था। ‘ऐ’, ‘औ’ का बाहुल्य ब्रजभाषा की विशेषता है, परन्तु इस युग में ऐसे प्रयोग तीन रूपों में मिलते थे।

  1. सूरदासयुगीन ब्रजभाषा

 

द्वितीय चरण में इस समय तक ब्रजभाषा का रूप स्थिर हो गया था। ब्रज क्षेत्र में जैसे ही कृष्ण भक्ति के केन्द्र स्थापित हुए, सांस्कृतिक भाषा के रूप में ब्रजभाषा कविता में सहज ही ग्राह्य हो गई। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है – “जिस समय श्री प्रभु वल्लभाचार्य को ब्रज जाकर गोकुल तथा गोवर्धन को अपना केन्द्र बनाने की प्रेरणा हुई, उसी दिन से ब्रज की प्रादेशिक बोली के भाग्य पलटे। वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ ने अष्टछाप की स्थापना की। सूरदास इसमें प्रमुख थे।” (हिन्दी भाषा, डॉ. हरदेव बाहरी, पृ. 207)  अष्टछाप के अन्य कवि थे नन्ददास, कृष्णदास, परमानन्ददास, चतुर्भुजदास, कुम्भनदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी। इसके अलावा अन्य सम्प्रदायों के कवियों ने भी ब्रजभाषा में साहित्य लिखा।

 

ब्रजभाषा को बहुमुखी अभिव्यंजना से परिपूरित करने में सूरदास अग्रणी हैं। ब्रजभाषा इतिवृत्तात्मक शैली पदों के लिए उयुक्त पाई गई है। तत्कालीन कृष्णभक्ति काव्य एक मात्र ब्रजभाषा में लिखा गया है। कृष्णकाव्य में दो प्रधान रस हैं – वात्सल्य और शृंगार। दोनों कोमल रस हैं। इसीलिए ब्रजभाषा में सरसता, लालित्य और माधुर्य दिखाई देता है। इस काल के कवियों का एक अन्य लक्षण उनकी संगीतात्मकता भी है, जिससे ब्रजभाषा में और अधिक भावप्रवणता के दर्शन होते हैं। सूरदास और नन्ददास की भाषा उच्‍च कोटि की है।

 

सूरदास ब्रजभाषा के सफलतम कवि हैं। भाषा वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस प्रकार जायसी और तुलसी को पाकर अवधी धन्य हो गई थी, उसी प्रकार सूर को पाकर ब्रजभाषा धन्य हो गई। सूरदास ने ब्रजभाषा में लगभग सवा लाख पदों की रचना की है। उनकी भाषा का महत्त्व इस बात में है कि वह कई क्षेत्रों से जुड़ी होकर भी एकदम स्वाभाविक है और उनकी काव्यभाषा ब्रजभाषा का आरम्भिक उदाहरण होकर भी चरम रूप से सफल भाषा है। इसी स्थिति को देखते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को कहना पड़ा, “सूरसागर किसी पहली से चली आ रही परम्परा का… चाहे वह मौखिक रही हो… पूर्ण विकास-सा जान पड़ता है, चलने वाली परम्परा का मूल रूप नहीं।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 113)

 

सूरदास की भाषा सिर्फ प्रारम्भिक ब्रजभाषा की दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, गुणवत्ता की दृष्टि से भी उनकी भाषा इतनी सफल रही कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को कहना पड़ा – “यह रचना इतनी प्रगल्भ और इतनी कलापूर्ण है कि आगे आने वाले कवियों की शृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ सूर की जूठी-सी जान पड़ती हैं।” (वही, पृ. 113)  काव्यभाषा विषयवस्तु और भाव के अनुकूल नए-नए रूपों में दिखाई देती है। सूरदास जब सौन्दर्य का वर्णन करते हैं तो तत्सम शब्दों पर उनकी निर्भरता बढ़ जाती है। अभिव्यक्ति की क्षमता पर उनका पूरा अधिकार है। वांछित शब्द और अर्थगर्भित वाक्य उनकी इच्छा के अनुरूप जैसे अपने आप निकल आते हैं। उन्होंने अवसरानुकूल भाषा में अरबी, फ़ारसी, अवध, राजस्थानी शब्द भी प्रयुक्त किए हैं –

 

मन हरि लीन्हौं कुँवर कन्हाई ।

तबहीं तैं मैं भई दीवानी, कहा करौ री माई।

कुटिल अलक भीतर अरुझानी, अब निरवारि न जाई।

नैन कटाच्छ चारु अवलोकनि, मो तन गए बसाई।

इस पद में तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग हुआ है।

 

सूरदास ने ब्रजभाषा के उसी रूप को नहीं लिया जो सामान्य रूप से बोलचाल की थी। भाषा को व्यापकता प्रदान करने के उद्देश्य से उन्होंने ‘जेहिं’, ‘तेंहि’, जैसे अवधी प्रयोग ‘गौण’, ‘आपन’, ‘हमार’ जैसे पूर्वी प्रयोग तथा ‘मँहगी’ (प्यारी), जैसे पंजाबी प्रयोग भी इसमें शामिल किए। सूरदास की भाषा की सबसे बड़ी विशेषता उनकी चित्र निर्माण की कला में हैं। हिन्दी के किसी भी अन्य कवि की तुलना में उन्होंने सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों को पूरी चित्रात्मकता के साथ व्यक्त करने में सफलता प्राप्‍त की है। संगीतात्मकता उनकी भाषा का दूसरा सबसे प्रमुख गुण है। लय, ताल, तुक आदि पर सूरदास का इतना गहरा अधिकार था कि उनकी सारी कविताएँ बहुत स्वाभाविक रूप के साथ गेयता को धारण करती हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार सूरदास ने ब्रजभाषा का प्रयोग तीन शैलियों में किया। पहला तत्सम शैली, दूसरा मुहावरों और लोकोक्तियों की शैली। तीसरा वाग्विदग्धता की शैली। सभी समीक्षक इस बात पर सहमत हैं कि वाग्विदग्धता की जो शैली सूरदास ने विकसित की, उसने ब्रजभाषा में एक नए तेवर को जन्म दिया। एक उदाहरण द्रष्टव्य है –

 

निर्गुण कौन देश को वासी

मधुकर हँसि समुझाए ! सौंह दे, बूझति सांच न हाँसि।

को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासि।।

 

सूरदास की विशेषता नए-नए विषयों पर लिखना नहीं, सीमित विषयों पर नए-नए तरीके से लिखना है। इस कारण स्वाभविक रूप से उनका अप्रस्तुत विधान बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया। उपमा और उत्प्रेक्षा का प्रयोग करना उन्हें सबसे अधिक प्रिय है, हालाँकि कभी-कभी ऐसा होता है कि शुक्ल जी के शब्दों में “सूरदास को उपमा देने की झक-सी चढ़ जाती है, और वह उपमा पर उपमा और उत्प्रेक्षा पर उत्प्रेक्षा करते चले जाते हैं।” (भ्रमरगीत, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 31) इसके बावजूद उपमानों की दृष्टि से सूरदास की कविता निस्सन्देह श्रेष्ठ है।

 

अष्टछाप के अन्य कवि नन्ददास, कृष्णदास, परमानन्ददास, चतुर्भुजदास, कुम्भनदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी ने भी ब्रजभाषा को वाग्वैदग्ध और काव्य लालित्य से युक्त किया है। नन्ददास शास्‍त्रीय ब्रजभाषा के माहिर थे। जिस प्रकार तुलसी ने संस्कृत के शब्दों को अवधी भाषा के प्रभाव में ढाल दिया, वैसे ही उन्होंने संस्कृत शब्दों को ब्रजभाषा के प्रभाव में ढाल दिया। इसीलिए उनके बारे में एक उक्ति प्रसिद्द हो चली – ‘और कवि गढ़ि‍या नन्ददास जड़िया’। कृपाराम की हितरिंगिणी की भाषा भी शास्‍त्रीय रूप की है। रहीम और रसखान ने ब्रजभाषा को लावण्यमय और उच्‍चारण सहज बनाया है । इनकी भाषा अलंकार बहुल और चमत्कार बहुल है। इन्होंने तद्भव शब्दों का सुन्दर प्रयोग किया है। इनकी संस्कृत प्रधान शैली का एक उदाहरण द्रष्टव्य है –

 

“ऊधव को उपदेश, सुनो ब्रजनागरी।

रूप शील लावन्य, सब गुण आगरी।

प्रेम सुधा रस रूपिनी, उपजावत सुख पुंज।

सुन्दर स्याम विलासीनी नव वृन्दावन कुंज।।

 

कृष्णदास की काव्य-भाषा में भावप्रवणता और गम्भीरता है। परमानन्ददास की काव्य-भाषा सरल-सरस और भावपूर्ण है। चतुर्भुजदास के कीर्तन पद बहुत मधुर और संगीतमय हैं। हितहरिवंश की भाषा संस्कृत प्रधान है। रसखान की भाषा सरल-सरस और सुन्दर ब्रजभाषा है। मीराबाई की भाषा का स्वरूप तो ब्रजभाषा का है, किन्तु उसमें राजस्थानी के पद विद्यमान हैं –

 

पग घुंघरू बाँध मीरा नाची रे

मै तो अपने नारायण की आपहि हो गई दासि रे।

लोग कहें मीरा भई बावरी, सासु कहें कुलनासी रे।।”

 

तुलसीदास रामभक्त थे, उन्होंने राम का गुणगान अवधी भाषा में किया किन्तु उनका जितना अधिकार अवधी पर था उतना ही ब्रजभाषा पर भी। सूरदास की तुलना में उनकी ब्रज भाषा में तत्समता अधिक है। उनकी कवितावली, विनयपत्रिका, गीतावली, कृष्णगीतावली आदि रचनाओं में ब्रजभाषा का सौन्दर्य सूरदास से तुलना करता हुआ दिखाई देता है। उनकी विनयपत्रिका की भाषा विशुद्ध रूप से ब्रजभाषा है –

 

सुमिरो सनेहसों तु नाम रामराय को

सँबर निसँबरको सखा असहाय को।।

  1. रीतिकालीन ब्रजभाषा

 

रीतिकाल में ब्रजभाषा एक विकल्प के रूप में नहीं, एकमात्र काव्य-भाषा के रूप में स्थापित हो गई। इस समय ब्रजभाषा अपने क्षेत्र से बाहर निकल कर व्यापकता धारण करने लगी और देखते ही देखते सम्पूर्ण हिन्दी क्षेत्र की काव्यभाषा के पद पर आसीन हो गई। इसी बात का संकेत करते हुए कविवर भिखारीदास कहते हैं –

 

ब्रजभाषा हेत ब्रजवास ही न अनुमानौ।

ऐसे ऐसे कविन की बानी है सो जानिए।।

 

भक्तिकाल में ही ब्रजभाषा का क्षेत्र लगभग निश्‍च‍ित हो चुका था। शृंगार तथा वात्सल्य जैसे कोमलतम भावों की विशेष सम्प्रेषण क्षमता इस भाषा में विकसित हो चुकी थी, जिस तरह से अवधी का सम्बन्ध नैतिकता और लोकमंगल से हो गया था, उसी प्रकार से ब्रजभाषा मूलतः सौन्दर्य और शृंगार जैसे विषयों की प्रतीक बन चुकी थी। चूँकि रीतिकाल में आरम्भ से अन्त तक शृंगार पक्ष की प्रधानता रही, इसीलिए यह स्वाभाविक था कि यह काल ब्रजभाषा की केन्द्रीयता का काल बना। इस युग में भक्तिकाल की तुलना में एक और विशेष स्थिति पैदा हुई। भक्तिकाल में कवि मूलतः भक्त थे, गौणतः कवि, इस वजह से भी प्राथमिक रूप से भक्ति के प्रति दायित्व महसूस करते थे, न कि कविता के प्रति। सूरदास के दृष्टिहीन होने के कारण भी यह समस्या रही कि वे चाहकर भी अपने काव्यशिल्प का सजग मूल्यांकन नहीं कर पाते थे। रीतिकाल में शृंगार और सौन्दर्य पर पड़ा हुआ भक्ति का आवरण हट गया और काव्य रचना के क्षेत्र में वे लोग आए जो मूल रूप से कवि थे तथा जिनका उद्देश्य कवि के रूप में अपने महत्त्व की स्थापना करना था। इसीलिए इस काल में ब्रजभाषा गहरे कलात्मक विवेक से युक्त हुई और नित नए प्रयोगों के माध्यम से अपनी चरम सम्भावनाओं को उपलब्ध कर सकी। इस बदलते हुए दृष्टिकोण की घोषणा भिखारीदास ने स्पष्ट शब्दों में की –

 

आगे के सुकवि रीझिहैं तौं कविताई।

न तौ राधिका कन्हाई को सुमिरन कौ बहानौ है।।

 

रीतिकाल में ब्रजभाषा के प्रायः दो रूप दिखाई देते हैं। पहला रूप प्रायः रीतिबद्ध कवियों की भाषा में दीखता है जिसमें अलंकारिकता, सजगता और चमत्कारप्रियता की प्रवृत्तियाँ व्यापक रूप से परिलक्षित होती हैं। यह भाषा अति सजग किस्म की भाषा है। इस भाषा शैली के सबसे सफल प्रयोक्ता हैं कविवर केशवदास एवं बिहारीलाल। बिहारी ने भाषा की समास क्षमता और भावों की समाहार क्षमता का  इतना सफल प्रयोग किया कि इनके दोहे उर्दू के शेरों को मात देने लगे। उनके शिल्प पर मुग्ध होकर जार्ज ग्रियर्सन को कहना पड़ा कि ‘यूरोप में कोई भी कविता बिहारी सतसई का मुकाबला नहीं कर सकती। बिहारी की इसी चमत्कारी शैली का एक उदाहरण देखिए –

 

कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात।

भरे भौन में करत हैं नैनहुँ से सौं बात।

 

रीतिकाल में ब्रजभाषा की दूसरी शैली घनानन्द जैसे रीतिमुक्त कवियों के काव्य में दिखती है। ये कवि भी प्रेममार्ग के कवि हैं, किन्तु ये अपने प्रेम और कविता की सार्थकता के प्रति गहरी जवाबदेही महसूस करते हैं। इनके यहाँ प्रायः सहज शिल्प है। इनकी भाषा सुनकर व्यक्ति चमत्कृत नहीं होता बल्कि संवेदना के गहरे स्तर पर पहुँच जाता है। संवेदनशीलता की दृष्टि से इनकी भाषा ब्रजभाषा के चरम स्वरूप को व्यक्त करती है। यही कारण है कि इनकी भाषा में अलंकार भी आते हैं तो चमत्कृत करने के स्थान पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनकी भाषा की प्रशंसा करते हुए कहा है – “इनकी-सी विशुद्ध, सरस, शक्तिशाली ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ। विशुद्धता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व है।… प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।… भाषा के लक्षक और व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है इसकी पूरी परख इन्हीं को थी। भाषा पर जैसा अचूक अधिकार इनका था वैसा और किसी कवि का नहीं।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 233)

 

रीतिकाल के अन्य कवियों में केशवदास, देव, बोधा, पद्माकर आदि ने कविता में ब्रजभाषा की ताकत को पहचाना। इन कवियों ने ब्रजभाषा को तरास कर लालित्य से भर दिया। रीतिकाल के अन्य प्रतिष्ठित कवियों में चिन्तामणि, कवि मण्डन, भूषण, कालिदास, नेवाज, सुरति मिश्र, श्रीपति, कृष्णकवि, रसलीन, दूलह आदि कवियों ने काव्य रचनाएँ की, रीतिकाल की समग्र काव्य प्रवृत्ति को सर्वग्राह्य सरस ब्रजभाषा से आच्छादित रखा।

  1. आधुनिक काल की ब्रजभाषा

 

आधुनिक काल की ब्रजभाषा को काव्यभाषा के रूप में जीवित बनाए रखने के लिए भारतेन्दु और प्रेमघन ने काफी प्रयत्‍न किया। भारतेन्दु की ब्रजभाषा तो अत्यन्त लावण्य एवं माधुर्य से युक्त है –

 

राखत नैनन में हिय मैं दूरि भये छिन होत अचेत है।

सौतिन की कहे कौन कथा तसवीर हू सतराति है।

 

आधुनिक युग में रचे गए ब्रजभाषा काव्य को तीन भागों में विभाजित कर के देखा जा सकता है। पूर्व भारतेन्दु युग, भारतेन्दु युग, उत्तर भारतेन्दु युग। पूर्व भारतेन्दु युग में अधिकांशतः रीतिकाल के कवियों को ही स्वीकार किया गया। जिनमें कवि ग्वाल, दीनदयाल गिरी, कविरत्‍न ‘नवनीत’ आदि के नाम का उल्लेख किया जा सकता है। डॉ. सत्येन्द्र ने सन् 1860 से ब्रजभाषा के आधुनिक युग का आरम्भ माना है और ग्वाल को इस युग का प्रथम कवि स्वीकार किया है। वे मथुरा निवासी थे। उन्होंने अरबी फ़ारसी शब्दों का काफी प्रयोग किया। उनकी कविता का एक उदाहरण द्रष्टव्य है –

 

रिझनि तिहारी न्यारी अजब निहारी नाथ,

हारी मति व्यास हूँ की पावत न ठौर।

 

आधुनिक काल में भारतेन्दु के पूर्ववर्ती ब्रजभाषा कवियों की चर्चा करते हुए उन्होंने कवि उरदास, नवीन कवि, पण्डित, अयोध्यानाथ अवधेश, हरदेव, लाल साधुराम, किशोर खडग सिंह, राजकुमार रत्‍नसिंहरत्‍नागर, सेवक, रीवाँ नरेश रघुराज सिंह, राजा लक्ष्मणसिंह, परमानन्ददास, गोप भट्ट, भोलाराम भण्डारी तथा नारायणदास सेंगरिया आदि का उल्लेख किया है।

 

द्वितीय उत्थान काल में ब्रजभाषा के प्रख्यात कवियों में राय देवीप्रसाद पूर्ण, पण्डित नाथूराम शर्मा, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, लाला भागवानदीन, पण्डित रूपनारायण पाण्डेय, पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ आदि का नाम लिया जा सकता है।

 

तृतीय उत्थान काल के प्रमुख कवियों में रामचन्द्र शुक्ल, जगन्‍नाथदास रत्‍नाकर, वियोगी हरि, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, राय कृष्ण दास, कविरत्‍न आदि का नाम उल्लेखनीय है। जगन्‍नाथदास ‘रत्‍नाकर’ ने अपने उद्धवशतक में कृष्णलीला का गान अत्यन्त सहज और सरस ब्रजभाषा में किया है। जैसे –

 

नन्द ओ जसोमति के प्रेम –पगे पालने की

लाड़-भरे लालन की लालच लगावती।

 

इसी प्रकार सनेही जी भी अपनी प्रेम पचीसी में ब्रजभाषा की अत्यन्त सुन्दर छटा बिखेरते हैं।

 

तुम चाहो न चाहो लला हमको कछु दीबो न याको उराहनो है।

दुःख दीजे कि कीजे दया दिल में, हर रंग तिहारो सराहनो है।

 

बीसवीं सदी के आरम्भ में ब्रजभाषा कविता अधिकांशतः मुक्तक काव्य के रूप में लिखी जाती थी। उत्तर भारतेन्दु युग में प्रबन्ध रचना अधिक व्यवस्थित हो गई। फलतः अनेक प्रकार के काव्य रूपों का विकास ब्रजभाषा में हुआ। इस दृष्टि से महाकाव्यों के अन्तर्गत शिवरत्‍न शुक्ल ‘सिरिस’ कृत भरतभक्ति  (सन् 1932), रामनाम ज्योतिषी कृत श्री रामचन्द्रोदय (सन् 1936), हरदयालू सिंह कृत दैत्यवंश (सन् 1952) तथा रावण महाकाव्य (सन् 1952), प्रियदर्शी कृत कृष्ण चरितमानस (सन् 1957) विशेष उल्लेखनीय है। खण्ड काव्यों के क्षेत्र में बचनेश मिश्र कृत ध्रुवचरित्र, जगन्‍नाथदास कृत गंगावतरण, रामचन्द्र शुक्ल कृत सरस कृत अभिमन्यु वध, हनुमन्त दयाल अवस्थी कृत हनुमन्त, सीतासुधि, लक्ष्मी शंकर मिश्र ‘निशंक’ कृत प्रेमपीयूष  विशेष उल्लेखनीय है।

 

इन सभी रचनाओं में अनुभूतियों का आवेग है और भाव व्यंजना में संगीत का माधुर्य है। ब्रजभाषा में गीतिकाव्य अधिक नहीं हैं, किन्तु यत्र-तत्र शोकगीत (राधाकृष्ण दास कृत विजयिनी-विलाप), जागरण गीत (मिश्र बन्धु कृत भारत विनय) आदि मिल जाते हैं। ब्रजभाषा के काव्य रूपों में वैविध्य तो महत्त्वपूर्ण है ही, उसकी मधुरता विलक्षण है। जिस भाषा में केवल एक पंक्ति ‘साँकरी गली में काँकरी गरति है’ पर लोग रीझ गए थे, वह शताब्दियों तक अपने रूप माधुर्य के कारण लोगों का कण्ठहार बनी रही।

 

द्विवेदी युग के ब्रजभाषा कवियों ने अपने समय के विकृत समाज की रूढ़िग्रस्तता पर प्रहार किया। इस युग की काव्यधारा  में सामान्य रूप से खण्ड काव्य, कथात्मक काव्य, मुक्तक कविता तथा गीतिकाव्य की रचना हुई। इस युग में वियोगी हरि, पद्मसिंह शर्मा, पण्डित कृष्णबिहारी मिश्र, पण्डित किशोरीदास, पण्डित जगन्‍नाथदास ‘चतुर्वेदी’, दुलारेलाल भार्गव आदि का नाम उल्लेखनीय है।

 

छायावाद युग में ब्रजभाषा के कवियों ने परम्परावादी काव्यधारा को शिल्प की दृष्टि से आगे बढ़ाया। इस युग में रचनाओं का शिल्प खड़ी बोली जैसा है। इस युग में ब्रजभाषा में काव्य रचना करने वाले कुछ मुख्य नाम हैं – गयाप्रसाद शुक्ल सनेही, डॉ. रमाशंकर शुक्ल, अनूप शर्मा आदि। जयशंकर प्रसाद जैसे समर्थ कवि ने भी काव्य रचना का प्रारम्भ ब्रजभाषा में किया था।

 

छायावादोत्तर काल में खड़ी बोली का वर्चस्व बढ़ जाने से ब्रजभाषा में काव्यभाषा की प्रवृत्ति बन्द पड़ गई। इस युग के कवियों ने समसामयिक विषयों पर रचना की, जो अधिकतर मुक्तकों में संगृहीत है। इस युग की प्रमुख काव्य रचनाओं में श्यामबिहारी शर्मा कृत प्रेमोपालमी, माधव चरण द्विवेदी कृत माधव-मधुप, अवधबिहारी विमलेश कृत विमलपूर्ति संग्रह आदि महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं।

 

श्रीनारायण चतुर्वेदी, काका हाथरसी, बरसानेलाल चतुर्वेदी आदि ने आधुनिक युग में ब्रजभाषा में अपनी रचनाएँ कर ब्रजभाषा साहित्य को समृद्ध किया है।

 

ब्रजभाषा बीसवीं शताब्दी के पहले दो दशकों में कुछ विशेष कवियों के यहाँ काव्य-भाषा बनी रही तथा उसके बाद सिमट कर पुनः अपने भौगोलिक क्षेत्र ब्रजमण्डल के कुछ कवियों की बोली के रूप में सीमित हो गई। इतने बड़े परिवर्तनों से भरा हुआ इतिहास कम ही भाषाओं का होता है। “काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा का उत्कर्ष और पतन इतिहास देवता का एक अनोखा खिलवाड़ है।” (हिन्दी भाषा का विकास, गोपाल राय, पृ. 146)

  1. निष्कर्ष

 

ब्रजभाषा का साहित्यिक प्रयोग आदिकाल से की मिलने लगा था पर इस भाषा का रूप निखरकर मध्यकाल में सामने आया। कृष्णभक्ति शाखा के सभी कवियों ने ब्रजभाषा का न केवल प्रयोग किया बल्कि उसे ऊँचाई के शिखर पर पहुँचाया। ब्रजभाषा का सर्वाधिक परिष्कृत रूप हमें सूरदास की रचनाओं में मिलता है। सूरदास के बाद रीतिकाल के कवियों ने भी ब्रजभाषा में रचना की। यह जरूर है कि रीतिकाल में ब्रजभाषा का वह रूप न रहा जो भक्तिकाल में था। दरअसल भक्तिकाल में ब्रजभाषा में रचना करना कवियों की कसौटी थी। आधुनिक काल के अनेक कवियों ने भी ब्रजभाषा में रचनाएँ की हैं। भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र की कविता की भाषा ब्रजभाषा ही है। जयशंकर प्रसाद ने कविता लेखन की शुरुआत ब्रजभाषा से की। ब्रजभाषा में रचित उनकी प्रारंभिक रचनाएँ चित्राधार  में संकलित हैं। ब्रजभाषा में अब प्रचुर मात्र में साहित्य सर्जन तो नहीं हो रहा, पर स्रोत अभी सूखा नहीं है। अब भी अनेक रचनाकार साहित्य की कई विधाओं में ब्रजभाषा में रचनारत हैं।

 

 

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वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%9C%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE
  2. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%9C%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE
  3. http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%9C%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE