24 समकालीन हिन्दी कविता
प्रो. देवशंकर नवीन
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- प्रयोगवाद और नई कविता के उद्भव और अन्त के कारणों को समझ पाएँगे।
- सन् 1960 के बाद के भारतीय सामाजिक परिस्थितियों से परिचित हो सकेंगे।
- समकालीन कवियों की काव्य-दृष्टि से परिचित हो सकेंगे।
- समकालीन कवियों की प्रमुख काव्य-प्रवृत्तियों की समझ बना सकेंगे।
- समकालीन काव्य-दृष्टि की विकास-प्रक्रिया पर विचार कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
समकालीन हिन्दी कविता की शुरुआत कहाँ से मानी जाए, इस विषय पर मत भिन्नता है। कुछ विद्वान सन् 1960 के बाद इसका आरम्भ मानते हैं, तो कुछ सन् 1980 के बाद। वे सम्भवत: उस दौर की कविताओं में सन् 1975 में घोषित आपातकाल, देश में सम्पूर्ण क्रान्ति के गूँजते नारे, सन् 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस की करारी हार, नवगठित सरकार से जनता की असन्तुष्टि, मध्यावधि चुनाव, कांग्रेस के पुनरागमन, इन्दिरा गांधी की हत्या, नागरिक असन्तोष के नए-नए कारण…आदि से प्रभावित देश के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक सन्तुलन की ध्वनि का चित्रण देखकर ऐसा कहते हैं और कहते हैं कि कविता की वापसी हुई है। पर इसका अर्थ होगा कि इससे पहले कविता कहीं चली गई थी, जो सच नहीं है। हाँ यह सच है कि जिस प्रगतिशील चेतना के साथ कविता सामाजिक यथार्थ से जुड़ती है, कुछ वर्ष के लिए कविता अपने कला रूप की चिन्ता करने लगी थी।
स्वाधीनता प्राप्ति के कुछ ही वर्ष के बाद उस दौर की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक परिस्थितियों ने जनमानस को चौंका दिया था। वैज्ञानिक चेतना-सम्पन्न प्रगतिशील समाज के गठन के आग्रही नेता जवाहरलाल नेहरू का मोहभंग हुआ; लालबहादुर शास्त्री को सदमा पहुँचा; दृष्टि-सम्पन्न इन दो-दो प्रधानमन्त्रियों का देहावसान, इन्दिरा गांधी के नेतृत्व की शुरुआत, भारत-पाक सीमा-संघर्ष में इन्दिरा गांधी की सूझ-बूझ से देश में जगी नई स्फूर्ति…ये सभी स्वर समकालीन कविता में अपनी तरह के विरोध, समर्थन के साथ प्रस्तुत हुए। जन-गण के सुख-दुख की उपेक्षा भी हुई, सारी स्थितियों से बाखबर समकालीन कविता ने अपना अग्राभिमुख संस्कार अगले दशक को थमाया। वस्तुत: सन् 1960 के बाद की हिन्दी कविता को समकालीन कविता के रूप में स्वीकार किया सकता है।
- प्रयोगवाद के विकास के तौर पर नई कविता
सन् 1930-35 के दौरान प्रगतिशील चेतना से अभिभूत हमारे कई रचनाकार छायावादी कल्पना और रहस्य से विदाई लेकर देश-दशा और सामान्य जनजीवन के यथार्थ को अपनी कविता में मुखर करने लगे थे। ‘कला जीवन के लिए’ के उद्देश्य के साथ चल रही कविता को एकाएक कलात्मकता की चिन्ता हुई और कला के स्वरूप को लेकर, कविता के लिए नवीन उपमानों के अन्वेषण हेतु नए-नए प्रयोग किए जाने लगे। सन् 1943 में तारसप्तक के प्रकाशन के साथ प्रयोगवाद की घोषणा हुई। नई पीढ़ी के कुछ नए कवियों की कविताओं को संकलित कर व्यक्तिनिष्ठ धारणाओं के साथ अज्ञेय के सम्पादन में तार सप्तक (1943), दूसरा सप्तक (1951), तीसरा सप्तक (1959) का प्रकाशन हुआ। प्रयोगवाद के विकास के साथ नई कविता की घोषणा हुई। सन् 1963 में तार सप्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित होने लगा, तो अज्ञेय ने लिखा, ‘‘जो 1943 के प्रयोगी थे, सन् 1963 के सन्दर्भ हो गए हैं…। तब की सम्भावनाएँ अब की उपलब्धियों में परिणत हो गई हैं।’’ प्रो. नामवर सिंह ने इस वक्तव्य के आलोक में कहा, ‘‘आज तार सप्तक के कवियों से किसी नई सम्भावना या नए उन्मेष की आशा करना ज्यादती है, किन्तु नई सम्भावनाओं की चुनौती के सम्मुख उन्होंने जिस प्रकार ‘इतिहास’ में मुँह छिपाने का प्रयास किया है, वह किंचित् दुखद है।’’ फलस्वरूप हिन्दी कविता में तार सप्तक (1943) से प्रारम्भ हुआ प्रयोगवाद, जो ‘नई कविता’ में तब्दील हुआ, सन् साठ के बाद अविश्वसनीय प्रतीत होने लगा। नामवर सिंह की राय में ‘प्रयोग’ शब्द को वाद–दूषित पाकर ‘नई कविता’ नामक संज्ञा का प्रचलन हुआ। ‘प्रयोग’ की यह पद्धति कवि के ‘आत्म–सत्य’ की बुनियाद पर विकसित हुई थी। जनवरी 1952 में ही शमशेर बहादुर सिंह के अनुसार इस ‘आत्म–सत्य’ से बाहर भी कोई यथार्थ होता है, अज्ञेय जी ने उसे भी बाहर नहीं रखा, आत्मसात् किए हुए सत्य में शामिल किया, जबकि कोई सच्चा कलाकार ‘आत्म–सत्य’ का अन्वेषण अपनी अनुभूतियों में नहीं, उन मूलों में करता है, जो उसके समाज और संस्कृति की परम्परा में बसे हुए हैं।
बीसवीं सदी के छठे दशक का अन्त आते–आते मुक्तिबोध को भी लगने लगा कि नई कविता के स्वरूप के प्रति लोगों में असन्तोष दिखने लगा है, यह असन्तोष बहुत–से उन कवियों में भी था, जो स्वयं उस धारा के अंग थे। ऐसी स्थिति में उस धारा का विश्लेषण–विवेचन उन असन्तुष्ट सहयात्री द्वारा होना स्वाभाविक था। मुक्तिबोध की राय थी कि नई कविता में प्रगतिशील तत्त्व बढ़ते जाएँगे, तो वह मानवता के अधिकाधिक समीप आएगी।
कुल परिदृश्य यह हुआ कि प्रयोगवादी कविता में जिस क्षणवाद, व्यक्तिवाद, अथवा कथन भंगिमा का नारा दिया गया, सन् 1960 आते–आते वे सब के सब विफल, प्रभावहीन, अस्पष्ट और पथ से भटके हुए दिखने लगे।
- समकालीन कविता की पृष्ठभूमि
तारसप्तक से तीसरा तारसप्तक के बीच के सत्रह वर्षों में तत्परता से घटी घटनाओं ने भारत को घटनाओं का देश बना दिया। स्वाधीनता-संग्राम, आजादी, विभाजन, विस्थापन, मार-काट के बाद काबिज हुई व्यवस्था में मेहनतकश आमजन के सपने टूटे। गांधीजी की हत्या हुई। सत्ताधारी लोगों के नैतिक पतन परिलक्षित होने लगे। भारतीय जनमानस को भौतिक मुक्ति तो मिली, नैतिक और मानसिक मुक्ति नहीं मिली। देश में लोकतन्त्र की स्थापना बहाल होने के थोड़े ही दिनों बाद बुद्धिजीवियों का एक दल सत्ता का समर्थन करने लगा। पड़ोसी राष्ट्रों के साथ हुई मैत्री में धोखाधड़ी हुई, चीन ने सीमावर्ती क्षेत्र पर हमला कर दिया। लेखकों को देश का आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक माहौल चिन्ताजनक लगने लगा। इन तमाम परिस्थितियों में रचनाकारों की मनःस्थिति तरह-तरह से प्रभावित हुई।
सन् 1947 से पूर्व भारतीय जनता की सबसे बड़ी समस्या पराधीनता और सबसे बड़ा लक्ष्य स्वाधीनता थी। स्वाधीनता के बाद कुछ वर्ष परिवर्तन के बाद की स्थिरता की प्रतीक्षा में बीते। थोड़े दिनों बाद असन्तोष के बीज उगने लगे, जल्द ही लोगों को लगने लगा कि यह आजादी पूरे देश की जनता की नहीं है, यह सिर्फ नेताओं की आजादी है या धन-कुबेरों की आजादी है। ऐसे जनजीवन की त्रासदी देखते हुए सन् 1960 आते-आते हिन्दी काव्य-क्षेत्र में जो नई पीढ़ी खड़ी हुई, उसकी अभिव्यक्ति में शालीनता और शिष्टता के स्थान पर आक्रामकता आने लगी।
भारतीय स्वाधीनता के बाद आरम्भिक दो दशकों की हिन्दी कविताओं को लोगों ने अकविता, सहज कविता, विचार कविता, नक्सलवादी कविता, साठोत्तरी कविता आदि नाम समय-समय पर आग्रह अथवा दुराग्रह से दिए। प्रारम्भ में भूखी पीढ़ी, आहत पीढ़ी, श्मशानी पीढ़ी, क्षुब्ध पीढ़ी के लोगों द्वारा लिखी गई कविता को नेतृत्व वर्ग द्वारा स्वेच्छाचारी और अराजक प्रयोग पद्धति से लिखी गई कविता कहा गया। असल में बिना किसी राजनीति के जो कवि खड़े हुए, उनका उद्देश्य किसी सिद्धान्त और वक्तव्य को क्रियारूप देना नहीं था, बल्कि वे जनता की पीड़ा को वाणी दे रहे थे।
छायावाद के बन्धनों से मुक्त होकर सामने आई प्रगतिशील काव्यधारा एक तरफ थी, प्रयोगवाद के रास्ते प्रकट हुई नई कविता दूसरी तरफ। नागरिक जीवन से निराश नई पीढ़ी का अकविता आन्दोलन अत्यन्त उग्र था, नई कविता की व्यक्तिनिष्ठता की ऊब से बाहर आई काव्यधारा अलग थी; नवगीत की परम्परा लेकर आए नवगीतकार आदि अलग थे।…पर तथ्य है कि इन सभी का प्रवाह धीरे-धीरे समकालीन कविता की ही ओर था। समसामयिक दबाव के कारण इन काव्य प्रवृत्तियों में चीख, चिल्लाहट, क्रोध, आक्रोश, तूफानी विद्रोह, नकार की भरमार थी। समय पाकर ये सारी धाराएँ समकालीन कविता के साथ स्वर मिलाकर एकमेक हो गईं। प्रगतिशील कविता अपनी गति से निरन्तर चलती रही। निरन्तर अपने विषय, भाषा, शिल्प और कथन-शैली को समकालीन बनाती गई। नई कविता के पिछड़े हुए कवि तो पिछड़े ही रहे, पर जितने भी कवि अग्रमुखी थे, वे अपनी धारणा को परिष्कृत कर आगे बढ़ गए, अकविता का नकार और कोलाहल भाव जल्दी ही बदल गया और वे गम्भीर काव्य-दृष्टि के साथ आगे बढ़ गए…अर्थात समकालीन कविता इन समूहवादी सरोकार के साथ आगे बढ़ी।
रचनाकारों की दृष्टि से देखें तो समकालीन कविता के दौर में समकालीन युग-यथार्थ के अनुभवों के साथ तैयार हुई पीढ़ी के कवि समेत वे सभी कविगण रचनाशील रहे, जो सन् साठ के पूर्व से ही रचनारत थे। इनमें एक तो वे थे, जो सप्तकों से बाहर रहकर हिन्दी कविता की जमीन मजबूत कर रहे थे; दूसरे वे जो सप्तक परम्परा से आने के बावजूद निरन्तर अपनी समझ विकसित करते रहे तथा समय के बदलते स्वरूप के साथ-साथ काव्य सम्बन्धी अपनी धारणाओं, मान्यताओं को भी परिवर्तित करते रहे।
- अकविता आन्दोलन
कवियों को लगता था कि आजादी के सवा दशक बाद भी आम जनता के दुख दर्द से विमुख सत्तासीन लोग, देश की बदहाली में भी अपना ऐश्वर्य बनाने में तल्लीन हैं। कवियों को लगता था कि उनकी इस गैरमुनासिब आश्वस्ति पर तीखे प्रहार जरूरत है। अकविता का प्रवेश इसी प्रहारक रवैए के साथ हुआ। वह रवैया नैतिकता की प्रदत्त परिभाषा के विरुद्ध था। लोग भले कहें कि अकविता आन्दोलन एलेन गिन्सबर्ग के ‘बिटनिक आन्दोलन’ और पश्चिम बंगाल की ‘भूखी पीढ़ी’ की संगति का परिणाम था; पर असल में वह तत्कालीन राजनेताओं के प्रति उत्पन्न नागरिक अनास्था, क्षोभ और विद्रोह से उत्पन्न प्रखर व्यक्तिवाद की अभिव्यक्ति था; ध्यातव्य है कि ‘अकविता’ का व्यक्तिवाद ‘नई कविता’ के व्यक्तिवाद की तरह आत्मकेन्द्रित नहीं था; अपनी प्रयुक्ति में वह बहुत विस्तार पा जाता था, निजी भोग को भी कवि समष्टि के रूप में भोगता था। शारीरिक व्याधि तक को राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय का व्याधि के रूप में देखता था–
क्यों एक ही युद्ध मेरी कमर की हड्डियों में और कभी
वियतनाम में
जैसी पंक्तियों में राजकमल चौधरी अन्तर्राष्ट्रीय अमानवीयता को शारीरिक व्याधि की तरह अभिव्यक्त कर रहे थे। कवि का व्यक्तिवाद बाहर भीतर का भेद मिटा चुका था। अकविता का व्यक्तिवाद, हताशा, निराशा और अनास्थावादी स्वर उन विकृत परिस्थितियों के प्रतिपक्ष में खड़ा हुआ था। राजकमल चौधरी समेत उस धारा के समस्त कवियों की कविताई सातवें दशक के पूर्वार्द्ध की उन परिस्थितियों और वातावरणों की उपज थी, जहाँ कवियों को लगता था कि उन्हें सँजोकर रखने लायक कुछ भी नहीं दिख रहा था। अकविता आन्दोलन, व्यवस्था की बेईमानी से इसी मुक्ति की कामना का स्वर था।
साथ ही यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि अकविता का विद्रोही स्वर जल्दी ही परिष्कृत हो गया। सन् 1962 में चीन और सन् 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए सीमा संघर्ष ने देश की स्थिति-परिस्थिति बदल दी। चीन के हमले ने भारत के बौद्धिक समाज को झकझोड़ दिया था। शमशेर बहादुर सिंह ने कविता में उन्हें ‘मानव जाति’ के होने पर सन्देह किया। चीन के प्रति भारतीय नागरिकों के इस घृणा-भाव का असर राजनीतिक व्यवस्था पर भी पड़ा। मुक्तिबोध ने ‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे’ उठाने की बात की, रघुवीर सहाय ‘नया कुछ रचने के लिए तोड़ना बहुत जरूरी’ समझने लगे। ये बातें अकविता में भी थी, पर अब नई भाषा, नए बिम्ब, नए प्रतीकों के योग से अकविता की अनास्था, अस्वीकृति और क्रोध के भाव को परिष्कृत कर धिक्कार में बदल देने की आवश्यकता हुई। नए ढंग से वस्तुबोध का विकास हुआ। बात में असर लाने के लिए शब्द-प्रयोग को ज्यादा प्रभावशाली शब्द-संस्कार की जरूरत हुई।
- सातवें दशक की परिस्थितियाँ
विभाजन से लेकर सन् 1965 के सीमा संघर्ष के बीच का सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विपर्यय, श्रमजीवियों की आवाज के दमन की नीति ने भारतीय जनता के जीवन को साँसत में डाल रखा था; दशक के उत्तरार्द्ध में भी देश का आर्थिक संकट निरन्तर गहराता जा रहा था, विदेशी सहायता के प्रति निर्भरता बढ़ती जा रही थी। सन् 1966 में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में पहली बार भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन हुआ। जनसामान्य के बीच इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। भारतीय नागरिक की हताशा और तेज हुई। सन् 1967 के आम चुनाव में इन सभी परिस्थितियों का प्रभाव सामने आया। नौ राज्यों में गैरकांग्रेसी शासन स्थापित हुआ। हालाँकि इस मिली-जुली सरकार से भारतीय लोकतन्त्र में उससे राजनीतिक परिस्थितियाँ थोड़ी और जटिल हुईं। हड़ताल, प्रदर्शन, मुठभेड़ आदि का सिलसिला चल पड़ा। इस आम चुनाव के परिणाम से किसी भी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। आर्थिक विषमता और किसानों के आक्रोश के कारण मार्च 1967 में नक्सलवादी आन्दोलन आरम्भ हुआ, जिसके दमन की पुरजोर कोशिश हुई, हालाँकि इस आन्दोलन से धूमिल, लीलाधर जगूड़ी, आलोकधन्वा, कुमार विकल, विजेन्द्र, वेणु गोपाल, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह जैसे तीक्ष्ण स्वर वाले कवियों की एक पीढ़ी हिन्दी कविता में सक्रिय हुई।
उक्त दौर में लोकतन्त्र, लोकसेवा, धर्माचरण और समाज व्यवस्था के ढोंग रचनाकारों को स्पष्ट दिखाई दे रहे थे, धूमिल को साफ-साफ लग रहा था कि जनता को ‘समझा दिया गया है कि यहाँ ऐसा जनतन्त्र है, जिसमें जिन्दा रहने के लिए घोड़े और घास को एक जैसी छूट है।’ वे जनता को एक ऐसी भीड़ की तरह देखते थे ‘जो दूसरों की ठण्ड के लिए अपनी पीठ पर ऊन की फसल ढो रही है।’ राजकमल चौधरी ने भी साफ तौर पर देखा –
आदमी को तोड़ती नहीं है लोकतान्त्रिक पद्धतियाँ, केवल पेट के बल
उसे झुका देती है धीरे धीरे अपाहिज
धीरे धीरे नपुंसक बना लेने के लिए उसे शिष्ट राजभक्त देश प्रेमी नागरिक
बना लेती है
पूरा परिदृश्य यथार्थ से अलग चेहरे के साथ जी रहा था। आम नागरिक के हिस्से की धूप, ध्वनि, पवन, प्रकाश, स्वप्न, साधन चुराकर पूरे तन्त्र की सुविधाएँ अपने नाम करनेवालों पर रचनाकारों ने अपनी कविताओं में तीक्ष्ण टिप्पणियाँ की।
- राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियाँ
मोहभंग, असन्तोष और साहित्यिक परिवर्तनों के इस दौर में जीवन के नए संघर्ष और सौन्दर्य के प्रतिनिधि के रूप में मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल और कुछ समय बाद रघुवीर सहाय, जैसे प्रतिनिधि कवि समकालीन यथार्थ की निरन्तर पहचान करते आ रहे थे; सप्तक परम्परा के अन्य कवि भवानी प्रसाद मिश्र, विजयदेव नारायण साही, कुँवर नारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी उस चिन्ता में तत्परता से शमिल हुए; और आजादी के बाद की नई परिस्थितियों में नई ऊर्जा के साथ खड़े हुए कवि राजकमल चौधरी, जगदीश चतुर्वेदी, गंगा प्रसाद विमल, कैलाश वाजपेयी, चन्द्रकान्त देवताले, विजेन्द्र, वेणुगोपाल, धूमिल और फिर कुमार विकल, लीलाधर जगूड़ी, सौमित्र मोहन, अशोक वाजपेयी, देवेन्द्र कुमार, आलोकधन्वा, विष्णु नागर, इब्बार रब्बी, सोमदत्त, आए। समय बढ़ता गया, परिस्थितियाँ बदलती गईं। जन सामान्य की पीड़ा घनीभूत होती गई। कविता स्थान, काल, पात्र के करीब बनी रही। समकालीन कविता का यह लम्बा अन्तराल राष्ट्रीय स्तर की आपदाओं और सामान्य जन के आहत सपनों का साक्षी बना। अर्थात – समकालीन हिन्दी कविता अपनी इसी ऊबड़-खाबड़ और कँटीली जमीन पर खड़ी हुई। पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी भावधारा, रचना-दृष्टि और विषय को बढ़ाती गई।
- आठवें एवं नवें दशक की पृष्ठभूमि एवं प्रमुख कवि
सन् 1977 के चुनाव में दिग्गज नेताओं की एक पूरी पीढ़ी पहली बार पराजित हुई। इसके बाद अल्पजीवी सरकार बनी फिर उसका पराभव, मध्यावधि चुनाव, देश को हिला देने वाली राजनीतिक अनस्थिरता का दौर… सबने मिलकर एक दिग्भ्रम कायम कर दिया। विफलता के इस दौर ने समाज का ढाँचा बदल देने का हौसला रखने वाले युवा-वर्ग को आन्दोलनविमुख कर दिया, वे विद्रोह की दिशा छोड़कर किसी तरह कुछ पा लेने के लिए पिछले दरवाजे की तलाश करने लगे। यह स्थिति रचनाकारों के लिए त्रासद थी। उनके लिए विषय तो वे ही थे, पर उस दंश की तीक्ष्णता बढ़ गई थी। इसलिए कवियों ने अपनी शैली और शिल्प में परिवर्तन किया। चीख, विद्रोह और आक्रोश की भाषा संयत हुई, मगर सहज, सरल शब्दों में तीक्ष्ण व्यंग्य की प्रवृत्ति सामने आई। इसके प्रतिनिधि कवि रघुवीर सहाय थे।
इन कविताओं में मानव-जीवन के सब रंग उपस्थित हुए–प्रवंचनाएँ, विकृतियाँ, शोषण, प्रताड़ना, पाखण्ड, दैन्य, अशिक्षा, शिक्षा की माफियागिरी, राजनीति का अपराधीकरण, मानवीय सम्बन्धों को खण्डित करने के षड्यन्त्र, प्रायोजित समस्याएँ, स्त्री विमर्श, दलित प्रसंग, अपरहण, बाल समस्या, भ्रूण-हत्या, मानव-हत्या, दंगा-फसाद, साम्प्रदायिक और जातीय दंगा, अमानवीय हरकतें, तस्करी, राष्ट्रीय अस्मिता के साथ धोखाधड़ी… सब कुछ का चित्रण गम्भीर संवेदना के साथ होने लगा। कवि अपनी भाषा और विचार की जटिलता, क्लिष्टता से मुक्ति पाकर स्पष्टता और सुलझाव की ओर उन्मुख हुए, क्योंकि सामाजिक स्तर पर सारे परिदृश्य उनके समक्ष स्पष्ट और सुलझे हुए थे, सारे सत्य को वे निज जीवन के यथार्थ की तरह भोग रहे थे। वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, नैतिक सम्बन्धों की पहचान कविताओं में होने लगी। कविता आम जनमानस से अपने नए सम्बन्ध के साथ जुड़ने लगी।
- सोवियत संघ के विघटन का प्रभाव
इस बीच सोवियत संघ का विघटन हो गया। सोवियत संघ के विघटन से भारतीय राजनीति के कई अभिकरण प्रभावित हुए। दलगत बिखराव, राजनेताओं की हत्या, राजनीति का अपराधीकरण, अपराध का राजनीतिकरण, साम्प्रदायिक सद्भाव और मानव-मूल्य का ह्रास… एक सिलसिला चल पड़ा। मार्क्सवाद के रास्ते चलने की परिणति को लोग सोवियत संघ की परिणति के आलोक में देखने लगे। विश्व शक्ति के रूप में अमेरिका के उत्थान के कारण भूमण्डलीकरण और बाजारवाद का स्वर उभरा। संचार माध्यम खबरदार करने की बजाय खबर बेचने लगे। लोग वैचारिक आग्रह की तुलना में भोगे हुए यथार्थ को महत्त्व देने लगे। नई उपलब्धियों और बेहिसाब सुविधाओं से नई-नई समस्याएँ खड़ी हुईं। इसी बीच इन्दिरा गांधी की हत्या और फिर राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। विवाद सामने आया। इन सारी स्थितियों ने देश के बुद्धिजीवियों को बुरी तरह प्रभावित किया।
विश्वग्राम के प्रभाव और आतंकवाद के खतरे पूरे देश को सता रहे थे। इसी बीच साहित्य में उत्तर आधुनिकता का प्रवेश हुआ। दलित प्रश्न, स्त्री विमर्श और उत्तर उपनिवेशवाद के नए सोच से भरे रचनाकारों का आगमन हुआ। सृजनशील मानस के लिए इन तमाम परिस्थितियों का दबाव स्वाभाविक था।
- समकालीन हिन्दी कविता का स्त्री स्वर, दलित चेतना और नवउपभोक्तावाद
समकालीन कविता परिदृश्य में महिला कवयित्रियों की व्यापक दुनिया के नवीकरण का दृश्य सुखद है, जो पूर्व में नहीं था। नई कविता के दौर में शकुन्त माथुर, कीर्ति चौधरी, स्नेहमयी चौधरी, अमृता भारती, इन्दु जैन, सुनीता जैन; अकविता के दौर में मणिका मोहिनी, मोना गुलाटी आदि का आगमन हुआ। अकविता आन्दोलन के दौर में उभरे स्त्री-स्वर की निजता का ही परिणाम है कि आज हिन्दी कविता में कवयित्रियों की पर्याप्त और खुली उपस्थिति है। गगन गिल, कात्यायनी, अनामिका, निर्मला गर्ग, नीलेश रघुवंशी, तेजी ग्रोवर, अर्चना वर्मा, सविता सिंह, क्षमा कौल, अनीता वर्मा, इला कुमार, मधु शर्मा, वन्दना केंगरानी, स्वरांगी साने, मनीषा झा, इन्दु वैद्य, वन्दना देवेन्द्र, जया जादवानी, रंजना जायसवाल, किरण अग्रवाल, रश्मि रमानी आदि नाम अपनी विशिष्ट पहचान के साथ उभर कर आईं और समकालीन कविता की धारा को पुष्ट करने लगीं। घर, परिवार चलाते हुए जीवन यापन के सारे पहलू इनके यहाँ मौजूद हैं; ड्राइंग रूम से रसोई घर तक, क्रेच से जच्चा-घर तक, चूल्हे चौके से दफ्तर तक, मयखाने से संसद तक की स्थितियाँ अपने पूरे प्रभाव और मौलिकता के साथ इनके यहाँ दर्ज हैं। स्त्री-जीवन का मौलिक सच लेकर आई इन कवयित्रियों की कविताएँ अपनी अनूठी तस्वीर पेश करती हैं।
नहीं हो सकता तेरा भला शीर्षक कविता में कात्यायनी बेरहम व्यंग्य से अर्थ की असंख्य परतें खोलती हुई तिलमिला देती हैं; उधर अनामिका के यहाँ स्त्रियाँ ‘सुनो हमें अनहद की तरह’ और ‘समझो जैसे समझी जाती है/नई-नई सीखी हुई भाषा’ का निवेदन करती हुई पुरुषवादी अहं की सल्तनत हिला देती हैं।
बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में शिक्षा के नए-नए आयामों और अर्थोपार्जन की नई-नई पद्धतियों के कारण लोगों में नई चेतना विकसित हुई। विश्वग्राम और नवउपभोक्तावाद की अवधाणा और सूचना एवं प्रौद्योगिकी के प्रभाव की परिणति से समाज में नई-नई परिस्थितियाँ पैदा हुईं। प्रति-आख्यान (एण्टी नैरेटिव्स) की स्थिति आई। आर्थिक उदारीकरण के कारण, मनुष्य के जीवन-यापन का स्तर बदला। स्थिति कुछ बेहतर भी हुई, बदतर भी। कई रूढ़ियाँ टूटीं, पर उसकी ओट में कई विकृतियों का जन्म भी हुआ। गाँव और कस्बों में कामगारों की मजदूरी की कटौती, श्रमिकों के आत्मबोध, महानगरों में दैनिक भत्ते के कामों की उपलब्धता… के कारण पलायन एक बड़ा मुद्दा बना। गाँव के गाँव खाली हो गए। कृषि कर्म आहत हुआ। दलित सम्प्रदाय के जीवन-जगत को ध्यान में रखती हुई समकालीन कविता इन सभी स्तरों पर समकालीन हुई। इसी के साथ हिन्दी में दलित कविता की सशक्त उपस्थिति दर्ज की गई।
- निष्कर्ष
सन् 1960 से आज तक के तमाम उथल-पुथल को समकालीन हिन्दी कविता अपनी पैनी निगाह से देखती समझती आई है। इस यात्रा में अकविता, प्रगतिशील जनवादी कविता और नवगीत की सुसंगत परम्परा को भी समकालीन कविता का ही अंग माना गया। कई पीढ़ियों की सृजनधर्मिता से पोषित ये कविताएँ आमजन का पाथेय बनी हैं। शैक्षिक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक उन्नति के बावजूद आपराधिक राजनीति और राजनीतिक अपराध से कलंकित परिदृश्य की सच्ची तस्वीर पेश कर इसने सावधान समाज बनाने का सफल उद्यम किया है। ओछी हरकतों में लिप्त नेता, पुलिस, पत्रकार के आचरण; गैरमुनासिब हरकतों में मशरूफ़ सामाजिक कार्यकर्ता… तमाम दुराचारों का डटकर सामना करती हुई समकालीन हिन्दी कविता सतत् मनुष्य को सही राह दिखाती रही है।
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वेब लिंक्स
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- http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/D/DivikRamesh/samkaleem_sahitya_paridrishya.htm