11 रीति का स्वरूप एवं रीतिकाल की परिस्थितियाँ

प्रो. शम्भुनाथ तिवारी तिवारी

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरांत आप–

  • रीतिकाल के संदर्भ में रीति के स्वरूप से पूरी तरह परिचित हो सकेंगे।
  • रीति के सामान्य, विशिष्ट, काव्यशास्‍त्रीय अर्थ के साथ उसके काव्यात्मक अर्थ से परिचित हो सकेंगे।
  • रीतिकाव्य के विषय में विस्तार से जान पाएँगे।
  • रीति और रीतिकाल के पारस्परिक संबंधों के विषय में जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • रीतिकाल की विविध परिस्थितियों के विषय में जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
    1. प्रस्तावना

 

हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक विकासक्रम के आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मध्यकाल के परवर्ती कालखण्ड को उत्तरमध्यकाल कहा तथा रीतिग्रन्थों के निरूपण की व्यापक प्रवत्ति को देखते हुए उन्होंने उसे रीतिकाल  (सं.1700-1900 वि.) कहा। इस नामकरण में शुक्लजी की पैनी आलोचनात्मक दृष्टि रीति पर टिकी है, जिसको लेकर वे गहन और सूक्ष्म अन्वेक्षण करते हैं। संभव है कि शुक्लजी को रीति  कहने की प्रेरणा मिश्रबंधु से प्राप्‍त हुई हो, क्योंकि मिश्रबंधु ने इसकाल की प्रमुख प्रवृत्ति रीति को स्वीकार की थी और रीतिकाल-प्रकरण लिखने में शुक्लजी, मिश्रबंधु के सर्वाधिक ऋणी हैं –मिश्रबंधुओं के प्रकांड कवि-वृत्त-संग्रह  मिश्रबंधु विनोद का उल्लेख हो चुका है, रीतिकाल के कवियों का परिचय लिखने में मैंने प्राय: उक्त ग्रन्‍थ से ही विवरण लिए हैं। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 09) यह भी संभव है कि शुक्ल जी की नजर इस टिप्पणी पर भी पड़ी हो–आचार्य लोग तो कविता करने की रीति  सिखलाते हैं, मानो वह संसार से यह कहते हैं कि अमुकामुक विषयों के वर्णन में अमुक प्रकार के कथन उपयोगी हैं और अमुक प्रकार के अनुपयोगी। (मिश्रबंधु विनोद, भाग-दो) इसी तरह रीतिकाल  नाम रखने की प्रेरणा शुक्लजी को अब्राहम जार्ज ग्रियर्सन से मिली होगी, क्योंकि ग्रियर्सन ने द मॉर्डन वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ नार्दर्न हिंदुस्तान  में हिन्दी साहित्य को प्रकरणों में विभक्त करते हुए उसके सातवें प्रकरण (1500 ई. से 1800 ई.) को रीतिकाव्य  के नाम से अभिहित किया है।

 

रीति कहने के पीछे शुक्लजी का मंतव्य इस काल में रचित काव्यांगों की विवेचना करने वाले लक्षणग्रन्‍थों के प्रणयन से है, क्योंकि इस काल मे अधिकतर कवि काव्यांगविवेचन के अंतर्गत लक्षण्रंथों के माध्यम से पूर्ववर्ती संस्कृत काव्यशास्‍त्र की बँधीबँधाई रीति (परंपरागत रचना पद्धति) पर काव्यरचना का व्यापक उपक्रम कर रहे थे। उस काल में काव्यांगविवेचन विषयक काव्यरचना, जो रस, छंद, अलंकार, नायिका-भेद या अन्य शृंगारिक विषयों से संबद्ध थी, उसे रीति-विशेषण (अलंकार-रीति, रस-रीति, कवित्त या काव्य-रीति के रूप में) से संबोधित करने की प्रथा-सी बन गई थी। आचार्य शुक्ल के रीतिकाल नामकरण के लिए इस रीति, काव्य-रीति  का उल्लेख एक प्रामाणिक आधार बन गया।वस्तुत:,रीति शब्द अपने परंपरागत अर्थ में काव्यरचनापद्धति के लिए पूर्व में ही प्रयुक्त होने लगा था,जिसे शुक्लजी ने उसी अर्थ में ग्रहण करते हुए, उसे उपयुक्त माना, “शुक्लजी को यह शब्द एक बँधेबँधाए अर्थ में मिल चुका था। अत:अपनी ओर से बिना किसी विवेचना के उन्होंने उसको उसी अर्थ में स्वीकार कर लिया।” (बच्‍चनसिंह, हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृ.180)

 

सामान्य अर्थ में ‘रीति’  जहाँ मार्ग,गति,पद्धति अथवा परंपरा का वाचक है, वहीं काव्यशास्‍त्रीय संदर्भों देखा जाए, तो विशिष्ट प्रकार की ऐसी पदरचना या लेखनशैली को ‘रीति’  कहा जाता है, जो रचना में विविध गुणों का उन्मेष करती है। रीतिकाल के संदर्भ में ‘रीति’ का अर्थ उपर्युक्त दोनों से किंचित् भिन्‍न है, जहाँ वह काव्यरचना की एक पद्धति है, जो काव्यांगों के निरूपण से संबंधित है। वस्तुत:, हिन्दी में रीतिकाल के संदर्भ में ‘रीति’  का अर्थ एक बँधीबँधाई परिपाटी में  काव्यांग-निरूपण के माध्यम से प्रस्तुत काव्यरचना-पद्धति है। यहाँ इसी परिप्रेक्ष्य में ‘रीति’  के स्वरूप को स्पष्ट किया जाना अपेक्षित है।

 

रीतिकालीन काव्यरचना के स्वरूप को निर्धारित करने में उस समय की विभिन्‍न परिस्थितियो का विशिष्ट योगदान है। दूसरे अर्थों में रीतिकालीन काव्य युगीन परिवेश और परिस्थितियों की स्वाभाविक उद्भूति है। इस काल की काव्यरचना पर तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक-धार्मिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों का व्यापक प्रभाव है, जिनके विवेचन-विश्‍लेषण के बिना उस काव्यरचना को समझा नहीं जा सकता। इस दृष्टि से रीतिकालीन विभिन्‍न परिस्थितियों का तटस्थ एवं सम्यक् आकलन अप्रासंगिक नहीं  होगा।    

 

वस्तुत: रीतिकालविषयक मूल्यांकन के अंतर्गतरीति  के स्वरूप पर व्यापक रूप से समीक्षात्मक दृष्टिकोण अपेक्षित है। इसी तरह रीतिकालीन काव्यरचना की विस्तृत पृष्ठभूमि के स्पष्टीकरण के लिए उसकी विभिन्‍न परिस्थतियों का सम्यक् आकलन भी आवश्यक है।

  1. रीति का स्वरूप

 

रीति का सामान्य अर्थ पंथ,मार्ग अथवा परंपरा से संपृक्त है, पर व्यापक अर्थ में रीति का साहित्यिक एवं काव्यशास्‍त्रीय अर्थ विविध अर्थ-छवियों से संबद्ध है, जहाँ रीति के व्यापक स्वरूप का अनुमान लगाया जा सकता है। रीति के समानार्थी शब्द मार्ग, पथ, पद्धति, प्रथा, परंपरा, प्रणाली, शैली, तर्ज, युक्ति, तरक़ीब, चलन, नियम, क़ाइदा, रिवाज़, तरीक़ा, उपाय, रवायत  आदि कहे जा सकते हैं। रीति का प्रयोग पुराने-नए अनेक कवियों ने  विविध प्रसंगों  में किया है। सूरदास (मधुकर यह कारे की रीति), तुलसीदास (रघुकुल रीति सदा चलि आई), देव (अपनी-अपनी रीति के काव्य और कवि रीति), बिहारी (परत गाँठ दुर्जन हिए दई नई यह रीति), भारतेंदु हरिश्‍चन्द्र (हरिचंद जमाने की रीति यही,विदा के समय सब कंठ लगावें) के उदाहरण इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। अँगरेजी में method, technique, style, custom,  tradition आदि शब्द रीति  के समानार्थी कहे जा सकते हैं। method और style रीति  को काव्यशास्‍त्रीय संदर्भों में विशिष्ट अर्थध्वनि से संपृक्त कर देते हैं, जहाँ वह अपने सामान्य अर्थ से अलग काव्शास्‍त्रीय विमर्श को बहुत दूर तक ले जाने वाला पारिभाषिक शब्द बन जाता है। इस रूप में वह आचार्य भरतमुनि से आरंभ होकर आचार्य दंडी और आचार्य वामन तक प्रसरित है। संस्कृत काव्यशास्‍त्र में नाट्यशास्‍त्र के विशिष्ट अर्थ से आरंभ होकर हिन्दी के रीतिकाल में काव्यरचनापद्धति के अर्थ तक रीति का स्वरूप बहुत व्यापक है। वस्तुत:रीतिकाल  के संदर्भ मेंरीति शब्द बहुत महत्वपूर्ण एवं प्रभावान्विति वाला शब्द है, जिसके विवेचन की आवश्यकता है।

 

1. रीति और काव्यशास्‍त्रीय रीतिसंप्रदाय

 

‘रीति’ शब्द का उल्लेख होते ही सबसे पहले हमारा ध्यान संस्कृत काव्यशास्‍त्र के ‘रीतिसंप्रदाय’  की ओर अनायास चला जाता है। रीतिसंप्रदाय की वैदर्भी, गौड़ी,पांचाली रीतियों से हिन्दी के रीतिकाल वाले ‘रीति’  का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं है, क्योंकि हिन्दी में जहाँ ‘रीति’  का अर्थ लक्षणग्रन्‍थों की रचना के क्रम में काव्यरचना-पद्धति है, वहीं संस्कृत काव्यशास्‍त्र में रीति, काव्यशास्‍त्रीय सिद्धांत-विवेचन के अंतर्गत काव्य की शैली के रूप में व्यवहृत है। हालाँकि संस्कृत में आचार्य वामन-प्रवर्तित रीतिसंप्रदाय  नाम से पूरा काव्यशास्‍त्रीय संप्रदाय ही विद्यमान है, बावजूद इसके रीति की चर्चा वामन से पूर्व भी अनेक काव्यशास्‍त्रि‍यों ने की है, जहाँ ‘रीति ’ को काव्यरचना की शैली अथवा मार्ग के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है। हाँ, वामन ने रीति को एक प्रमुख काव्यशास्‍त्रीय संप्रदाय के रूप में स्थापित किया और रीतियों की विस्तृत एवं व्यवस्थित व्याख्या की।

 

काव्यरीतियों के अपने वैशिष्ट्य के कारण वामन ने ‘रीति’ को विशिष्ट पदरचना(विशिष्ट पदरचना रीति🙂 के रूप मे प्रस्तुत किया और उसके साहित्यिक महत्व को प्रतिपादित करते हुए उसे काव्य का आत्मतत्व (रीतिरात्मा काव्यस्य) स्वीकार किया।यहाँ निश्‍चय ही काव्य की शैली के रूप में ‘रीति ’ का विशिष्ट अर्थ है। संस्कृत काव्यशास्‍त्र के प्राय:सभी प्रमुख आचार्यों ने रीति को पदरचना की विशिष्ट शैली के रूप में ही स्वीकार किया है। ‘रीति ’  का सबसे प्राचीन उल्लेख अग्निपुराण में मिलता है, जहाँ वह गुणों से समन्वित काव्य की शैली के रूप में विद्यमान् है। अलंकारवादी आचार्य दंडी ने रीति को ‘मार्ग’ के रूप में स्वीकार किया है, यानि काव्यरचना के मार्ग,जो गुणों पर आधारित हैं, रीति के अंतर्गत आते हैं। रूद्रट रीति को ‘समास पद्धति’ से जोड़कर देखते है। मम्मट रीति को ‘काव्य-वृत्ति’ के रूप में मानते हैं। कुंतक ने रीति का अर्थ ‘मार्ग’ बतलाया है। आनन्‍दवर्धन रीति को ‘संघटना’ नाम से अभिहित करते हैं,वहीं राजशेखर  रीति को  ‘वचनविन्यास का क्रम’ कहते हैं। ‘रीति’  के इस अर्थ के साथ रीतिकाल के ‘रीति’  का कोई तालमेल नहीं बैठता, बल्कि ‘रीति’-अभिधान की साम्यता के साथ वह भ्रम भी पैदा करता है, क्योंकि रीतिकाल में रीति, लक्षणग्रन्‍थों के माध्यम से काव्यांगों के विविध विषयों पर प्रस्तुत काव्यरचना है। यहाँ वह शैली (style) या (method) नहीं, वरन् वह वस्तु या विषयवस्तु (matter / subject matter) की तरह प्रयुक्त है। वस्तुत: काव्यशास्‍त्रीय ‘रीति’ और रीतिकालीन ‘रीति’  के अर्थों में पर्याप्‍त भिन्‍नता है।

 

2. हिन्दी में रीति और रीतिकाव्य

 

हिन्दी में रीति का अर्थ आचार्य वामन के रीतिसंप्रदाय के अंतर्गत प्रस्तुत किए गए शास्‍त्रीय अर्थ से बिल्कुल अलग है,जहाँ वह रस,छंद,अलंकार आदि काव्यांगों के विविध रूपों के लक्षणों और उदाहरणों को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करने का ढंग या तरीका (method) है, जो संस्कृत काव्यशास्‍त्र के रस,अलंकार,ध्वनि आदि संप्रदायों की परंपरा में रचित कतिपय प्रमुख लक्षणग्रन्‍थों से प्रेरित एवं प्रभावित है। दूसरे अर्थों में, वह काव्यांगों के स्वरूप को स्पष्ट करने के क्रम में काव्यरचना की पद्धति (technique) है। इस दृष्टि से पूर्व में रचित संस्कृत में काव्यशास्‍त्रीय लक्षणग्रन्‍थों की समृद्ध परंपरा विद्यमान रही है, जहाँ काव्यांगों के लक्षण और उदाहरण देने की परिपाटी थी।उसी परिपाटी को हिन्दी के कवियों ने अपने तरीके से परंपरागत रूप में ग्रहण किया, जिसके कारण उन्हें परंपरा,यानी रीति का अनुसरण करने वाले कवि के रूप में जाना गया। ऐसे कवियों को ‘रीति-कवि’ एवं उनकी काव्यरचना को ‘रीतिकाव्य’ कहने का प्रचलन हो गया, “रीतिशास्‍त्र का तात्पर्य उन लक्षण देने वाले या सिद्धांत-चर्चा करने वाले ग्रन्‍थों से है, जिनमें अलंकार, रस, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि के स्वरूप, भेद, अवयव आदि के लक्षण दिए गए हों। ऐसे ही रीतिकाव्य उस काव्य को कहेंगे, जिसमें अलंकार, रस, रीति, वक्रोक्ति आदि के उदाहरण के रूप में या इनका ध्यान रखकर काव्य लिखा गया हो।” (भगीरथ मिश्र, हिन्दी रीतिसाहित्य, पृ.36-37) स्वाभाविक रूप से इस समय कमोबोश सभी कवि काव्य-रीति (भिखारीदास ने कहा भी हैकाव्य की रीति सिखी सुकवीन सों, देखी-सुनी बहु लोक की बातें) का ही अनुसरण कर रहे थे, यहाँ साहित्य को गति देने में अलंकारशास्‍त्र का ही जोर है, जिसे उस काल में रीति,कवित्त-रीति या सुकवि-रीति कहने लगे थे, संभवत: इन्हीं शब्दों से प्रेरणा पाकर शुक्लजी ने इस श्रेणी की रचनाओं को रीतिकाव्य  माना। (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य :उद्भव और विकास, पृ.158)

 

हिन्दी में ‘रीति’ शब्द को विद्यापति के समय में काव्यरचना पद्धति के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा था। परवर्ती भक्तिकाल में रीतिनिरूपण के क्रम में लक्षणग्रन्‍थों को रीतिनिरूपक ग्रन्‍थ कहा जाने लगा, जो रीतिकाल तक काव्यरचना के लिए पूरी तरह रूढ़ हो चुका था और वह काव्य-रीति के रूप में व्यवहृत होने लगा। रीतिकाल के अनेक कवि रीति को इस अर्थ में स्वीकार करने लगे थे। अब रीति शब्द, अपने सामान्य अर्थ और रीतिसंप्रदाय के काव्यशास्‍त्रीय अर्थ से अलग काव्यरचना-पद्धति के रूप में ख्यात हो गया था,जिसके पीछे संस्कृत काव्यशास्‍त्रीय संप्रदाय (रस, अलंकार, ध्वनि) की परंपरा में रचित अनेक काव्यशास्‍त्रीय लक्षणग्रन्‍थों की प्रेरणा विद्यमान रही है। रीतिकालीन कवियों की काव्यरचना की यह ‘रीति’  पूर्ववर्ती रचनापद्धति से यत्किंचित् परिवर्तन के साथ बहुत व्यापक एवं विकसित स्वरूप में स्थापित हो गई। कह सकते हैं, “रीतिकाव्य वह काव्य है, जिसकी रचना विशिष्ट पद्धति अथवा नियमों को दृष्टि में रखकर की गई हो। हिन्दी भाषा-साहित्य के उत्तर-मध्यकाल में अनेक कवियों ने संस्कृत-काव्यशास्‍त्र के नियमों की बँधीबँधाई परिपाटी पर अपने काव्य की रचना की।इसलिए उन्हें रीतिकवि और उनके काव्य को रीतिकाव्य संज्ञा से अभिहित किया जाता है।”(डॉ.नगेंद्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, संस्करण-2007, पृ.295)

 

3. रीतिकाल और रीतिकाव्य

 

हिन्दी में रीतिकाल की समयावधि मोटे तौर पर सं.1700 से 1900 वि. (सन् 1643 ई.-1843 ई.) मानी जाती है। आचार्य राचंद्र शुक्ल ने इस कालावधि में रीतिनिरूपक ग्रन्‍थों की व्यापक उपलब्धता के कारण इसे रीतिकाल कहा और रचना की प्रकृति के आधार पर इस काल के कवियों की दो श्रेणियाँ निर्धारित की -1.रीतिग्रन्‍थकार 2.अन्य। उन्होंने उन सभी कवियों का रीतिग्रन्‍थकार कवि के रूप में मूल्यांकन किया, जिन्होंने किसी न किसी रूप में लक्षणग्रन्‍थों की रचना की थी या उनमें रीतिनिरूपक लक्षणग्रन्‍थ रचना की विशेषताएँ विद्यमान थीं। चूँकि, इस समय काव्यरचना का मूल स्वर शृंगारपरक रचनाओं का था, इसलिए शुक्लजी ने इस काल को ‘शृंगारकाल’ के रूप में भी कहे जाने का संकेत किया था।  हालाँकि इस समय  रीतिग्रन्‍थ एवं  शृंगारी रचनाओं से अलग वीर, नीति और भक्तिविषयक विविध रचनाओं की परंपरा में प्रचुर सर्जन  किया गया है, जिसमें  भूषण, गोविन्दसिंह,  सूदन द्वारा रचित  वीरकाव्य,  नबी, नूरमोहम्मद, निसार द्वारा  रचित  प्रेमाख्यानकाव्य,  वृंद, घाघ, गिरिधर, दीनदयाल गिरि  द्वारा रचित नीतिकाव्य, सुन्दरदास, चरनदास, गरीबदास, तुलसीसाहब, जगजीवनसाहब, यारीसाहब, दरियासाहब, गुलाबसाहब, सहजोबाई, दयाबाई, भीखा, पलटूदास सरीखे भक्त कवियों द्वारा रचित संत साहित्य,  सबलसिंह का महाभारत, पद्माकर द्वारा रचित हिम्मतबहादुर  विरुदावलि  इत्यादि सम्मिलित हैं, पर मूल प्रवृत्ति रीति एवं शृंगार की होने के कारण शुक्लजी ने रीतिकाल नाम को उपयुक्त माना। उन्होंने रीतिनिरूपण करने वाले कमोबेश सभी कवियों को एक ही वर्ग में रखा। रीतिकाल की समयसीमा में रचित ‘रीतीतर’ कवियों (घनानन्द, बोध, ठाकुर, आलम आदि) को उन्होंने अन्य कवि  की श्रेणी में रखा।

 

‘रीति’ के स्वरूप पर चर्चा-परिचर्चा करते हुए विचारणीय यह है कि आचार्य शुक्ल एक और रीतिग्रन्‍थों की उपलब्धता के आधार पर उस काल का नामकरण रीतिकाल करते हैं, दूसरी ओर बार-बार रीतिग्रन्‍थों की अनुपयुक्तता और महत्वहीनता भी प्रतिपादित करते हैं,जिसे शुक्लजी के अंतर्विरोध के रूप में रेखांकित किया जा सकता है, “हिन्दी में लक्षणग्रन्‍थ की परिपाटी पर रचना करने वाले जो सैकड़ों कवि हुए हैं वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे।उनमें आचार्य के गुण नहीं थे।उनके अपर्याप्‍त लक्षण साहित्यशास्‍त्र का सम्यक् बोध कराने में असमर्थ हैं।बहुत स्थलों पर तो उनके द्वारा अलंकार आदि के स्वरूप का भी ठीक-ठीक बोध नहीं हो सकता। कहीं-कहीं तो उदाहरण भी ठीक नहीं हैं।”(हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.181)

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रीतिकाल की सम्यक् प्रस्तावना तैयार कर उसकी आधारभूमि निर्मित करने वाले रीतिकाल के सर्वप्रमुख आचार्य कवि केशवदास की सर्वाधिक प्रखर आलोचना करते हैं, उन्हें काव्यरीतियों का उद्घाटनकर्ता तथा काव्यांगनिरूपण करने वाला प्रथम कवि कहने के बावजूद,वे रीतिकाल के प्रवर्तन का श्रेय उन्हें नहीं चिन्तामणि’ को देते हैं। केशवदास सहित रीतिकाल के कवियों के विषय में लिखते हुए शुक्लजी कहते हैं – “केशवदास के वर्णन में यह दिखाया जा चुका है कि उन्होंने सारी सामग्री कहाँ-कहाँ से ली। आगे होने  वाले लक्षण ग्रन्‍थकार कवियों ने भी सारे लक्षण और भेद संस्कृत की पुस्तकों से लेकर लिखे हैं, जो कहीं-कहीं अपर्याप्‍त हैं। अपनी ओर से उन्होंने न तो अलंकार क्षेत्र में कुछ मौलिक विवेचन किया, न रस क्षेत्र में।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.181) बावजूद इसके रीतिकालीन काव्यरचना का क्षेत्र बहुत व्यापक है, जिसमें कविताई का चरम कलात्मक रूप दृष्टिगत होता है।उसमें सब कुछ अमौलिक,परंपरागत और महत्वहीन नहीं कहा जा सकता।यहाँ भगीरथ मिश्र की टिप्पणी प्रासंगिक कही जाएगी –“अत: इस शुद्ध काव्यप्रणाली पर काव्यरचना की पद्धति डाली गई,जिसमें प्रत्येक प्रकार की रुचि रखने वाले को अपने मनोनुकूल काव्यरचना का अवसर मिला। इसलिए रीतिकाल में इस प्रणाली का स्वागत हुआ।” (हिन्दी-रीति साहित्य, पृ.39) रीतिकालीन काव्यरचना की इन्हीं आलोचनाओं-प्रत्यालोचनाओं के साथ रीतिकाव्य का स्वरूप निर्मित होता है, जिसके प्रेरणास्रोत के रूप में संस्कृत काव्यशास्‍त्र के रस, अलंकार, ध्वनि संप्रदाय-परंपरा में रचित कतिपय प्रमुख लक्षणग्रन्‍थों को स्वीकार किया जाता हैं।

 

4. रीतिकाव्य का स्वरूप

 

रीतिकाल में रीतिनिरूपक लक्षणग्रन्‍थों की रचना से रीतिकाव्य का जो व्यापक स्वरूप बनता है, उसमें संस्कृत काव्यशास्‍त्र के विभिन्‍न संप्रदायों  की विवेचना के अंतर्गत रचित लक्षणग्रन्‍थों की विशिष्ट भूमिका है, जिसमें अलंकार संप्रदाय के चंद्रालोक  (जयदेव), कुलयानन्‍द  (अप्पय दीक्षित), काव्यप्रकाश  (मम्मट), साहित्य दर्पण  (आचार्य विश्‍वनाथ) के नाम उल्लेखनीय हैं। इस मूल प्रेरणास्रोत से प्रेरित, प्रभावित होकर या स्वतंत्र रूप से रीतिकाल से पूर्व या उसके आसपास कतिपय  महत्वपूर्ण काव्यांग विवेचक लक्षणग्रन्‍थ मौलिक या अनूदित रूप में रचे गए, रीतिकाव्य के निर्माण में जिनका  कम योगदान नहीं है। ऐसी रचनाओं में कृपाराम की हिततरंगिणी, सूरदास की साहित्य लहरी, नन्‍ददास की रसमंजरी, तुलसीदास की बरवै रामायण  एवं रामललानहछू, रहीम की बरवै नायिका-भेद  आदि के नाम सम्मिलित हैं।

 

संस्कृत और हिन्दी की रीतिनिरूपक समस्त रचनाओं के समन्वित रूप को समग्रता में ग्रहण करते हुए व्यवस्थित रूप में काव्यांगविवेचना करने वाले ग्रन्‍थों की रचना कर केशवदास ने रीतिकाव्य रचना का मार्ग प्रशस्त किया, जहाँ उन्होंने  रसिकप्रिया और कविप्रिया के रूप में रीतिकाव्य का पथप्रदर्शक लक्षणग्रन्‍थ रच डाला। उसके पश्‍चात रीतिकाल में  रीतिकाव्यरचना का व्यापक मार्ग खुल गया, भले ही लक्षणग्रन्‍थ रचना की अविछिन्‍न परंपरा केशव से नहीं, चिन्तामणि’ से क्यों न चली हो। रीतिकाव्य के स्वरूप पर विचार करने के क्रम में रीतिकाल में रचित रीतिनिरूपण करने वाले लक्षणग्रन्‍थों के व्यापक सर्जन को देखते हुए उसके क्रमबद्ध रूप का विवेचन अपेक्षित है।

 

रीतिकालीन रीतिग्रन्‍थों की रचना में संस्कृत के जिन काव्यशास्‍त्रीय संप्रदायों का योगदान स्वीकार किया जाता है, उनमें अलंकार, ध्वनि  और रस  संप्रदायों के नाम प्रमुख हैं। इस क्रम में सर्वाधिक व्यापक रस संप्रदाय है, जिसने रीतिकाव्यप्रणयन को व्यापक रूप से प्रेरित और प्रभावित किया। वैसे तो सबसे प्राचीन संप्रदाय  रस संप्रदाय  है, जिसके कारण भरतमुनि, नंदिकेश्‍वर,अभिनवगुप्‍त आदि के प्रेरक विवेचन-विश्‍लेषण से इनकार नहीं किया जा सकता, पर इस संप्रदाय के महत्वपूर्ण लक्षणग्रन्‍थ भानुदत्त के रसमंजरी  एवं रसतरंगिणी  का अविस्मरणीय योगदान स्वीकार किया जाता है। रीतिकाल में शृंगारपरक रचनाओं और रीतिनिरूपण के साथ नायिकाभेद आदि पर व्यापक सर्जन हुआ है।यहाँ तक कि शुक्लजी रीतिकाल में  जिस रसविषयक विवेचन की अविरल परंपरा का आरंभ चिन्तामणि से स्वीकार करते हैं, उनकी रसविवेचना का आधारग्रन्‍थ भानुदत्त की रसमंजरी  ही है। रीतिनिरूपण की परंपरा में रचे गए लक्षणग्रन्‍थों को निम्‍नवत् क्रम में रखा जा सकता है –

  • अलंकार संप्रदाय से प्रेरित-प्रभावित रीतिकाव्यग्रन्‍थों में प्रमुख रूप से कविप्रिया (केशवदास), भाषाभूषण, अलंकारदर्पण (रामसिंह), ललितललाम  (मतिराम), शिवराजभूषण  (भूषण),अलंकारगंगा  (श्रीपति) अलंकारचंद्रोदय (जसवंतसिंह), (रसिक सुमति) अलंकारमाला (सुरतिमिश्र), अलंकार रत्नाकर (दलपतिराय वंशीधर), रसिक मोहन (रघुनाथ वंदीजन), कविकुलकंठाभरण (दूलह), अलंकार दर्पण  (हरिनाथ),पद्माभरण (पद्माकर) आदि के नाम सम्मिलित हैं।
  • रससंप्रदाय से प्रेरित-प्रभावित लक्षणग्रन्‍थों में मुख्यतयारसिकप्रिया (केशव), रसराज (मतिराम), सुधानिधि (तोष),रसरहस्य (कुलपति मिश्र),रसार्णव (सुखदेव मिश्र), भावविलास (देव), रसविनोद (रामसिंह), रस रत्नावली (मंडन),रस सारांश (भिखारीदास),रसप्रबोध (रसलीन),रसतरंगिणी (शंभुनाथ मिश्र), नवरस तरंग (बेनी प्रवीन), रसिक विनोद (चंद्रशेखर वाजपेयी),रसिकानन्‍द (ग्वाल कवि) आदि के नाम सम्मिलित हैं।
  • नायिका-भेदविषयक लक्षणग्रन्‍थों में प्रमुखतया शृंगारमंजरी (चिन्तामणि), जातिविलास एवं रसविलास (देव),वधूविनोद (कालिदास),व्यंग्यार्थ चंद्रिका (गुलाब सिंह) उल्लेखनीय ग्रन्‍थ कहे जा सकते हैं।
  • ध्वनिसंप्रदाय से प्रेरित-प्रभावित संपूर्ण काव्यांगविवेचक रीतिकाव्यग्रन्‍थों में कविकल्पतरु,काव्यविवेक,काव्यप्रकाश  (चिन्तामणि’), रसिक रसाल (कुमारिल भट्ट),काव्य निर्णय  (भिखारीदास),काव्य सरोज(श्रीपति मिश्र),रसपीयूषनिधि  (सोमनाथ)साहित्यानन्‍द  (ग्वाल कवि) प्रमुख हैं। वस्तुत:रीतिकाल में रीतिकाव्य का जो स्वरूप निर्मित होता है, उसमें उपर्युक्त लक्षणग्रन्‍थों के आधार पर उनको चार वर्गों में रखा जा सकता है-(क) संपूर्ण काव्यांगनिरूपक लक्षणग्रन्‍थ (ख) अलंकारविषयक रीतिनिरूपक ग्रन्‍थ (ग) रस-विवेचक लक्षणग्रन्‍थ (घ) नायिका-भेदनिरूपक लक्षणग्रन्‍थ। इन्हीं के आधार पर रीतिकाल में रीतिकाव्य का व्यापक स्वरूप निर्मित होता है और रीतिकाव्यनिरूपण की परंपरा का बहुत विकास एवं विस्तार हो जाता है।
  1. रीतिकाल की परिस्थितियाँ

 

रीतिकाल की कविता काव्यकला की कसौटी पर कसी हुई अभिव्यक्ति की कलात्मक प्रस्तुति है, जिसका कलापक्ष साहित्यिक कलात्मकता के चरमशिखर पर अवस्थित है। ऐसा शायद इसलिए कि पूर्ववर्ती भक्तिकाल में कविता का अनुभूतिपक्ष इतना प्रबल और उच्‍चकोटि का है कि रीतिकाल के कवियों को उस दिशा में अब और अधिक आगे बढ़ने की गुंजाइश नहीं बची थी। तब कविता के बाह्य कलेवर (अभिव्यक्तिपक्ष) को सजाने-सँवारने और निखारने के अतिरिक्त और कोई मार्ग न था। इसलिए रीतिकाल की कविता में कलात्मक पक्ष बहुत मोहक और आकर्षक है,जिसमें शाब्दिक चमत्कार के विविधवर्णी चित्र आकृष्ट करते हैं।इसका कारण यह है कि तत्कालीन परिवेश में राजदरबार, जहाँ के विलासपूर्ण जीवन में कला, संगीत, शायरी से संपृक्त शृंगारपरक कलात्मक काव्याभिव्यक्ति का ही आधिपत्य था, कवियों से ऐसे ही काव्यसर्जन की अपेक्षा रखता था, जिसकी पूर्ति करते हुए कविगण तदनुरूप काव्यरचना में प्रवृत हो रहे थे। कहा जा सकता है कि रीतिकालीन कविता उस काल की परिस्थितियों की स्वाभाविक उद्भूति है, “ऐसी परिस्थिति में काव्य अधिकाधिक शृंगार वर्णन की ओर झुकता गया। जिस प्रकार उस काल में चित्रकला, वास्तुकला, संगीतकला की विभिन्‍न सूक्ष्म रीतियों और शैलियों के अनुसार सजावट की गई,उसी प्रकार काव्य के क्षेत्र में भी भाव और भाषा की सूक्ष्मातिसूक्ष्म सजावट और पच्‍चीकारी की गई।” (लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.199)

 

साहित्य के क्षेत्र में इतना बड़ा परिवर्तन उस काल की विविध परिस्थितियों के कारण ही संभव है, क्योंकि किसी भी देश या समाज के किसी कालविशेष की परिस्थितियाँ उस काल में रचे जाने वाले साहित्य को न केवल प्रभावित करती हैं, वरन उसका संचालन और नियंत्रण भी करती हैं। दूसरे शब्दों में, किसी देश अथवा समाज के साहित्य में उसका पूरा स्वरूप प्रतिबिंबित होता है। साहित्य और समाज में अन्योन्याश्रय संबंध होता है। वे आपस में इस तरह संपृक्त होते हैं कि उनके आपसी संबंधों का गहन विवेचन-विश्‍लेषण उनके स्वरूप को स्पष्ट करने में पूरी तरह सहायक होता है। किसी साहित्य सर्जन के पीछे किन परिस्थितियों का योगदान है, उनका अध्ययन किए बिना साहित्य के स्वरूप को स्पष्ट किया जाना कदाचित् संभव नहीं।इस क्रम में रीतिकालीन साहित्य की विवध परिस्थितियों का सम्यक् विश्‍लेषण और विवेचन आवश्यक है। यहाँ रीतिकाल की उन्हीं विभिन्‍न प्रेरक परिस्थितियों का मूल्यांकन अपेक्षित है।

 

1. राजनीतिक अपकर्ष, संकुचित एवं संकीर्ण मनोवृत्ति का काल

 

किसी देश या समाज के कालविशेष की राजनीतिक परिस्थिति उस काल के साहित्य को किस सीमा तक प्रभावित करती है, रीतिकालीन साहित्य इसका सबसे प्रमुख और ज्वलंत उदाहरण है। रीतिकाल के (1643 ई. से 1843 ई.) कमोबेश दो सौ साल की समयावधि राजनीतिक दृष्टि से मुगलकाल के उत्कर्ष शासन के उत्तरोत्तर अपकर्ष और अवनति की ओर जाते हुए शासन की कहानी है। अकबर के शासनकाल (1555 ई. से 1605 ई.) में उसकी राजनीतिक कुशलता और उदार-दूरदर्शी दृष्टि ने मुगलशासन को जिस ऊँचाई पर प्रतिष्ठित किया था, जहाँगीर के शासनकाल (1605 ई. से 1627ई.) मे ही उसकी मस्ती का आलमवाली  प्रवृत्ति के कारण उसमें गिरावट आने लगी थी। उसके बाद शाहजहाँ के शासनकाल (1627 ई. से 1658 ई.) में, हालाँकि प्रशासनिक रूप से साम्राज्यविस्तार तथा कलात्मक उत्कर्ष का वैभव चरम शिखर पर (मयूर सिंहासन और ताजमहल जैसी नायाब कलाकृतियों के निर्माण की दृष्टि से) दिखाई देता है, यहाँ तक कि कला और साहित्य, न्यायप्रियता, सामाजिक व्यवस्था आदि की दृष्टि से उसे मुगलकाल का स्वर्णयुग तक कहा जाता है,  पर उसके  शासन के उत्तरार्ध (जो रीतिकाल के आरंभ और विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, हालाँकि केशवदास उससे बहुत पहले रीतिकाल की सम्यक् प्रस्तावना तैयार कर चुके थे) तक उसकी अतिविलासी एवं घोर अपव्यय की उद्दाम  प्रवृत्ति ने मुगलकाल की  अवनति का रास्ता दिखला दिया। ऐसी परिस्थिति में रीतिकाल का साहित्य जिस रूप में हमारे सामने आया, उसमें तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों की अहम भूमिका है।हालाँकि रीतिकालीन साहित्य में उस काल के समाज की दारुण व्यथा और करुण कथा के जर्जर चित्र नहीं दिखाई देते हैं, पर राजसत्ता की शाही और सामंती प्रवृत्ति की जीती जागती तस्वीर उसमें स्प्ष्ट रूप से परिलक्षित होती है। रीतिकालीन काव्य में घोर शृंगारिकता एवं विलासिता अचानक या अकारण नहीं थी, बल्कि यह विशेषता उस काल की राजनीतिक पृष्ठभूमि एवं तत्कालीन परिस्थितियों में विद्यमान थी।

 

शाहजहाँ के अंतिम दिनों तथा औरंगजेब  के शासन और उसके बाद जब मुगलकाल के पतन का समय आ गया, तब भी शासन की विलासी प्रवृत्ति में कोई कमी नहीं आई। इसलिए उस काल का राजनीतिक परिदृश्य मुगलकाल के राजनीतिक पराभव की दारुण व्यथा की करुण कथा कहता है। मुहम्दशाह रंगीला की विलासिता सर्वविदित है। नादिरशाह की लूटमार, अहमदशाह अब्दाली का कत्लेआम, अँगरेजों की कुटिल नीति का फैलता जाल, इन सब से शाही विलासिता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। इस काल में संकुचित और संकीर्ण मनोवृत्ति केवल विलासिता तक सिमट गई थी। परिस्थिति-निर्पेक्षता उत्तरमुगलकाल की सामान्य प्रवृत्ति बन गई थी। इसी राजनीतिक पराभव और अपकर्ष की अवधि में रीतिकालीन कविता की सर्जना हो रही थी, जिसमें उस काल की खूबियाँ और खराबियाँ दोनों विद्यमान हैं। इन सारी स्थितियों-परिस्थितियों की गहरी छाप रीतिकालीन काव्यसर्जन पर पूरी तरह पड़ी। उपर्युक्त राजनीतिक पृष्ठभूमि एवं परिस्थिति में जन्मी, पली और बढ़ी रीतिकालीन कविता में उस काल का सामंती और विलासी जीवन पूरी तरह परिलक्षित होता है, जिसमें शासकवर्ग की विलासिता और संकुचित-संकीर्ण मनोवृत्ति को संतुष्ट करने का उपक्रम दिखाई देता  है–“वास्तव में रीतिकाव्य जितना तत्कालीन समाज के क्लांत चित्त के विश्राम और विनोद की व्यवस्था करता है, उतना परिष्करण और नियोजन का नहीं।” (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य :उद्भव और विकास, पृ.167)   

 

वस्तुत: राजनीतिक दृष्टि से रीतिकाल का समय राजनीतिक पराभव और विलासिता तक सिमट जानेवाली  संकुचित-संकीर्ण मनोवृत्ति का काल है, जिसके क्रोड़ में विकसित होनेवाली रीतिकालीन कविता उस काल के सामंती और विलासी जीवन का जीता-जागता चित्र उपस्थित करती है।

 

2. सामाजिक अवनति एवं अतिविलासी प्रवृत्तियों के प्रभुत्व का काल

 

आदिकालीन संक्रांतिकाल की भीषण संघर्ष वेला से निकलकर भारतीय समाज ने भक्तिकालीन पुनरुत्थान की शांति वेला में प्रवेश किया था। भक्तिकाल केवल इतिहास का सामान्य काल नहीं था,वल्कि एक ऐसा अखिल भारतीय आंदोलन था, जिसने पूरे समाज को उद्वेलित एवं आंदोलित किया। एक लंबे संघर्ष और आंदोलन के पश्‍चात समाज में शांति,समरसता और एकता का वातावरण निर्मित हुआ था। इस समन्वय के लिए भक्तकवियों, संतों, सूफियों और सहिष्णु शासकों ने बहुत व्यापक प्रयास किया था, जिसमें उन्हें पर्याप्‍त सफलता मिली थी। अकबर के शासनकाल तक सामाजिक समरसता का जो तानाबाना, उसकी जैसी उदार दृष्टि और सभी धर्मों, वर्गों, संप्रदायों को समानरूप से  मानने वाले के प्रयास के रूप में  अविचिछिन्‍न बना रहा था, उसके बाद वह जर्जर अवस्था को प्राप्‍त होता गया, क्योंकि अकबर के बाद के शासकों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत बहुत उदार और सहिष्णु नहीं रह सका। उनका संबंध सामान्यजन से दिनोदिन कम होता गया और वे मात्र विलासी जीवन जीने के अभ्यस्त हो गए। उनके इस शाही विलासिता का असर छोटे राजाओं-महाराजाओं,  नवाबों, मनसबदारों, सामंतों पर भी स्वाभाविक रूप से पड़ा और उन्होंने भी उसी के अनुरूप अपनी जीवनशैली को ढाल लिया।उनके रहन-सहन, ठाटबाट को देखकर एक अलग दुनिया का आभास होता था, जो शेष समाज से कटा हुआ प्रतीत होता था।

 

मस्ती और विलास की मदिरा में डूबे शासकों के दरबार में शृंगारिक विलासिता का व्यापक परिवेश निर्मित हो गया।उसमें पनाह पाने  वाले कवियों, शायरों, संगीतकारों, कलावंतों ने अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्‍न करने के लिए जो सर्जन किया उसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ा। समाज में उनके विलासी जीवन और शानो-शौकत का अनुकरण आम बात हो गई थी।सामंती व्यवस्था से ओतप्रोत समाज को देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि यह शायद भारतीय समाज का हिस्सा ही नहीं है।एक ओर वैभव और विलासिता में डूबा समाज, दूसरी ओर आम आदमी की साधारण ज़िदगी, जिसमें गरीबी और ज़लालत के सिवा और कुछ नहीं था। समाज में स्पष्ट रूप से वर्ग विभाजन दिखाई दे रहा था, जहाँ एक ओर विलासी शोषकवर्ग था, दूसरी और श्रमिक और गरीबों का शोषित वर्ग था। दोनों की सामाजिक स्थिति में पूरब-पश्‍च‍िम का अंतर था, “मुगलशासन के अंतिम दिनों में भारतीय समाज के ये ही दो आर्थिक वर्ग थे – राजा, सामंत, मनसबदार आदि भोक्ता वर्ग और कृषक और श्रमिकों का उत्पादक वर्ग। दोनों का परस्पर का संबंध क्रमश:क्षीण होता गया और मुगलकाल के अंतिम दिनों में इन दोनो की दुनिया लगभग अलग हो गई।” (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य :उद्भव और विकास, पृ.161)

 

ऐसी सामाजिक अवनति के काल में रीतिकालीन कविता राजदरबार के विलासी जीवन की झाँकी तो,प्रस्तुत करती है, पर उसमें आम जनजीवन के साधारण चित्रों के दर्शन नहीं होते। ऊँचनीच के आपसी भेदभाव वाले,धार्मिक आडंबरों और अंधविश्‍वासों में घिरे समाज की स्थिति उन्‍नत नहीं कही जा सकती। स्पष्टत: यह काल सामाजिक अवनति और अतिविलासी प्रवृत्तियों के प्रभुत्व- काल के रूप में स्मरण किया जाएगा।

 

3. सांस्कृतिक पराभव एवं धार्मिक पतन की पराकाष्ठा का काल

 

हिन्दी साहित्य के इतिहास के पूर्वमध्यकाल में सांस्कृतिक गौरव और उत्थान की जो उच्‍च परंपरा स्थापित हुई थी, उत्तरमध्यकाल में उसका स्वरूप पूरी तरह परिवर्तित हो गया और समाज में प्रसरित सांस्कृतिक प्रदूषण से उसमें अनेक प्रकार की विकृतियाँ व्यापत हो गईं। भक्तिकाल में भक्तकवियों एवं संतकवियों के प्रयास से सांस्कृतिक गौरव की जो झाँकी निर्मित हुई थी, रीतिकालीन परिवेश में पहुँचकर उसमें निरंतर ह्रास होता गया। संत कवियों और सूफी संतों के अकुंठ-निश्छल सामूहिक प्रयास से समाज में सौहार्द और सांस्कृतिक समरसता का परिवेश निर्मित हुआ था। संतों और सूफियों की वाणी से हिंदू-मुस्लिम के बीच जो आपसी मेलमिलाप, भाईचारा और समन्वय का वातावरण निर्मित हुआ था, परवर्ती शासकों की अपेक्षाकृत अनुदार दृष्टि और असहिष्णुता के कारण वह कमजोर पड़कर तार-तार होता नज़र आने लगा। वैभव और विलास के खुले प्रदर्शन ने सभ्यता और संस्कृति को अपनी चपेट में लेकर सामाजिक अराजकता को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। परिणामत: समाज मे धर्म के नाम पर अंधविश्‍वास, पाखंड और आडंबरों का बोलबाला हो गया। पूजापाठ के पवित्र स्थल भी विलासिता और घोर शृंगारिकता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। धार्मिक विघटन के परिवेश में राम और कृष्ण की भक्ति का स्वरूप भी परिवर्तित नजर आने लगा।धर्म प्रसार और प्रचार के केंद्र भी इस सांस्कृतिक पराभव के काल में विलास-सुख की ओर उन्मुख होने लगे।सांस्कृतिक प्रदूषण के इस दौर में संप्रदायों और मठों की आपसी प्रतिद्वंद्विता चरम पर पहुँच गई। धार्मिकता के इस पतन से नैतिकता के लिए  स्थान ही न रह गया। सांस्कृतिक पराभव और धार्मिक पतन की पराकाष्ठा के इस परिवेश में रीतिकाल में काव्यरचना करने वाले कवियों से किस प्रकार के सर्जन की उम्मीद की जा सकती है, इसका अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है।

 

4. साहित्यिक दृष्टि से नैतिकता रहित, नवीन और कलात्मक उत्कर्ष का काल

 

रीतिकाल में सर्जित साहित्य का जो स्वरूप दिखाई देता है, वह एकबारगी अचानक इस रूप में नहीं आया, वरन् उसके स्वरूपनिर्माण में उसकी साहित्यिक पृष्ठभूमि तथा उस काल की प्रेरक साहित्यिक परिस्थितियों का योगदान है, जिसने इसके लिए उर्वर का काम किया।हालाँकि इस काल का साहित्यसर्जन कलात्मक उत्कर्ष और नवीन साहित्यिक मानदंडों की दृष्टि से बहुत उत्कृष्ट और चमत्कारपूर्ण है,पर अपने पूर्ववर्ती भक्तिकालीन उदात्त रचनात्मक भावभूमि पर स्थित काव्यसर्जन से वह कमतर और नैतिकतारहित है। रीतिकाल में काव्यरचना और कला की असाधारण उन्‍नति के बावजूद इस काल में रचा  जाने वाला साहित्य भक्तिकाल की तुलना में सामाजिकता से कटा हुआ प्रतीत होता है। जहाँ भक्तिकाल का साहित्य एक व्यापक सामाजिक दृष्टिकोण लेकर लोककल्याण और जनोन्मुखी भावना से प्रेरित और अनुप्राणित था,रीतिकाल का साहित्य एक वर्गविशेष की शृंगारी एवं विलासी भावनाओं की तुष्टि का माध्यम बन रहा था।

 

पूर्वमध्यकाल में सूर,जायसी,तुलसी जैसे कवियों ने साहित्यसर्जन के माध्यम से उदात्त भावना से परिपूर्ण पवित्र और निश्छल प्रेम की जो आधारभूमि निर्मित की थी, उत्तरमध्यकाल में वह पवित्र भावना लुप्‍तप्राय हो गई। तुलसी और सूर का पवित्र निश्छल प्रेम अकबर के राजकीय अवगुण एवं जहाँगीर की मस्ती के आलम में कहीं खो गया। रीतिकाल के साहित्यिक परिवेश की पृष्ठभूमि उसी समय बनने लगी थी, जब अकबर के समय में ही केशवदास जैसा भक्तकवि सुंदरियों द्वारा बाबा कहे जाने पर अपने श्‍वेत केशों के लिए अफसोस प्रकट कर रहा था। शृंगार और विलास प्रेमी जहाँगीर जिस समय शासनव्यवस्था से बेख़बर कश्मीर की राजकीय यात्राएँ कर रहा था, बलभद्र मिश्र जैसा कवि नायिका-रूपसौंदर्य से आकृष्ट होकर ‘नखशिख’ जैसी रचनाएँ प्रस्तुत कर रहा था। उसी परंपरा में उत्तरमुगलकाल में कलाप्रेमी शाहजहाँ, जहाँ मुमताजमहल की स्मृति में ताजमहल का निर्माण करवा रहा था, वही बिहारी सरीखे कवि अतिशय शृंगारिकता का मांसल राग अलाप रहे थे।साहित्य,संगीत,कला से विमुख औरंगजेब जिस समय भावुक होकर औरंगाबाद में बैठा हुआ था, कमोबेश उसी समय देव जैसा कवि विलासितापूर्ण कामुक शृंगारिक वर्णनों में व्यस्त था।कहने का भाव यह है कि उस समय राजसत्ता और साहित्य दोनों में विलासिता और शृंगारिकता का ही परिवेश छाया हुआ था।ऐसी परिस्थिति में यह आश्‍चर्य नहीं कि जहाँ शासन शालीमारबाग, निशातबाग, मयूरसिंहासन, ताजमहल, औरंगाबाद आदि के निर्माण में तल्लीन था, वहीं साहित्य में रसिकप्रिया  (केशवदास), नखशिख, रस विलास  (बलभद्र मिश्र), अलक शतक, तिल शतक (मुबारक), अंग दर्पण (रसलीन) आदि शृंगारिक रचनाओं की सृष्टि हो रही थी।

 

रीतिकाल का कमोबेश सारा रचनात्मक सर्जन राजाश्रय की छत्रछाया में हुआ है, इस कारण से इस काल की काव्यसर्जना उन्हीं आश्रयदाताओं की रुचि-अभिरुचि से परिचालित-संचालित हो, ऐसा अनिवार्य-सा हो गया था। कवि और कविता दोनों के लिए राज दरबार में ही सम्मानजनक स्थान मिल सकता था, इसलिए कविगण अपनी पूरी क्षमता और प्रतिभा से ऐसी सजावटी,बनावटी और चमत्कार पैदा करनेवाली काव्यरचना में प्रवृत रहते थे, जिससे उन्हें राजदरबार में पद-प्रतिष्ठा के साथ ही अर्थलाभ भी हो।

 

पूर्ववर्ती उदात्त काव्यरचना,जो कभी स्वांत:सुखाय,परजन हिताय  के साथ कवि को यश:प्रार्थी  बनाने का उपक्रम करती थी, रीतिकाल में वही कविता  कवि की जीविका का साधन और प्रदर्शनपरक लोकप्रियता का माध्यम बनकर रह गई। कविता को सजावट और बनावट की वस्तु की तरह कलात्मक साँचे में ढालना इसकाल के कविकर्म का अनिवार्य अंग हो गया, जिसमें कलात्मक चारुत्व और किसी सीमा तक नूतनता का आग्रह तो है, पर उसमें उदात्त भावनायुक्त नैतिकता का आभाव है। श्रेष्ठ से श्रेष्ठ प्रतिभाशाली कवि की संपूर्ण काव्यप्रतिभा काव्यकलेवर को अलंकृत करने में  ही लगी रही। इसलिए कविता का बाह्य कलेवर तो आश्‍चर्यजनक ढंग से कलात्मक ऊँचाइयों पर स्थापित हो गया पर, काव्यसर्जन के स्वछंद-उन्मुक्त प्रवाह में अनुभूतिगत मौलिक चेतना का जो प्रवाह हो सकता था, वह बहुत कुछ दब-सा गया। इसे उसकाल की साहित्यिक परस्थिति की स्वाभाविक परिणति  कहा जा सकता  है।

 

  1. निष्कर्ष

 

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संस्कृत काव्यशास्‍त्र की परंपरा में रचित कतिपय जिन लक्षणग्रन्‍थों की प्रेरणा से रीतिकाल में रीतिनिरूपण करने वाले लक्षणग्रन्‍थों की व्यापक रचना हुई।उस काल में यह रीतिनिरूपण का विस्तार ही था कि हर तरह की काव्यरचना को काव्यरीति या रीतिकाव्य कहा जाने लगा था। उसी क्रम में अलंकार-रीति, रस-रीति आदि रूप भी प्रचलित हो गए। काव्य-रीति का स्वरूप इतना व्यापक था कि काव्य के सभी अंगों को आधार बनाकर काव्यरचनाएँ की गईं। उससे इतर अन्य शृंगारपरक रचनाओं में भी काव्य-रीति का पूरा पूरा प्रभाव परिलक्षित होता है। यही कारण है कि शृंगार का कोई पक्ष कवियों से नहीं छूटा। लक्षणग्रन्‍थरचना के साथ शृंगारपरक काव्यरचना का आश्‍चर्यजनक विस्तार इस काल में दिखाई देता है।

 

रीतिकालीन काव्यरचना का जो स्वरूप इस काल में निर्मित हुआ, उसके पीछे इस काल की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक परिस्थितियों का विशिष्ट योगदान है। इन विभिन्‍न परिस्थितियों से प्रेरित-प्रभावित साहित्यरचना में उस काल की कलाप्रियता के साथ विलासिता का भी प्रतिबिंब दिखाई देता है। स्वाभाविक रूप से उस काल की काव्यरचना  में कलात्मक उत्कर्ष के साथ नवीनता का भी संचार है, पर अतिविलासपूर्ण शृंगारिक भावना के कारण वह कविता सीमित और संकुचित मनोवत्ति का पोषण करती है। उसमें उदात्त भावना और नैतिक दृष्टि के साथ जीवन का समग्र विस्तार और उन्‍नत रूप नहीं दिखाई देता। रीतिकाल की काव्यरचना तत्कालीन सामंती परिवेश की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास करती हुई प्रतीत होती है, जो तत्कालीन विभिन्‍न परिस्थितियों के प्रभाव में अपना स्वरूप निर्मित करती है। ऐसी परिस्थिति में सर्जित साहित्य का मूल्यांकन करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही कहा है –“रीतिकाल का काव्य यद्यपि शृंगारप्रधान है, पर इस शृंगाररस की साधना में जीवन की संतुलित दृष्टि का अभाव है – यह वास्तविक जीवन की कठोरताओं पर आधारित नहीं।इसका आधारफलक (कैनवस) सीमित, संकुचित और सँकरा है। जीवन के मूल प्रश्‍नों से उसका संबंध थोड़ा है। जीवन की वास्तविक जटिलताओं के साथ सामना करने के लिए जिस प्रकार का वैयक्तिक साहस और सामाजिक मंगल का मनोभाव आवश्यक है, वह इसमें नहीं है,और न शृंगारभावना को जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य घोषित करने का  साहस ही है।” (हिन्दी साहित्य :उद्भव और विकास, पृ.165)

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