13 रीतिसिद्ध काव्य

प्रो. शम्भुनाथ तिवारी तिवारी

 

1.   पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरांत –

  • रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध काव्य के वर्गीकरण के साथ दोनों का अंतर समझ सकेंगे।
  • रीतिकालीन काव्य के परिप्रेक्ष्य में रीतिसिद्ध काव्य का सामान्य परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • रीतिसिद्ध काव्य के स्वरूप को सम्यक् रूप से जान सकेंगे।
  • रीतिकालीन कविता में रीतिसिद्ध काव्य के वैशिष्ट्य और महत्व से भलीभँति परिचित हो सकेंगे।
  • रीतिसिद्ध काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों विषय में विस्तार से जान पाएँगे।
  • रीतिसिद्ध प्रमुख कवियों और उनकी रचनाओं का परिचय प्राप्‍त कर सकें।
  • समग्रतः रीतिसिद्ध काव्य का तथ्यपरक एवं वस्तुपरक आकलन कर सकेंगे। 
  1. प्रस्तावना

 

रीतिकालकी परिधि में काव्यरचना करनेवाले कवियों की व्यापक छानबीन करने के उपरांत आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिग्रंथकार कवि एवं अन्य कवि के रूप  में उनकी दो ही श्रेणियाँ निर्धारित की थीं। उन्होंने रीतिसिद्ध कवि  जैसा कोई वर्गीकरण या विभाजन नहीं किया, पर परवर्ती आलोचकों,विशेषकर विश्‍वनाथप्रसाद मिश्र, ने रीतिग्रंथकार आचार्यकवियों की श्रेणी से इतर किंचित् अलग विशेषताएँ रखनेवाले कुछ कवियों की एक अलग श्रेणी बनाकर उन्हें रीतिसिद्ध कवि  के रूप में रेखांकित किया। इस तरह उनके द्वारा रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध,रीतिमुक्त  के रूप में किया गया वर्गीकरण ही कमोबेश मान लिया गया, जो आज सर्वमान्य सा हो गया है। रीतिसिद्ध कवि  की श्रेणी का संकेत और आधार भी उन्हें आचार्य शुक्ल के श्रेणी-विभाजन में ही मिल गया। शुक्लजी ने काव्यरीति का अनुसरण करनेवाले कवियों को आचार्य शुक्ल ने कमोबेश समान काव्यप्रवृत्ति के  आधार पर रीतिग्रंथकार कविकी श्रेणी में ही रखा, चाहे उन्होंने लक्षणग्रंथ की रचना की हो, अथवा न की हो। मिश्रजी को, शुक्लजी के कथन के आधार पर ही उनके रीतिग्रंथकार कविवाले  वर्ग में बिहारी जैसा एक ऐसा कवि भी दिखाई दे गया,जिसने बिना किसी लक्षणग्रंथ की रचना किए बिहारी सतसई  जैसा विलक्षण काव्यग्रंथ रच डाला था। बिहारी की काव्यात्मक विशेषताओं को देखकर मिश्रजी को रीतिसिद्ध कवि  की श्रेणी का बड़ा आधार मिल गया  और इस तरह रीतिकाल में रीतिसिद्ध कवि  की एक अलग श्रेणी बन गई, जिसके अंतर्गत बिहारी को निकष मानते हुए उनके समान कतिपय काव्यगत विशेषताओंवाले कवियों को इसमें सम्मिलित किया  गया ।

 

रीतिकाल की काव्यधारा के ऐसे कवि जिन्होंने किसी तरह के लक्षणग्रंथ की रचना नहीं की, पर वे चाहते, तो ऐसा कर सकते थे, क्योंकि उनमें ऐसा करने की क्षमता थी,  वे रीतिसिद्ध काव्यधारा के कवि के रूप में परिगणित किए जाते हैं। रीतिसिद्धकहने के पीछे यह भी भाव है कि भले ऐसे कवियों ने लक्षणग्रंथों की रचना नहीं की,लेकिन उनकी काव्यरचना में रीतिबद्धता के सभी गुण विद्यमान हैं, जो रीतिबद्ध काव्य के उत्कृष्ट उदाहरण कहे जा सकते हैं। दूसरे अर्थों में उन कवियों नें काव्य-रीतिको सिद्ध कर लिया है, या काव्यरचना की रीति में उन्होंने  सिद्धि प्राप्‍त कर ली है। काव्यांगों के काव्यमय उदाहरण देने में वे कवि इतने सिद्ध हो चुके  हैं कि उनकी लेखनी से उत्कृष्ट उदाहरण श्रेष्ठकाव्य के रूप में स्वतः ढलकर निकलते हैं। काव्यरचना की इस सिद्धहस्तता के क्रम में एक शेर अनायास स्मरण हो रहा है, जिसे उद्धृत करने का मोह नहीं छूट रहा है,

  

उन्हें गाने की आदत है और शौक़े-इबादत भी

मुँह से निकलती हैं दुआएँ भी ठुमरियाँ होकर

 

वस्तुतः, काव्य-रीति में सिद्धहस्त, अर्थात् जिन्होंने रीति में पारंगत होते हुए उस रीति-ज्ञान का पूरा-पूरा उपयोग अपनी काव्यरचनाओं में किया है, कवि ही रीतिसिद्ध कवि के रूप में स्वीकार किए गए।

  1. रीतिकाल और रीतिसिद्ध काव्य

 

रीतिकालीन काव्य के संदर्भ में कवियों के वर्गीकरण पर विचार किया जाए, तो स्पष्ट होता है कि इस समय रीतिबद्ध अर्थात संस्कृत काव्यशास्‍त्र की परंपरा में रचित लक्षणग्रंथों के अनुकरण में काव्यांगविवेचन करनेवाले रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों के रचयिता कवि, रीतिसिद्ध अर्थात लक्षणग्रंथों की रचना नहीं करने पर भी काव्यांगों के उत्कृष्ट उदाहरणस्वरूप काव्यरचना करनेवाले कवि रीतिमुक्त अर्थात उपर्युक्त दोनों से इतर बिना किसी रीति,परंपरा या बंधन के सहज और स्वतंत्र काव्याभिव्यक्ति करनेवाले कवि मिलते हैं। यद्यपि इस वर्गीकरण को लेकर विद्वानों की अनेक सहमतियाँ और असहमतियाँ मौजूद हैं, वह भी उनके अपने पुख्ता प्रमाणों के साथ। उदाहरण के लिए इस दृष्टि से डॉ.नगेंद्र के मत का उल्लेख किया जा सकता है। वे रीतिबद्ध कवियों को रीतिकार या आचार्य कवि कहने के पक्षधर हैं। उनकी दृष्टि में रीतिबद्ध कवि वे हैं,जिन्होंने कोई लक्षणग्रंथ नहीं रचा, बल्कि रीति के नियमों में बँधकर रचनाएँ की हैं, उनकी दृष्टि में रीतिबद्ध कवि वे हैं, जिन्होंने रीति ग्रंथों की रचना न करके काव्य सिद्धांतों या लक्षणों के अनुसार रचना की है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.345 ) कहा जा सकता है कि जिन कवियों को आचार्य विश्‍वनाथप्रसाद मिश्र रीतिसिद्ध  कहते हैं, डॉ. नगेंद्र उन कवियों को रीतिबद्ध  की श्रेणी में रखने का आग्रह करते हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर हिन्दी साहित्य का इतिहास में रीतिबद्ध काव्य प्रकरण के अंतर्गत भगीरथ मिश्र नें ऐसे कवियों को रीतिबद्ध कवियों की श्रेणी में स्वीकार करते हुए डॉ. नगेंद्र के मत का समर्थन किया है। वे इस बात का उल्लेख करते हैं –हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास,षष्ठ भाग में रीतिबद्ध कवियों के प्रसंग में निम्‍नलिखित कवियों को सम्मिलित किया गया है -1-बिहारी 2- बेनी 3- कृष्ण कवि 4- रसनिधि 5- नृपशम्भु 6-नेवाज 7-हठी जी 8-रामसहायदास 9-पजनेय10-द्विजदेव। इन कवियों के अतिरिक्त इस परंपरा में सेनापति, वृंद तथा विक्रमको और सम्मिलित करना चाहिए,  क्योंकि ये कवि भी उसी परंपरा के हैं।(हिन्दी साहित्य का इतिहास,  पृ.345) जाहिर है यहाँ जिन कवियों का उल्लेख किया गया है, वे परंपरागत रूप में रूढ़ हो चुके रीतिबद्ध आचार्य कवियों से अलग कोटि के हैं, जिन्होंने लक्षणग्रंथ नहीं रचे, पर वे काव्य-रीति-नीति से अलग होकर काव्यरचना नहीं कर रहे थे। यहाँ विचारणीय है कि ऐसे कवियों को प्रायः रीतिसिद्ध के रूप में जाना जाता है और अधिकतर इतिहासग्रंथों में रीतिसिद्ध के रूप में ही उन कवियों का विवेचन- विश्‍लेषण प्राप्‍त होता है। यहाँ रीतिबद्ध आचार्य कवियों से इतर लक्षणग्रंथों की रचना किए बिना उदाहरण की दृष्टि से बिल्कुल सटीक बैठनेवाली काव्यरचना के माध्यम से भावाभिव्यक्ति करनेवाले कवियों को रीतिसिद्ध  की श्रेणी में रखते हुए उनके  विवेचन  का प्रयास अपेक्षित है।

  1. रीतिसिद्ध काव्य का स्वरूप

 

काव्यरचना और उसकी प्रकृति के आधार पर देखा जाए, तो रीतिबद्ध कवियों और रीतिसिद्ध कवियों में कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता है। यदि कोई अंतर है, तो यह कि जहाँ रीतिसिद्ध कवि केवल काव्यरचना में लगे रहे, रीतिबद्ध कवि काव्यरचना के साथ अपने आचार्यत्व का भी प्रदर्शन करते हुए लक्षण ग्रंथों की भी रचना करते रहे। लक्षणग्रंथों की रचना करनेवाले आचार्य कवि संस्कृत काव्यशास्‍त्र की परंपरा में शास्त्रोक्त संपादनकार्य के अंतर्गत पांडित्य-प्रदर्शन में अधिक प्रवृत हुए और वे शास्‍त्रसम्मत काव्यांगविवेचन प्रस्तुत करते हुए रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों के प्रणयन में लगे रहे। काव्यरचना में भावों की मार्मिक अभिव्यक्ति की दृष्टि से ऐसे कवियों का काव्यसर्जन बहुत आश्‍वस्तिपरक नहीं कहा जा सकता। दूसरी ओर ऐसे कवियों का भी एक वर्ग था, जो रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों की रचना से अलग रहकर काव्यरचना कर रहा था, पर उनकी रचनाएँ काव्य-रीति के अंतर्गत प्रस्तुत लक्षणों के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। काव्य-रीति को ध्यान में रखकर रीति के आधार पर काव्यरचना करनेवाले ऐसे कवियों को रीतिसिद्ध कविके रूप में स्वीकार किया जाता है। यहाँ इस क्रम में आचार्य विश्‍वनाथप्रसाद मिश्र की टिप्पणी बहुत प्रासंगिक कही जाएगी  –जिन्होंने लश्रणग्रंथ तो नहीं लिखे, पर जिनकी रचना पूर्णतः रीतिबद्ध है। ऐसे कवि वस्तुतः लक्षणों को पद्यबद्ध करने का फालतू बखेड़ा अपने सिर नहीं ओढ़ना चाहते थे, पर रीति की सारी जानकारी का उपयोग अवश्य करना चाहते थे। ये चाहते थे कि लक्षण रूप में प्रस्तुत रचना की अपेक्षा अपनी कृति में अधिक कसावट रखी जाए,उसमें चमत्कार लाने का थोड़ा खुला प्रयत्न किया जाए। बिहारी,रसनिधि आदि इसी प्रकार के कवि थे। इन्होंने बँधान रीति के बल पर ही बाँधा है, उसी में टेढ़ेमेढ़े मार्ग निकाले हैं। फिर भी रीति के भार से इनकी कविता लक्षणग्रंथ-प्रणेताओं की कृति की अपेक्षा कुछ कम दबी है। इन्होंने बंधन ढीला कर लिया है, इसी से इनमें कुछ ऐसी उक्तियाँ भी मिलती हैं, जैसी शुद्ध शास्‍त्र-स्थित संपादन की इच्छा रखनेवालों में कदापि नहीं मिल सकती। (घनआनंद कवित्तःप्रस्तावना-विश्‍वनाथप्रसाद मिश्र, पृ 1-2 )

 

कहा जा सकता है कि रीतिसिद्ध कवि वे कवि हैं, जिन्होंने रीतिबद्धता की पूरी जानकारी होने के बावजूद  रीतिनिरूपण का प्रयास नहीं किया, पर उनका ध्यान रखते हुए वे भावाभिव्यक्तिपरक स्वाभाविक काव्यरचना में प्रवृत हुए। यही कारण है कि रीतिबद्धता का सम्यक् सम्मान करते हुए भी  वे रीतिबद्ध नहीं, वरन् रीतिसिद्ध कवि के रूप में जाने-पहचाने गए।

 

रीतिसिद्ध कवियों की कविताओं में शास्‍त्रीयता का आधार होने के बावजूद उनमें काव्यत्व की दृष्टि से भाव एवं कलात्मकता का सुंदर समन्वय प्राप्‍त होता है,– लक्षणशास्‍त्रबद्ध न होकर भी विभिन्‍न काव्यांगों का परोक्ष विवेचन प्रस्तुत करनेवाला  शास्‍त्र-काव्य, उभय कवि अथवा रीतिसिद्ध कवि होता है। – रीतिसिद्ध  कवियों ने भाव एवं कला दोनों ही पक्षों को बराबर महत्ता प्रदान करते हुए काव्य के संतुलन को बनाए रखने का पूरा प्रयास किया है,–बिहारी, बेनी, कृष्णकवि, रसनिधि, पजनेस,आदि रीतिसिद्ध कवियों की कोटि में आते हैं, जिनके काव्यों में भाव तथा कला, काव्य के इन दोनों पक्षों का संतुलन उपलब्ध होता है। (लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय,  हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.203 )

 

5.रीतिसिद्ध काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

 

रीतिकालीन काव्यरचना के संदर्भ में संस्कृत काव्यशास्‍त्र आधारित परंपरागत  शास्‍त्रीय काव्यरचना करनेवाले कवियों की श्रेणी में रीतिबद्ध एवं रीतिसिद्ध कवियों का जो वर्गीकरण किया जाता है, उनमें मूलतः और तत्वतः कोई सैद्धांतिक भेद नहीं है। बावजूद इसके रीतिबद्ध श्रेणी के कवि जहाँ शास्‍त्रीय ज्ञान आधारित लक्षणग्रंथरचना द्वारा चमत्कारपूर्ण काव्यरचना के माध्यम से पांडित्यप्रदर्शन में लगे रहते थे, रीतिसिद्ध कवि बिना किसी रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथरचना के काव्यरीति पर आधारित स्वाभाविक काव्यरचना में प्रवृत हुए। यही कारण है कि उनके काव्य में काव्यत्व और साहित्यिकता का संतुलन और चारुत्व परिलक्षित होता है। यद्यपि दोनों वर्गों की काव्यगत विशेषताएँ कमोबेश एक सी हैं, पर रचनात्मक स्तर पर काव्यभिव्यक्ति में उनकी कतिपय विशेषताएँ किंचित् अलग रेखांकित की जा सकती हैं। इस दृष्टि से रीतिसिद्ध काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्‍नवत् रखी जा सकती हैं –

 

1. शास्‍त्रीयता

 

शास्‍त्रीयता रीतिकालीन काव्यरचना का प्रमुख आधार है,जिसके कारण रीतिसिद्ध कवियों की काव्यरचना में भी काव्यशास्‍त्रीय परंपरा में रचित लक्षणग्रंथों का प्रभाव और उनकी प्रेरणा परिलक्षित होती है। रीतिसिद्ध कवियों के काव्यमय उदाहरण जिस तरह से शृंगार, नायक-नायिका,नायिकाभेद,अलंकार, रस आदि से संबद्ध हैं,वे बिना शास्‍त्रीयता का आधार अपनाए सर्जित ही नहीं किए जा सकते। रीतिसिद्ध कवि काव्यशास्‍त्र आधारित काव्यांगविवेचन नहीं करते। वे नायक-नायिका, रस, छंद, अलंकार, गुण, दोष के लक्षण नहीं विवेचित करते, बल्कि वे सीधे काव्यांगों के सरस उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जहाँ उनकी कविताई का चरम परिपाक दृष्टिगत होता है। यही कारण है कि रीतिसिद्ध कविता काव्य-रीति के भार से दबकर बोझिल नहीं हुई है। बावजूद इसके ऐसे कवियों का शास्‍त्रज्ञान कम नहीं है, जिसके कारण वे काव्यांगों का विधिवत अध्ययन करके ही काव्यरचना में प्रवृत होते हैं, लिहाजा उनके काव्य के वास्तविक मर्म को पूरी तरह समझने के लिए पाठक को भी  शास्‍त्रीयता की समझ अपेक्षित है। उसके बगैर रीतिसिद्ध कविता का मूल मंतव्य अनावृत नहीं होता। उदाहरण के लिए रीतिसिद्ध कवियों में सर्वप्रमुख बिहारी के अनेक दोहों के अर्थ काव्यशास्‍त्र की अच्छी जानकारी के बिना ठीक से नहीं खुलते, क्योकि उन पर शास्‍त्रीयता का व्यापक प्रभाव है। रीतिसिद्ध कवियों ने काव्यशास्‍त्र, कामशास्‍त्र, नीतिशास्‍त्र, दर्शनशास्‍त्र, ज्योतिषशास्‍त्र,  वैद्यकशास्‍त्र, गणितशास्‍त्र  आदि के कोरे सैद्धांतिक पक्षों को नहीं अपनाया,वरन् उन्होंने व्यावहारिक रूप से अपनी रचनाओं में उपर्युक्त शास्त्रों से संबंधित उदाहरण देकर अपने शास्‍त्रीय परिज्ञान का परिचय दिया है। वस्तुतः शास्‍त्रीयता का आधार ग्रहण करना रीतिसिद्ध कविता की एक सर्वमान्य प्रवृत्ति स्वीकार की जानी चाहिए।

 

2. राज्याश्रयिता

 

कवियों का राजाश्रय में पनाह पाकर, राजसत्ता की रुचि-अभिरुचि का अनुगामी होते हुए काव्यरचना  में प्रवृत होना समूचे रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्ति कही जा सकती है। ठाकुर सो कवि भावत मोहिं, जो राजसभा में बडप्पन पावे,  जैसी गर्वोक्ति से इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि रीतिकालीन कवि के लिए शासन-सत्ता का सहारा कितना बड़ा महत्त्व रखता है। रीतिसिद्ध कवियों के संदर्भ में भी यह बात पूरी तरह लागू होती है। इस वर्ग के सबसे बड़े कवि बिहारी के राजदरबार से जुड़ने की महती आकांक्षा रही होगी, तभी तो जयपुर के राजा जयसिंह के दरबार में पहुँचकर उन्होंने अतिप्रसिद्ध अन्योक्तिपरक दोहा राजमहल में प्रेषित करवाया, जो इस तरह है –“नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।

 

अली  कली  ही सो  बँध्यों,  आगे  कौन  हवाल।।”

 

इस दोहे के लिए बिहारी को बहुत सराहना प्राप्‍त हुई और ऐसे ही लिखते रहने की प्रेरणा भी। राजा को कर्तव्यबोध करवानेवाले इस दोहे की जिस विशेषता और मौलिक उद्भावना  पर विद्वत् समाज झूम-झूम जाता है और वाह-वाह कर उठता है, वह हालरचित गाथासप्‍तशती के  निम्‍नलिखित छंद का कितना सुंदर और ललित काव्यानुवाद है–-

 

“ईषत कोष विकासं यावन्‍नमाप्नोति मालती कलिका।

मकरंदपान लोलुप मधुकर  किं तावदेवमर्दयसि।। ”

 

(मालती कलिका का मकरंद-कोष अभी  अल्पविकषित है। वह जबतक विकास को नहीं प्राप्‍त हो जाता, तब तक क्या मकरंदपानलोलुप मधुकर उसे अभी से मसल डालेगा।)

 

रीतिसिद्ध कवियों को अपनी स्वाभाविक काव्याभिव्यक्ति के लिए राजदरबार का संरक्षण आवश्यक  होता था,जिससे उऩ्हें काव्यरचना का न केवल यथोचित मंच प्राप्‍त होता था, बल्कि मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा के साथ आर्थिक लाभ भी प्राप्‍त होता था। अर्थलाभ की आकांक्षा से सत्ता-संरक्षण प्राप्‍त करनेवाले रीतिसिद्ध कवि राजाश्रय का व्यामोह नहीं छोड़ सकते थे। अतएव राजाश्रयिता रीतसिद्ध काव्य की प्रमुख विशेषता मानी जा सकती है।

 

3. शृंगारिकता

 

काव्यचारुत्व और साहित्यिक उत्कृष्टता की दृष्टि से रीतिकालीन कविता  का सर्वोत्कृष्ट अंश उसके सौंदर्य वर्णनों के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है। रीतिसिद्ध काव्य की कविताई का चरम परिपाक शृंगारिक वर्णनों में परिलक्षित होता है। रीति के मूल में शृंगार है। यही कारण है कि रीतिकाल को शृंगारकाल कहे जाने की सर्वाधिक वकालत की जाती है। रीतिसिद्ध कविता के सुमेरु बिहारी तो अपने शृंगारिक वर्णनो के कारण समूची हिन्दी कविता के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में सम्मिलित किए जाते हैं। रीतिसिद्ध कवियों को रीति-काव्य की वास्तविक सिद्धि शृंगारिक वर्णनों में प्राप्‍त है। उन्हें शृंगार के दोनों पक्षों (संयोग और वियोग) के चमत्कारपूर्ण वर्णन करने में  पर्याप्‍त सफलता मिली है। उनके शृंगार वर्णनों में गृहस्थ जीवन  से संपृक्त शृंगार की समस्त भंगिमाएँ विद्यमान हैं। रीतिसिद्ध कवि  बिहारी के काव्य में संयोग शृंगार के बहुत सहज और स्वाभाविक चित्र भी मिलते हैं, यद्यपि वियोग शृंगार के वर्णन में वे इतने सहज और स्वाभाविक कम प्रतीत होते हैं। उनके शृंगारिक वर्णनों के लिए यह टिप्पणी बहुत प्रासंगिक कही जाएगी,शृंगार के संयोग-पक्ष में वे सिद्धहस्त हैं। आंतरिक भावना से प्रेरित शारीरिक चेष्टाओं तथा विभिन्‍न कार्यकलापों का चित्रण बिहारी इस प्रकार करते हैं कि वह मानसपटल पर सदा के लिए अंकित हो जाता है। उन्होंने केवल भावुकतावश सौंदर्यचित्रण ही नहीं किया,वरन् जीवन के प्रौढ़ अनुभवों का भी उद्घाटन किया है। वे अपने भावों और विचारों को कलात्मक रूप में प्रस्तुत करने की विलक्षण प्रतिभा से संपन्‍न थे।(डॉ.नगेंद्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.349) कहा जा सकता है कि शृंगार के समस्त अंग-उपांगों के सरस वर्णन रीतिसिद्ध कवियों ने बहुत स्वच्छंद और उन्मुक्त भाव से किये हैं। वस्तुतः शृंगारिकता से  हटकर रीतिसिद्ध कविता की कल्पना कदाचित् कठिन है।

 

4. सौंदर्यचित्रण

 

रीतिसिद्ध कवियों की  सौंदर्यपरक पारखी दृष्टि उसका बहुत सूक्ष्म पर्यवेक्षण करती है। शृंगार की मूल भावना से प्रेरित-अनुप्राणित इन कवियों के सौंदर्यचित्रण के केंद्र में नारी है, जिसके रूपसौंदर्य के विविधवर्णी  चित्र  उनके काव्य में बहुत व्यापक रूप में दृष्टिगत होते हैं। नारी के आंतरिक सौंदर्य की ओर इन कवियों की दृष्टि भले ही कम गई हो, पर उसके बाह्यसौंदर्य के चित्रण में रीतिसिद्ध कवियों को महारथ हासिल है। नायिका के नखशिख वर्णन में उसके हावभाव के साथ उसकी स्वाभाविकचेष्टाओं के सौंदर्यचित्र उभारने में बिहारी जैसे रीतिसिद्ध कवि का वर्णनकौशल शिखर पर अवस्थित है।  इस दृष्टि से एक-दो उदाहरण देना अप्रासंगिक नहीं होगा –

 

अंग-अँग छवि की लपट,उपटति जाति अछेह।

खरी पातरीऊ तऊ,  लगै  भरी  सी  देह।।

अथवा

अंग-अंग नग जगमगत,दीपसिखा सी देह।

दिया बढ़ाए हूँ रहे, वढ़ो उज्यारो गेह।।

 

दांपत्यप्रेम की परिधि में आनेवाले सौंदर्य-चित्रण में रीतिसिद्ध  कवियों की दृष्टि नायिका के एक-एक अंग पर पड़ी है, जिसके सौंदर्य को उभारने में उन्होंने अपने काव्यकौशल का चमत्कारपूर्ण परिचय दिया है। सौंदर्यचित्रण की दृष्टि से रीतिसिद्ध कवि भले ही बाह्य सौंदर्य पर अधिक रीझा है,पर  सर्वत्र ऐसा नहीं है। उसमें कहीं-कहीं आभ्यंतर के सौंदर्य को भी परखने की चेष्टा दिखाई देती है। नायिका के आभ्यंतर से झाँकते  हुए एक मर्यादित सौंदर्यचित्र का उदारण द्रष्टव्य है –

 

पिय के ध्यान गही-गही,रही वही ह्वै नारि।

आपु-आपु ही आरसी,  लखि रीझति रिझवारि।।

वस्तुतः, सौंदर्यचित्रण रीतिसिद्ध कविता की एक स्वाभाविक और प्रमुख प्रवृत्ति कही जा सकती है।

 

5. भक्ति और नीति

 

रीतिसिद्ध कवियों में यद्यपि नारी सौंदर्य और शृंगार जैसे विषयों की प्रमुखता है, बावजूद इसके उनमें  भक्ति और नीतिपरक काव्यरचना के प्रति भी आकर्षण कम नहीं दिखाई देता। यही कारण है कि भक्ति और नीतिविषक बहुत सी कविताएँ रीतिसिद्ध कवियों की लेखनी से निकली हैं। हाँ,यह भी सही है कि रीतिसिद्ध कवियों  की भक्तिपरक अधिकतर रचनाएँ,‘ न तु राधिका-कन्हाई के सुमिरन कौ बहानो है ’, वाली तर्ज पर रची गई हैं,जहाँ शृंगार की पीठिका पर भक्ति का तानाबाना बुना गया प्रतीत होता है। रीतिसिद्ध कवियों की भक्तिविषयक रचनाओं में शृंगार समाया हुआ है,जहाँ शृंगारप्रमुख है, भक्ति उसका अनुसंगी  कहा जा सकता है। रीतिसिद्ध कवि बिहारी की काव्यरचना  में भक्ति के अनेक उत्कृष्ट दोहे भी दृष्टिगत होते हैं, जिनमें उनकी भक्तिविषयक भावनाएँ एक भावुक कवि के रूप में व्यक्त हुई हैं। यद्यपि बिहारी का मन शृंगारिक वर्णनों में सर्वाधिक रमा है, पर उन्होंने भक्ति और नीतिपरक दोहों की भी रचना की है, जो उनकी सर्वज्ञता और बहुज्ञता का स्पष्ट निर्देश करते हैं। कहा जा सकता है कि रीतिसिद्ध कवियों नें भक्ति और नीतिविषयक रचनाएँ भी प्रस्तुत की हैं, जो इस वर्ग के कवियों की एक महत्वपूर्ण विशेषता कही जा सकती है।

 

6. प्रकृति का उद्दीपक रूप

 

रीतिकालीनसभी कवियों नें प्रकृति के स्वतंत्र वर्णन में रुचि नहीं दिखाई है,पर  शृंगार के उद्दीपक रूप में प्रकृति के विविध चित्र रीतिकालीन कविता में बहुतायत से दृष्टिगत होते हैं। बहुत दूर तक रीतिसिद्ध कविता की विशेषताओं से परिपूर्ण सेनापति जैसे प्रकृति वर्णनवाले कवि की कविताएँ भी प्रकृतिवर्णनों में शृंगार के उद्दीपक स्वरूप में अधिक प्रकट हुई हैं, स्वतंत्र प्रकृति वर्णन के रूप में नहीं। उसी तरह पद्माकर की रचनाओं में भी प्रकृति का वही रूप व्यक्त हुआ है, जहाँ वह नायक-नायिका के आपसी प्रेमालाप में सहायक होकर उद्दीपक की भूमिका में  है। रीतिसिद्ध कवि बिहारी की रचनाओं में भी प्रकृति अपने उद्दीपक रूप में विद्यमान है। हालाँकि कहीं कहीं प्रकृति का बहुत मोहक और मादक रूप बिहारी की रचनाओं में दृगत् होता है, जो बहुत प्रभावित करता है, पर वह भी है शृंगार का उद्दीपक रूप। एक उदाहरण देना अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता, जहाँ बसंत ऋतु में मदमाते मंद पवन के प्रवाहित होने का अप्रतिम चित्र अंकित है –

 

रनित भृंग घंटावली,  झरत दान मधु नीर।

मंद-मंद आवत चल्यो, कुंजर-कुंज समीर।।

 

अपने अद्भुत शब्द-संयोजन,अपने अनुपमेय नाद-सौंदर्य,अपने स्वाभाविक रूपक,अपने कलात्मक अभिव्यक्ति और काव्यात्मक उत्कर्ष में उक्त रचना का काव्य वैशिष्ट्य कालिदास के मेघदूत में  प्रस्फुटित ‘मन्दं-मन्दं नुदति पवनश्चानुकूलो यथात्वाम्’ का अनायास स्मरण करवा देता है। रीतिसिद्ध कविता में प्रकृति के ऐसे विविध चित्र उपलब्ध हो जाएँगे, पर वे शृंगार से पृथक अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखते। बावजूद इसके रीतिसिद्ध कवियों के प्रकृतिचित्रों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

 

7. मुक्तककाव्य-प्रणयन

 

रीतिसिद्ध कवियों की अधिकतर काव्याभिव्यक्ति मुक्तकों के माध्यम से हुई है। मुक्तक काव्यरचना इन कवियों के लिए अनुकूल कही जा सकती है। अपेक्षाकृत लघु आकार के छंदों के माध्यम से भावों की सघन अभिव्यक्ति जितनी मुक्तकों के माध्यम से हो सकती है, उतनी कदाचित् अन्य माध्यमों से नहीं। जिस तरह की शृंगारिक एवं शृंगारेतर अभिव्यक्ति रीतिसिद्ध कवियों ने की है, उसके लिए दोहा, सोरठा,सवैया,कवित्त आदि अपेक्षाकृत छोटे छंद अधिक उपयुक्त कहे जा सकते हैं। रीतिसिद्ध कवियों नें प्रायः इन्हीं छंदो (विशेषकर दोहा-सोरठा छंद) को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। इसका कारण संभवतः यह भी है कि छोटे छंदों के माध्यम से काव्य की कलात्मक प्रस्तुति बहुत प्रभावी ढंग से की जा सकती है। मुक्तक का कलेवर लघु और आधार सीमित होने के कारण उसकी प्रभावोत्पादक क्षमता बहुत बढ़ जाती है। भावाभिव्यक्ति के इस सीमित कलेवरवाले माध्यम से भावों की कलात्मक प्रस्तुति करते हुए इसी सीमित भावभूमि पर जीवन के विविध रंगों को उड़ेल देना कविकौशल की सफल परिणिति कही जा सकती है। कह सकते हैं कि सफल मुक्तक काव्यरचना कवि के कलात्मक काव्यकौशल की चरम उपलब्धि है। अपनी बात को बहुत प्रभावशाली बनाने के लिए रीतिसिद्ध कवियों नें मुक्तक काव्यरचना में विशेष रुचि ली है। इसके माध्यम से वे अपने आश्रयदाताओं के समक्ष अपनी भावनाओं को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करने में सफल हो जाते थे। मुक्तककाव्य के संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की टिप्पणी बहुत प्रासंगिक है –“उसमें उत्तरोत्तर अनेक दृश्यों द्वारा संघटित पूर्ण जीवन या उसके किसी एक पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि कोई एक रमणीय खंडदृश्य इस प्रकार सहसा सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिए मंत्रमुग्ध हो जाता है ”(हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.229) रीतिकाल के सर्वप्रमुख कवि बिहारी ने अपनी संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए मुक्तक काव्य का ही आश्रय ग्रहण किया है। वस्तुतः मुक्तक काव्यप्रणयन रीतिसिद्ध कवियों की एक प्रमुख प्रवृत्ति कही जा सकती है।

 

8. जीवनदर्शन

 

रीतिकालीन काव्य का मूल आधार यद्यपि शृंगारपरक रचनाओं की व्यापक अभिव्यक्ति है,  पर शृंगार से इतर भक्ति,नीति,दर्शन आदि से संबंधित विविध विषयों की काव्याभिव्यक्ति भी इस समय दृष्टिगत होती है। इस इतर अभिव्यक्ति में सर्वाधिक रुचि रीतिसिद्ध कवियों की दिखाई देती है। रीतिसिद्ध कवि बिहारी इस दृष्टि से सर्वाधिक उल्लेखनीय कवि कहे जा सकते हैं। बिहारी ने भक्ति और नीति के अतिरिक्त कतिपय ऐसी काव्याभिव्यक्तियाँ भी की हैं, जो उनके दार्शनिक अभिज्ञान का संकेतक  हैं और जिनमें उनके जीवनदर्शन की स्पष्ट झलक दिखाई देती  है। कहा जाता है –“जब कविता में भावना के साथ दर्शन का मेल होता है, तब एक बड़ा कवि होता है।” (“When passion and Philosophy meet in a single individual we have a great poet.” ) ब्राउनिंग का उक्त कथन हिन्दी के अऩेक कवियों पर लागू किया जा सकता है। रीतिकाल के जिन कतिपय रीतिसिद्ध कवियों पर यह बात लागू की जा सकती है, उनमें बिहारी का नाम सर्वोपरि रखा  जा सकता है। उन्होंने कविता में यह मेल बहुत खूबसूरती के साथ दिखाया है।

 

बिहारी के काव्य में जीवन-जगत् को अभिव्यक्त करती हुई बहुत सी ऐसी पंक्तियाँ मिल जाएँगी, जो उनके जीवनदर्शन की स्वाभाविक प्रस्तुति कही जा सकती हैं। जगत् की निस्सारता और क्षणभंगुरता के बीच ईश्‍वर की असीमता और सर्वव्यापकता का स्वाभाविक चित्र खींचते हुए बिहारी ने कहा है –

 

हौं समुझ्यौ निरधार, यह जग काँचो काँचु सौ।

एकै रूप अपार,  प्रतिबिंबित लखियत जहाँ।।

 

गहन दार्शनिकता से संपन्‍न उक्त सोरठे में जीवनदर्शन की बहुत स्वाभाविक और गंभीर अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है, जिसे पढ़कर ‘सर्व खल्व इदं ब्रह्म। ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या ’,  जैसी  शांकरभाष्य  की दार्शनिक पंक्तियाँ स्मरण तो होती ही हैं,  ईशवर की सर्वव्यापकता विषयक कबीर और नानक की पंक्तियाँ भी सहज ही  याद आ जाती हैं। ईश्‍वर सर्वव्यापी है,  इसका भाव उर्दू के प्रसिद्ध शायर मीर अनीस लखनवी  की निम्‍नलिखित पंक्तियों में भी बहुत खूबसूरती के साथ व्यक्त हुआ है–

 

“गुलशन में सबा को जूस्तजू तेरी है

बुलबुल की ज़ुबाँ पर गुफ़्तगू तेरी है

हर रंग में जलवा है तेरी कुदरत का

जिस फूल को सूँघता हूँ बू तेरी है ”

 

रीतिसिद्ध कवियों के काव्य में ऐसी अनेक पंक्तियाँ मिल जाएँगी, जिनमें जीवनदर्शन की सहज अभिव्यक्ति दिखाई देती है, जो इस काव्य की एक अलग विशेषता कही जा सकती है।

 

9. अलंकारप्रियता

 

अलंकार रीतिकालीन कविता की एक ऐसी प्रमुख प्रवृत्ति कही जानी चाहिए, जिसके बिना काव्यसर्जन की कल्पना की ही नहीं जा सकती। अलंकारों की बहुलता के कारण कतिपय विद्वान् इस काल का नामकरण ही अलंकार के नाम पर किए जाने के आग्रही रहे हैं, जिनमें मिश्रबंधुओं का नाम सर्वोपरि है। क्या रीतिबद्ध,क्या रीतिसिद्ध सभी ने अलंकारों की महत्ता को स्वीकार किया है। रीतिसिद्ध कविता (विशेष कर बिहारी की कविता) काव्यकला की कसौटी पर कसी हुई कलात्मक प्रस्तुति है। अभिव्यक्ति की कसी हुई कलात्मक प्रस्तुति बिहारी की कविता में अपने उत्कृष्ट और सर्वोच्‍च रूप में दृष्टिगत होती है। इसी कलात्मकता के कारण उन्हें रीतिकाल का सर्वोपरि कवि स्वीकार किया जाता है। बिहारी काव्य में अलंकार प्रयोग के लिए सिद्धहस्त माने जाते हैं। उनकी  कविता में बाह्य चमत्कार का जो उल्लेख बार बार किया जाता है, वह उनकी अलंकारप्रियता के कारण ही है। कविताकलेवर में कलात्मक साजसज्जा अलंकार के बगैर संभव नहीं। जिन लोगों ने बिहारी के काव्य में स्वाभाविकता और गहराई की कमी का उल्लेख किया है, वे भी अलंकार-प्रयोग में बिहारी का कोई सानी नहीं मानते। अलंकार ने बिहारी को रीतिकाल का सर्वोत्तम कलाकार बना दिया है, जिसके लिए ग्रियर्सन जैसा आलोचक उनकी बहुत प्रशंसा करता है। अलंकार के कौशलपूर्ण प्रयोग ने बिहारी की कविता को कलात्मक अभिव्यक्ति के चरमशिखर पर प्रतिष्ठापित कर दिया है, जिसकी प्रशंसा सभी आलोचकों ने की है। भगीरथ मिश्र ने तो यहाँ तक कहा है – “हिन्दी के कलाप्रधान कवियों में बिहारी सर्वश्रेष्ठ हैं। ”कहा जा सकता है कि अलंकार रीतिसिद्ध कविता का प्राणतत्व है, जिसके बिना उसमें वह सजीवता कदाचित नहीं रह जाएगी,जिसके लिए वह जानी जाती है। वस्तुतः अलंकारों के प्रयोग में रीतिसिद्ध काव्य रीतिकाल की उपलब्धि मानी जा सकती है।

 

10. ब्रजभाषा का ललित प्रयोग

 

रीतिसिद्ध कवियों ने ब्रजभाषा को सरस, मधुर एवं ललित प्रयोग किया है। काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा की जैसी उन्‍नति रीतिकाल में हुई है, वैसी अन्य किसी काल में नहीं। दूसरे शब्दों में यह कहना चाहिए कि रीतिकालीन शृंगारिक भावाभिव्यक्ति के लिए ब्रजभाषा की कोमल प्रवृत्ति बहुत उपयुक्त और स्वाभाविक मानी गई। इस दृष्टि से ब्रजभाषा का सर्वोत्तम ललित प्रयोग रीतिकाल में ही हुआ है। सही अर्थों में यह ब्रजभाषा की चरम उन्‍नति का काल कहा जाना चाहिए। रीतिसिद्ध कवियों ने ब्रजभाषा का जैसा कलात्मक रूप प्रस्तुत किया है, वह उनकी काव्यरचना की बहुत सहज और स्वाभाविक प्रवृत्ति कही जा सकती है। ब्रजभाषा का सर्वाधिक कलात्मक और मनमोहक रूप रीतिसिद्ध कवि बिहारी की कविता में अपने बहुत उत्कृष्ट रूप में दृष्टिगत होता है। यद्यपि ब्रजभाषा के अनेक शब्दों के तोड़मरोड़ का आरोप भी बिहारी पर लगाया जाता है, बावजूद इसके भाषा का मुग्धकारी और विस्मयकारी चमत्कारिक प्रयोग बिहारी ने ही किया है। ब्रजभाषा की सफल व्यंजना की दृष्टि से रीतिसिद्ध काव्य बहुत प्रभावित करता है,  जिसे इस काव्य की प्रमुख विशेषता कहनी चाहिए।

  1. प्रमुख रीतिसिद्ध कवि एवं उनकी रचनाएँ

 

रीतिकालीन काव्यरचना – परिवेश में रीतिसिद्ध कवियों का उल्लेख करते हुए कनिष्ठिकाधिष्ठित्  की तर्ज पर प्रमुखतया केवल बिहारी का नाम आता है। संस्कृत की उक्ति की तरह  प्राचीन कवियों के  गणना-प्रसंग  में जिस तरह कालिदास के स्तर का कवि नहीं होने से उनकी तुलना में अन्य किसी कवि का नाम नहीं आता, उसी तरह रीतिसिद्ध कवियों के क्रम में बिहारी से गणना आरंभ होती है और उन्हीं पर समाप्‍त भी होती है।

 

यद्यपि कतिपय अन्य कवियों का उल्लेख भी कुछ आलोचकों ने इस दृष्टि से किया है, पर जैसे संतकाव्य निर्गुण काव्यधारा का नाम आते ही केवल कबीर का नाम उभरता है, कृष्णकाव्य का नाम आते ही केवल सूरदास का स्मरण होता है, रामकाव्य का नाम आते ही केवल तुलसी ही याद आते हैं (हालाँकि इन काव्यधाराओं में अन्य कवि भी विद्यमान हैं ), उसी तरह रीतिसिद्ध कवि कहते ही केवल बिहारी का नाम ध्यान में अटक जाता है। ऐसा लगता है कि बिहारी के वैशिष्टय को प्रतिपादित करने के लिए उनकी एक अलग श्रेणी बनानी पड़ी हो और वे उस श्रेणी को आच्छादित करनेवाले अकेले कवि हैं। एम.ए. स्तरीय कक्षाओं में विद्यार्थियों से रीतिसिद्ध कवियों के नाम बताने के लिए कहने पर बिहारी के अतिरिक्त शायद ही किसी कवि का नाम विद्यार्थी बता पाने में सक्षम होते हों। बावजूद इसके रीतिसिद्ध कवियों के वर्ग में कुछ अन्य कवियों का उल्लेख अनपेक्षित नहीं कहा जा सकता, पर उन कवियों की लघु नक्षत्र-माला  में बिहारी अकेले  सुमेरु की तरह सर्वोपरि स्थान पर समादृत हैं। यहाँ बिहारी समेत उन  सभी कवियों का सामान्य उल्लेख अपेक्षित है।

 

रीतिसिद्ध कवियों की श्रेणी में परिगणित किए जानेवाले कवियों में निम्‍नलिखित कवियों के नाम सम्मिलित किए जा सकते हैं –

  • बिहारी(सन् 1595-1663,ग्वालियर,मध्य प्रदेश ), प्रमुख रचना बिहारी सतसई (713 दोहों का अनुपम संकलन जो  हिन्दी में लोकप्रियता में रामचरित मानस के बाद अन्यतम कृति है और टीका लिखेजाने की दृष्टि से सर्वोपरि रचना के रूप में समादृत। )
  • पृथ्वीसिंह रसनिधि’(रचनाकाल1603-1660,दतिया, मध्य प्रदेश ),प्रमुख रचना रतनहजारा। इसके अतिरिक्त विष्णुपद कीर्तन, कवित्त, बारहमासा, रसनिधि सागर, हिंडोला, अरिल्ल आदि अन्य रचाएँ हैं।
  • नृपशंभु (सन् 1657–,पुरंदर), प्रमुख रचनाओं में नायिका-भेद, नखशिख, सात शतक
  • कृष्णकवि (अनुमानित समय सन् 1720), प्रमुख रचनाएँ बिहारी सतसई की टीका, विदुर प्रजागर
  • नेवाज (अनुमानित समय 1780 के आसपास ), प्रमुख रचना शकुंतला नाटक (काव्यकृति)
  • हठी जी (अनुमानित समय 1780 के आसपास), प्रमुख रचना श्रीराधासुधा शतक।
  • बेनी वाजपेयी (अनुमानित समय सन्1823 –असनी), किसी अधिकृत रचना की उपलब्धता नहीं। प्रकीर्ण और फुटकल रचनाओं के माध्यम से काव्यरचना का प्रस्तुतीकरण।
  • रामसहायदास (भगत उपनाम,रचनाकाल समय सन् 1803-1823, चौबेपुर, वाराणसी,उत्तरप्रदेश ), प्रमुख रचनाएँ रामसतसई (, वाणीभूषण, वृत्ततरंगिणी, ककहरा
  • पजनेस (समय 1815 के आसपास,पन्‍ना,मध्यप्रदेश), प्रमुख रचनाएँ नखशिख, मधुरप्रिया
  • द्विजदेव (महाराजा मानसिंह, अयोध्या (उत्तरप्रदेश), प्रमुख रचनाएँ शृंगारबत्तीसी, शृंगारलतिका
  • इनके अतिरिक्तकतिपय विद्वान् कुछ समान विशेषताओं के आधार पर सेनापति (कवित्त रत्नाकर, काव्यकल्पद्रुम) और वृंद (बारहमासा, भावपंचाशिका, नयनपचीसी, पवन पचीसी,शृंगार शिक्षा,यमक सतसई) विक्रमादित्य(राज्यकाल,1782 से 1829,चरखोरी,बुंदेलखंड), प्रमुख रचनाएँ  विक्रम सतसई (बिहारी सतसई की तर्ज पर),ब्रजलीला, श्रीमदभागवतगीता (दशम स्कंध का अनुवाद) को भी रससिद्ध कवियों की श्रेणी में परिगणित करते हैं, जिनमें भगीरथ मिश्र का नाम सर्वप्रमुख है। 
  1. निष्कर्ष

 

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि रीतिसिद्ध काव्य रीतिकालीन कविता के अंतर्गत उस काव्य का प्रतिनिधित्व करता है,  जो  चमत्कारिक काव्याभिव्यक्ति के माध्यम से  काव्यत्व और कला का उत्कृष्ट रूप प्रस्तुत करता है। हालाँकि रीतिसिद्ध और रीतिबद्ध काव्य की मूल प्रवृत्तियों में कोई विशेष अंतर रेखांकित नहीं किया जाता है,  फिर भी रीतिसिद्ध काव्य काव्यचारुत्व और भावों की कलात्मक अभिव्यक्ति की दृष्टि से किंचित् अलग भावभूमि पर प्रतिष्ठित दिखाई देता है, जहाँ काव्य का बाह्य कलेवर तो चमत्कृत करता ही है, काव्य में भाव और कलापक्ष के संतुलन की दृष्टि से भी उसका स्वरूप रीतिबद्ध काव्य से पृथक् कहा जा सकता है। रीतिसिद्ध कविता में काव्यत्व के अनुरक्षण और साहित्यिकता के संरक्षण की दृष्टि से भी उसे एक अलग भावभूमि पर रखा जा सकता है। लक्षणों में न उलझकर मात्र उदाहरणों की उत्कृष्ट प्रस्तुति के कारण रीतिसिद्ध कवि भाव और कला के समन्वय की दृष्टि से रीतिकालीन कवियों में अलग मूल्यांकन की अपेक्षा रखते हैं। निःसंदेह कलात्मक अभिव्यक्ति की दृष्टि से रीतिसिद्ध काव्य हमें न केवल आकृष्ट और प्रभावित  करता है, वरन प्रायः वाह-वाह कहने के लिए बाध्य भी करता है। यह रीतिसिद्ध काव्य की सर्वोपरि उपलब्धि कही जा सकती है।