10 रीतिकालीन काव्य के प्रेरणा-स्रोत
प्रो. शम्भुनाथ तिवारी तिवारी
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- रीतिकाल का सामान्य परिचय प्राप्त करने के साथ उसके आशय से परिचित हो सकेंगे।
- रीतिकालीन काव्य के सर्जनात्मक स्वरूप से पूरी तरह अभिज्ञ हो सकेंगे।
- रीतिकालीन काव्य को प्रेरित करनेवाले तत्वों के रूप में उसके प्रेरणास्रोत एवं उत्स से भलीभाँति परिचित हो सकेंगे।
- रीतिकालीन काव्य के प्रेरणास्रोत के रूप में पूर्व रचनात्मक परिवेश को विस्तार से जान सकेंगे।
- रीतिकालीनकाव्य को प्रेरित करने की दृष्टि से पूर्ववर्ती अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी साहित्य के रचनात्मक स्वरूप से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
हिन्दी साहित्य के इतिहास का प्रामाणिक कालविभाजन प्रस्तुत करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के जिस परवर्ती कालखंड को ऐतिहासिक विकासक्रम के आधार पर उत्तरमध्यकाल और प्रवृत्ति के आधार पर रीतिकाल के रूप में रेखांकित किया, उसमें व्यापक रूप से काव्यरचना की मूल प्रवृत्ति शृंगार एवं काव्यांग विवेचन के क्रम में लक्षणग्रंथों या रीतिग्रंथों के निरूपण की रही है,जिसके परिणाम स्वरूप शृंगारपरक रचनाओं एवं काव्यशास्त्रीय रीतिग्रंथों की बहुलता इस काल में दृष्टिगत होती है। हालाँकि, शृंगारपरक रचनाओं और रीतिग्रंथ-निरूपण के अतिरिक्त इस काल में वीर, भक्ति, नीति आदि विषयक रचनाएँ भी परिमाण एवं गुणवत्ता की दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं, पर शृंगार की प्रमुख प्रवृत्ति के सामने वह सर्जन गौण है।
रीतिकाल के परिवेश में काव्यांग विवेचन करनेवाले रीतिग्रंथ-निरूपण एवं नायिका-भेदी शृंगारपरक रचनाओं की प्रमुखता के कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उक्त कालखंड को रीतिकाल कहा,यद्यपि शृंगार की व्यापक प्रवृत्ति को ध्यान में रख कर उसे शृंगारकाल कहे जाने का संकेत भी उन्होंने कर दिया था, जिसे बाद में विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने स्थापित कर उसे प्रचारित-प्रसारित किया। रीतिकाल-प्रकरण के आरंभ में आचार्य शुक्ल ने लिखा है -“इस काल में वीर और शृंगार की ही प्रवृत्तियाँ प्रमुख रूप से पाई जाती हैं। अतः सुविधा की दृष्टि से कोई इसे शृंगारकाल कहना चाहे तो कह सकता है।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.185)
रीति और शृंगार की जिस प्रवृत्ति को प्रमुखता देते हुए शुक्ल जी ने उक्त काल को रीतिकाल के रूप में रेखांकित किया है, उसकी काव्यरचना के प्रेरणास्रोत संस्कृत काव्यशास्त्र के अलंकार, ध्वनि और रस संप्रदाय प्रमुख रूप से रहे हैं। उपर्युक्त दो प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर रीतिकाल का मूल स्वरूप निर्मित होता है। हालाँकि इस आधार पर शुक्ल जी द्वारा किया गया रीतिकाल नामकरण इस काल की प्रवृत्तिगत एवं रचनागत विविधता के कारण आलोचकों में सदैव चर्चा और विवाद का बिंदु बना रहा, लेकिन वह इतना प्रभावसंपन्न, कलात्मक और काव्यात्मक है कि उसे स्वीकार करने के लिए हमें विवश होना पड़ता है।
रीतिकाल में रचित साहित्य अपने काल के युगीन परिवेश की आवश्यकता के अनुरूप तत्कालीन परिस्थितियों की स्वाभाविक परिणति है, जिस पर दरबारी संस्कृति और सामंती प्रभाव पूरी तरह से परिलक्षित होता है। आश्रयदाताओं की व्यापक कलाप्रियता और अतिविलासी अभिरुचि के प्रभाव में रीतिकालीन काव्य का स्वरूप शृंगारी और कलात्मक है, जिसका शिल्पविधान कलात्मकता के शिखर पर है, इस क्रम में रीतिकालीन काव्य, काव्यत्व के अनुरक्षण की दृष्टि से अद्वितीय और अनुपम है, “अपने सीमित क्षेत्र में यह कविता बहुत ही प्रभावशालिनी है,इसमें कोई संदेह नहीं।” (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य :उद्भव और विकास, पृ.63)
रीतिकालीन काव्यरचना में जहाँ एक ओर लक्षणग्रंथों के माध्यम से प्रस्तुत किए जाने वाले लक्षण और उदाहरण विद्यमान हैं, वहीं दूसरी ओर नायक-नायिका-भेद विषयक शृंगारी काव्यरचनाओं का बाहुल्य है। इसके साथ ही गार्हस्थिक जीवन में दाम्पत्य-प्रेम की यथार्थपरक अंतरंग अनुभूतियों के मोहक शृंगार-चित्रण, आपसी संबंधों की प्रगाढ़ता की अभिव्यक्ति करनेवाले सजीव शृंगारिक वर्णन इसकाल में काव्यरचना के प्रिय विषय कहे जा सकते हैं। इसी तरह राधा-कृष्ण-भक्तिविषयक संस्कृत-हिन्दी की गीतिकाव्य परंपरा से अनुप्राणित शृंगारिक रचनाएँ तथा रति एवं कामक्रीडा विषयक अतिविलासपूर्ण घोर शृंगारपरक रचनाओं का भी सर्जन इस काल में किया जा रहा था।
रीतिकाल के शृंगारी परिवेश में प्रस्तुत की जाने वाली काव्यरचनाओं के उत्स और प्रेरणास्रोत न केवल पूर्ववर्ती प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत और हिन्दी रचनाओं में विद्यमान हैं, वरन् उनका पूरा-पूरा प्रभाव उन पर दृष्टिगत होता है। सामंती और दरबारी परिवेश में फलने-फूलनेवाली रीतिकालीन कविता पर फ़ारसी-उर्दू कविता के प्रभाव से भी इनकार नहीं किया जा सकता,क्योंकि भारतीय समाज में फ़ारसी-उर्दू की शृंगारपरक काव्यरचनाओं का परिवेश और उनकी परिस्थितियाँ कमोबेश एक जैसी हैं। रीतिकालीन काव्य को इतना सरस, रसमय और कलात्मक रूप देने में पूर्ववर्ती एवं समकालीन प्रेरक सांगीतिक परिवेश को भी इस दृष्टि से नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, “हिन्दी रीतिकाव्य के विकास में कई चिंतन और कला धाराओं का योगदान देखा जा सकता है। संस्कृत का काव्यशास्त्र, प्राकृत-अपभ्रंश की शृंगारी और मुक्तक-परंपरा, मध्यकालीन हिन्दी कृष्णभक्ति काव्य तथा दरबारों में विकसित शास्त्रीय संगीत – इन सबका रचनात्मक संपर्क रीतिकाव्य में हुआ।” (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ.62) वस्तुत: रीतिकालीन काव्यरचना के प्रेरणास्रोत के रूप में पूर्ववर्ती विविध साहित्यसर्जन के व्यापक और विशिष्ट योगदान का विवेचन-विश्लेषण एवं आकलन अपेक्षित है,जिससे रीतिकालीन काव्य के प्रेरणास्रोत पर सम्यक् रूप से विचार किया जा सके।
- रीतिकालीन काव्य के प्रेरणास्रोत
रीतिकालीन कविता सर्वत्र शास्त्रीयता का आधार ग्रहण करनेवाली शास्त्रीय कविता (classical poetry) है, क्योंकि रीतिकाल के आचार्य कवियों नें रीतिनिरूपण करते हुए जिन लक्षणग्रंथों की रचना की है, उनका आधार संस्कृत काव्यशास्त्र की विवेचना करनेवाले कतिपय प्रमुख लक्षणग्रंथ रहे हैं। दूसरी ओर लक्षणग्रंथों से इतर इस काल में जो शृंगारिक काव्यरचनाएँ प्रस्तुत की गई हैं,उनका आधार भी क्लासिक परंपरा में रचित पूर्ववर्ती साहित्य है। शास्त्रीयता की भावभूमि पर अवस्थित होने के कारण रीतिकालीन कविता काव्यशास्त्र के सम्यक् अवगाहन के बिना कम ग्राह्य हो पाती है, क्योंकि उसकी प्रेरणा का स्रोत वह काव्यशास्त्र ही है, जहाँ से उसे भरपूर पोषण प्राप्त होता है। वस्तुत:, अपने संपूर्ण शृंगारी स्वरूप में रीतिकाल की काव्यरचना अपनी पूर्ववर्ती काव्यपरंपराओं का अनुसरण करती है, जिसके लिए वह प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी की विविध रचनाओं की ऋणी है, जिन्हें रीतिकालीन काव्य के प्रेरणास्रोत के रूप में रेखांकित किया जा सकता है, क्योंकि काव्यसर्जन की कोई भी धारा सहसा यकायक प्रवाहित नहीं हो सकती। उसके स्रोत कहीं न कहीं पूर्ववर्ती काव्यधारा में विद्यमान रहते हैं। रीतिकालीन कविता काव्यचारुत्व और शिल्प-विधान की कलात्मकता की दृष्टि से नवीनता और मौलिकता का सम्यक् सम्मान करती है, पर कथ्य, वर्ण्यविषय एवं विषयवस्तु की दृष्टि से वह पूर्व काव्यपरंपराओं की अनुगामिनी है। उसमें विशेष नूतनता और मौलिकता दृष्टिगत नहीं होती,जिसके कारण वह किसी नवीन काव्यधारा का उन्मेष नहीं करती, “प्रस्तुत काव्यपरंपरा हिन्दी की सर्वथा नूतन परंपरा नहीं है,अपितु इसका संबंध संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी की अनेक पूर्ववर्ती एवं समकालीन काव्यपरंपराओं से है, जिनका मिश्रित एवं सम्मिलित रूप इसमें दृष्टिगोचर होता है।” (गणपतिचंद्र गुप्त, हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, पृ. 438)
काव्यशास्त्रीय आधार पर रीतिनिरूपण करनेवाले लक्षणग्रंथों के माध्यम से आचार्य कवियों नें काव्यांगों के काव्यमय प्रस्तुतीकरण में अपनी काव्यप्रतिभा का प्रदर्शन किया है। रीतिकाल कहते ही उसके ‘रीति’ से ‘रूढ़ि योगात् बलीयसी’ के कारण हमारा ध्यान भारतीय काव्यशास्त्र के ‘रीति संप्रदाय’ की ओर अनायास ही चला जाता है, जबकि संस्कृत काव्यशास्त्र के ‘रीति संप्रदाय’ से ‘रीतिकाल ’ का संबंध तनिक भी नहीं जुड़ता। यदि ‘रीति’ का अर्थ कविता करने की रीति बतलानेवाले ग्रंथों से जोड़ा जाए, जैसा कि आजकल सामान्य तौर पर ‘रीति’ का अर्थ यही लिया जाने लगा है, “हिन्दी साहित्य में रीति शब्द का अर्थ काव्य-रचनापद्धति अथवा काव्यरचना-निर्देशक शास्त्र समझा जाता है।” (मोहन अवस्थी, हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास, पृ.156) इस दृष्टि से भी रीतिकाल के अधिकांश लक्षणग्रंथ नहीं प्रस्तुत किए गए हैं, “स्पष्ट है कि ‘रीति’ शब्द का ‘रीति संप्रदाय’ से कोई संबंध नहीं है।इसका संबंध उन परवर्ती अलंकार ग्रंथों से है, जिनमें रसालंकारों के लक्षण-उदाहरण आचार्यों द्वारा स्वयं बनाए गए हैं।” (बच्चन सिंह, हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृ.180)
‘वक्रोक्ति’ और ‘औचित्य’ संप्रदायों से भी हिन्दी के ‘रीतिकाल’ का संबंध नहीं के बराबर जुड़ता है। उसका संबंध संस्कृत के काव्यशास्त्रीय संप्रदायों में अलंकार, रस और ध्वनि संप्रदायों से सर्वाधिक है। ‘रीति’ का संबंध काव्यांगों (मुख्यत: रस, छंद, अलंकार) के लक्षण और उदाहरण सहित निरूपण करनेवाले लक्षणग्रंथों से है। काव्यांग विवेचन में परंपरागत काव्यशास्त्रीय नियमों का अनुसरण करने के कारण इस काल के कवियों को परंपरा, यानी रीति (रीति का अर्थ परंपरा या रवायत भी होता है) का निर्वाह करनेवाले कवि भी कहा जा सकता है। अलंकार, ध्वनि और रस जैसे काव्यशास्त्रीय संप्रदाय रीतिकालीन रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों की व्यापक आधारभूमि निर्मित करते हैं, “हिन्दी में रीति शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र या लक्षणग्रंथों के अर्थ में होता है, यद्यपि संस्कृत में उसका काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों के रूप में प्रयोग हुआ है। हिन्दी रीति-साहित्य अधिकांशत: संस्कृत काव्यशास्त्र पर आधारित है।” (लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 201)।
नायक-नायिका के भेदों-उपभेदों का व्यापक वर्णन करनेवाले काव्यशास्त्रीय ग्रंथ रीतिकाल के शृंगारी परिवेश को वहुत विस्तार देते हैं, जिन्हें रसशास्त्रीय ग्रंथ कहा जाता है। ऐसे ग्रंथों के प्रेरणास्रोत संस्कृत और हिन्दी में रचित रसशास्त्र के वे ग्रंथ हैं, जो संस्कृत काव्यशास्त्र के रस संप्रदाय के प्रभाव और उसकी प्रेरणा से प्रस्तुत किए गए हैं। वस्तुत:, संस्कृत के कतिपय प्रमुख काव्यशास्त्रीय संप्रदायों (विशेषतया अलंकार और रस संप्रदाय) के अंतर्गत रचित प्रमुख काव्यशास्त्रीय ग्रंथों को रीतिकालीन लक्षणग्रंथों की रचना के लिए प्रमुख प्रेरणास्रोत कहा जा सकता है।
रीतिकाल में रचित ऐसी अधिकांश शृंगारपरक मुक्तक रचनाएँ, जो गार्हस्थिक जीवन में रचेबसे प्रेम की पीठिका पर आधृत हैं, रीतिकाल के शृंगारी परिवेश को रसमय बनाती हैं और काव्यरचना को बहुत विस्तार देती हैं। ऐसी रचनाओं के प्रेरणास्रोत प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी की एतदविषयक रचनाएँ कही जा सकती हैं। इसकाल में रचित शृंगारी और प्रेमपरक बहुत-सी गीतात्मक रचनाओं के प्रेरणास्रोत संस्कृत और हिन्दी के गीतिकाव्य में दृष्टिगत होते हैं,जिसकी बहुत सुदृढ़ परंपरा पूर्व में विद्यमान रही है। रीतिकाल में रचित वीर, नीति और भक्तिविषयक रचनाओं के प्रेरणास्रोत कहीं-न-कहीं पूर्व में रचित वीर, भक्ति और नीतिविषयक रचनाओं को स्वीकार किया जा सकता है।रीतिकाल के आरंभ में केशवदास पहले ऐसे आचार्य कवि हैं, जिन्होंने काव्यशास्त्र के आधार पर लक्षणग्रंथों की रचना कर हिन्दी में रीतिनिरूपण की पद्धति का आरंभ किया।
1. रीतिकालीन काव्यरचना की काव्यशास्त्रीय एवं रचनात्मक प्रेरक पृष्ठभूमि
रीतिकाल में रचा जानेवाला साहित्य तत्कालीन परिस्थितियों में जिस तरह अपना स्वरूप और आकार निर्मित कर रहा था,मुगलकाल के पतोन्मुख विलासितावाले युग-परिवेश के अनुरूप यह बहुत स्वाभाविक था। इसकाल का पूरा साहित्य सामंती वातावरण के अंतर्गत राजदरबारों के क्रोड़ में फलफूल रहा था, जिसके कारण वह आश्रयदाताओं की रुचि –अभिरुचि से संचालित हो रहा था, यह उसकी अनिवार्यता और विवशता थी। दरबारी कवि राजदरबार की कलात्मक अपेक्षाओं के अनुरूप वाह-वाह की कसौटी पर खरा उतरनेवाले चामत्कारिक काव्य की रचना में प्रवृत हो रहा था, जिससे आश्रयदाताओं की संकुचित-विलासी मनोवृत्ति एवं शृंगारी भावनाओं को संतुष्ट किया जा सके। संभवत: इस काल के कवियों में ‘कला, कला के लिए’ तथा ‘कविता करने के लिए कविता ’ जैसी मनोवृत्ति, वह भी एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए, अधिक प्रभावी थी, जिसके कारण इसकाल की शृंगारी कविता में नग्न मनोभावों का बहुत खुला और उलंगतापूर्ण चित्रण दिखाई देता है। संभवत: यही कारण है कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी रीतिकाल की कविता को रुग्ण मनोभावों से संपृक्त मानते हैं, “विलासिता जब चित्तगत संकीर्णता के साथ प्रकट होती है, तो केवल विनाश की ओर ले जाती है। इसीलिए इस काल की शृंगारी भावना में एक प्रकार का रुग्ण मनोभाव है।” (हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास, पृ.161)
रीतिकालीन कवि जिस परिवेश में काव्यरचना कर रहे थे, वहाँ प्रतिस्पर्धात्मक आपसी प्रतिद्वंद्विता के कारण उनके लिए यह आवश्यक था कि उनकी काव्याभिव्यक्ति ऐसी असाधारण और चमत्कारपूर्ण हो,जिससे राजदरबार में उसे मान-सम्मान के साथ पद-प्रतिष्ठा भी प्राप्त हो तथा उनके ज्ञान का प्रभुत्व भी स्थापित हो सके। इसके लिए इन कवियों ने अपने वैदुष्य और पांडित्य के साथ आचार्यत्व-प्रदर्शन को माध्यम बनाया। इस साहित्यकर्म में निष्णात् होने के लिए उन्हें पूर्ववर्ती शास्त्रीय ग्रंथों के साथ ही परंपरागत काव्यशास्त्रीय एवं रचनात्मक साहित्य का आधार ग्रहण करना अनिवार्य-सा हो गया, जिसे उन्होंने रीतिकालीन काव्याभिव्यक्ति के लिए प्रेरणास्रोत के रूप में अपनाया। इस क्रम में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की टिप्पणी उल्लेखनीय है—“इस प्रकार इन कवियों ने अत्यंत पुराने जमाने से प्रचलित तीन श्रेणी के ग्रंथों का सहारा लिया -1. नाना प्रकार की प्रेमक्रीडाओं को बतलानेवाले कामशास्त्र का। 2. उक्तिवैचित्र्य का विवेचन करनेवाले अलंकारशास्त्र का 3. नायक-नायिकाओं के विभिन्न भेदों और स्वभावों का विवेचन करनेवाले रसशास्त्र का। साहित्य के क्षेत्र में इन्हीं तीन प्रकार के ग्रंथों का प्रभाव इस काल में मिलता है।” (वही, पृ.162)
संस्कृत साहित्य के काव्यशास्त्रीय विविध ग्रंथों से प्रभाव और प्रेरणा ग्रहणकर रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों के माध्यम से लक्षण-उदाहरण के रूप में काव्याभिव्यक्ति करने के साथ ही इसकाल के कवियों ने अधिकतर मुक्तक काव्यपरंपरा में शृंगारपरक रचनाओं का सर्जन किया है, जिसकी रचना की प्रेरणा उन्हें पूर्ववर्ती संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश की मुक्तक काव्यपरंपरा से मिली है। संस्कृत की कृष्णभक्तिविषयक लोकप्रिय गीतिकाव्यपरंपरा को भी रीतिकालीन कवियों ने अपनी एतदविषयक अनेक रचनाओं के लिए प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकार किया। वस्तुत: पूर्ववर्ती काव्यशास्त्रीय और उससे इतर साहित्यिक रचनाकर्म को रीतिकालीन काव्यसर्जन के लिए प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकार किया जाना चहिए।
1. संस्कृत साहित्य की समृद्ध काव्यशास्त्रीय परंपरा
आचार्यत्व एवं काव्यत्व का जो सम्मिलित रूप रीतिकाल के कवियों में दिखाई देता है, उसकी प्रेरणा उन्हें संस्कृत काव्यशास्त्र से प्राप्त हुई है। रीतिकाल में रीतिनिरूपण करनेवाले लक्षणग्रंथों के माध्यम से काव्यरचना का जो प्रयास दिखाई देता है, वह संस्कृत काव्यशास्त्रीय संप्रदायों की विवेचना करनेवाले ग्रंथों पर आधृत है। अलंकारवादी आचार्य पीयूषवर्ष जयदेव (जिनका समय 1200 ई. के आसपास माना जाता है और जो गीतगोविंद के रचयिता गीतिकाव्यकार जयदेव से भिन्न व्यक्ति हैं। जयदेव ने प्रसन्नराघव नामक प्रसिद्ध नाटक भी लिखा है, जिसका प्रभाव तुलसीदास एव केशवदास जैसे कवियों पर पड़ा है।) के अलंकारनिरूपक ग्रंथ चंद्रालोक तथा अप्पय दीक्षित (जिनका समय 1580 ई. है और वे गीतिकाव्यकार के रूप में वरदराज-स्तव के रचयिता हैं) के ग्रंथ कुवलयानंद ऐसे प्रेरक ग्रंथ हैं, जिन्होंने रीतिकाल के अलंकारवादी आचार्य कवियों को सर्वाधिक प्रेरित किया है।रीतिकील की विधिवत् आधार भावभूमि निर्मित करनेवाले अलंकारवादी आचार्य केशव की काव्यरचना के प्रेरणास्रोत उपर्युक्त ग्रंथ ही थे। आगे भी अलंकार निरूपक कवियों को इन्हीं ग्रंथों से प्रेरणा मिली।
ध्वनि संप्रदाय से प्रेरित होकर संपूर्ण काव्यांगों का निरूपण करनेवाले आचार्य कवियों ने मम्मट के काव्यप्रकाश और आचार्य विश्वनाथ के साहित्य दर्पण से प्रेरणा प्राप्त की। ऐसे कवियों में भिखारीदास (काव्य निर्णय) और चिंतामणि (काव्य विवेक, कविकुल कल्पतरु) प्रमुख हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “हिन्दी के अलंकार ग्रंथ अधिकतर चंद्रालोक और कुवलयानंद के अनुसार निर्मित हुए। कुछ ग्रंथों में काव्यप्रकाश और साहित्य दर्पण का भी आधार पाया जाता है। काव्य के स्वरूप और अंगों के संबंध में हिन्दी के रीतिकार कवियों ने संस्कृत के इन परवर्ती ग्रंथों का मत ग्रहण किया। इस प्रकार दैवयोग से संस्कृत साहित्यशास्त्र के इतिहास की संक्षिप्त उद्धरणी हिन्दी में हो गई।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.180)
रस संप्रदाय से प्रेरणा ग्रहण कर रससंबंधी विवेचन के क्रम में नायक-नायिका भेद एवं शृंगार निरूपण करनेवाले रीतिकालीन कवियों के लिए भानुदत्त (13वीं शताब्दी) की रसमंजरी और रसतरंगिणी को उपजीव्य ग्रंथ कहा जा सकता है। केशवदास(रसिकप्रिया), मतिराम (रसराज), देव(भावविलास) आदि की एतदविषयक रचनाओं की प्रेरणा इन्हीं से प्राप्त हुई है, “इन ग्रंथों में भानुदत्त की रसमंजरी और रसतरंगिणी ने तथा जयदेव के चंद्रालोक ने रीतिग्रंथकारों को खूब प्रभावित किया था।” (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, पृ.64)
3. रीतिकाल से पूर्व काव्यांग विवेचन में नायिका-भेद के स्फुट प्रयास
यद्यपि रीतकाल के अधिकतर आचार्य कवियों ने रीतिग्रंथ निरूपण के लिए संस्कृत के लक्षणग्रंथों से प्रेरणा ग्रहण की, तथापि रीतिकाल से पूर्व कतिपय कवियों ने रस,अलंकार और नायिका-भेद विषयक रीतिनिरूपक ग्रंथों का प्रणयन किया है, जो संस्कृत काव्यशास्त्र की परंपरा और रीतिकाल के मध्य की कड़ी को जोड़ते हैं। रीतिकाल के कवि उन ग्रंथों से सीधे प्रभाव भले न ग्रहण किए हों, परवर्ती काव्यरचना को किसी न किसी रूप में प्रेरित-प्रभावित करने तथा रीतिकालीन काव्यरचना का शृंगारी परिवेश निर्मित करने में उनका योगदान कम कर के नहीं आँका जा सकता। ऐसे कवियों में कृपाराम का नाम सर्वप्रथम लिया जा सकता है, जिनकी नायिका-भेद विषयक रचना हिततरंगिणी (1541 ई.), जो भानुदत्त की रसतरंगिणी से अनुप्रेरित होकर रची गई है, इस क्रम में उल्लेखनीय है। हालाँकि हिततरंगिणी के कतिपय दोहों की बिहारी सतसई के कुछ दोहों से भावसाम्यता के आधार पर हजारीप्रसाद द्विवेदी एवं चंद्रबली पांडेय जैसे विद्वान् कृपाराम को बिहारी का परवर्ती सिद्ध करते हैं, पर इसके लिए केवल यही आधार काफी नहीं है, क्योंकि संभव है कि बिहारी ने स्वयं पूर्ववर्ती कृपाराम की हिततरंगिणी से प्रभाव ग्रहण किया हो। ऐसा करने में बिहारी रीतिकाल के सबसे माहिर कवि हैं, इसीलिए पद्मसिंह शर्मा ने कहा है – “बिहारी ने अपने पूर्ववर्ती कवियों से ‘मजमून’ छीन लिया है,” महत्वपूर्ण यह है कि कृपाराम ने हिततरंगिणी का रचनाकाल स्पष्ट रूप से उद्धृत किया है। आचार्य शुक्ल के अनुसार “हिततरंगिणी के कई दोहे बिहारी के दोहों से मिलते-जुलते हैं, पर इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह ग्रंथ बिहारी के पीछे का है,क्योंकि ग्रंथ में निर्माणकाल बहुत स्पष्ट रूप से दिया हुआ है।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 156) हिततरंगिणी का महत्व सिद्धांत-निरूपण की दृष्टि से नहीं, काव्यत्व की दृष्टि से है।
कृष्णभक्त कवि नंददास ऐसे प्रथम कवि कहे जा सकते हैं, जिन्होंने स्पष्ट रूप से नायिका-भेद की दृष्टि से रसमंजरी की रचना की है। हालाँकि यह रचना भानुदत्त की रसमंजरी में दिए गए लक्षणों – उदाहरणों का पद्यानुवाद है, पर रीतिकालीन काव्यरचना को प्रेरित-प्रभावित करने की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है –“केवल हिन्दी की कविता को ही इस पुस्तक ने प्रभावित नहीं किया है, दक्षिण के काव्यशास्त्र को भी इसने प्रभावित किया है।” (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, पृ.160) चिंतामणि की शृंगारमंजरी (अनूदित), देव की जातिविलास, रसविलास आदि रचनाओं के प्रेरणास्रोत नंददास की रसमंजरी ही है।
इनके अतिरिक्त रीतिकालीन कविता को प्रेरित-प्रभावित करने की दृष्टि से पूर्वरीतिकालीन रचनाओं में सूरदास की साहित्यलहरी (यद्यपि इसे सूरदास की प्रामाणिक रचना नहीं माना जाता है), तुलसीदास की रामललानहछू (इसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है), रहीम की वरवैनायिकाभेद के नाम उल्लेखनीय हैं, जिनमें स्थूल शृंगारपरकता एवं नायिकाभेद विषयक वर्णन मिलता है। रीतिकालीन कवियों नें इन कृतियों से निसंदेह प्रेरणा प्राप्त की होगी।
4. प्राकृत,अपभ्रंश और संस्कृत साहित्य का शृंगारी साहित्य
रीतिकालीन कवियों में रीतिग्रंथनिरूपण के साथ नायिका-भेद विषयक काव्यरचना की प्रवृत्ति आम बात रही है। ऐसे वर्णनों के लिए जहाँ एक ओर काव्यशास्त्रीय संप्रदायों की विवेचना करनेवाले लक्षणग्रंथ प्रेरणास्रोत या उपजीव्य रहे हैं, वहीं इन कवियों ने उपर्युक्त वर्णनों के साथ-साथ उनसे इतर शृंगारपरक काव्यरचनाओं, जो प्रेमपरक पारस्परिक संबंधों, आत्मानुभूतियों, जीवन-जगत् के आत्मीय प्रेमसंबंधों,दाम्पत्य एवं पारिवारिक प्रणयानुभूतियों, जीवन-जगत के विविध शृंगारी चित्रणों से संपृक्त हैं, के लिए पूर्ववर्ती साहित्य में अवस्थित लोकप्रिय मुक्तक काव्यविधा को अपनाया। रीतिकालीन कविता की मुक्तक काव्यरचनाओं के प्रेरणास्रोत संस्कृत,प्राकृत में उपलब्ध मुक्तक काव्यपरंपरा के कतिपय प्रमुख ग्रंथ रहे हैं, जिनसे इन कवियों ने न केवल प्रेरणा ग्रहण की, वरन् उनके अनेक भावों को अपनी रचनाओं में यथावत् आत्मसात् भी कर लिया है। ऐसी प्रेरक रचनाओं में सर्वप्रमुख प्राकृत कवि सातवाहन हाल (प्रथम शताब्दी ई.) की रचना गाथासप्तशती है। इस ग्रंथ ने न केवल संस्कृत की अनेक रचनाओं, अमरूकशतक (अमरूक), शृंगारशतक (भर्तृहरि), आर्यासप्तशती (गोवर्धनाचार्य) को प्रेरित प्रभावित किया, वरन वह हिन्दी के रीतिकालीन कवियों, बिहारी, मतिराम, पद्माकर आदि की अनेक रचनाओं के प्रेरणास्रोत के रूप में अविस्मरणीय कृति है। बिहारी सतसई के अनेक मुक्तकों में गाथासप्तशती के भावों की आश्चर्यजनक समानता है। इस दृष्टि से एक उदाहरण देना अप्रासंगिक नहीं होगा। बिहारी का एक अतिप्रसिद्ध अन्योक्तिपरक दोहा है –
“नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल।
अली कली ही सों बंध्यों, आगे कौन हवाल।।”
गाथासप्तशती के निम्नलिखित छंद से बिहारी के उपर्युक्त दोहे की तुलना करें —
“ईषत्कोषविकासं यावन्नाप्नोति मालतीकलिका।
मकरन्दपान लोलुप मधुकर किं तावदेवमर्दयसि।।”
(अल्पविकसित मालती कलिका का मकरंदकोष जब तक विकास-अवस्था को प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक क्या मकरंदपान का लोलुप भ्रमर उसे अभी से मसल डालेगा?)
इसी तरह बिहारी के अनेक दोहे गाथासप्तशती की तर्ज पर रचे गए हैं।रीतिकाल की शृंगारपरक ऐसी अनेक रचनाओं के प्रेरणास्रोत के रूप में ऐसी पूर्ववर्ती रचनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है।रीतिकाल की शृंगारपरक काव्यरचनाओं पर संस्कृत साहित्य की परंपरा में रचित अनेक शृंगारी रचनाओं के प्रभाव और प्रेरणा को नकारा नहीं जा सकता।
रीतिकालीन कवियों नें कृष्ण-भक्ति गीतिकाव्यपरंपरा में राधा और कृष्ण के बहाने उनकी प्रेमपरक लीलाओं को अपने शृंगारिक वर्णनों में सामान्य नायक-नायिकाओं के शृंगारिक वर्णनों की तरह प्रस्तुत किया । ऐसे वर्णनों के प्रेरणास्रोत संस्कृत-हिन्दी की कृष्णभक्ति गीतिकाव्यपरंपरा में रचित कतिपय प्रमुख रचनाओं का विशिष्ट योगदान है। इस दृष्टि से संस्कृत के गीतिकाव्यकार जयदेव (1100 ई.) की रचना गीतगोविंद सबसे महत्वपूर्ण है, जिसमें राधा-कृष्ण की शृंगारिक प्रणयलीलाओं को लौकिक रूप में प्रस्तुत करने का उपक्रम है।इसमें परकीया नायिकाविषयक घोर शृंगारिक वर्णनों की भरमार है तथा नायक-नायिका भेदविषयक विविध पक्षों का भी स्पष्ट उल्लेख है।हिन्दी के विद्यापति में विस्तार पाकर वह लौकिक शृंगार रूप कृष्ण-भक्त कवियों (सूरदास,नंददास आदि) के माध्यम से भक्तिकाल के अंतिम दिनों में व्यापक रूप से लौकिकता के स्तर पर सामान्य शृंगारिक वर्णन के रूप में स्थापित हो चुका था। कृष्ण-भक्ति की यह गीतिपरंपरा रीतिकालीन कवियों की एतदविषयक रचनाओं के लिए प्रेरणास्रोत रही है। रीतिकालीन वीर, भक्ति, नीति विषयक रचनाओं के प्रेरणास्रोत किसी न किसी रूप में पूर्ववर्ती साहित्य में विद्यमान हैं।
3.5. फ़ारसी/उर्दू काव्य की रवायत और असर
रीतिकालीन काव्य का सर्जन, विकास और प्रसार जिस तरह राजाश्रय और दरबारी संस्कृति में हो रहा था,उसी के समानांतर उर्दू कविता भी राजदरबारों के सामंती-शाही परिवेश में पनाह पा रही थी। उस काल की उर्दू-हिन्दी कविता में कमोबेश एक-सी प्रवृत्तियाँ दृष्टगत होती हैं। उर्दू में इश्क का लाजवाब बयान, शेरों में तग़ज़्ज़ुल या शेरियत के माध्यम से भावों का चमत्कारपूर्ण विरोधाभास (कंट्राडिक्शन), कम से कम (दो पंक्तियों के शेर) में अधिक से अधिक कहन की कला, ग़ज़ल के शेरों का एक दूसरे के भावों से असंबद्ध होना, वाह-वाह का चामत्कारिक प्रभाव आदि रीतिकालीन उर्दू-हिन्दी कविता की लगभग एक सी मिलती-जुलती काव्यप्रवृत्तियाँ रेखांकित की जा सकती हैं, “रीतिकालीन काव्य की तुलना उर्दू-शायरी से हो तो यह स्वाभाविक है – राजाश्रय में रचना, मुक्तकविधान, चमत्कारप्रियता, शृंगारचित्रण,और रीति-निर्भरता – ये ऐसे तत्व हैं, जो रीतिकाव्य और प्राय: उसी के समानांतर चलनेवाली उर्दू शायरी में समान रूप से मिलेंगे।” (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 58)
जिस समय रीतिकालीन हिन्दी कविता में नारी सौंदर्य की विविध शृंगारिक छवियाँ वर्णन कौशल की पराकाष्ठा पर पहुँची हुई दिखाई देती हैं, उसी समय उस काल की उर्दू शायरी में नारीसौंदर्य और उससे संबद्ध विषयों की असरदार अभिव्यक्ति दिखाई देती है। उर्दू में व्यक्त मस्ती का यह आलम पूर्ववर्ती अरबी-फ़ारसी कविता में व्यक्त प्रेम और सौंदर्यविषयक वर्णनों से प्रेरित और प्रभावित है, क्योंकि इस्लाम के उदय से पूर्व अरबी कविता में प्रेम,सौंदर्य और विरह की अतिशय मादकता विषयक वर्णँनों की अधिकता रही है। वहाँ से उसे फ़ारसी कविता में पूर्ण विस्तार मिला। फ़ारसी कविता में व्यक्त व्यापक शृंगारी प्रवृत्तियाँ रीतिकालीन उर्दू कविता के लिए प्रेरणास्रोत रही हैं।जो रीतिकालीन कविता रादरबारों में फलफूल रही थी, वहाँ फ़ारसी भाषा और साहित्य का बोलबाला था। इस दृष्टि से फ़ारसी कविता की अनेक विशेषताएँ रीतिकालीन हिन्दी कविता को मिली हों, तो क्या आश्चर्य। नि:संदेह रीतिकालीन कविता की कतिपय महत्वपूर्ण काव्यप्रवृत्तियों के लिए फ़ारसी-उर्दू कविता प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकार की जा सकती है। फ़ारसी-उर्दू शैली से प्रभावित होनेवालों में बिहारी सहित कई प्रमुख कवि हैं, जिनके लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है –“शब्दों के साथ-साथ कुछ थोड़े से कवियों ने इश्क की शायरी को पूरी अलंकार सामग्री तक उठाकर रख ली है और उनके भाव भी बँध गए हैं।बिहारी जैसे परम उत्कृष्ट कवि भी यद्यपि फ़ारसी भावों के प्रभाव से नहीं बँचे हैं –उनकी विरहताप की अत्युक्तियों में दूर की सूझ और नाज़ुक ख़याली बहुत कुछ फ़ारसी की शैली की है।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.185) वस्तुत: मुगल दरबार में फ़ारसी भाषा और साहित्य की संस्कृति का प्रसार होने के कारण उसकी जो नाज़ुक ख़याली उर्दू कविता में आई थी, उसके असर से रीतिकालीन हिन्दी कविता अछूती नहीं रही और अनेक कवियों ने उससे प्रेरित होकर काव्यरचना की।
- निष्कर्ष
इस तरह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि रीतिकालीन हिन्दी कविता अपने युग-परिवेश में व्यापक शृंगारिक भावनाओं की प्रभावी अभिव्यक्ति करने वाली कलात्मक कविता है, जिसकी प्रमुख प्रवृत्ति रीतिनिरूपण करनेवाले काव्यशास्त्रीय लक्षणग्रंथों के माध्यम से काव्याभिव्यक्ति करना है। इसके साथ ही नायिकाभेद एवं विविध पक्षीय शृंगारपरक रचनाओं के माध्यम से रीतिकालीन कविता का स्वरूप निर्मित होता है। राजाश्रय एवं राजदरबार में फलने-फूलने के कारण इस काल की कविता में पांडित्यप्रदर्शन और चमत्कारपूर्ण काव्यरचना की प्रवृत्ति दिखाई देती है। परिणामत: रीतिकालीन कविता अधिकांशत: वाह्य अभिव्यक्ति की कविता के रूप में चामत्कारिक कोटि की कलात्मक अभिव्यक्ति है। ऐसी काव्याभिव्यक्ति के लिए रीतिकालीन कवियों ने अपने पूर्ववर्ती विविध साहित्य से सहारा लेकर काव्यसर्जन का प्रयास किया। वही पूर्वर्ती साहित्यिक रचनासामग्री रीतिकालीन कविता की प्रेरणास्रोत कही जा सकती हैं।
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वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A3%E0%A5%80:%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF
- http://vle.du.ac.in/mod/book/print.php?id=10061&chapterid=16614