4 भक्ति का उदय और विकास

डॉ. समीक्षा ठाकुर

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • भक्ति के उदय और विकास का स्वरूप समझ सकेंगे ।
  • भक्ति साहित्य की विविध प्रवृत्तियाँ जान पाएँगे।
  • निर्गुण और सगुण भक्ति साहित्य का अन्तर पहचान पाएँगे।
  • हिन्दी साहित्य के विकास में भक्ति साहित्य की भूमिका और उसका महत्त्व समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के बीच जिस विराट चिन्तन धारा का प्रभाव अखिल भारतीय स्तर पर रहा, उसे ‘भक्ति’ के नाम से जाना जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्ति के सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?” (हिन्दी साहित्य का इतिहास) इसका प्रतिवाद करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा, “मुसलमानों के अत्याचार के कारण भक्ति की भावधारा को अगर उमड़ना था तो पहले उसे सिन्ध और फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर हुई वह दक्षिण में, इसलिए अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भक्ति का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।” यह निर्विवाद है कि साधारण जनता के बीच भक्ति पहले से ही साधना के रूप में विद्यमान थी। भक्त कवियों ने इसे भावना और शास्‍त्र के द्वारा और अधिक प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत किया। प्रसिद्ध है कि ‘भक्ति द्राविड़ उपजी लाए रामानन्द’। भक्ति का उदय दक्षिण भारत में हुआ, लेकिन विकास क्रम में यह समूचे भारत में अत्यन्त प्रभावशाली रूप से प्रकट हुई। इस विशिष्ट समय में भक्ति ने ज्ञान और कर्म द्वारा लोकोन्मुख होकर एक अखिल भारतीय सामाजिक और वैचारिक आन्दोलन का स्वरूप धारण कर लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि इस समय भक्ति का बाह्य स्वरूप भले धार्मिक और वैचारिक था, लेकिन उसकी आत्मा मानवीय करुणा से युक्त थी। भक्त कवियों में नामदेव, कबीर, रैदास, नानक, जायसी, सूरदास, तुलसीदास, रसखान और मीराबाई आदि प्रमुख हैं।

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक सूरदास  की भूमिका में भक्ति का विकास  के अन्तर्गत भक्ति की विस्तृत चर्चा की है। उन्होंने बताया कि भक्ति के सूत्र पहले से ही भारतीय समाज में विद्यमान थे। उन्होंने वेद, उपनिषद, तथा पुराणों के अनेक उदाहरणों द्वारा अन्नोपासना से नारायणोपासना और ब्रह्म के निर्गुण तथा सगुण स्वरूप पर प्रकाश डाला है। धर्म की भावात्मक अनुभूति या भक्ति का सूत्रपात महाभारत काल में हुआ है और उसका विस्तृत प्रवर्तन पुराणों के काल में माना जाता है। गीता के एक अध्याय का नाम ही भक्ति योग  है। दूसरी शताब्दी में कृष्ण की उपासना होती थी। तीसरी-चौथी शताब्दी तक वैष्णव धर्म का काफी प्रभाव पड़ा था। पाँचवीं से नौवीं शताब्दी तक तमिलनाडु में तिरुमंगैर, कुलशेखर, पेरियालवार आदि बारह वैष्णव आलवार सन्तों ने भक्ति का प्रचार किया। इनमें ‘अण्डाल’ नाम की एक महिला भी थी। इन सन्तों में अधिकांश का सम्बन्ध छोटी जातियों से था। भक्ति के सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक ग्रन्थ भागवत  की रचना भी दक्षिण में ही हुई। उन दिनों दक्षिण में जातिगत व्यवस्था बहुत जटिल रूप से विद्यमान थी।

 

आलवार सन्तों की परम्परा में सुविख्यात वैष्णव आचार्य श्री रामानुज का प्रादुर्भाव 11 वीं शताब्दी में हुआ। उन्होंने भक्ति को दर्शन और शास्‍त्र का स्वरूप प्रदान किया। यही नहीं उन्होंने देशी भाषा में रचित शठकोपाचार्य के ‘तिरुवल्लुवर’ आदि भक्ति शास्‍त्र को वैष्णवों का वेद कहकर सम्मान प्रदान किया। धीरे-धीरे आलवारों ने भक्ति को जनसाधारण तक पहुँचाने का कार्य किया। यही भक्ति-शास्‍त्र का सहारा पाकर सम्पूर्ण भारत में फैल गई। उत्तर भारत में वैष्णव भक्तों के दार्शनिक रूप का ही प्रचार अधिक हुआ। रामानुजाचार्य की चौथी-पाँचवीं शिष्य परम्परा में स्वामी रामानन्द (सन् 1400-1470) हुए। रामानन्द के गुरु राघवानन्द थे। कहते हैं कि अनुशासन सम्बन्धी विषय पर गुरु से मतभेद होने के कारण उन्होंने मठ त्याग दिया और उत्तर भारत चले गए। रामानन्द ने भक्ति को देश, वर्ण तथा जातिगत भेद से मुक्त बताया, सामान्य मनुष्य को सुलभ सगुण भक्ति का अधिकारी माना। वस्तुत; मध्यकाल की स्वतन्त्र चिन्तनधारा के जनक स्वामी रामानन्द ही थे। उन्होंने ही भक्ति का प्रचार सम्पूर्ण उत्तर भारत में किया। रामानुज के मतावलम्बी होते हुए भी उन्होंने उपासना के लिए विष्णु की लीलाओं का विस्तार करने वाले अवतार का सहारा लिया। इस प्रकार इनके इष्ट देव ‘राम’ हुए और मूलमन्त्र ‘रामनाम’ हुआ। इसकी पुष्टि के लिए अक्सर यह दोहा उद्धृत किया जाता है –

 

भक्ति द्राविड़ उपजी लाए रामानन्द

परगट किया कबीर ने सप्‍तदीप नवखण्ड

 

रामानन्द की दृष्टि में भगवान की शरण में आए हुए भक्त के लिए वर्णाश्रम का बन्धन, ऊँच-नीच, जाति-पाँति आदि व्यर्थ हैं। संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित होते हुए भी उन्होंने देशभाषा में कविता लिखी तथा राम नाम का उपदेश दिया। उनके प्रधान शिष्यों की संख्या लगभग बारह थी – रैदास, कबीर, धन्‍ना, सेना, पीपा, भवानन्द, सुखानन्द, आशानन्द आदि। इनमें अधिकांश का सम्बन्ध छोटी जातियों से था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार “रामानन्द में कुछ न कुछ ऐसी साधना अवश्य थी, जिसके कारण योगप्रधान भक्ति मार्ग, निर्गुण पन्थी भक्ति मार्ग और सगुणोपासक भक्ति मार्ग तीनों ही के पुरस्कर्ता भक्तों ने उन्हें अपना गुरु माना है।” भक्ति का यह प्रवाह 12-13 वीं शताब्दी में कर्नाटक, महाराष्ट्र से होते हुए धीरे-धीरे 14-17 वीं शताब्दी तक पंजाब, सिन्ध, गुजरात, कश्मीर, राजस्थान, हिन्दी देश तथा बंगाल असम के सुदूर क्षेत्रों तक दिखाई देने लगा। इन क्षेत्रों में भक्तों ने संस्कृत और अपभ्रंश के स्थान पर देशभाषाओं को अपनी रचना का माध्यम बनाया।

 

स्वामी रामानन्द से पहले महाराष्ट्र के सन्त नामदेव (सन् 1267) ने एक ‘सामान्य भक्तिमार्ग’ का सूत्रपात्र किया, जिसे ‘निर्गुण पन्थ’ के नाम से जाना जाता है। नामदेव की रचनाओं में ऊँच-नीच और जाति पाँति के भेदभाव के त्याग और ईश्‍वर की भक्ति के लिए मनुष्य के समान अधिकार को महत्त्व दिया गया है। उनका आदर्श था – ‘जाति पाँति पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।’ उनकी रचनाओं में सगुण-निर्गुण दोनों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। सगुण पदों की भाषा ब्रजभाषा अथवा परम्परागत काव्यभाषा है और निर्गुण बानी के पदों की भाषा खड़ी बोली या सधुक्‍कड़ी।

  1. निर्गुण–सगुण भक्ति

 

देश के पूरब में जब जयदेव ने गीत गोविन्द  द्वारा कृष्ण प्रेम की अभिव्यक्ति की, मिथिला के विद्यापति ने कृष्ण से सम्बन्धित गीतों की रचना की तो उत्तर-मध्य भारत में  रामानन्द ने 15 वीं  शती में अवतारी राम की उपासना पर बल दिया और वल्लभाचार्य ने कृष्ण की प्रेम मूर्ति का प्रचार किया। इस प्रकार दक्षिण से उत्तर भारत तक आते-आते भक्ति के दो स्वरूप दिखाई देने लगे – निर्गुण और सगुण। इन भक्तों के मत, साधना और आचार-विचार में अनेक मतभेदों के बावजूद उनके बीच समानता के ऐसे तत्त्व थे जिनके आधार पर भक्ति काव्य का सामान्य धरातल तैयार हुआ। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार “भक्त का भगवान के साथ एक व्यक्तिगत सम्बन्ध है। भगवान या ईश्‍वर इन भक्तों की दृष्टि में कोई शक्ति या सत्ता मात्र नहीं हैं, बल्कि ऐसे सर्वशक्तिमान हैं, जो कृपा कर सकते हैं, प्रेम कर सकते हैं, उद्धार कर सकते हैं, अवतार ले सकते हैं। निर्गुण हो या सगुण भक्त हो, भगवान के साथ उन्होंने कोई न कोई सम्बन्ध पाया है।”

 

निर्गुण पन्थ ने हिन्दू-मुसलमान दोनों के लिए एक ‘सामान्य भक्तिमार्ग’ का विकास किया। उन्होंने जहाँ एक ओर सिद्वों-नाथों का प्रभाव ग्रहण किया, वहीं दूसरी ओर निराकार ईश्‍वर के लिए भारतीय वेदान्त और सूफियों का प्रेम तत्त्व भी ग्रहण किया। इसलिए उन्हें न तो पूर्ण रूप से अद्वैतवादी कहा जा सकता है, न ही एकेश्‍वरवादी। उन्होंने दोनों धर्मो के अवतार, मूर्तिपूजा, नमाज, रोजा और कुरबानी आदि के बाह्याडम्बर का विरोध कर ब्रहा, जीव, माया, अनहद द्वारा सच्‍चे अर्थो में ईश्‍वर प्रेम की प्राप्ति और सहज जीवन को महत्त्व दिया। निर्गुण और सगुण की उपासना पद्वति में भेद हो सकता है, लेकिन उद्देश्य उनका एक ही है। कोई दास्य भाव से भक्ति करता है, कोई मधुर भाव से, कोई सख्य भाव से, कोई प्रेम भाव से। इसलिए उन्होंने भगवान और भक्त को समान बताया। भक्तमाल में नाभादास ने कहा है – “भगति भगत भगवन्त गुरु नाम रूप बपु एक।”

 

कबीर ने कहा –

गुरु गोविन्द तो एक है, दूजा यह आकार।

आपा मेट जीवत मरे, तो पावै करतार।

 

इसी प्रकार दोनों धाराओं के भक्तों ने नाम की महिमा का गान किया। तुलसीदास ने रामचरितमानस  के आरम्भ में कहा कि राम की अपेक्षा राम का नाम अधिक अधिकारी है। कबीर ने भी कहा है –

 

कबीर कहै मैं कथि गया ब्रह्मा विष्‍णु महेस।

रामनन्द ततसार है सब काहू उपदेस।

  1. निर्गुण भक्ति

 

देश में 14-17 वीं शताब्दी तक भक्ति की दो धाराएँ – निर्गुण और सगुण समानान्तर रूप से चलती रहीं। इसमें रचनाकाल की दृष्टि से सबसे पहले कबीर की विस्तृत रचनाएँ प्राप्‍त होती हैं। ज्ञान और प्रेम की प्रधानता के आधार पर निर्गुण काव्य धारा की दो शाखाएँ हैं – ज्ञानाश्रयी शाखा, जिसे सन्त काव्य भी कहते हैं और प्रेमाश्रयी शाखा, जिसे सूफी काव्य भी कहते हैं।

 

1. ज्ञानाश्रयी शाखा

 

ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि परम सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार तो करते हैं, लेकिन अवतार और लीला में विश्वास नहीं करते। उनका ईश्‍वर निर्गुण, निराकार, निरंजन, अरूप, अगम, अगोचर है। कबीर ने स्पष्ट कहा –

 

दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना,

राम नाम का मरम है आना।

 

अवतार को न मानने के बावजूद ज्ञानाश्रयी शाखा के सन्त परम सत्ता के साथ अनेक प्रकार के सम्बन्ध बना लेते हैं। कबीर कहते हैं –

 

     ‘हरि जननी मैं बालक तोरा’

     ‘दुलहिनी गावहुँ मंगलाचार’

   हमारे घर आए राजा राम भरतार

 

यह सम्बन्ध माता, पिता, प्रिय, गुरु आदि का होता है। ज्ञान एवं अन्तस्साधना द्वारा ही ईश्‍वर के प्रति प्रेम प्राप्‍त होता है। इसीलिए कबीर ‘सन्तो आई ज्ञान की आँधी’ कहते हैं। यही कारण है कि प्रेम और भक्ति पर बल देने के बावजूद उन्हें ज्ञानाश्रयी ही कहते हैं। इस धारा के अधिकांश कवि अवर्ण थे। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था का तीव्र विरोध किया। इस धारा के प्रमुख कवि हैं – कबीर, रैदास, नानक, सुन्दरदास, दादूदयाल, रज्जब आदि। इन सन्त कवियों में सर्वाधिक ख्याति कबीर (सन् 1398-1518) को मिली। उन्होंने रामानन्द के बीज मन्त्र का प्रसार करने के लिए तीन धाराओं का सहारा लिया –

  • उत्तर पूर्व के नाथ पन्थ और सहजयान का मिश्रित रूप।
  • पश्‍च‍िम का सूफी मतवाद।
  • दक्षिण का वेदान्त भागवत वैष्णव धर्म।

 

कबीर के दोहे तथा पदों में नाथपन्थी उलटबाँसियों तथा सहजयान की साधना का प्रभाव दिखाई पडता है, जबकि प्रेममूलक रचनाओं पर सूफी असर है। इसके अतिरिक्त कबीर ने जाति-पाँति, बाह्याडम्बर और ढकोसलों आदि पर तीव्र प्रहार किया है –

 

अरे इन दोउन राह न पाई

हिन्दुन की हिन्दुआई देखी, देखी तुरकन की तुरकाई।

 

कबीर के अनुसार शास्‍त्र और ग्रन्थगत मतों द्वारा विचार तो कर सकते हैं, लेकिन समस्या का वास्तविक समाधान नहीं निकाल सकते –‘तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी।’

 

कबीर की वाणी साखी, सबद और रमैनी के रूप में ‘बीजक’ में संगृहीत है। साखी दोहों में है तथा रमैनी और सबद गेय पद में हैं। रमैनी और सबद भाषा ब्रज हैं, जो उस समय की काव्यभाषा थी, किन्तु साखियों की भाषा पर क्षेत्रीय बोलियों का प्रभाव देखा जा सकता है, जिसे ‘सधुक्‍कडी’ भी कहा जाता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा है। निर्गुण सन्तों ने उलटबाँसियों और प्रतीकों के माध्यम से भी अपने गूढ़ विचारों को प्रस्तुत किया। उलटबाँसियों को समझने के लिए प्रतीकों का अर्थ समझना जरूरी है –

 

एक अचम्भा देखा रे भाई। ठाढ़ा सिंह चरावै गाई।

 

लोक समझ में सिंह तो गाय का भक्षक है; लेकिन यहाँ उसे रक्षक कहा गया है। उलटबाँसी में ‘सिंह’ का अर्थ है – ‘ज्ञान’ और गाय का अर्थ है – ‘इन्द्रियाँ’। तात्पर्य यह है कि ज्ञान इन्द्रियों को नियन्त्रित करता है। उलटबाँसी का दार्शनिक आधार यह है कि योगी की दृष्टि में दुनिया की रीति उल्टी है और दुनिया की दृष्टि में योगियों की बातें उल्टी हैं।

 

2. प्रेमाश्रयी शाखा

 

प्रेमाश्रयी शाखा को ‘सूफी काव्य’ के नाम से भी जाना जाता है। इस्लाम के सूफी मत से प्रभावित होते हुए भी हिन्दी का सूफी काव्य कुछ मायने में भिन्‍न भी है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसकी विशेषता बताते हुए कहा – “इनकी रचना बिलकुल भारतीय चरित-काव्यों की सर्गबद्व शैली पर न होकर फारसी की मसनवियों के ढंग पर हुई है।” आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना है – “पद्मावत आदि सूफी प्रेमाख्यानक भारतीय साहित्य में प्राचीन काल से चले आ रहे वासवदत्ता, रत्‍नावली, कुवलयमाला आदि लोक-प्रचलित नायिकाओं के आधार पर लिखे हुए ‘रोमांस’ कही जाने वाली कृतियों की परम्परा से ओत प्रोत है।” सूफी कवियों ने लौकिक एवं कल्पित प्रेम-कथाओं के माध्यम से ‘प्रेम-तत्त्व’ का महत्त्व बताया है। उनकी काव्य पद्वति में संस्कृत–प्राकृत के प्रेमाख्यानकों और फारसी की मसनवियों का अनुसरण किया गया है। हिन्दी के सूफी कवियों में मुल्ला दाऊद – (चन्दायन, सन् 1379), मलिक मुहम्मद जायसी (पद्मावत, सन् 1520), मंझन (मधुमालती, सन् 1545), कुतुबन (मृगावती, सन् 1503-04), उसमान (चित्रावली, सन् 1613), शेख नबी (ज्ञानद्वीप, सन् 1619), कासिम शाह (हंस जवाहिर) और महिला साधक के रूप में ‘राबिया’ आदि शामिल हैं। सूफी कवियों ने अपने प्रबन्ध काव्यों में लौकिक प्रेम-कथाओं को सूफी सिद्धान्तों के साथ मिलाकर इस तरह प्रस्तुत किया है कि ये कथाएँ प्रतीकात्मक अर्थ देने लगीं। सूफी कवियों ने परम सत्ता के साथ मधुर या दाम्पत्य भाव स्थापित किया है, जिसका प्रतिबिम्ब सम्पूर्ण संसार में दिखाई देता है। नायिका परम सत्ता का रूप है, इसलिए नायिका के विश्‍वव्यापी वर्णन में हिन्दी के सूफी कवियों ने वेदान्त के ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘सर्व खल्विदं ब्रह्मं’ के सर्वात्मवाद का निर्वाह किया है। पद्मिनी का सौन्दर्य वर्णन करते हुए जायसी ने कहा –

 

सरवर तीर पद्मिनी आई। खोंपा छोरि केस मुकुलाई।।

बेनी छोरि झारै जौं बारा। सरग पतार होई अँधियारा।।

बरनी का बरनौ इमि बनी। साधे बान जानु दुइ अनी।।

उन बानन्ह अस को जो न मारा। बेधि रहा सगरौ संसारा।।

 

इसी प्रकार विरह का भी व्यापक वर्णन किया गया है। मंझन मधुालती  में कहते हैं – ‘कोटि माहिं बिरला जग कोई। जाहि सरीर बिरह दुख होई।।’ इसी कारण सूफियों को ‘प्रेम की पीर’ का कवि भी कहा गया है। जायसी ने प्रेम की महिमा बताते हुए कहा    है –

 

‘मानुष प्रेम भएउ बैकुण्ठी, नाहि त काह छार भरि मूठी।।’

‘प्रेम पहार कठिन विधि गढ़ा। सो पै चढ़े जो सिर सौं चढ़ा।।’

 

दोहे चौपाइयों में निबद्व और मसनवी शैली में लिखे होने के कारण इन प्रबन्ध काव्यों में अल्लाह, हजरत मुहम्मद, उनके चार मित्रों, शाहे वक्त शेरशाह सूरी, गुरुओं तथा पीरों की वन्दना, नखशिख वर्णन, बारहमासा पद्वति आदि काव्य-रूढ़ि‍यों का पालन किया गया है। सभी सूफी रचनाओं की भाषा अवधी है। हठयोग, कुण्डलिनी योग आदि साधनाओं का इन कवियों पर पर्याप्‍त प्रभाव दिखाई देता है। अहिंसा का सन्देश भी है। इस प्रकार हिन्दी के सूफी काव्य बहुत कुछ, फारसी मसनवियों के आधार पर रचित होते हुए भी मध्यकाल की प्राकृत अपभ्रंश परम्परा के रोमांचक आख्यानकों से जुड़े हुए हैं।

  1. सगुण भक्ति

 

शंकराचार्य के मायावाद या विवर्तवाद के विरुद्व रामानुजाचार्य (11 वीं शती) ने विशिष्टाद्वैतवाद और वल्लभाचार्य (15वीं शती) ने शुद्वादैतवाद द्वारा ईश्‍वर के सगुण साकार रूप की उपासना की। इनके इष्ट अवतार ग्रहण करते हैं, असुरों का नाश करते हैं, लीला के द्वारा लोकमंगल और लोकरंजन करते हैं। सगुण मत में विष्णु के अनेक अवतारों की उपासना की जाती है। इनमें सबसे अधिक लोकप्रिय राम और कृष्ण हैं।

 

1. कृष्णभक्ति शाखा

 

कालक्रम की दृष्टि से हिन्दी में कृष्ण भक्ति का समय पहले आता है। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने उत्तर भारत में कृष्ण भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया, जिस कारण कृष्ण भक्ति को नया आदर्श और नई प्रेरणा मिली। कृष्ण भक्ति का आधार-ग्रन्थ श्रीमदभागवत  है। कृष्ण-लीला गान की परम्परा समाज में पहले से विद्यमान थी। जयदेव के गीत गोविन्द, चण्डीदास के पद और विद्यापति के पद आदि लोकप्रिय थे। वल्लभाचार्य के अनुसार ब्रह्म अपने सत्, चित् और आनन्द – तीनों का आविर्भाव और तिरोभाव करता रहता है। जीव में सत् और चित् का आविर्भाव तो रहता है, आनन्द का तिरोभाव हो जाता है। जड़ में केवल सत् का आविर्भाव रहता है और चित् तथा आनन्द का तिरोभाव हो जाता है। श्रीकृष्ण की लोकरंजक लीलाएँ नित्य हैं, जिनके द्वारा वे नित्य विद्यमान हैं। इसलिए जगत वास्तविक है, मिथ्या नहीं है। वे ब्रह्म को माया से रहित मानते हैं, इसलिए उनके मत को शुद्वाद्वैत कहा जाता है। इसी क्रम में वे प्रेम लक्षणा भक्ति के लिए ईश्‍वर के अनुग्रह को अनिवार्य मानते हैं, जिसे वे ‘पुष्टि’ या ‘पोषण’ कहते हैं – ‘पोषणं तदनुग्रह’। इसी आधार पर उन्होंने स्वयं को पुष्टिमार्गी कहा है।वल्लभाचार्य ने तीन प्रकार के जीवों की चर्चा की है –

  • पुष्टि जीव; जो ईश्‍वर के अनुग्रह पर आश्रित रहते हैं और उनकी नित्य लीला का अंग बनते हैं।
  • मर्यादा जीव; जो वेद के विधि-निषेधों का अनुसरण करते हैं।
  • प्रवाह जीव; जो सांसारिक सुखों में पड़े रहते हैं।

 

वल्लभ सम्प्रदाय ने अष्टछाप  की स्थापना की जिसमें वल्लभाचार्य के चार शिष्य थे – सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास तथा वल्लभ के पुत्र विट्ठलनाथ के चार शिष्य थे – नन्ददास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी और गोविन्दस्वामी। उनकी भक्ति ‘माधुर्य भाव’ की थी। हिन्दी के कृष्ण-भक्त कवियों में अष्टछाप के कवियों के अतिरिक्त मीराबाई और रसखान ने भी उच्‍चकोटि की कृष्णभक्ति की रचनाएँ की।

 

चौरासी वैष्णव की वार्ता  के अनुसार सूरदास को जब महाप्रभु वल्लभाचार्य ने भगवद्भजन करने के लिए कहा तो सूरदास ने ‘प्रभु हौ सब पतितन के टीकौ’ तथा ‘हौ हरि सब पतितन कौ नायक’ सुनाए। सुनकर महाप्रभु ने कहा सूर ह्वै कै ऐसो घिघियात काहे को हौ, कछु भगवत् लीला वर्णन करौ।  इसके बाद सूरदास ने लीलाओं का गायन आरम्भ किया। सूरदास की रचनाओं में सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी  प्रमुख हैं। सूरदास ने मुख्यत; बाल लीला, गोचारण, वंशीवादन, रास और भ्रमरगीत का ही वर्णन किया है। कृष्ण की बाल-लीलाओं का जितना और जैसा वर्णन सूरदास ने किया, वैसा पूरे विश्‍व साहित्य में दुर्लभ है। सूर ने बालकृष्ण के रूप-सौन्दर्य, चेष्टाओं का अत्यन्त स्वाभाविक, मार्मिक और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। वल्लभाचार्य भी बालकृष्ण की उपासना करते थे। सूरदास ने कृष्ण के जन्म, चहल-पहल, नृत्य-गान और उल्लास का वर्णन करने के बाद बाल- लीलाओं और चेष्टाओं का अत्यन्त स्वाभाविक और मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया है, जिसमें बालसुलभ स्पर्धा, क्षोभ, क्रोध जैसे अनेक मनोभाव हैं।

  • मैया मोरि कबहिं बढ़ैगी चोटी  किति बार मोंहि दूध पियत भई यह अजहूँ है छोटी।
  • खेलत में को काको गोसैंया हरि हारे, जीते श्रीदामा, बरबस ही कत रहत रिसैयाँ
  • मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैंहो

 

सूर ने वात्सल्य के संयोग के साथ वियोग (जिसमें कृष्ण के मथुरा चले जाने पर नन्द और यशोदा की विरह दशा) का अत्यन्त मार्मिक वर्णन किया है। सूर की भक्ति सख्य भाव की है।

 

सूरदास ने शृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का चित्रण किया है। वे जिस प्रेम का चित्रण  करते हैं, उसमें प्रकृति और समाज की भी अहम भूमिका है। इसलिए गोपियाँ कहती हैं – लरिकाई कौ प्रेम कहौ अलि कैसे करि छूटत या ‘मधुबन तुम कत रहत हरे।’ भ्रमरगीत प्रसंग को आधार बनाकर सूरदास ने वियोग शृंगार का अद्भुत वर्णन किया है, जिसके अन्तर्गत गोपियों की विरह वेदना, उद्भव का ब्रज आगमन, गोपियों का सन्देश देना, गोपियों की व्यंग्योक्तियाँ, वाग्विदग्धता और तार्किक संवाद का वर्णन है। उन्होंने भ्रमरगीत प्रसंग के द्वारा निर्गुण का विरोध और सगुण का सर्मथन किया है। उद्धव गोपियों को निर्गुण उपदेश देते हैं, तो गोपियाँ तर्क करती हैं। अन्त में उद्धव सगुण भक्ति के रंग में रंगे हुए वापस कृष्ण के पास चले जाते हैं। सम्पूर्ण भक्ति काव्य में सूर की गोपियों की भाँति कोई भी स्‍त्री ऐसी तार्किक बातें करती नहीं दिखती। सूरदास के गेय पदों में ब्रजभाषा का माधुर्य देखते बनता है –

  • निर्गुण कौन देस को बासी को है जनक जननि को कहियत, कौन नारि को दासी।
  • उर में माखन चोर गडे़

 

अब कैसेहु निकसत नाहिं उधौ ! तिरछे ह्वै जो अडे़।सूरदास के अतिरिक्त कृष्ण भक्त कवियों में मीराबाई (सन् 1498-1546) का स्थान अप्रतिम है। मीरा ने कृष्ण के जिस मोहक रूप का चित्रण किया, उसमें कृष्ण बाँके बिहारी, गिरधर नागर, मुरली बजाने वाले हैं –

 

म्हारो प्रणाम बाँके बिहारी जी

मोर मुकुट माथा बिराजे कुण्डल अलंकारी जी।।

मीरा के विरह-वेदना से सम्बन्धित पदों में अनुभव की मार्मिकता और सचाई के दर्शन होते हैं –

  • हेरी म्हा तो दरद दिवाणी म्हारा दरद न जाण्यां कोय घायल री गत घायल जाण्याँ हिवड़ों अगण सँजोय।
  • अँसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम बेलि बोई।

 

कहते हैं मीरा रैदास की शिष्या थी। मीरा के पदों पर निर्गुण, सगुण, सूफी मत, नाथपन्थ आदि सबका प्रभाव दिखाई देता है। मीरा की भक्ति ‘माधुर्य भाव’ की थी। उन्होंने अपने इष्ट कृष्ण को प्रियतम या पति के रूप में प्रस्तुत किया है। मीरा के पद संगीतात्मकता, शब्द चयन, पद-विन्यास, वाक्य-संरचना तथा ध्वनि प्रयोगों के कारण सहज ही गुणी गायकों के कण्ठ में बस जाते हैं – ‘मैं साँवरे के रंग राँची।’

 

कृष्ण भक्त कवि रसखान (सन् 1548-1628) ने सुजान रसखान  में कृष्ण के व्यक्तित्व का चित्र खींचा है। रसखान ने सबसे पहले ब्रज प्रेम का वर्णन किया है। इसके लिए उन्होंने ‘सवैया’ छन्द का प्रयोग किया। रसखान का प्रसिद्ध सवैया है –

 

मानुष हौं तो वही रसखान बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पशु हौ तो कहा बस मेरो चरौ नित नन्द की धेनु मझारन।

गोपियों की प्रेम भावना के चित्रण में रसखान की अपनी छाप स्पष्ट है –

कानन दे अँगुरी रहिबों जबही मुरली धुनि मन्द बजैहै।

 

अन्य कृष्णभक्त कवियों में रहीम, हरिदास, हरीराम व्यास, सुखदास, लालचन्दास, नरोत्तमदास की गणना की जाती है। नरोत्तम दास रचित सुदामा चरित  के सवैये बहुत चर्चित हैं।

 

2. रामभक्ति शाखा

 

हिन्दी में रामभक्ति के प्रवर्तक रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में आने वाले स्वामी रामानन्द हैं। रामानन्द ने रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत मत को ही दर्शन के रूप में स्वीकार करते हुए विष्णु के अन्य रूपों में ‘राम’ रूप को लोक के लिए कल्याणकारी मानते हुए ‘राम’ की उपासना पद्वति का प्रचार किया। हिन्दी में रामभक्ति सम्बन्धी तीन प्रकार की रचनाएँ मिलती हैं। एक तो निर्गुण राम सम्बन्धी काव्य हैं, जिसके सबसे प्रसिद्ध कवि कबीर हैं। दूसरी काव्यधारा जो रामभक्ति की प्रधान धारा है – राम के सगुण रूप से सम्बन्धित है। इसमें सर्वाधिक प्रसिद्ध कवि तुलसीदास (सन् 1532-1683) के अतिरिक्त स्वामी अग्रदास, नाभादास, प्राणचन्द चौहान, तथा हृदयराम के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। तीसरी धारा रामभक्ति में रसिक सम्प्रदाय की है जिसका विकास कृष्ण भक्ति के सखी सम्प्रदाय के प्रभाव से तुलसीदास के बहुत दिनों बाद अयोध्या के रामोपासक साधुओं के बीच हुआ। राम भक्ति की मुख्यधारा वही मानी जाती है, जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगुण भक्ति का निरूपण है और जिसके प्रतिनिधि कवि गोस्वामी तुलसीदास हैं।

 

सगुण भक्तिधारा में जिन थोड़े से भक्त कवियों की रचनाएँ मिलती हैं, उनमें तुलसीदास को छोडकर अन्य भक्तों का ऐतिहासिक महत्त्व तो है, काव्योत्कर्ष उनमें कम ही प्राप्‍त होता है। रामानन्द की शिष्य परम्परा में रामभक्ति का प्रचार करने वाले तुलसीदास के 12 प्रामाणिक ग्रन्थ माने जाते हैं – दोहावली, कवितावली, गीतावली, रामचरितमानस, विनय पत्रिका, रामललानहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवै रामायण, वैराग्य सन्दीपनी, कृष्ण गीतावली और रामाज्ञाप्रश्‍नावली। तुलसी ने ब्रहा के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों का वर्णन करते हुए उनमें भेद माना है, किन्तु व्यावहारिक क्षेत्र में राम विष्णु के अवतार दशरथ सुत ही हैं –

 

जेहि इमि गावहिं बेद बुध, जाहि धरहिं मुनि-ध्यान।

सोइ दसरथ-सुत भगत हित कोसलपति भगवान।।

 

तुलसी के राम धर्म के उद्वार तथा अधर्म के विनाश के लिए अवतार धारण करते हैं। वे सौन्दर्य, शक्ति और शील – तीनों विभूतियों से युक्त हैं। इसीलिए तुलसी की भक्ति में इन तीनों का समन्वय है। आचार्य शुक्ल के अनुसार “मनुष्य की सम्पूर्ण भावात्मिका प्रकृति के परिष्कार और प्रसार के लिए मैदान पड़ा में हुआ है।” तुलसी ने भगवान के लोकरंजक और लोकरक्षक दोनों रूपों को स्वीकारा है, लेकिन विशेष बल लोकरक्षक रूप पर ही दिया है। तुलसी की भक्ति ‘दास्य भाव’ की है, इसलिए मार्यादा पुरुषोत्तम राम के महत्त्व और अपने दैन्य भाव की जितनी गहरी अनुभूति तुलसी में है, उतनी किसी अन्य भक्त कवि में नहीं। तुलसी का आदर्श है –

 

‘सेवक सेव्य भाव बिनु, भव न तरिय उरगारि।’ उनकी दृष्टि में आदर्श भक्त चातक की तरह है जिसका एकमात्र सहारा ‘राम’ हैं –

एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास।

एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास।।

 

आत्मनिवेदन का जैसा भाव-विह्वल रूप तुलसीदास की विनयपत्रिका  में मिलता है, वह समूचे हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है। सम्पूर्ण आत्मसमर्पण तुलसी की भक्ति का सार है। तुलसी ने अपने काव्य में अपने युग और जीवन का जैसा और जितना वर्णन किया है, वैसा किसी मध्यकालीन कवि ने नहीं किया। कवितावली  में उन्होंने लिखा –

 

धूत कहौ अवधूत कहौ, रजपूत कहौ जोलहा कहै कोउ।

काहू की बेटी से बेटा न व्याहब काहू की जाति बिगारब न सोउ।।

 

वे आगे कहते हैं – ‘माँग कै खैबो मसीत के सोइबो, लेबो को एक न दैबो को दोउ।’ तुलसी वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक थे। इसकी परिणति वे राम राज्य में देखते हैं। उन्होंने अपने पात्रों के माध्यम से एक आदर्श व्यवस्था की सृष्टि की है, जैसे आर्दश राजा, पुत्र, भाई, पति, स्वामी, शिष्य, मित्र आदि। यही नहीं तुलसी की दृष्टि में जो राम से विमुख है वह अत्यन्त स्‍नेही होते हुए भी करोड़ो शत्रुओं के समान त्याज्य है –

 

जाके प्रिय न राम वैदेही

तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही

 

तुलसी के काव्य की सफलता उनकी अपूर्व समन्वय भावना में है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार – “उसमें केवल लोक और शास्‍त्र का ही समन्वय नहीं है, वैराग्य और गार्हस्थ का, भक्ति और ज्ञान का, भाषा और संस्कृति का, निर्गुण और सगुण का, पुराण और काव्य का, भावावेग और अनासक्त चिन्तन का, ब्राहाण और चाण्डाल का, पण्डित और अपण्डित का समन्वय, रामचरितमानस  के आदि से अन्त तक दो छोरों पर जाने वाली परा-कोटियों को मिलाने का प्रयत्‍न है।” रचना वैविध्य और काव्य-कौशल की दृष्टि से भी तुलसी का काव्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जहाँ एक ओर उन्होंने ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं में रचना की, वहीं प्रबन्ध और मुक्तक पर भी उनका समान अधिकार है। भाषा, रस, छन्द, अलंकार के जितने प्रयोग तुलसी साहित्य में दिखाई देते हैं, वे अन्यत्र दुर्लभ हैं। तभी तो नाभादास ने तुलसी को ‘कलिकाल का बाल्मीकि कहा और विसेण्ट स्मिथ ने ‘बुद्वदेव के बाद का सबसे बड़ा लोकनायक’ कहा। आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल ने सूरदास को ‘लोकमंगल की सिद्धावस्‍था’ और तुलसीदास को ‘लोकमंगल की साधनावस्‍था’ का कवि कहा है।

  1. निष्कर्ष

 

भक्ति का उदय दक्षिण में आलवार भक्तों द्वारा हुआ, किन्तु इसके पीछे एक सामाजिक-दार्शनिक आधार भी मौजूद था। धीरे-धीरे भक्ति ने अखिल भारतीय रूप ग्रहण कर लिया। भक्ति का बाह्य और आन्तरिक स्वरूप सुनिश्‍च‍ित करने में चार आचार्य मुख्य थे – रामानुज, मध्वाचार्य, निम्बार्क और वल्लभ। उन्होंने शंकर के मायावाद का विरोध अपने ही तरीकों से किया है। वे दार्शनिक और भक्त दोनों ही भूमिका में थे। रामानुजाचार्य के शिष्य रामानन्द ने विष्णु के अवतार राम की निर्गुण और सगुण, दोनों ही रूपों को आधार बना कर उत्तर भारत में भक्ति का व्यापक प्रचार किया। निर्गुण राम के उपासकों में कबीर, तथा नानक जैसे भक्त हुए तो सगुण राम की लोकमंगलकारी लीलाओं के उपासक तुलसीदास हुए। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने विष्णु के ही अवतार कृष्णकथा को आधार बनाकर श्रीमदभागवत् कथा की पुरानी परम्परा को पुनः जीवित किया। इस धारा में कृष्ण के वात्सल्य और प्रेम का वर्णन करने वाले सूरदास जैसे भक्त हुए। इसके साथ ही इस्लाम की सूफी काव्य-परम्परा और भारत के नाथपन्थियों से प्रभाव ग्रहण कर हिन्दी में सूफी काव्य भी लिखे गए। सूफी कवियों ने भारतीय लोक-कथाओं पर आधारित प्रबन्ध काव्यों की रचना की है, मुल्ला दाऊद का चन्दायन तथा जायसी का पद्मावत  आदि उदाहरण स्वरूप देखा जा सकता है। हिन्दी के भक्ति साहित्य की लगभग चार सौ वर्षों की विराट चिन्तन परम्परा ने कबीर, नानक, सूर, तुलसी, जायसी और मीरा बाई जैसे महान भक्तों को जन्म दिया।