23 प्रगति‍शील हि‍न्दीो काव्यिधारा

प्रो. देवशंकर नवीन

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्‍त आप–

  • प्रगतिशील हि‍न्‍दी काव्‍य की पृष्ठभूमि से परि‍चि‍त होंगे।
  • प्रगतिशील चेतना के कारण सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों में आए बदलावों से परि‍चि‍त होंगे।
  • प्रगतिवाद की राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों से अवगत होंगे।
  • प्रगतिशील एवं प्रगतिवाद के विवाद को समझ सकेंगे।
  • प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्त‍ियों को जान पाएँगे।
  • छायावादोत्तर
  1. प्रस्तावना

 

हिन्दी में प्रगतिशील कविता का आविर्भाव सन् 1935-36 के आसपास हुआ। यह वह समय है जब भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में गरमदल प्रभावित हो रहा था। साथ ही विश्‍व मंच पर भी अनेकानेक परिवर्तन आ रहे थे। सन् 1935 में फ़्रांस में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। इसी वर्ष लन्दन में मुल्कराज आनंद और सज्जाद ज़हीर के प्रयास से भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई, जिसका पहला अधिवेशन सन् 1936 में प्रेमचन्द की अध्यक्षता में लखनऊ (भारत) में हुआ। अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रेमचन्द ने व्यक्तिवादी सौन्दर्य चेतना और काल्पनिक दुनिया से निकलकर नए जीवन यथार्थ को साहित्य में अभिव्यक्त करने की गुजारिश की। सन् 1936 में ही अखिल भारतीय किसान सभा का अधिवेशन हुआ। इन सबसे प्रभावित होकर कवियों को लगने लगा कि कविता को कल्पना से निकलकर यथार्थ से साक्षात्कार करने की आवश्यकता है। स्वयं छायावाद का घोषणा पत्र लिखने वाले सुमित्रानन्दन पन्त ने 1936 में युगान्त  की घोषणा की। निराला ने सन् 1937 में तोड़ती पत्थर  में यथार्थ का दर्शन किया, तो पन्त ने युगवाणी  में और प्रसाद ने कंकाल  में। इस तरह छायावादी कवि ही प्रगतिशील कविता के अग्रदूत रहे। आगे चलकर नागार्जुन आदि कवियों ने इसे उग्र स्वर प्रदान किया। इस पाठ में हम प्रगतिशील कविता के प्रारम्भ और विकास के साथ मूल प्रवृर्त्तियों आदि पर चर्चा करेंगे।

  1. प्रगतिशील काव्यधारा की पृष्ठभूमि

 

रोमांटिक साहित्य का जिस तरह जैसे फ़्रांसिसी क्रान्ति के साथ हुआ, उसी तरह रूसी क्रान्ति की सफलता के गर्भ से प्रगतिशील साहित्य का जन्म हुआ। हालाँकि कविता में प्रगतिशीलता तो आरम्भ से ही रही है, लेकिन जिस रूढ़ अर्थ में प्रगतिशील शब्द का प्रयोग होता है, उसका जन्म सन् 1917 की रूसी क्रान्ति के सफलता से ही माना जाता है। रूसी क्रान्ति की सफलता के बाद समाज और साहित्य दोनों में सर्वहारा वर्ग की मुक्ति की उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी। भारत में भी बुद्धिजीवियों का मानना था कि ‘लाल रूस है ढाल साथियो सब मजदूर किसानों की’। सन् 1925 में रसियन एसोसिएशन ऑफ़ प्रोलेटारियन राइटर्स (आर. ए. पी. पी.) की स्थापना सोवियत संघ में हुई। इस संघ के लेखकों की वैचारिक प्रतिबद्धता साहित्य में सिर्फ वर्ग-संघर्ष के विकास को दिखाना था। इस वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण इस संघ से जुड़े साहित्यकारों के लेखन का विकास अवरुद्ध हो गया, जिसका विरोध कुछ ही वर्षों बाद किया जाने लगा। विरोध के कारण मैक्सिम गोर्की ने ‘रसियन एसोसिएशन ऑफ़ प्रोलेटारियन राइटरस’ को भंग कर सोवियत लेखक संघ की स्थापना की। इस संघ से जुड़े लेखकों का भी दार्शनिक आधार मार्क्सवाद का दर्शन था। मार्क्स के विचारों से प्रभावित होकर सन् 1935 में फ़्रांस की राजधानी पेरिस में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। इसी वर्ष लन्दन में मुल्कराज आनंद और सज्जाद ज़हीर के प्रयास से भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन प्रेमचन्द की अध्यक्षता में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में सन् 1936 में हुआ। अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि “हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्‍च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो… जो हमें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्योंकि अब ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।” यही नहीं, प्रेमचन्द को पूर्व में ही आभास हो गया था कि ‘आने वाला जमाना अब किसान और मजदूरों का है।’ (जमाना, फरवरी, 1919) शिवदान सिंह चौहान ने मार्च सन् 1937 में विशाल भारत में एक लेख लिखकर ‘प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता’ पर बल दिया।

 

भारतीय राजनीति के बदलते करवट के अनुरूप प्रगतिशील साहित्य का आना स्वाभाविक ही था। गांधी के आगमन के साथ भारत में नरमदल का प्रभाव बढ़ा, किन्तु सन् 1928 के बाद भारतीय राजनीति में लगातार कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं, जिससे उग्रदल का प्रभाव बढ़ा। साइमन कमीशन की नियुक्ति से साथ ही उसका विरोध शुरू हुआ। पूरे देश में एक ही नारा गूँजने लगा– ‘साइमन वापस जाओ।’ लाहौर षड्यन्त्र के लिए भगतसिंह और उनके साथियों को 23 मार्च 1931 को फाँसी दे दी गई। जेल के दौरान भगतसिंह ने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन को सलाह देते हुए लिखा – ‘हमारा मुख्य लक्ष्य मजदूरों और किसानों को संगठित करना है।’ एक तरफ राजनीतिक दल किसान-मजदूर को संगठित कर आन्दोलन तेज कर रहे थे, तो दूसरी तरफ रचनाकार अपनी रचना द्वारा रूसी क्रान्ति के मजदूर-किसान की ताकत की गाथा सुना रहे थे। इसी दौरान भारतीय किसान सभा का अधिवेशन सन् 1936 में हुआ और इसी वर्ष कांग्रेस ने श्रमिकों के हितार्थ भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना की। इन सबकी कोख में पोषित होकर कविता राष्ट्रवादी चेतना के साथ किसान, मजदूर व आमजन के साथ सीधे-सीधे जुड़ गई।

  1. प्रगतिशील एवं प्रगतिवाद का वाद-विवाद

 

प्रगतिशील और प्रगतिवाद शब्द को लेकर एक विवाद की स्थिति बनी रही है। कई बार पाठक भी इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि उस खास समयावधि की कविता को क्या कहें – प्रगतिशील कविता या प्रगतिवादी कविता?

 

कुछ विद्वान मानते हैं कि प्रगतिशील और प्रगतिवाद में भेद है। उनके अनुसार प्रगतिवाद का साहित्य पूर्णतः मार्क्स के सिद्धान्त ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ को आधार बनाकर कविता लेखन करता है। कवि संघ या कम्युनिस्ट पार्टी से सीधे जुड़ा होता है या उसके निर्देशन में रचना कर रहा होता है। जबकि प्रगतिशील कविता मार्क्सवादी विचारधारा, गांधीवाद, अरविन्द का दर्शन आदि को कविता का दार्शनिक आधार के रूप में ग्रहण करती है।

 

प्रगतिवाद और प्रगतिशील का यह कृत्रिम भेद प्रगतिवाद को संकीर्ण और संकुचित रूप में देखता है, जबकि प्रगतिशील कविता को व्यापक और उदार रूप में। डॉ. नामवर सिंह ने इस भेद को अस्वीकार करते हुए लिखा है कि ‘जिस तरह छायावादी कविता और छायावाद भिन्‍न नहीं है, उसी तरह प्रगतिवाद और प्रगतिशील साहित्य भी भिन्‍न नहीं है। वाद की अपेक्षा शील को अधिक अच्छा और उदार समझकर इन दो में भेद करना कोरा बुद्धिविलास है।’ (आधुनिक साहित्य की प्रवृर्त्तियाँ)  प्रगतिवाद और प्रगतिशील कविता के इस भेद को अस्वीकार करने वाले आलोचकों में डॉ. रामविलास शर्मा, रांघेय राघव और अमृतराय के आदि नाम प्रमुख हैं।

 

 जैसे ही प्रगतिवाद का बन्धन टूटा और कविता को प्रगतिशील कहा जाने लगा, तो कविता प्रगतिवाद की सीमा से सन् 1943 में स्वतन्त्र होकर निरन्तर चलने वाली कविता बन गई, जिसमें अकविता, साठोत्तरी कविता और समकालीन कविता आदि सभी धाराएँ समाहित हुईं।

  1. प्रगतिशील कविता का दार्शनिक आधार

 

प्रगतिवाद और प्रगतिशील शब्द में अन्तर को रेखांकित करने वाले विचारक यह मानते हैं कि प्रगतिवादी साहित्य पूर्णतः मार्क्स की विचारधारा से प्रेरित है, प्रगतिशील कविता मार्क्स के विचारों के साथ गांधी के दर्शन, अरविन्द के चिन्तन आदि से दार्शनिक आधार ग्रहण करता है। स्पष्ट है कि शब्द का कोई भी प्रयोग हो मार्क्सवाद इस दौर की कविता का दार्शनिक आधार रहा है। रूसी क्रान्ति की सफलता के बाद सम्पूर्ण विश्‍व में मार्क्स के विचारों का प्रभाव बढ़ा। भारत में भी बुद्धिजीवियों ने मार्क्स को प्रलयंकर रूप में देखा–

 

धन्य मार्क्स! चिर तमाच्छन्‍न पृथ्वी के उदय शिखर पर

तुम त्रिनेत्र के ज्ञानचक्षु-से प्रकट हुए प्रलयंकर। (युगवाणी)

 

मार्क्सवाद दुनिया के इतिहास को वर्ग-संघर्ष के विकास के रूप में चिह्नित करता है। मार्क्स के चिन्तन को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहा जाता है, जो समाज की सिर्फ व्याख्या ही नहीं करता, बल्कि उसे बदलने की अनिवार्यता पर बल देता है। मार्क्सवाद यह मानता है कि ‘प्रत्येक वस्तु का विरोधी पक्ष उसी में सीमित रहता है, जो कुछ समयावधि तक दबा रहा सकता है। जिसे वाद कहते हैं। कुछ समय बाद विरोधी पक्ष वाद का विरोध करते हैं, जिसे प्रतिवाद कहते हैं। वाद और प्रतिवाद से एक नई शक्ति का विकास होता है। प्रगतिवादी कविता इसी वाद और प्रतिवाद के संघर्ष को रेखांकित करती है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का समर्थन करते हुए लिखा गया है–

 

कहता भौतिकवाद, वस्तु जगत का कर तत्त्वान्वेषण-

भौतिक भाव ही एक मात्र मानव का अन्तर्दर्पण ।

 

मार्क्सवाद के साथ गांधीवाद तथा अन्य विचारों का प्रभाव भी प्रगतिशील कविता पर रहा। समाजवाद-गांधीवाद कविता में साम्यवाद और गांधीवाद के बीच समन्वय स्थापित किया गया है–

 

मनुष्यत्व का तत्त्व सिखाता, निश्‍चय हमको गांधीवाद

सामूहिक जीवन विकास की साम्य योजना है अविवाद।

  1. छायावादोत्तर कविता की अन्य धाराएँ

 

छायावाद के बाद प्रगतिशील कविता के समानान्तर अन्य कई धाराएँ चल रही थीं, जिनमें हालावाद और राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा प्रमुख हैं। हालावाद के प्रमुख कवियों में हरिवंश राय ‘बच्‍चन’, भगवती चरण वर्मा, आरसी प्रसाद सिंह आदि थे। उनकी कविताओं में वैयक्तिकता का आग्रह था, किन्तु वे छायावादी कवियों से इस रूप में अलग हैं कि जहाँ छायावादी कवियों में हृदय और बुद्धि का द्वन्द्व है, इनके यहाँ बुद्धि गौण हो जाती है। बच्‍चन द्वारा किए गए अनुवाद खैय्याम की मधुशाला  के बाद कविता में हाला, प्याला, मधुशाला जैसे शब्द और उपमान का प्रयोग किया जाने लगा। इसके आधार पर ही इस धारा का नाम हालावाद पड़ा।

 

दूसरी प्रमुख धारा थी– राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा। हालाँकि कविता में राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति सन् 1857 की क्रान्ति के बाद से ही होने लगी। राष्ट्र के स्वरूप में हो रहे बदलाव के साथ कविता का स्वरूप भी बदला। राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक हलचलों ने भी राष्ट्रीयता को प्रभावित किया। भारतेन्दु युग में औपनिवेशिक सत्ता के लूट को उजागर किया जा रहा था, तो द्विवेदी युग में भी राष्ट्रवाद को प्रतिष्ठा दी जा रही थी। गांधी के आगमन के बाद भारतीय राजनीति में नरमदल का प्रभाव बढ़ा और कविता भी आत्मपीड़न को नरमी के साथ अभिव्यक्त करने लगी, लेकिन भारतीय राजनीति में गरमदल के प्रभाव, रूस की क्रान्ति की सफलता, भारत में वामपन्थ की स्थापना आदि के बाद इस युग की कविता ओजपूर्ण  और बुलन्द स्वर के साथ राष्ट्र मुक्ति में भागीदारी निभाने लगी–

 

तू चिनगारी बन कर उड़ री जाग-जाग मैं ज्वाला बनूँ

तू बन जा हहराती गंगा, मैं झेलम बेहाल बनूँ

आज बसन्ती चोला तेरा, मैं भी सज लूँ, लाल बनूँ!

तू भगिनी बन क्रान्ति कराली मैं भाई विकराल बनूँ! (भाई-बहन, रागनी)

 

इस धारा के प्रमुख कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’, गोपाल सिंह नेपाली, सियाराम शरण गुप्‍त, उदयशंकर भट्ट और सोहनलाल द्विवेदी आदि हैं। इनकी कविता में राष्ट्रीय चेतना अधिक दिखती है, इसलिए इन्हें राष्ट्रीय-सांस्कृतिक धारा के कवि के रूप में चिह्नित किया जाता है, अन्यथा इनकी कविताएँ प्रगतिशील चेतना से ही संचालित होती रही हैं।

  1. प्रगतिशील कविता की मूल प्रवृर्त्तियाँ

 

नागरिक जीवन के दुख-दुविधा, सुख-सुविधा की समझ, जमाखोरी का विरोध, स्थापित समाज व्यवस्था की रूढ़ियों और जड़ मनस्थितियों का खण्डन, राष्ट्र एवं विश्‍व के प्रति सजग दृष्टि; नीति मूल्य, जीवन-मूल्य, मानव-मूल्य, सम्बन्ध मूल्य की मौलिकता की समझ; जीवन की सहजता बाधित करने वाली जर्जर मान्यताओं, पद्धतियों का तिरस्कार, प्रगति और परिवर्तन के प्रति चेतना, समाज को मानवीय और नैतिक बने रहने, अधिकार-रक्षण हेतु संघर्षोन्मुख रहने की प्रेरणा, स्पष्ट सम्प्रेषण के प्रति सावधानी… प्रगतिशील काव्यधारा के ये कुछ मूल स्वभाव उस दौर की सारी रचनाओं में आसानी से दिखते हैं। यहाँ नए के प्रति बेवजह आग्रह नहीं है, पुराने के प्रति बेवजह घृणा नहीं है। पूरी तरह संयमित विवेक के साथ प्रगतिवाद का प्रवेश और आह्वान हुआ।

 

1.गाँव, प्रकृति और किसान-मजदूरों के चित्र

 

किसी वस्तु या विषय को देखने की पद्धति में ही कवि की जीवन-दृष्टि और काव्य-दृष्टि छुपी रहती है। प्रगतिशील काव्यधारा इस दिशा में ग्रामीण परिदृश्य और जनपदीय भदेसपन के नितान्त करीब दिखती है। इस धारा के कवि ऐसे प्रतीकों से चित्र गढ़ते हैं कि प्रसंग प्राणवाण हो उठता है। गाँव-देहात का अकृत्रिम जीवन, जीर्ण स्वास्थ्य, ठेठ दृश्यावली हर कोई देखता है, पर सुमित्रानन्दन पन्त देखते हैं –

 

मिट्टी के मैले तन अधफटे कुचैले जीर्ण वसन

ज्यों मिट्टी के बने हुए ये गँवई लड़के भू के धन

कोई खण्‍डि‍त कोई कुण्ठित, कृशबाहु पसलियाँ रेखांकित

टहनी-सी टाँगें, बड़ा पेट, टेढ़े-मेढ़े विकलांग घृणित।

 

कवि‍ को ये लोग अभाव, भूख, कुपोषण, शोषण के भुक्तभोगी दिखते हैं। बिम्ब में व्यंग्य का दंश तीक्ष्णतर करने में उन्हें सिद्धि प्राप्‍त थी। पवित्रता की मूर्ति और ग्राम-देवता समझे जानेवाले शिक्षक के नशेड़ी और व्यसनी हो जाने की स्थिति पर इसी तरह कवि की जनासक्ति, ग्राम-मोह और व्यंग्य-प्रहार ग्राम देवता  कविता में उभर उठा है।

 

प्रगति-चेतना और आत्मबोध ने उस दौर के कवि-नागरिक के मन में साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, शोषण, जीवन को असहज बनाने वाले आचरण और श्रमजीवियों के प्रति हिकारत भाव रखने वाले लोगों के प्रति घृणा, धिक्‍कार, क्रोध और तिरस्कार की ज्वाला उठा दी थी। इस धिक्‍कार और घृणा को कविता में व्यक्त करने का बेहतरीन तरीका व्यंग्य ही था। प्रगतिशील रचनाकारों ने इसे अपना अचूक हथियार बनाया। व्यंग्य का जितना बहुविध विकास प्रगतिवाद के दौर में हुआ, उतना शायद ही पहले कभी हुआ हो। यहाँ व्यंग्य में भी प्रयोग दिखता है। बड़े आराम से फरियाद, वक्तव्य और प्रशंसा की तरह बात कही जाएगी और अपने प्रभाव में वह बात विषबाण की तरह असर करेगी। अपनी कविता प्रेत का बयान  में नागार्जुन अपने परिवेश के आर्थिक, राजनीतिक ढाँचे का जर्रा-जर्रा उधेड़ देते हैं। एक प्रेत अपनी मृत्यु का कारण बताता है–

 

भूख या क्षुधा नाम हो जिसका

ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको

सावधान महाराज,

नाम नहीं लीजिएगा

हमारे समक्ष फिर किसी भूख का

 

यमराज और मृत मास्टर के प्रेत के संवाद को अंकित करती यह कविता जमाखोरी, अभाव, भूख… पूरी व्यवस्था पर आघात करती है। जिस दौर के समाज की सबसे बड़ी विडम्बना भूख थी, उस दौर में एक मृतात्मा को, एक प्रेत को उस भूख शब्द से चिढ़ हो गई थी। वक्तव्य की यह सहजता ही यहाँ व्यंग्य का उत्कर्ष उपस्थित करती है। उधर केदारनाथ अग्रवाल की युग की गंगा  में श्रमजीवियों के खून पसीने से तैयार महल, अटारी, हाट, बाजार की चकाचौंध में यह बात अलक्षित रह जाती है कि इसकी नींव श्रमजीवियों के पसीने से भीगी हुई है–

 

            घाट, धर्मशाले, अदालतें

            विद्यालय, वेश्यालय सारे

            होटल, दफ्तर बूचड़खाने

            मन्दिर, मस्जिद, हाट सिनेमा

            श्रमजीवी की हड्डी पर टिके हुए हैं

 

व्यंग्य और उद्घोषणा का यह क्रम पन्त और निराला के समय से ही चल पड़ा था। मानवता की दुहाई देते हुए उस दौर के करीब-करीब कवियों के यहाँ श्रमिक, सर्वहारा, भिक्षुक, दीनहीन, समय के मारे लोगों के जीवन के यथार्थ दर्ज हुए। धिक्‍कार, पुकार, आह्वान, चेतावनी, धमकी, निर्णय… सारे स्वर इन कविताओं में दर्ज हुए। तोड़ती पत्थर  जैसी कई कविताओं में अंकित चित्र–व्यक्ति, समाज, व्यवस्था, जीवन, मानवता–जैसे बुनियादी तत्त्वों की निरर्थकता की ओर संकेत करने लगते हैं। दो टूक कलेजे के करता पछताता  पथ पर आता भिक्षुक भी निराला की मानवता को धिक्‍कारता है–

 

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक

चल रहा लकुटिया टेक

मुँह फटी-पुरानी झोली को फैलाता

 

समकालीन नागरिक परिदृश्य के मद्देनजर स्वतः जाग्रत भारतीय चेतना, किसान-मजदूर, श्रमिक-सर्वहारा सहित आम नागरिक का आत्मबोध और स्वातन्‍त्र्य-चेतना स्वयमेव पर्याप्‍त प्रगतिशील थी; सुकर और सुखकर यह हुआ कि विश्‍व फलक के राजनीतिक परिवर्तन, सांस्कृतिक जागरण और बौद्धिक उत्थान का सहयोग भी भारतीय मूल के इस आन्दोलन को मिला।…

 

2.किसान-मजदूर का जीवन-गीत

 

प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और प्रगति-चेतना के सम्बन्ध में लेखादि का प्रकाशन भले ही सन् 1935-36 के बाद हुआ हो, मगर प्रगति-कामना हिन्दी कवियों की उससे कई वर्ष पूर्व जाग उठी थी। सन् 1923 में ही निराला ने किसानों के पक्ष में आह्वान किया–

 

जीर्ण बाहु, है जीर्ण शरीर

तुझे बुलाता कृषक अधीर

ऐ विप्लव के वीर

 

यहाँ विप्लव के वीर कवि‍ स्वयं हैं और समाज के सभी नागरिक हैं। मानव जीवन के इस अभाव और संकट को उन्होंने कई जगह दर्ज किया। प्रकृति प्रेम से लेकर देवी-वन्दना तक में उन्हें किसान और गृहस्थ-जीवन याद आया। प्रकृति-प्रेम की कविता बादल राग  में भी वैसा स्‍वर देखा जा सकता है।

 

व्यंग्य और धिक्‍कार की यह शैली प्रगतिवादी कविता में विषय वैविध्य के साथ अगली पीढ़ी में भी फली-फूली। निहायत मामूली, रोजमर्रे के जीवन से लिया गया अपारम्परिक विषय, ठेठ शब्दावाली, चलताऊ भाषा, जनपदीय मुहावरे, चौपाली अन्दाज…सब के सब अचानक शास्‍त्रीय आडम्बर या कौलिक श्रेष्ठता की फुनगी से उतरकर नागार्जुन के यहाँ जमीन पर आ जाते हैं।

 

सन् 1930-35 से लेकर सन् 1947-48 और उसके आगे सन् 1962 तक देश के विभिन्‍न भू-खण्डों और जनवृत्तों में तरह-तरह की घटनाएँ घटीं–बंगाल में अकाल पड़ा, द्वितीय महायुद्ध से उत्पन्‍न पराभव जन-जन के सिर नाचने लगा, नौ-सेना विद्रोह हुआ, सन् 1942 की शहादत हुई, देश आजाद हुआ, विभाजन हुआ, दंगों में खून की होली खेली गई, अंग्रेजी साँसत से देश मुक्त हुआ, जनता चैन की साँस लेने को सोच ही रही थी कि पण्‍डि‍त जवाहर लाल नेहरू का राजनीतिक मोहभंग हुआ… निरन्तर घटनाएँ घटती रहीं। स्वेदशी शासन व्यवस्था में जिस तरह की जीवन-व्यवस्था की कामना लेकर प्रगतिशील लेखक आगे बढ़े थे, उन कामनाओं और सपनों पर तुषारापात हो गया। मगर प्रतिबद्ध रचनाकार विचलित नहीं हुए; डटे रहे। मैत्री का समझौता कर लेने के बावजूद  सन् 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया और लद्दाख में पन्द्रह बीस हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर लिया, तो शमशेर बहादुर सिंह ने अपनी कविता सत्यमेव जयते  में लिखा…

             

                इस धोखे का नाम दोस्ती है और इस दोस्ती को हम

                चीन कहते हैं…

                माओ ने सब कुछ सीखा, एक बात नहीं सीखी

 

यह कविता सरसरी तौर पर सपाट लग सकती है, पर कवि की बड़ी जिम्मेदारी होती है। राष्ट्रीय संकट की घड़ी में ओछी लिप्सा त्यागकर प्रगतिशील कवियों ने अपना दायित्व जिस निष्ठा और समझ-बूझ के साथ निबाहा, वह हिन्दी कविता, भारतीय साहित्य और भारत की राष्ट्रीय अस्मिता के लिए अप्रतिम उदाहरण है। शायद यही कारण है कि आज की समकालीन कविता में भी उनकी चेतना और समझ बूझ की पद्धति जीवित है।

 

3.श्रम-शक्ति पर आस्था

 

प्रगति-चेतना से भरी हुई यह काव्यधारा जब अपनी पूरी ताकत से आगे बढ़ी, तो जाहिर है कि उसमें रूस, मास्को, मार्क्‍स, लेनिन, हँसिया-हथौड़ा… सबको जगह मिली, सबका उपयोग हुआ; मगर यह उपयोग कोई फैशन नहीं था। केदारनाथ अग्रवाल की एक बच्‍चे के जन्म पर  लिखी कविता में ‘एक हथौड़े वाला घर में और हुआ’  पंक्ति देखकर कुछ लोगों के कान खड़े हुए और उन्होंने ‘हथौड़े’  को ‘हँसिया-हथौड़ा’  और कम्युनिस्ट पार्टी से जोड़ लिया। पर लोग भूल जाते हैं कि ‘शब्द’ पदार्थ का कण नहीं है, शब्द का कोषीय अर्थ पर्याप्‍त नहीं होता, उसका पाठ-सम्मत अर्थ होता है–

 

एक हथौड़े वाला घर में और हुआ

हाथी-सा बलवान जहाजी हाथों वाला और हुआ

                   

सुन लो री सरकार, कयामत ढाने वाला और हुआ…

 

यहाँ कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि एक मजदूर परिवार अपनी नवजात सन्तान के लिए जो सपने देख सकता है, वे सारे सहज सपने हैं। हथौड़े के साथ-साथ उसे कहीं असहाय और दुर्गतिबोध नहीं है। हर जगह जोश है। उस परिवार को हाथी-सा बलवान, सूरज-सा इनसान, तरेरी आँखें, अँधेरा हरने वाला, कयामत ढाने वाला… उस बच्‍चे में सब कुछ दिखता है। यह सारा कुछ देखने की प्रक्रिया कवि की अपनी जीवन-दृष्टि के आधार पर होती है।

 

गिरिजा कुमार माथुर शाम की धूप  में मध्यवर्ग की व्यथा व्यक्त करते समय थकान उतारने की चिन्ता में लीन हो जाते हैं, अस्ताचल को जाती धूप में मध्यवर्गीय थकान मिटाने की बेला के आने की कल्पना में खो जाते हैं–

 

घर के उस फूल पर यह मन की बून्द

ठहरना चाहती सुध-बुध खोकर

जिससे उतरे थकान तन-मन की

डूबकर रात की मिठासों में…

 

त्रिलोचन शास्‍त्री को धूप सुन्दर  कविता में यह धूप किसानों के खिले सरसों से भरे खेत-सी दिखी, सारा जग सुन्दर दिखा, प्रकृति चित्रण करते वक्त भी उन्हें मानव और जग याद आया–

 

सघन पीली

ऊर्मियों में

बोर हरियाली सलोनी

झूमती सरसों

प्रकम्पित वात से

अपरूप सुन्दर

धूप सुन्दर

धूप में जग सुन्दर…

 

यह धूप केदारनाथ अग्रवाल के यहाँ ‘मैके आई हुई लड़की की तरह मगन होकर घूमती हुई’  आती है। कविता का क्षेत्र विस्तार प्रगतिवाद के प्रारम्भिक काल से ही हुआ। मानव वि‍रोधी आचरणों के प्रति‍कार में कविगण शुरू से ही डटे हुए थे। व्यंग्य, विवरण, धिक्‍कार, फटकार, घोषणा, धमकी… सभी तर्ज पर कविता सामने आई। पूँजीवाद के विरुद्ध मुक्तिबोध ने आवाज उठाई और उसका भविष्य निर्धारित कर दिया –

 

तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ

तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ…।

नरेन्द्र शर्मा ने गुलामी की जंजीर  तोड़ संघर्ष की दुधारी तेग  अपनाने को ललकारा–

एक ओर जंजीर, दूसरी ओर पड़ी है तेग दुधारी

जो चाहे ले आगे आ तू

 

रामविलास शर्मा ने योजना बनाकर सामन्त विरोध का सूत्र थमाया–

 

बोना महातिक्त वहाँ बीज असन्तोष का       

काटनी है नए साल फागुन में फसल जो क्रान्ति की…

 

सुमित्रानन्दन पन्त ने ग्राम्या  में, निराला ने नए पत्ते  में किसानों के हित की बातें कीं, अगली पीढ़ी ने आश्‍वस्त दृष्टि से क्रान्तिकारी शक्ति की ओर देखा। त्रिलोचन शास्‍त्री ने मुक्तिकामी जनता की गतिविधियों में अपनी धड़कन देखी–

 

अपनी मुक्ति कामना लेकर लड़ने वाली

जनता के पैरों की आवाजों में मेरा

हृदय धड़कता है…

 

केदारनाथ अग्रवाल को तो ‘बसन्ती हवा’ की हरकतों में जनोल्लास दिखने लगे। प्रगतिशील दृष्टि वाले कवियों की तरह प्रसंगों को ऐसी समूहवादी और मानवतावादी दृष्टि से देखने की उदारता औरों में नहीं।

 

4.प्रेम-प्रकृति

 

प्रगतिशील कवियों की जीवन-दृष्टि का वैराग्‍य उनकी प्रेम कविताओं में भी स्पष्ट दिखता है। उनका प्रेम स्वस्थ, स्वच्छन्द और स्फूर्तिदायक है। यह प्रेम वैयक्तिक और क्षणिक अनुभूति से बाहर आकर विराट रूप धरता है; समाज और राष्ट्र तक का विस्तार पाता है। त्रिलोचन शास्‍त्री के यहाँ प्रेम का विस्तार कुछ यूँ है–

 

कभी कभी यों हो जाता है

गीत कहीं कोई गाता है

गूँज किसी उर में उठती है

तुमने वही धार उमगा दी

 

यही प्रेम उस दौर के कवियों को मानव, समाज, राष्ट्र, विश्‍व के प्रति अनुरक्त और आसक्त करता होगा; सामाजिक यथार्थ, समूह के लास-अभिलाष से जोता होगा। भविष्य और जनशक्ति के प्रति आस्था इसी विराट प्रेम की परिणति है। अनिष्ट से लड़ना, वर्तमान को सुधारना और सुन्दर भविष्य के लिए उद्यमशील होना प्रगतिशील कविता और कवि की मूल वृत्ति तो है ही; साथ ही अतीत पर रोदन, वर्तमान का नकार और भविष्य के प्रति लापरवाही इस धारा का दाय कभी नहीं रहा। नागार्जुन को आषाढ़स्य प्रथमे दिवसे  में प्रवास में रहकर मातृभूमि की याद आती है, किन्तु मातृभूमि के प्रति उस प्रेम के बावजूद उन्हें प्रवास की धरती अनुदार, बेगानी और संवेदनविहीन नहीं लगती। उनकी यही उदारता उन्हें औरों से अलग करती है और उनकी सुलझी हुई समझ का सबूत पेश करती है। वे कहते हैं–

 

यहाँ भी हैं व्यक्ति और समुदाय

किन्तु जीवन भर रहूँ फिर भी प्रवासी ही कहेंगे हाय!

मरूँगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल

समय चलता जाएगा निर्बाध अपनी चाल!

 

यह मानव जीवन का असल यथार्थ है। इस यथार्थ में कहीं कोई दुराव छिपाव नहीं है, प्रेम और उदारता का नाटक नहीं है। प्रगतिशील कविता की यही निश्छलता उसकी धारा को दीर्घकालीन बना सकी।

  1. स्वातन्त्र्योत्तर-काल में प्रगतिशील चेतना

 

प्रगतिशील कविता की जो यात्रा शुरू हुई, उसका भटकाव कुछ समय के लिए प्रयोगवाद के समय हो गया; किन्तु शीघ्र ही प्रगतिशील चेतना के साथ वह वापस आ गई। स्वाधीनता के बाद भी देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक अवस्थिति और देश की शासन व्यवस्था में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। मुट्ठी भर लोग आजादी के जश्‍न में लिप्‍त रहे और आम नागरिक बुनियादी सुविधाओं से वंचित रहा। प्रगतिशील चेतना के रचनाकारों की नजर से यह पाखण्ड बचा नहीं रहा। इस मोहभंग ने उन्हें वैचारिक रूप से उद्वेलित किया, उनके सृजन की दुनिया को नई ऊर्जा दी। चोर-चोर मैसेरे भाई की नई शासन-व्यवस्था पर नागार्जुन ने प्रतिक्रिया दी–

 

अंग्रेजी-अमरीकी जोंकें, देशी जोंके एक हुईं

नेताओं की नीयत बदली, भारत माता की टेक हुई…

नागार्जुन की शैली तो प्रारम्भ से ही व्यंग्यात्मक थी; आजादी के बाद उनका व्यंग्य और आक्रामक हो गया। मुक्तिबोध ने देखा–

पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता

स्वातन्‍त्र्य व्यक्ति का वादी

छल नहीं सकता मुक्ति के मन को

गिरिजा कुमार माथुर देखते हैं –

वह नहीं इंसान की है सभ्यता

स्वार्थ, लालच, युद्ध जिसके देवता

मूलधन हिंसा, गुलामी सूद है

आदमी बन्दूक की बारूद है…

 

इस बीच नए जोश के साथ आए कई नवागन्तुक कवि धूमिल, लीलाधर जगूड़ी आदि की कविताओं में भी इस सूत्र की पड़ताल की जा सकती है। सन् 1947-1967 के बीस वर्षों की नीति देखकर तैयार हुई इस नई पीढ़ी का रोष पूर्ववर्तियों की तुलना में थोड़ा तल्ख, मगर विचार-पद्धति सुदृढ़ और सुविचारित हुआ। यहाँ तक आते-आते कविता की भाषा में प्रहार बढ़ गया। धूमिल ने कहा –

 

दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र

एक ऐसा तमाशा है

जिसकी जान

मदारी की भाषा है…

रघुवीर सहाय ने कहा –

न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अन्दर एक कायर

टूटेगा टूट

मेरे मन टूट मत झूठ-मूठ ऊब मत रूठ

 

इस आस्था का लौट आना, मन के भीतर बैठे कायर को टूटने की आज्ञा देना, उस समय की बड़ी घटना थी। कविता में कवि का यही आत्म-संकल्प हिन्दी कविता को प्रगतिशील जनवाद से और आगे फिर समकालीन कविता से जोड़ता है।

  1. निष्कर्ष

 

प्रगति-चेतना लोक-मंगल की भावना और प्रेम के विस्तार के कारण छायावाद के समक्ष खड़ी हुई। प्रयोगवाद के तुमुल नाद; प्रपद्यवाद, नकेनवाद, अकविता, भूखी पीढ़ी, बिटनीक पीढ़ी आदि के कोलाहल को पारकर, उन सबमें अपना सूत्र छोड़ती हुई, साठोत्तरी और समकालीन हिन्दी कविता में भी अपनी मूल अवधारणाओं के साथ उपस्थित हुई। कल्पना और भावोच्छवास में तैरते विषय और भाव को जमीन पर उतार लाने का श्रेय प्रगतिवाद को जाता है। बड़ी संख्या में रचनाकारों ने प्रगतिशील विचारधारा से अपनी यात्रा शुरू की, नई पीढ़ी भी बनी और पुरानी पीढ़ी के लोग भी जीर्ण-पुरातन छोड़कर इसमें आ जुटे। यह धारा किसी नेता या दल का मोहताज नहीं हुआ। अपनी पूरी साहित्यिक यात्रा में प्रगतिशील हिन्दी कवियों ने रचनात्मक जिम्मेदारी निभाई और परवर्ती पीढ़ी को अपनी चिन्तन पद्धति का उत्तराधिकार सौंप गए। इन दिनों वही धारा समकालीन कविता के रूप में चल रही है।

 

 

 

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वेब लिंक्स    

  1. http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3382&pageno=9
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%AF%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE
  3. http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=2004&pageno=1
  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A8_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%B5_%27%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%A7%27