6 कृष्णभक्ति काव्यधारा

डॉ. ओमप्रकाश सिसह

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • कृष्ण काव्यधारा के आदि स्रोत की समझ बना सकेंगे।
  • आदिकाल में कृष्णभक्ति काव्यधारा की प्रमुख रचनाओं से परिचित हो सकेंगे।
  • भक्तिकाल के श्रीकृष्ण से सम्बन्धित रचनाओं और रचनाकारों के बारे में जान सकेंगे।
  • आधुनिक काल में लिखे गए कृष्णकाव्यों से परिचित हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

कृष्णभक्ति काव्यधारा काफी पुरानी है। हिन्दी से पूर्व संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य में कृष्णभक्ति से सम्बन्धित अनेक कार्य मिलते हैं। श्रीकृष्ण को विष्णु के अनेक अवतारों में से एक अवतार माना गया है। कृष्णावतार अद्भुत और विविधतापूर्ण है। श्रीकृष्ण का उल्लेख वैदिक साहित्य से ही मिलने लगता है। ऋग्वेद में कृष्ण का उल्लेख ऋषि या रचयिता के रूप में मिलता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में कृष्ण आंगिरस ने अपने शिष्य को जो उपदेश दिया है और गीता में कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया है उसमें अदभुत समानता है। वैदिक साहित्य के श्रीकृष्ण न तो अवतार हैं और न देवता। वे आंगिरस के शिष्य और देवकी पुत्र हैं।

 

वैदिक परम्परा से ही भागवत धर्म का उदय हुआ। इसी धर्म का विकसित रूप वैष्णव धर्म है। प्रसिद्ध ग्रन्थ महाभारत से पूर्व का साहित्य मानव-कृष्ण की बात करता है, महाभारत में श्रीकृष्ण अवतार रूप में स्वीकार कर लिए गए हैं। महाभारत में कृष्ण देवत्व की महिमा से मण्डित हैं। वे नारायण हैं। कृष्णकाव्यों में उनके एक रूप गोपाल की विस्तृत चर्चा मिलती है। भागवतपुराण में कृष्णचरित का विस्तृत वर्णन हुआ है। लौकिक साहित्य में श्रीकृष्ण का उल्लेख व्याकरण ग्रन्थों, चम्पू काव्यों और नाटकों से मिलने लगता है। भास, अश्‍वघोष और कालिदास की रचनाओं में श्रीकृष्ण का उल्लेख मिलता है। माघ के शिशुपाल वध में श्रीकृष्ण का विस्तृत वर्णन है। गीत गोविन्द की रचना जयदेव ने की है। कृष्णभक्ति काव्यधारा में गीत गोविन्द  का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह भक्ति और शृंगार से समन्वित रचना है। इसके तीन मुख्य पात्र हैं – कृष्ण, राधा और राधा की सखी। अपभ्रंश साहित्य की महत्त्वपूर्ण रचना स्वयंभू कृत अरिष्टनेमचरिउ  में श्रीकृष्ण का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसी तरह आचार्य गुणभद्र लिखित उत्तरपुराण  भी कृष्णभक्ति काव्यधारा में परिगणित किया जाने वाला प्रसिद्ध ग्रन्थ है। हेमचन्द्र के अनेक दोहों में श्रीकृष्ण का स्तुतिपरक चित्रण है। इनके कुछ दोहों में कृष्ण के लौकिक रूप का भी चित्रण है। इनके श्रीकृष्ण राधा के पयोधरों को देखकर नाच उठते हैं।

  1. आदिकाल और कृष्णभक्ति काव्यधारा

 

आदिकाल में भी कृष्णभक्ति काव्य की क्षीण-सी परम्परा दिखाई देती है। चन्दवरदाई के पृथ्वीराज रासो  में विष्णु के दशावतारों का वर्णन हुआ है। इसमें अन्य अवतार तो संक्षिप्‍त रूप से वर्णित हैं, पर कृष्णावतार का व्यापक वर्णन हुआ है। विद्यापति अपभ्रंश काव्य परम्परा के अन्तिम और लोकभाषा के पहले महत्त्वपूर्ण कवि हैं। विद्यापति कृष्णकाव्य की रचना लोकभाषा में करने वाले पहले कवि हैं। यद्यपि वे कई भाषाओं के ज्ञाता थे, पर राधाकृष्ण की संयोग लीला का वर्णन करने के लिए उन्होंने लोकभाषा मैथिली का चयन किया। पदावली में मंगलाचरण के रूप में राधाकृष्ण की वन्दना करते हुए विद्यापति ने लिखा है–

 

नन्दक नन्दन कदम्बक तरु तर, धिरे धिरे मुरलि बजाव

समय संकेत निकेतन बइसल, बेरि बेरि बोलि पठाव

सामरि तोरा लागि, अनखन विकल मुरारि

जमुनाक तिर उपवन, उदवेगल फिर फिर ततहि निहारि

गौरस बेचए अबइत जाइत जनि जनि पुछ बन मारि।।

 

विद्यापति की राधा माधव-माधव का सुमिरन करते हुए खुद मधाई (माधव) हो जाती हैं। माधव और राधा अलग नही हैं। उनका प्रेम जन्म-जन्मान्तर का है, क्षण-क्षण नवीन होने वाला –

 

सखि कि पूछसि अनुभव मोय।

सेहो पिरित अनुराग बखानिए तिल तिल नूतन होय

जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।।

  1. भक्तिकाल और कृष्णभक्ति काव्यधारा

 

विद्यापति के बाद भक्तिकाल के वल्लभ सम्प्रदाय के साहित्य में कृष्णभक्ति काव्य को विशेष महत्त्व प्राप्‍त हुआ। वल्लभ सम्प्रदाय के प्रर्वतक स्वामी वल्लभाचार्य थे। उन्होंने शंकर के मायावाद का खण्डन कर ब्रह्म के अवतारों के प्रति लोगों के हृदय में श्रद्धा और विश्‍वास उत्पन्‍न करने का कार्य किया। ब्रज क्षेत्र में भक्ति का व्यापक प्रचार करने वाले वे ही हैं। वल्लभाचार्य और उनके पुत्र विट्ठलनाथ ने शुद्धाद्वैत दर्शन और भक्ति मार्ग पर अनेक ग्रन्थों की रचना की। इसी सम्प्रदाय में सूरदास, परमानन्ददास, कृष्णदास, नन्ददास, कुम्‍भनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी और गोविन्दस्वामी दीक्षित हुए थे। इन्हीं आठों कृष्ण भक्त कवियों को अष्टछाप  के नाम से जाना जाता हैं। इन कवियों ने श्रीकृष्ण के चरित्र को भक्ति-भावना से शान्त, दास्य, वात्सल्य, सख्य और मधुर नामक पाँच रूपों में अभिव्यक्त किया है। भक्ति के इन्हीं रूपों को पंचभावोपासना  कहते हैं। अष्टछाप के कवियों में सूरदास का नाम सर्वप्रमुख है।

 

कृष्णभक्ति शाखा में सूरदास को ब्रजभाषा के प्रथम कवि के रूप में स्वीकार किया गया है। सूरदास की सूरसागर, सूरसारावली और साहित्यलहरी  नामक तीन रचनाएँ हैं। हालाँकि कुछ विद्वान साहित्यलहरी को सूरदास की रचना नहीं मानते। सूरदास ने अपनी रचनाओं में कृष्ण-जन्म, उनकी बालोचित क्रीड़ाओं, गोचारण, राधा और गोपियों के साथ प्रेम क्रीडा, अनेक असुरों का वध, गोवर्धन धारण, मथुरा-गमन, कंस-वध, द्वारिका गमन और कुरुक्षेत्र में राधा और गोप-गोपियों से पुनर्मिलन का प्रभावी चित्रण किया है। सूरदास के कृष्ण परब्रह्म हैं। उनकी भक्ति सख्य भाव की है। उनके साहित्य में विनय और दास्य भाव के पद कम हैं, किन्तु कृष्णभक्ति काव्य के इन पदों का विशेष महत्त्व है। सूरदास के श्रीकृष्ण भक्तों की पुकार सुनते ही दौड़ पड़ते हैं। उनके कृष्ण की घोषणा है–

 

हम भक्तन के भक्त हमारे

भक्तै काज लाज हिय धरिकै पाय पयोद धाँऊ।

तहँ-जहँ पीर पड़ै भक्तन पै तहँ तहँ जाय छुड़ाऊँ।।

 

सूरदास रचित बहुचर्चित कृष्णभक्ति काव्य सूरसागर है। इसमें शृंगार और भक्ति की त्रिवेणी प्रवाहित हुई है। कृष्ण काव्य-परम्परा में सूरसागर का विशेष महत्त्व है। कृष्ण-जन्म के आनन्द एवं बधाई के साथ इस ग्रन्थ में कृष्ण की बाललीला प्रारम्भ होती है। यहीं से सूर का वात्सल्य वर्णन भी प्रारम्भ हो जाता है। बालक श्रीकृष्ण को सूरदास ने अलौकिक और दिव्य रूप में चित्रित किया है। श्रीकृष्ण के बालरूप को देखकर देवताओं का मन तृप्‍त नहीं होता –

 

सोभा कहत कही नहीं आवै।

अचवत अति आतुर लोचन पुट मन न तृप्ति को पावै।।

 

माता यशोदा श्रीकृष्ण को चलना सिखाती हैं। बालक श्रीकृष्ण चल नहीं पाते, जमीन पर पैर रखते हैं, पर डगमगा जाते हैं –

 

सिखवत चलन जसोदा मैया।

अरबराय करि पानि गहावति, डगमगाइ धरति धरै पैयाँ।।

 

अपने प्रतिबिम्ब को पकड़ने की कोशिश हर बालक करता है। नन्द के मणि-खँचित आंगन में श्रीकृष्ण भी अपना प्रतिबिम्ब पकड़ने के लिए दौड़ रहे हैं –

 

किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।

मनिमय कनक नन्द के आँगन बिम्ब पकरिबे धावत।।

 

बालकों की अन्तःप्रकृति के चित्रण में सूरदास अद्वितीय हैं। बालक श्रीकृष्ण के अनेक वाल्यभावों की उन्होंने सुन्दर व्यंजना की है। कभी श्रीकृष्ण अपनी चोटी बढ़ने की बात करते हैं, तो कभी गोपी के घर में मक्खन चुराते हुए पकड़ लिए जाने पर तर्क और चतुराई से भरा उत्तर देते हैं –

 

मैं जान्यौं यह घर अपनो है, या धोखे में आयो।

देखत ही गोरस में चींटी, काढ़न को कर नायो।।

 

कृष्ण की वर्षगाँठ पर माता यशोदा प्रसन्‍न होकर सखियों के साथ मंगलगान करती हैं। आंगन में मोतियों से चौक पुरवाती हैं और तैयारी करती हैं –

 

अरी मोरे लालन की आज बरसगांठि सबै,

सखिन को बुलाइ मंगलगान करावौ।।

चन्दन आँगन लिपाइ मोतियन चौक पुराइ,

उमगि अंगन आनन्द सौं तूर बजावौ।।

 

कृष्ण के गोचारण के अनेक चित्रों से सूरसागर भरा हुआ है। यमुना के तट पर किसी बड़े पेड़ की छाया में श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ मिलकर बैठते हैं, खेलते हैं और गाय चराते हैं। उसी पेड़ के नीचे सब मिलजुल कर कलेवा खाते हैं। गायों के दूर चले जाने पर एक सखा श्रीकृष्ण को पेड़ पर चढ़कर गायों को बुलाने की सलाह देता है –

 

द्रुम चढ़ि काहे न टेरति, कान्हा गैया दूर गई।

धाई जाति सबन के आगे, जे वृषभान दई।।

 

श्रीकृष्ण जब तक ब्रज में रहे बाललीला करते रहे, वह कृष्ण भक्ति के वात्सल्य का संयोग पक्ष है। सूरदास वात्सल्य के वियोग पक्ष के वर्णन में भी सिद्धहस्त थे। श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर नन्द, यशोदा तथा ब्रज के लोग दुख के सागर में पीड़ित हो जाते हैं। नन्द उन्हें लौटाने मथुरा जाते हैं, परन्तु श्रीकृष्ण नहीं आते। यशोदा खीझकर नन्द से कहती हैं –

 

छाड़ि सनेह चले कत, मथुरा कत दौरि न चिर गह्यौ।

फाटि न गई ब्रज की छाती, कत यह सूल सह्यौ।।

 

कृष्ण के वियोग में यशोदा रात-दिन पागल-सी रहती हैं। उन्हें सारा ब्रज काटने दौड़ता है। वे ब्रज छोड़ने को तैयार हो जाती हैं और नन्द से कहती हैं –

 

नन्द ब्रज लीजै ठोक बजाय।

देहु बिदा मिलि जाहूँ, मधुपुरी, जहँ गोकुल के राय।।

 

कृष्ण के वियोग में ग्वाल-बालों और उनके सखाओं की भी दशा बिगड़ गई है। वे कृष्ण की निष्ठुरता पर क्षुब्ध हैं –

 

भए हरि मधुपुरी राजा बड़े वंस कहाय।

सूत मागध वदत विरूदहि वरनि बसुद्यौतात।

राज भूषन अंग भ्राजत अहिर कहत लजात।

 

यशोदा, नन्द और ग्वाल बालों के वियोग वर्णन के पश्‍चात सूरदास ने गोपियों के वियोग का वर्णन प्रारम्भ किया है। कृष्ण के चले जाने से गोपियों के नेत्रों से अविरल अश्रुवर्षा होती रहती है –

 

निसि दिन बरसत नैन हमारे।

 

प्रकृति के सारे क्रिया कलाप पहले की तरह ही सम्पन्‍न हो रहे हैं, पर गोपियों की सारी बातें बदल गई हैं-

 

मदन गोपाल बिना या तन की सबै बात बदली।

 

कृष्ण के विरह में गोपियों का जीवन पतझड़ के समान हो गया है। ऐसी दशा में वे मधुवन को हरा-भरा देखकर ईर्ष्या भाव से भर उठती हैं –

 

मधुवन तुम कत रहत हरे।

विरह वियोग स्याम सुन्दर के ठाढ़े कत न जरे।

 

विरह के उन्माद में एक ही वस्तु कभी किसी रूप में दिखाई पड़ती है, तो कभी किसी रूप में। गोपियों की यही स्थिति है। उड़ते हुए बादल कभी उन्हें भीषण रूप में दिखाई पड़ते हैं, तो कभी दयालु और परोपकारी लगते हैं। श्रीकृष्ण साँवले हैं। बादल भी साँवला होता है। दोनों में रूप साम्य है। इसी समानता के कारण बादल गोपियों को विशेष प्रिय लगते हैं–

 

आजु घन स्याम की अनुहारि।

उन आए सांवरे ते सजनी देख रूप की आरि।।

 

अपनी बोली से प्रिय का स्मरण कराता हुआ पपीहा गोपियों को दुःख देता है, उनकी फटकार सुनता है, पर समदुख-भोगी होने के कारण वह उन्हें प्रिय भी लगता है।

 

बहुत दिन जीवौ पपीहा प्यारो।

वासर रैनि नाम लै बोलत, भयो विरह जुर कारो।।

 

कृष्ण के वियोग में यशोदा, नन्द, गोप, गोपियाँ और राधा ही दुखी नहीं हैं, बल्कि वहाँ की लता, कुंज, द्रुम, गायें, सरोवर और यमुना भी दुखी है। गायों ने चरना छोड़ दिया है और यमुना काली पड़ गई है।

 

देखियत कालिन्दी अति कारी।

 

सूर का विरह वर्णन विस्तृत और व्यापक है। उनके वियोग वर्णन के सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का यह कथन उचित ही है, ‘‘वियोग की जितनी अन्तर्दशाएँ हो सकती हैं, जितने ढंगों से उन दशाओं का साहित्य में वर्णन हुआ है और हो सकता है, वे सब उसके भीतर मौजूद हैं।” (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रन्थावली, भाग-5, सं. ओमप्रकाश सिंह)

 

कृष्णकाव्य परम्परा में सूरदास के पश्‍चात परमानन्ददास को विशेष महत्त्व प्राप्‍त है। वे कन्नौज के एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। उन्हें श्रीवल्लभाचार्य से दीक्षा मिली थी। परमानन्ददास की मुख्य रचना परमानन्दसागर है। इस कृति में 930 पद संकलित हैं। मंगलाचरण श्री जन्माष्टमी, नन्द महोत्सव, माखन चोरी, गोचारण, रास, अभिसार, मथुरागमन आदि इस ग्रन्थ के मुख्य विषय हैं। सूरदास और परमानन्ददास के कुछ पदों में अद्भुत समानता है। बालकृष्ण के चित्रण में दोनों कवि सिद्धहस्त हैं। सूरदास का एक पद है –

 

कहन लगे मोहन मैया-मैया

नन्द महर सों बाबा-बाबा अरु जसुदा को मैया।।

इस पद से मिलता-जुलता परमानन्ददास का पद है –

कहन लगे मोहन, मैया-मैया।

बाबा नन्दराय सों और हलधर सों भैया-भैया।

 

इन दोनों पदों में पहली पंक्ति समान है। अन्य पक्तियों में भाव-साम्य है। परमानन्ददास के यहाँ ऐसे अनेक पद मिलते हैं। उनके पदों में राधा और कृष्ण का प्रथम मिलन इस प्रकार दर्शाया गया है –

 

गोरस राधिका लै निकरी

नन्द को लाल अमोलो गाहक ब्रज से निकसत पकरी।

 

परमानन्दसागर में राधा और कृष्ण के मिलन चित्रों की भरमार है। कभी वे ब्रज की गलियों में मिलते हैं, तो कभी कुंज-कछारन में। दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते –

 

राधा माधव बिनु क्यों न रहै

एक स्यामसुन्दर के कारन और सबनि की निन्दन सहै।

 

गोपियों की प्रेमानुभूति, रासलीला अभिसार का वर्णन भी कवि ने पूरी तन्मयता से किया है। परमानन्दसागर में भ्रमरगीत संक्षिप्‍त है। इनकी गोपियाँ कृष्ण के साकार और निराकार रूप के द्वन्द्व में नहीं उलझती हैं। वे अपनी वियोग दशा में ही डूबती-उतराती रहती हैं। अपनी व्यथा-कथा उद्धव से कह पाने में भी वे असमर्थ हैं –

 

उधौ नाहिन परत कही

जबते हरि मधुपुरी सिधारे बौहोतहि विथा सही।

वे कृष्ण की पाती भी नहीं बाँच पातीं –

पतियाँ बाँचेहू न आवैं

देखत अंक नैन जल पूरे गदगदप्रेम जनावैं।

 

कृष्णभक्ति काव्य परम्परा में तीसरे महत्त्वपूर्ण कवि नन्ददास हैं। उनके जीवन के बारे में अनेक किस्से प्रसिद्ध हैं। कुछ विद्वानों ने नन्ददास को तुलसीदास का छोटा भाई कहा है। नन्ददास की रचनाओं में वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ का नाम बड़े आदर से लिया गया है। ऐसा लगता है कि वे श्री विट्ठलनाथ के ही शिष्य थे। वे अकबर और तुलसीदास के समकालीन थे। नन्ददास की अनेक रचनाओं का उल्लेख मिलता है, उनमें से कुछ रचनाएँ हैं– रूपमंजरी,विरहमंजरी,रसमंजरी, मानमंजरी, श्याम सगाई, भँवरगीत, रासपंचाध्यायी, सिद्धान्तपंचाध्यायी, पदावली आदि। नन्ददास की अधिकांश रचनाओं में कृष्ण का ही वर्णन हुआ है। उनकी रचनाओं में पदावली और भँवरगीत का विशेष स्थान है। पदावली में कृष्ण की बाललीला और किशोर लीला वर्णित है। सूरदास केभ्रमरगीत के पश्‍चात नन्ददास के भँवरगीत को ही महत्त्व प्राप्‍त है। इनका भँवरगीत संक्षिप्‍त है। भँवरगीत का प्रारम्भ उद्धव की ब्रजयात्रा से हुआ है। वे ब्रज पहुँच कर गोपियों को कृष्ण का सन्देश देकर अपना उपदेश प्रारम्भ कर देते हैं। उद्धव से कृष्ण का नाम सुनते ही गोपियाँ बेचैन हो उठती हैं –

 

सुनत स्याम को नाम वाम गृह की सुधि भूली

भरि आनन्द रस हृदय प्रेम बेली द्रुम फूली।

 

इसके पश्‍चात गोपियों और उद्धव का लम्बा संवाद चलता है। गोपियाँ उद्धव को ‘कृष्ण का सखा’ सम्बोधन से सम्बोधित करते हुए अपनी बात आगे बढ़ाती हैं– सखा सुनु स्याम के। नन्ददास ने उद्धव और गोपियों के वार्तालाप में संवाद शैली और नाटकीयता का सहारा लिया है। उनकी गोपियाँ सूर की गोपियों की तरह भावना में व्याकुल नही हैं। वे अपने तर्क द्वारा उद्धव को निरुत्तर कर देती हैं। वे उद्धव से पूछती हैं कि कौन ब्रह्म और कैसा ज्ञानमार्ग?

 

हमरे सुन्दर स्याम प्रेम को मारग सूधौ।

 

गोपियाँ नहीं समझ पातीं कि कृष्ण निराकार हैं, तो माखन खाने वाला कौन है? भँवरगीत में गोपियों की पीड़ा, उपालम्भ और व्यंग्य के बीच प्रकट हुई है। उनका दुःख देखकर उद्धव भी ज्ञानमार्ग भूल जाते हैं और सोचते हैं –

 

हौं तो कृत-कृत ह्वै गयौ इनके दरसन मात्र।

उनकी दशा यह है-

गोपी गुन गावन लाग्यौ कहाँ मोहन गुन गयौ भूल।

 

वे मथुरा लौटकर कृष्ण को धिक्‍कारते हैं और उन्हें वृन्दावन में रहने की सलाह देते हैं-

 

हे स्याम जाय वृन्दावन रहिए

नन्ददास का भँवरगीत संक्षिप्‍त किन्तु महत्त्वपूर्ण है।

 

तुलसी ने भी कृष्णगीतावली की रचना कर कृष्ण भक्तिकाव्य परम्परा में एक नया अध्याय जोड़ा है। कृष्णगीतावली के पदों में गोपियों की विरह-दशा का वर्णन हुआ है। गोपियों के विरह-वर्णन में सूर की अपेक्षा तुलसी काफी संयमित हैं। ऐसा लगता है कि उनकी मर्यादावादी दृष्टि यहाँ भी सक्रिय है।

 

मीराबाई कृष्ण काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण कवयित्री हैं। कृष्ण उनके आराध्य हैं। वे राज घराने की महिला थीं। कृष्ण को आराध्य और सर्वस्व बनाने के कारण उन्हें विषपान करना पड़ा था। मीराबाई ऐसी कवयित्री हैं, जो ब्रजभूमि से बाहर रहकर कृष्णभक्ति में डूबी हुई थीं –

 

मीरा गिरधर हाथ बिकाणी, लोग कह्याँ बिगड़ीं।

 

कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण के कारण मीरा को अनेक कष्ट सहने पड़े थे। उन्हें कृष्णभक्ति से अलग करने की भी कोशिश की गई थी, पर हर कष्ट सहकर भी उन्होंने अपने आराध्य को नहीं छोड़ा। मीरा के पदों में बालकृष्ण, चीरहरण, मुरली, पनघट, रासलीला आदि के प्रसंग मिलते हैं। उनके गीत वैयक्तिक भावों से ओत-प्रोत हैं। कृष्ण का दर्शन ही उनका मुख्य लक्ष्य है।

 

कृष्णभक्ति काव्यधारा के एक अन्य उल्लेखनीय कवि रसखान हैं। रसखान के जीवन के बारे में बहुत जानकारी नहीं मिलती। उनकी रचनाओं का संकलन आचार्य विश्‍वनाथ प्रसाद मिश्र ने रसखान ग्रन्थावली  शीर्षक से किया गया है। इस ग्रन्थावली में कवित्त, सवैया, प्रेमवाटिका के तिरपन दोहे, रासलीला के ग्यारह पद और प्रकीर्णक संकलित हैं। रसखान की दो रचनाएँ प्रेमवाटिका और सुजान रसखान  शीर्षक से भी मिलती हैं। इन रचनाओं में बाललीला, गोचारण, रासलीला, वनलीला, राधाकृष्ण रूप छटा, वंशी विहार, मिलन, वियोग, भ्रमरगीत आदि के प्रसंग मिलते हैं।

  1. आधुनिक काल में कृष्णभक्ति काव्यधारा

 

हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में भी कृष्‍णभक्ति काव्यधारा के अनेक कवि मिलते हैं। भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र की अनेक रचनाओं में कृष्ण का विस्तृत उल्लेख है। वे कृष्ण के सम्बन्ध में प्राचीन और नवीन दृष्टियों के समन्वयकर्ता हैं। उन्होंने कृष्ण की बाललीला, यौवनलीला और उनके प्रेमी रूप का सफल चित्र प्रस्तुत किया है। भारतेन्दु युग के ही एक दूसरे रचनाकार उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ ने भी भ्रमरगीत की रचना की है। उनके भ्रमरगीत में कृष्ण के दैन्य और शृंगारभाव का चित्रण है।

 

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने भी कृष्ण चरित्र से सम्बन्धित अनेक रचनाओं का प्रणयन किया हैं। प्रियप्रवास, कृष्ण शतक, प्रेमाम्बुप्रवाह, प्रद्युम्‍न विजय और रुक्मिणी परिणय उनकी उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। हरिऔध ने अपनी रचनाओं में कृष्ण की महत्ता और गोपियों की विरह-वेदना के चित्रण पर विशेष ध्यान दिया है। प्रियप्रवास खड़ी बोली हिन्दी का पहला महाकाव्य है। इसमें कृष्ण को नवीन परिवेश में प्रस्तुत किया गया है। उनके कृष्ण मानवता के आदर्श हैं।

 

जगन्‍नाथदास रत्नाकर का उद्धव शतक  कृष्णभक्ति काव्य परम्परा में सुन्दर दूतकाव्य है। इस रचना में भ्रमरगीत की एक नवीन परम्परा का प्रस्फुटन हुआ है। सत्यनारायण कविरत्‍न ने भी इस क्षेत्र में नवीनता और मौलिकता का परिचय दिया है। इनकी रचना भ्रमरदूतकाव्य पौराणिक कथावस्तु पर आधारित नवीन परिवेश प्रस्तुत करने वाली रचना है। इस रचना में यशोदा के माध्यम से भारतवासियों के लिए मातृ-प्रेम का आदर्श प्रस्तुत किया गया है। इस रचना में न तो उद्धव हैं, न गोपियाँ। डा. रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ भी कृष्‍णभक्ति काव्य परम्परा के रचनाकार हैं। उनकी रचना का नाम भी उद्धव शतक  है।

 

पण्डित द्वारकाप्रसाद मित्र का कृष्णायन प्रबन्ध काव्य है। यह रचना रामचरितमानस के अनुरूप सात काण्डों में विभक्त हैं। इस रचना के कथानक का आधार महाभारत और श्रीमद्भागवत है। इसमें श्रीकृष्ण को समाजसुधारक, लोकनायक, आदर्शमानव और लोकव्यवस्थापक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आरसीप्रसाद सिंह स्वच्छन्द विचारधारा के कवि हैं। उनकी रचना का नाम श्रीकृष्णचेला  है। इस ग्रन्थ में कृष्ण के जीवन की अनेक झाकियाँ प्रस्तुत की गई हैं।

  1. निष्कर्ष

 

कृष्णभक्ति काव्यधारा हिन्दी साहित्य के आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक प्रवाहित है। यह जरूर है कि मध्यकाल के भक्तकवियों ने कृष्णभक्ति को जिस रूप में प्रस्तुत किया वह अद्वितीय है। आधुनिक काल भी कृष्णभक्ति काव्य से अछूता नहीं है। दरअसल श्रीकृष्ण एक ऐसे चरित्र हैं, जिन्हें आधार बनाकर पहले भी अनेक काव्य लिखे गए और अब भी लिखे जा रहे हैं।

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वेब लिंक्स

 

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF
  2. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B8%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A3_%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE:_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2_/_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2
  3. http://rsaudr.org/show_artical.php?&id=3273
  4. http://gyanmanzari.com/rachna.php?id=37