35 हिन्दी साहित्य के नए इतिहास लेखन की जरूरत और सम्भावना
डॉ. गजेन्द्र पाठक
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- इतिहास की प्रकृति समझ सकेंगे।
- हिन्दी साहित्य के नए इतिहास लेखन की आवश्यकता समझ पाएँगे।
- हिन्दी साहित्य के इतिहास को प्रभावित कर रहे हैं।
- प्रस्तावना
कोई भी इतिहास अन्तिम व सम्पूर्ण नहीं होता। नए तथ्यों का अन्वेषण और नई विचारधाराएँ इतिहास को पुनः परिभाषित करने की माँग करती हैं। साहित्य का इतिहास भी इनसे अछूता नहीं है। समय के साथ हिन्दी साहित्य का विस्तार भी हुआ है। हिन्दी साहित्य जहाँ पहले हिन्दी पट्टी के हिन्दी लेखन के साहित्य तक सीमित था, अब वह हिन्दीतर क्षेत्र तक फ़ैल गया है। साथ ही नई विचारधाराएँ साहित्य के इतिहास को प्रभावित कर रही हैं। ऐसे में हिन्दी साहित्य के नए इतिहास की जरूरत और सम्भावना बनी हुई है।
- इतिहास की अवधारणा
सन् 1831 में जब हीगेल की किताब इतिहास-दर्शन आई तो इतिहास की अवधारणा को लेकर इस किताब ने फायरबाख और कार्ल मार्क्स जैसे चिन्तकों को गहरे प्रभावित किया। उस दौर में, जब दुनिया के नक़्शे पर अमेरिका की कोई हैसियत नहीं, हीगेल ने उसके भविष्य को लेकर जो बात की थी उसने इतिहास की शक्तियों को प्रभावित करने वाले कारकों पर विचार करने के लिए एक नया रास्ता दिखाया था। परम्पराबोध और इतिहासबोध को लेकर जो लम्बे समय तक बहस चली, उसमें भी यह बात मायने रखती है कि इतिहास की शक्तियाँ परम्परा की शक्तियों से भिन्न होती हैं और यह भिन्नता भौतिक सचाई से जुड़ी होती हैं। अगर एक रूपक का सहारा लें, तो परम्परा और इतिहास का सम्बन्ध आकाश और धरती की तरह है। परम्परावादियों ने इतिहास की जो व्याख्या की, उससे हम परिचित हैं, लेकिन हीगेल के बाद विशेष रूप से जब कार्ल मार्क्स ने इस इतिहास को धरती पर खड़ा करने की कोशिश की थी, तब वहीं से इतिहास की अवधारणा बिल्कुल बदल गई। कार्ल मार्क्स ने जब यह कहा था कि वे हीगेल को सीधे पाँव खड़ा करना चाहते हैं, तब उनका एक आशय यह भी था कि वे इतिहास के विश्लेषण में ठोस आर्थिक जमीन की तलाश कर रहे हैं, न कि किसी भविष्यवाणी की। सन् 1960 के आस-पास ई.एच. कार ब्रिटेन में ‘इतिहास क्या है?’ विषय पर जब विचार-विमर्श कर रहे थे, तब उनकी चिन्ता के दो छोर थे। पहला, अंग्रेजी भाषी दुनिया एवं दूसरा यूरोप का शक्तिकेन्द्र और कण्ट्रोल टावर संयुक्त राज्य अमेरिका का हो जाना था; दूसरा, यूरोप और उत्तरी अमेरिका से बाहर मूलतः एशियाई देशों के इतिहास को महत्त्व नहीं देना था। उनका मानना था कि इतिहास केवल केन्द्र का ही नहीं होता, ऐसा इतिहास अधूरा होता है। उनके अनुसार इतिहासकार के लिए ‘ऐसी जातियों और महाद्वीपों के दलों और वर्गों का उत्थान, जो अभी तक उसके (दायरे से) बाहर थे’ का सर्वाधिक महत्त्व होता है। वैसे भी शुरुआती इतिहास लेखन का सम्बन्ध मूलतः शासक वर्गों से ही रहा। भारत में भी उन्नीसवीं सदी में जो इतिहास लिखा गया वह ब्रिटिश-प्रशासकों की हितों को साधने वाला था क्योंकि शुरू में गैर भारतीय इतिहासकार अधिकांश इसी वर्ग से थे। ‘फलस्वरूप, शुरू के इतिहास प्रशासकों के इतिहास थे, जिसमें मुख्यतया राजवंशों और साम्राज्यों के उत्थान और पतन का विवरण होता था। भारतीय इतिहास के नायक राजा थे और घटनाओं का विवरण उन्हीं से जुड़ा होता था।’ (रोमिला थापर, भारत का इतिहास )
ई. एच. कार की भी मुख्य चिन्ता थी कि आधुनिक इतिहास के मूल में कौन होगा? आधुनिक इतिहास के सूत्रधार कौन होंगे? उनकी स्पष्ट धारणा थी कि “आधुनिक इतिहास वहाँ से शुरू होता है, जहाँ से ज्यादा से ज्यादा लोग सामाजिक तथा राजनीतिक सचेतनता प्राप्त करने लगे; अपने-अपने दलों की ऐतिहासिक इकाई के प्रति जिसका एक अतीत और एक भविष्य था, सजग होने लगे और इस प्रकार पूरी तौर से इतिहास में प्रविष्ट हुए।… सिर्फ वर्तमान समय में हमारे लिए पहली बार एक ऐसी दुनिया की कल्पना करना सम्भव हुआ है जिसमें रहने वाले लोग इतिहास के अंग बन चुके हैं और अब वे केवल उपनिवेशी प्रशासन व मानवशास्त्री की चिन्ता के विषय नहीं रह गए हैं, बल्कि इतिहासकार की चिन्ता के भी विषय बन चुके हैं।’ (इतिहास क्या है? )
असल में इतिहास प्रभु वर्गों का न होकर आम जीवन का होता है। आधुनिक इतिहास लेखन के क्षेत्र में ऐतिहासिक भौतिकवादी पद्धति ने वैज्ञानिक विधि का विकास किया। आधुनिक इतिहासकार अपने युग के साथ अपने मानवीय अस्तित्व की शर्तों पर जुड़ा होता है, इसलिए वर्तमान की आँखों से अतीत को देखने का प्रयास करता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद इतिहास को परस्पर सम्बद्ध, क्रमबद्ध, गतिशील, आवृत्तहीन, उर्ध्वमुख ढंग से देखता है। ई. एच. कार के शब्दों में कहा जाए, “..इतिहास, इतिहासकार और उसके तथ्यों की क्रिया-प्रतिक्रिया की एक अनवरत प्रतिक्रिया है, अतीत और वर्तमान के बीच एक अन्तहीन संवाद है।” (इतिहास क्या है? )
- इतिहास का प्रयोजन
यहाँ हमारा मुख्य विषय नए साहित्य इतिहासलेखन की जरूरत पर विचार करना है। एक प्रश्न उभरता है कि साहित्य का इतिहास लेखन, मात्र इतिहास लेखन है या अन्य किसी अनुशासन की माँग करता है। ‘साहित्य के इतिहास का प्रयोजन दरअसल साहित्य की प्रगति, परम्परा, निरन्तरता और विकास की पहचान करना है।’ इस क्रम में वह अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के साथ साहित्य को समझता और विश्लेषित करता है। परिवर्तित होती परिस्थितियों के साथ साहित्य के रूप और अन्तर्वस्तु में भी परिवर्तन आता जाता है। ‘साहित्य के इतिहास में विचारणीय विषय एक ओर परिवर्तन और निरन्तरता का सम्बन्ध है, तो दूसरी ओर नवीन विशिष्टता और परम्परा का सम्बन्ध भी है। समाज का इतिहास साहित्य के लिए सर्वाधिक आवश्यक है। समाज और साहित्य का निकट का सम्बन्ध होता है और कई बार द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध भी होता है। कई बार समाज के इतिहास के विभिन्न पक्षों के विश्लेषण के बिना किसी साहित्य या युग की प्रवृत्ति के बारे में गलत धारणा निर्मित कर दी जाती है। इतिहास को बिना जाने या समझे साहित्य के विकास या परिवर्तन को समझना मुश्किल सिद्ध हो सकता है। समाज का इतिहास कई बार मुख्यधारा में नहीं मिलता और इतिहासकार को साहित्य की शरण लेनी पड़ती है। साहित्य के माध्यम से वह कुछ सूत्र ग्रहण करता है, जिससे वह उस समय के आम जनों के रीति-रिवाजों और दशा को समझ पाता है। इसलिए कई अर्थों में साहित्य का इतिहास समाज का इतिहास होता है क्योंकि ‘साहित्य का प्रथम स्रोत और अन्तिम लक्ष्य मनुष्य ही होता है।’
सन् 1960 के आस-पास जब ई. एच. कार आधुनिक (नए) इतिहास लेखन के विषय और विषयी पर अपना विचार रख रहे थे, उसी के आस-पास हिन्दी में भी साहित्य-इतिहास लेखन को लेकर नया विचार-विमर्श केन्द्र में आ रहा था। सन् 1965 में शिवदान सिंह चौहान ने आलोचना के चार अंकों में स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखवाने का आयोजन किया था। पहले अंक के सम्पादकीय में उन्होंने स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद के पन्द्रह-सोलह वर्षों को नेहरू युग कहा। ‘नेहरू युग’ कहने में ही ‘एक व्यक्ति एक युग’ की धारणा के आधार पर जो नायकोन्मुख इतिहास-दृष्टि झलकती है, वह स्वातन्त्र्योत्तर परिदृश्य की जटिलता का सरलीकरण है। जिसकी भरपूर आलोचना भी हुई। इसे ‘विक्टोरियन युग’ की तर्ज पर रख लिया गया नाम माना गया। इससे पहले साहित्यिक प्रवृत्ति या साहित्यकार के नाम पर किया गया नामकरण, सम्बन्धित युग की साहित्यिक प्रवृत्तियों एवं विशेषताओं को कम या ज्यादा व्यक्त तो करता था परन्तु ‘नेहरू युग’ हिन्दी साहित्य की किसी प्रवृत्ति को व्यक्त करने में असमर्थ था। नामवर सिंह ने सन् 1973 में आजादी के बाद सन पचास के दशक को हिन्दी साहित्य की दृष्टि से नव-रोमाण्टिक उत्थान का दौर और साठ के दशक को ‘मोहभंग का दौर’ बताया, जबकि मैनेजर पाण्डेय ने इस दौर में स्वातन्त्र्योत्तर राजसत्ता के दमन और प्रतिरोध के मुहावरे में ‘स्वातन्त्र्योत्तर ’ साहित्य की प्रवृत्तियों पहचान की।
आशय यह है कि समय-समय पर नए साहित्येतिहास लेखन की जरूरत पर गहन विचार-विमर्श हुआ। शिवदान सिंह चौहान, नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय के अतिरिक्त बच्चन सिंह, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लक्ष्मीकान्त वर्मा, सुमन राजे आदि ने अपने-अपने ढंग से हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की कोशिश की।
हमारा आज का समय ज्यादा जटिल है। स्वतन्त्रता के बाद से ही ‘ग्राम-प्रान्त वाली’ दुनिया का अन्त हो जाता है। हिन्दी साहित्य और संसार के अन्य साहित्य के बीच की दूरी कम होने लगती है। आज स्वतन्त्रता प्राप्ति के दशकों बाद शीत युद्ध के अन्त के बाद अमेरीकी नव साम्राज्यवाद के नेतृत्व में भूमण्डलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की आँधी चल रही है। ऐसे में आज के इतिहासकारों के सामने चुनौती यह है कि इन बहसों की अन्तर्दृष्टियों को बदले हुए परिदृश्य में अपनी ऐतिहासिक दृष्टि से कैसे जोड़ेंगे।
इन परिस्थितियों ने हिन्दी साहित्य को भी प्रभावित किया है। साहित्य रचना का अर्थ आज किसी विशेष विषय-वस्तु तक सीमित नहीं है। साहित्य का सम्बन्ध आज समाज, राजनीति, संस्कृति,अर्थतन्त्र से ज्यादा मजबूती के साथ स्थापित हुआ है। साथ ही साहित्य ने उपेक्षित समुदाय का जन-संघर्ष, साम्राज्यवाद विरोधी चेतना आदि को भी खुलकर व्यक्त किया। ऐसा करते हुए वह स्वयं को पूर्ववर्ती परम्परा से जोड़ता और उसकी पुनर्परीक्षा करता है। इसलिए मुक्तिबोध साहित्य को ‘सभ्यता-समीक्षा’ मानते थे। ऐसे में ‘साहित्य-समीक्षा’ की यह समझ नए इतिहासलेखन के लिए बेहद आवश्यक दृष्टिकोण है। तथ्य यह है कि साहित्य का इतिहास साहित्य के विकास की प्रक्रियाओं, अवस्थाओं और दिशाओं की पहचान करता है। इतिहासलेखन का काम साहित्य के विकास के दौरान घटित परिवर्तनों को समझना, उनकी व्याख्या करना, परिवर्तनों के आपसी सम्बन्ध की संगति-असंगति पर विचार करना और नए परिवर्तनों को प्रेरित करना है।
हिन्दी साहित्य के इतिहासलेखन की समस्याओं पर विचार करने, इतिहास पर पुनर्विचार करने का अर्थ है कि हम परिवर्तन के नए दौर से गुजर रहे हैं और हिन्दी साहित्य के भविष्य की तलाश करने की कोशिश कर रहे हैं।” क्योंकि इतिहासबोध इतिहास बनाने वालों के काम की चीज है, इतिहास केवल भोग करने वालों के काम की चीज नहीं है। इतिहास का केवल भोग करने वालों के लिए इतिहासबोध बोझ प्रतीत होता है। साहित्य के इतिहास के सन्दर्भ में इतिहास बनाने वाले रचनाकार होते हैं, इतिहासबोध उनके लिए आवश्यक है।
- हिन्दी और उसकी बोलियों का सम्बन्ध
एक और महत्त्वपूर्ण समस्या साहित्येतिहास में भाषा के सवाल को लेकर है। हिन्दी-साहित्येतिहास में यह विस्मयकारी है कि हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल से पहले तक तो हिन्दी भाषा-समूह का इतिहास लिखा जाता है, लेकिन आधुनिक काल तक आते ही खड़ी बोली हिन्दी का इतिहास लिखा जाने लगा। पहले हमारे इतिहासकारों की भावुकता हिन्दी की परम्परा को दीर्घ और विशाल दिखाने में व्यस्त थी और आधुनिक काल तक आते ही हिन्दी भाषा-समूह की अन्य भाषाओं के प्रति सहसा इतिहासकारों में उपेक्षा का भाव दिखाई पड़ने लगा। उन भाषाओं को (जिनसे मध्ययुग में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की चेतना प्रस्फुटित और पल्लवित हुई थी) सामन्ती दृष्टिकोण की प्रतिनिधि ठहराकर साहित्य रचना के लिए अनुपयुक्त करार दिया और खड़ी बोली को आधुनिक चेतना की वाहक होने की एकान्त सामर्थ्य रखने वाली भाषा मान लिया गया। ऐसे में नए साहित्य इतिहास लेखन के सामने सवाल है कि विद्यापति की मैथिली में लिखी गई कविताएँ हिन्दी की हैं, तो नागार्जुन की मैथिली में लिखी कविताएँ साहित्य की थाती क्यों नहीं हैं? इसी तरह अवधी, ब्रज,भोजपुरी में लगातार लिखे जा रहे साहित्य को हिन्दी साहित्य के इतिहास में जगह क्यों नहीं मिल पा रही? इतिहास में यह प्रश्न लगातार उठाया गया है और उत्तर न ढूँढ़ पाने या इस समस्या को स्वीकार और समाधान न करने तक लगातार पूछा जाएगा कि भक्तिकाल में देशी भाषा में रचना करके हमारे भक्तिकालीन कवि साहित्य के साथ-साथ भाषा के विकास के लिए भी क्रान्तिकारी महत्त्व रखने वाले हो गए। ऐसे में आज उन्हीं भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य को हम ‘फुटकल खाते’ तक में रखने को तैयार नहीं हैं। हिन्दीतर भाषी क्षेत्र के विद्यार्थी अब तक लिखे गए हिन्दी साहित्य के आधार पर अगर कबीर, सूर, तुलसी को न पढ़ना चाहें, उन्हें हिन्दी का कवि न स्वीकार करें, तो इसमें दोष किसका है? गैर हिन्दी भाषी क्षेत्र से बार-बार यह आवाज उठती रहती है कि हिन्दी का आदिकालीन, भक्तिकालीन, रीतिकालीन यहाँ तक कि भारतेन्दु युग की कविताएँ उन्हें समझ में नहीं आतीं। असल में वे खड़ी बोली हिन्दी से उक्त साहित्य को जोड़ नहीं पाते। ऐसे में हिन्दी साहित्य का अस्सी वर्ष ही उन्हें हिन्दी साहित्य का प्रामाणिक ग्रन्थ प्रतीत हो तो क्या गलत है? असल में यह हमारी संकुचित इतिहास-दृष्टि का ही परिणाम है। हिन्दी साहित्य का आज के सन्दर्भ में पुनर्लेखन करने वाले इतिहासकारों को इस प्रश्न का जवाब ढूँढ़ना होगा कि यह समस्या क्यों उत्पन्न हुई और इसका समाधान क्या है? नए इतिहास लेखन करने वाले लेखकों को यह भी देखना होगा कि आज जिस भाषा में साहित्य लिखा जा रहा है, वह पहले की साहित्य सर्जन की भाषा से किस रूप में अलग है। अब तक जो समुदाय साहित्य से उपेक्षित थे उनकी अभिव्यक्ति अब तक की मुख्यधारा के साहित्य-भाषा के साथ एक मुठभेड़ है। भाषा सिर्फ शब्द नहीं होता बल्कि वह संस्कृति –विशेष की वाहक भी होती है। प्रत्येक भाषा की अपनी संस्कृति और संस्कार होते हैं। इसलिए जब कोई नया समुदाय साहित्य लेखन की ओर प्रवृत्त होता है, वह अपने साथ नए अनुभव, नया इतिहास लेकर आता है। नए इतिहास लेखन के लिए आवश्यक होगा कि वह साहित्य के विविध पक्षों का ऐतिहासिक विश्लेषण करने के साथ-साथ भाषा के मुद्दे पर भी गम्भीरता से विचार करे।
- हिन्दी और उर्दू का सवाल
नए इतिहास लेखकों को उन्नीसवीं सदी के भाषा-सम्बन्धी विवाद को भी विश्लेषित करना होगा। लिपि के सवाल पर खड़े इस विवाद ने हिन्दी और उर्दू को दो बिल्कुल विरोधी भाषा के रूप में स्थापित कर दिया। जबकि सचाई बिल्कुल अलग है। प्रेमचन्द उर्दू से हिन्दी में आने वाले रचनाकार थे। हिन्दी के साथ-साथ वे उर्दू में भी रचनाएँ करते रहे। ग़ालिब, इक़बाल, मण्टो, फैज़, फ़िराक़, इस्मत चुगताई उर्दू से कम हिन्दी के नहीं हैं। हिन्दी साहित्य और रचनाकारों पर उनका व्यापक प्रभाव है। उसी तरह से भारतेन्दु, बालकृष्ण भट्ट, प्रेमचन्द, यशपाल, निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध, राही मासूम रजा आदि रचनाकार भी सिर्फ हिन्दी के नहीं हैं। ये सभी रचनाकार उस हिन्दुस्तानी भाषा के रचनाकार हैं, जिनका हिन्दुस्तानी भाषा-भाषियों के जीवन से गहरा सम्बन्ध है। आज की परिस्थिति में हिन्दी-उर्दू के बीच परस्पर आवाजाही को निश्चित करने की ऐतिहासिक जिम्मेवारी नए इतिहास लेखकों की होगी। साझी संस्कृति का ऐतिहासिक विश्लेषण और उसके महत्त्व को रेखांकित करना इतिहास लेखक का एक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है।
- समकालीन विमर्श-मूलक साहित्य
आज हम पाते हैं कि साहित्य रचना के क्षेत्र में लेखकों की संख्या बढ़ी है। आज इतिहासकार को दलित साहित्य, स्त्री साहित्य और आदिवासी साहित्य के उदय और इतिहास के सवाल से भी जूझना होगा। अन्यथा हिन्दी साहित्य का इतिहास-लेखन सम्पूर्ण नहीं हो पाएगा। इन सारे साहित्यिक-विमर्शों ने रचनाकारों के लिए नए द्वार खोले हैं। बहुत से लोगों ने अचानक से आई रचनाकारों की इस बाढ़ को हिन्दी साहित्य के लिए नुकसानदेह माना है। वसुधा, मार्च 1960 में गोरखनाथ नाम के किसी व्यक्ति ने चीनी साहित्य में नव-रचनाकार की इसी तरह की ‘भीड़’ की भर्त्सना की थी, जिसका मुक्तिबोध ने युक्तिपूर्ण जवाब दिया था। मुक्तिबोध के उस जवाब को आज के समकालीन साहित्य के सन्दर्भ में देखना समीचीन होगा। मुक्तिबोध के अनुसार “साहित्य क्षेत्र में सामान्य जनता तभी सक्रिय हो उठती है, जब उसमें कोई व्यापक सांस्कृतिक आन्दोलन चल रहा हो– ऐसा आन्दोलन, जो उसके आत्मगौरव और आत्मगरिमा को स्थापित और पुनर्स्थापित कर रहा हो।….चूँकि जनता स्वयं साहित्य तैयार कर रही है, इसलिए लेखकों की बेशुमार भीड़ होना स्वाभाविक ही है। साथ ही यह भी स्वाभाविक है कि जानता द्वारा उत्पन्न सारा का सारा साहित्य उच्च कोटि का न हो।” (मार्क्सवादी साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, डबरे पर सूरज का बिम्ब, सम्पादन-चन्द्रकान्त देवताले)
इतिहासकार को इसकी पड़ताल करनी होगी कि किन ऐतिहासिक दबावों के कारण दलित, आदिवासी, स्त्री और मुस्लिम साहित्य का उभार हो रहा है। साहित्य के इन उभारों के कारण उठे नए तरह के प्रश्नों से इतिहासकारों को जूझना होगा। जाति, धर्म, लिंग के आधार पर विभेद समाज में बहुत पहले से मौजूद रहा है, परन्तु साहित्येतिहास के एक विशेष काल में इन सबके विरोध में प्रतिक्रिया का एक साथ आना किन बातों की ओर इंगित करता है। अगर दलित साहित्य को ही उदाहरण के तौर पर ग्रहण किया जाए, तो वह हमें कई प्रश्नों के सामने खड़ा करता है। अम्बेडकरवाद का यह उभार हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक नया अनुभव है। दलित राजनीति और साहित्य की पड़ताल हिन्दी साहित्येतिहास लेखन को समृद्ध साबित करने वाला साबित हो सकता है। मराठी में दलित पैन्थर से लेकर हिन्दी क्षेत्र में दलितवादी राजनीति तक पर गहन विचार-विमर्श करना, इतिहास लेखक के लिए आवश्यक होगा। इसी सन्दर्भ में मण्डल कमीशन की सिफारिशों और फिर उसे लागू करने का पक्ष भी आएगा। जिसने विशेषकर हिन्दी क्षेत्र की राजनीति को बदल कर रख दिया।
स्त्री-सम्बन्धी साहित्य लेखन कोई नया नहीं है। फिर भी सुमन राजे को हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास लिखने के लिए मजबूर होना पड़ा। आधा इतिहास स्त्री-विमर्श की पुस्तक नहीं है। यह साहित्येतिहास ही है पर आधा। यह सच है कि पारम्परिक ऐतिहासिक सामग्री के आर-पार जाने का दुस्साहस मैंने किया है। वैसे तो स्त्रियों के साथ अन्याय होता आया है, और कब तक होता रहेगा कहा नहीं जा सकता। उन सबसे लड़ना मेरे लिए सम्भव नहीं, इसलिए मैंने फैसला लिया कि अन्याय के विरुद्ध यह लड़ाई मैं साहित्य इतिहास के भीतर लडूँगी, यह मानते हुए कि हार लड़ाई हमें आत्मसाक्षात्कार की ओर भी ले जाती है, ले जाएगी।” इस आत्मसाक्षात्कार का सामना और इतिहास में हुए अन्याय के खिलाफ इतिहास लेखक को भी अपनी स्थिति को स्पष्ट करना होगा ताकि हिन्दी साहित्य का कोई इतिहास ‘आधा’ न रहे और न ही साहित्य का ‘आधा’ इतिहास लिखने की जरूरत महसूस की जाए। हिन्दी साहित्य का इतिहास लेखन स्त्रियों को मुकम्मल जगह दिए बिना पूरा भी कैसे हो सकता है? इसी तरह आदिवासी साहित्य का भी उत्थान उनके जमीन से बेदखल किए जाने से जुड़ा है, जो उनके अस्तित्व के सवाल से ही जुड़ा हुआ है। इसी कारण विस्थापन का सवाल हिन्दी पट्टी के अन्दर एक बड़े सवाल के रूप में उपस्थित हुआ है। आज के समय में उन पर देशी-विदेशी पूँजी का चौतरफा आक्रमण तेज हुआ है। इसी कारण आदिवासी साहित्य भी उसी आक्रामकता के साथ हिन्दी साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। ऐसे में इतिहासकार हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन को इन सारी धाराओं से कैसे जोड़ेगा, यह चिन्तन का विषय है। इतिहास लेखक इन सबसे खुद को अलगाते हुए किसी नए साहित्य का इतिहास नहीं लिख सकता है। ये सभी विमर्श नए इतिहासकार की तरफ उपेक्षा की नहीं, बल्कि उम्मीद की नज़र से देख रहे हैं। सन् 1960 में ई.एच. कार ने कहा, “एक बार फिर बाहर की दुनिया में तूफ़ान उठ रहे हैं और ऐसे में हम अंग्रेजी भाषा-भाषी देशों के लोग (यहाँ हिन्दी के मुख्यधारा के साहित्य के लोग समझें) एक दूसरे के सिर से सिर जोड़कर अपनी रोजमर्रा की मामूली अंग्रेजी में कहते हैं कि हमारी सभ्यता के वरदानों और उपलब्धियों से दूसरे देशों के लोग महरूम हो रहे हैं क्योंकि उनका व्यवहार हमारे अनुरूप नहीं है और कभी ऐसा लगता है कि हम खुद दूसरों को समझ पाने की अपनी असमर्थता और अनिच्छा के कारण खुद को उस उथल-पुथल और गतिविधि से, जो हमारे चारों ओर हो रही है, काटकर अलग किए हुए हैं।” निश्चित रूप से हिन्दी साहित्य के अन्दर और उसके चारो तरफ जो घट रहा है, उसका संज्ञान इतिहास लेखक के लिए आवश्यक होगा।
- हिन्दीतर भाषी प्रदेशों में लिखा जाने वाला हिन्दी साहित्य
भारत को बहुराष्ट्रीय राष्ट्र कहा जाता है, यहाँ कई तरह की भाषाएँ तथा कई तरह की संस्कृतियाँ हैं। प्रत्येक भाषाओं में साहित्य-सर्जन की मजबूत परम्परा होना स्वाभाविक है। आरम्भिक समय से ही साहित्य अपनी सीमा को तोड़ने का प्रयास करता रहा है। वह अपनी भाषा बोलने व समझने वालों के साथ विस्तार पाता है। चूँकि भारत की सम्पर्क भाषा होने तथा अन्य माध्यमों के कारण हिन्दी अपना विस्तार हिन्दीतर क्षेत्रों में भी कर रही है। हिन्दीतर भाषी भी अब हिन्दी साहित्य के पठन-पाठन के साथ सर्जन में भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। एक अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर हिन्दी का एक अलग स्वाद उभर कर सामने आ रहा है। साथ ही हिन्दीतर भाषी साहित्य (बंगला, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, ओड़िया तथा गुजरती आदि साहित्य) के हिन्दी अनुवाद भी हिन्दी की परम्परा को समृद्ध कर रहे हैं, ऐसे में हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन करते समय इतिहासकार इन हिन्दीतर हिन्दी साहित्य को कैसे ले? कैसे हिन्दी की प्रवृत्ति को इन साहित्य की प्रवृत्ति से जोड़कर देखे, एक समस्या तो है, किन्तु इनको साहित्य के इतिहास में शामिल करना अनिवार्य भी है।
- हिन्दी का प्रवासी साहित्य
नए साहित्य इतिहास लेखन के लिए एक बड़ी चुनौती प्रवासी भारतीयों द्वारा हिन्दी में रचे जा रहे साहित्य को लेकर भी होगी। भारत से इतर देशों में जो हिन्दी का साहित्य रचा जा रहा है, उससे अनायास ही हिन्दी समृद्ध हुई है और उसका एक वैश्विक स्वरूप विकसित हुआ है। पिछले कुछ दशकों में यह विकास बड़ी तेजी से हुआ है और उसमें रचनाकारों का एक विशिष्ट योगदान है। यदि आज हिन्दी, विश्व की सर्वाधिक बोली जानेवाली पाँच भाषाओं में है, तो इसका श्रेय उस विशाल प्रवासी समुदाय को भी जाता है, जो भारत से इतर देशों में जाकर बसने के बावजूद हिन्दी को अपनाए हुए हैं। इन देशों में रचा जा रहा साहित्य, उस देश के परिवेश से ही हमारा परिचय नहीं कराता, वरन उनकी भाषा से शब्द भी ग्रहण कर रहा है। फ़लस्वरूप हिन्दी का भी एक नया स्वरूप विकसित हो रहा है और हिन्दी में लिखे गए उस साहित्य का एक अलग स्वाद है, एक नई गन्ध है और उन देशों में रह रहे भारतीय समुदाय के सरोकारों से ही नहीं, वरन उस समाज की समस्याओं से भी हम परिचित हो रहे हैं, जिसका अंग यह प्रवासी समुदाय है।
विदेश में रहने वाले हिन्दी साहित्यकारों का महत्त्व इसलिए बढ़ जाता है, क्योंकि उनकी रचनाओं में अलग-अलग देशों की विभिन्न परिस्थितियों को विकास मिलता है और इस प्रकार हिन्दी साहित्य का अन्तर्राष्ट्रीय विकास होता है और समस्त विश्व हिन्दी भाषा में विस्तार पाता है। बीसवीं शती के मध्य से भारत छोड़ कर विदेश जा बसने वाले लोगों की संख्या में काफी वृद्धि हुई। इनमें से अनेक लोग हिन्दी के विद्वान थे और भारत छोड़ने से पहले ही लेखन में लगे हुए थे। ऐसे लेखक अपने अपने देश में चुपचाप लेखन में लगे थे, पर उनमें से कुछ भारत में धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर काफी लोकप्रिय हुए। बीसवीं सदी का अन्त होते-होते लगभग एक सौ प्रवासी भारतीय अलग-अलग देशों में अलग-अलग विधाओं में साहित्य रचना कर रहे थे। इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ होने तक पचास से भी अधिक साहित्यकार भारत में अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवा चुके थे। वेब पत्रिकाओं का विकास हुआ तो ऐसे साहित्यकारों को एक खुला मंच मिल गया और विश्वव्यापी पाठकों तक पहुँचने का सीधा रास्ता भी।
10 जनवरी 2003 को प्रवासी दिवस मनाए जाने के साथ ही दिल्ली में प्रवासी हिन्दी उत्सव की भी शुरुआत हुई। प्रवासी हिन्दी उत्सव में ऐसे लोगों को रेखांकित करने और प्रोत्साहित करने के काम की ओर भारत की केन्द्रीय और प्रादेशिक सरकारों तथा व्यक्तिगत संस्थाओं ने रुचि ली, जो विदेश में रहते हुए हिन्दी में साहित्य रच रहे थे। भारत की प्रमुख पत्रिकाओं – वागर्थ, भाषा, और वर्तमान साहित्य ने भी प्रवासी विशेषांक प्रकाशित कर इन साहित्यकारों को भारतीय साहित्य की प्रमुख धारा से जोड़ने का काम किया। इस तरह इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में आधुनिक साहित्य के अन्तर्गत प्रवासी हिन्दी साहित्य के नाम से एक नए युग का प्रारम्भ हुआ।
ऐसे में वैश्विक स्तर पर क्या हिन्दी भाषा में रचे जा रहे साहित्य को भी इतिहास लेखन में स्वीकार किया जाएगा? प्रवासी भारतीयों द्वारा रचित साहित्य को क्या हिन्दी साहित्य के नए इतिहास में शामिल किया जाएगा? यदि शामिल किया जाता है तो उनके प्रभाव से किन नई प्रवृत्तियों का समावेश हिन्दी साहित्य में किया जाएगा– यह इतिहास लेखक के लिए एक जटिल, किन्तु महत्त्वपूर्ण प्रश्न होगा। हम इस प्रश्न से उलझे बिना साहित्य का नया इतिहास लेखन शायद नहीं कर पाएँगे।
- हिन्दी का मौखिक साहित्य
हिन्दी साहित्य के इतिहास में हजारों सालों का हमारा मौखिक और लौकिक साहित्य कहाँ है? साहित्य के विद्वान अगर जोर-शोर से साहित्य और समाज के सम्बन्ध की बात करते हैं, हाशिए पर पड़े समुदायों को साहित्य के इतिहास में संरक्षित करने की बात कहते हैं, तो क्या समाज का अर्थ सिर्फ शिष्ट समाज होता है? क्या सिर्फ लिखित और शिष्ट जनों के साहित्य से इतिहासबोध विकसित होगा, जबकि समाज का बहुलांश आज भी लिखित साहित्य के सम्पर्क में नहीं आ पाता। वे लौकिक और मौखिक साहित्य के माध्यम से ही खुद को अभिव्यक्त करते और आनन्द पाते हैं। इस बहुलांश को छोड़कर किसी समेकित इतिहासबोध का निर्माण करना सम्भव नहीं होगा। वह इतिहासबोध व्यापक महत्त्व वाला नहीं हो सकता, जो साहित्य की बुनियाद रचने और उसकी रक्षा करने वालों को ही अपने बोध से बाहर रखे। इतिहासकार को इस सहज दिखते संकट एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समस्या का समाधान ढूँढ़ना होगा और ना सिर्फ समाधान ढूँढ़ना होगा, बल्कि ससम्मान इतिहास में जगह भी देना होगा।
- विधाओं का प्रश्न
इसी क्रम में विधाओं का भी प्रश्न आता है। छायावाद में लिखे जा रहे गद्यकाव्य, नई कविता के समय लिखे गए काव्य-नाटक, स्वतन्त्रता के बाद लिखे गए संस्मरण, रिपोर्ताज, यात्रा-वर्णन ललित निबन्ध आदि विधाएँ छूटती जा रही हैं। किसी समय बड़ी संख्या में इन विधाओं में साहित्य लिखा गया, परन्तु बदलते यथार्थ में इनकी उपयुक्तता कम हुई है। इतिहासकार को इन सारे प्रश्नों पर विचार करते हुए बदलते यथार्थ और पाठकीय चेतना का भी विश्लेषण करना होगा। उदाहरण के लिए बीते दो दशकों में ‘आत्मकथा’ विधा का भरपूर प्रचार-प्रसार हुआ है। दलित और महिला रचनाकारों ने विशेषकर इस विधा में ही अपनी भावनाओं और विचारों का प्रकाशन किया है। कई आत्मकथात्मक उपन्यास भी देखने में आए हैं। किसी समय हिन्दी में ‘आत्मप्रकाशन’ को रचना के लिए दोष माना जाता था, परन्तु आज वही उपेक्षित समुदायों के हाथों में एक हथियार की तरह दिखाई देता है। इतिहासकार को विचार करना होगा कि आत्मकथा के इतिहास में यह आन्दोलनात्मक रुख किन स्थितियों-परिस्थितियों की देन है।
- निष्कर्ष
इस प्रकार हिन्दी साहित्य के इतिहास का पुनर्लेखन या नया इतिहास लेखन एक चुनौती भरा कार्य है। इन सारी समस्याओं से नए इतिहास लेखन को न केवल समसामयिक इतिहास या वर्तमान के आलोक में जूझना होगा, बल्कि अब तक के इतिहास लेखन की परम्परा से भी दो-दो हाथ करना होगा। नामवर सिंह के अनुसार इतिहास लेखन का कार्य एकदम नए सिरे से नहीं शुरू करना है। ऐतिहासिक अध्ययन की हमारी अपनी परम्परा है। जब तक हम उस परम्परा का विश्लेषण नहीं कर लेते, हमारा नया प्रयत्न अपूर्ण होगा। नई परिस्थिति में इतिहास का उपयोग करते समय पूर्ववर्ती इतिहासकारों का अनुशीलन अत्यन्त आवश्यक है।… इतिहास और विचारधारा के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध का सवाल भी यहाँ उपस्थित होता है। नया इतिहास लेखन किस पद्धति और दृष्टिकोण से किया जाए, यह एक अहम सवाल है। आज परिस्थितियाँ पहले से कहीं ज्यादा कठिन हैं। एक ही साथ कई दृष्टियाँ और विचारधाराएँ सामानान्तर चल रही हैं। पहले मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि की सीधी टकराहट साम्राज्यवादी एवं राष्ट्रवादी इतिहास दृष्टियों से थी, परन्तु आज भारत व हिन्दी साहित्य के अन्दर एक ही लक्ष्य रखने वाले अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद के बीच भी टकराहट की स्थिति उपस्थित हो गई है। साठ के दशक का वस्तु और रूप, कला समाज के लिए, कला-कला के लिए आदि विवाद पुराना हो चुका है। आज तो वस्तुपक्ष को महत्त्व देने वाला कई धाराओं के बीच ही संघर्ष हो रहा है। इस आपसी संघर्ष के समाधान के साथ नव कलावादी, यथार्थवाद विरोधी धाराओं के खिलाफ भी एक होकर संघर्ष चलाने की जरूरत है। केवल यह कह देने से समस्या नहीं सुलझ जाती कि हिन्दी साहित्य के इतिहास को मार्क्सवादी पद्धति और दृष्टिकोण से लिखना चाहिए। हिन्दी में साहित्य के मार्क्सवादी इतिहास लेखन की ऐसी पद्धति और दृष्टिकोण का विकास होना अभी बाकी है, जिसमें साहित्य की सामाजिकता और साहित्यिकता की साथ-साथ रक्षा हो सके। हिन्दी साहित्य के इतिहासलेखन की समस्याओं पर विचार करने की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यही हो सकती है कि हम एक ऐसी पद्धति का विकास कर सकें। नए साहित्येतिहास लेखन को एक ऐसी पद्धति का विकास करना ही होगा, जहाँ वह वर्ग, जाति, लिंग, आदिवासी, धर्म आदि पर आधारित समस्याओं का वस्तुपरक मूल्यांकन और उनके इतिहास का रेखांकन कर सके। खण्ड-खण्ड में चल रहे साहित्यिक संघर्षों को साझा मंच प्रदान किया जा सके।
हिन्दी साहित्य का नया इतिहास लिखने वालों से अपेक्षा है कि बेहद उथल-पुथल से भरे इस दौर के साहित्य और उसके समाज की ऐतिहासिक पड़ताल वैज्ञानिक ढंग से करने का प्रयास करे। साथ ही समाज के वे लोग जो साहित्य के हाशिये पर संघर्षरत हैं, उनकी ऐतिहासिक भूमिका का निर्धारण कर सके। वस्तुतः हिन्दी में नए इतिहासकार से वही उम्मीदें हैं जो ई. एच.कार ने आज से लगभग छह दशक पहले अंग्रेजी भाषा-भाषियों के सन्दर्भ में व्यक्त की थी– चाहे विज्ञान में हो या इतिहास में या समाज में, प्रगति मुख्यतः उन्हीं मनुष्यों के द्वारा लाई गई है, जिन्होंने बहादुरी के साथ एक खास व्यवस्था में छोटे मोटे सुधारों तक खुद को सीमित करने से इनकार कर दिया था और तर्क के नाम पर जो कार्य प्रणाली व्यवहार में थी और आधारस्वरूप जो सुनिश्चित या छिपी हुई परिकल्पनाएँ थीं, उन्हें तर्क के ही नाम पर मूल चुनौती दी। मैं ऐसे वक्त का इन्तजार कर रहा हूँ, जब अंग्रेजी भाषा-भाषी दुनिया के इतिहासकार, समाजशास्त्री और राजनीतिशास्त्री उक्त साहस बटोर सकेंगे। जाहिर है हिन्दी साहित्य के इतिहासकार जब इतिहास के पुनर्लेखन का प्रयास करेंगे तब उनसे भी यही उम्मीदे होंगी। अन्ततः कहा जाना चाहिए कि हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखक को जनता के साहित्य और समाज का सच्चा और सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व करनेवाला इतिहास लिखना चाहिए।
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