33 हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में काल-विभाजन का आधार
डॉ. प्रभात कुमार मिश्र मिश्र
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में काल विभाजन की आवश्यकता समझ पाएँगे।
- रामचन्द्र शुक्ल से पूर्व के इतिहास लेखन में काल विभाजन के आधार से परिचित हो सकेंगे।
- रामचन्द्र शुक्ल तथा उनके समकालीन साहित्येतिहासकारों के काल विभाजन के आधार से परिचित हो सकेंगे।
- आचार्य शुक्ल के बाद के साहित्येतिहासकारों के काल विभाजन के आधार से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
साहित्य का इतिहास केवल तिथियों का क्रम नहीं है, न ही केवल विषय-विश्लेषण। कालक्रम के बीच होनेवाले परिवर्तनों की पहचान साहित्येतिहास का केन्द्रीय तत्त्व है। एकाकी विषय-विश्लेषण से ऐसी पहचान सम्भव नहीं है। एक लम्बे समय का तिथिक्रम विहीन विश्लेषणात्मक अध्ययन अतीत के वस्तुगत यथार्थ को विकृत कर सकता है। इसलिए सामान्यतः साहित्येतिहास का लेखक वर्णन और विश्लेषण का समन्वय करने की कोशिश करता है। ऐसा करने की एक उपयोगी और सरल पद्धति बारी-बारी से वर्णन और विश्लेषण को प्रस्तुत करते जाना है। इससे अलग एक अपेक्षाकृत प्रभावी और सटीक पद्धति पूरे काल को उपकालों में विभाजित कर देना है। यह पद्धति थोड़ी जटिल है, क्योंकि कालों का विभाजन मनमाने ढंग से नहीं, बल्कि इतिहासकार द्वारा अनुभूत ऐतिहासिक विकास-क्रम के तर्क के आधार पर होना चाहिए। इस पद्धति की जटिलता इस बात में भी निहित है कि हर उपकाल में सामग्री को विषयवार विश्लेषित किया जाता है। ऐसा करने से किसी विषय-वस्तु के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को ठीक से समझने में सुविधा होती है। जाहिर है कि काल-विभाजन का लक्ष्य अन्ततः इतिहास की विभिन्न परिस्थितियों के सन्दर्भ में उसकी घटनाओं एवं प्रवृत्तियों के विकास-क्रम को स्पष्ट करना होता है।
साहित्य के इतिहास में काल-विभाजन के कई आधार प्रयुक्त होते रहे हैं। इनमें से ऐतिहासिक कालक्रम का आधार (आदिकाल, मध्यकाल, आधुनिककाल आदि), साहित्यिक प्रवृत्ति का आधार (वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, छायावाद आदि) और सामाजिक-सांस्कृतिक परिघटना का आधार (लोकजागरण, नवजागरण आदि) लेकर किया गया विभाजन अधिक उपयोगी और मान्य साबित हुआ है। इसके अतिरिक्त विभिन्न साहित्येतिहासों में शासक और शासन-काल का आधार (विक्टोरिया-युग, मुगल काल आदि), लोकनायक और उसके प्रभाव-काल का आधार (गांधी युग, नेहरू युग आदि) तथा साहित्यिक अग्रदूतों के प्रभाव-काल का आधार (भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग आदि) भी प्रयुक्त हुआ है।
- साहित्य के इतिहास लेखन में काल-विभाजन का आधार
विभाजन एवं वर्गीकरण में ध्यान मुख्यतः वैशिष्ट्य की जगह सामान्य गुणों की खोज पर रहता है। साहित्य का इतिहासकार रचनाओं में निहित सामान्य गुणों की खोज करता है। इन सामान्य गुणों, जिन्हें प्रवृत्ति भी कहा जाता है, की जानकारी और समझ के सहारे किसी युग की केवल एक कृति के एक सामान्य-से अंश की भी परीक्षा करके, उसके आधार पर समूचे युग की मूल चेतना का आभास पाया जा सकता है। यही कारण है कि विभाजन एवं वर्गीकरण प्रायः समान प्रकृति और प्रवृत्ति के आधार पर ही किया जाता है। साहित्य की अनेकानेक प्रवृत्तियों का आदि-अन्त, उत्कर्ष एवं अपकर्ष ही इतिहास का काल-विभाजन या कहें कि विभिन्न युगों की सीमाओं का निर्धारण करता है। काल-विभाजन की धारणा में निर्णय क्षमता के साथ कुछ हद तक कल्पनाशीलता की भी जरूरत पड़ती है। असल में काल-विभाजन और नामकरण प्रायः ही आनुमानिक संकल्पनाओं पर आधारित होता है। इस कारण से किसी भी काल-विभाजन को एकदम निर्दोष अथवा परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
काल-विभाजन का एक सुसंगत आधार समाज में उत्पादन-सम्बन्धों का बदलना भी है। साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन, जिस समाज के साहित्य का वह इतिहास है, उस समाज के उत्पादन-सम्बन्धों के परिवर्तन के अनुसार ही होना चाहिए। हालाँकि, सच यह भी है कि उत्पादन-सम्बन्ध बदलते ही साहित्यिक प्रवृत्ति नहीं बदल जाती है। साहित्य में परिवर्तन अपेक्षाकृत धीरे-धीरे होता है। काल-विभाजन के पीछे सामाजिक उत्पादन-सम्बन्धों के आधार को जरूरी मानते हुए यह कहा जा सकता है कि साहित्य के इतिहास में मध्ययुग और आधुनिक युग के बीच विभाजक रेखा खींचना ही काफी नहीं है, बल्कि उत्पादन-शक्तियों के आधार पर इनमें से प्रत्येक युग के उत्थान-पतन का भी निदर्शन होना चाहिए।
काल-विभाजन के आधार के सम्बन्ध में सामान्यतः दो प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार साहित्य के इतिहास में काल-विभाजन विशुद्ध साहित्यिक प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए, क्योंकि साहित्य सर्वथा स्वतन्त्र है। दूसरी धारणा यह है कि चूँकि साहित्य में अन्ततः समाज की ही अभिव्यक्ति होती है, इसलिए समाज की विभिन्न परिस्थितियों के आधार पर साहित्येतिहास का काल-विभाजन किया जाना चाहिए। ऐसा मानने का एक कारण यह भी है कि प्रत्येक स्थिति में किसी युग की साहित्य-चेतना की अभिव्यक्ति केवल साहित्यिक प्रत्यय के आधार पर नहीं हो सकता है।
साहित्य के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करते हुए नलिन विलोचन शर्मा ने साहित्य का इतिहास दर्शन में लिखा है, ‘‘यदि हम मानते हैं कि मनुष्य के राजनीतिक, सामाजिक, बौद्धिक या भाषा वैज्ञानिक विकास से संयुक्त रहते हुए साहित्य का स्वतन्त्र विकास होता है, और दूसरा पहले का निष्क्रिय प्रतिबिम्ब नहीं है तो हम अनिवार्यतः इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि साहित्यिक युग विशुद्ध साहित्यिक मानदण्ड के सहारे निर्धारित होने चाहिए।’’ (नलिन विलोचन शर्मा-इतिहास दर्शन) यह एक भ्रामक दृष्टिकोण है। यह साहित्येतिहास की धारणा को संकुचित अर्थ में लेना है। इस दृष्टिकोण के अनुसार काल-विभाजन का सरोकार साहित्य के इतिहास लेखन से जितना है, उतना साहित्य के इतिहास से नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि अध्ययन की सुव्यवस्था की दृष्टि से ही किसी विषय-वस्तु को विभिन्न पक्षों, खण्डों, वर्गों आदि में विभक्त कर लिया जाता है।
दूसरी तरफ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास के प्रारम्भ में ही कालविभाग पर विचार करते हुए साहित्य परम्पराओं के साथ-साथ सामाजिक परिस्थितियों को भी विभाजन का आधार माना है। साहित्य के इतिहास की उनकी धारणा में वस्तुतः काल-विभाजन का उनका आधार भी निहित है। आचार्य शुक्ल की दृष्टि में काल-विभाजन के मूल में समाज की परिवर्तनशीलता है। समाज और साहित्य का घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण समाज में परिवर्तन होने के साथ-साथ साहित्य के इतिहास में भी परिवर्तन होता चलता है। आचार्य शुक्ल जनता की ‘चित्तवृतियों की परम्परा को’ साहित्य परम्परा के आमने-सामने रखकर ही नहीं परखते, बल्कि उन स्थितियों पर भी ध्यान देते हैं जिनसे ये चित्तवृतियाँ उत्पन्न होती हैं। उनका कहना है कि जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। फलस्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित दिग्दर्शन भी आवश्यक होता है। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालों का विभाजन युग की मुख्य सामाजिक और साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर किया है।
नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने जब सोलह खण्डों के हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास की योजना बनाई तब उसके प्रधान सम्पादक ने काल-विभाजन सम्बन्धी दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहा कि काल-विभाजन में इतिहास का प्रत्येक खण्ड अपने आप में पूर्ण होकर भी परस्पर सम्बद्ध हो और साहित्य की प्राणधारा का प्रवाह अखण्डित तथा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होता रहे। वृहत् इतिहास की योजना में यह निश्चय किया गया था, ‘‘साहित्य के उदय और विकास, उत्कर्ष तथा अपकर्ष का वर्णन और विवेचन करते समय ऐतिहासिक दृष्टिकोण का पूरा ध्यान रखा जाएगा अर्थात् तिथिक्रम, पूर्वापर तथा कार्य-कारण सम्बन्ध, पारस्परिक संघर्ष, समन्वय, प्रभाव ग्रहण, आरोप, त्याग, प्रादुर्भाव, अन्तर्भाव, तिरोभाव आदि प्रक्रियाओं पर पूरा ध्यान दिया जाएगा।’’
- रामचन्द्र शुक्ल से पहले हिन्दी साहित्येतिहास लेखन में काल-विभाजन
हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास इस्तवार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ऐं ऐन्दुस्तानी में ‘गार्सां द तास्सी’ ने यद्यपि अनेक हिन्दी-उर्दू के कवियों को स्थान दिया है तथा विस्तृत सामग्री देने का प्रयास किया है, किन्तु कालक्रमिक न होने के कारण उनका इतिहास कवियों का संग्रह बनकर रह गया है। इतिहास की सामग्री को उन्होंने अकारादि क्रम से प्रस्तुत किया है, काल-विभाजन तो उसमें है ही नहीं। अपने इतिहास में कालक्रम के अभाव के कारणों की चर्चा करते हुए तास्सी ने लिखा है ‘‘मौलिक जीवनियाँ जो मेरे ग्रन्थ का मूलाधार हैं सब अकारादिक्रम से रखी गयी हैं। मैंने यही पद्धति ग्रहण की है, यद्यपि शुरू में मेरा विचार कालक्रम ग्रहण करने का था; और, मैं यह बात छिपाना नहीं चाहता कि, यह क्रम अधिक अच्छा रहता या कम-से-कम जो शीर्षक मैंने अपने ग्रन्थ को दिया है उसके अधिक उपयुक्त होता; किन्तु मेरे पास अपूर्ण सूचनाएँ होने के कारण उसे ग्रहण करना कठिन ही था।’’
शिवसिंह सेंगर के शिवसिंह सरोज (सन् 1883) का विश्लेषण की दृष्टि से उतना महत्त्व नहीं है, जितना सामग्री-संचयन की दृष्टि से। उनका काल-विभाजन शताब्दियों के अनुसार है, साहित्य प्रवृत्तियों के अनुसार नहीं।
ग्रियर्सन ने अपने इतिहास माडर्न वर्नाक्यूलर लिट्रेचर ऑफ़ नार्दर्न हिन्दोस्तान (सन् 1889) में कालक्रम, साहित्यिक प्रवृत्तियों और व्यक्तियों के नामों आदि का सहारा लिया है। इन सबको मिलाकर ग्रियर्सन ने हिन्दी साहित्य का कालक्रमिक और प्रवृत्यात्मक इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। नलिन विलोचन शर्मा के अनुसार युग-विभाजन, पृष्ठभूमि-निर्देश, सामान्य प्रवृत्ति-निरूपण तथा तुलनात्मक आलोचना एवं मूल्यांकन-विषयक प्रयासों तथा विवेचन की साहित्यिकता के कारण यदि ग्रियर्सन के इतिहास को हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास माना जाए, तो उचित ही है। ग्यारह खण्डों में विभक्त उनका काल-विभाजन इस प्रकार है: चारण काल (सन् 700-1300 ), पन्द्रहवीं शताब्दी का धार्मिक पुनर्जागरण, जायसी की प्रेम कविता, ब्रज का कृष्ण सम्प्रदाय, मुगल दरबार, तुलसीदास, रीति काव्य, तुलसीदास के अन्य परवर्ती, अठारहवीं शताब्दी, कम्पनी के शासन में हिन्दुस्तान और, महारानी विक्टोरिया के शासन में हिन्दुस्तान। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस विभाजन में कालों का नामकरण सर्वत्र एक ही आधार पर नहीं हुआ है। ग्रियर्सन ने कालक्रम, साहित्यिक प्रवृत्तियों और व्यक्तियों के नामों– इन सबका सहारा लिया है। विभिन्न युगों की काव्य-प्रवृत्तियों की व्याख्या करते हुए उनसे सम्बद्ध सांस्कृतिक परिस्थितियों और प्रेरणा-स्रोतों के उद्घाटन का भी प्रयास ग्रियर्सन ने किया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में ग्रियर्सन का इतिहास एक बढ़ा हुआ कदम तो है ही, काल-विभाजन सम्बन्धी उनकी धारणाएँ भी परवर्ती साहित्येतिहासों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुई हैं।
काल-विभाजन की दृष्टि से मिश्रबन्धुओं का मिश्रबन्धु विनोद एक महत्त्वपूर्ण साहित्येतिहास है। इसमें प्रस्तुत काल-विभाजन ग्रियर्सन के इतिहास के काल-विभाजन से ज्यादा विकसित है। काल-विभाजन की दृष्टि से मिश्रबन्धुओं ने सर्वाधिक परिश्रम कवियों का समय निर्धारित करने में किया है। मिश्रबन्धुओं का काल-विभाजन इस प्रकार है: पूर्व प्रारम्भिक हिन्दी (संवत् 700-1343), उत्तर प्रारम्भिक हिन्दी (संवत् 1343-1444), पूर्व माध्यमिक हिन्दी (संवत् 1445-1560), प्रौढ़ माध्यमिक हिन्दी (संवत् 1561-1680), पूर्वालंकृत प्रकरण (संवत् 1681-1790), उत्तरालंकृत प्रकरण (संवत् 1791-1889), अज्ञातकाल (अकारादिक्रम से वर्णित), परिवर्तन काल (संवत् 1890-1925) और, वर्तमान काल (संवत् 1926 से अबतक)। इस ढाँचे को देखने से पता चलता है कि यहाँ काल-विभाजन का प्रमुख आधार भाषा का विकास है। हालाँकि, मिश्रबन्धुओं ने अपने काल-विभाजन में प्रवृत्तियों का भी संकेत किया है। इस विभाजन में जिस तरह पूर्व, उत्तर, प्रौढ़ आदि कालक्रम के द्योतक हैं, उसी तरह से अलंकृति और परिवर्तन आदि परिवर्तन के परिचायक। कहा जा सकता है कि मिश्रबन्धुओं का यह काल-विभाजन अधिक स्पष्टता से साहित्य का वर्गीकरण करता है, अधिक व्यवस्थित है।
- रामचन्द्र शुक्ल के समय हिन्दी साहित्येतिहास लेखन में काल-विभाजन
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने से पहले के हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की चर्चा करते हुए उन्हें वास्तविक अर्थों में ‘इतिहास’ न मानकर केवल ‘वृत्तसंग्रह’ माना है। शिवसिंह सरोज को उन्होंने वृत्त-संग्रह, मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ नार्दर्न हिन्दुस्तान को ‘बड़ा कवि-वृत्त-संग्रह’ और मिश्रबन्धु विनोद को ‘बड़ा भारी कवि-वृत्त-संग्रह’ कहा है। उनके अनुसार इन इतिहास ग्रन्थोंमें ‘विचार-शृंखला’ का अभाव है, जबकिविचार-शृंखलासे ही काल-विभाजन में सुसंगतिआती है।
‘विचार-शृंखला’ का सुसंगत स्वरूप और तर्कसंगत काल-विभाजन के ढाँचे तक पहुँचने में आचार्य शुक्ल को भी समय लगा था। सन् 1929 में हिन्दी साहित्य का इतिहास के प्रकाशन से पहले के अपने प्रयासों की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि”पाँच या छह वर्ष हुए छात्रों के उपयोग के लिए मैंने कुछ संक्षिप्तनोट तैयार किए थे, जिनमें परिस्थिति के अनुसार शिक्षित जनसमूह की बदलती हुई प्रवृत्तियों को लक्ष्य करके हिन्दी साहित्य के इतिहास के कालविभाग और रचना की भिन्न-भिन्नशाखाओं के निरूपण का एक कच्चा ढाँचा खड़ा किया था।”(हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचन्द्र शुक्ल) उनका ध्यान ‘इस आरम्भिककच्चेढाँचे को व्यवस्थित करने पर था, न कि कवि कीर्तन करना।’
आचार्य शुक्ल से पहले जो इतिहास-ग्रन्थ थे, उनमें ‘विचार-शृंखलाबद्ध’ दृष्टि का अभाव तो था ही, उपलब्ध सामग्री का प्रवृत्तियों के हिसाब से सुसंगत वर्गीकरण भी नहीं था। साहित्य के विकास और समाज से उसके सम्बन्ध के बारे में अपनी सुनिश्चित दृष्टि के आधार पर आचार्य शुक्ल ने पहली बार सुसंगत काल-विभाजन किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि “शिक्षित जनता की जिन-जिन प्रवृत्तियों के अनुसार हमारे साहित्य स्वरूप में जो-जो परिवर्तन होते आए हैं, जिन-जिन प्रभावों की प्रेरणा से काव्य-धारा की भिन्न-भिन्न शाखाएँ फूटती रही हैं, उन सबके सम्यक निरूपण तथा उनकी दृष्टि से किए हुए सुसंगत कालविभाग के बिना साहित्य के इतिहास का सच्चा अध्ययन कठिन दिखाई पड़ता था। सात-आठ सौ वर्षों की संचित ग्रन्थराशि सामने लगी हुई थी; पर ऐसी निर्दिष्ट सरणियों की उद्भावना नहीं हुई थी, जिसके अनुसार सुगमता से इस प्रभूत सामग्री का वर्गीकरण होता।… सारे रचनाकाल को केवल आदि, मध्य, पूर्व, उत्तर इत्यादि खण्डों में आँख मूँद कर बाँट देना– यह भी न देखना कि खण्ड के भीतर क्या आता है, क्या नहीं, किसी वृत्त संग्रह को इतिहास नहीं बना सकता।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास – रामचन्द्र शुक्ल) उन्होंने हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन दो आधारों पर किया है। पहला, कालक्रम के आधार पर और दूसरा, साहित्यिक प्रवृत्तियों की प्रधानता के आधार पर। कालक्रम के आधार पर उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को आदिकाल (संवत् 1050-1375), पूर्व मध्यकाल (संवत् 1375-1700), उत्तर मध्यकाल (संवत् 1700-1900) और आधुनिक काल (संवत् 1900 से आगे) में बाँटा है और साहित्यिक प्रवृत्तियों की प्रधानता के अनुसार वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और गद्यकाल में।
उन्होंने हिन्दी साहित्य के पहले युग को आदिकाल कहा है और इसके अन्तर्गत अपभ्रंश साहित्य पर विचार करते हुए वीरगाथा काव्यों की प्रामाणिकता आदि की चर्चा की है। पूर्व मध्यकाल में उन्होंने निर्गुण, सगुणवादी भक्त कवियों और जायसी आदि प्रेममार्गी कवियों का विवेचन किया है। तीसरे उत्तर मध्यकाल में उन्होंने रीति ग्रन्थकारों को लिया है और चौथे आधुनिक काल में आधुनिक गद्य के विकास, भारतेन्दु और द्विवेदीकालीन साहित्य और छायावाद की चर्चा की है। इस व्यवस्था में उन्होंने दो चीजें मिलाने की कोशिश की है, एक तो कालक्रम और दूसरी किसी साहित्यिक धारा की विशेषताएँ। अपनी काल-विभाजन की पद्धति को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि जिस कालविभाग के भीतर किसी विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़ी है, वह एक अलग काल माना गया है और उसका नामकरण उन्हीं रचनाओं के स्वरूप के अनुसार किया गया है। उनके अनुसार, दूसरी बात है ग्रन्थों की प्रसिद्धि। किसी काल के भीतर जिस एक ही ढंग के बहुत अधिक ग्रन्थ प्रसिद्ध चले आते हैं, उस ढंग की रचना उस काल के लक्षण के अन्तर्गत मानी जाएगी। उनके अनुसार प्रसिद्धि भी किसी काल की लोकप्रवृत्ति की प्रतिध्वनि है।
आचार्य शुक्ल के काल-विभाजन की इस अवधारणा और पद्धति के पीछे उनके अपने समय की सांस्कृतिक चेतना काम कर रही थी। नामवर सिंह ने इसे लक्ष्य करते हुए लिखा है, ‘‘सांस्कृतिक पुनरुत्थान की लहर ने हमारे देश में नई चेतना ला दी। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रीयता की भावना उमड़ी। आगे चलकर विचारों में सामाजिक चेतना आयी। इतिहास में व्यक्तियों के सहारे समूची जाति का कार्य-कलाप दिखाने की चेष्टा होने लगी। व्यक्ति अपनी समस्त परिस्थितियों के साथ वर्णित हुआ। साहित्य का इतिहास अलग-अलग कवियों की समीक्षाओं का संग्रह था, अब विभिन्न युगों की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के वर्णन से भी संबलित हो उठा। एक युग तथा एक प्रकार की रचना करने वाले कवियों की सामान्य विशेषताओं के अनुसार प्रवृत्तियों तथा युग का विभाजन किया गया और इन साहित्यिक प्रवृत्तियों को तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक घटनाओं से सम्बद्ध करने का प्रयत्न हुआ।’’
आचार्य शुक्ल के सामने हिन्दी साहित्य के इतिहास की विभिन्न परम्पराओं के उदय और अस्त, परिवर्तन और प्रगति, निरन्तरता और अन्तराल तथा संघर्ष और सामंजस्य का मूल्यांकन करने और अपने समय की रचनाशीलता के विकास के सन्दर्भ में प्रासंगिक परम्पराओं को रेखांकित करने का महत्त्वपूर्ण दायित्व था। उन्होंने इतिहास के अपने ढाँचे में व्यवस्थापन एवं सुसंगत विभाजन के साथ जनता की चित्तवृतियों की परिवर्तनशीलता और विकासशीलता की परम्परा तथा साहित्य परम्परा के साथ उनके सामंजस्य का भी ध्यान रखा है। वे यह मानते थे कि साहित्य के इतिहास के किसी भी काल में संस्कृति और विचारधाराओं की विविधता और अन्तर्विरोधों के अस्तित्व के कारण अनेक रचना-प्रवृत्तियाँ एक साथ सक्रिय हो सकती हैं। उनके अनुसार ‘‘यद्यपि इन कालों की रचनाओं की विशेष प्रवृत्ति के अनुसार ही उनका नामकरण किया गया है, पर यह न समझना चाहिए कि किसी विशेष काल में और प्रकार की रचनाएँ होती ही नहीं थीं। जैसे, भक्तिकाल या रीतिकाल को लें तो उसमें वीररस के अनेक काव्य मिलेंगे जिनमें वीर राजाओं की प्रशंसा उसी ढंग की होगी जिस ढंग की वीरगाथाकाल में हुआ करती थी।’’ आचार्य शुक्ल ने बताया है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक विशेषता यह भी रही है कि एक विशिष्ट काल में किसी रूप की जो काव्यसरिता वेग से प्रवाहित हुई, वह यद्यपि आगे चलकर मन्द गति से बहने लगी, पर 900 वर्षों के हिन्दी साहित्य के इतिहास में हम उसे कभी सर्वथा सूखी हुई नहीं पाते।
हिन्दी के साहित्येतिहासों में काल-विभाजन की जगह विभिन्न रचना-प्रवृत्तियों की धारावाहिकता को महत्त्व देने वाली एक और पद्धति भी मिलती है। साहित्य के इतिहास लेखन की इस पद्धति में आचार्य शुक्ल की ही भांति यह माना गया है कि रचना की कोई प्रवृत्ति या परम्परा एक बार अस्तित्व में आने के बाद दूसरी प्रवृत्तियों और परम्पराओं से सहअस्तित्व या संघर्ष की स्थिति कायम रखते हुए लम्बे काल तक जीवित रहती है। आचार्य शुक्ल की पद्धति से इसका अन्तर यह है कि इतिहास लेखन की इस पद्धति में रचना प्रवृत्तियों की निरन्तरता को ध्यान में रखकर साहित्य का धारावाहिक इतिहास लिखने का प्रयास होता है। बाबू श्यामसुन्दर दास ने अपने हिन्दी भाषा और साहित्य (सन् 1930) में वीरगाथाओं की परम्परा दिखाते समय ऐसी ही पद्धति अपनाई है। उन्होंने प्रत्येक प्रवृत्ति का आदिकाल से आधुनिक काल तक सीधा विकास दिखाया है। इस पद्धति की असंगतियों को आचार्य शुक्ल समझते थे। वह जानते थे कि हिन्दी साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों और व्यक्तियों के सम्बन्धों में केवल कालानुक्रम ही नहीं है, बल्कि इस क्रम में आन्तरिक विकास की गति भी समाहित है। एक साहित्यिक प्रवृत्ति के अन्त से ही दूसरी साहित्यिक प्रवृत्ति की उत्पत्ति जुड़ी है। धारावाहिक इतिहास लेखन की पद्धति में इस सचाई का उल्लंघन होता है। आचार्य शुक्ल की इतिहास-दृष्टि वस्तुवादी है और इसी कारण से उन्होंने विकासवाद की वैज्ञानिक धारणा को माना है। साहित्य की प्रवृत्तियों की धारावाहिकता और निरन्तरता को स्वीकार कर लेने का मतलब है साहित्येतिहास में मुख्य प्रवृत्तियों और गौण प्रवृत्तियों के निर्धारण की समस्या का उत्पन्न होना। कोई एक प्रवृत्ति समूचे इतिहास में न तो मुख्य बनी रहती है, और न ही गौण। प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर काल-विभाजन करने की परिपाटी में गौण रचना-प्रवृत्तियों की समस्या स्वाभाविक है। इस जटिल समस्या का हल निकालने के लिए ही आचार्य शुक्ल ने प्रत्येक युग के अन्त में फुटकल रचनाओं एवं रचनाकारों पर विचार किया है।
हालाँकि, फुटकल रचनाओं और रचनाकारों पर विचार करने वाली काल-विभाजन की उनकी पद्धति की आलोचना भी कम नहीं हुई है। नामवर सिंह के अनुसार ‘‘युग विभाजन करने में आचार्य शुक्ल का औसतवाद वाला सिद्धान्त दरअसल सामाजिक परिस्थितियों एवं साहित्यकार के बीच अलगाव का परिणाम है। उसमें साहित्यिक प्रवृत्तियों तथा सामाजिक परिस्थितियों के बीच कार्य-कारण सम्बन्धी असंगति दिखाई पड़ती है।…एक ही परिस्थिति में विभिन्न काव्य-प्रवृत्तियों के अस्तित्व की संगति बैठाने में वे असमर्थ थे, क्योंकि उन्हें उन परिस्थितियों में पलनेवाली परस्पर-विरोधी विविध सामाजिक शक्तियों के अन्तर्विरोध का पता न था। इसीलिए उन्हें अपने इतिहास के हर युग में एक फुटकल खाता खोलना पड़ा।’’ यह मानते हुए भी कि आचार्य शुक्ल ने प्रवृत्ति साम्य और युग के अनुसार कवियों को समुदायों में रखकर सामूहिक प्रभाव डालने की ओर ध्यान दिया है, इसीलिए कुछ विशिष्ट कवियों को भी उन्हें फुटकल खाते में डाल देना पड़ा। नामवर सिंह ने लिखा है, ‘‘विद्यापति असन्दिग्ध रूप से आधुनिक भाषाओं में ‘लिरिक’ के पहले महान कवि थे। अब यदि ऐसा कवि साहित्यिक इतिहास के अन्तर्गत एक काल के फुटकल खाते में स्थान पाए तो क्या उस काल-विभाजन का समूचा सिद्धान्त ही सन्दिग्ध नहीं हो जाता?’’
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में आचार्य शुक्ल से पहले काल-विभाजन तो प्रस्तुत किया गया था, लेकिन उसका कोई व्यवस्थित आधार नहीं था। आचार्य शुक्ल ने पहली बार साहित्य के काल-विभाजन और नामकरण की एक व्यवस्थित पद्धति कायम की और उसको एक ठोस आधार दिया। नामवर सिंह की दृष्टि में यह व्यवस्थित आधार भले ही सन्दिग्ध हो, वास्तविकता यही है कि इतिहास लेखन की परवर्ती परम्परा पर आचार्य शुक्ल के इस काल-विभाजन का व्यापक प्रभाव स्पष्ट है। रामविलास शर्मा के अनुसार ‘‘आचार्य शुक्ल अपने समय में तो इतिहास लेखन में दिग्विजयी हुए ही थे, उनके बाद भी उनका काल-विभाजन-या हिन्दी साहित्य की मुख्य धाराओं का विभाजन– बहुत कुछ अपने मूल रूप में कायम है। कुछ लोगों ने जोर बहुत लगाया लेकिन आचार्य शुक्ल की कायम की हुई व्यवस्था टस से मस न हुई। वीरगाथा, निर्गुण और सगुण भक्ति, प्रेमकथानक, रीतिकाव्य, भारतेन्दु युग, छायावाद आदि का सिलसिला अब भी चला आता है।’’
आचार्य शुक्ल के हिन्दी साहित्य का इतिहास के बाद सन् 1931 में रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ का हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रकाशित हुआ। अब तक माना जाता था कि साहित्य के इतिहास से पहले साहित्य का अध्ययन जरूरी है, वहीं रसाल जी ने साहित्य के अध्ययन से पहले उसके ऐतिहासिक विकास से परिचित होना जरूरी समझा। उनके अनुसार हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन इस प्रकार है: आदिकाल-बाल्यावस्था (संवत् 1000-1400), मध्यकाल- किशोरावस्था (संवत् 1400-1800) और आधुनिक काल-युवावस्था (संवत् 1800 से आजतक)। रसाल जी ने काल-विभाजन में जैविक विकास की धारणा का सहारा लिया। साहित्येतिहास को व्यक्ति मान कर उसकी बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था का वर्णन करना संगत नहीं है। अपने काल-विभाजन को स्पष्ट करते हुए रसाल जी ने लिखा कि जो ऐतिहासिक काल-विभाजन मैंने दिया है, उसका आधार, उस काल की प्रधान विचारधारा के ही रूप में है, जो उस समय हिन्दी-संसार की जनता में पूर्ण प्राधान्य, प्राबल्य और प्रभाव-प्रवेग के साथ प्रवाहित रही है। हालाँकि, सत्य यह है कि वीरगाथा काल को ‘जय-काव्य’ तथा रीतिकाल को ‘कला-काल’ के नाम से अभिहित कर देने मात्र से ही उनकी यह धारणा प्रमाणित नहीं होती।
आचार्य शुक्ल के बाद के साहित्येतिहास लेखकों सूर्यकान्त शास्त्री (हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास, सन् 1932), अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (हिन्दी भाषा और उसके साहित्य का विकास, सन् 1934), रामकुमार वर्मा (हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, सन् 1938) आदि ने कुछ हेर-फेर के साथ आचार्य शुक्ल के काल-विभाजन को ही मान लिया। यद्यपि रामकुमार वर्मा ने आचार्य शुक्ल के आदिकाल को वीरगाथाकाल की जगह चारण-काल कहा है, और उससे पहले संवत् 750-1000 तक के समय को सन्धिकाल के रूप में प्रस्तावित किया है।
- रामचन्द्र शुक्ल के बाद हिन्दी साहित्येतिहास लेखन में काल-विभाजन
आचार्य शुक्ल के बाद साहित्येतिहास लेखन की परम्परा का विकास सही अर्थों में हजारीप्रसाद द्विवेदी (हिन्दी साहित्य की भूमिका, सन् 1940 और हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास एवं, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, दोनों सन् 1952) ने ही किया है। उन्होंने आचार्य शुक्ल के इतिहास की दो मुख्य विशेषताओं को महत्त्वपूर्ण माना है– ऐतिहासिक काल-विभाजन और साहित्यिक मूल्यांकन। आचार्य शुक्ल के इतिहास के बारे में आचार्य द्विवेदी ने कहा, ‘‘आचार्य शुक्ल ने पहली बार हिन्दी साहित्य के इतिहास को कविवृत्तसंग्रह की पिटारी से बाहर निकाला। पहली बार उसमें श्वासोच्छ्वास का स्पन्दन सुनाई पड़ा। पहली बार वह जीवन्त मानव-विचार के गतिशील प्रवाह के रूप में दिखाई पड़ा।’’ आचार्य द्विवेदी जहाँ एक तरफ आदिकाल नाम और उसकी कालसीमा को स्वीकार करते हैं, वहीं वे वीरगाथाकाल नाम से असहमत हैं। आचार्य द्विवेदी अपनी पुस्तक हिन्दी साहित्य का आदिकाल में आचार्य शुक्ल के काल-विभाजन के सिद्धान्त से अपना मतभेद स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘‘वस्तुतः किसी कालप्रवृत्ति का निर्णय प्राप्त ग्रन्थों की संख्या द्वारा नहीं निर्णीत हो सकता, बल्कि उस काल की मुख्य प्रेरणादायक वस्तु के आधार पर ही हो सकता है। प्रभाव-उत्पादक और प्रेरणा-संचारक तत्त्व ही साहित्यिक काल के नामकरण का उपयुक्त निर्णायक हो सकता है।’’ अपनी इस मान्यता के आलोक में आचार्य द्विवेदी ने वीरगाथाकाल नाम से अपना मतभेद प्रकट करते हुए राहुल सांकृत्यायन के सुझाए नाम सिद्धसामन्तकाल को उस काल की साहित्यिक प्रवृत्ति को बहुत दूर तक स्पष्ट करने वाला माना है।
आचार्य द्विवेदी मानते थे कि किसी एक युग में जनता के विभिन्न समुदायों की विभिन्न प्रवृत्तियाँ हो सकती हैं, और इन विभिन्न प्रवृत्तियों का पारस्परिक सम्बन्ध युग की विशेषता प्रकट करता है। आचार्य शुक्ल के लिए जहाँ किसी एक प्रवृत्ति की प्रबलता और प्रसिद्धि साहित्यिक तथ्यों के ऐतिहासिक महत्त्व का निर्धारण करती है, वहीं आचार्य द्विवेदी के लिए विभिन्न प्रवृत्तियों का पारस्परिक सम्बन्ध।
आचार्य द्विवेदी ने अपनी दृष्टि मुख्यतः मध्यकाल के साहित्य पर केन्द्रित की है। हिन्दी साहित्य की भूमिका में यद्यपि उन्होंने ‘मध्ययुग’ नाम का उपयोग किया है फिर भी मध्ययुगीनता को पतनोन्मुख और जबदी हुई मनोवृत्ति का सूचक मानने के कारण बाद के अपने इतिहास में उन्होंने इसे हटा दिया है। भक्ति साहित्य के सामंतविरोधी स्वर एवं लोकभाषाओं की कविता को देखते हुए आचार्य द्विवेदी ने भक्ति साहित्य से ही ‘वास्तविक हिन्दी साहित्य का आरम्भ’ माना है। आचार्य द्विवेदी भारतीय समाज और साहित्य के इतिहास के मध्यकाल को यूरोपीय मध्यकाल के समान ही पतनोन्मुख, जबदी हुई मनोवृत्ति वाला और अन्धकार काल नहीं मानते। उनका मानना है कि भारतीय साहित्य के इतिहास के इस काल में ही अखिल भारतीय व्यापक जनसंस्कृति के जागरण की अभिव्यक्ति करने वाला भक्ति साहित्य लिखा जाता है।
गणपति चन्द्र गुप्त ने इस कालखण्ड में हिन्दी साहित्य का एक इतिहास लिखने का प्रयास किया है। सन् 1965 में प्रकाशित अपने साहित्येतिहास का नाम उन्होंने हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास रखा है। उन्होंने हिन्दी साहित्य का आरम्भ सन् 1184 के शालिभद्र सूरि कृत भरतेश्वर बाहुबली रास से माना है। इस सम्बन्ध में उनका कहना है कि भाषा के उद्भव के पूर्व ही उसके साहित्य का आविर्भाव मानना एक विचित्र कल्पना है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को दो बड़े कालखण्डों में विभक्त किया है– एक तो सन् 1857 से पहले का समय, और दूसरा उसके बाद का। इसके पीछे उनका तर्क है कि जिस प्रकार हमारे राजनीतिक इतिहास में सन् 1857 एक ऐसी विभाजक रेखा है, जिससे मुस्लिम राज्य की समाप्ति तथा ब्रिटिश शासन का आरम्भ होता है, उसी प्रकार हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी यह पुराने युग की समाप्ति एवं नए युग के आरम्भ की सूचक है। सन् 1857 के पहले के समूचे कालखण्ड को उन्होंने भी यद्यपि पहले की ही भाँति आदिकाल (सन् 1184-1350), पूर्व मध्यकाल (सन् 1350-1600) तथा उत्तर मध्यकाल (सन् 1600-1857) में बाँटा है।
आचार्य शुक्ल के बाद हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वालों में रामस्वरूप चतुर्वेदी का नाम प्रमुख है। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने सन् 1986 में हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास नाम से हिन्दी साहित्य का एक इतिहास लिखा। अपनी पद्धति के बारे में उन्होंने बताया कि वृत्त यहाँ सर्वांगपूर्ण न होकर चयनधर्मी है और युग का विश्लेषण तथा विवेचन प्रतिनिधि रचनाकारों के आधार पर हुआ है। इतिहास की जगह विकास पर ध्यान केन्द्रित करने का कारण स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया है कि इतिहास में बल इतिवृत्त पर होता है, विकास में इतिवृत्त के उस अंश पर जहाँ दिखाया जाता है कि एक युग अपने पिछले युग से, और एक रचनाकार कालक्रम में अपने से पहले के रचनाकार से कहाँ और क्यों भिन्न तथा विशिष्ट है। चतुर्वेदी जी के अनुसार चन्दबरदाई-कबीर-जायसी-तुलसी-देव-भारतेन्दु के कृत्तिव को न सिर्फ उनके युगीन संदर्भों में रखकर समझा जा सकता है, और न केवल समकालीन सन्दर्भों में। इतिहासकार का यह दायित्व है कि इन दोनों युगों का रिश्ता और क्रिया-प्रतिक्रिया स्पष्ट करते हुए वह रचनाकार के सम्प्रेषण को प्रशस्त करे, और व्यापक परम्परा के अन्तर्गत उसका मूल्यांकन करे। इतिहास की इस प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए यह भी जरूरी है कि हम युग विशेष की संवेदना को समझें, और उस युग के साहित्य में उसकी साझेदारी का विश्लेषण कर सकें। अभी तक के इतिहासों में सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का इतिवृत्त-कथन अलग होता है, और साहित्य-धारा का दिग्दर्शन अलग। यहाँ प्रयत्न यह है कि साहित्य और संवेदना को एक साथ देखा-परखा जा सके। काल-विभाजन की उनकी दृष्टि भी संवेदना पर ही टिकी है। उनका मानना है कि संवेदना में बदलाव को समझने से साहित्यिक युगों की परिकल्पना, और उनके बीच के महत्त्वपूर्ण अन्तरालों को समझा जा सकता है जो साधारण दृष्टि के लिए ओझल बने रहते हैं। इसीलिए साहित्य के विकास के साथ-साथ संवेदना के विकास को रेखांकित करना इतिहासकार के कर्म का आवश्यक अंग है। यद्यपि उनके इतिहास में भी काल-विभाजन में आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल वाला आचार्य शुक्ल का ही ढाँचा दिखाई पड़ता है।
- निष्कर्ष
साहित्य के इतिहास लेखन में काल-विभाजन एक जटिल विषय है। काल-विभाजन करते हुए सामाजिक विकास की अवस्थाओं के साथ साहित्यिक प्रवृत्तियों की समानता का विचार करना कठिनाई उत्पन्न करता है। यही कारण है प्रायः समाज के इतिहास के युगों के साथ साहित्य के इतिहास के युगों की संगति नहीं दिखाई पड़ती। बहुत हद तक यह संगति आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के हिन्दी साहित्य का इतिहास में दिखाई पड़ती है। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार कालों में विभक्त किया है – वीरगाथा काल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल। आचार्य शुक्ल के इतिहास की संरचना, उनका काल-विभाजन, नामकरण की व्यवस्था और विभिन्न कवियों तथा लेखकों के बारे में उनके मूल्यांकन की परवर्ती आलोचकों द्वारा की गई आलोचनाओं के बावजूद आचार्य शुक्ल की मान्यताएँ, उनके मूल्य-निर्णय और उनकी स्थापनाएँ हिन्दी के पाठकों के साहित्य-बोध का अनिवार्य अंग बनी हुई हैं।
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वेब लिंक्स
- https://www.youtube.com/watch?v=VeVGp2lJRno
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- https://www.youtube.com/watch?v=7y7D6iVBoTw