31 हिन्दी का प्रतिबन्धित साहित्य और हिन्दी साहित्य का इतिहास
डॉ. गजेन्द्र पाठक
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन द्वारा आप –
- प्रतिबन्ध की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
- प्रतिबन्धित साहित्य का साहित्येतिहास से सम्बन्ध जान पाएँगे।
- प्रतिबन्धित साहित्य को प्रकाश में लाने वाले प्रयास से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
युग कासाहित्यतत्कालीन समाज का दर्पण होता है। समाज के बदलाव की क्रमागत स्थितियाँ तो साहित्यमें रेखांकित होती ही हैं, कई बार साहित्य समाज को बदलने की भी पहल करता है। जब कभी वह शासक वर्ग के विरुद्ध जोर-जोर से आवाज उठाता है तो, उसपर पाबन्दी लगा दी जाती है।भारतीय अभिलेखागारोंमें कई ऐसी साहित्यिक रचनाएँ हैं, जो कभी प्रतिबन्धित की गईथीं।हिन्दी साहित्य मेंउन्हें शामिल करने पर साहित्य के इतिहास की रूपरेखा में आमूलचूल परिवर्तन आसकता है
- प्रतिबन्धन की अवधारणा
प्रतिबन्धन का सामान्य अर्थ निषेध होता है, लेकिन राजनीतिक परिपेक्ष्य में इसका अर्थ उस वैधानिक कार्रवाई से है जो प्रकाशन, संगठन, सभा आदि को गैरकानूनी घोषित कर दमनात्मक रुख अपनाता है। कई बार भाषण, यात्रा आदि पर भी निषेधाज्ञा लागू कर दी जाती है। यह कार्रवाई सत्ताधारी उनके विरुद्ध करता है, जो उनके द्वारा किए गए अन्याय और अत्याचार का खुलासा करता है, उनकी दुर्व्यवस्था के विरुद्ध जनता को जागरूक करता है और अपने हक की लड़ाई के लिए प्रेरित करता है। साम्राज्यवादी शक्तियों के सन्दर्भ में इसे स्पष्टता से समझा जा सकता है। साम्राज्यवादी शक्ति अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए उन गतिविधियों का दमन करना चाहती है, जो गुलामों में स्वतन्त्रता की चेतना भरती है। साहित्य में जब जन-चेतना जाग्रत करने की प्रेरणा दिखाई देती है, उसे प्रतिबन्धित कर दिया जाता है।
- भारत में प्रतिबन्धित साहित्य
वैसे तो यह संयोग मात्र भी हो सकता है, पर सच्चाई है कि जिस वर्ष स्वाधीन भारत के लोगों ने अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध अनुभव किया, उसके ठीक एक वर्ष बाद सन् 1976 में एन.जेराल्ड बैरीयर की किताब बैण्ड कण्ट्रोवर्सियल लिटरेचर एण्ड पोलिटिकल कण्ट्रोल इन ब्रिटिश इण्डिया 1907-1947 (BANNED CONTROVERSIAL LITERATURE AND POLITICAL CONTROL IN BRITISH INDIA 1907-1947) प्रकाशित हुई। सन् 1907 से लेकर 1947 के बीच ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीय भाषाओं में लिखे जाने वाले साहित्य पर प्रतिबन्ध का इस किताब में अध्ययन किया गया है। भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागर (NATIONAL ARCHIV OF INDIA), ब्रिटिश संग्रहालय (ब्रिटिश म्युजियम) इण्डिया के पुस्तकालय में मौजूद प्रतिबन्धित रचनाओं की सूची भी इस किताब में है। जेराल्ड के अनुसार बंग्ला में 226, गुजराती में 158, हिन्दी में 1,391, हिन्दुस्तानी में 320, मराठी में 185, अंग्रेजी में 273, पंजाबी में 135, उर्दू में 468, द्रविड़ भाषाओं में 224 और अन्य में 538 रचनाओं को ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत प्रतिबन्धित किया गया था।
एन. जेराल्ड बैरीयर ने प्रतिबन्ध की राजनीति का विश्लेषण इस किताब में विस्तार से किया है, इस बात पर भी विचार किया है कि किन-किन राज्यों से कैसी-कैसी रचनाओं पर प्रतिबन्ध लगाया गया और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए किस तरह इंग्लैण्ड ले जाया गया। इन प्रतिबन्धित रचनाओं को उन्होंने तीन श्रेणियों में विभाजित किया है, जिसमें पहली श्रेणी के अन्तर्गत धर्म सम्बन्धी ब्रिटिश विरोध और धर्म निरपेक्ष राजनीति वाला साहित्य शामिल है, दूसरी श्रेणी के अन्तर्गत भारत भक्त लोगों की जीवनियाँ और अन्य संकलित रचनाएँ शामिल हैं और तीसरी श्रेणी देशभक्ति से जुड़ी हुई कविताओं और गीतों की है। हालाँकि बैरीयर ने यह भी लिखा है कि इनमें से कई रचनाएँ इन तीनों श्रेणियों का अतिक्रमण करती हैं।
- प्रतिबन्धित साहित्य और हिन्दी साहित्य का इतिहास
एन. जेराल्ड बैरीयर ने अपने महत्त्वपूर्ण शोध में हिन्दी की जिन 1,391 प्रतिबन्धित किताबों का उल्लेख किया है, उनकी चर्चा हिन्दी साहित्य के किसी इतिहास में नहीं मिलती। हिन्दुस्तानी भाषाओं में लिखी जाने वाली रचनाएँ अभी अलग हैं, इस सूची में उन्हें भी शामिल कर लिया जाए, तो यह संख्या 1,711 हो जाती है। इतनी बड़ी संख्या में प्रतिबन्धित रचनाओं की उपेक्षा करके हिन्दी में आचार्य शुक्ल से लेकर रामविलास शर्मा तक के विद्वानों ने आधुनिकता से लेकर नवजागरण काल तक की जो चर्चा की है उसके अधूरेपन का सिर्फ अनुमान किया जा सकता है। ब्रिटिश शासन द्वारा निर्धारित प्रतिबन्ध के मानदण्ड क्रमशः इस प्रकार थे–
- सन् 1857 के आन्दोलन के समर्थन में लिखी हुई कोई रचना प्रकाशित नहीं हो सकती।
- अंग्रेजी राज्य के दमन और शोषण के खिलाफ लिखा जाने वाला कोई भी लेख या रचना प्रकाशित नहीं हो सकती।
- दुनिया के किसी भी देश के स्वाधीनता आन्दोलन के समर्थन में लिखा हुआ कुछ भी प्रकाशित नहीं हो सकता।
- रूसी क्रान्ति और मार्क्सवाद के बारे में कुछ भी जानकारी देने वाली रचना प्रकाशित नहीं हो सकती।
ब्रिटिश शासन द्वारा प्रतिबन्ध के इन चारों आधारों से स्पष्ट होता है कि उस दौर की जो प्रतिबन्धित रचनाएँ हुईं हैं, शुक्ल जी के उस मानदण्ड पर खरा उतरती हैं, जिसके आधार पर उन्होंने जीवन और साहित्य की दिशा और दशा को एक साथ जोड़ते हुए आधुनिक साहित्य का आधार माना था। अर्थात जीवन और साहित्य की दशा-दिशा का सबसे जीवन्त प्रमाण ही जब ओझल हो, तब हिन्दी साहित्य की आधुनिकता का कोई भी मूल्यांकन किस प्रकार प्रामाणिक हो सकता है ?
डॉ. रामविलास शर्मा ने सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन को हिन्दी नवजागरण का गोमुख माना था। नवजागरण के चार चरणों में बाकी तीन तो साहित्य से जुड़े हुए थे, लेकिन पहला सीधे-सीधे राजनीति से सम्बद्ध था। सन् 1857 के पहले स्वाधीनता आन्दोलन और भारतेन्दु युग के बीच कोई सीधा सम्बन्ध न होने के कारण उनकी नवजागरण सम्बन्धी अवधारणा पर सवाल उठा था। जाहिर है जब इस आन्दोलन का समर्थन करने वाली अधिकांश रचनाएँ प्रतिबन्धित और अप्रकाशित हों, तो यह काम कैसे सम्भव था? रामविलास जी ने नवजागरण की अपनी अवधारणा में इस कमी को दूर करने का प्रयास क्यों नहीं किया, यह बात समझ में नहीं आती? क्या इन हजारों की संख्या में मौजूद रचनाओं से आँख मूँदकर हिन्दी नवजागरण की वास्तविक अवधारणा पर विचार करना सम्भव है?
ब्रिटिश शासन ने जिन पुस्तकों, पत्रिकाओं और अखबारों पर पाबन्दी लगाई थी, उनमें प्रेमचन्द के सोजे वतन और समर यात्रा तथा अन्य कहानियों से हम परिचित हैं। साहित्य की शायद ही कोई विधा हो जो प्रतिबन्ध का शिकार न हुई हो। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध आदि सभी विधाएँ प्रतिबन्धित हुईं। पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ के तीन कहानी संग्रह प्रतिबन्धित हुए। सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक देशेर कथा और उसके हिन्दी अनुवाद पर पाबन्दी लगी। नवजादिक लाल श्रीवास्तव की किताब पराधीनता की विजय यात्रा पर पाबन्दी लगी। देवनारायण द्विवेदी की किताब देश की बात प्रतिबन्ध का शिकार हुई। ये किताबें जब आज हमारे सामने हैं, तब उन्हें पढ़कर महसूस होता है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में राष्ट्रीय कविता या राष्ट्रीय साहित्य नाम का जो लेखन हम देखते और पढ़ते आए हैं, वह कितना बचकाना है। ये दो-चार किताबें तो सिर्फ उदाहरण हैं। संग्रहालयों में हजारों की संख्या में मौजूद ऐसी किताबें हिन्दी के शोधकर्ताओं का इन्तजार कर रही हैं। ये किताबें जिस दिन प्रकाशित होकर हमारे बीच आएँगी, साहित्य के इतिहास को देखने और उसे लिखने का हमारा नजरिया निश्चय ही बदलेगा। इन किताबों का उल्लेख किए बगैर उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का जो इतिहास लिखा गया, उसकी विडम्बना पर विचार करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने लिखा कि ”यह देख कर बहुत आश्चर्य होता है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल के अन्तर्गत अंग्रेजी राज के दौरान प्रतिबन्धित हिन्दी साहित्य का कोई उल्लेख नहीं मिलता, ऐसी स्थिति में उनके विश्लेषण और मूल्यांकन की उम्मीद कैसे की जाए? अंग्रेजी राज के दौरान दो तरह की पुस्तकों पर पाबन्दी लगी थी। उनमें कुछ वैचारिक थीं और कुछ सर्जनात्मक। वैचारिक पुस्तकों में अधिकांशतः इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र से सम्बन्धित थीं, सर्जनात्मकता के अन्तर्गत कविता, उपन्यास, कहानी और नाटक की पुस्तकें अगर साहित्येतिहास में किसी भाषा में मौजूद ज्ञान की दशा का आकलन है, जैसा कि एस. जॉनसन ने कहा था तो हिन्दी साहित्य के इतिहास में हिन्दी में लिखी गई और प्रतिबन्धित हुई इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र की पुस्तकों पर विचार होना चाहिए। ऐसा करने के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास को हिन्दी वांग्मय का इतिहास बनाना होगा, जो वह अभी नहीं है, लेकिन जो लोग साहित्य का इतिहास लिखते समय या उसके बारे में सोचते समय इतिहास से अधिक महत्त्वपूर्ण साहित्य को मानते हैं, वे भी उन कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और नाटकों पर ध्यान नहीं देते, जिन पर प्रतिबन्ध लगा था। उनके विश्लेषण और मूल्यांकन के बाद ही उनकी साहित्यिकता तय हो सकती है, न कि अंग्रेजी राज की तरह उन्हें अवांछित मानकर उपेक्षित करने से। हिन्दी साहित्य के इतिहास और कहीं-कहीं हिन्दी आलोचना में भी एक राष्ट्रीय साहित्यधारा की चर्चा होती है पर उनमें कहीं प्रतिबन्धित रचनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान आन्दोलन के पक्ष में प्रेरणादाई साहित्य लिखने वालों को दोहरा दण्ड मिला, अंग्रेजी राज ने उन रचानाओं पर प्रतिबन्ध लगाकर दण्डित किया, तो हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने उन्हें उपेक्षा का दण्ड दिया।” (देश की बात की भूमिका, पृ-8)
स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान इतनी बड़ी संख्या में प्रतिबन्धित रचनाओं की सूची देखने और साहित्य इतिहास लेखन में उनकी अनुपस्थिति देखकर दोहरे दण्ड की बात सही लगती है। साहस और सच का जोखिम भरा रास्ता चुनने का यह अभिशाप उनके साथ भी जुड़ा हुआ है जो देश के लिए चुपचाप शहीद हो गए। सन् 1857 के बाद के क्रूर ब्रिटिश दमन पर अमरेश मिश्र ने जो शोध किया था, उसे इस सन्दर्भ में याद रखना होगा। सन् 1861 की जनगणना में भारी गिरावट को आधार बनाते हुए जिस तरह व्यापक नरसंहार का जिक्र अमरेश ने किया है, उसे देखते हुए उसके बाद के कठोर प्रेस-कानून और अभिव्यक्ति पर पाबन्दी की बात समझ में आती है। अभिप्राय यह कि स्वाधीनता आन्दोलन को दस-पाँच व्यक्तियों तक सीमित कर देखने वाली इतिहास दृष्टि उस दमन के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ सकी। इसी तरह भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग जैसी व्यक्ति केन्द्रित साहित्य इतिहास दृष्टि व्यापक रूप से प्रतिरोध के उन स्वरों को न तब समझ सकी और न आज समझने की जरूरत समझती है, जो ब्रिटिश भारत में पाबन्दी के शिकार हुए।
- प्रतिबन्धित साहित्य पर दृष्टि
हिन्दी में प्रतिबन्धित साहित्य पर विचार करने का पहला प्रयास भगवान दास माहौर का है। उन्होंने अपने शोध प्रबन्ध सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव में सन् 1857 के महा विद्रोह पर प्रकाशित और अप्रकाशित रचनाओं का विश्लेषण किया था। सन् 1976 में यह शोध प्रकाशित हुआ था। एक संयोग यह भी है कि यह किताब भी उसी साल प्रकाशित हुई, जिस साल एन. जिराल्ड बैरीयर की उल्लिखित किताब प्रकाशित हुई थी। भगवान दास माहौर भगत सिंह के मित्र और सहयोगी थे। यह आकस्मिक नहीं कि उनकी यह किताब भगत सिंह को समर्पित है, क्योंकि अधिकांश प्रतिबन्धित रचनाएँ क्रान्तिकारी विचारों से भरी थीं, इसलिए एक क्रान्तिकारी की हैसियत से भगवान दास माहौर गहरी आत्मीयता के साथ इस किताब में प्रतिबन्धित रचनाओं का विवेचन और विश्लेषण किया। इस किताब की विशेषता यह भी है कि इसमें हिन्दी के अलावा सन् 1857 से सम्बन्धित उर्दू, मराठी, बांग्ला, गुजराती और अंग्रेजी पुस्तकों का भी उल्लेख है।
प्रतिबन्धित साहित्य के अध्ययन के क्रम में दूसरा महत्त्वपूर्ण योगदान विश्वामित्र उपाध्याय का है। सन् 1986 ई. में उनकी पहली किताब विदेशों में भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन दो भागों में प्रकाशित हुई। इस किताब में भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में भारतीय स्वाधीनता से सम्बन्धित अन्दोलनों और प्रयासों का अध्ययन और मूल्यांकन किया गया है। सन् 1989 में विश्वामित्र की दूसरी किताब भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन और हिन्दी साहित्य प्रकाशित हुई। इस किताब में एक अध्याय के अन्तर्गत प्रतिबन्धित हिन्दी साहित्य की राजनीतिक चेतना और साहित्य की विभिन्न विधाओं पर क्रान्तिकारी स्वाधीनता आन्दोलन के प्रभाव का मूल्यांकन भी किया गया है। विश्वामित्र उपाध्याय ने केवल हिन्दी, उर्दू और बांग्ला साहित्य पर क्रान्तिकारी स्वाधीनता आन्दोलनों के प्रभावों का विश्लेषण ही नहीं, विभिन्न लोक-भाषाओं के लोक गीतों में मौजूद क्रान्तिकारी चेतना का भी अध्ययन एवं मूल्यांकन किया है। रामजन्म शर्मा की पुस्तक जो प्रकाशन विभाग, भारत सरकार द्वारा जब्तशुदा गीत : आजादी और एकता के तराने नाम से प्रकाशित है (सन् 1987) भी उल्लेखनीय है। इस पुस्तक में प्रतिबंधित हिन्दीगीतों का संकलन है। पुस्तक की भूमिका में डॉ. शर्मा ने लिखा है – हिन्दी में इन गीतों की पुस्तकों का प्रकाशन मुख्यत: सन् 1922, 1923, 1928, 1929, 1930, 1931, 1932 एवं 1940 में हुआ। ये पुस्तकें 500 से 6000 तक मुद्रित की गई थीं। इन पुस्तकों की कीमत तीन पैसे, एक आना, चार आना से लेकर एक रुपये तक है। पुस्तकों की पृष्ठ संख्या 2 से 77 तक है। पुस्तकों में 2 से 50 तक गीत हैं। मुख पृष्ठ पर किसी शहीद (भगत सिंह, चन्द्र शेखर आजाद, राजगुरु आदि) का चित्र छपा हुआ है।” (जब्तशुदा गीत की भूमिका, रामजन्म शर्मा) डॉ. बैरियार के अनुसार जब्तशुदा गीतों की पुस्तकें इस प्रकार हैं – हिन्दी-264, उर्दू-58, मराठी-33, पंजाबी-22, गुजराती-22, तमिल-19, तेलुगु-10, सिंधी-9, बांग्ला-4, कन्नड़-3, उड़िया-11 । (जब्तशुदा गीत की भूमिका, रामजन्म शर्मा)
सन् 1999 में रुस्तम राय की किताब प्रतिबन्धित साहित्य दो खण्डों में प्रकाशित हुई। पहले खण्ड में हिन्दी की प्रतिबन्धित कहानियाँ और उपन्यास तथा दूसरे में हिन्दी की प्रतिबन्धित कविताएँ हैं। सन् 2006 में मदन लाल क्रान्त की किताब स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास प्रकाशित हुई। इसमें भी प्रतिबन्धित क्रान्तिकारी रचनाओं के आधार पर आधुनिक हिन्दी साहित्य का क्रान्तिकारी पक्ष सामने लाने का प्रयास हुआ।
सन् 2010 में प्रकाशित सत्येन्द्र कुमार तनेजा की किताब सितम की इन्तहाँ क्या है की भूमिका में ब्रिटिश शासन के दौरान हिन्दी में लिखे गए और मंचित होने वाले नाटकों पर पाबन्दी का विस्तृत इतिहास है। दूसरी तरफ इसमें सन् 1916 से 1931 तक के प्रतिबन्धित हिन्दी के सात नाटकों का संकलन है। इस किताब की एक और विशेषता है कि इसके परिशिष्ट में बांग्ला, गुजराती, मराठी, तेलुगु, कन्नड़ और उर्दू के प्रतिबन्धित नाटकों की विस्तृत सूची भी है।
अंग्रेजी राज्य में जिन किताबों पर पाबन्दी लगाई जाती थी, वह पाबन्दी आज की तरह नहीं थी। आज जिन फिल्मों पर या जिन लेखकों की किताबों पर पाबन्दी लगती है, उनका व्यवसाय बढ़ जाता है। चर्चा में ऐसे भले ही वे रचनाएँ न हों, लेकिन पाबन्दी के बाद वे रातों रात मशहूर हो जाती हैं। ब्रिटिश शासन में जिन किताबों पर पाबन्दी लगती थी, उन किताबों की एक प्रति भी बचा पाना मुश्किल काम था। अंग्रेजी राज में जिन किताबों पर पाबन्दी लगाई जाती थी उनकी एक-दो प्रतियों की रक्षा करना भी बड़ी समस्या होती थी, उसके कई खतरे भी होते थे। देउस्कर की पुस्तक के हिन्दी अनुवाद देश की बात और देवनारायण द्विवेदी की पुस्तक देश की बात पर पाबन्दी के बाद उनकी प्रतियाँ जब्त करने के लिए जब पुलिस नवजादिक लाल श्रीवास्तव के घर आई, तो उन्होंने दोनों किताबों की एक-एक प्रति बचाने के लिए अपनी पत्नी की मदद ली, उन्हें एक-एक प्रति छुपाने के लिए दे दी। नवजादिक लाल जी की पत्नी रामसँवारी देवी ने उन प्रतियों को अपनी साड़ी में छिपाकर उनकी रक्षा की। आज हम और आप रामसवाँरी देवी के साहस और समझदारी के कारण ही इस पुस्तक के पुनर्प्रकाशन का अवसर पा रहे हैं।
स्पष्ट है कि प्रतिबन्धित साहित्य की रक्षा सिर्फ बौद्धिक प्रयास से सम्भव नहीं, बल्कि उसके लिए हार्दिक प्रयास और ईमानदार साहस की भी जरूरत होती है। इसी तरह प्रतिबन्धित क्रान्तिकारी राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण साहित्य को स्वाधीन भारत में प्रकाशित और प्रचारित करने के लिए सिर्फ बौद्धिक प्रयास पर्याप्त नहीं है। अपनी इस विरासत पर प्रकाश डालने का जो प्रयास हुआ है, वह प्रयास प्रकाशित किताबों की संख्या को देखते हुए बहुत ही क्षीण है। सत्रह सौ से अधिक प्रतिबन्धित किताबों की सूची से महज पाँच-छह किताबों का प्रकाशन इस बात का प्रमाण है। रही बात हिन्दी आलोचना की तो आजकल एक फैशन की तरह हर बात के लिए पश्चिम की ओर देखने वाली दृष्टि, अपने इस क्रान्तिकारी अतीत के पास क्यों जाना चाहेगी? देश की बात करना वैसे भी अपने बौद्धिक जगत में बहुत साधारण एवं हल्की बात समझी जाती है। प्रतिबन्धित साहित्य के विवेचन एवं मूल्यांकन में हिन्दी आलोचना की इस विडम्बनाजनक स्थिति की भूमिका पर विचार होना आवश्यक है। जब से इस देश में भूमण्डलीकरण की आँधी आई है, हिन्दी क्षेत्र के अधिकांश बुद्धिजीवी स्थानीय होने से पहले राष्ट्रीय बनना चाहते हैं, और राष्ट्रीय बनने से पहले अन्तर्राष्ट्रीय हो जाना चाहते हैं। यह केवल अंग्रेजी में बोलने और लिखने से हो सकता है। इसलिए वे अंग्रेजी में ही लिखते और बोलते हैं।
यह अजीब विडम्बना है कि एक स्वाधीन देश में पैदा हुआ बुद्धिजीवी मानसिक रूप से गुलामी के बोझ को ढो रहा है। जबकि गुलाम देश में पैदा हुए भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता आन्दोलन के महत्त्वपूर्ण लेखक और विचारक अपनी मातृभाषाओं के साथ डटकर खड़े थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर का बांग्ला में लिखना और महात्मा गाँधी का गुजराती में लिखना इसका प्रमाण है। कुमारन आसान देश और दुनिया की तमाम भाषाएँ जानते थे, लेकिन उन्होंने अपनी मातृभाषा मलयालम को अपनी रचनाशीलता के केन्द्र में रखा। रामविलास शर्मा जिस भक्ति-आन्दोलन के लोक जागरण और 19 वीं सदी के पुनर्जागरण को नवजागरण कहते हैं और फिर दोनों के बीच मातृभाषाओं के आधार पर एक सूत्र की तलाश करते हैं, उस सूत्र को इक्कीसवीं सदी का भारतीय बौद्धिक वर्ग समझने की कोशिश नहीं कर रहा है। मातृभाषाओं की उपेक्षा के कारण ही जहाँ एक तरफ बोलियों में लिखे जाने वाले साहित्य के प्रति अरुचि का भाव उत्पन्न हुआ है, वहीं दूसरी तरफ उस क्रान्तिकारी साहित्य की भी उपेक्षा हुई है, जिसका सम्बन्ध लोक जीवन से है। स्वाधीनता आन्दोलन के दरम्यान लिखे गए क्रान्तिकारी साहित्य का बहुत बड़ा हिस्सा लोक साहित्य से जुड़ा हुआ है और वह लोक साहित्य अपने देश की सभी मातृभाषाओं में मौजूद है। विडम्बना ही है कि जो ब्रिटिश शासन भारतीय भाषाओं को अपमानित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता था और उसे अजायबघर की मृत वस्तुओं का हिस्सा बना चुका था, वही ब्रिटिश शासन मातृभाषाओं में लिखे गए साहित्य से भयभीत होता था। प्रतिबन्धित उसे ही किया जाता है, जिससे भय होता है। आज का बौद्धिक वर्ग मातृभाषाओं को मृत भाषा मानकर उस पर विचार करने की जरूरत ही नहीं समझता है। यही कारण है कि जिस भाषा में कभी कबीर लिखते थे, जायसी और तुलसीदास लिखते थे, सूरदास और मीराबाई ने लिखा, उन भाषाओं में लिखी जाने वाली रचनाओं या रचनाकारों की कोई सूचना अंग्रेजी तो दूर, हिन्दी के लेखक और आलोचक के पास भी नहीं है। ऐसे में अपने क्रान्तिकारी अतीत और संघर्षशील अध्याय पर विचार करने की जरूरत बस एक उम्मीद ही है। जैसे भक्तिकाल के अधिकांश कवि चाहते तो संस्कृत में लिख सकते थे। उसी तरह हमारे नवजागरण काल के अधिकांश लेखक चाहते तो अंग्रेजी में लिख सकते थे, लेकिन उनका अपनी भाषा का चुनाव व्यक्तिगत सुविधा और पसन्द का चुनाव नहीं था। वह उनके समय और समाज की जरूरत से जुड़ा था, देश की बात से जुड़ा था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कक्षा नौ से ही अंग्रेजी में लेख लिखते थे। चाहते तो अंग्रेजी के लेखक और आलोचक हो सकते थे, लेकिन हिन्दी में लिखना और देश की स्वाधीनता आन्दोलन की चेतना के साथ चलना समय की जरूरत थी। जिन रचानाकारों की रचनाएँ प्रतिबन्धित हुईं और जो कुछ लोगों के प्रयास से सामने आईं, उन्हें देखते हुए यह यकीन होता है कि वे लेखक अंग्रेजी से अनभिज्ञ नहीं थे, बल्कि अच्छी अंग्रेजी जानते थे और उसके बावजूद हिन्दी में लिखते थे। हिन्दी में लिखना हिन्दी के ऊपर उनकी कोई कृपा नहीं थी, वह उनकी स्वाधीनता की चेतना का एक प्रमाण था। आज के अधिकांश हिन्दी के आलोचक अंग्रेजी न जानते हुए भी देवनागरी में अंग्रेजी जैसा लिखने का प्रयास करते हैं। ऐसे आलोचक वैसे रचनाकारों को नहीं समझ सकते।
- निष्कर्ष
आज की हिन्दी आलोचना में हिन्दी के प्रतिबन्धित साहित्य को लेकर जो उदासीनता की स्थिति है वह इन सभी जटिल परिस्थितियों का परिणाम है। प्रतिबन्धित साहित्य को प्रकाशित करना सिर्फ अतीत को समझने का प्रयास नहीं है, बल्कि यह स्वाधीनता की रक्षा के लिए बेहद जरूरी काम है। स्वाधीनता के सामने खतरा पैदा होने पर एक सच्चे स्वाधीन लेखक को कैसे सोचना चाहिए और क्या लिखना चाहिए, इसे जानने के लिए भी इस साहित्य का प्रकाशन जरूरी है। प्रकाशन के बाद इन रचनाओं को स्कूली पाठ्यक्रमों से लेकर विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल करना जरूरी है। हिन्दी शोध की दशा और दिशा पर शोध करने के लिए आज इसकी सबसे अधिक सम्भावना है। इसे दुर्दशा से बचाने के लिए भी प्रतिबन्धित साहित्य के साथ इसे जोड़ा जाना चाहिए। प्रतिबन्धित हिन्दी साहित्य की हजारो रचनाओं पर हजारों शोध हो सकते हैं, और ये शोध हिन्दी को ज्ञान के अन्य अनुशासनों के साथ जोड़ सकते हैं। यही नहीं ज्ञान के अन्य अनुशासन हमारे इन शोधों की वजह से हमारे कृतज्ञ भी हो सकते हैं, चूँकि किसी भी अनुशासन में इतनी प्रचुर मात्रा में अप्रकाशित शोध सामग्री का भयानक अकाल है। हमारे इन शोधों की वजह से अकादमिक रूप से हिन्दी की ऊँचाई बढ़ेगी और हम अपने देश के साथ साथ दुनिया के अनेक देशों को स्वाधीनता की चेतना का प्रकाश और प्रमाण दे सकते हैं।
प्रतिबन्धित हिन्दी साहित्य के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के प्रतिबन्धित साहित्य पर तुलनात्मक शोध के लिए भी रास्ते खुलेंगे। जैसे भक्ति आन्दोलन और नवजागरण के सन्दर्भ में तुलनात्मक शोध प्रवृत्तियाँ विकसित हुईं। उसी तरह ब्रिटिश काल में प्रतिबन्धित सभी भारतीय भाषाओं के साथ हिन्दी के प्रतिबन्धित साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन एक बेहद महत्त्वपूर्ण काम होगा और इससे जो निष्कर्ष सामने आएँगे, वे अपने देश की एकता और अखण्डता को और पुष्ट करेंगे। देश की स्वाधीनता के आन्दोलन में देश का हर हिस्सा बराबर का भागीदार रहा है। यही कारण है कि भारत की प्रायः सभी भाषाओं का साहित्य पाबन्दी का शिकार हुआ।
प्रतिबन्धित साहित्य से जुड़ा हुआ हर अध्ययन और शोध हिन्दी के नए इतिहास लेखन के लिए एक ऐसी जमीन तैयार करेगा, जिससे हिन्दी साहित्य के इतिहास का भूगोल बदल सकता है। कई जड़बद्ध मान्यताएँ बदल सकती हैं। आधुनिकता, नवजागरण और प्रगतिशीलता की हमारी समझ में आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है।
you can view video on हिन्दी का प्रतिबन्धित साहित्य और हिन्दी साहित्य का इतिहास |
- https://en.wikipedia.org/wiki/List_of_books_banned_in_India
- http://www.jstor.org/stable/2052583?seq=1#page_scan_tab_contents
- http://nationalarchives.nic.in/writereaddata/html_en_files/html/37.Azadi%20ke%20Tarane(hindi).pdf
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B5_%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87