26 हिन्दी कहानी का विकास

डॉ. ओमप्रकाश सिसह

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • प्रारम्भिक हिन्दी कहानी की स्थिति समझ सकेंगे।
  • हिन्दी कहानी का विकास-क्रम समझ सकेंगे।
  • कहानी-कला में आए बदलावों को जान सकेंगे।
  • कहानी के वर्तमान परिदृश्य को समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

हिन्दी कहानी के उद्भव और विकास में भारत की प्राचीन कथाओं भारतीय कथा साहित्य, पाश्‍चात्य कथा साहित्य और लोक कथा साहित्य का सम्मिलित प्रभाव है।हिन्दी कहानी इन सबसे कुछ-न-कुछ तत्त्व लेकर ही स्वरूप ग्रहण कर सकी है। कहानी कहने और सुनने की चीज है। इस रूप में भारतीय समाज में कहानी का अस्तित्व काफी पुराना है। हिन्दी साहित्य में कहानी लिखने की परम्परा आधुनिक काल में शुरू हुई। भारतेन्दु युग में कुछ अनूदित कहानियों का प्रकाशन हुआ।भारतेन्दु युगीन साहित्यकार गदाधर सिंह ने बाणभट्ट की संस्कृत रचना कादम्बरी  का लम्बी कहानी के रूप में हिन्दी अनुवाद किया था। उस काल में ऐसी ही अनेक संस्कृत रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद हुआ। आधुनिक युग की कहानियों पर संस्कृत और अन्य भाषाओं से अनूदित कहानियों का स्पष्ट प्रभाव पड़ा। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जिन कहानियों का विकास हुआ, वे कहानियाँ कहानी-कला की दृष्टि से अनूदित कहानियों से सर्वथा भिन्‍न हैं।

  1. प्रारम्भिक युग

 

हिन्दी कहानी मुख्य रूप से बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के साथ शुरू हुई। यद्यपि 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी अनेक ऐसी रचनाएँ लिखी गईं, जिनमें कहानी का तत्त्व मिलता है, पर तात्त्विक आधार पर सही रूप में हम उन्हें कहानी नहीं कह सकते।  रानी केतकी की कहानी,राजा भोज का सपना,  देवरानी जेठानी की कहानी आदि ऐसी ही कहानियाँ हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में प्रकाशन वर्ष के अनुसार हिन्दी की प्रारम्भिक मौलिक कहानी की सूची दी है। उन्होंने लिखा है, “कहानियों का आरम्भ कहाँ से मानना चाहिए, यह देखने के लिए सरस्वती  में प्रकाशित कुछ मौलिक कहानियों के नाम वर्ष क्रम से नीचे दिए जाते हैं- इन्दुमती, किशोरीलाल गोस्वामी सं.1957 (1900ई.), गुलबहार, किशोरीलाल गोस्वामी सं. 1959 (1902ई.), प्लेग की चुड़ैल, मास्टर भगवानदास मिरजापुर, सं.1959 (1902 ई.), ग्यारह वर्ष का समय, रामचन्द्र शुक्ल सं.1960 (1903 ई.), पण्डित और पण्डितानी, गिरिजादत्त वाजपेयी सं. 1960 (1903 ई.), दुलाईवाली, बंग महिला, सं. 1964 (1903 ई.) ।” (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली, भाग-5, सं. ओमप्रकाश सिंह, पृ. 403) आचार्य शुक्ल ने  इन्दुमती  के बारे में लिखा है कि यदि यह किसी बंगला कहानी से प्रभावित नहीं है, तो हिन्दी  की पहली मौलिक कहानी होगी। इसके बाद उन्होंने हिन्दी की पहली कहानी के रूप में क्रमश:  ग्यारह वर्ष का समय  और  दुलाईवाली  का जिक्र किया है। उनकी मान्यता है कि इन्हीं तीनों कहानियों में से किसी एक को पहली मौलिक कहानी कहा जाना चाहिए।

 

हिन्दी की पहली मौलिक कहानी पर विचार करते हुए लगभग सभी आलोचकों ने अब माधवराव सप्रे की कहानी  एक टोकरी भर मिट्टी  को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी मान लिया है। यह कहानी छत्तीसगढ़ मित्र पत्र में सन् 1901 में छपी थी।

 

सन् 190में  इन्दु  के प्रकाशन के साथ  जयशंकर प्रसाद का कहानी लेखन में प्रवेश हुआ। इन्दु  में प्रसाद के साथ पं. विश्‍वम्भरनाथ जिज्जा की कहनियाँ प्रकाशित हुईं। इस पत्रिका में बंगला कहानियों का अनुवाद भी प्रकाशित हुआ था। पण्डित पारसनाथ त्रिपाठी ने बंगला के प्रसिद्ध पत्र प्रवासी  से अनेक कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया  और वे इन्दु  में प्रकाशित हुईं।

 

सन् 1918 में काशी से  हिन्दी गल्पमाला  नामक मासिक पत्र का प्रकाशन हुआ। इस पत्र द्वारा हिन्दी कहानियों का कलात्मक विकास हुआ। इस पत्र में जी.पी. श्रीवास्तव की मैं न बोलूँगी  और इलाचन्द्र जोशी की सजनवाँ  कहानी प्रकाशित हुई। आगे चलकर इस पत्र में प्रसाद की कहनियाँ प्रकाशित होने लगीं। इस पत्र में प्रकाशित प्रमुख कहनियाँ हैं-  पत्थर की पुकार, करुना की विजय, उस पार का योगी, खण्डहर की लिपि,  प्रतिमा, पाप की विजय  और दुखिया  आदि।

  1. प्रेमचन्द युग

 

हिन्दी कहानी में प्रेमचन्द का आगमन एक युगान्तकारी घटना है। प्रेमचन्द पहले कथाकार हैं, जिन्होंने कथा का सम्बन्ध आम आदमी से जोड़ा और अपनी कहानियों में उनका दुःख-दर्द लिखा। प्रेमचन्द पहले, उर्दू में नवाब राय के नाम से लिखते थे। उनकी कहानियों का पहला संग्रह  सोजेवतन  सन् 1908 में अंग्रेजी सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया था। इसके बाद हिन्दी में वे प्रेमचन्द नाम से लिखने लगे। प्रेमचन्द ने हिन्दी कहानी को इतनी ऊँचाई दी कि उनका समय ‘प्रेमचन्द युग’ के नाम से साहित्य में जाना जाता है।

 

प्रेमचन्द युग से हिन्दी कहानी को निश्‍च‍ित स्वरूप प्राप्‍त हुआ और उसके विकास के नए आयाम खुलने लगे। विविध पत्रिकाओं के प्रकाशन के साथ नए-नए कहानीकार प्रकाश में आए। सरस्वती  के माध्यम से चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और प्रेमचन्द, इन्दु  के माध्यम से जयशंकर प्रसाद तथा हिन्दी गल्पमाला  के माध्यम से जी. पी. श्रीवास्तव और इलाचन्द्र जोशी प्रकाश में आए। सन् 1925 तक हिन्दी कहानियों की दो धाराएँ परिलक्षित होने लगी थीं। पहली धारा यथार्थवादी दृष्टिकोण से कहानी लेखन में प्रवृत्त हुई। इसका सम्बन्ध जीवन के व्यावहारिक पक्ष से था। प्रेमचन्द, सुदर्शन, विश्‍वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, ज्वालादत्त शर्मा, तथा चन्द्रधर शर्मा गुलेरी इस धारा के प्रमुख कहानीकार हैं। दूसरी धारा आदर्शवादी दृष्टिकोण से प्रेरित है। यह धारा जीवन के भाव-सत्य को लेकर आगे चली। इस धारा के अन्तर्गत प्रमुख कहानीकार जयशंकर प्रसाद, चण्डीप्रसाद ‘हृदयेश’ तथा राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह हैं।

 

सन् 1930तक प्रेमचन्द कथा-सम्राट के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। उन्होंने विशेष रूप से ग्रामीण जीवन को केन्द्र में रखकर कहानियाँ लिखीं। समय के अनुसार उन्होंने कहानियों के विषय और शिल्प में भी परिवर्तन किया। उन्होंने 300 से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। प्रेमचन्द युग की हिन्दी कहानी को कुछ आलोचकों ने निम्‍नलिखित कोटियों में बाँटा है –

  • क. चरित्र- प्रधान कहानियाँ
  • ख. वातावरण-प्रधान कहानियाँ
  • ग. कथानक-प्रधान कहानियाँ
  • घ. कार्य-प्रधान कहानियाँ

 

रामचन्द्र तिवारी ने  हिन्दी  का गद्य साहित्य  में  लिखा है कि उपर्युक्त वर्गीकरण को आज बहुत अधिक वैज्ञानिक नहीं माना जा रहा है। उन्होंने बतलाया है  कि कहानी को अनुभूति की एक इकाई के रूप में देखने की बात की जा रही है। युग के अनुरूप कहानी के स्वरूप में परिवर्तन होता जा रहा है।

 

धीरे-धीरे हिन्दी कहानी की कई शैलियाँ विकसित हुईं। प्रचलित पाँच शैलियों में सर्वाधिक प्रचलित वर्णनात्मक शैली है। इसके अलावा संलाप शैली, आत्म-चरितात्मक शैली, पत्र-शैली और डायरी-शैली भी  प्रचलित है।

  1. प्रेमचन्दोत्तर युग

 

प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कहानी साहित्य कई धाराओं में बँट गया । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का प्रभाव कहानी लेखन पर पड़ा और अनेक कहानीकार उसके अनुसार कहानियाँ लिखने लगे। इसी तरह मनोविश्‍लेषणवाद से प्रभावित जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी और अज्ञेय की कहानियाँ प्रकाश में आईं। पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ प्रकृत यथार्थवादी कहानीकार के रूप में जाने गए। इनकी कहानियों का समाज प्रकृत है।

 

प्रेमचन्द युग के अन्तिम चरण में हिन्दी कहानियों का  नया रूप सामने आने लगा था। प्रेमचन्द की दृष्टि आदर्श की ओर थी। इसीलिए उन्होंने समस्याओं का आदर्शवादी समाधान सुझाया। उनके बाद के कथाकारों ने यथार्थवादी दृष्टिकोण को महत्त्व दिया। इन लेखकों में जैनेन्द्र,  इलाचन्द्र जोशी, यशपाल, अज्ञेय  और ‘अश्क’ महत्त्वपूर्ण हैं। जैनेन्द्र ने स्‍त्री-पुरुष के मानसिक द्वन्द्वों और सम्बन्धों को केन्द्र में रखकर कहनियाँ लिखीं है। फाँसी,  वातायन,  नीलम देश की राजकन्या,  एक रात, दो चिड़िया,  पाजेब,  जयसन्धि  आदि जैनेन्द्र के प्रसिद्ध कथा-संग्रह हैं। प्रेमचन्द की कहानियों में जहाँ समाज को महत्त्व दिया गया है, वहीं जैनेन्द्र की कहानियों में व्यक्ति को। यशपाल ने सामाजिक यथार्थ को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से कहानियों में प्रस्तुत किया है।

 

इलाचन्द्रजोशी ने अपनी कहानियों में दमित कामवासना, तज्जन्य मानसिक विकृति को अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने दमित काम-ग्रन्थि के आधार पर  व्यक्ति के मानसिक उन्‍नयन पर बल दिया है।

 

अज्ञेय की कहनियाँ जैनेन्द्र की परम्परा का विकास करती प्रतीत होती हैं। जैनेन्द्र की तरह अज्ञेय ने भी व्यक्ति को केन्द्र में रखा है, लेकिन साथ ही सामाजिक संघर्षों से भी कहानियों को सन्दर्भित किया है। अज्ञेय नई कहानी के विकास काल तक सक्रिय रहे हैं।

 

उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ को प्रेमचन्द के समय में ही प्रसिद्धि मिल गई थी। उन्होंने निम्‍न मध्यवर्ग के जीवन को अपनी कथा का विषय बनाया है। इनके अलावा सर्वश्री भगवतीप्रसाद वाजपेयी, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर, द्विजेन्द्रनाथ मिश्र ‘निर्गुण’ आदि लेखकों ने प्रेमचन्द के बाद लेखन की दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज की। इस युग की लेखिकाओं में उषादेवी मित्रा, हेमवती देवी, सत्यवती मलिक और कमला चौधरी आदि उल्लेखनीय हैं।

 

सन् 1938 के अक्टूबर से कहानी  नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ।सन् 1942 के जनान्दोलन और दमन के संकट-काल में इस पत्रिका का प्रकाशन बन्द हो गया किन्तु  हंस  पत्रिका का प्रकाशन चलता रहा। इन पत्रिकाओं के माध्यम से सर्वश्री हंसराज रहबर, अमृतराय और रांगेय राघव आदि लेखक प्रकाश में आए। सन् 1954 में कहानी पत्रिका का पुन: प्रकाशन शुरू हुआ। इस समय मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्‍वर, मार्कण्डेय, फणीश्‍वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती,हरिशंकर परसाई, भैरवप्रसाद गुप्‍त, लक्ष्मीनारायण लाल, अमरकान्त, अमृतराय, विष्णुप्रभाकर, द्विजेन्द्रनाथ मिश्र ‘निर्गुण’, चन्द्रकिरण सौनरिक्सा, भीष्म साहनी, उषा प्रियम्बदा, मन्‍नू भंडारी, कृष्णा सोबती, शिवप्रसाद सिंह, शैलेश मटियानी, कृष्णबलदेव वैद, निर्मल वर्मा आदि प्रमुख नाम हैं, जो कहानी लेखन में सक्रिय रहे।

  1. नई कहानी

 

नई कहानी की शिल्प और संवेदना पर बात करते हुए पूर्ववर्ती कहानी से उसका अन्तर स्पष्ट हो जाएगा। प्रेमचन्द-युग में आदर्श की बात अधिक की जाती थी। आदर्शवाद से यथार्थवाद का सफ़र हिन्दी कहानी का विकास क्रम है। नई कहानी का समय सन् 1954 के आस-पास से शुरू होता है। इसमें जटिल जीवन-यथार्थ की व्यापक स्वीकृति दिखलाई पड़ती है। हाँ, इतना अवश्य है कि जटिल जीवन-यथार्थ की अभिव्यक्ति आसान नहीं है। ‘नई कहानी’ में व्यक्ति की प्रतिष्ठा निर्विवाद रूप से हुई।साथ ही मध्यवर्गीय चेतना और आधुनिकता बोध भी ‘नई कहानी’ की प्रमुख प्रवृत्तियाँ बनीं। इसमें छिछली भावुकता के स्थान पर जीवन की अनुभूतियाँ और समस्याओं से संश्‍ल‍िष्ट रूप में प्रेम को अभिव्यक्ति मिली। ‘नई कहानी’ की एक प्रमुख विशेषता सांकेतिकता है। यह सांकेतिकता वस्तु और शिल्प – दोनों में आई है। अज्ञेय की कहानी साँप, कमलेश्‍वर की कहानी राजा निरबंसिया, राजेन्द्र यादव की खेल-खिलौने, ठाकुर प्रसाद सिंह की सर्पदंश, शिवप्रसाद सिंह की अन्धकूप  कहानियों में प्रतीकात्मक संकेत मिलते हैं। हिन्दी की पहली नई कहानी कौन है, इस पर भी आलोचक एकमत नहीं हैं। नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा की कहानी परिन्दे  को हिन्दी की पहली नई कहानी कहा। अनेक आलोचकों ने शिवप्रसाद सिंह की कहानी दादी माँ  को हिन्दी की पहली नई कहानी माना है।

 

वस्तु की तरह हिन्दी कहानी का शिल्प भी विकसित होता रहा है। कहानी के शिल्प के सम्बन्ध में रामचन्द्र तिवारी का कहना है- “प्रेमचन्द-युग का कथाकार सबकुछ स्वयं कह देना चाहता था। आज कहानी स्वयं बोलने लगी है। बीच-बीच में कथाकार की व्याख्या या टीका-टिप्‍पणी आज नहीं मिलेगी। समर्थ कथाकार ‘आनुभूतिक इकाई’ को व्यक्त करते हैं; वह इकाई जिस रूप में ढल जाती है, वही उसका शिल्प बन जाता है। नई कहानी में शिल्पगत नवीनता कथ्य की  नवीनता का अनिवार्य परिणाम है।” (हिन्दी गद्य-साहित्य, रामचन्द्र तिवारी, पृ.304)

 

इसके बाद के दौर में तीन पीढ़ियों के रचनाकार सक्रिय हैं। पहली पीढ़ी उन रचनाकारों की है जो नई कहानी के दौर के पहले से लिख रहे थे और अभी कुछ समय पूर्व तक सक्रिय थे। ऐसे लेखकों में उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, विष्णुप्रभाकर, द्विजेन्द्रनाथ मिश्र ‘निर्गुण’, रामेश्‍वर शुक्ल ‘अंचल’, यशपाल, भगवतीप्रसाद वर्मा, अमृतलाल नागर आदि प्रमुख हैं। इसमें विष्णुप्रभाकर की  धरती अब भी घूम रही है  शीर्षक कहानी ‘नई कहानी’ के दौर में ही बहुत चर्चित हो गई थी। वस्तुत: साहित्य में नए का सम्बन्ध पुराने से होता ही है। ‘पुराना’ विकास का आयाम तय कर ही ‘नया’ बनता है। इसी कारण नई कहानी का सम्बन्ध प्रेमचन्द से और ‘जनवादी कहानी’ का यशपाल और रांगेय राघव से जोड़ा जाता है।

 

दूसरी पीढ़ी के रचनाकारों में ‘नई कहानी’ आन्दोलन को गति और दिशा देने वाले नाम आते हैं। इनमें भीष्म साहनी, मुक्तिबोध, भैरवप्रसाद गुप्‍त, हरिशंकर परसाई, अमरकान्त, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीनारायण लाल, कमलेश्‍वर, निर्मल वर्मा, फणीश्‍वरनाथ रेणु, शिवप्रसाद सिंह, मार्कण्डेय, रघुवीर सहाय, कृष्णबलदेव वैद, गंगाप्रसाद विमल, रमेश बक्षी, रवीन्द्र कालिया, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र, शेखर जोशी आदि प्रमुख रचनाकार हैं।

 

तीसरी पीढ़ी ‘नई कहानी’ और ‘अ-कहानी’ की जड़ता के विरुद्ध आन्दोलन करने वाले रचनाकारों की है। इस पीढ़ी ने नए कथ्य और शिल्प के साथ जटिल यथार्थ का साक्षात्कार करती कहानियाँ लिखीं। इन्होंने कहानी विधा को समृद्धि के नए आयाम  प्रदान किए। इनमें मुद्राराक्षस, जगदीश चतुर्वेदी, गोविन्द मिश्र, महीप सिंह, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, रमेशचन्द्र शाह, गिरिराज किशोर, शिवमूर्ति, विवेकी राय, बदीउज्जमाँ, अब्दुल बिस्मिल्लाह, स्वयं प्रकाश, संजीव, मिथिलेश्‍वर आदि उल्लेखनीय हैं।

 

उपर्युक्त कहानीकारों में भीष्म साहनी अपनी प्रगतिशील जीवन-दृष्टि के लिए प्रख्यात हैं। उन्हें प्रेमचन्द की परम्परा का कहानीकार माना जा सकता है।

 

दूसरी पीढ़ी के रचनाकारों में मुक्तिबोध ने कहानियों में नए रचना शिल्प का प्रयोग किया। उन्होंने संस्मरण, वार्तालाप, प्रतीक-विधान, फन्तासी, डायरी आदि शैली का प्रयोग अपने लेखन में किया। उनके इन विशिष्ट प्रयोगों को अपेक्षित महत्त्व प्राप्‍त नहीं हो सका। इस दौर के भैरवप्रसाद गुप्‍त मार्क्सवादी जीवन-दृष्टि के प्रति प्रतिबद्ध लेखक हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में समाज के दुर्बल और शोषित वर्ग की समस्याओं को अभिव्यक्ति दी है। अमरकान्त की कहानियों के माध्यम से शिल्प का सहज रूप सामने आता है। अमरकान्त की भाषा जीवन यथार्थ के अनुकूल है।

 

‘नई कहानी’ में मुख्य रूप से राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्‍वर का नाम आता है। ‘नई कहानी’ में सामाजिक विसंगतियों, टूटते जीवन मूल्यों, बढ़ते हुए अत्याचार और व्यक्ति के अमानवीकरण को वाणी देने का प्रयत्‍न किया गया है।

 

निर्मल वर्मा के पहले कहानी संग्रह परिन्दे को नामवर सिंह ने ‘नई कहानी’ की पहली कृति माना है। निर्मल वर्मा की कहानियों में किसी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता या संलग्नता नहीं मिलती। इनसे अलग फणीश्‍वर नाथ रेणु ने अपनी कहानियों में ग्राम अंचल की विशिष्ट, ताजा और जीवन्त अनुभूति को पिरोया है। रेणु की तरह ही शिवप्रसाद सिंह भी मूलत: ग्राम-चेतना के कहानीकार हैं। ‘नई कहानी’ के दौर में मार्कण्डेय एक ऐसा नाम है, जिन्होंने नई ग्रामीण जीवन-व्यवस्था और उससे उत्पन्‍न मानसिकता के प्रति अपनी तीखी आलोचनात्मक दृष्टि का परिचय दिया है।

 

रघुवीर सहाय ने नई संवेदना और नए नैतिक बोध से जुडी मानसिकता को व्यक्त करने वाली कहनियाँ लिखी हैं। इन्द्रनाथ मदान ने उनकी चार कहानियों–  सेब,  मेरे और नंगी औरत के बीच,  मुठभेड़  और तीन मिनट  की गणना ऐसी कहानियों में की है, जिनके आधार पर हिन्दी-कहानी के बदलते स्वरूप को पहचाना जा सकता है। ‘नई कहानी’ आन्दोलन का जो दौर है उसी दौर में हिन्दी में विशिष्ट कहानीकार राजकमल चौधरी कहानी लिख रहे थे, पर उन्होंने कभी खुद को इस आन्दोलन से नहीं जोड़ा। नितान्त अछूते प्रसंगों को अपनी कहानियों का विषय बनाकर वे जिस तरह की कहानियाँ लिख रहे थे, वह सामाजिक व्यवस्था में एक अनूठे हस्तक्षेप का द्योतक हथा। जलते हुए मकान में कुछ लोग, पत्थर के नीचे दबे हुए हाथ, छिन्‍नमस्ता, स्विच, पिरामिड  जैसी उनकी सौ से अधिक कहानियाँ उस दौर की सामाजिक स्थितियों का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करती हैं। दबी जुबान से कुछ उद्घोषकों ने उन्हें  अकहानी  के खाते में डालने की कोशिश की, पर उन्होंने कहानी को सिर्फ कहानी माना। कोई विशेषण लगाना उन्हें नहीं भाया। उनकी रचना-प्रक्रिया को प्रकृतवाद की धारणा से जोड़ा जा सकता है।

  1. अकहानी

 

सन् 1960-62 के आस-पास ‘नई-कहानी’ के स्थान पर ‘अ-कहानी’ को प्रतिष्ठित किया गया। इसके समर्थक गंगाप्रसाद विमल,रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह, प्रयाग शुक्ल, सुधा अरोड़ा, ज्ञानरंजन, रमेश बक्षी, श्रीकांत वर्मा, विजयमोहन सिंह, विश्वेश्‍वर आदि थे। ‘अ-कहानी’ आन्दोलन ‘नई कहानी’ के विरोध में शुरू हुआ था। इसमें नई कहानी की नकारात्मक प्रवृत्तियाँ सामने आईं। ‘नई कहानी’ के विरोध में दूसरा आन्दोलन ‘सचेतन कहानी’ है। इसके पुरोधा डॉ. महीप सिंह है।इसका आरम्भ सन् 1964 में आधार पत्रिका के ‘सचेतन कहानी विशेषांक’ के प्रकाशन के साथ माना जा सकता है।‘सचेतन कहानी’ आन्दोलन ने पश्‍च‍िम से आयातित जीवन-मूल्यों- निराशा, कुण्ठा, ऊब, अकेलापन, अनास्था आदि का विरोध किया।इस आन्दोलन में भारतीय परिवेश के भीतर सहज गति से प्रवाहमान जीवन स्थितियों को स्वीकार कर संघर्षशील चेतना की सक्रियता पर बल दिया।इस आन्दोलन से महीप सिंह, कमल जोशी, मधुकर सिंह, योगेश गुप्‍त, वेद राही, हिमांशु जोशी, मनहर चौहान आदि जुड़े रहे।

 

इसके बाद अमृतराय ने ‘सहज कहानी’ का नारा दिया, पर यह आन्दोलन का रूप नहीं ले सका। इसमें अमृतराय ने किसी भी प्रकार के बने-बनाए ढाँचे का विरोध किया। सन् 1972 के आस-पास कमलेश्‍वर, जो ‘नई कहानी’ के सशक्त हस्ताक्षर थे, ने ‘सारिका’ पत्रिका के माध्यम से ‘समान्तर कहानी आन्दोलन’ चलाया। इस ‘समान्तर कहानी आन्दोलन’ ने ‘आम आदमी’ को कहानी में प्रतिष्ठित किया। सन् 1977 में दिल्ली विश्‍वविद्यालय में ‘जनवादी विचारमंच’ की स्थापना हुई।जनवादी कहानी की परम्परा का आरम्भ प्रेमचन्द की कफ़न  और पूस की रात  जैसी कहानियों से माना गया। यशपाल, रांगेय राघव, भैरवप्रसाद गुप्‍त, मार्कण्डेय, भीष्म साहनी, अमरकांत, शेखर जोशी, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, रमेश उपाध्याय, रमेश बतरा, हेतु भारद्वाज, नमिता सिंह, असगर वजाहत, धीरेन्द्र अस्थाना, उदय प्रकाश आदि ने इस परम्परा को विकसित और समृद्ध किया। सन् 1979में राकेश वत्स ने ‘मंच’ पत्रिका के माध्यम से ‘सक्रिय कहानी’ आन्दोलन का सूत्रपात किया। इसकी अवधारणा में ‘समान्तर कहानी’ और ‘जनवादी कहानी’ की अवधारणा घुल-मिल गई।इसके कारण इसका प्रभाव सीमित रहा।

  1. वर्तमानपरिदृश्य

 

हिन्दी कहानी के वर्तमान दौर में गंगाप्रसाद ‘विमल’ ‘अ-कहानी’ के पुरस्कर्ता माने जाते हैं। उनकी कहानियों में आधुनिकता के सकारात्मक पक्ष को महत्त्व देने की प्रवृत्ति लक्षित होती है। अतीत में कुछ  (सन् 1972), कोई शुरुआत  (सन् 1973),  खोई हुई थाती  (सन् 1995) उनके ऐसे ही कुछ कहानी-संग्रह हैं। इसी तरह रमेश बक्षी की कहानियों में भी आधुनिकता बोध नज़र आता है। रवीन्द्र कालिया की कहनियाँ जहाँ ऊब, सन्त्रास और एकाकीपन को अभिव्यक्ति देती हैं, तो शैलेश मटियानी के यहाँ आंचलिकता दिखलाई पड़ती है। रामदरश मिश्र की कहानियों में मानवीय संवेदना अपने अलग रूप में व्यक्त हुई है। उस संवेदना को आधुनिकता या ऊब-संत्रास या फिर आंचलिकता के पुट के साथ देखना उसके सच्चे स्वरूप की पहचान में बाधक बन जाता है। ‘नई कहानी’ के दौर के शेखर जोशी ने अपनी कहानियों को तथाकथित अस्तित्ववादी आधुनिकता के दायरे से मुक्त रखा है।

 

‘नई कहानी’ और ‘अ-कहानी’ दोनों की रूढियों का विरोध कर सामाजिक-जीवन यथार्थ को अभिव्यक्त करने वाली पीढ़ी समकालीन कहानी लेखकों की तीसरी पीढ़ी है। इस पीढ़ी के लेखकों में कामतानाथ, भीमसेन त्यागी, जगदीश चतुर्वेदी, गोविन्द मिश्र, महीप सिंह, रमेशचन्द्र शाह, गिरिराज किशोर, दूधनाथ सिंह, हिमांशु जोशी, शिवमूर्ति, काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, अब्दुल बिस्मिल्लाह, नरेन्द्र कोहली, विवेकी राय, ह्रदयेश, बदीउज्जमाँ, बादशाह हुसैन रिज़वी, से. रा. यात्री, राकेश वत्स, शानी, रामधारी सिंह दिवाकर, मंजूर एहतेशाम, कमलाकान्त त्रिपाठी, अखिलेश, सृंजय, संजीव, मिथिलेश्‍वर आदि प्रमुख हैं।

 

इस तीसरी पीढ़ी के कहानीकारों में सचेतन कहानी, सहज कहानी, समान्तर कहानी, सक्रिय कहानी आन्दोलन को शुरू करने और प्रोत्साहन देने वाले रचनाकार आते हैं।

 

वैसे तो प्रेमचन्द युग में भी कई महिला रचनाकार सक्रिय थीं पर आधुनिक युग में साहित्य क्षेत्र में उनकी भागीदारी में वृद्धि हुई है।लेखकों की तरह लेखिकाओं की भी कई पीढियाँ एक साथ सक्रिय हैं।इन पीढ़ियों की संख्या दो है। पहली पीढ़ी ‘नई कहानी’ के दौर से सक्रिय लेखिकाओं की है। ये लेखिकाएँ हैं- शशिप्रभा शास्‍त्री, शिवानी, कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी, उषा प्रियम्बदा, ममता कालिया आदि। दूसरी पीढ़ी दीप्‍त‍ि खण्डेलवाल, मृणाल पाण्डेय, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, राजी सेठ, उषा किरण खान, मंजुल भगत, मणिका मोहिनी, प्रतिमा वर्मा, सुधा अरोड़ा, निरुपमा सोबती, सूर्यबाला, मेहरुन्‍न‍िशा परवेज़, इन्दुबाला, अचला नागर, नीलाक्षी सिंह, अल्पना मिश्र, वंदना राग,प्रत्यक्षा आदि लेखिकाओं की है।

 

शशिप्रभा शास्‍त्री ने किसी परम्परा या विचारधारा से खुद को न जोड़ते हुए मानवीय दृष्टि से प्रत्येक घटना का विवेचन किया है। उनकी परवर्ती कहानियों में सामाजिक विसंगतियों और प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्‍त भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया गया है। इस पीढ़ी की प्रसिद्ध रचनाकार शिवानी ने जीवन के खुरदुरे यथार्थ से अलग भावनापूर्ण संसार का निर्माण किया है। उनकी कहानियों में मुख्यत: उच्‍चवर्ग के जीवन-वैविध्य को अभिव्यक्ति दी गई है।

 

इस दौर की कृष्णा सोबती की  मित्रो मरजानी  और सिक्‍का बदल गया  को काफी प्रसिद्धि मिली है। उनकी कहानियों में मानवीय मूल्यों के टूटने के दर्द की अभिव्यक्ति है। उन्होंने पंजाब के परिवेश को गहरी संवेदना और समझ के साथ उकेरा है।  मित्रो मरजानी  में उन्होंने मित्रो के माध्यम से एक स्‍त्री की दैहिक इच्छाओं को स्वर दिया है।मन्नू भण्डारी विस्तृत कथा-फलक को लेकर चलने वाली लेखिका हैं। उनकी कहानियों में स्‍त्री-जीवन की इच्छा-आकांक्षा और वास्तविकताओं के साथ देश की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों, परिवारिक समस्याओं पर पूरी समझ के साथ  लेखनी चलाई है। उषा प्रियम्बदा की  वापसी  कहानी ने एकबारगी आलोचकों का ध्यान खींचा था। वे नई कहानी की दौर की लेखिका हैं। मधुरेश के अनुसार उनकी कहानियों में ‘स्व’ की खोज और प्रतिष्ठा की कहनियाँ ही अधिक हैं। इस दौर की ममता कालिया यथार्थधर्मी कहानी लेखिका हैं। उनकी कहानियों में इस धारणा को अभिव्यक्ति मिली है कि नारी उत्पीड़न-मुक्त नहीं है।

 

दूसरी पीढ़ी की लेखिकाओं में मृणाल पाण्डेय ने वैसे तो नारी जीवन को केन्द्र में रखकर ही लिखा, पर उन्होंने ने लोक-कथा शिल्प को आधुनिक संवेदना से जोड़कर नई सम्भावनाओं की ओर संकेत किया है। जहाँ तक मृदुला गर्ग की बात है, उनकी कहानियों में सत्ता द्वारा स्थापित जीवन-मूल्यों पर प्रश्‍न चिह्न लगाया गया है। साथ ही उनकी कहानियों में हास्य, व्यंग्य, फन्तासी के माध्यम से जीवनानुभव और सोच को अभिव्यक्ति दी गई है। रामचन्द्र तिवारी ने माना है कि उनकी कहानियों को किसी साँचे या आन्दोलन के साथ जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। फिर भी मुख्य रूप से मृदुला गर्ग की चर्चा प्रेम और काम-सम्बन्धों का आधुनिक-दृष्टि से खुला विश्‍लेषण करने वाली सशक्त कहानीकार के रूप में हुई है।

 

चित्रा मुद्गल ने संघर्षरत नौकरीपेशा नारियों एवं झोपड़ पट्टियों  में घिसटते निम्‍नवर्गीय लोगों के जीवन को अपनी कहानी का विषय बनाया है। उपर्युक्त लेखिकाओं से अलग राजी सेठ के बारे में रामचन्द्र तिवारी ने लिखा है “आप का रचना संसार भी मुख्यत: घर-परिवार और स्‍त्री-पुरुष के सम्बन्धो के दायरे में ही सिमटा है, किन्तु इस दायरे के भीतर की स्थितियों का जितना गहन मनोवैज्ञानिक विवेचन आपने किया है, उतना किसी अन्य लेखिका ने नहीं।” (हिन्दी गद्य-साहित्य, रामचन्द्र तिवारी,पृ.338) उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं- अन्धे मोड़ से आगे  (सन् 1979), तीसरी हथेली  (सन् 1981), यात्रामुक्त (सन् 1987),  दूसरे देशकाल में (सन् 1992), यह कहानी नहीं (सन् 1998), गमें हयात ने मारा (सन् 2006)।

 

मंजुल भगत मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों और आर्थिक दबाव के बीच टूटते-बिखरते पात्रों की मन:स्थितियों को चित्रित करने वाली विशिष्ट कहानी लेखिका हैं।

 

लेखिकाओं में सूर्यबाला का नाम युवा मन की निराशा और दिशाहीनता को आज के परिवेश की उपज मानकर उसे विशिष्ट अन्दाज में प्रस्तुत करने के कारण लिया जाता है। दूसरी दौर की लेखिकाओं में मालती जोशी ने आधुनिकता के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण दिखलाया है।

 

उपर्युक्त लेखिकाओं के बाद एक नई पीढ़ी भी आई है, जो काफी सक्रिय है।इस पीढ़ी में कृष्णा अग्निहोत्री, चन्द्रकान्ता, कमल कुमार, नासिरा शर्मा, ऋता शुक्ला, क्षमा शर्मा, गीतांजलि श्री, लवलीन, मुक्ता, अलका सरावगी, जया जादवानी, उर्मिला शिरीष, मधु कांकरिया, सारा राय, रजनी गुप्ता, मनीषा कुलश्रेष्ठ, अल्पना मिश्र, नीलाक्षी सिंह, शरद सिंह आदि उल्लेखनीय हैं।

 

ऋता शुक्ला ने यान्त्रिकता के बीच आत्मीयता और मानवीय रिश्तों को तलाश करती कहानियाँ लिखी हैं। क्रौंच बध तथा अन्य कहनियाँ,  दंश,  कनिष्ठा उंगली का पाप,  कासौं कहौं मैं दरदिया,  मानुष तन  आदि उनके कुछ प्रकाशित कहानी संग्रह हैं। सारा राय की कहानियोंका कथ्य और शिल्प समकालीन कहानियों के सामान्य कथ्य और शिल्प से अलग है। उन्होंने अपने पहले कहानी संग्रह- अबाबील की उड़ान  (सन् 1997) से ही बड़े रचनाकारों और विचारकों का ध्यान आकृष्ट किया है।

 

गीतांजलि श्री की कहानियों को किसी ख़ास पैटर्न से जोड़कर नहीं देख सकते हैं। उनके कहानी संग्रह  वैराग्य  में विभिन्‍न तेवर की कहानियाँ हैं।

 

कहानी विधा में लेखिकाओं के सक्रिय होने के सम्बन्ध में रामचन्द्र तिवारी ने लिखा है- “जीवन के वे दबे-सिकुड़े कोने भी उभरने लगें हैं,वे मन:स्थितियाँ भी सामने आने लगी हैं और दु:ख-दर्द की वे रेखाएँ भी आकार ग्रहण करने लगी हैं, जिन तक पुरुष वर्ग की दृष्टि नहीं जाती थी या जाती भी थी तो वे विश्‍वसनीय और प्रामाणिक रूप में अभिव्यक्त नहीं हो पाते थे।” (हिन्दी गद्य-साहित्य, रामचन्द्र तिवारी, पृ.347)

  1. निष्कर्ष

 

आधुनिक काल के प्रारम्भ से चलकर आज तक हिन्दी कहानी ने विकास के अनेक सोपान पार किए हैं। प्रारम्भिक हिन्दी कहानी में युगानुरूप अनेक नए तत्त्वों का सम्मिश्रण होता रहा और कहानी का ढाँचा बदलता रहा। हिन्दी कहानी को जन-जीवन की समस्याओं से जोड़ने का सराहनीय प्रयास प्रेमचन्द ने किया। इसीलिए उन्हें कथा-सम्राट कहा गया। प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कहानी के विकास में अनेक नए मोड़ आए हैं। नई कहानी, अकहानी, सचेतन कहानी, समकालीन कहानी आदि अनेक कथा आन्दोलनों से गुजरते हुए आज की कहानी विकास की नई-नई मंजिलें पार कर रही है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि निस्सन्देह हिन्दी कहानी अन्य अनेक नई मंजिलें तय करेंगी।

 

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वेब लिंक्स

 

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8
  3. https://hi.wikibooks.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8
  4. https://www.youtube.com/watch?v=rmZEDhIjA1k
  5. https://www.youtube.com/watch?v=NP55tbOEwd4
  6. https://www.youtube.com/watch?v=YleuZD0NEhM