22 छायावाद

प्रो. शम्भुनाथ तिवारी तिवारी

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • छायावादी काव्यान्दोलन की पृष्ठभूमि से भलीभाँति परिचित हो सकेंगे।
  • छायावाद के विकासात्मक स्वरूप से पूरी तरह अभिज्ञ हो सकेंगे।
  • छायावाद के सामान्य अर्थ के साथ उसके परिवेश और उसकी परिस्थितियों के मध्य उसके विशिष्ट अर्थ का अच्छी तरह परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • छायावाद की विभिन्‍न परिभाषाओं के आलोक में छायावाद के वास्तविक स्वरूप और उसके महत्त्व से परिचित हो सकेंगे।
  • छायावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों से पूरी तरह परिचित हो सकेंगे।
  • छायावाद पर लगे आरोपों के बारे में भी जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • छायावाद के समग्र मूल्यांकन में समर्थ हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में आधुनिककाल (वि. स. 1900 से 1980 वि.सं.) की प्रमुख नवीन प्रवृत्ति के आधार पर उस कालखण्ड को गद्यकाल  की संज्ञा देते हुए उसे गद्यखण्ड और काव्यखण्ड (पुरानी धारा/ नई धारा) के रूप में विभाजित किया। पुनः उन्होंने उन खण्डों के विकासात्मक स्वरूप के आधार पर उन्हें उत्थान के रूप में रेखांकित करते हुए उनका प्रथम, द्वितीय, तृतीय  जैसा नामोल्लेख किया। काव्य खण्ड (पुरानी धारा/नई धारा) के अन्तर्गत तृतीय उत्थान (वि. स. 1975 वि.सं./ सन् 1918) के रूप में किए गए उपविभाजन (प्रथम उत्थान के लिए भारतेन्दुकाल और द्वितीय उत्थान के लिए द्विवेदीकाल जैसे नामों का प्राकारान्तर से संकेत कर देने के बावजूद शुक्ल जी तृतीय उत्थान के लिए कोई वैकल्पिक एवं प्रवृत्तिपरक नाम नहीं सुझा सके) को जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे आज छायावाद के नाम से जाना जाता है। कहा जा सकता है कि रामचन्द्र शुक्ल द्वारा आधुनिक हिन्दीकाव्य (नई धारा) के उपविभाजन तृतीय उत्थान के लिए परवर्ती व्यंग्यार्थ प्रचलित नाम छायावाद कदाचित् इतना स्थापित हो चुका है कि आज उसके अन्य किसी वैकल्पिक नामकरण के विषय में सोचना कठिन है।

 

आधुनिक हिन्दी कविता का आरम्भ भारतेन्दु युग से माना जाता है। उससे पूर्व हिन्दी में यत्रतत्र खड़ी बोली कविता का आभास करवानेवाली फुटकल काव्य-पंक्तियों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए, तो खड़ी बोली में आधुनिक हिन्दी कविता की अविच्छिन्‍न परम्परा का आरम्भ वस्तुतः भारतेन्दु से ही हुआ। इसलिए विकास की दृष्टि से भारतेन्दु युग खड़ी बोली हिन्दी कविता का आरम्भिक युग है। उसके बाद कई पड़ावों से होती हुई खड़ी बोली हिन्दी कविता का स्वरूप निरन्तर प्रौढ़ और कलात्मक होता गया। खड़ी बोली हिन्दी कविता की विस्तृत भूमिका और सुदृढ़ पीठिका भारतेन्दु युग में ही निर्मित हुई। द्विवेदी युग में उसका विस्तार और परिष्कार हुआ। अगले चरण, अर्थात् छायावादी युग में खड़ी बोली हिन्दी कविता का पूर्ण विकास और कलात्मक उत्कर्ष दिखाई देता है। काव्य-सौन्दर्य और साहित्यिकता के अनुरक्षण की दृष्टि से छायावादी काव्य में आधुनिक हिन्दी कविता का उत्कृष्ट और उन्‍नत स्वरूप दृष्टिगत होता है।

 

आधुनिक हिन्दी कविता में छायावाद को एक ऐसे आन्दोलन के रूप में जाना जाता है, जिसे आलोचना-प्रत्यालोचना, प्रशंसा और निन्दा दोनों स्थितियों का सर्वाधिक शिकार होना पड़ा। छायावाद की प्रशंसा करनेवालों में यदि नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र, शान्तिप्रिय द्विवेदी आदि का उल्लेख किया जा सकता है, तो आलोचना करनेवालों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, डॉ. देवराज और मुक्तिबोध आदि का नाम लिया जा सकता है। छायावाद के प्रशंसकों ने जहाँ एक ओर व्यापकता और प्रभाव में छायावाद को भक्तिकाल के समकक्ष माना, उसे आधुनिक हिन्दी कविता का स्वर्णयुग तक कहने का आग्रह किया और कामायनी जैसी सुकुमार कृति में महाकाव्य तक के स्वर सुने, वहीं उसकी कटुआलोचना करनेवालों ने उसे बाहरी चटक-मटक पर अधिक ध्यान देनेवाली शैलीमात्र ’, ‘कुंठा का काव्य’, ‘रीतिकाल का पुनरागमन के साथ ही प्रसाद को बूर्ज्वाजी का अन्तिम मुमूर्ष कवि के रूप में याद किया; कतिपय आलोचकों ने अपने आक्रोशित स्वर की भी अभिव्यक्ति की। प्रशंसा और आलोचना के विवादों से छायावाद का नाता सम्भवतः सबसे अधिक रहा। बावजूद इनके आधुनिक हिन्दी कविता का उत्कृष्ट कलात्मक रूप छायावादी काव्य में ही दिखाई देता है। भाषा, भाव, कथ्य, शिल्प आदि सभी दृष्टियों से छायावादी कविता एक कलात्मक अभिव्यक्ति के रूप में रेखांकित की जा सकती है। कल्पना, विद्रोह, भावप्रवणता, प्रेम, सौन्दर्य, निराशावाद, पलायनप्रवृत्ति, प्रतीकात्मकता, रहस्यपरकता, कोमल भावाभिव्यक्ति आदि रोमाण्टिक एवं स्वछन्दतावादी काव्यप्रवृत्तियों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के कारण छायावादी काव्य को रोमाण्टिक काव्य अथवा स्वछन्दतावादी काव्य कहने का आग्रह किया गया, जिसका स्वाभाविक विकास द्विवेदीयुगीन आदर्शवादी काव्याभिव्यक्ति के पश्‍चात् हुआ।

 

आधुनिक हिन्दी कविता के साहित्यिक विकास और कालक्रम की दृष्टि से छायावाद का उदय द्विवेदीयुगीन काव्य-रचना की व्यापक पूर्वपीठिका पर हुआ। माना जाता है कि द्विवेदीयुगीन काव्यरचना में स्थूलता का अधिक निर्वाह दिखाई देता है। इस काल में विकसित होनेवाली काव्यप्रवृत्तियों में घोर उपयोगितावद, अतिआदर्शवाद, अतिकथात्मकता आदि के कारण उसमें इत्तिवृत्तात्मकता की प्रवृत्ति अधिक थी। इत्तिवृत्तात्मक का उस काल की कविता में कथनों की अधिकता से है। कथनों से परिपूर्ण काव्य को इत्तिवृत्तात्मक माना जाता है। द्विवेदीयुगीन हिन्दी कविता में काव्यसौन्दर्य और साहित्यिक संवेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति के अभाव की चर्चा आलोचकों ने बार-बार की है। एक भावुक कवि-कलाकार को आकृष्ट करने में हृदय की मार्मिक अनुभूति और कोमल संवेदना से रहित काव्यसर्जन समर्थ नहीं होता। द्विवेदीयुगीन कविता में नैतिकता और आदर्श पर व्यापक जोर था, वैयक्तिक अनुभूतियों से सम्पृक्त आन्तरिक भावाभिव्यक्तियों का आग्रह कम था। इनका एकदम से अभाव तो नहीं था, पर अधिकांशतः नैतिकता और आदर्श पर बल देने के कारण इत्तिवृत्तात्मकता और स्थूलता के आरोप को सिरे से नकारा भी नहीं जा सकता। अतिभावुकता, अतिकोमलता, अतिकल्पनाशीलता और अतिवैयक्तिकता के प्रति विशेष आग्रह के कारण छायावादी कविता में जो सूक्ष्मता, आन्तरिकता एवं मार्मिकता भरी हुई थी, उससे पूर्व, द्विवेदी युग में इसका नितान्त अभाव था। इसी कारण छायावाद को द्विवेदीयुगीन कविता की प्रतिक्रिया कहा गया। इसका आरम्भ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ही किया। उन्होंने इत्तिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया ’, ‘इस (द्विवेदीयुगीन काव्य) परिस्थिति के विरुद्ध गहरा प्रतिवर्तन, ‘इत्तिवृत्तात्मक कविता के विरुद्ध, स्थूल के प्रति सूक्ष्म की प्रतिक्रिया आदि कथनों के माध्यम से छायावादी काव्य को द्विवेदीयुगीन कविता की प्रतिक्रिया कहा। आगे चलकर डॉ. नगेन्द्र ने शुक्ल जी के उक्त कथन का बहुत प्रांजल और भड़कीला स्वरूप प्रस्तुत कर, छायावादी काव्य को, ‘स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कहा, जिसे छायावाद के सन्दर्भ में आज प्रायः उद्धृत किया जाता है।

 

द्विवेदीयुगीन कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों में अधिकांशत: उपयोगितावाद, आदर्शवाद और इत्तिवृत्तात्मकता का सम्मान करने के कारण उस काल की कविता को स्थूलपरकता की सीमा में रखा जाता है, परन्तु छायावादी काव्य को प्रतिक्रिया या विद्रोह कहने से उसका वास्तविक और तटस्थ मूल्यांकन कदाचित् नहीं किया जा सकता। विरुद्ध और प्रतिक्रिया कहने से तो यही भाव निकलता है कि छायावाद की जो प्रवृत्तियाँ हैं, द्विवेदीयुगीन कविता में उनका अभाव है, या द्विवेदीयुगीन कविता की प्रवृत्तियाँ छायावादी कविता में बिल्कुल नहीं पाई जातीं। निष्पक्षता से विचार करें, तो छायावादी कविता की कमोबेश सारी प्रवृत्तियाँ (सौन्दर्य, प्रेम, नारी सौन्दर्य, प्रकृति चित्रण, कल्पना इत्यादि) द्विवेदीयुगीन कविता में अपने आरम्भिक रूप में विद्यमान हैं। हाँ, रहस्यपरकता और प्रतीकों के अतिशय प्रयोग ने छायावादी काव्य को कुछ ऐसा स्वरूप अवश्य प्रदान किया, जिसने उसे द्विवेदीयुगीन कविता से किंचित् अलग भावभूमि पर प्रतिष्ठित कर दिया । कहा जा सकता है कि छायावादी कविता किंचित् अर्थों में परकीय तत्त्वों से सम्पृक्त और संवलित द्विवेदीयुगीन कविता का विकसित रूप है, जिसका अपना कुछ अलग वैशिष्ट्य है। छायावाद को पूरी तरह प्रतिक्रिया या विद्रोह मान लेने से अनेक साहित्यिक विसंगतियाँ दृष्टिगत होने लगेंगी, क्योंकि प्रतिक्रिया इतनी शान्त, शीतल, स्वाभाविक, सहज और मार्मिक नहीं हो सकती, जितनी छायावादी कविता है।

 

इसके अतिरिक्त छायावाद को बंगला साहित्य अथवा पाश्‍चात्य साहित्य के अनुकरण और प्रभाव में रोमेण्टिसिज्म का रूपान्तरण भी मानने का आग्रह कुछ आलोचक करते हैं, जबकि सचाई यह है कि छायावादी काव्य अपने ही देशकाल के परिवेश और परिस्थितियों की स्वाभाविक उद्भूति है, जिस पर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ विविध साहित्यिक चिन्तन-मनन का भी प्रभाव पड़ा है। यहाँ शिवदानसिंह चौहान की टिप्पणी बहुत महत्त्वपूर्ण है – अतः यह कहना गलत होगा कि फ्रांसीसी धारा, जर्मन धारा के अनुकरण पर चली या अंग्रेजी धारा, फ्रांसीसी धारा की अनुवर्तिनी थी, उसी तरह यह कहना भी गलत होगा कि हिन्दी की छायावादी कविता पाश्‍चात्य की नकल है। दरअसल, छायावादी काव्यप्रवृत्तियों के विकास में तत्कालीन निराशामूलक राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों तथा युवाओं के मन में पलनेवाली निराशाओं, कुण्ठाओं और विषाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका स्वीकार की जा सकती है। इस दृष्टि से डॉ. नगेंद्र की टिप्पणी बहुत उल्लेखनीय है ब्रिटिश साम्राज्य की अचलसत्ता और समाज में सुधारवादी दृढ़ नैतिकता, असंतोष एवं विद्रोह इन (प्रतिक्रियात्मक) भावनाओं की बहिर्मुखी अभिव्यक्ति का अवसर नहीं देते थे। — वे अन्तर्मुखी होकर धीरे-धीरे अवचेतन में जाकर बैठ रही थीं और वहाँ से क्षतिपूर्ति के लिए छायाचित्रों की सृष्टि कर रही थीं। आशा के इन स्वप्‍नों और निराशा के इन छायाचित्रों की काव्यगत समष्टि ही छायावाद कहलाई।

  1. छायावाद का आविर्भाव

 

छायावादी काव्य का प्रादुर्भाव कब से माना जाए, इस पर आलोचकों के मत अलग-अलग हैं। इस आन्दोलन के उदय को लेकर विद्वानों की राय कभी एक नहीं रही। अपनी-अपनी वैयक्तिक रुचि-अभिरुचि के आधार पर विभिन्‍न आलोचकों ने अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने छायावाद के प्रवर्तन का श्रेय मैथिलीशरण गुप्‍त और मुकुटधर पाण्डेय को दिया है – “हिन्दी कविता की नई धारा–छायावाद का प्रवर्तक इन्हीं को विशेषतः मैथिलीशरण गुप्‍त और मुकुटधर पाण्डेय को समझना चाहिए।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 684) प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार इलाचन्द जोशी शुक्ल जी के इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार जयशंकर प्रसाद (इन्दु पत्रिका में प्रकाशित आरम्भिक रचनाओं तथा बाद में प्रकाशित झरना  काव्य-संग्रह के आधार पर) छायावाद के प्रवर्तक हैं। विनयमोहन शर्मा एवं प्रभाकर माचवे ने छायावाद के प्रवर्तन का श्रेय माखनलाल चतुर्वेदी को दिया है। रायकृष्णदास ने सुमित्रानन्दन पन्त को छायावाद का प्रवर्तक घोषित किया है।

 

अपनी जिन विशेषताओं के कारण छायावादी काव्य को आधुनिक हिन्दी कविता में एक विशिष्ट पहचान मिली, कुछ-कुछ वैसी ही प्रवृत्तियाँ फुटकल रूप में महेशनारायण (स्वप्‍न, सन् 1881) और सत्यानन्द अग्‍न‍िहोत्री (खड़ी बोली का पद्य, सन् 1887) की कतिपय कविताओं में भले ही दिखाई दे जाएँ, पर छायावादी काव्यप्रवृत्तियों से पूरी तरह संवलित काव्यरचनाओं का अविच्छिन्‍न प्रवाह जयशंकर प्रसाद की झरना  (जिसका प्रकाशन सन् 1918 में हुआ, पर उसकी कविताएँ इन्दु  में सन् 1909 से ही प्रकाशित होने लगी थीं) से स्वीकार किया जाता है। इस दृष्टि से जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रवर्तक माने जा सकते हैं – “ उपर्युल्लिखित (छायावादी) प्रवृत्तियों के रत्‍नकणों को समन्वित करके शिल्पावेष्टन में सजाकर रखने तथा सुव्यवस्थित रूप देकर एक धारा प्रवाहहित करने का कार्य प्रसाद ने किया। अतएव प्रसाद छायावाद के प्रवर्तक कवि हैं।” (मोहन अवस्थी, हिन्दी साहित्य का प्रवृत्तिपरक इतिहास, पृ. 307-308)

 

तटस्थ ढंग से विचार करने पर, मैथिलीशरण गुप्‍त, मुकुटधर पाण्डेय एवं जयशंकर प्रसाद (उनकी आरम्भिक कविताओं में) आदि की कविताओं में छायावादी काव्य का जन्म हुआ, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्णशर्मा नवीन आदि की कविताओं में वह गतिशील होकर आगे बढ़ा, प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी वर्मा आदि की कविताओं में उसका पूर्ण विकसित रूप सामने आया ।

 

जहाँ तक छायावादी काव्य पर प्रभाव और प्रेरक तत्त्वों का प्रश्न है, तो यदि छायावादी काव्य को द्विवेदीयुगीन कविता के क्रोड़ से विकसित हुआ माना जाए, तो उसके प्रेरक तत्त्व द्विवेदीयुगीन कविता में विद्यमान हैं। उस पर भारतेन्दुयुगीन प्रभाव भी देखा जा सकता है, विशेषतः प्रसाद के सन्दर्भ में। रामधारीसिंह ‘दिनकर’ ने तो छायावादी कविता पर रीतिमुक्त कवि घनानन्द के आत्मपरक काव्याभिव्यक्ति के असर (चक्रवाल की भूमिका और अन्यत्र भी) को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। इस दृष्टि से विचार करने पर घनानन्द की आत्मपरक काव्याभिव्यक्ति, भारतेन्दु की प्रेमपरकता, जगन्मोहन सिंह और श्रीधर पाठक के प्रकृति-चित्रण, रामनरेश त्रिपाठी और मुकुटधर पाण्डेय की स्वछन्दता और कल्पना-प्रवणता, हरिऔध तथा मैथिलीशरण गुप्‍त की नारी-संवेदना और करुणा इत्यादि को छायावादी काव्य के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रेरक-तत्त्वों के रूप में  स्वीकार किया  जा सकता है । छायावादी कविता पर अंग्रेजी साहित्य के वर्ड्सवर्थ के प्रकृति वर्णन, शेली के विद्रोह–दर्शन, कीट्स की सौन्दर्यपरक अभिव्यक्ति, टेनीसन की कलात्मकता के प्रभाव को भी देखा जा सकता है। उस पर रवीन्द्र की रहस्यपरकता के प्रभाव को भी नकारा नहीं जा सकता। वस्तुतः छायावादी कविता का विकास पूर्ववर्ती विविध प्रेरक तत्त्वों से हुआ है, इस तथ्य को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता।

  1. छायावाद : काल-नामकरण एवं सामान्य अर्थ

 

छायावाद का सामान्य अर्थ प्रतीकवाद से सम्बद्ध है । जब हिन्दी कविता में प्रतीकों का यथास्थान, यथासम्भव अधिकाधिक  प्रयोग किया जाने लगा, तब उसे दुरूह और असहज मानकर प्रतीकवादी कविता या दूसरे अर्थों में छायावादी कविता कहा जाने लगा। कतिपय आलोचक काफी समय तक छायावाद और रहस्यवाद को एक ही मानते रहे हैं, जबकि छायावाद और रहस्यवाद दोनों एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं। वैयक्तिक आत्मपरक अनुभूतियों से संवलित प्रतीकात्मकता और अद्वैतभाव की विविध भावभंगिमाओं का सम्मान करनेवाली छायावादी कविता का एक हिस्सा रहस्यवाद से भी सम्पृक्त है। यहाँ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा, जहाँ वे छायावाद को इसाई सन्तों के छायाभास तथा यूरोपीय काव्य के आध्यात्मिक प्रतीकवाद से जोड़ते हुए, उसे बंगला की काव्यप्रवृत्ति के अनुकरण में विकसित मानते हैं, “पुराने इसाई सन्तों के छायाभास तथा यूरोपीय काव्य-क्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद के अनुकरण पर रची जाने के कारण बंगला में ऐसी कविताएँ छायावादी कही जाने लगी थीं।” आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, शुक्ल जी के इस मत का पुरजोर खण्डन करते हैं तथा बंगला में छायावाद के प्रचलित होने  का विरोध करते हैं।

 

हिन्दी में हम जिसे छायावाद के नाम से जानते हैं,उस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग मुकुटधर पाण्डेय के निबन्ध हिन्दी में छायावाद, जो शारदा पत्रिका (सन् 1920) में प्रकाशित हुआ था, में प्रयुक्त हुआ दिखाई देता है। मुकुटधर पाण्डेय ने छायावादी शब्द का प्रयोग उन कविताओं के लिए किया था, जिनमें उन्हें अस्पष्टता और भावों का धुँधलापन दिखाई पड़ा। उसी वर्ष (सन् 1920) सरस्वती  में सुशीलकुमार का भी एक लेख उपर्युक्त नाम से प्रकाशित हुआ। उसके बाद छायावाद नाम चल पड़ा और चर्चित होता गया। परवर्ती कुछ आलोचकों ने व्यंग्यार्थ में भी कहा कि जो समझ में न आए, वह छायावाद है। यहाँ सुमित्रानन्दन पन्त की पीड़ा को सहज ही समझा जा सकता है – “छायावाद नाम से मैं सन्तुष्ट नहीं हूँ। यह द्विवेदीयुग के आलोचकों द्वारा नई कविता के उपहास का सूचक है।” वस्तुतः छायावाद शब्द उस विशिष्ट काव्यधारा के लिए चल पड़ा और रूढ़ हो गया, जिसकी अधिकांश कविताएँ रोमेण्टिक प्रवृत्तियों से ओतप्रोत थीं।

  1. छायावाद की प्रमुख परिभाषाएँ

 

छायावादी काव्य की प्रवृत्तियों और विशेषताओं के आधार पर अनेक विद्वानों ने अपनीअपनी रुचि-अभिरुचि के अनुरूप उसे परिभाषित करने का प्रयास किया है। यहाँ उन्हीं परिभाषाओं के आलोक में छायावाद के स्वरूप को स्पष्ट किया जाना अपेक्षित है –

  • छायावाद का सामान्य अर्थ हुआ – प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप मे अप्रस्तुत का कथन।(आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)
  • कविता के क्षेत्र में जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब हिन्दी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया।(जयशंकर प्रसाद)
  • प्रकृति में चेतना का आरोप, सूक्ष्म सौन्दर्य-सत्ता का उद्घाटन एवं असीम के प्रति अनुरागमय आत्म-विसर्जन की प्रवृत्तियों का गीतात्मक एवं नवीन शैली में व्यक्त रूप छायावाद है। (महादेवी वर्मा)
  • परमात्मा की छाया आत्मा में पड़ने लगती है और आत्मा की परमात्मा में, यही छायावाद है।(रामकुमार वर्मा)
  • छायावाद स्थूल के विरूद्ध सूक्ष्म की प्रतिक्रिया है।(आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)
  • छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है। (डॉ. नगेन्द्र)
  • छायावाद एक प्रकार की विशेष भावपद्धति है, जीवन के प्रति एक विशेष भावात्मक दृष्टिकोण है। (डॉ. नगेन्द्र)
  1. छायावाद के प्रमुख कवि

 

छायावाद के प्रमुख कवियों में मुकुटधर पाण्डेय, मैथिलीशरण गुप्‍त, श्री रायकृष्णदास, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, रामकुमार वर्मा, बालकृष्ण शर्मा नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी, सुमित्राकुमारी सिन्हा, विद्यावती कोकिल के नाम सम्मिलत किए जा सकते हैं। इनके अतिरिक्त मोहनलालमहतो वियोगी’, नरेन्द्र शर्मा, उदयशंकर भट्ट, रामेश्‍वरशुक्ल अंचल’, हरिकृष्ण प्रेमी, जानकीवल्लभ शास्‍त्री, केदारनाथमिश्र प्रभात इत्यादि के नाम भी छायावादी कवियों में परिगणित किए जाते रहे हैं, जिनमें से अनेक कवि परवर्ती काल में अन्य काव्यधाराओं से जुड़ गए।    

  1. छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएँ

 

छायावादी कविता में जिस तरह प्रेम, सौन्दर्य, निराशावाद, पलायनवाद, कल्पनाशीलता, भावप्रवणता, कोमलकान्त पदावली आदि रोमेण्टिक प्रवृत्तियाँ व्यापक रूप से विद्यमान हैं, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि छायावादी कविता रोमेण्टिक कविता है। साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक विविध परिस्थितियों के कारण यदि साहित्य में उपर्युक्त रोमेण्टिक प्रवृत्तियों का बोलबाला हो, तो कविता के उस युग को रोमेण्टिक युग कहा जाता है। सम्भवतः यही कारण हो सकता है कि अंग्रेजी कविता में एक पूरा युग रोमेण्टिक युग के नाम से है। उसके प्रमुख कवियों वर्ड्सवर्थ, शेली, कीट्स, कॉलरिज, बायरन आदि की कविताओं में उपर्युक्त रोमेंटिक प्रवृत्तियाँ दृष्टिगत होती हैं। हिन्दी के प्रमुख रोमेण्टिक कवियों, प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी इत्यादि की कविताओं में भी कमोबेश वही रोमेण्टिक प्रवृत्तियाँ देखी जा सकती हैं। वस्तुतः, छायावाद को हिन्दी कविता का रोमेण्टिक युग और उसके कवियों (प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी) को हिन्दी के प्रमुख रोमेण्टिक कवि कहा जा सकता है। संक्षेप में छायावादी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्‍नवत् रेखांकित की जा सकती हैं –

 

1. नारी-संवेदना की गम्भीर मार्मिक अभिव्यक्ति

 

खड़ी बोली हिन्दी कविता की सर्वप्रमुख विशेषता नारी के प्रति उसकी महान संवेदना-दृष्टि को स्वीकार किया जा सकता है, जो द्विवेदीयुगीन कविता से लेकर छायावाद और परवर्ती काव्यसर्जन तक व्यापक रूप में प्रसरित है। नारी संवेदन की यह उदात्त भावना प्रियप्रवास, यशोधरा, साकेत से होती हुई कामायनी, राम की शक्तिपूजा, तुलसीदास, सरोज स्मृति जैसी रचनाओं में व्यक्त महादेवी वर्मा की अनेक कविताओं तक व्याप्‍त है। छायावाद का परवर्ती काव्य उर्वशी, कनुप्रिया  इत्यादि अनेक रचनाओं में भी गुंजायमान है। छायावादी कविता में नारी के प्रति संवेदना का भाव बहुत मार्मिक और उत्कृष्ट है । राम की शक्तिपूजा  और कामायनी  में यह नारी संवेदना पूर्णता और मार्मिकता के साथ व्यक्त हुई है। पन्त और महादेवी की कविताओं में आत्मा-परमात्मा विषयक प्रतीकों में नारी संवेदना के व्यापक चित्र परिलक्षित होते हैं।

 

2. सौन्दर्य का विस्मयकारी चित्रण

 

सौन्दर्य के स्वछन्द चित्रण में छायावादी कविता का स्वरूप भव्य और व्यापक है। इसके अन्तर्गत नारीसौन्दर्य, मानवसौन्दर्य, प्रकृतिसौन्दर्य, यहाँ तक कि आत्मा के सौन्दर्य के साथ लौकिक-पारलौकिक सौन्दर्य के विविध काव्यचित्र भी बहुतायत से दृष्टिगत होते हैं। छायावादी कवि प्रकृति के कण-कण में असीम सौन्दर्य के दर्शन करते हैं । छायावाद के सबसे महत्त्वपूर्ण और ख्यात् कवि जयशंकर प्रसाद ने तो उसे चेतना का उज्ज्वल वरदान (उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं) कहकर सौन्दर्य की सर्वोपरि सत्ता स्वीकार की है। नारीसौन्दर्य के चित्रण में छायावादी कवि नवीन एवं मौलिक दृष्टि का परिचय देते हैं, जहाँ नए प्रतीकों और उपमानों के माध्यम से नारीसौन्दर्य के विस्मयकारी चित्र मनोहारी ढंग से प्रस्तुत हुए हैं।

 

3. निराशा और वेदना की स्वाभाविक गहन विवृति

 

छायावादी कविता जिस दौर का प्रतिनिधित्व करती है, उस परिवेश में सर्जित काव्य में नैराश्य की अभिव्यक्ति स्वाभाविक मानी जाती है। छायावादी कवियों ने निराशा से उपजे अवसाद के कारण अपने काव्यसर्जन में वेदना की गहन अनुभूतियों को सहज रूप में व्यक्त किया है। निराशा और वेदना की अभिव्यक्ति इस काल की कविता की प्रमुख प्रवृत्ति है। प्रसाद की कामायनी  का आरम्भ निराशा और चिन्ता से होता है, जहाँ वेदना का आधिक्य है। उसके नायक मनु की निराशा और वेदना स्थान-स्थान पर व्यक्त हुई है। प्रसाद के आँसू  में  वेदना का अविस्मरणीय चित्रण है। महादेवी की अनेक कविताओं में व्यक्त निराशा और वेदना उन्हें वेदना की कवयित्री के रूप में प्रस्तुत करती हैं । निराला जैसे कवियों की मैं अकेला  जैसी कविताएँ उनकी निराशाभरी भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति करती हैं।

 

7.4.प्रकृति का व्यापक, स्वतन्त्र एवं सजीव चित्रण        

 

आलम्बन के रूप में प्रभावी प्रकृति चित्रण छायावादी कविता की एक सर्वोपरि विशेषता है। प्रकृति के मनोहारी चित्र खींचने में छायावादी कवियों का मन बहुत रमा है। छायावादी कविता से पूर्व कमोबेश द्विवेदीयुगीन कविता को छोड़कर प्रकृति के सहज, स्वाभाविक और स्वतन्त्र चित्र कहीं नहीं मिलते। आधुनिककाल से पूर्व प्रकृति के चित्र या तो उद्दीपन रूप में हैं, या रहस्यात्मक, उपदेशात्मक और अलंकृत रूप में। विशद और मनोरम चित्र के साथ छायावाद में प्रकृति आलम्बन के भव्य आसन पर प्रतिष्ठित है। प्रकृति के आलंबनपरक स्वरूप का चित्रण छायावादी काव्य की नूतन और मौलिक विशेषता है। जयशंकर प्रसाद और पन्त की कविताओं में प्रकृति के इस स्वरूप की व्यापक अभिव्यक्ति हुई है। निराला और महादेवी वर्मा की कविताओं में भी प्रकृति चित्रों की भरमार है। पन्त तो खैर, प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में ही ख्यात हैं।                         

 

7.5.राष्ट्रीयता का प्रभावी उद्घोष

 

राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति और देशप्रेम के उदात्त भावों से ओतप्रोत कविताओं का सर्जन आधुनिक हिन्दी कविता की एक उल्लेखनीय विशेषता है। छायावादी काव्य में राष्ट्रप्रेम प्रमुख तत्त्व के रूप में उभरकर आया है। तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों में पाश्‍चात्य की व्यापक प्रेरणा और हमारे महान अतीत के स्तवन की आकांक्षा ने भारत के सभी प्रमुख भाषाओं के कवियों को राष्ट्रप्रेम विषयक काव्यसर्जन के लिए प्रेरित किया। इस कारण आधुनिककाल में राष्ट्रप्रेम काव्यरचना की प्रमुख राष्ट्रीय प्रवृत्ति के रूप में उभरी। हिन्दी में भारतेन्दु और उनके परवर्ती लगभग सभी कवियों ने अपनी कविताओं में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति की है। छायावाद इस दृष्टि से बहुत समृद्ध है। राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत रचनाओं की सृष्टि सभी छायावादी कवियों ने की हैं। जयशंकर प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी की कविताओं में राष्ट्रीयता और देश-प्रेम की भावना प्रमुखता से व्यक्त हुई है। अतीत के गौरवगान के क्रम में भारत-स्तवन, भारत-वन्दना का तीव्र स्वर सभी छायावादी कवियों की रचनाओं में सुनाई देता है। हिमाद्रि तुंग शृंग, अरुण यह मधुमय देश हमारा, भारत जननी, भारत माता, भारत वर्ष, ग्राम्या  के कई गीत इसी राष्ट्रीय भावना का उद्घोष करते हैं।           

      

7.6.मानवीय दृष्टिकोण

 

विशद मानवीय दृष्टि छायावादी कविता की महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है। इसके अन्तर्गत छायावादी कवि विश्‍वमानव के कल्याण की कामना करते हैं। सम्भव है कि इस क्रम में उन्होंने रवीन्द्र और अरविन्द के मानवतावादी दृष्टिकोण से प्रेरणा और प्रभाव ग्रहण किया हो। प्रसाद के विजयिनी मानवता हो जाए  से लेकर निराला की बादलराग, भिक्षुक, तोड़ती पत्थर, विधवा  और पन्त के मानव तुम सबसे सुन्दरतम आदि कविताओं में छायावादी कवियों की मानवतावादी भावनाएँ अभिव्यक्त हुई है। इन कविताओं के माध्यम से विश्‍वकल्याण, व्यक्तिस्वातन्त्र्य, नारी के प्रति संवेदना, सामाजिक उपेक्षा के शिकार आमजन के कल्याण की कामना इत्यादि विविध विषयों में कवियों का विशद मानवीय दृष्टिकोण परिलक्षित होता है।

 

7.7.रहस्यपरक भावनाओं की अभिव्यक्ति

 

रहस्यपरकता छायावादी कविता की महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है। अपने मन के गहन अन्तर्भाव को व्यक्त करते समय छायावादी कवि असीम–निराकार अज्ञात सत्ता के प्रति रहस्यभावना से भर जाते हैं। उनकी यह रहस्यानुभूति उनके जीवन का दर्शन बन जाती है। उनके रहस्यभाव में कोई गूढ़गुम्फित विचारसरणि नहीं है। वे सरल अनुभूति के साथ सहजता से अज्ञात सत्ता के विषय में जैसा अनुभव करते हैं, वैसा ही व्यक्त करते हैं। छायावादी कवि रहस्यभाव को जीवन का स्वाभाविक अंग मानकर चलते है। इसीलिए कुछ आलोचकों को छायावाद, रहस्यवाद का पर्याय प्रतीत होता है। आचार्य शुक्ल ने तो इन दोनों को किन्हीं अर्थों में एक ही माना है। प्रसाद ने कामायनी में इस रहस्यपरकता को अद्भुत कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है और कामायनी  के एक सर्ग का नाम ही रहस्य सर्ग  रखा है।

 

प्रकृति सौन्दर्य का सूक्ष्म निरीक्षण करते समय पन्त रहस्यमयी अलौकिकता से भर जाते हैं और नक्षत्रों से मौन निमन्त्रण देनेवाली असीम सत्ता के प्रति प्रश्नाकुलता के भाव से उभचुभ होने लगते हैं। निराला और महादेवी वर्मा के काव्य में जगह-जगह  रहस्यपरक भावनाओं की व्यापक विवृति देखी जा सकती है। आध्यात्मिकता से ओतप्रोत छायावादी कवियों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति रहस्यपरक भावनाओं से परिपूर्ण है।

 

7.8.वैयक्तिक अनुभूतियों का सहज प्रकटीकरण\

 

छायावादी कवि अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को बहुत व्यापक रूप में प्रकट करता है। छायावाद के सभी प्रमुख कवियों ने अपनी वैयक्तिक गहन अनुभूतियों को आत्मपरक शैली में व्यक्त किया है। उन कवियों के वैयक्तिक जीवन की करुणा, निराशा, वेदना, पीड़ा, संघर्ष, द्वन्द्व इत्यादि स्वाभाविक रूप में व्यक्त हुए हैं। प्रसाद का आँसू उनकी वैयक्तिक अनुभूतियों(इस करुणा कलित हृदय में / परिरम्भकुम्भ की मदिरा आदि में) की सर्वोत्तम कलात्मक उपलब्धि कही जा सकती है। निराला की सरोज स्मृति, तुलसीदास  के साथ राम की शक्तिपूजा (दुख ही जीवन की कथा रही / धन्ये मैं पिता निरर्थक था  आदि तक प्रसरित) भी आत्मपरक अनुभूति के साथ उनकी वैयक्तिक अनुभूतियों को प्रकट करनेवाली प्रतिनिधि कविताएँ हैं। महादेवी वर्मा की अधिकतर कविताओं (मैं नीर भरी दुख की बदली से मेरा लघुतम जीवन  तक) में उनकी वैयक्तिक अनुभूतियाँ गहनता के साथ प्रकट हुई हैं।

 

7.9.भाषा का प्रांजल-परिष्कृत–परिनिष्ठित रूप

 

भाषा की कलात्मक उत्कृष्टता की दृष्टि से छायावादी कविता की तुलना आधुनिक हिन्दी कविता में किसी के साथ नहीं की जा सकती। भाषा का कलात्मक वैभव छायावादी काव्य में चरम उत्कर्ष पर था। काव्यभाषा की दृष्टि से खड़ी बोली के परिष्करण और शुद्धिकरण का जो अतुलनीय प्रयास द्विवेदीयुग में किया जा रहा था, उसका बहुत परिष्कृत, प्रांजल, ललित और कलात्मक रूप छायावादी कविता में दिखाई देता है। मन के गूढ़-गहनतम भावों को अभिव्यक्त करने में छायावादी काव्य की भाषा बहुत सफल है। कल्पना, प्रेम और सौन्दर्य जैसे मधुरतम भावों की कोमलतम अभिव्यक्ति में इस काल की भाषा साधिकार सर्वाधिक समर्थ हुई है। यहाँ प्रांजल-परिष्कृत-परिनिष्ठित भाषा मोहक लगती है। कामायनी, राम की शक्तिपूजा, परिवर्तन, नौकाविहार  आदि कविताओं का प्रवाहपूर्ण स्वरूप छायावादी काव्य की उपलब्धि है। परिष्कृत भाषा प्रयोग की दृष्टि से छायावाद बहुत समृद्ध है।    

 

    7.10. प्रतीकात्मकता का सम्मान

 

छायावादी कविता में गहन आन्तरिक अनुभूतियाँ प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त हुई हैं। कवियों ने अपने हृदय की गहनतम अनुभूतियों को सहज रूप में व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लिया है। शब्द जहाँ भावों को व्यक्त करने में समर्थ नहीं हो पाते, वहाँ प्रतीक कवियों के लिए सहायक होते हैं और वे प्रतीकों का सहारा लेने के लिए बाध्य हो जाते हैं। छायावादी कविता अधिकांशतः भावावेश के क्षणों की अनायास अभिव्यक्ति है, जिस कारण प्रतीकों की अधिकता छायावादी काव्य की स्वाभाविक विशेषता बन गई है। कमोबेश सभी छायावादी कवियों ने नए-नए प्रतीकों का प्रयोग किया है। जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा तो विशेष रूप से प्रतीकों के लिए ख्यात् हैं। निराला और पन्त की अनेक कविताओं में नूतन प्रतीकों का प्रयोग हुआ है, जिनसे उनकी काव्याभिव्यक्ति प्रभावी, भावसम्पन्‍न और मर्मस्पर्शी हुई है।

 

7.11.नवीन छन्दों का प्रयोग

 

नूतन छन्द के प्रति विशेष आकर्षण छायावदी कविता की कलात्मक विशेषता है। छायावाद के प्रमुख स्तम्भ निराला ने नव गति, नव लय, ताल, छन्द  नव/ नवल कण्ठ नव, जलद मन्द्र रव की भावना से, खुल गए छन्द के बन्ध के उद्घोष के साथ छन्दो के अनावश्यक बन्धनों को अस्वीकार करते हुए, मुक्तछन्द (निराला मुक्तछन्द  कविता के प्रवर्तक माने जाते हैं, छन्दमुक्त कविता के प्रवर्तक के रूप में नहीं ,जैसा कि कुछ लोग जाने-अनजाने छंदमुक्त कविता का पैरोकार कह देते हैं) के प्रयोग और प्रचलन का पथ प्रशस्त किया, जिसका सर्वत्र स्वागत किया गया। परवर्तीकाल (प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता) में तो मुक्तछन्द नवीन भावाभिव्यक्ति के लिए सशक्त माध्यम की तरह स्वीकृत हुआ। मुक्तछन्द  का पथ प्रशस्त करनेवाले निराला की कविता जूही की कली  को इस दिशा में प्रथम अभिधान स्वीकार किया जाता है।

 

छायावादी काव्य के लिए यह नूतन शिल्पगत प्रयोग एक वरदान प्रमाणित हुआ। प्रसाद ने स्वयं नूतन–नवीन छन्दों का प्रयोग करते हुए कलात्मक काव्याभिव्यक्ति की है। छायावाद के अन्य प्रमुख कवियों, पन्त और महादेवी वर्मा भी नवीन छन्द-प्रयोग के आग्रही रहे हैं। छन्द प्रयोग से काव्यकलेवर की कोमलतम प्रस्तुति छायावादी काव्य की मौलिक विशेषता है।

 

7.12.नूतन अलंकारों का प्रयोग

 

नवीन छन्द प्रयोग की तरह नूतन अलंकारों के प्रयोग में भी छायावादी कवियों ने विशेष रुचि ली और इस दिशा में उन्होंने एक अलग मानदण्ड स्थापित किए। परम्परागत अलंकारों के प्रति आग्रह त्यागकर छायावादी कवियों ने नूतन अलंकारों के प्रति विशेष रुचि दिखाई। उन्होंने परम्परागत अलंकारों को भी नवीन कलेवर में नूतन अर्थ छवियों से परिपुष्ट किया। नवीन उपमाओं के प्रयोग में जयशंकर प्रसाद सिद्धहस्त माने जाते हैं। बिजली का फूल वाली उनकी उपमा इस दृष्टि से अद्वितीय मानी जाती है। छायावादी कवियों ने जिन नूतन पाश्‍चात्य अलंकारों का प्रयोग किया,उनमें मानवीकरण,ध्वन्यार्थ व्यंजना, विशेषण-विपर्यय प्रमुख हैं। प्रसाद के अतिरिक्त निराला, पन्त, महादेवी की कविताओं में मानवीकरण की अनुपम छटा विद्यमान है।

  1. छायावाद पर आक्षेप एवं आरोप

 

छायावादी काव्य को निस्सन्देह आधुनिक हिन्दी कविता की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया जाना चाहिए, जिसमें काव्यसौन्दर्य और मार्मिक साहित्यिक अभिव्यक्ति अपने शिखर पर है। छायावादी कविता को अनेक विशेषताओं के कारण उसे महान कविता की श्रेणी में परिगणित किया जाता है। बावजूद इसके इस कविता के दुर्बल पक्षों की ओर भी आलोचकों ने संकेत किए हैं। श्यामसुन्दरदास ने छायावादी काव्य के साधारणीकरण नहीं हो पाने का स्पष्ट उल्लेख किया है।

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी उसे बाहरी चटक-मटक पर अत्यधिक ध्यान देनेवाली एक शैलीमात्र  के रूप में स्वीकार किया है। डॉ. नगेन्द्र ने छायावादी काव्य में परिव्याप्‍त कुण्ठा  का उल्लेख किया है। डॉ. देवराज ने छायावाद का पतन नामक निबन्ध लिखकर छायावादी काव्य में रीतिकाल के पुनरागमन का संकेत किया है। रामविलास शर्मा और मुक्तिबोध ने छायावादी काव्य के प्रति आक्रोशपूर्ण टिप्पणियाँ की हैं। छायावादी कविता पर किए गए इन सारे आरोपों-प्रत्यारोपों को एक बारगी ख़ारिज नहीं किया जा सकता।

 

छायावाद पर सबसे बड़ा आरोप यही चस्पा किया जा सकता है कि वादों और विवादों के जाल में उलझकर वह कविता जनजीवन से दूर होती गई। जनजीवन से दूर रहकर कोई कविता बहुत प्रभावी नहीं हो सकती है। कल्पना का अत्यधिक प्रवाह और आन्तरिक अनुभूतियों की अतिभावुक अभिव्यक्ति ने छायावादी कविता को इतना अन्तर्मुखी बना डाला कि वह उन कवियों को छोड़कर शेष दुनिया से कटती चली गई। चिर, मधु, आली आदि ने छायावादी कविता को उबाऊ और बोझिल बनाने के साथ ही उसे एकरस बना डाला। शब्दों की अर्थ जटिलता, दुर्बोधता (यद्यपि वह सर्वत्र नहीं है) ने छायावादी कविता को इतना अस्पष्ट और सूक्ष्म बना ड़ाला कि वह मानवहृदय के अन्तर्जगत की वस्तु बन गई। कल्पना की गहन अनुभूति में आवेष्टित नयनाभिराम शब्दचित्र मन-मस्तिष्क पर मादकता उड़ेल देने में तो कामयाब हुए, पर मानवीय संवेदना और सरोकार के न जाने कितने पक्ष उसकी पकड़ से छूटते गए। यहाँ छायावाद के प्रमुख कवि सुमित्रानन्दन पन्त की टिप्पणी विचारणीय है – “छायावाद इसलिए अधिक न चल सका, क्योंकि उसके पास भविष्य के लिए उपयोगी नवीन आदर्शों का प्रकाश, नवीन भावना का सौन्दर्यबोध और नवीन विचारों का रस नहीं था। वह काव्य न रहकर केवल अलंकृत संगीत बन गया था ।”

  1. निष्कर्ष

 

छायावाद आधुनिक हिन्दी कविता का सबसे उल्लेखनीय और प्रमुख काव्य आन्दोलन कहा जा सकता है, जो तत्कालीन युग-परिवेश और परिस्थितियों में द्विवेदीयुगीन कविता की यत्किंचित प्रतिक्रिया होते हुए भी उसी की व्यापक पीठिका पर उसी के क्रोड़ से जन्मा और विकसित हुआ था। छायावाद ने हिन्दी कविता को न केवल बहुविध नवीनता और नूतन काव्यप्रवृत्तियों से संवलित किया, वरन काव्यत्व और साहित्यिक उत्कर्ष की दृष्टि से काव्यरचना के अनेक नवीन मानदण्ड भी स्थापित किए। भाषा, भाव, कथ्य, शिल्प, रचनाविधान, नूतन अलंकार-विधान आदि दृष्टियों से छायावाद ने हिन्दी कविता को शिखर पर स्थापित करने का प्रयास किया,काव्यरचना का मोहक परिवेश निर्मित किया। छायावादी कविता में कल्पना, प्रेम, निराशा, पलायन आदि रोमेण्टिक प्रवृत्तियों की बहुलता के कारण उसे रोमाण्टिक कविता भी कहा जाता है।

 

छायावाद पर हालाँकि अनेक आरोप लगाए गए, जिसके अन्तर्गत उसके जनजीवन से बहुत दूर हो जाने का उल्लेख किया जाता है। अतिकल्पना, अतिभावुकता, अतिआन्तरिकता के कारण छायावादी कविता के अति अन्तर्मुखी हो जाने से, वह हृदय के अन्तर्जगत की वस्तु बन गई, बाह्य जगत् से उसका सम्पर्क भी कम होता गया, पर काव्यत्व के अनुरक्षण की दृष्टि से छायावादी कविता बहुत सफल रही है ।प्रेम और सौन्दर्य के चित्रण में उसकी विलक्षणता सर्वमान्य है। काव्यरचना का उसका मोहक, कोमल रूप पाठक के हृदय पर जादू जैसा असर डालता है। इस दृष्टि से रामधारीसिंह दिनकर की टिप्पणी बहुत प्रासंगिक है– “यह आन्दोलन विचित्र जादूगर बनकर आया था। जिधर भी इसने एक मुट्ठी गुलाल फेंक दी, उधर क्षितिज लाल हो गया।” छायावाद आधुनिक हिन्दी कविता का एक पूर्ण आन्दोलन था। यह आन्दोलन पूर्णता प्राप्‍त कर धीरे-धीरे अवसान की ओर बढ़ा। छायावादी काव्यान्दोलन में कलात्मक दृष्टि से हिन्दी कविता की जैसी उन्‍नति हुई, वह आधुनिक हिन्दी कविता की सर्वाधिक उल्लेखनीय साहित्यिक घटना है। यहाँ डॉ. नगेन्द्र की टिप्पणी प्रासंगिक है – “जिस कविता ने जीवन के सूक्ष्मतम मूल्यों की पुनःप्रतिष्ठा द्वारा नवीन सौन्दर्यचेतना जगाकर एक वृहत समाज की अभिरुचि का परिष्कार किया… जिसने हमारी कला को असंख्य अनमोल छायाचित्रों से जगमगा दिया… उस कविता का गौरव अक्षय है। उसकी समृद्धि की समता हिन्दी का केवल भक्तिकाव्य ही कर सकता है।”

 

भले ही डॉ. नगेन्द्र के कथन में अतिरंजना हो, भले ही छायावादी कविता, भक्तिकालीन कविता में व्याप्‍त जीवनमूल्यों की समता किसी भी दृष्टि से नहीं कर सकती हो, पर वह आधुनिक कविता की अन्यतम उपलब्धि कही जा सकती है। उसमें कोमलतम भावनाओं की ललित अभिव्यक्ति दृष्टिगत होती है। साहित्यिक एवं कलात्मक उपलब्धि की दृष्टि से छायावाद निस्सन्देह नूतन भावभंगिमाओं से सम्पृक्त आधुनिक हिन्दी कविता का सबसे उज्ज्वल पक्ष है।

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वेब लिंक्स

  1. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%9B%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9B%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6
  3. http://sol.du.ac.in/mod/book/view.php?id=1464&chapterid=1371
  4. https://www.youtube.com/watch?v=VeVGp2lJRno
  5. https://www.youtube.com/watch?v=Ne5fQfB0qis