18 साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ीबोली का विकास
डॉ. ओमप्रकाश सिसह
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- खड़ी बोली हिन्दी के इतिहास से परिचित हो सकेंगे।
- खड़ी बोली हिन्दी की विकास परम्परा को समझ सकेंगे।
- खड़ी बोली हिन्दी के बदलते स्वरूप से परिचित हो सकेंगे।
- खड़ी बोली हिन्दी के प्रमुख साहित्यिक रूपों से परिचित हो सकेंगे।
- राष्ट्रभाषा, राजभाषा के रूप में खड़ी बोली हिन्दी की उपयोगिता समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
खड़ी बोली हिन्दी आज राजभाषा और साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित है। खड़ी बोली हिन्दी का इतिहास भी पुराना है। खड़ी बोली में भी साहित्यिक रचनाएँ ब्रजभाषा और अवधी के साथ ही प्रारम्भ हो गईं थीं। वर्तमान समय में, जिसे हम मानक हिन्दी के रूप में जानते हैं, वह खड़ी बोली का ही परिवर्तित रूप है। खड़ी बोली के सन्दर्भ में प्रायः यह भ्रम रहा है कि इसका साहित्यिक भाषा के रूप में विकास अवधी और ब्रजभाषा के बाद उन्नीसवीं सदी में हुआ। वास्तविकता यह है कि पुरानी हिन्दी के बाद जिस समय हिन्दी की अन्य बोलियाँ विकसित हुईं, ठीक उसी समय खड़ी बोली का भी विकास होने लगा था।
- खड़ी बोली का प्रारम्भिक प्रयोग
खड़ी बोली की आरम्भिक प्रवृत्तियाँ सिद्ध एवं नाथ साहित्य में मिलती हैं। ‘ण’ के स्थान पर ‘न’ का प्रयोग, अकारान्त-एकारान्त एवं आनुनासिकता जैसे भाषिक प्रयोग सिद्धों एवं नाथों के साहित्य में दिखाई देते हैं। खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में अपनाने का प्रथम श्रेय सूफी सन्त शेख फरीद शकरगंज को दिया जा सकता है। अमीर खुसरो, जिनका वास्तविक नाम अबुल हसन था, खड़ी बोली के पहले प्रमुख कवि माने जाते हैं। यह बात आश्चर्यजनक लगती है कि 14 वीं शताब्दी के आरम्भ में वे ऐसी भाषा का प्रयोग कर रहे थे, जैसी खड़ी बोली आधुनिक काल में दिखती है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि आधुनिक काल में खड़ी बोली का विकास जिस प्रकार हिन्दवी और फ़ारसी की अन्तर्क्रिया से हुआ है, खुसरो लगभग वैसे ही वातावरण में रहकर काव्य-रचना कर रहे थे। इसके बावजूद 14वीं सदी में लिखित उनकी खड़ी बोली आज की खड़ी बोली के इतनी अधिक निकट है कि आश्चर्य में डाल देती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इस बात को रेखांकित किया है – “क्या उस समय भाषा घिसकर इतनी चिकनी हो गई थी, जितनी अमीर खुसरो की पहेलियों में मिलती है।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 39) उनकी पहेलियों में खड़ी बोली अपने आधुनिक एवं शुद्ध रूप में नजर आती है –
एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।
खुसरो की कविताओं में खड़ी बोली का दूसरा रूप वहाँ दिखाई देता है, जहाँ वे खड़ी बोली और ब्रजभाषा के आरम्भिक रूपों को मिला देते हैं।
इन शैलियों के अतिरिक्त अमीर खुसरो ने ऐसी रचनाएँ की हैं, जिनमें खड़ी बोली, ब्रजभाषा और फ़ारसी एक ही प्रवाह में शामिल हो गई हैं। कुल मिलाकर यह मानना पड़ता है कि अमीर खुसरो भाषिक प्रयोगों में अपने समय तथा भविष्य की भाषिक प्रवृत्तियों का सुन्दर समन्वय स्थापित कर पा रहे थे।
इसके बाद सन्त साहित्य में भी खड़ी बोली के आधार पर साहित्यिक रचनाएँ दिखाई देती हैं। कबीर की भाषा को तो पँचमेल खिचड़ी कहा ही गया। इनके अलावा अन्य सन्तों ने भी खड़ी बोली के शब्दों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। कहीं-कहीं तो इन सन्तों की रचनाएँ मूलतः खड़ी बोली की ही प्रतीत होती हैं। जैसे –
जो बिछुड़े हैं पियारे से भटकते दर-बदर फिरते।
हमार यार है हममें हमन को इन्तजारी क्या।।
उपर्युक्त उदाहरण में भाषिक संरचना मूलतः खड़ी बोली पर आधारित है, जबकि हमन जैसे प्रयोग इसके पूर्वीपन को तथा ‘दर-बदर’ जैसे प्रयोग फ़ारसी प्रभाव को स्पष्ट करते हैं। सतरहवीं शताब्दी के सन्त मलूकदास के साहित्य में भी यह प्रवृत्ति दिखाई देती है –
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
इसी प्रकार रीतिकालीन काव्य में दरिया साहब, पलटू साहब तथा यारी साहब जैसे सन्त कवि जिस भाषा में लिख रहे थे, वह खड़ी बोली के ही निकट थी।
अकबर के दरबारी कवि अब्दुर्रहीम ‘खानखाना’ की रचना मदनाष्टक में खड़ी बोली का स्पष्ट प्रयोग दिखाई देता है। उसकी भाषा आज की खड़ी बोली जैसी ही है। रहीम का एक उदाहरण द्रष्टव्य है, जिसमें खड़ी बोली मिश्रित ब्रजभाषा देखी जा सकती है –
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे मोती मानुस चून।।
रहीम ने खड़ी बोली में पर्याप्त प्रयोगधर्मिता का परिचय दिया है।
- दक्खिनी हिन्दी में खड़ी बोली का आरम्भिक स्वरूप
तेरहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में सुल्तान अलाउद्दीन के दक्षिण अभियान के कारण कई अधिकारी, कर्मचारी और व्यापारी बीजापुर तथा गोलकुण्डा आदि क्षेत्रों में गए तथा उनके साथ उनकी भाषा भी गई। यह भाषा दिल्ली के आसपास की वही भाषा थी, जिसे कौरवी कहा जाता है और जिसका नाम आधुनिक काल में खड़ी बोली पड़ा। चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में मुहम्मद तुगलक के आदेश के कारण बहुत बड़ी संख्या में दिल्ली के लोग देवगिरि या दौलताबाद जाकर बसे जिससे भाषिक संक्रमण की प्रक्रिया और तीव्र हुई। धीरे-धीरे इन लोगों की भाषा पर उस क्षेत्र की भाषाओं – मराठी, तेलुगु और कन्नड़ आदि का प्रभाव पड़ने लगा। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में एक ऐसी मिश्रित भाषा पैदा हुई, जो अपने व्याकरणिक ढाँचे में खड़ी बोली के समान थी, बाहरी कलेवर में फ़ारसी के समान थी तथा प्रकृति में सामासिक थी। इस भाषा में सूफी फकीरों तथा अन्य अनेक साहित्यकारों ने चौदहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक साहित्यिक रचनाएँ कीं। इन्हीं रचनाओं के समग्र रूप को दक्खिनी साहित्य कहते हैं।
दक्खिनी हिन्दी के रचनाकारों में प्रायः किसी न किसी मात्रा में खड़ी बोली से निकटता दिखाई पड़ती है। इनकी कुछ रचनाएँ तो ऐसी हैं, जो उत्तर भारत में खड़ी बोली की रचनाओं के रूप में विख्यात हैं। उदाहरण के लिए वली दकनी की यह ग़ज़ल –
जिसे इश्क का तीर कारी लगे, उसे जिन्दगी क्यों न भारी लगे।
वली को कहे तूँ अगर एक वचन, रकीबों के दिल में कटारी लगे।
इसके अतिरिक्त अन्य कवियों की रचनाएँ भी खड़ी बोली हिन्दी से काफी मिलती-जुलती हैं। ख्वाजा बन्दानवाज तथा मुल्ला वजही की रचनाओं से एक-एक पंक्ति के उदाहरण क्रमशः द्रष्टव्य हैं –
मैं आशिक उस पीव का जिसने मुझे जीव दिया है।
सूरज यूँ है रंग आसमानी मने, कि खिल्या कमल फूल पानी मने।
दक्खिनी हिन्दी के प्रथम हिन्दी गद्यकार ख्वाजा बन्दानवाज गेसूदराज माने जाते हैं। परवर्ती गद्य लेखकों में मीराँजी शम्सुल उश्शाक, शाह कलन्दर, बुरहानुद्दीन जानम, अमीनुद्दीन आला आदि उल्लेखनीय हैं। दक्खिनी हिन्दी गद्य का श्रेष्ठ साहित्य मुल्ला वजही की रचना ‘सबरस’ में दिखाई देता है। दक्खिनी हिन्दी में खड़ी बोली के सभी स्वर तथा सभी व्यंजन तो मिलते ही हैं, अन्य प्रवृत्तियाँ भी मिलती हुई प्रतीत होती हैं।
अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक खड़ी बोली पर आधारित साहित्यिक भाषा को ‘हिन्दी’ या ‘हिन्दवी’ संज्ञा प्राप्त थी।
खड़ी बोली की काव्यधारा में नजी़र अकबराबादी का भी विशेष महत्त्व है। पर उनके साहित्य को हिन्दी खड़ी बोली के विकास में स्थान नहीं दिया जाता है। खड़ी बोली एक प्रकार से मुसलमानों की काव्यभाषा मानी जाती थी। यह स्थिति भारतेन्दु युग तक विद्यमान थी।
- उन्नीसवीं सदी में खड़ी बोली हिन्दी का विकास
उन्नीसवीं शताब्दी में खड़ी बोली का विकास बुहत तेजी से हुआ, उतनी ही तेजी से ब्रजभाषा का पतन भी हुआ। ब्रजभाषा लगभग दो-तीन शताब्दियों तक एक मात्र साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी। इस तीव्र और जटिल परिवर्तन के पीछे कई कारण देखे जा सकते हैं। वस्तुतः आधुनिकता के आगमन ने इस परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आधुनिक संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने में ब्रजभाषा चुक-सी गई थी और वहीं खड़ी बोली में ऐसी विशेषताएँ विद्यमान थीं जो आधुनिक युग की बदलती संवेदनाओं को वहन कर सकें। हिन्दी का आधुनिक काल अनेक सामाजिक राजनीतिक परिवर्तनों का साक्षी बना। यह वह समय था, जब भारतवासी अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। अंग्रेजी का प्रभाव देश की भाषा और संस्कृति पर दिखाई पड़ने लगा था। मुग़ल सत्ता के समाप्त हो जाने से अरबी-फ़ारसी के शब्दों के प्रचलन में कमी हुई थी और खड़ी बोली का प्रभाव बढ़ा था। अंग्रेज शासक सामान्य व्यवहार की भाषा खड़ी बोली से परिचित हुए। उन्होंने खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार पर ध्यान दिया। सन् 1800 में अंग्रेज सरकार ने फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। इस कॉलेज के प्रिंसिपल जॉन गिलक्रिस्ट ने खड़ी बोली को पूरे भारत की व्यावहारिक भाषा के रूप में मानते हुए उसकी कई शैलियों का विकास करवाया।
खड़ी बोली के विकास में ईसाई मिशनरियों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। धर्म-प्रचार के लिए उन्होंने बाईबल के कुछ विशेष अंशों का सरल हिन्दी में अनुवाद करवाकर छोटी-छोटी पुस्तकों के रूप में उनका नि:शुल्क वितरण किया। इससे देवनागरी लिपि तथा खड़ी बोली का व्यापक प्रचार-प्रसार होने लगा।
इस प्रक्रिया में कई भारतीय बुद्धिजीवी अपने-अपने धर्म तथा समाज की सुरक्षा के लिए आगे आए। जिसमें दयानन्द सरस्वती (आर्य समाज), राजा राममोहन रॉय (ब्रह्म समाज), श्रद्धाराम फिल्लौरी (हिन्दू धर्म सभा) का योगदान महत्त्वपूर्ण है। इन लोगों ने भी अपनी प्रचार सामग्री को सरल-सहज खड़ी बोली हिन्दी में प्रस्तुत किया। इनके अलावा थियोसोफिकल सोसायटी के माध्यम से एनी बेसेण्ट ने हिन्दी भाषा को बढ़ावा दिया।
प्रेस की स्थापना उन्नीसवीं शताब्दी में एक ऐसी घटना थी, जिसने भारतीय समाज को परिवर्तित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से सम्प्रेषण की सम्भावनाएँ कई गुना बढ़ गईं। इस प्रकार प्रेस के आगमन ने खड़ी बोली के विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- उन्नीसवीं सदी में खड़ी बोली का साहित्यिक स्वरूप
भारतेन्दु पूर्व युग
इस युग में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका फोर्ट विलियम कॉलेज की रही। इस कॉलेज के प्रिंसिपल जॉन गिलक्रिस्ट ने भारतीय भाषाओं का गहन अध्ययन किया; व्याकरण और शब्दकोष का निर्माण भी कराया। वे हिन्दी भाषा को हिन्दुस्तानी कहते थे। उनकी ही देखरेख में लल्लूजीलाल, सदल मिश्र, सदासुखलाल नियाज, इंशाअल्ला खाँ ने प्रमुख रूप से इस भाषा में साहित्य रचना की।
सन् 1830 में जन्मे मुंशी सदासुखलाल नियाज ने हिन्दी खड़ी बोली का प्रयोग अपनी रचनाओं में बखूबी किया। खड़ी बोली या कौरवी का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप में हुआ है। इसका क्षेत्र देहरादून का मैदानी भाग, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, दिल्ली, बिजनौर, रामपुर, मुरादाबाद कहा जा सकता है। मुंशी सदासुखलाल नियाज के अलावा इंशा अल्ला खां ने भी इस दौरान रचनाएँ की। इनके द्वारा लिखित रानी केतकी की कहानी को हिन्दी की पहली कहानी होने का गौरव प्राप्त है। लल्लूजीलाल ने गिलक्रिस्ट के अनुरोध पर प्रेमसागर नामक पुस्तक खड़ी बोली में लिखी, जिसमें कृष्णलीला का वर्णन है। सिंहासन बत्तीसी, बेताल पचीसी, शकुन्तला नाटक इनकी अन्य पुस्तकें हैं। इन पुस्तकों की भाषा है तो खड़ी बोली ही, पर उसमें ब्रज और उर्दू का भरपूर मिश्रण हुआ है। इससे पहले गिलक्रिस्ट स्वयं हिन्दी के व्याकरण पर पुस्तक लिख चुके थे। सन् 1796 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ग्रामर ऑफ हिन्दुस्तानी लैंग्वेज में पहले-पहल भारत में देवनागरी लिपि की छपाई के लिए टाइप का इस्तेमाल हुआ। हालांकि इससे पहले हॉलैण्ड के निवासी जोंजेशुआ केटलर हिन्दुस्तानी शीर्षक से हिन्दी का प्रथम व्याकरण डच भाषा में लिख चुके थे, और सन् 1716 में एम्स्टर्डम में प्रकाशित पुस्तक चाइना इलस्ट्रेटा में पहली बार देवनागरी के अक्षर छापे जा चुके थे।
इसी काल के एक और लेखक सदल मिश्र हैं। इनकी रचनाओं में नासिकेतोपाख्यान प्रसिद्ध है। इस पुस्तक में सदल मिश्र ने अरबी और फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग नहीं के बराबर किया है। खड़ी बोली में लिखी गई इस पुस्तक में संस्कृत के शब्द अधिक हैं। सन् 1600-1850 के बीच कालजयी कृतियाँ तो नहीं मिलतीं, पर इस दौरान हिन्दी गद्य अपना निश्चित स्वरूप ग्रहण करता रहा। जिस तरह जैन मुनियों ने 8-9 वीं शती में अपने मतों के प्रचार-प्रसार के लिए जनभाषा को अपनाया था, ठीक उसी प्रकार 18-19 वीं शताब्दी में ईसाई पादरियों ने भी हिन्दी का सहारा लिया। चार्ल्स विल्किंस ने बाइबल का हिन्दी अनुवाद कर उसे छपवाया। हिन्दी के लिए 30 मई 1826 का दिन एक और मील का पत्थर बना, जब हिन्दी का पहला समाचार पत्र उद्दन्त मार्तंण्ड कलकत्ता से निकला। हालाँकि यह साप्ताहिक समाचार पत्र एक साल छः महीने ही निकल सका और 11 दिसम्बर 1827 को बन्द हो गया। यह भी एक संयोग है कि हिन्दी का पहला समाचारपत्र अहिन्दी भाषाभाषी क्षेत्र से निकला। हिन्दी प्रदेश में छपने वाला हिन्दी का पहला समाचारपत्र बनारस अखबार था। सन् 1885 में यह काशी से निकला। इसका प्रकाशन राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने शुरू किया था और पण्डित गोविन्द रघुपति धन्ते इसके सम्पादक बनाए गए थे। इसकी भाषा उर्दू मिश्रित हिन्दी थी और लिपि देवनागरी। हिन्दीभाषी क्षेत्र से निकलने वाला पहला दैनिक समाचारपत्र हिन्दोस्ता है जिसे प्रतापगढ़ कालाकाँकर के राजा रामपाल सिंह ने निकाला था और पण्डित मदनमोहन मालवीय उसके सम्पादक थे। इस दौरान सन् 1877 में श्रद्धाराम फुल्लौरी का उपन्यास भाग्यवती भी छपा। अनेक विद्वान इसे हिन्दी का पहला उपन्यास मानते हैं।
हालाँकि हिन्दी उपन्यास को जो लोकप्रियता बाबू देवकीनन्दन खत्री ने दिलाई, उसकी तुलना हाल ही में लोकप्रिय हुए उपन्यास हैरी पॉटर से की जा सकती है। वैसे तो उन्होंने कुल दस उपन्यास लिखे, पर चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता-सन्तति को जो और जैसी लोकप्रियता मिली, उसका कोई जवाब नहीं। कहते हैं कि उनका उपन्यास पढ़ने के लिए लोगों ने हिन्दी सीखी। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने यह उपन्यास एक बारगी नहीं लिखा। वे टुकड़ों में लिखते थे और उसके हर एक भाग को बयान कहा जाता था। एक-एक कर जब और ज्यों ये बयान छपते, उन्हें पढ़ने के लिए और आगे की कहानी जानने के लिए लोग उत्सुक रहते थे। इलाके में जो लोग हिन्दी पढ़ सकते थे, उनकी पूछ बढ़ जाती थी और लोग उन्हें घेरकर नव्यतम भाग की कथा सुनते थे। हैरी पॉटर की कहानियों की तरह इसकी भी कथा विशुद्ध फन्तासी पर आधारित थी।
भारतेन्दु युग
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी नवजागरण की नींव रखी। ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’ मानने वाले हिन्दी के इस पुरोधा ने अपने नाटकों, कविताओं, कहावतों और किस्सागोई के माध्यम से हिन्दी भाषा के उत्थान के लिए खूब काम किया। उन्होंने अपने पत्र कविवचनसुधा के माध्यम से हिन्दी का प्रचार-प्रसार भी किया। फोर्ट विलियम कॉलेज के तहत कार्यरत चारों भाषा मुंशियों ने खड़ी बोली हिन्दी को स्थापित करने का जो स्तुत्य कार्य किया था, भारतेन्दु ने उसे कविता के माध्यम से आगे बढ़ाया। उन्होंने हिन्दी को ब्रज से मुक्त किया और जीवन के यथार्थ से हिन्दी को गर्वबोध दिया। उनकी रचनाओं में अंग्रेजी शासन व्यवस्था के खिलाफ गहरी कसक भी थी। कुछ बानगियाँ इस प्रकार हैं –
अंग्रेजी पढ़ी के जदपि सब गुण होत प्रवीन
पै निज भाषा ज्ञान बिन रहत हीन के हीन
निज भाषा उन्नत्ति अहै, सब उन्नत्ति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल
सब गुरुजन को बुरा बतावे, अपनी खिचड़ी अलग पकावे
भीतर तत्त्व न झूठी तेजी, क्यों सखी साजन? नहीं अंग्रेजी।
नई नई नित तान सुनावे, अपने जाल में जगत फँसावे
नित नित करी हमें बल सून, क्यों सखी साजन? नहीं क़ानून।
हिन्दी के इस नवजागरण काल में ही ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ का गठन हुआ। सन् 1893 में काशी में स्थापित इस संस्था ने हिन्दी के काम और नाम को और आगे बढ़ाया। इस बीच महेन्द्र भट्टाचार्य ने पदार्थ विज्ञान नामक पुस्तक लिख कर सिद्ध कर दिया कि हिन्दी सिर्फ साहित्य की भाषा ही नहीं, बल्कि विज्ञान की भाषा भी हो सकती है।
- बीसवीं सदी में खड़ी बोली हिन्दी का विकास
सन् 1900 (जनवरी) में सरस्वती पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ और उसमें किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी इन्दुमती छपी। इसके साथ ही हिन्दी कहानी के एक नए अध्याय का जन्म हुआ, जो पहले के आख्यानों और किस्सागोई से भिन्न थी। अनेक विद्वान तो इन्दुमती को ही हिन्दी की पहली कहानी होने का गौरव देते हैं।
बीसवीं सदी का आरम्भ हिन्दी भाषा के विकास की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। इस समय देश में कई तरह के आन्दोलन चल रहे थे। ये आन्दोलन चाहे राजनीतिक हों या सामाजिक, इन सबका माध्यम हिन्दी ही थी। बड़ी बात कि हिन्दी अब केवल उत्तर-भारत तक ही सीमित नहीं रह गई थी, वह पूरे देश की भाषा बन गई थी। सन् 1918 में दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना कर महात्मा गांधी ने उत्तर और दक्षिण भारत के बीच भाषा सेतु का निर्माण किया। इस प्रसंग को याद कर भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा – ‘सन् 1917 में महात्मा गांधी चम्पारण में थे और मुझे उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, तब उन्होंने दक्षिण में हिन्दी का प्रचार कार्य आरम्भ करने का विचार किया और उनके कहने पर स्वामी सत्यदेव और गांधी जी के प्रिय पुत्र देवदास गांधी ने वहाँ जाकर यह कार्य आरम्भ किया। बाद में सन् 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मलेन के इन्दौर अधिवेशन में इस प्रचार कार्य को सम्मलेन का मुख्य कार्य स्वीकार किया गया।’
इसी बीच देश में साम्प्रदायिक विद्वेष का वातावरण उठ खड़ा हुआ। इस वातावरण ने भाषा-संस्कृति को भी अपने घेरे में ले लिया। महात्मा गांधी जिस तरह हिन्दी-मुस्लिम एकता के हिमायती थे वैसे ही वे हिन्दी-उर्दू सम्मिलन के भी पक्षधर थे। उनका स्पष्ट मानना था कि “यदि हिन्दी और उर्दू का संगम हो जाए, तो सरस्वती प्रकट हो जाए, जो गंगा और यमुना दोनों से महान और विशाल होगी। यह सरस्वती ऐसी बड़ी हुगली के समान होगी, जिसका पंक दूर कर दिया गया है।” हिन्दी और उर्दू के झगड़े को समेटते हुए उन्होंने भाषा को एक और नाम दिया ‘हिन्दुस्तानी’। इस हिन्दुस्तानी भाषा में न तो संस्कृत की क्लिष्टता थी और न ही उर्दू की दुरूहता। यह ऐसी सहज-सरल बोलचाल की भाषा थी जो देश के व्यापक क्षेत्र में बोली समझी जाती थी।
साहित्य की दृष्टि से तेलुगु, तमिल, बांग्ला, मराठी आदि भाषाएँ बेशक हिन्दी से आगे थीं, परन्तु बोलने वालों के लिहाज से हिन्दुस्तानी सबसे आगे थी। सन् 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने हिन्दुस्तानी की पुरजोर वकालत करते हुए कहा कि यही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। सन् 1900 से लेकर 1950 तक हिन्दी के अनेक रचनाकारों ने इसके विकास में योगदान दिया। इनमें प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा आदि प्रमुख कहे जा सकते हैं। इस काल को हिन्दी का दूसरा स्वर्णयुग कहा जा सकता है। भक्तिकाल के बाद एक लम्बा अन्तराल आया था, जिसमें आधुनिक हिन्दी भाषा गढ़ी जाती रही थी। यह काल उसकी सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति का था। इन लेखकों-कवियों ने हिन्दी के साहित्य को विश्व साहित्य के समकक्ष खड़ा कर दिया।
लगभग इसी समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखकर हिन्दी में साहित्य के इतिहास लेखन की कमी को पूरा किया। हालाँकि यह भी सही है कि फ़्रांसीसी विद्वान गार्सा द तासी इससे नौ दशक पहले हिन्दी साहित्य का इतिहास कलमबद्ध कर चुके थे, फिर भी आचार्य शुक्ल ने इतिहास बोध की जो विलक्षण प्रतिभा दिखाई और शुद्ध वैज्ञानिक तरीका अपनाया, वह अप्रतिम है।
साहित्य साधना के बीच दो और ऐसी बातें हुईं, जिनका असर हिन्दी के विकास पर पड़ा। ये थीं सन् 1931 में हिन्दी की पहली फीचर फिल्म आलमआरा का निर्माण और उसी के आसपास हिन्दी टाइप राइटर का आविष्कार। पहले ने यदि देश की लाखो करोड़ो निरक्षर जनता को भारत की परम्परागत वाचिक परम्परा से पुनः जोड़ने का काम किया, तो दूसरे ने यन्त्र की आधुनिक धारा से हिन्दी को जोड़ा। इसके बाद हिन्दी को पीछे मुड़कर देखने की जरूरत शायद ही हुई। यह सच भी है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार में फिल्मों और उनके गानों का जितना योगदान रहा है, उतना किसी और का नहीं। यह हिन्दी फ़िल्मों का ही प्रभाव रहा कि रूसी लोग ‘मेरा जूता है जापानी’ गाने के बोल पर थिरकते रहे। हाल ही की फिल्म स्लम डॉग मिलिनियर के गाने ‘जय हो’ ने तो ऑस्कर जीत कर हिन्दी की शान कहीं और बढ़ा दी।
15 अगस्त 1947 को देश के आजाद होने पर लोगों के अरमान जागे, आकांक्षाएँ बढ़ीं। सोच बनी कि अन्य देशों की तरह हमारा भी अपना संविधान, अपना क़ानून, अपना ध्वज, अपना गीत और अपनी भाषा हो। संविधान और क़ानून तो खैर जरूरी थे, पर राष्ट्र की एक विशिष्ट पहचान भी उतनी ही जरूरी थी, जो राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रभाषा से ही पूरी हो सकती थी। आजादी के लड़ाई की संघर्षपूर्ण दौर में हिन्दी या हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो खैर प्राप्त हो चुका था, अब उसे राजभाषा का दर्जा दिए जाने की जरूरत थी, परन्तु यह सवाल संविधान सभा में जैसे ही आया, मानो भूचाल आ गया। अन्ततः निदान यह निकला कि देश की राजभाषा तो नागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी ही हो, पर कुछ वर्षों तक वह अंग्रेजी का दामन थाम कर चले। संविधान निर्माताओं के इस एक फैसले ने हिन्दी को इतना कमजोर कर दिया कि आज भी उस पर अंग्रेजी का साया पसरा हुआ है।
ऐसा भी नहीं कि हमारी सरकार ने हिन्दी के विकास के लिए कोई काम न किया। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, केन्द्रीय हिन्दी शब्दावली आयोग आदि संस्थानों के साथ-साथ अनेक प्रादेशिक हिन्दी अकादमियों का गठन कर हिन्दी के संवर्धन के काम को बढ़ाया जाता रहा है। संसदीय राजभाषा समिति भी राज-काज में हिन्दी के प्रयोग पर नजर रखने के साथ ही उसके प्रयोग को प्रोत्साहित करती रही है, पर हिन्दी को सबसे बड़ी शक्ति मिली है बाजार से। अधिसंख्य लोगों की भाषा होने के कारण बाजार-तन्त्र इसी भाषा को अपने उत्पादों के प्रचार की भाषा बनाने को बाध्य होता रहा है। दूरदर्शन आदि माध्यमों के आने के बाद तो इसकी शक्ति में और भी इजाफा हुआ है। दरअसल, भारत में ज्ञान की वाचिक परम्परा रही है। पुस्तकें तो बहुत बाद में आईं। यहाँ लोग निरक्षर होते हुए भी ज्ञान के भण्डार कहे जा सकते हैं। सिनेमा और टेलीविजन जैसे माध्यमों ने अक्षर ज्ञान की इस अनिवार्यता को समाप्त कर आधुनिक सम्पर्क क्रान्ति से हिन्दी को जोड़ दिया है। इसका दूसरा असर यह हुआ कि लिपि से अलग होकर हिन्दी और उर्दू का फासला आप से आप कम हो गया। फलतः हिन्दी एक बेहद सशक्त भाषा के तौर पर उभर कर आई – एक ऐसी भाषा जिसके पीछे करोड़ो आम जनों का सम्बल है और जो बोलने-समझने वालों की संख्या की दृष्टि से आज विश्व में दूसरा स्थान रखती है।
- निष्कर्ष
यद्यपि खड़ी बोली हिन्दी के प्रयोग के कुछ उदाहरण हमें प्राचीन हिन्दी साहित्य में मिल जाते हैं, पर यह निर्विवाद सच है कि खड़ी बोली ने आधुनिक काल में ही स्वस्थ स्वरूप ग्रहण किया है। खड़ी बोली हिन्दी को अपना वर्तमान साहित्यिक रूप ग्रहण करने में कई सौ साल का समय लगा है। हम जानते हैं कि खड़ी बोली की विकास परम्परा ब्रजभाषा और अवधी आदि साहित्यिक भाषाओं से तो जुड़ा ही है, अन्य भारतीय भाषाओं से भी जुड़ा है। इस सन्दर्भ में उर्दू और दक्खिनी का नाम खासतौर से लिया जा सकता है। खड़ी बोली के स्वरूप ग्रहण में फोर्ट विलियम कॉलेज और भारतेन्दु मण्डल के रचनाकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में छायावाद के प्रारम्भ तक खड़ी बोली गद्य और पद्य का पूर्ण विकास हो चुका था। आज खड़ी बोली हिन्दी में पर्याप्त साहित्य सर्जन तो हो ही रहा है, यह मीडिया के लिए भी उत्कृष्ट भाषा बनी हुई है।
you can view video on साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ीबोली का विकास |
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%96%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80_%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
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