14 रीतिमुक्त काव्य
प्रो. शम्भुनाथ तिवारी तिवारी
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- रीतिकालीन रीतिमुक्त काव्य का सामान्य परिचय प्राप्त कर सकेंगे।
- रीतिमुक्त कवियों और उनकी रचनाओं का सम्यक् बोध कर सकेंगे।
- रीतिमुक्त कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों के विषय में विस्तार से जान सकेंगे।
- समग्रतः रीतिमुक्त काव्य का तथ्यपरक एवं वस्तुपरक आकलन कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
रीतिकाल की परिधि और समयसीमा के भीतर ही रहकर काव्यरचना करनेवाले वे कवि जो परंपरागत रीतिकाव्यरचना से अलग स्वछंद रूप से काव्याभिव्यक्ति कर रहे थे वे रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि कहे जाते हैं। उन्हें ही स्वछंद काव्यधारा के कवि के नाम से भी अभिहित किया जाता है। रीतिमुक्त कहने का आशय ही यही है कि हर तरह की रीतिबद्धता से मुक्त, जैसा कि रीतिमुक्त नाम से ही अनुमान लगाया जा सकता है। रीतिकाल की समयसीमा में ही रीतिबद्ध कविता के समानांतर रीतिमुक्त कविता की एक धारा प्रवहमान् थी, जिसे स्वछंद काव्यधारा के नाम से भी जाना-पहचाना जाता है। यह रीतिबद्धता की परंपरागत काव्यरचना के नियमों से मुक्त ऐसी काव्यधारा है, जिसकी प्रवृत्ति स्वछंद थी और जो कवियों की अंतःप्रेरणा से उनमुक्तभाव से प्रवाहित हो रही थी। काव्यरचना के क्रम में रीतिमुक्त कवियों नें काव्यशास्त्रीय नियमों एवं प्रचलित साहित्यिक परंपराओं को नकारते हुए अपने नवीन और क्रांतिकारी दृष्टिकोण का परिचय दिया। वे रीतिबद्ध कवियों की तरह निश्चित नियमों में बँधने के स्थान पर उनसे मुक्त होकर काव्यरचना करना पसंद करते थे।उन्हें कविता की बँधी-बँधाई परंपरा या परिपाटी,पूर्व में प्रयुक्त उपमान एवं प्रतीक तथा कविता के कलेवर को बाहरी तौर पर सजाना-सँवारना पसंद नहीं था। उन्होंने अपनी अनुभूतियों को कविता के माध्यम से बहुत सहज रूप में व्यक्त करने का प्रयत्न किया है। वे बहुत उन्मुक्त और स्वछंदभाव से अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के पक्षधर कहे जा सकते हैं। तमाम साहित्यिक काव्यरूढ़ियों का परित्याग कर एक नए मार्ग का अनुसरण करने के कारण रीतिमुक्त काव्यधारा के कवियों की कविताओं में जो वैशिष्य आ गया है,वह उन्हें रीतिकाल के अन्य वर्गों के कवियों से अलग स्थान पर समादृत और प्रतिष्ठित करता है। यद्यपि रीतिमुक्त कवि भी किसी न किसी राजाश्रय में ही पनाह पाते थे, पर वे अपने ऊपर आश्रयदाता के अनावश्यक अंकुश स्वीकीर नहीं करते थे। वे उनकी काव्याभिरुचियों से प्रभावित हुए बिना अपने रचनाकर्म में लीन रहते थे।इस काव्यधारा के कवियों नें अपनी तीव्र अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए काव्य को एक साधन या माध्यम के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने कविता करने के लिए कविता नहीं की है,वरन् अपनी गहन अनुभूतियों को अभियक्त करने के लिए कविता करना उनके लिए एक अनिवार्य विवशता कही जा सकती है। संभवतः यही कारण है कि रीतिमुक्त कवियों की काव्याभिव्यक्ति में भाव और कला का सुंदर समन्वय प्राप्त होता है। यहाँ रीतिमुक्त काव्यधारा की कतिपय प्रमुख विशेषताओं के आलोक में उसका मूल्यांकन किया जाना अपेक्षित है।
- रीतिमुक्त काव्य
रीतिकालीन समयसीमा में उपलब्ध काव्यसर्जन को जिन प्रमुख दो वर्गों में विभक्त करने का प्रयास किया गया है,वे हैं – रीतिबद्ध और रीतिमुक्त और इसका श्रेय आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र को दिया जाता है। इससे पूर्व आचार्य शुक्ल ने रीतिकाल के कवियों को रीतिग्रंथकार कवि एव उनसे इतर को अन्य कवि के रूप में रखने का आग्रह किया था। रीतिबद्धता इस काल की प्रमुख प्रवृत्ति होने के कारण जिन कवियों की रचनाएँ काव्यांगविवेचन की परिधि में आती हैं,उन्हें रीतिबद्ध कवि कहने की अनिवार्यता और विवशता समझ में आती है। इससे इतर इस काल के जो कवि रीतिबद्धता की परिधि का स्पर्श ही नहीं करते, रीति शब्द से विशेष लगाव और आकर्षण रखनेवाले आलोचक उन्हें भी रीतिमुक्त कवि कहकर,रीति के घेरे में लेने से नहीं चूके, यह आश्चर्यजनक है। जिनका रीति से कोई संबंध नहीं है और जो रीति में बिना बँधे ही काव्यसर्जन में लीन रहे,उन्हें रीति से जोड़कर उनके काव्यसर्जन को रीतिकाल के दायरे में रखकर मूल्यांकन करना कहाँ तक न्यायोचित और तर्कसंगत कहा जा सकता है? अब जबकि रूढ़ि योगात् बलीयसी से रीतिमुक्त नामकरण स्थापित हो चुका है,तब उसी के अनुरूप रीतिमुक्त काव्य की विशेषताओं का उल्लेख किया जाना अपेक्षित है।
- रीतिमुक्त काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
रीतिमुक्त कवियों ने स्वयं को काव्यरचना के शास्त्रीय नियमों-बंधनों में सीमित न करते हुए उन्मुक्त और स्वछंद रूप में काव्याभिव्यक्ति की है। रीतिमुक्त कवियों की काव्यरचना की भावभूमि रीतिबद्ध कवियों से भिन्न है। उनकी कविताएँ उनके हृदय से सहज रूप में प्रस्फुटित हुई हैं, जिनमें उनके जीवन के विविध अनुभवों की झाँकी दिखाई देती है। तमाम साहित्यिक रूढ़ियों का परित्याग कर नवीन मार्ग का अनुगामी होने के कारण रीतिमुक्त कवियों की जो विशिष्टता प्रकट होती है, उसके कारण रीतिकालीन समयसीमा में उनकी अलग पहचान बनती है। इस धारा के कवियों ने प्रेम की तीव्र अनुभूति को व्यक्त करने के साधन के रूप में काव्य को एक माध्यम भर माना। उन्होंने कविता करने के लिए कविता नहीं की, वरन गहन और तीव्र प्रेमानुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए कविता करना उनके लिए अनिवार्य विवशता थी। यही कारण है कि उनकी कविता में भाव और कला का सुंदर समन्वय प्राप्त होता है। रीतिमुक्त काव्यधारा की सामान्य प्रवृत्तियाँ निम्नवत रेखांकित की जा सकती हैं –
1. प्रेम का स्वछंद और उन्मुक्त चित्रण
रीतिमुक्त काव्यधारा के कवियों ने तीव्र प्रेमानुभूति को बहुत स्वछंद और उन्मुक्तभाव से सहज रूप में अभिव्यक्त किया है। इन कवियों ने एक सच्चे प्रेमी की तरह तीव्र-उत्कट प्रेम का अनुभव किया था। एक प्रेमी के रूप में उन्होंने प्रेम की सच्ची अनुभूति को ही काव्यरूप में ढाल दिया है। प्रेम में संयोग-वियोग की जैसी तीव्र अनुभूति इन कवियों को ही,वही कविता बनकर फूट पड़ी। मनोवेग के प्रवाह में रीतिमुक्त कवियों के हृदय से निकलनेवाले उद्गार में काव्य की सहज अनुभूति दिखाई देती है। घनआनंद जैसे कवि ने स्पष्ट घोषणा की थी –
‘लोग हैं लागि कवित्त बनावत, मोहिं तो मेरे कवित्त बनावत।’
इस काव्यधारा के कवियों का मानना है कि वे कविता नहीं लिखते,वरन हृदय में स्थित प्रेम की पीड़ा ही कविता बन जाती है। विरह – वेदना की अधिकता ही कविता रूप में परिणत हो जाती है। कविता तो उनकी भावनाओं के व्यक्त हो जाने का माध्यम है। ऐसा तभी संभव है जब प्रेम की पीड़ा की तीव्र अनुभूति हृदय में हो।
2. प्रेम के लौकिक पक्ष का चित्रण
रीतिमुक्त कविताओं में प्रेम के लौकिक पक्ष को बहुत सफल अभिव्यक्ति मिली है, क्योंकि इस धारा के कवियों ने प्रेम के लौकिक पक्ष को बहुत व्यापकता के साथ आत्मसात् कर लिया था। प्रेम की लौकिकता की अनुभूतिजन्य विवशता और व्यथा का मार्मिक चित्रण रीतिमुक्त कवियों ने बहुत स्वाभाविक रूप में किया है। इस धारा के कवि सच्चे प्रेम के मार्ग में आनेवाले कष्टों से भलीभाँति परिचित है।
“जबते बिछुरै कवि बोधा हितू,
चित नैकु हमारो थिरातो नहीं।
हम कौन सी आपन पीर कहें,
दिलदार तो कोई दिखातो नहीं।”
इसके समानांतर उर्दू कविता (जिसकी अनेक विशेषताएं उस कविता से बहुत सीमा तक मिलती जुलती हैं ) में रीतिमुक्त कवियों की यह भावना उसी तरह व्यक्त हुई है,जिसका उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं है –
“किसे अपना बनाएँ कोई इस काबिल नहीं मिलता
यहाँ पत्थर तो मिल जाते हैं कोई दिल नहीं मिलता
सुराग किस तरह कैसे लगाएँ कातिल का
निशाँ कातिल के मिलते हैं मगर कातिल नहीं मिलता
सभी दक्काक मिलते हैं कोई आकिल नहीं मिलता
यहाँ सरदर्द मिल जाते हैं दर्दे दिल नहीं मिलता”
बावजूद इसके वह इस पथ का राही बनना स्वीकार करता है। वस्तुतः प्रेम की लौकिकता और उसके यथार्थ रूप से परिचित रीतिमुक्त कवि प्रेम की इस कठिन स्थिति को सहज ही स्वीकार करने को तत्पर है। वह जानता है कि प्रेम के मार्ग में कितनी बाधाएँ आती हैं –‘प्रेम कौ पंथ कराल महाँ तरवारि के धार पै धावनो है।’
उर्दू कविता में व्यक्त ऐसा ही भाव उपर्युक्त पंक्तियों से तुलनीय है —
‘ये इश्क नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजै / इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।’
3. आत्मपरक काव्याभिव्यक्ति
रीतिमुक्त कवियों ने अपने प्रेम की वैयक्तिक अनुभूतियों को आत्मपरक शैली में अभिव्यक्त किया है। विरह, प्रेम, पीड़ा, वेदना आदि को तीव्र अनुभूति के स्तर पर ईमानदारी के साथ आत्मपरक रूप में व्यक्त कर देना इस धारा के कवियों की महत्वपूर्ण प्रवृत्ति कही जा सकती है। अपने वैयक्तिक जीवन में विरह की मर्माहत पीड़ा को सहनेवाले इन कवियों ने उसी पीड़ा को अबिव्यक्त किया है,जो उनके अपने अनुभव की सच्ची पूँजी है। रीतिमुक्त कवियों की विरहजन्य पीड़ा ही काव्य का स्वरूप धारण कर लेती है।कहा भी गया है –‘शोकः तस्य श्लोको भवतु नान्यथा।’ विरह के आँसुओं की यह पीड़ामय अभिव्यक्ति रीतिमुक्त कविता की बहुत बड़ी पूँजी है,जहाँ विरह का एक एक पल व्यतीत करने बहुत कठिन जान पड़ता है। निरंतर आँसू बहते रहें तो मन की पीड़ा कुछ शांत होती है।
घनआनंद मीत सुजान बिना, सबही सुख साज समाज टरै,
तब हार पहाड़ से लागत है, अब आनि के बीच पहाड़ परै।
वेदना की गहरी अनुभूति से ही ऐसी सहज अनुभूतिपरक कीव्याभिव्यक्ति संभव है। अकबर इलाहाबादी यहाँ बहुत प्रासंगिक लगते हैं – “दर्द को दिल में जगह दे अकबर / इल्म से शायरी नहीं आती”
कह सकते हैं, रीतिमुक्त कविता में आत्मपरक काव्याभिव्यक्ति के विविध चित्र भरे पड़े हैं।
4. प्रेम की अकृत्रिम सरलता
रीतिमुक्त कवियों की कविताएँ सीधे हृदय की अंतःप्रेरणा से फूटती हैं,जिनमें स्वाभाविक रूप से आंतरिक अनुभूतियों का सहज समावेश है। बीच में बिना किसी बौद्धिक पाथेय का आलंबन ग्रहण किए बिना इस काव्यधारा की कविता एक अकृत्रिम सरलता से विभूषित है, जिसमें निश्छलता है, सहजता है और भावों को सीधे सीधे अभिव्यक्त कर देने की क्षमता है। रीतिमुक्त कवि समझता है—
‘अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं। ’
5. परंपरागत काव्य पद्धति एवं रूढ़ियों का परित्याग
रीतिमुक्त काव्यधारा के कवियों ने न केवल परंपरागत काव्यरचना पथ का परित्याग किया,बल्कि काव्य रूढ़ियों आदि से अपने को पूरी तरह अलग रखा। काव्यांगों का विवेचन-विश्लेषण करने के बजाय इन कवियों ने बिना किसी दिखावे या पांडित्यप्रदर्शन के जो कुछ अनुभव किया बिल्कुल सहज रूप में व्यक्त कर दिया। यही कारण है कि उनकी कविताएँ रीतिबद्ध कवियों की तरह बनावटी या बोझिल प्रतीत नहीं होतीं। रीतिमुक्त कवियों की कविताओं में जो मार्मिकता है, वह परंपरागत काव्यरचनापद्धति एवं रूढ़ियों से मुक्त होने के कारण है।
6. वियोग शृंगार की मार्मिक अभिव्यक्ति
रीतिमुक्त कवियों का मन विरह की पीड़ा को व्यक्त करने में अधिक रमा है। वे विरह की तुलना में मिलन को अपनी काव्यकल्पना में कम ही जगह दे सके हैं। एक सच्चे प्रेमी विरही की तरह विरह वेदना की पीड़ा को ही आत्मसात करनेवाले ये कवि संयोग जानते ही नहीं। विरह की पीड़ा में निरंतर रहनेवाले ये कवि संयोग को कभी समझ पी नहीं सके। उनके प्रेम की सार्थकता तो विरह की आग में जल कर कुंदन हो जाने में है। निश्चल प्रेम की यह कल्पना हिंदी कविता की अमुल्य निधि है। विरह की अग्नि में जल कर ही प्रेम पूर्णता को प्राप्त होता है –‘विरह अगिन जरि कुंदन होई / निर्मल तन पावे कोइ कोई।’ जो वियोग के कष्टों को सहन कर लेते हैं, वही प्रेम की पूर्णता को उपलब्ध होते हैं, यह रीतिमुक्त कवियों का सामान्य विश्वास है – ‘नहीं जो खार से डरते वही उस गुल को पाते हैं।’ विरह का जैसा मार्मिक चित्रण रीतिमुक्त कवियों ने किया है,वह बेजोड़ है,जो अन्यत्र दुर्लभ है। यदि यह कहा जाए कि रीतिमुक्त कविता विरह की ही कविता है,तो अत्युक्ति नहीं होगी। घनआनंद जैसे कवि की कविता में तो उनकी निजी अनुभूतियाँ बहुत स्वाभाविक रूप में व्यक्त हुई हैं,जिन्हें समझने के लिए विरह की पीड़ा का अनुभव होना चाहिए –‘समुझे कविता घनआनंद की हिय आँखिन नेह की पीर तकी।’ अपनी आत्मानुभूतियों को ही कविता में व्यक्त कर देने के कारण इस काव्यधारा के कवियों विरहाभिव्यक्ति बहुत मार्मिक और वेदनापरक कही जा सकती है। विरहन्य वेदना की अधिकता में विरही की आत्मपीड़ा की स्वाभाविक अभिव्यक्ति निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है–
परकारज देह को धारे फिरौ,परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ,
निधिनीर सुधा के समान करौ,सबही बिधि सुंदरता सरसौ।
घनआनंद जीवनदायक हौ,कबौं मेरियौ पीर हिए परसौ,
कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन,मो अँसुआन को ले बरसौ।।
विरह वेदना के अनेक मार्मिक चित्र रीतिमुक्त कविता में भरे पड़े हैं।
7. सौंदर्यचित्रण
रीतिमुक्त कवियों ने सौंदर्य का बहुत मोहक चित्रण किया है। रीतिबद्ध कवियों के बहुत तड़क-भड़क के साथ सौंदर्य के बाह्य पक्ष से अलग रीतिमुक्त कवियों ने बहुत निशछलभाव से आंतरिक सौंदर्य को सराहा है। उनकी सौंदर्यपरक दृष्टि स्थूल नहीं,वरन सूक्ष्म है। बाहरी सौंदर्य के स्थान पर आंतरिक सौंदर्य को महत्व देने के कारण रीतिमुक्त कवियों उसे बहुत बारीकी से समझकर कविता में उतारा है। ऐसे सौंदर्यचित्रण में उनकी दृष्टि बहुत जागरूक और परिष्कृत है। आंतरिक सौंदर्य की पारखी दृष्टि रखनेवाला इस धारा का कवि नायिका के प्रत्येक हावभाव में एक मोहक सौंदर्य की कल्पना करता है। उसके बोलने, उसकी चितवन, उसकी हँसी, उसके अन्य हावभाव में सौंदर्य ही सौंदर्य है,क्योंकि वह सौंदर्य की साकार प्रतिमा है –
लाजनि लपेटी चितवनि भेदभाव भरी,लसति ललित लोल चल तिरछानि में,
छबि को सदन गोरो बदन रुचिर भाल रस निचुरत मीठी मृदु मुस्कान में। रीतिमुक्त कविता में आंतरिक सौंदर्य के अनेक मनमोहक चित्र बहुत स्वाभाविक बन पड़े हैं।
8. प्रकृति का मोहक चित्रण
रीतिमुक्त कवियों नें प्रकृति का बहुत मोहक और लुभावना वर्णन किया है,जिसमें उनकी भावना का बहुत उन्मुक्त और सहज भावाभिव्यक्ति हुई है। इन कवियों के प्रकृति चित्र ऋतुओं के सजल वर्णन के साथ मिलकर एक विशेष प्रकार की प्राकृतिक सुंदरता की छटा बिखेरते हैं। प्रकृति के ये चित्र विरही कवियों की प्रेमभावना को उद्दीप्त करने में सहायक हैं,जो उनकी विकलता को बढ़ा देते हैं —
बौरे रसालन की चढ़ि डारन, कूकत कोयलिया मौन गहे ना,
ठाकुर कुंजन, कुंजर गुंजत, भौरन भीर चुपैबो चहे ना।
सीतल मंद सुगंधित बीर, समीर लगै तन धीर रहै ना ना,
ब्याकुल कीन्हों बसंत बनाय के, जाय के कंत सों कोऊ कहै ना।।
अथवा
धनि वै धनि पास की रतिय़ाँ पति की छतियाँ लगि सोवति है।
रीतिमुक्त कवियों के प्रकृतिचित्रों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने प्रकृति के साथ ही स्वयं की विरहानुभूति को संबद्ध करके उसमें और अधिक सजीवता उत्पन्न कर दी है। उनके प्रकृति चित्रण में उनके अंतःकरण की व्याकुलता और विरहवेदना की अधिकता दिखाई देती है,जहा कोयल की कूक भी उनकी वेदना को बहुत बढ़ा देती है –
कारी कूक कोकिला कहाँ की बैर काढ़ति री,
कूक कूक अबही करेजो किनकोरि लै।
पैड़े परे पापी ये कलापी निसिद्यौस ज्यों ही,
चातक रे घातक ह्वै तूहू कान फोरि लै।
रीतिमुक्त कवियों की प्रकृतिविषयक अभिव्यक्ति में भी उनके अंतर्मन की वेदना छलक छलक पढ़ती है, जो उनकी एक अतिरिक्त विशेषता कही जा सकती है।
9. अकृत्रिम भाषा का सहज और निश्छल प्रयोग
रीतिमुक्त कवियों की भाषा अकृत्रिम सरलता और सहजता से संपृक्त है। जहाँ रीतिबद्ध कवियों की भाषा अलंकारों के बोझ से लदी हुई बोझिल और अकृत्रिमता से आच्छादित है,वहीं रीतिमुक्त कवियों की भाषा अलंकारों के अनावश्यक भार से मुक्त है। भावों के अनुकूल सटीक और प्रभावी शब्दचयन सहज प्रस्तुति के लिए आवस्यक है। विरहजन्य वेदना की अभिव्यक्ति के लिए रीतिमुक्त कवियों ने जिस भाषा का प्रयोग किया है,वह उनकेअंतर्मन के भावों को प्रकट करने के लिए बहुत उपयुक्त है। भाषा का एक निश्छल प्रयोग द्रष्टव्य है–
‘ तुम कौन द्यौं पाटी पढ़े हो लला,मन लेहुँ पै देहुँ छटाक नहीं।’
अथवा
सुनी है कि नाहीं यह प्रकट कहावति जू, काहूकलपाय है सू कैसे कल पाय है।
वस्तुतः, भाषा का सहज,सरल और प्रभावी मोहक रूप रीतिमुक्त कवियों की बहुत बड़ी विशेषता कही जा सकती है,जो अन्य धारा के कवियों से उन्हें पृथक करती है। हृदय से सहज रूप में उमड़े भावों के लिए जैसी भाषा की अपेक्षा होती है, वैसी भाषा रीतिमुक्त कवियों की वाणी से स्वतः फूटी है। भाषा के ऐसे ही प्रयोग को देखकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है –“भाषा पर जैसा अचूक अधिकार इनका था, वैसा और किसी कवि का नहीं। भाषा मानों उनके हृदय के साथ जुड़कर ऐसी वशवर्तिनी हो गई है कि ये उसे अपनी अनूठी भावभंगी के साथ जिस रूप में चाहते थे,उस रूप में मोड़ सकते थे।”
- प्रमुख रीतिमुक्त कवि एवं उनकी रचनाएँ
- घनआनंद (रीतिमुक्त कविता के सर्वोच्च कवि के रूप में ख्यात् घनआनंद प्रेम की पीड़ा के कवि कहे जाते हैं), ‘सुजान हित’,’इश्कलता’, ‘प्रेमपत्रिका’, ‘वियोगवेलि’, ‘प्रेंमसरोवर’ ।
- आलम (आलमकेलि )
- बोधा ( विरह वारीश)
- ठाकुर ( ठाकुर ठसक)
- निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि रीतिकाल की समयसीमा में रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध काव्यधारा से अलग स्वतंत्र और स्वछंद भाव से काव्यरचना करनेवाले कवियों को रीतिमुक्तकवि एवं उनके काव्यसर्जन को रीतिमुक्त काव्य के रूप में जाना जाता है। रीतिमुक्त कविताधारा स्वछंद भावाभिव्यक्ति के रूप में अपनी अलग पहचान बनाती है। हालाँकि रीतिमुक्त कवियों में रीति का कोई विधान या तत्व नहीं मिलने के कारण उन्हें रीति की परिधि में लेकर रीतिमुक्त कहना न्यायसंगत नहीं है, इसीलिए कतिपय आलोचकों नें ऐसे कवियों को स्वछंदकाव्यधारा के कवि के रूप में स्वीकार किए जाने का आग्रह किया है। इन कवियों की काव्यरचना का फलक बहुत व्यापक और उच्च भावभूमि पर अवस्थित है। रीतिमुक्त काव्यधारा के कवियों में विविध प्रमुख प्रवृत्तियों के साथ उनमें लोकजीवन से गहरी संपृक्तता,भक्तिभाव का प्रकटीकरण आदि भी मुखरित हुई हैं,जो उनकी रचनात्मकता को विस्तार देती हैं। अपनी अनुभूतियों को सहज रूप में काव्य के माध्यम से व्यक्त करने में रीतिमुक्त कवियों की तुलना रीतिकाल के अन्य किसी कवि से नहीं की जा सकती। प्रेम के उन्मुक्त चित्रण में इन कवियों की भावनाएं बहुत स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी रूप में प्रकट हुई हैं। प्रेम के लौकिक पक्ष के निरूपण के साथ ही आत्मपरक काव्याभिव्यक्ति अकृत्रिम सरलता के साथ व्यक्त करना रीतिमुक्त कवियों की बहुत बड़ी विशेषता कही जा सकती है। संयोग और वियोग की मार्मिक अभिव्यक्ति में भी ये कवि अपा कोई सानी नहीं रखते। सौंदर्यचित्रण, प्रकृतिचित्रण आदि में रीतिमुक्त कवियों की भावनाएँ बहुत सहज रूप में व्यक्त हुई हैं। इन सभी अभिव्यक्ति के लिए रीतिमुक्त कवियों ने जिस अकृत्रिम और सहज-सरल भाषा का प्रयोग किया है,वह रीतिमुक्त कवियों को अलग स्थान दिलाती है। कहा जा सकता है कि रीतिकाल में रीतिकाव्य का व्यापक विस्तार दृष्टगत होता है,जहाँ काव्यरचना की विविध धाराएँ प्रवहमान होती हुई दिखाई देती हैं। इस काल में प्रवाहित रीतिमुक्त काव्यधारा अपनी अनेक विशेषताओं के कारण रीतिकाल की समूची काव्यधारा में अपना अलग महत्व और वैशिष्ट्य रखता है।
वेब लिंक्स
- http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SantoshVishnoi/reetimukt_kavya_mein_abhivyakt_smaj_aur_okjeevan_Shodhnibandh.htm
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
- https://vimisahitya.wordpress.com/2008/10/05/reetikal_pravratiya/
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%98%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF
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