12 रीतिबद्ध काव्य

प्रो. शम्भुनाथ तिवारी तिवारी

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  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरांत आप–

  • रीतिकालीन काव्य की वर्गीकरण-प्रक्रिया से भलीभाँति परिचित हो सकेंगे।
  • रीतिबद्धकाव्य के परिचय के साथ ही उसके स्वरूप के विषय में विस्तार से जान सकेंगे।
  • रीतिबद्धकाव्य की प्रमुख प्रवत्तियों का समीक्षात्मक सम्यक् परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • रीतिबद्ध काव्य के प्रमुख कवियों और उनकी रचनाओं के विषय में जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

रीतिकाल में काव्यांगविवेचन के अंतर्गत रीतिग्रंथप्रणयन की बहुलता के कारण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रीतिनिरूपण को इस काल की प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में रेखांकित किया है। इसी आधार पर उन्होंने रीतिकाल-नामकरण किया। वे अध्ययन की सुविधा के लिए  रीतिकाल के  उपविभाजन का  सुसंगत और प्रामाणिक आधार तलाश रहे थे, किसी कालविस्तार को लेकर यों ही पूर्व और उत्तर नाम देकर दो हिस्से कर डालना ऐतिहासिक विभाग नहीं कहला सकता। जब तक पूर्व और उत्तर के अलग-अलग लक्षण नहीं बतलाए जाएँगे, तब तक इस प्रकार के विभाग का  कोई अर्थ नहीं। रीतिकाल के भीतर रीतिबद्ध की जो परंपरा चली है उसका उपविभाग करने का संगत आधार मुझे नहीं मिला। रचना के स्वरूप आदि में कोई स्पष्ट भेद निरूपित किए बिना विभाग कैसे किया जा सकता है?” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रथम संस्करण का वक्तव्य, पृ.8) ज़ाहिर है उपविभाजन का संगत आधार नहीं मिलने के कारण शुक्ल जी ने  रीतिबद्धता का आधार अपनाने  वाले रीतिकाल के सभी कवियों (चाहे रीतिग्रंथों का प्रणयन किया हो या न किया हो) को एक ही वर्ग में रखा और उन्हें रीतिग्रंथकार कवि के रूप में स्वीकार किया। इसके अतिरिक्त उस समयसीमा में आने वाले रीतीतर कवियों को उन्होंने अन्य कवि  की श्रेणी में रखा। अपने इस विभाजन से शुक्ल जी संभवत: संतुष्ट नहीं थे और और इस कारण वे रीतिबद्ध कवियों की आंतरिक परिधि में समान प्रवृत्तियों के आधार पर उनका उपविभाजन करने के दिशा में प्रयत्नशील थे, पर यह संभव नहीं हुआ, रीतिबद्ध ग्रंथों की बहुत गहरी छानबीन और सूक्ष्म पर्यालोचना करने पर आगे चलकर शायद विभाग का कोई आधार मिल जाए, पर अभी तक मुझे नहीं मिला है। (वही, पृ.8) रीतिकालीन काव्यरचना की मूल प्रवृत्ति और विशेषताओं के आधार पर उन कवियों का वर्गीकरण किए जाने में यद्यपि तकनीकी रूप से  एक बड़ी कठिनाई है, जिसका उल्लेख आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने स्पष्ट रूप से  किया है, “थोड़े-थोड़े अंतर पर होने वाले कुछ प्रसिद्ध कवियों के नाम पर अनेक काल बाँध चलने के पहले यह दिखाना आवश्यक है कि प्रत्येक कालप्रवर्तक कवि का यह प्रभाव उसके काल में होने वाले सब कवियों में सामान्य रूप से  पाया जाता है। विभाग का कोई पुष्ट आधार होना चाहिए।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.8) उपविभाजन के संबंध में शुक्लजी जैसे आलोचक का इतना संकेत पर्याप्‍त था, परिणाम स्वरूप परवर्ती अनेक विद्वानों ने इसके लिए तलाश आरंभ की और जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ  की तर्ज पर इस दिशा में पर्याप्‍त मंथन कर डाला। रीतिकाल के नामकरण और उपविभाजन की दिशा में क्रिया- प्रतिक्रिया स्वरूप जो कुछ मौलिक-अमौलिक दिखाई देता है, उसके पीछे शुक्ल जी द्वारा किए गए उक्त संकेत की विशिष्ट भूमिका है।

 

रीतिकाल की समयसीमा में जो काव्यरचना हो रही थी, उसके भीतर यदि रीतीतर स्वछंद कवियों को छोड़ दिया जाए, तो शेष कवियों के काव्यरचना की मूल प्रवृत्ति कमोबेश काव्यांगविवेचन के क्रम में रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथ रचना के साथ-साथ उन्हीं रीतियों के आधार पर शृंगारपरक  काव्यसर्जन की कही जा सकती है। कवियों की दृष्टि लक्षण और उदाहरण के माध्यम से रीतियुक्त शृंगारिक काव्याभिव्यक्ति पर टिकी है। हाँ, अंतर इतना है कि जिन कवियों ने लक्षण और उदाहरण दोनों के माध्यम से रचना की है, उनका काव्यसर्जन लक्षणग्रंथों में व्यक्त हुआ है और जिन्होंने लक्षण नहीं लिखे, उनके यहाँ उदाहरण बहुत व्यापक रूप में मिल जाएँगे,वह भी स्वतंत्र रूप से  बिना किसी लक्षणग्रंथरचना के। इस पार्थक्य के कारण ही विश्‍वनाथप्रसाद मिश्र सरीखे विद्वान् रीतिबद्ध का आंतरिक उपविभाजन करने का आग्रह करते हैं और काव्यरचना के इस व्यापक प्रयास को रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध के रूप में स्वीकार करते हैं।

 

विश्‍वनाथप्रसाद मिश्र जिस शृंगारकाल’  के लिए बहुत जाने-पहचाने जाते हैं, वह शृंगारकाल शुक्लजी के संकेत में पहले से मौजूद है। मिश्रजी द्वारा रीतिनिरूपक सभी कवियों को रितिबद्ध श्रेणी में स्वीकार करना तथा रीतितर कवियों के लिए रीतिमुक्त जैसा विभाजन भी शुक्लजी द्वारा रीतिबद्धता का बार-बार उल्लेख करने तथा रीतिकाल के अन्य कवि  जैसे वर्गीकरण से प्रेरित है। रीतीतर कवियों के लिए अन्य कवि, रीतिमुक्त कवि, स्वछंद कवि  आदि कहने के बावजूद उनके विभाजन पर कोई विशेष विवाद नहीं है। कठिनाई रीतिबद्ध श्रेणी को लेकर है। शुक्लजी जिन्हें रीतिग्रंथकार के रूप में रीतिबद्ध की श्रेणी में रखते हैं, मिश्रजी भी उन्हें पहले रीतिबद्ध (रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथ-रचना करने वाले तथा लक्षणग्रंथ रचना के बिना ही रीतिनिरूपण का ध्यान रखकर रचना करने वाले, दोनों को) के रूप में रखते हैं, बाद में रीतिबद्ध का वे  उपविभाजन करते हुए उन्हें –

 

(i) रीतिनद्ध (ii) रीतिसिद्ध के अंतर्गत रखने का आग्रह करते हैं। वस्तुत: किंचित् हेरफेर के साथ मोटे तौर पर विश्‍वनाथप्रसाद मिश्र के रीतिकालीन कवियों का विभाजन रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त  के रूप में माना जाता है।

 

लक्षणग्रंथरचनावैविध्य के आधार पर डॉ.नगेंद्र ऐसे कवियों, जिन्हें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और विश्‍वनाथप्रसाद मिश्र क्रमशः रीतिग्रंथकार कवि एवं रीतिबद्ध कहते हैं, को आचार्य कवि की श्रेणी में रखते हैं तथा उनका आंतरिक उपविभाजन भी करते हैं, पर उनके आचार्य होने का खंडन शुक्लजी पूर्व में ही कर चुके थे, हिन्दी में लक्षणग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले जो सैकड़ों कवि हुए हैं, वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे। उनमें आचार्य के गुण नहीं थे। उनके अपर्याप्‍त लक्षण साहित्यशास्‍त्र का सम्यक् बोध कराने में असमर्थ हैं। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.181) लक्षणग्रंथ रचना के बिना ही रीतिनिरूपण का ध्यान रखकर रचना करने  वाले कवि डॉ. नगेंद्र की दृष्टि में रीतिबद्ध  कवि हैं, क्योंकि बिना कोई लक्षणग्रंथ रचे वे रीतियों से पूरी तरह बँधे हुए हैं। ध्यातव्य है, मिश्रजी जिन्हें  रीतिसिद्ध  कवि कहते हैं, डॉ.नगेंद्र उन्हें  रीतिबद्ध  कवि की श्रेणी में रखते हैं।

 

रीतिकालीन कवियों के ये सारे विभाजन-उपविभाजन संस्कृत काव्यशास्‍त्र में काव्यमीमांशा  जैसे प्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता राजशेखर (880 ई. – 925 ई.) द्वारा किए गए कवियों के विभाजन से प्रेरित-प्रभावित होकर किए गए प्रतीत होते हैं। राजशेखर ने कवियों की मुख्य तीन श्रेणियाँ निर्धारित की हैं तथा उनके अनेक आंतरिक उपविभाजन भी किए हैं –(1)शास्‍त्र कवि (2) काव्य कवि (3) उभय कवि या शस्‍त्र कवि (शास्‍त्रकवि: काव्यकवि: उभयकविश्चेति कवयस्‍त्रि‍धा।” काव्यमीमांशा, पाँचवाँ अध्याय)  कहने की आवश्यकता नहीं कि डॉ. नगेंद्र ने रीतिबद्ध कवियों की की जो दो श्रेणियाँ, आचार्य कवि, काव्य कवि, के रूप में निर्धारित की हैं, वह राजशेखर के विभाजन का ही अनुकरण है। आगे भी उन्होंने आचार्य कवियों की जो श्रेणियाँ, सर्वांगनिरूपक, रसनिरूपक,अलंकारनिरूपक, पिंगलनिरूपक, के रूप में निर्धारित की हैं, उस पर भी राजशेखर के उपविभाजन (त्रिधा शास्‍त्रकवि: –: शास्त्रं विधत्ते, यश्‍च शास्त्रे काव्यं विधत्ते,योSपि काव्ये शास्त्रार्थ विधत्ते।”) की पूरी छाया व्याप्‍त है। व्यापक विचारविमर्श और वाद-विवाद के पश्चात् रीतिकालीन कवियों की तीन श्रेणियाँ स्वीकार कर ली गई हैं – (i) रीतिबद्ध (ii) रीतिसिद्ध (ii) रीतिमुक्त। रीतिकाल के कवियों का यह विभाजन उनकी अलग-अलग विशेषताओं के आधार पर किया गया है, वस्तुत: लक्षणशास्‍त्रबद्ध रचयिता शास्‍त्र कवि अथवा रीतिबद्ध कवि हैं, लक्षणशास्‍त्रमुक्त कवि काव्य कवि या रीतिमुक्त कवि हैं तथा लक्षणशास्‍त्र-बद्ध न होकर भी विभिन्‍न काव्यांगों का परोक्ष विवेचन प्रस्तुत करने वाला कवि उभय कवि अथवा रीतिसिद्ध कवि होता है।”(लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.203)  इसी विभाजन के आधार यहाँ रीतिकालीन कविता की रीतबद्ध काव्यधारा  का  सामान्य परिचय अपेक्षित है।

  1. रीतिबद्ध काव्य

 

रीतिकाल में काव्यरचना का सर्वाधिक व्यापक प्रभाव रीतिबद्ध  कवियों का है। इस काव्यधारा के कवियों की मूल और प्रमुख प्रवृत्ति शृंगारपरक रचनाओं को विविध रूपों में प्रस्तुत करना है। रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों के माध्यम से काव्य के समस्त अंगों-उपांगों को स्पष्ट करने के लिए  लक्षणों और उदाहरणों के माध्यम से काव्यमय अभिव्यक्ति करते हुए हिन्दी कविता का जैसे प्रसार एवं विकास इन कवियों ने किया है, वह आश्‍चर्यजनक रूप से चामत्कारिक एवं कलात्मक अभिव्यक्ति है। काव्यरचना की परंपरागत पद्धति अथवा रीति  का अनुसरण करने के कारण वे रीतिबद्ध कवि  कहे जाते हैं। वे स्वयं को काव्यरचना के लिए परंपरा से प्राप्‍त रीति अथवा पंथ को स्वीकार कर रचना करने वाला कवि मानते हैं, जिससे उनके काव्यरचना की परंपराबद्ध रीति से रचनाकर्म में प्रवृत होने का स्पष्ट संकेत मिलता है रीति सुभाषा कवित की वरनत बुध अनुसार।” (चिन्तामणि)सुकविन  हूँ की कछु कृपा समुझि कविन को पंथ।” (भूषण) अपनी-अपनी रीति के काव्य और कवि रीत।” (देव)

 

काव्य  की रीति सिख्यौ सुकवीन्ह सों। ” (भिखारीदास)

 

इस काव्यधारा के कवियों नें काव्यरचना-रीति का निर्वाह करते हुए व्यापक काव्यसर्जन का पथ प्रशस्त किया,जिस पर चलते हुए रीतिकाल के अनेक कवियों ने रीतिबद्धकाव्यधारा के विकास में अपना योगदान दिया। इस काव्यधारा के प्रमुख कवियों में आचार्य केशवदास, चिन्तामणि, मंडन, महाराजा जशवंत सिंह, मतिराम, भूषण, कुलपति मिश्र, देवदत्त, श्रीपति मिश्र, भिखारीदास, सेनापति, रसलीन, सोमनाथ, प्रतापसिंह, पद्माकर, ग्वालकवि  आदि के नाम विशेष रूप से सम्मिलित हैं।

 

1. रीतिबद्धता और रीतिकाव्य

 

काव्यरचना के लिए काव्यशास्‍त्रीय परंपरा एवं पद्धति का निर्वाह करते हुए रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों की रचना करने  वाले शास्‍त्रबद्ध आचार्य कवि रीतिबद्ध काव्यधार का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस काव्यधारा के कवि काव्यरचना के नियमों में बँधकर अपने कविकर्म का दायित्व निर्वहन करते हैं। वे परंपरागत रीति से बँधीबँधाई परिपाटी पर काव्यरचना करने  वाले कवि हैं, जिन्हें रीतिबद्ध काव्यधारा के अंतर्गत स्थान दिया गया है। इस धारा के आचार्य कवियों ने अलंकारनिरूपण, रसनिरूपण, नायिकाभेदनिरूपण आदि की सुदृढ़ और व्यापक परंपरा हिन्दी में स्थापित की, जो संस्कृत काव्यशास्‍त्रीय संप्रदायों से प्रेरित होने के बावजूद हिन्दी में एक नवीन काव्यपरंपरा की सूचक थी। संस्कृत में तो पहले से ही रस, ध्वनि, अलंकार संप्रदायों की विवेचना करने वाले लक्षणग्रंथों में रसनिरूपण, अलंकारनिरूपण, तथा नायक-नायिका भेद आदि का विस्तृत और व्यापक विवेचन विद्यमान था, जिनसे प्रेरणा लेकर रीतिकाल के रीतिबद्ध कवियों ने हिन्दी में यह परंपरा आरंभ की। हाँ, रीतिबद्ध कवि संस्कृत आचार्यों से इस दृष्टि से भिन्‍न थे कि जहाँ संस्कृत के आचार्य काव्यांगनिरूपण में लक्षणों का निर्माण करते और उदाहरण किसी अन्य प्रसिद्ध कवि का उद्धृत करते हुए उन लक्षणों को स्पष्ट करते थे, हिन्दी के रीतिबद्ध कवि रीतिनिरूपण में  लक्षणों का निर्माण करने के उपरांत उन्हें स्पष्ट करने के लिए स्वयं द्वारा रचित काव्यमय उदाहरण भी देते थे। अपने स्वयं के काव्य-उदाहरणों से लक्षणों को स्पष्ट करने के कारण वे संस्कृत आचार्यों से कदाचित् अलग हो जाते हैं।

 

जहाँ संस्कृत में आचार्य और कवि अलग-अलग हुआ करते थे, वहीं हिन्दी में आचार्य और कवि दोनों एक ही व्यक्ति होता था। इससे आचार्यत्व और काव्यत्व दोनों के समन्वय और संतुलन के साथ काव्यत्व का उच्‍च स्तर भी बना रहे,यह असंभव नहीं तो, दुष्करसाध्य अवश्य है। हालाँकि संस्कृत में दंडी, जयदेव, अप्पय दीक्षित, पंडितराज जगन्नाथ के नाम इस दिशा में अपवादस्वरूप हैं, जिन्होंने आचार्यत्व और काव्यत्व दोनों का उत्कृष्ट निर्वाह किया है, पर हिन्दी के रीतिबद्ध कवियों में ऐसा उदाहरण विरल ही है। रीतिकाल के कवियों में आचार्य और कवि दोनों एक ही व्यक्ति के  होने का परिणाम उत्कृष्ट काव्यरचना की दृष्टि से बहुत संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता, “संस्कृत साहित्य में कवि और आचार्य दो भिन्‍न-भिन्‍न श्रेणियों के व्यक्ति रहे। हिन्दी काव्यक्षेत्र में यह भेद लुप्‍त सा हो गया। इस एकीकरण का प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा। आचार्यत्व के लिए जिस सूक्ष्म विवेचन या पर्यालोचन शक्ति की अपेक्षा होती है, उसका विकास नहीं हुआ। कवि लोग एक ही दोहे में अपर्याप्‍त लक्षण देकर अपने कविकर्म में प्रवृत हो जाते थे। काव्यांग का विस्तृत विवेचन, तर्क द्वारा खंडन-मंडन,नए-नए सिद्धांतों का प्रतिपादन आदि कुछ भी न हुआ।” (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतहास, पृ.181)

 

यद्यपि यह आवश्यक नहीं कि जो उच्‍चकोटि का आचार्य हो, वह उच्‍चकोटि का कवि भी होगा, या जो उच्‍चकोटि का कवि हो, वह उसी कोटि का आचार्य भी होगा, तथापि हिन्दी की रीतिबद्ध काव्यपरंपरा के आचार्य कवियों को इन दोनों धर्मों (आचार्य धर्म और कवि धर्म) का निर्वाह करना पड़ता था। ऐसा करते समय  आचार्यत्व और काव्यत्व दोनों में संतुलन बनाकर उत्कृष्ट काव्सर्जन नि:संदेह एक चुनौती भरा कार्य कहा जा सकता है, क्योंकि आचार्यत्व श्रेष्ठ होने पर लक्षण उत्कृष्ट हो जाते हैं, उदाहरण अपेक्षया निम्‍नतर। दूसरी ओर काव्यप्रतिभा श्रेष्ठ होने से उदाहरण श्रेष्ठ होने की संभावना अधिक होती है, लक्षण के उत्तम होने में संदेह बना रहता है। हाँ,जो दोनों का सामंजस्य और संतुलन बिठा ले, तो ऐसे कवि के लिए मणि-कांचन संयोग कहा जाएगा। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य कवियों की काव्यप्रतिभा लक्षणों में प्रकट हुई है, तो इससे इतर कवियों की काव्यप्रतिभा उदाहरणों में अपना सर्वोत्कृष्ट रूप अभिव्यक्त कर सकी है। प्रथम के प्रमुख उदाहरण केशवदास, चिन्तामणि, भिखारीदास, मतिराम और भूषण हैं, तो द्वितीय के बिहारी, देव और पद्माकर कहे जा सकते हैं, जिनमें एक सीमा तक आचार्यत्व और काव्यत्व का संतुलन देखा जा सकता है। कतिपय रीतिबद्ध कवियों में आचार्यत्व एवं काव्यत्व दोनों का समन्वय और संतुलन दृष्टिगत होता है, जिसे रीतिकाल की एक उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया जा सकता है।

 

2. रीतिकाल और रीतिबद्ध काव्य

 

रीतिकाल में रचित रीतिबद्ध काव्य का स्वरूप बहुत व्यापक है। परिस्थिति और परिवेश के अनुरूप एक बँधीबँधाई परिपाटी पर परंपरागत काव्यरचनापद्धति के अनुकरण में शृंगारपरक रचनाओं का अधिकाधिक सर्जन इस काल की सामान्य प्रवृत्ति कही जा सकती है। राजाश्रय में रहते हुए दरबार की अपेक्षाओं और आकाँक्षाओं के अनुरूप चमत्कारपूर्ण कलात्मक काव्याभिव्यक्ति करना इस काल के कवियों के लिए अनिवार्य सा हो गया था। यही कारण है कि कविगण अपने ज्ञान और पांडित्य को काव्यरचना के माध्यम से प्रस्तुत करना अपना साहित्यिक धर्म समझने लगे थे। परिणामतः काव्यशास्‍त्रीय प्रभाव में काव्यरचना की एक नवीन और अनूठी प्रवृत्ति रीतिकाल में विकसित हो गई,जो संस्कृत काव्यशास्‍त्र की परंपरा में रचित कतिपय प्रमुख लक्षणग्रंथों के अनुकरण में भले ही सामने आई हो, पर हिन्दी के लिए वह निःसंदेह काव्यरचना की नूतन पद्धति कही जा सकती है। यहाँ भगीरथ मिश्र की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है –“रीतिकाव्य की परंपरा ने शुद्ध काव्य के लिए मार्ग खोल दिया। रीतिकालीन साहित्य में पुरानी परंपरा से हटकर कुछ नवीनता का समावेश हुआ।”

 

रीतिकाल में काव्यरचना की इस नवीन प्रवृत्ति में काव्यांगविवेचन के अंतर्गत रीतिनिरूपण करने वाले लक्षणग्रंथों के माध्यम से व्यक्त इस प्रकार की रचनाओं को रीतिबद्ध काव्य की संज्ञा दी गई। रीतिबद्धता के क्रम में काव्यांगों के पद्यमय लक्षण और उदाहरण,नायिकाभेद पर काव्यमय विस्तृत विवेचन, बिना लक्षणग्रंथ रचे लक्षणों को ध्यान में रखकर उदाहरण के रूप में उत्कृष्ट काव्यसर्जन का प्रयास इस काल में जिस तरह दिखाई देता है, वह रीतिबद्ध काव्यरचना का व्यापक विस्तार करता है। काव्य के विविध अंगों-उपांगों का बहुत सूक्ष्म वर्णन इस काल की काव्यरचना की प्रमुख विशेषता है। रीतिकाल की रीतिबद्ध काव्यरचना के विषय में भगीरथ मिश्र की टिप्पणी विचारणीय है –“उसे रस,अलंकार,नायिकाभेद,ध्वनि आदि के वर्णन के सहारे अपनी काव्यप्रतिभा दिखाना आवश्यक था। इस युग में उदाहरणों पर विचार होते थे। इस बात पर कि उसमें कौन सा अलंकार है ? कौन सी शब्दशक्ति है ? कौन सा रस या भाव है ? उसमें वर्णित नायिका किस भेद के अंतर्गत है ? काव्य की टीकाओं और व्याख्यानों में काव्यसौंदर्य को स्पष्ट करने के लिए भी उसके भीतर अलंकार,रस,नायिकाभेद को स्पष्ट किया जाता था। कविगोष्ठियों में भी यही प्रवृत्ति थी। अतः यह युग रीति-पद्धति का ही युग था और इसमें इससे संबंधित असंख्य ग्रंथ लिखे गए।” ऐसे अगणित ग्रंथों के माध्यम से काव्यरचना का जो विस्तृत फलक रीतिकाल में निर्मित होता है, उससे रीतिकाव्य का  स्वरूप बहुत व्यापक और विविधवर्णी दिखाई देता है। रसविषयक वर्णनों,नायिकाभेद विषयक रचनाओं  एवं अन्य शृंगारपरक काव्यसर्जन में इस काल के कवियों का काव्यचारुत्व एवं काव्यकौशल बहुत उत्कृष्ट कहा जा सकता है।

 

रीतिकाल में रीतिबद्ध रीतिकाव्यरचनाओं की विशेषताओं का उल्लेख किया जाए, तो  कमोबेश सारे रीतिग्रंथ संस्कृत काव्यशास्‍त्र की परंपरा में रचित लक्षणग्रंथों के अनुकरण पर रचे गए हैं, जिन पर संस्कृत के अलंकारनिरूपक, रसनिरूपक, ध्वनिनिरूपक तथा नायिकाभेदनिरूपक लक्षणग्रंथों का व्यापक प्रभाव है। हिन्दी में रचित लक्षणग्रंथों में लक्षणों के माध्यम से होनेवाली काव्यभिव्यक्ति  का स्वरूप उतना उत्कृष्ट नहीं हो सका है, जितना उदाहरणों में व्यक्त काव्यरचना का। चूँकि लक्षणग्रंथ के रचयिता आचार्यकोटि के कवि कहे जाते हैं, इसलिए वे पांडित्यप्रदर्शन करते हुए सब कुछ काव्य रूप में ही व्यक्त करने का उपक्रम करते हैं। परिणामतः जो स्पष्टता विवेचनपरक अभिव्यक्ति में होनी चाहिए, वह कदाचित नहीं आ सकी है। पद्यमय अभिव्यक्ति की यह शायद बड़ी कमी कही जा सकती है। रीतिग्रंथों में सर्वाधिक व्यापकता नायिकाभेदविषयक वर्णनों में दिखाई देती है, जहाँ यत्रतत्र नवीनता और मौलिकता के भी दर्शन होते हैं। देव और भिखारीदास जैसे कवियों की काव्यप्रतिभा नायिकाभेदविषयक वर्णनों में सर्वाधिक मुखर हुई है।

 

रीतिनिरूपक ग्रंथों की रचना में कतिपय आचार्य कवि ऐसे हैं, जिन्होंने काव्य के सभी अंगों को अपने काव्यनिरूपण का विषय बनाया है। ऐसे आचार्य कवि सर्वांगनिरूपक कवि  के रूप में समादृत हैं। ऐसे कवियों में चिन्तामणि, कुलपतिमिश्र, भिखारीदास, देव, सुरतिमिश्र, कुमारमणि भट्ट, श्रीपति मिश्र, सोमनाथ, ग्वाल कवि  आदि के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। अलंकारनिरूपक ग्रंथों की रचना भी इस काल में बहुतायत से हुई है। इन ग्रंथों का उद्देश्य व्यापक स्तर पर अलंकारों का परिचय करवाना रहा है। ऐसे लक्षणग्रंथों की परंपरा केशवदास  की कविप्रिया  से मानी जाती है। अलंकारनिरूपक कवियों  में आचार्य केशवदास, मतिराम, जशवंतसिंह, भूषण, श्रीपति मिश्र, गोविंद, दूलह, पद्माकर, दलपतिराय वंशीधर, रसिक सुमति, रघुनाथ वंदीजन, हरिनाथ  आदि के नाम प्रमुख हैं।

 

रसनिरूपक कवियों में  केशवदास, चिन्तामणि, तोष, मंडन, देव, भिखारीदास, रसलीन, शंभुनाथ मिश्र, बेनी प्रवीन, पद्माकर, ग्वालकवि  आदि के नाम प्रमुख हैं। कलाप्रदर्शन की भावना से प्रेरित इन कवियों का अधिकांश सर्जन कविता करने के लिए कविता  के निकष पर आधृत है, जहाँ कविता में शाब्दिक चमत्कार के साथ उसके बाह्यपक्ष या बाह्य कलेवर को कलात्मक रूप से प्रस्तुत करना इन कवियों की काव्यरचना का मुख्य ध्येय कहा जा सकता है। कहा जा सकता है कि बौद्धिक काव्यकौशल के आधार पर रचित रीतिबद्ध कविता का अभिव्यक्तिपक्ष कलात्मक सौंदर्य की दृष्टि से चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है, पर स्वाभाविक और भावात्मक पक्ष की दृष्टि से काव्य का अनुभूतिपक्ष किंचित् दबा हुआ-सा प्रतीत होता है। बहिरंग को विविधवर्णी चित्रों से सजाने के क्रम में काव्य का अंतरंगपक्ष रीतिबद्ध कवियों से उपेक्षित-सा हो गया है। बावजूद इसके रीतिकाल की रीतिबद्ध कविता काव्यकला की  कसौटी पर बाह्य अभिव्यक्ति की कलात्मक प्रस्तुति है, जो हमें कई रूपों में चमत्कृत करती है।

  1. रीतिबद्ध काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

रीतिकाल में रीतिबद्ध काव्यरचना का विकास एवं विस्तार जिन तत्कालीन परिवेश और परिस्थितियों में हुआ था, उसे देखते हुए साहित्यसर्जन का वह प्रयास स्वाभाविक ही कहा जा सकता है। उत्तरमध्यकाल की दरबारी संस्कृति में विकसित होनेवाली काव्यरचना का स्वरूप तत्कालीन शासकों की रुचि-अभिरुचि से परिचालित –संचालित हो, यह नितांत  स्वाभाविक ही नहीं, वरन् उसकी अनिवार्य विवशता भी कही जा सकती है। ऐसे राजाश्रय में अपना आकार और स्वरूप ग्रहण करनेवाली रीतिबद्ध काव्यरचना की प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन और विश्‍लेषण यहाँ अपेक्षित है, जिसे निम्‍नवत रेखांकित किया जा सकता है –

 

1. शास्‍त्रीयता का परंपरागत आधार

 

रीतिबद्ध कविता की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि उसका स्वरूप शास्‍त्रीयता का आधार (Classical Base) अपनाकर ही निर्मित हुआ है। रीतिबद्ध काव्यरचना की आधारशिला संस्कृत काव्यशास्‍त्रीय संप्रदायों की शास्‍त्रीय परंपरा पर आद्धृ होने के कारण रीतिबद्ध कवियों ने शास्‍त्रीयता का सर्वत्र सम्मान किया है,जिसके कारण रीतिबद्ध काव्य को क्लासिकल काव्य  की श्रेणी में सम्मिलित किया जाता है। संस्कृत काव्यशास्‍त्र में काव्यांग-विवेचन की शास्‍त्रीय पद्धति है,जिसके अंतर्गत काव्य के समस्त अंगों-उपांगों का वर्णन एक निश्‍च‍ित पद्धति और नियम के आधार पर किया जाता है। रीतिबद्ध कवियों ने उसी पद्धति और नियम को अपने काव्यसर्जन के लिए आधार के रूप में अपनाया। कमोबेश पूरी रीतिबद्ध कविता काव्यशास्‍त्र के व्यापक अध्ययन के बगैर समझ में नहीं आ सकती, “रीतिकाल की कविता समझने के लिए एक विशेष प्रकार की दीक्षा अपेक्षित है। इसका कारण यह है कि इस कविता में काव्यशास्‍त्रीयता की प्रबलता है। उस समय सभी कवि रस, अलंकार, छंद और नायिका-भेद का अध्ययन करके सर्जन-प्रवृत होते थे,इसलिए उनकी कविता का वास्तविक अर्थ तभी खुल पाता है,जब पाठक को भी उन काव्यांगों की जानकारी हो।” (मोहन अवस्थी, हिन्दी साहित्य का विवेचनापरक इतिहास, पृ.188)

 

रीतिबद्ध कवियों द्वारा अधिकांशतः अभिव्यक्तिपक्ष को प्रमुखता देने के कारण काव्य का बाह्यपक्ष काव्यशास्‍त्रीय तत्वों से बहुत अधिक बोझिल हो गया है और काव्य में अनुभूतिपक्ष की प्रायःउपेक्षा हो गई है। श्रेष्ठ काव्य में अनभूतिपक्ष एवं अभिव्यक्तिपक्ष का सुंदर समन्वय प्राप्‍त होता है। इस दृष्टि से रीतिबद्ध काव्यरचना का अधिकांश एकांगी हो गया है,जिसका बाह्य कलेवर रस,छंद,अलंकार,नायिका-भेद आदि के अतिशय प्रयोग के कारण बहुत दुरूह और बनावटी हो गया है। उसके लिए काव्यशास्‍त्रीय रीति-नीति की सम्यक् समझ आवश्यक है। कमोबेश सभी ख्यात् रीतिबद्ध कवियों को काव्यशास्‍त्रीय ज्ञान के बिना समझने में कठिनाई होती है। वस्तुतः शास्‍त्रीयता रीतिबद्ध कविता में सर्वत्र भरीपड़ी है, जिसे उसकी प्रमुख विशेषता कही जा सकती है

 

2. आचार्यत्व / पांडित्यप्रदर्शन की प्रवृत्ति

 

रीतिकालीन कवियों के सामने संस्कृत काव्यशास्‍त्र की रीतिनिरूपण विषयक व्यापक और सुदृढ़ परंपरा विद्यमान थी। पूर्ववर्ती अलंकार, रस, ध्वनि जैसे काव्यशास्‍त्रीय संप्रदायों के माध्यम से  काव्यांगविवेचन के क्रम में सर्वांगनिरूपण का व्यापक प्रयास हो चुका था। रीतिबद्ध आचार्य कवियों नें संस्कृत काव्यशास्‍त्र में  रीतिनिरूपण की  उसी परंपरा को आधार बनाकर लक्षणग्रंथों की रचना की। आचार्यत्व एवं पांडित्यप्रदर्शन रीतिबद्ध कविता की एक सामान्य प्रवृत्ति कही जा सकती है, जिसके कारण कमोबेश प्रत्येक रीतिबद्ध कवि स्वतंत्र रूप से मौलिक काव्यसर्जन में कोई विशेष रुचि न रखते हुए, रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों की रचना करने में प्रवृत होता हुआ दिखाई देता है। रीतिनिरूपण की इस प्रवृत्ति में वह अपने शास्‍त्रीय ज्ञान का प्रदर्शन करने की महती आकांक्षा से ओतप्रोत दिखाई देता  है। इस दृष्टि से व्यापक प्रसिद्धि प्राप्‍त करने की उच्‍चाकांक्षा में रीतिबद्ध आचार्य कवियों नें संस्कृत  की काव्यशास्‍त्रीय परंपरा का व्यवस्थित रूप से अध्ययन-मनन किया और उसके उपरांत हिन्दी में रीतिग्रंथों का निर्माण कर अपनी विद्वत्ता का व्यापक परिचय दिया। ऐसी काव्यशास्‍त्रीय लक्षणग्रंथरचना के माध्यम से आचार्य कवि अपने ज्ञान और कवित्वशक्ति को उजागर करने का प्रयास करते हुए दृष्टिगत होते हैं।

 

आचार्यत्वप्रदर्शन के इस प्रयास में कतिपय आचार्य कवियों ने काव्य के लगभग सभी अंगों-उपांगों का सम्यक् विवेचन किया है। हालाँकि अधिकतर कवियों का विवेचन संस्कृत काव्यशास्‍त्र का निरा अनुकरण भी प्रतीत होता है, पर उन्होंने काव्य के लक्षण, काव्य-हेतु, काव्यप्रयोजन, काव्यभेद, काव्य की आत्मा, रस, ध्वनि, अलंकार, रीति, गुण, शब्द-शक्ति, नायिका-भेद, दोष, छंद आदि को अपने विशद् विवेचन का आधार बनाया, जिससे उनके अगाध पांडित्य और असाधारण काव्यप्रतिभा का अनुमान लगाया जा सकता है। लक्षणग्रंथों की रचना करने वाले अधिकतर आचार्य कवियों का यह विश्‍वास था कि इस प्रकार के सर्जन से उन्हें बहुत बड़े आचार्य की पदवी और प्रतिष्ठा प्राप्‍त होगी। आचार्यत्वप्रदर्शन के इस व्यामोह में कतिपय आचार्यों ने अपने आश्रयदाताओं के विशेष आग्रह पर भी लक्षणग्रंथों की रचना की है। आचार्य केशव द्वारा रचित कविप्रिया  एवं रसिकप्रिया  जैसे लक्षणग्रंथ इसके सबसे प्रमुख उदाहरण कहे जा सकते हैं, जो प्रवीणराय (केशव के आश्रयदाता ओरछा नरेश की राजनर्तकी) को काव्यशास्‍त्र की शिक्षा देने के लिए रचे गए थे। वस्तुतः आचार्यत्वप्रदर्शन की सार्वभौम प्रवृत्ति सभी रीतिबद्ध कवियों में पाई जाती है।

 

3. शृंगारपरक भावाभिव्यक्ति का बाहुल्य

 

रीतिकालीन काव्यरचना के मूल में शृंगार की व्यापक प्रवृत्ति विद्यमान है। इस काल का संपूर्ण साहित्य शृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है। रीतिबद्ध काव्य के अंतर्गत रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों  की रचना करने वाले आचार्य कवियों की काव्यरीति विषयक अवधारण शृंगार की पीठिका पर ही आधृत है। आचार्य कवियों द्वारा संस्कृत की काव्यशास्‍त्रीय परंपरा के आधार पर रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों की रचना के पीछे यही शृंगारिक भावना कार्य कर रही थी। यद्यपि रीतिकाल में शृंगारपरक काव्याभिव्यक्ति के  अतिरिक्त भक्ति, नीति, वीर आदि से संबंधित काव्यरचनाएँ भी की गई हैं, तथापि ऐसी रचनाओं के मूल में भी शृंगार की प्रबल  भावना विद्यमान है। रचना चाहे किसी भी विषय से संबंधित हो रही हो,पर उसे शृंगार का आधार अनिवार्यतः मिला हुआ था,जिसके कारण उसमें किसी न किसी रूप में  शृंगार की प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं। यहाँ तक कि भूषण जैसा वीर रस का कवि भी शृंगारिक भावना से स्वयं को मुक्त नहीं कर सका। चूँकि रीतिकाल के सभी आचार्य कवि एवं अन्य कवि शृंगार रस को सर्वोपरि महत्ता देते हुए उसे रसराज के रूप में स्वीकार करते हैं, अतएव कमोबेश सभी कवियों ने शृंगार की सर्वोच्‍च सत्ता स्वीकार की है। यही कारण है हो सकता है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने समूचे काल के लिए शृंगारकाल  नाम रखे जाने का संकेत किया था। बाद में उनके समकालीन और प्रिय शिष्य विश्‍वनाथप्रसाद मिश्र ने उत्तरमध्यकाल के लिए शृंगारकाल  नाम की उपयुक्तता को सप्रमाण न केवल सिद्ध किया, वरन् इस नामकरण को पूरी तरह स्थापित भी कर दिया।

 

दरबार या राज्यसत्ता का संरक्षण प्राप्‍त होने के कारण उसका मूल स्वरूप विलासिता से ओतप्रोत अतिशय शृंगारी ही है। कवियों को संरक्षण प्रदान करने वाले आश्रयदाताओं की भावुक भावनाओं और उनकी विलासिता का पोषण कदाचित् शृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति से ही संभव था। शृंगार की इसी मूल भावना से इस काल के कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की अपेक्षाओं के अनुरूप कविताकामनी को शृंगार के परिधान में ही पूरी तरह सजाना- सँवारना उचित समझा। काव्यशास्‍त्रीय दृष्टि से रीतिकालीन कवियों ने शृंगार के सभी अंग-उपांगों का विवेचन करते हुए, उन्हें काव्य का विषय बनाकर, उसे बहुत व्यापक रूप में प्रस्तुत किया है। हालाँकि उनके शृंगारिक वर्णनों में कामुक चित्रण और विलासितापूर्ण भाव अधिक विद्यमान हैं, जिनके कारण उनमें उदात्त भावना का अभाव दृष्टिगत होता है, पर वह शृंगार नारी के बाह्य सौंदर्य को बहुत खुलकर अनावृत रूप में प्रस्तुत करता है। यहाँ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की टिप्पणी बहुत प्रासंगिक है –“रीतिकाल का काव्य यद्यपि शृंगारप्रधान है, पर इस शृंगाररस की साधना में जीवन की संतुलित दृष्टि का अभाव है, जैसे सब ओर से चोट खाकर किसी ओर रास्ता न पाकर,बुद्धि घर के भीतर सिमट गई हो, जैसे जीवन के व्यापक क्षेत्रों में मनोनिवेश का अवसर न मिलने के कारण मनोरंजन का एकमात्र साधन नारी देह की शोभाओं-चेष्टाओं के अवलोकन – कीर्तन तक ही सीमित हो गया हो।” (हिन्दी साहित्यः उद्भव और विकास, पृ.163)

 

4. नारी-सौन्दर्य चित्रण

 

अधिकांशतः शृंगारी भावना पर आधारित होने के कारण रीतिकालीन कविता के केंद्र में नारी है, जिसके सौंदर्य-चित्रण की ओर रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कमोबेश सभी कवियों का रुझान दृष्टिगत होता है। हालाँकि रीतिकाल में विविध प्रकार का साहित्यसर्जन हुआ है, पर शृंगार वर्णन की प्रमुखता ने उसे एक विशेष स्वरूप में ढाल दिया है। शृंगार और सौंदर्य का आधार नारी है। अतः रीतिबद्ध कवियों नें नारी के सौंदर्यचित्रण को अपने काव्यसर्जन में बहुत प्रमुखता के साथ स्थान दिया है। कहा जा सकता है कि रीतिकाल की कविता के मूल में यदि शृंगार है, तो उसका कथ्य या विषय नारी है। यही कारण है कि नारी सौंदर्य के विविध चित्र इस काल की कविता में भरे पड़े हैं। पतोन्मुख विलासिता से परिपूर्ण रीतिबद्ध कवियों की कविता सामंती विलासी वृत्तियों का पोषण करने के कारण नारी सौंदर्यचित्रण के विविध वर्णी चित्रों से सराबोर है। रीतिकाल का कवि नारी को विलासिता की मूर्ति मानता है, जिसके कारण वह तत्कालीन परिस्थितिओं के वशीभूत होकर समसामयिक प्रभाव में नारी के सौंदर्यचित्रण में अपनी पूरी काव्यप्रतिभा को आजमाने से नहीं चूका है। बावजूद इसके रीतिबद्ध कवियों के काव्यसर्जन में नारी का स्वाभाविक चित्रण कम ही हुआ है, क्योंकि वहाँ  नारी और उसका सौंदर्य दोनों प्रदर्शन की वस्तु प्रतीत होते हैं, जहाँ नारी अपने सौंदर्याभिव्यक्ति में सहज और स्वाभाविक नहीं है,यहाँ नारी कोई व्यक्ति या समाज के संघटन की इकाई नहीं है, बल्कि सब प्रकार की विशेषताओं के बंधन से मुक्त विलास का एक उपकरण मात्र है।– नारी की विशेषता इनकी दृष्टि में कुछ नहीं है, वह केवल पुरुष के आकर्षण का केंद्र भर है।” (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, पृ.162-63)

 

इस काल की कविता में नारी को साढ़े पाँच फिट  के कलेवर में बहुत सजधज के साथ बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत किया गया है, जहाँ उसके बाह्य स्वरूप और बाह्य रूपलावण्य पर कवियों की दृष्टि भरपूर गई है, पर उसके आंतरिक रूपसौंदर्य को परखने का प्रयत्न नहीं किया गया है,जो नारी के समस्त बाह्य सौंदर्य का अनंत स्रोत है। रीतिकाल का कवि नारी की रूपलालसा के अतिरिक्त उसका और कोई अन्य रूप नहीं जानता। रीतिबद्धता की सीमित काव्यप्रतिभा नारी के बाह्य सौंदर्य वाले रूप के अतिरिक्त अन्य कोई रूप नहीं पहचानती। यही कारण है कि रीतिकाल की अधिकांश कविता में नारी का प्रिया वाला रूप ही  उभरकर सामने आया है, जो उसके वास्तविक सौंदर्य को ढँक देता है। रीतिकालीन कवि की दृष्टि में नारी केवल मांसल उत्तेजना  की वस्तु है। वह नारी को उसके वास्तविक रूप में नहीं, विलासिता की पुतली के रूप में चित्रित करना चाहता है। वस्तुतः इस काल की कविता में नारी के सौंदर्यचित्र बाह्य एवं स्थूल हैं।

 

5. प्रकृति के उद्दीपक रूप की प्रमुखता

 

राज्याश्रित दरबारी संस्कृति के कृत्रिम परिवेश में काव्यसर्जन करने वाले रीतिबद्ध कवियों के पास स्वतंत्र रूप से प्रकृति के स्वछंद स्वरूप का स्वाभाविक और नैसर्गिक चित्र खींचने का अवकाश ही नहीं था। मूलतः और अधिकांशतः नारी सौंदर्य के बहुरंगी चित्र प्रस्तुत करने वाले रीतिकाल के कवि की दृष्टि प्रकृति के स्वतंत्र चित्रण को नज़रअंदाज़ कर देती है। हाँ, नारी सौंदर्य और शृंगार के परिप्रेक्ष्य में उन्हें उद्दीप्‍त करने वाले प्रमुख उपादान के रूप में प्रकृति के मोहक रूप का प्रसंगानुकूल चित्रण करने में रीतिबद्ध कवियों का कोई सानी नहीं है। शृंगार के दोनों पक्षों (संयोग और वियोग) के व्यापक वर्णनों में प्रकृति उद्दीपन के रूप में एक प्रमुख सहायिका बनकर सर्वत्र विद्यमान है। रीतिबद्ध कवियों के राजाश्रय में रहने तथा उसके विलासी और शृंगारिक परिवेश के अनुरूप वृत्तिकाश्रित पांडित्यप्रदर्शन एवं चमत्कारपूर्ण काव्यरचना की विवशता के कारण उनके काव्य में  प्रकृति बिंबों के स्वाभाविक नयनाभिराम चित्रण के सहज दृश्य  तो नहीं उभरे हैं, पर नायक-नायिका के प्रेमालाप-प्रसंगों में कायिक, आंगिक एवं वाचिक भावाभिव्यक्तियों में उद्दीपक प्रकृति नें उन कवियों को सर्वत्र आकृष्ट किया है। वस्तुतः रीतिबद्ध कविता में प्रकृति उद्दीपन रूप में चहुँओर अवस्थित है।

 

6. अलंकारों के प्रति विशेष आकर्षण

 

रीतिबद्ध  काव्यरचना में अलंकारों का विशेष महत्व है। रीतिकालीन साहित्य की  प्रस्तावना अलंकार विवेचन की पीठिका पर ही आधृत है। रीतिकाल के प्रथम आचार्य कवि आचार्य केशवदास  अलंकारवादी आचार्य कवि हैं, जिन्होंने संस्कृत काव्यशास्‍त्र की अलंकार विवेचन की परंपरा को रीतिकाल में स्थापित करने का स्तुत्य प्रयास किया  एवं काव्य में अलंकारों के महत्व को स्वीकार किया। उनकी रचना कविप्रिया अलंकार विवेचन का ही ग्रंथ है। यद्यपि रीतिकाल में काव्यांग विवेचन के क्रम में रस की व्यापक महत्ता स्वीकार की गई है,पर इस काल के कवियों में अलंकारों के प्रति भी विशेष आकर्षण दिखाई देता है। राजदरबार में प्रतिस्पर्धात्मक काव्यपरिवेश होने के कारण कवियों को अपनी काव्यरचनाओं की कलात्मक आलंकारिक प्रस्तुति करना अप्रतिवार्य आवश्यकता कही जा सकती है। अलंकार के बिना काव्यकलेवर की साजसज्जा को नयनाभिराम स्वरूप दे पाना कदाचित् संभव नहीं। यही कारण है कि रीतिबद्ध कवियों ने काव्य में प्रयत्नपूर्वक सायास अलंकारों का व्यापक समावेश किया है। हालाँकि कवियों की दृष्टि शब्दालंकार एवं अर्थालंकार, दोनों पर रही है, पर कहीं-कहीं  उन्होंने शब्दालंकारों  पर इतना अधिक जोर दिया है कि काव्य का भाव भी दब-सा गया है। वस्तुतः विविध भावों की काव्याभिव्यक्ति में अलंकारों के प्रति विशेष आकर्षण रीतिबद्ध कवियों की महत्वपूर्ण प्रवृति कही जा सकती है।

 

7. राजाश्रयाश्रित प्रतिस्पर्धा की प्रवृत्ति

 

रीतिबद्ध काव्य का प्रणयन राजदरबार के जिस सामंती और विलासी परिवेश में हो रहा था, वहाँ कवियों के मध्य राज्याश्रित प्रतिस्पर्धा की व्यापक प्रवृत्ति दृष्टिगत होती  है।  इसका कारण संभवतः कवियों द्वारा  राजसभा में सम्मान प्राप्‍त करने की उच्‍चाकांक्षा रही हो। सबको आश्‍चर्यचकित कर देनेवाली चमत्कारपूर्ण कलात्मक काव्याभिव्यक्ति के माध्यम से एक दूसरे से आगे निकल जाने तथा अपने काव्यकौशल का प्रभुत्व स्थापित करने की महत्वाकांक्षा में कविगण प्रतिस्पर्धात्मकता का सम्मान करने के लिए वाध्य थे। इसके लिए वे काव्यरचना का ऐसा नवीन रूप तलाशने के लिए विवश होते थे, जो पाठक या श्रोतावर्ग के लिए कुतूहल और मनोरंजन का माध्यम बन सके तथा उन कविगण को यथोचित् मानसम्मान दिला सके। ऐसे ही प्रतिस्पर्धात्मक परिवेश में समस्यापूर्ति जैसी कुतूहलपरक काव्यशैली का प्रचलन हुआ, जो काव्यप्रतिभा का निकष बनने के साथ ही कवि कोविद एवं श्रोताजन समूह के मध्य बहुत लोकप्रिय हुई। काव्यात्मक पंक्तियों के माध्यम से एक समस्या देकर उसके समाधान के लिए कवियों को प्रतिस्पर्धा में आमंत्रित करना तथा कवियों द्वारा एक से बढ़कर एक समाधान प्रस्तुत करने की रोचक काव्यप्रतिस्पर्धा पूरी सभा को उद्वेलित और स्पंदित कर देने में समर्थ होती थी। कवियों द्वारा उपयुक्त राजाश्रय की तलाश तथा तलाश पूरी होने पर अपनी स्वतंत्र काव्याभिव्यक्ति से अलग, सत्ता की रुचि-अरुचि के अनुरूप  काव्यरचना का प्रयास उन्हें अनपेक्षित प्रतिस्पर्धा के लिए प्रेरित करता था। प्रतिस्पर्धा का यह काव्यात्मक परिवेश रीतिबद्ध काव्य की एक प्रमुख प्रव़त्ति कही जा सकती है।

 

8. मुक्तककाव्य-प्रणयन

 

रीतिकाल के अधिकतर कवियों नें अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति मुक्तकों के माध्यम से की है। यद्यपि कतिपय कवियों ने प्रबंधकाव्यों की रचना भी की है, पर वह इस काल की प्रमुख प्रवृत्ति नहीं कही जा सकती है, क्योंकि एक तो प्रबंधकाव्य की रचना परिमाण की दृष्टि से बहुत कम है, दूसरे, यह काल प्रबंधरचना की दृष्टि से अनुकूल नहीं कहा जा सकता। वहीं दूसरी ओर देखा जाए, तो मुक्तककाव्य-प्रणयन में इस काल के कवियों का मन बहुत रमा है और उनकी काव्यरचना का व्यापक कौशल उसी के माध्यम से प्रकट हुआ है। रीतिकाल का छंदविधान अधिकांशतः सवैया, कवित्त, दोहे आदि तक सीमित है। अपेक्षाकृत छोटे छंदों के माध्यम से चामत्कारिक काव्य की प्रभावी प्रस्तुति इस काल की काव्यरचना की एक बड़ी विशेषता कही जा सकती है। अपनी बात को बहुत प्रभावी बनाने के लिए मुक्तक रूप में छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से कवि लोग अपने आश्रयदाताओं को प्रभावित करने में प्रायः सफल हो जाते थे, क्योंकि न तो प्रबंधकाव्य सुनाने के लिए किसी को फ़ुर्सत थी, न ही किसी के पास इतना अवकाश था कि वह प्रबंधकाव्य सुने। परिणामतः मुक्तकों की रचना इस काल की कविता में बहुतायत से हुई। वस्तुतः मुक्तककाव्य की रचना इस काल की एक विशेष प्रवृत्ति कही जा सकती है, जिसके संबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की टिप्पणी बहुत महत्तवपूर्ण है,इसमें रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं, जिनसे हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है। यदि प्रबंधकाव्य विस्तृत  वनस्थली है, तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 189)

 

9. ब्रजभाषा का लालित्य

 

रीतिकाल में ब्रजभाषा का जैसा माधुर्य और लालित्य दृष्टिगत होता है, वैसा इससे पूर्व उस रूप में नहीं मिलता। इस काल की कविता में ब्रजभाषा का जो संश्‍लिष्ट रूप हमें दिखाई देता है, वह इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि इस समय तक ब्रजभाषा का काव्यसामर्थ्य पूरी तरह से विकसित और परिपक्‍व हो चुका था। ब्रजभाषा के स्वरूप और सामर्थ्य को अपेक्षया अधिक संतुलित और समुन्‍नत बनाने में रीतिकालीन कवियों नें बहुत अधिक योगदान दिया। देव, मतिराम, सेनापति, पद्माकर प्रभृति कवियों की काव्यरचनाओं में ब्रजभाषा का मनोहारी और अर्थगांभीर्ययुक्त स्वरूप देखकर आश्‍चर्य होता है। प्रचलित लोकोक्तियों और मुहावरों के माध्यम से इस काल की कविता में ब्रजभाषा की बहुत प्रभावी प्रस्तुति दिखाई देती है। अपनी काव्यभिव्यक्ति को और अधिक संप्रेषणीय बनाने के लिए रीतिकालीन कवियों नें ब्रजभाषा के स्वरूप को बहुत परिष्कृत रूप में ढाला। इस काल में ब्रजभाषा की चरम उन्‍नति दिखाई देती है।

  1. रीतिबद्ध काव्य के प्रमुख कवि

 

रीतिकाल के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्‍नवत् हैं–

  1. आचार्य केशवदास (1555 -1617) रीतिकाल की सम्यक् प्रस्तावना लिखने वाले रीतिबद्ध काव्यरचना के प्रेरक आचार्य कवि। रसिकप्रिया (सन् 1591, हिन्दी में रसविवेचन करने वाला प्रथम लक्षणग्रंथ),कविप्रिया (सन् 1601),रतन बावनी, वीर चरित्र, जहाँगीर जसचंद्रिका, रामचंद्रिका, विज्ञानगीता, नखशिख, शिखनख, बारहमासा, छंदमाला।
  2. चिन्तामणि (1609-1685 के मध्य विद्यमान) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि में रीतिकाल के प्रवर्तक आचार्य कवि, जो केशवदास से भिन्‍न आदर्श को लेकर चलने और रीतिकाल की अविच्छिन्‍न काव्यपरंपरा का प्रवर्तन करने वाले कवि के रूप में ख्यात। रसविलास, छंदविचार पिंगल, शृंगारमंजरी, कविकुलकल्पतरु, कृष्णचरित्र काव्यविवेक, काव्यप्रकाश, रामायण, रामाश्‍वमेध, गीत गोविंद, बारह खड़ी, चौंतीसा।
  3. जसवंतसिंह (सन् 1627-1729) रीतिकाल के अलंकार निरूपक आचार्य कवियों में प्रमुख कवि,भाषाभूषण, अपरोक्ष सिद्धांत, सिद्धांत बोध, अनुभवप्रकाश, आनंदविलास, सिद्धांतसार।
  4. मतिराम (1617) चिन्तामणि के भाई। रसराज, ललितललाम, साहित्यससार, मतिराम सतसई, लक्षण शृंगार, फूल मंजरी।
  5. भूषण (सन् 1613-1715) रीतिबद्ध कवियों में वीर रस के एकमात्र प्रमुख लोकप्रिय कवि। अनुमान है कि हृदयराम द्वारा ‘कवि- भूषण’ की उपाधि देने के कारण ‘ भूषण’ उपनाम तथा वास्तविक नाम घनश्याम त्रिपाठी है। शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक, भूषण उल्लास, दूषण उल्लास, भूषण हजारा।
  6. देव (सन् 1637-1768) संपूर्ण रीतिकाल में बिहारी के उपरांत सर्वाधिक लोकप्रिय एवं गंभीर-स्वाभाविक कवि। आलोचकों के लिए बिहारी को टक्‍कर देने वाले कवि, जिनके कारण बिहारी-देव, देव-बिहारी का साहित्यिक विवाद, जो हिन्दी साहित्य की रोचक साहित्यिक कलह है और हिन्दी की तुलनात्मक आलोचना को गति देनेवाली  प्रमुख घटना है। भाव विलास, रसविलास, भवानी विलास, कुशल विलास, जाति विलास, वृक्ष विलास, पावस विलास, राधिका विलास, सुजान विनोद, सुमिल विनोद, वैराग्य शतक, नीति शतक, प्रेम तरंग, सुखसागर तरंग, रसानंद लहरी, राग रत्‍नाकर, प्रेम चंद्रिका, प्रेम दीपिका, प्रेम दर्शन, अष्टयाम, सुंदरी सिंदूर, काव्य रसायन, देव चरित, देवमाया प्रपंच, नखशिख आदि।
  7. कुलपति मिश्र (रचनाकाल सन् 1660-1700) पिंगलाचार्य के रूप में ख्यात, संस्कृत काव्यशास्‍त्र के विद्वान आख्याता, मौलिक काव्यरचना प्रतिभा से संपन्‍न बहुत समादृत आचार्य कवि। रस रहस्य, संग्राम सार, दुर्गाभक्ति चंद्रिका, युक्ति तरंगिणी, नखशिख।
  8. भिखारीदास (रीतिबद्ध कवियों में बहुत समादृत। काव्यशास्‍त्रीय ज्ञान एवं पांडित्य के साथ मौलिक काव्यप्रतिभा का अद्भुत संतुलन) विष्णुपुराण भाषा, नामप्रकाश, शतरंज शतिका, रस सारांश, छंदार्णव, पिंगल, काव्य निर्णय।
  9. पद्माकर (1753-1833) पद्माभरण, जगद्विनोद, हिम्मतबहादुर विरुदावली, प्रतापसिंह विरुदावली, प्रबोध पचासा, ईश्‍वर पचीसी, गंगा लहरी, रामरसायन इत्यादि।
  10. श्रीपति मिश्र,काव्य सरोज, कविकल्पद्रुम, रस सागर, अनुप्रास विनोद, विक्रम विलास, सरोजकलिका, अलंकारगंगा।
  11. मंडन, रसरत्‍नावली, रसविलास, नखसिख, काव्यरत्‍न, नैनपचासा, जनकपचीसी।
  12. कालिदास त्रिवेदी, कालिदास हजारा, वरवधूविनोद, जंजीराबंद, राधामाधवबुधमिलन विनोद।
  13. सुखदेवमिश्र, वृत्तविचार, छंदविचार, रसार्णव, शृंगारलता।
  14. सुरतिमिश्र, अलंकारमाला, रसरत्‍नमाला, रससरस, रसग्राहकचंद्रिका, नखशिख, काव्यसिद्धांत, रसरत्नाकर, भक्तिविनोद, शृंगाररस।
  15. ग्वाल कवि, यमुनालहरी, भक्तभावन, रसिकानंद, रसरंग, कृष्ण जू को नखशसिख, दूषण दर्पण, राधामाधवमिलन, राधाष्टक, कविहृदय विनोद, कविदर्पण, नेहनिर्वाह, बंसीवीसा, कुब्जाष्टक, षडऋतुवर्णन, अलंकारभ्रमभंजन, रसरूप, दृगशतक।

 

इनके अतिरिक्त अन्य कवियों में–भूपति(सतसई,कंठाभूषण,रसरत्नाकर),तोषनिधि(सुधानिधि,नखशिख,विनयशतक), सोमनाथ, ससिनाथ (रसपीयूषनिधि,शृंगारविलास,प्रेमपचीसी), रसलीन (अंगदर्पण,रसप्रबोध), रसनिधि (रतनहजारा, विष्णुपदकीर्तन, कवित्त, बारहमासी, गीतिसंग्रह, अरिल्ल, हिंडोला,सतसई), रघुनाथ(जगतमोहन),दूलह(कविकुलकंठाभरण,स्फुट छंद), शम्भुनाथ  मिश्र  (रसकल्लोल, रसतरंगिणी, अलंकारदीपक), शिवसहाय दास (शिवचौपाई,लोकोक्ति रस कौमुदी), गुमान मिश्र (अलंकार दर्पण)  रूपसाहि (रूपविलास), चंदन (शृंगार सागर, काव्याभरण, कल्लोल तरंगिणी, चंदन सतसई, नखशिख, केसरी प्रकाश, पथिक बोध, नाममाला कोष, पत्रिकाबोध, तत्वसंग्रह, सीतवतन, कृष्णकाव्य,प्राज्ञविलास), बेनी प्रवीन (शृंगारभूषण, नवरस तरंग), प्रतापसिंह चरखारी (जयसिंह प्रकाश, व्यंग्यार्थ कौमुदी, काव्यविलास, शृंगारमंजरी, शृंगारशिरोमणि, अलंकार चिन्तामणि, काव्यविनोद), रामसिंह (जुगलविलास), यशोदानंदन, गुरदीन पांडेय, कर्ण कवि, ब्रह्मदत्त आदि के नाम लिए जा सकते हैं।

  1. निष्कर्ष

 

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि रीतिकाल की समयसीमा में कवियों नें काव्यरचना की जो पद्धति स्वीकार की उसके अंतर्गत रीतीतर कवियों की स्वछंद भावाभिव्यक्ति के अतिरिक्त रीतिबद्धता इस काल की प्रमुख प्रवृत्ति कही जा सकती है। काव्यशास्‍त्रीय परंपरा पर आधारित काव्यांगविवेचन के क्रम में रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों की रचना करने वाले कवि  उन्हीं रीतियों के आधार पर शृंगारपरक  काव्यरचना का व्यापक प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं। कवियों की दृष्टि लक्षण और उदाहरण के माध्यम से रीतियुक्त शृंगारिक काव्याभिव्यक्ति पर टिकी है।

 

काव्यरचना के इस व्यापक प्रयास को रीतिबद्ध काव्य के रूप में स्वीकार किया गया  है और ऐसी काव्यरचना करने वाले  कवियों को रीतिबद्ध कवि के रूप में जाना जाता है। काव्यरचना की  एक बँधीबँधाई परिपाटी में बँधकर परंपरागत काव्यरचना करने के कारण ऐसे कवियों को रीतिबद्ध कवि कहा गया, जो काव्यरचना के नियमों एवं लक्षणों के साथ-साथ तदनुरूप उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपनी काव्यप्रतिभा और पांडित्य को प्रदर्शित कर रहे थे। ऐसे कवि आचार्य कवि की श्रेणी में आने वाले रीतिबद्ध  कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए। रीतिकाल में व्यापक प्रभाव रीतिबद्ध कवियों का है। रीतिबद्ध कवियों की  प्रमुख प्रवृत्ति शृंगारपरक रचनाओं को विविध रूपों में प्रस्तुत करना है। रीतिनिरूपक लक्षणग्रंथों के माध्यम से काव्य के समस्त अंगों-उपांगों को स्पष्ट करने के लिए  लक्षणों और उदाहरणों के माध्यम से काव्यमय अभिव्यक्ति करते हुए हिन्दी कविता का जैसे प्रसार एवं विकास इन कवियों ने किया है, वह  आश्‍चर्यजनक रूप से चमत्कारिक एवं कलात्मक अभिव्यक्ति है।

 

इस धारा के आचार्य कवियों ने अलंकारनिरूपण, रसनिरूपण, नायिकाभेदनिरूपण आदि की सुदृढ़ और व्यापक परंपरा हिन्दी में स्थापित की, जो संस्कृत काव्यशास्‍त्रीय संप्रदायों से प्रेरित होने के बावजूद हिन्दी में एक नवीन काव्यपरंपरा की सूचक थी। राजाश्रय में रहते हुए दरबार की अपेक्षाओं और आकाँक्षाओं के अनुरूप चमत्कारपूर्ण कलात्मक काव्याभिव्यक्ति करना इस काल के कवियों के लिए अनिवार्य सा हो गया था। यही कारण है कि कविगण अपने ज्ञान और पांडित्य को काव्यरचना के माध्यम से प्रस्तुत करना अपना साहित्यिक धर्म समझने लगे थे। रीतिबद्ध कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों के रूप में जिनका उल्लेख किया जा सकता है, उनमें, शास्‍त्रीयता का परंपरागत आधार, आचार्यत्व / पांडित्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति,शृंगारपरक काव्याभिव्यक्ति का बाहुल्य,नारी-सौन्दर्य चित्र,प्रकृति के उद्दीपक रूप की प्रमुखता, अलंकारों के प्रति विशेष आकर्षण, राजाश्रयाश्रित प्रतिस्पर्धा की प्रवृत्ति, मुक्तककाव्य-प्रणयन, ब्रजभाषा का लालित्य आदि प्रमुख हैं। समग्रतः वह परंपरागत रीतिबद्ध काव्यरचना का व्यापक प्रभाव वाला काल है, जो संस्कृत की काव्यशास्‍त्रीय रचनापद्धति का अनुकरण होने पर भी हिन्दी में एक नवीन और मौलिक काव्यधारा कही जा सकती है।

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वेब लिंक्स

 

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  2. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  3. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  4. http://www.gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF_/_%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2_/_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2