9 प्रेमाश्रयी काव्यधारा
डॉ. राजेश पासवान
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप-
- प्रेमाश्रयी काव्यधारा का अर्थ समझ सकेंगे।
- इस काव्यधारा के नामकरण के बारे में जान सकेंगे।
- प्रेमाश्रयी काव्यधारा के प्रमुख रचनाकारों के बारे में जान सकेंगे।
- प्रेमाख्यानक काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों को समझ सकेंगे।
- हिन्दी में प्रेमाख्यानक काव्य परम्परा के विकास को समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
हिन्दी के भक्तिकाल की एक विशिष्ट काव्यधारा को प्रेमाश्रयी काव्यधारा कहा गया है। इसे अनेक नामों से पुकारा गया है– प्रेममार्गी (सूफी शाखा), प्रेम काव्य, प्रेमगाथा, प्रेम कथानक काव्य, प्रेमाख्यानक, प्रेमाख्यान आदि, लेकिन ये नाम अस्पष्ट हैं, ऐसे नामकरण से प्रेम-चित्रण वाले किसी भी काव्य को इस परम्परा में स्थान मिल जाएगा। जबकि प्रेमाश्रयी काव्यधारा से तात्पर्य मात्र स्वच्छंद प्रेम से है, जिसे अंग्रेजी में ‘रोमांस’ कहा गया है। डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त का विचार है कि इस काव्य परम्परा का सम्बन्ध एक ओर तो विश्व में व्याप्त रोमांस काव्य परम्परा से है, तो दूसरी तरफ इसका सम्बन्ध भारत की काव्य परम्परा से है। इसीलिए उन्होंने इस काव्यधारा का नामकरण ‘प्राचीन रोमांसिक कथा काव्य परम्परा’ किया है।
- रोमांस तथा कथा-काव्य
साहित्य के क्षेत्र में रोमांस का तात्पर्य एक विशेष प्रकार की रचनाओं से है, जिनमें साहस, प्रेम, कल्पना, सौन्दर्य एवं अलौकिक तत्त्वों का समावेश रहता है। इसमें जिस प्रेम का चित्रण होता है, वह साहसिक एवं संघर्ष से युक्त होता है। ऐसे ही प्रेम को रोमाण्टिक प्रेम भी कहा जाता है। भारत की अनेक कथाओं में नायिका के अपहरण, युद्ध, विरह एवं प्रेम वर्णन की प्रमुखता रही है। संस्कृत के कथा-काव्य तथा अंग्रेजी के रोमाण्टिक काव्य में गहरा साम्य है। इस धारा का विकास भारतीय कथा साहित्य से शुरू होकर विभिन्न माध्यमों द्वारा अरब, फारस, यूनान, रोम और स्पेन होते हुए पश्चिमी एशिया और समस्त यूरोप तक हुआ। अनेक पाश्चात्य विद्वान भी यह स्वीकार करते हैं कि आश्चर्यपूर्ण कथाओं का उद्गम स्रोत भारत ही रहा है। यूरोप के कथा साहित्य पर भारत के पंचतन्त्र, वृहत्कथा आदि का स्पष्ट प्रभाव आधुनिक विद्वान भी मानते हैं। निष्कर्ष यह है कि भारतीय कथा साहित्य का पश्चिमी एशिया और यूरोप में पर्याप्त प्रचार था और उसी ने विश्व में रोमांस काव्य की दीर्घ परम्परा के उद्भव एवं विकास में सहयोग किया था।
- प्रेमाख्यानक कथाओं की परम्परा
भारत में रोमांचक कथाओं या प्रेमाख्यानकों की एक दीर्घ परम्परा मिलती है। ऐसी कथाओं में सामान्यतः ऐसा समाज चित्रित हुआ है, जो सौन्दर्य एवं प्रेम को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है तथा उसके समक्ष तमाम धार्मिक बन्धनों एवं रीति-नीति की मर्यादा में मिलते हैं। इसका स्पष्ट उदाहरण महाभारत की कई कथाएँ हैं। धीवर पुत्री सत्यवती को पाने के लिए शान्तनु जैसा नरेश तमाम तरह के प्रयास करते हैं। भीम-हिडिम्बा, अर्जुन-उलूमी, अर्जुन-सुभद्रा, कृष्ण-रुक्मिणी, पाण्डव-द्रौपदी, प्रद्युम्न-प्रभावती, उषा-अनिरुद्ध आदि की तरह कई उदाहरण साबित करते हैं कि सौन्दर्यप्रियता, प्रेम की स्वच्छन्दता एवं विवाह सम्बन्धी प्रगतिशीलता आदि की दृष्टि से महाभारतकालीन समाज पूरी तरह रोमाण्टिक था। इस युग को रोमांचक कथाओं का उद्भवकाल माना जा सकता है। महाभारत-युद्ध का समय विद्वान लोग लगभग ई. पू. 1500 मानते हैं।
हरिवंश पुराण में भी ऐसी अनेक कथाएँ हैं। उन कथाओं की कथा-रूढ़ियाँ लगभग समान हैं – रूपदर्शन या श्रवण से प्रेम की उत्पत्ति, किसी देवमन्दिर या उद्यान में नायक-नायिका की भेंट, नायिका का बलात् अपहरण या नायिका के संरक्षक भाई-पिता से युद्ध, स्वप्न-दर्शन आदि अनेक कथा-रूढ़ियों का क्रमशः विकास होता रहा है। ‘वृहत्कथा’ एवं ‘कथा-सरित्सागर’ से भी पता चलता है कि इनमें साहसी नायकों के प्रेम एवं संघर्ष का चित्रण होता था। इस काल तक कुछ नई काव्य रूढ़ियाँ प्रयोग में आ गईं –
- नायिका के नाम के अन्त में ‘वती’ होना।
- नायक का जन्म किसी विशेष धार्मिक अनुष्ठान से होना।
- नायिका का (प्रायः) किसी द्वीप में रहना।
- नायक को किसी पक्षी या दूत या साधु से पता चलना कि नायिका प्रेमातुर है।
- नायक का यात्रा करना, समुद्र टूटना/तूफान आना/नायक का बच जाना।
- अलौकिक शक्तियों द्वारा चमत्कार एवं नायक/नायिका के भाग्य का परिवर्तन।
- नायिका की प्राप्ति के लिए नायक द्वारा उसके संरक्षकों से युद्ध।
इस तरह के कथा-काव्य की परम्परा का विकास संस्कृत साहित्य में आठवीं से दसवीं सदी तक होता रहा तथा दसवीं से पन्द्रहवीं सदी तक प्राकृत-अपभ्रंश में जैन कवियों ने इसे पल्लवित-पुष्पित किया। यद्यपि जैन कवियों ने अपनी रचनाओं को ‘चरिउ’ या ‘चरित’ कहा है पर इनकी कथानक रूढ़ियाँ समान ही हैं। जैन कवियों ने इनमें धार्मिक या साम्प्रदायिक तत्त्वों का भी निवेश कर दिया,पर सारा वातावरण रोमाण्टिक ही रहा, धार्मिक नहीं।
आधुनिक भारतीय भाषाओं से पूर्व प्रेमाख्यानकों की यह परम्परा लगभग पच्चीस सौ वर्षों तक चलती रही थी तथा इसकी अनेक शाखाएँ एशिया-यूरोप तक फैल चुकी थीं। आगे चलकर पश्चिम में यही परम्परा गद्यात्मक रूप धारण कर उपन्यास के रूप में विकसित हुई या भारत लौटी। यह भारतीय भाषाओं गुजराती, हिन्दी, पंजाबी, बांग्ला आदि से होती हुई, विकसित होती हुई सम्पूर्ण उत्तरी भारत में फैल गई।
- प्रेमाख्यानक परम्परा का हिन्दी में विकास
इस प्रकार यह परम्परा विशुद्ध भारतीय है, किन्तु शुक्ल जी को यह परम्परा विदेशी प्रतीत इुई थी। उनके अनेक समर्थक साहित्यकारों ने भी मान लिया कि इसका प्रवर्तन हिन्दी में सूफी कवियों ने अपने सम्प्रदाय का प्रचार करने के लिए फारसी मसनवियों के आधार पर किया है। इसी से इसका नाम सूफी काव्य-परम्परा हो गया। ये साहित्य के इतिहासकार यह मानते हैं कि इन काव्यों की प्रेम-पद्धति भारतीय न होकर विदेशी है, क्योंकि इनका प्रेम एकान्तिक और इनका आदर्श अरबी प्रेम कहानियाँ हैं। इस धारा के सभी कवि मुसलमान हैं। डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त एवं डॉ. नगेन्द्र जैसे विद्वानों का मानना है कि यह शैली पूरी तरह भारतीय है और इसके सभी कवि मुसलमान नहीं हैं। इस परम्परा में अब तक लगभग 55 कवियों की रचनाएँ प्राप्त हुई हैं जिनमें 35 असंदिग्ध रूप से हिन्दू हैं। इस प्रकार, “आचार्य शुक्ल ने इस परम्परा को विदेशी सिद्ध करने के लिए जितनी भी युक्तियाँ दी हैं, वे सब उनके विपक्ष में पड़ती हैं। यह भारतीय प्रेम कथा काव्य की एक शाखा है। सूफी प्रचार से भी सम्बन्ध मानना अनुचित है।” (साहित्यिक निबन्ध: गणपति चन्द्र गुप्त, पृ. 255)
सामान्यतः इस परम्परा के कवियों को सूफी मतावलम्बी मान लिया जाता है, जो भ्रामक है, इस परम्परा के 55 में से 35 कवि हिन्दू हैं, जिन्होंने काव्यारम्भ में हिन्दू देवी देवताओं की वन्दना करते हुए हिन्दू धर्म में पूर्ण विश्वास प्रकट किया है। उनके द्वारा सूफी मत के प्रचार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मुस्लिम कवियों ने भी अपना उद्देश्य घोषित करते हुए स्पष्ट लिखा है कि शृंगार रस के चित्रण द्वारा पाठकों का मनोरंजन एवं यश-कामना के उद्देश्य से उन्होंने प्रेम-काव्यों की रचना की है।
जो मैं जानि कवित अस कीन्हा
मकु यह रहे जगत महँ चीन्हा।
जो यह पढ़े कहानी, हम्ह संवरे दुई बोल (जायसी, पद्मावत)
विधना जब लग जगत माँ यह पुस्तक संचार।
सबका साथ रहीम के नाँव रहे उजियार। (शेख रहीम)
नूर मोहम्मद यह कथा अहै प्रेम की बात।
जेहि मन होई प्रेमरस, पढ़े सोइ दिन रात।। (नूरमोहम्मद)
अनेक हिन्दू कवियों ने लिखा है कि उनका उद्देश्य ऐसी कविता लिखना है, जिससे मूर्ख से विद्वान तक का मनोरंजन हो सके।इस तरह, इन कवियों को रहस्यवादी समझना या सूफी मत का प्रचारक समझना भूल है। दिनकर ने लिखा है “ये हिन्दुत्व से पैर से पैर मिलाकर चलने वाले लोग थे।” (संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर) यह भी ध्यातव्य है कि इन कवियों को न तो राजाश्रय प्राप्त था और न ही धर्माश्रय। इनके काव्य के प्रेमी वे थे, जो प्रेम एवं सौन्दर्य की चर्चा-कथा सुनना चाहते थे, जो नीति एवं शास्त्र की बात सुनना चाहते थे। वस्तुतः इनकी कविता में प्रेम, ज्ञान, शास्त्र एवं वैराग्य के सभी तत्व हैं, इसमें तीनों का समन्वय हुआ है।
- रचनाओं का नामकरण
इस परम्परा की एक विशेषता है कि ये सामान्यतः नायिकाओं के नाम पर रचनाएँ लिखी गई हैं- जैसे पद्मावती, सत्यवती, मृगावती आदि।कुछ रचनाओं में नायक-नायिका दोनों के नाम हैं – माधवानन्द-कामकन्दला, प्रेम विलास-प्रेमलता, नल-दमयन्ती आदि।कुछ रचनाओं के नाम के अन्त में ‘कथा’ शब्द आया है। जैसे- लखनसेन-पद्मावती कथा आदि। कुछ पुस्तकों के नामकरण के अन्य आधार भी हैं। जैसे- अनुराग-बाँसुरी, प्रेम-चिनकारी, प्रेम-दरिया आदि। यह जरूर है कि ऐसी पुस्तकों के नामकरण में नायिकाओं के नाम की प्रमुखता है।
- प्रेमाश्रयी धारा की रचनाओं के कथावस्तु के विभिन्न स्रोत
प्रेमाश्रयी कथा-वस्तु के उद्गम के स्रोत की दृष्टि से इस काव्य-परम्परा को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
- महाभारत, हरिवंश पुराणआदि पौराणिक कथाओं के आधार पर लिखी गई रचनाएँ।
- ऐतिहासिक, प्रामाणिक या अर्द्ध प्रामाणिक घटनाओं के आधार पर लिखी गई रचनाएँ।
- पूर्णतः कल्पना आश्रित घटनाओं के आधार पर लिखी गयी रचनाएँ।
इस परम्परा के कथा-काव्य में नल-दमयन्ती, उषा-अनिरुद्ध एवं माधवानल-कामकन्दला को आधार बनाकर लगभग बीस रचनाएँ लिखी गई हैं। ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक कथानकों में ऐतिहासिकता को सुरक्षित रखने की भावना का अभाव है तथा परम्परागत कथानक-रूढ़ियों का खुलकर सम्मिश्रण हुआ है। काव्यत्व की दृष्टि से इनमें स्वाभाविकता की अपेक्षा वैचित्र्य की प्रमुखता है।
- प्रेमाख्यानक काव्यपरम्परा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
इस काव्य परम्परा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं –
लोकजागरणवादी प्रवृत्ति:भक्ति आन्दोलन की लोकजागरणवादी भूमिका के निर्माण में सूफी सन्तों का महत्त्व अविस्मरणीय है। इन कवियों ने जाति-पाँति एवं सम्प्रदाय की दीवारों की हद को तोड़ा तथा मनुष्यता का नया दर्शन प्रस्तावित किया। इन सूफी सन्तों का आम जनता ने मुक्त हृदय से स्वागत किया। यही कारण है कि इन्हें भी सन्त कहा गया। कबीर एवं जायसी की परम्परा के सूफियों ने एक साझी लोक-संस्कृति का निर्माण किया, बताया कि सन्त सिर्फ हिन्दू ही नहीं, मुसलमान भी हो सकते हैं।
मानवतावादी प्रवृत्ति: सूफी सन्त काव्य के सामाजिक नवजागरण को समझने के लिए तथा सामाजिक सांस्कृतिक आधार को समझने के लिए शोषित एवं नीची जातियों, विशेषकर कामगारों, बुनकरों, किसानों, कारीगरों, व्यापारियों एवं सामन्तों के पारस्परिक सामाजिक रिश्तों को समझना जरूरी है, क्योंकि ये सन्त इन्हीं जातियों, समुदाय से आए थे। एक प्रकार यह पूरी काव्य परम्परा सामन्ती-सवर्णी सोच की, आचार-विचार की, प्रतिक्रिया थी। सन्त-साहित्य का सीधा सम्बन्ध 15वीं, 16वीं, 17वीं सदी के भारतीय समाज के सामन्ती ढाँचे के कमजोर पड़ने से है। भारतीय आमजीवन की सबसे त्रासद भूमिका के रूप में सामन्ती ढाँचा था। इन सन्तों ने धार्मिक विद्वेष के बदले धार्मिक सहिष्णुता एवं मानववाद का प्रचार कर व्यापक जनता की इच्छाओं को पूर्ण किया, साथ ही उनकी आहत संवेदनाओं का स्पर्श किया।
प्रेम-भावना की प्रवृत्ति : इस काव्य परम्परा के कवियों के सम्पूर्ण चित्रण का केन्द्र ‘प्रेम’ है। इनकी प्रेम-भावना शृंगारिकता का स्पर्श करती हुई भी उसे लौकिक से अलौकिक बना देती है। इनकी प्रेम भावना संघर्ष एवं साहस से अनुप्राणित है, जो सामाजिक मर्यादा को तथा परम्परा को विशेष महत्त्व नहीं देती। इनका प्रेम सौन्दर्यजन्य आकर्षण से शुरू होता है और परिस्थितियों के अनुसार उत्तरोत्तर गम्भीर होता चला जाता है। तथापि, सौन्दर्य का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन आज के पाठक को ग्राह्य नहीं होता। साथ ही इनका प्रेम कभी-कभी वासना एवं कामुकता का आवेग बन जाता है। यह वासना आगे चलकर निखर जाती है और विशुद्ध प्रेम का रूप ले लेती है। काम भावना प्रेम भावना के रूप में बदल जाती है।
पाण्डित्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति : इन कवियों ने अनेक बार भारतीय दर्शन, पुराण, ज्योतिष, शकुन विचार, कामशास्त्र, वैद्यक, संगीतशास्त्र, शुद्धीकरण, पाकशास्त्र आदि के अपने ज्ञान से कई पन्ने रंग दिए हैं, जिनसे पाठक को ऊब होती है। इस प्रवृत्ति के पीछे शायद पाठक के ज्ञान-वर्द्धन की इच्छा काम कर रही थी।
तप का महत्व: सूफी प्रेम-साधना में तप के कष्ट को प्रेम का प्रमुख सोपान माना गया है। यहाँ नायक का अनेक कष्ट सहना, उसके धैर्य की परीक्षा, संघर्ष, युद्ध आदि एक प्रकार की तपस्या ही है। पद्मावत में पार्वती रतनसेन की परीक्षा लेती हैं, तथा अन्त में कहती हैं कि यह परीक्षा में तपा हुआ शुद्ध सोना है और प्रेम की आग में तप चुका है-
निह्चय यह प्रेमानल दहा।
कसे कसौटी कंचन लहा।
विरह-वर्णन: सूफी काव्य का प्रधान विषय प्रेम है, जिसके अन्तर्गत कवियों ने संयोग का कम, विरह का अधिक चित्रण किया है। वस्तुतः यहाँ विरह-दशा ही वह मनोभूमि है, जो चित्त की समाधि या प्रिय के प्रति ऐकान्तिक निष्ठा लाती है। इन कवियों ने विरह-वर्णन के अन्तर्गत ऋतु-वर्णन, बारहमासा आदि का विशेष वर्णन किया है, पर कभी-कभी यह विरह वर्णन अतिरंजित एवं वायवीय हो गया है, जैसे विरह के ताप से सूर्य का लाल हो जाना, गेहूँ का पेट फट जाना, कौए का काला पड़ जाना, आँखों से आँसू की जगह खून निकलना आदि। इससे कहीं-कहीं विरह-वर्णन वीभत्स हो जाता है। पद्मावत में नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।
रहस्यवाद : ज्ञान के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है, भावना के क्षेत्र में आकर वही रहस्यवाद हो जाता है। सूफी कवियों का रहस्यवाद भावनात्मक रहस्यवाद है। इन सूफी कवियों को ‘प्रेम की पीर’ का कवि कहा गया। इन कवियों ने ‘रहस्यात्मकता के माधुर्य भाव’ का प्रचार किया, जिसका प्रभाव कबीर एवं कृष्ण भक्ति परम्परा पर स्पष्ट दिखाई देता है। सूफी कव्वाल गाते-गाते हाल की दशा में चले जाते थे।चैतन्य महाप्रभु भी गाते-गाते मूर्छित हो जाते थे। मद, प्याला, उन्माद, ईश्वर का विरह इनके रहस्यवाद की रूढ़ियाँ हैं। कबीर का माधुर्य भाव सूफी प्रभाव से पूर्ण है। दादू, दरिया साहब जैसे निर्गुणसन्तों का ज्ञानमार्ग पूरी तरह सूफी रहस्यवाद है। भारतवर्ष में जब सूफी आए तो उन्हें साधनात्मक रहस्यवाद, हठयोग, तन्त्र, रसायन आदि का जाल मिला था। फलतः, हठयोग की अनेक बातों का समावेश सूफियों के रहस्यवाद में मिलता है। सूफियों के रहस्यवाद में प्रेम एवं भावना की गहराई है और साधना की शक्ति है। रमणीय और सुन्दर अद्वैती रहस्यवाद के दर्शन पद्मावत में होते हैं। वस्तुतः भावात्मक रहस्यवाद सूफियों का ही लाया हुआ है।
प्रबन्ध कल्पना : लौकिक प्रेम कहानियों के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना के लिए इन कवियों ने प्रबन्ध काव्यों की रचना की है। इन्होंने प्रबन्ध संगठन का हमेशा ख्याल रखा है। इनकी प्रेम कहानियाँ प्रायः एक ही साँचे में ढली हैं, उनमें मौलिकता की कमी है, यान्त्रिकता है। फलतः इनकी प्रबन्ध कल्पना अस्वाभाविक एवं अमनोवैज्ञानिक हो गई है। वस्तुतः सूफी प्रबन्धकाव्य भारतीय काव्यशास्त्र के नियमों-आदर्शों की राह से अलग हैं। इन कवियों ने परम्परा से प्राप्त भारतीय कथानकों में रूढ़ियों का खूब उपयोग किया है। शैतान को माया के समान साधना-भ्रष्ट करने वाला बताया गया है। पद्मावत में राघव शैतानी शक्ति है।सूफी कवियों की शैली मसनवी है। मसनवी शैली में इन कवियों ने भारतीय प्रेम कथाओं को स्वर दिया है। दोहा, चौपाई, झूलना एवं कुण्डलिया इन कवियों द्वारा प्रयुक्त प्रमुख छंद हैं।
गुरु को सम्मान: इस परम्परा में गुरु को ईश्वर तुल्य दर्जा प्राप्त है। वही साधक को सिद्धि तक पहुँचाने का माध्यम है। गुरुकृपा से शैतान एवं माया दोनों का नाश होता है।
प्रकृति-चित्रण: सूफियों का प्रेम-स्वरूप आलम्बन ईश्वर प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है। प्रकृति इनके लिए स्पृहणीय एवं आकर्षणपूर्ण है। ‘रवि शशि नखत दीपहीं ओही जोती’, ईश्वरीय ज्योति के कारण ही सब कुछ प्रकाशमान है। सूफियों के यहाँ प्रेमियों के विरह में प्रकृति भी समान रूप से दुःख महसूस करती है। वह उनके विरह ताप को कम करने की कोशिश करती है।
सिद्धों-नाथों का प्रभाव: जनता पर प्रभाव जमाने के लिए नाथ-सिद्ध, योगी-साधु अलौकिक चमत्कारों से जनता को चमत्कृत करते थे। सूफी सन्त काव्य पर भी इसका प्रभाव है। वे भी चमत्कारों में विश्वास करते थे। इस काव्य परम्परा पर हठयोग का भी प्रभाव है, क्योंकि अनेक स्थलों पर इन्होंने यौगिक क्रियाओं का उल्लेख किया है। ये भी सिद्धपीठ में विश्वास करते हैं।
शैतान: सूफी प्रेमाख्यानकों में माया के ही समान साधक को भ्रष्ट करने वाली या साधना के मार्ग से च्युत कराने वाली शक्ति के रूप में शैतान की उपस्थिति मानी गई है। एक साधक पीर या गुरु की कृपा से शैतान के पंजे से मुक्त हो सकता है। पद्मावत काव्य में राघव चेतन शैतान का प्रतीक है। यहाँ यह स्मरणीय है कि निर्गुण-सन्त कवि माया की निन्दा करते हैं, लेकिन सूफी कवि शैतान को त्यागने योग्य नहीं मानते क्योंकि, शैतान द्वारा उपस्थित किए गए व्यवधानों से साधक के प्रेम के गाम्भीर्य की परीक्षा होती है तथा उसके प्रेम में उज्ज्वलता और दृढ़ता आती है।
धार्मिक एकता का प्रचार: सूफी-काव्य परम्परा के पूर्व निराशावादी सन्तों ने भक्ति के सामान्य मार्ग की प्रतिष्ठा कर दी थी, धार्मिक एकता का श्रीगणेश कर दिया था, परन्तु उन्हें अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिली थी। समाज में व्याप्त कुरीतियों, कर्मकाण्डों और पाखण्डों के लिए कबीर हिन्दू-मुसलमान दोनों को फटकार चुके थे। उनके स्वर में खण्डनात्मकता, प्रतिक्रिया एवं चुभने वाली बातें थीं, जिससे हिन्दू-मुसलमान दोनों चिढ़ गए।दूसरी तरफ प्रेमाख्यानक परम्परा के कवियों ने किसी सम्प्रदाय या मतवाद का खण्डन नहीं किया। इनकी पद्धति ही मनोवैज्ञानिक थी। शुक्ल जी लिखते हैं, “प्रेम स्वरूप ईश्वर को सामने लाकर सूफी कवियों ने हिन्दू-मुसलमान दोनों को मनुष्य के सामान्य रूप में दिखाया और भेदभाव के दृश्यों को हटा कर पीछे कर दिया।” हिन्दी के कतिपय विद्वानों का कहना है कि इन सूफी कवियों ने हिन्दू घरों की प्रेम कहानियों के ब्याज से प्रच्छन्नतः इस्लाम का प्रचार करना चाहा था – परन्तु वस्तुस्थिति नितान्त भिन्न है। इनकी रचनाओं में इस्लाम की तरफ झुकाव या इस्लाम के प्रचार का कोई संकेत तक नहीं मिलता। इस काव्य परम्परा में कोई साम्प्रदायिक आग्रह नहीं है। शुक्ल जी कहते हैं, “कुछ भावुक मुसलमान ‘प्रेम की पीर’ की कहानियाँ लेकर साहित्य क्षेत्र में उतरे। ये कहानियाँ हिन्दुओं के घर की ही थीं। इनकी मधुरता और कोमलता का अनुभव करके उन कवियों ने दिखला दिया कि एक ही गुप्त तार मनुष्य मात्र के हृदयों से होता हुआ गया है जिसे छूते ही मनुष्य के सारे बाहरी रंग-रूप के भेदों की ओर से ध्यान हट एकत्व का अनुभव करने लगता है।” (जायसी ग्रन्थावली की भूमिका, पृ. 1)वस्तुतः इन कवियों ने, जिन्हें सूफी कवि कहा गया, भारतीय भक्ति आन्दोलन की व्यापक शक्ति को जनता के हृदय तक पहुँचाया है। इनका साहित्य हृदय की मुक्तावस्था से उपजा साहित्य है जो धार्मिक एकता का सन्देश देता है।
लोक भाषा की स्वीकृति : पूर्वी प्रान्त के सभी सूफी कवियों की भाषा अवधी है, जिसका ठेठ देसी रूप जायसी के पद्मावत में मिलता है। उनकी कविता में पहली बार हिन्दी भाषा सहज काव्य प्रवाह में बहने लगती है। दाऊद एवं कुतुबन की रचनाओं से तुलना करने पर लगता है कि अवधी भाषा काव्य-प्रवाह में कुछ रोड़े अटका रही है, पर जायसी की भाषा बिल्कुल आम जनता की भाषा हो जाती है।
कथानक रूढ़ियों का प्रयोग : इन कवियों ने कथानक को गति देने तथा उसे लोकप्रिय बनाने के लिए परम्परा से प्राप्त भारतीय कथानकों की रूढ़ियों का प्रयोग किया है जैसे चित्रदर्शन, स्वप्न-दर्शन, शुक-सारिका संवाद, मन्दिर या उद्यान में नायक-नायिका का मिलन, युद्ध, संघर्ष आदि रूढ़ियाँ सभी सूफी कवियों की रचनाओं में मिलती हैं।
भारतीय एवं फ़ारसी तत्त्वों का सामंजस्य : इन कवियों की प्रेम गाथाओं में भारतीय और फ़ारसी कथा-तत्त्वों का अद्भुत सामंजस्य मिलता है। इन्होंने इस्लाम धर्म और हिन्दू धर्म का सामंजस्य करके कथानक का निर्माण किया। इनकी रचनाओं में फारसी रहस्यवाद का भारतीय अद्वैतवाद से मेल मिलता है। प्रकृति की समस्त सत्ता में इन्हें ईश्वरीय तत्त्व की उपस्थिति दिखाई देती है। सूफी काव्यों में परमात्मा को प्रियतमा मानना सूफियों की खोज है। ये कवि ‘हुस्ने बुतां के इश्क में खुदा का नूर’ देखते थे। जायसी कहते हैं –
नवो खण्ड नव पौरी औ तहं बज्र केवार।
चारि बसेरे सों चढ़े, सत सों उतरे पार।
यहाँ हठयोग के अनुसार शरीर में आँख, कान, नाक आदि नौ द्वार हैं। दसम द्वार ब्रह्मरन्ध है। शरीयत, तरीक़त, मारिफ़त और हक़ीकत – ये चार बसेरे हैं।
उपनिषदों एवं अद्वैतवाद से प्रभावित इन कवियों ने शैतान की कल्पना सूफी सिद्धान्तों के अनुरूप किया है। यहाँ माया ही शैतान है- राघव ‘दूत सोई शैतानू’। इन्होंने भारत की प्रबन्ध शैली में फारसी मसनवी शैली का सामंजस्य किया है, जिसके कारण इनका विरह-वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण एवं अभारतीय हो गया है। इस प्रकार, इस परम्परा के कवियों ने वस्तु और रूप – दोनों स्तरों पर भारतीय-फ़ारसी काव्य तत्त्वों का सामन्जस्य किया है। फारसी के प्रेम-चिन्तन में नायक के प्रेम का आवेग अधिक दिखाया जाता है, भारतीय चित्रण में नायिका का प्रेम अधिक गम्भीर होता है। जायसी ने नायक-नायिका दोनों के प्रेम की तीव्रता को समान करके दोनों आदर्शों का मेल कर दिया है।
रस-छंद-अलंकार : चूँकि सूफी काव्य का प्रधान विषय ही प्रेम है, यह सम्पूर्ण काव्य-परम्परा प्रेम रस-स्नात है। प्रेम-तत्त्व के चित्रण में इन्होंने शृंगार रस के विरह पक्ष को विशेष महत्त्व दिया है। वस्तुतः यहाँ विरह वर्णन ही वह उच्चतम चित्र-भूमि है, जो कवि का लक्ष्य है। विरह ही प्रेम को एकनिष्ठ एवं अडिग बनाता है, परन्तु, विरह-चित्रण में इन कवियों ने अतिशयोक्ति का प्रयोग किया है, जिससे वर्णन कहीं-कहीं काल्पनिक या हास्यास्पद हो गया है। जायसी द्वारा किया गया नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। उदाहरण – इन काव्यों में नायक प्रायः राजा, राजकुमार या धनी पात्र होता है। वह भोगी-विलासी, सौन्दर्य-लोलुप होता है। उधर नायिका में भी प्रेम की तड़प होती है। दूत, सखा, सखी, पक्षी आदि उद्दीपन का कार्य करते हैं। शृंगार रस में शुद्ध-संघर्ष की उपस्थिति होती है, जिससे वर्णन रोमांचक हो जाता है। यत्र-तत्र करुण-वीभत्स रस के लघु वर्णन भी मिलते हैं, किन्तु, सभी काव्यों का अन्त शान्त रस में होता है – ईश्वर तत्त्व ही सबसे प्रमुख रस बन जाता है।
इस काव्य परम्परा में अपभ्रंश के चरित-काव्यों के समान दोहा-चौपाई शैली को अपनाया गया है। यत्र-तत्र सोरठे-सवैये-बरवै छन्द भी मिलते हैं।अलंकारों में इन कवियों ने उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति एवं रूपकों का प्रयोग किया है। सूफी कवियों ने समासोक्ति का खूब प्रयोग किया है।
प्रेमाख्यान परम्परा के प्रसिद्ध कवि एवं काव्य
हिन्दी में इस परम्परा का प्रवर्तन किस कवि द्वारा हुआ, इसकी प्रामाणिक सूचना नहीं मिलती। तथापि, अत्याधुनिक शोधों से पता चलता है कि इस प्रेमाख्यान-परम्परा की प्रथम पुस्तक हंसावली है। इसके पूर्व का कोई प्रेमाख्यान-काव्य उपलब्ध नहीं है।
हंसावली (सन् 1379):
इसके रचयिता असाइत कवि हैं। इस पुस्तक की भाषा राजस्थानी हिन्दी है। कवि ने इस प्रेम कथा का प्रेरणा-स्रोत विक्रम-बैताल की कथा को माना है। इसमें अनेक प्रेम कथाएँ गुम्फित हैं। राजकुमारी का नाम हंसावली है। नायक राजकुमार स्वप्न-दर्शन द्वारा उसके रूप-लावण्य पर मुग्ध होकर, अनेक कष्टों एवं संकटों को झेलते हुए अन्ततः राजकुमारी को प्राप्त कर लेता है। कवि ने प्रारम्भ में शक्ति, शिव एवं सरस्वती की वन्दना करते हुए आत्मपरिचय दिया है। भाव-सौन्दर्य एवं काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से यह साधारण कोटि की रचना है।
चन्दायन (सन् 1379):
इसके रचयिता मुल्ला दाऊद हैं। इसका नायक लोर या लोरिक है तथा नायिका चन्दा है। नायक की विवाहिता पत्नी मैना है। नायक चन्दा की प्राप्ति के लिए अनेक प्रयत्न करता है। इस पुस्तक के दो नाम मिलते हैं – चन्दायन तथा चान्दायन । भाषा अवधी एवं शैली भावानुकूल एवं सरस है।
लखनसेन-पद्मावती कथा (सन् 1459):
इसके रचयिता दामोदर कवि हैं। इसमें राजा लक्ष्मणसेन एवं राजकुमारी पद्मावती के प्रथम दर्शन-जन्य प्रेम का चित्रण रोमानी शैली में किया गया है। भाषा राजस्थानी है तथा चौपाई-दोहा के बीच में सोरठा का भी प्रयोग हुआ है। बीच-बीच में संस्कृत की सूक्तियाँ भी मिलती हैं। यह भी भारतीय प्रेमाख्यानक काव्य परम्परा के अनुरूप कृति है।
सत्यवती कथा (सन् 1501):
इसके रचयिता ईश्वरदास सगुणमार्गी भक्त थे। डॉ. नगेन्द्र ने इन्हें सौन्दर्य, प्रेम, विरह के निरूपण एवं शैली आदि की दृष्टि से एक बहुपठित एवं उच्च कोटि का कवि माना है।
मृगावती (सन् 1503):
मृगावती की रचना कुतुबन ने की है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार “ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे और जौनपुर के बादशाह हुसैन शाह के आश्रित थे।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 66) मृगावती का नायक राजकुमार तथा नायिका मृगावती है। यह राजकुमारी उड़ने की विद्या जानती है। अनेक कष्ट सहकर राजकुमार उसे प्राप्त करता है, पर थोड़े दिन बाद ही वह उड़ जाती है। अनेक कष्टों को सहकर किसी तरह राजकुमार उसे फिर प्राप्त करता है। परम्परागत प्रेमाख्यानक प्रवृत्तियों की स्पष्ट झलक इसमें मिलती है। कथा की परिणति शान्त रस में होती है।
पद्मावत:
जायसी कृत पद्मावत इस परम्परा का प्रौढ़तम काव्य है। चित्तौड़ के राजा रतनसेन की पत्नी नागमती है। सिंहल की राजकुमारी पद्मावती के रूप के बारे में हीरामन तोते से सुनकर राजा उस पर मोहित हो जाता है और योगी के वेश में सिंहलद्वीप के लिए निकल पड़ता है। रास्ते में अनेक कष्टों को पार कर वह सिंहलद्वीप पहुँचता है और पद्मावती को प्राप्त करने में सफल होता है। कुछ समय वहाँ रहकर वह वापस चित्तौड़ आता है। पद्मावती के रूप की प्रशंसा सुनकर उसे प्राप्त करने के लिए दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन कई बार कोशिश करता है, पर उसे सफलता नहीं मिलती। कुछ विद्वान मानते हैं कि इसका पूर्वार्द्ध कल्पना-प्रसूत एवं उत्तरार्द्ध भाग ऐतिहासिक है; पर, इधर के शोधों से पता चलता है कि दोनों बातें विवादास्पद हैं। पूर्वार्द्ध की कथा भी जायसी के पूर्व विभिन्न रूपों में मिलती है और उत्तरार्द्ध भी इतिहास-सम्मत नहीं है। असल में कवि ने स्वयं कहा है कि जैसी गाथा उसे मिली थी, उसी को उसने चौपाइयों में लिख दिया है –
आदि अन्त जसि कश्या उन्हें।
लिखि भाषा चौपाई कहे।
डॉ. हरदेव बाहरी ने प्राकृत साहित्य का इतिहास में लिखा है कि जायसी से पूर्व प्राकृत में रचित रत्नेश्वर कथा की कथावस्तु का पद्मावत से गहरा साम्य है। सम्भवतः यही या अन्य कोई गाथा जायसी का मूल आधार है जिसे जायसी ने पद्मावत के रूप में लिख दिया अर्थात परम्परागत स्थूल ढाँचे को अपनी शैली एवं ज्ञान द्वारा जायसी ने सुविकसित कर दिया।
शुक्ल जी ने इसे महाकाव्य घोषित किया है, इसकी शैली को ‘मसनवी’ करार दिया तथा इसे सूफीमत का प्रचारक ग्रन्थ घोषित किया। पद्मावत के विभिन्न पात्र विभिन्न दार्शनिक तत्त्वों के भी प्रतीक हैं, इसे रूपक-काव्य या आध्यात्मिक काव्य भी कहा जाता है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “पद्मावत के रूपक तत्त्व का सम्बन्ध सूफी मत से न होकर भारतीय साधना-प्रद्धति से ही सिद्ध होता है – इसमें कोई सन्देह नहीं।” पद्मावत के अतिरिक्त जायसी कृत अखरावट एवं आखिरी कलाम आदि कुछ लघु कलेवर वाली पुस्तकें भी मिलती हैं, जिनका बहुत महत्त्व नहीं है।
मधुमालती:
मधुमालती की रचना मंझन ने की है। मंझन के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। मधुमालती में मंझन ने प्रेम के उच्च एवं उदात्त स्वरूप की व्यंजना करने में सफलता प्राप्त की है। इसमें कनेसर नगर के राजा सूरजभान के पुत्र मनोहर की प्रेम कथा है। शुक्ल जी ने लिखा है, पद्मावत के पहले मधुमालती की बहुत प्रसिद्धि थी। जैन कवि बनारसीदास ने अपने आत्मचरित में संवत 1660 के आस पास की अपनी इश्कबाजी वाली जीवन चर्या का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस समय मैं हाट बाज़ार में जाना छोड़ घर में पड़े-पड़े मृगावती और मधुमालती नाम की पोथियाँ पढ़ा करता था-
तब घर में बैठे रहैं, नाहिंन हाट बाज़ार।
मधुमालती, मृगावती पोथी दोय उचार।।
(हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 69)
सामान्यतः प्रेमाख्यानकों में नायक बहुपत्नीवादी होते हैं पर मधुमालती के नायक इसके अपवाद हैं।
ढोला मारू रा दूहा (सन् 1393):
कल्लोल कवि द्वारा रचित ढोला मारू रा दूहा राजस्थानी प्रेमाख्यानक काव्य है। इस काव्य में नरवर देश के राजकुमार ढोला तथा पुंगल देश की राजकुमारी मारवणी के विवाहोत्तर प्रेम एवं विरह का मार्मिक निरूपण हुआ है। यद्यपि इस रचना में प्रेम निरूपण है, पर इसे पूर्ण प्रेमाख्यानक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें विवाह-पूर्व प्रेम एवं नायिका प्राप्ति हेतु युद्ध-संघर्ष आदि का चित्रण नहीं है। इसका प्रेम एवं विरह का मार्मिक चित्रण हिन्दी साहित्य की निधि है।
रूपमंजरी (सन् 1568):
अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि नन्ददास द्वारा रचित रूपमंजरी में रूपमंजरी एवं कृष्ण के प्रेम का स्वच्छन्द चित्रण किया गया है। इसमें रूपमंजरी विवाहिता हैं,पर स्वप्न में कृष्ण को देखकर उन्हें उनसे प्रेम हो जाता है। कृष्ण को पाने के लिए वे कुल, दाम्पत्य एवं परिवार की समस्त मर्यादाओं को तोड़ देती हैं। नायिका के रूप-सौन्दर्य, प्रणय-वेदना एवं विरह आदि के वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। कवि का लक्ष्य है वैवाहिक बन्धनों का विरोध करते हुए परकीया-भाव या उपपति-रस की स्थापना करना। कवि ने प्रेमाख्यानक की रूढ़ियों का प्रयोग किया है। भाषा ब्रजभाषा है। चौपाई-दोहे की शैली में रचित इस पुस्तक में प्रौढ़ता एवं मार्मिकता है।
चित्रावली (सन् 1613):
इस प्रेमाख्यानक के रचयिता गाजीपुर के निवासी सूफी कवि उसमान हैं। इनका समय जहाँगीर का काल है। इस कवि ने ‘चित्रावली’ से बढ़कर प्रेम कथा लिखने को चुनौती दी है। प्रेमाख्यानकीय रूढ़ियों का प्रयोग करते हुए उसमान ने सुजान एवं चित्रावली के चित्र-दर्शन-जन्य प्रेम का सहृदयतापूर्ण एवं स्वाभाविक चित्रण किया है। उसमान ने जायसी का पूरा अनुकरण किया है।
इनके अतिरिक्त रसरतन (सन् 1618), ज्ञानदीप (सन् 1619) आदि अनेक प्रेमाख्यानकों की रचना की गई है। अकेले जानकवि ने 29 प्रेमाख्यानकों की रचना की है।
हिन्दी की यह एक ऐसी परम्परा है जो कई सौ वर्षों तक चलती रही,तथा जिसका प्राकृत, संस्कृत एवं अपभ्रंश की काव्यधारा से सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। मध्यकालीन काव्य परम्परा की यह सर्वाधिक दीर्घ एवं व्यापक परम्परा रही है। धर्माश्रय एवं लोकाश्रय से मुक्त रूप में सम्पोषित होने वाली इस परम्परा ने जनता की काव्य-रुचि एवं मनोरंजन को तुष्ट किया है। इस काव्य-परम्परा से जनसामान्य के ज्ञान-कोश की वृद्धि हुई, लोक के नाना पक्षों का उद्घाटन हुआ तथा शुद्ध काव्य की दृष्टि से भी इसका महत्त्व अक्षुण्ण है। साहस, त्याग एवं बलिदान से पोषित प्रेम भोग-लालसा से ऊपर उठकर गम्भीर एवं स्वस्थ प्रेम के स्वरूप का निदर्शन कराता है।
प्रेमाख्यानक काव्य परम्परा में जायसी का स्थान सर्वोपरि है। यदि जायसी को इस परम्परा से हटा दिया जाए तो यह पूरी काव्य परम्परा निस्तेज एवं निष्प्राण हो जाती है। शेरशाह के समकालीन जायसी की तीनों रचनाओं में भी पद्मावत का विशिष्ट स्थान है। पद्मावत हिन्दी साहित्य का अनमोल रत्न है। इसमें लौकिक प्रेम कथा को अलौकिक रूप प्रदान किया गया है। जहाँ अन्य कवियों ने अपने प्रेमाख्यानकों में काल्पनिक नायक-नायिकाओं की कहानी लिखी वहाँ जायसी ने लोकप्रचलित कथा को उठाया और उसमें ऐतिहासिकता का हरसम्भव समन्वय किया है।जायसी का महत्त्व इस बात में भी है कि उन्होंने पद्मावत को एक सुन्दर महाकाव्य का रूप प्रदान किया है। जिसमें प्रेम की साधना और सिद्धि – दोनों अवस्थाओं का चित्रण है। पद्मावत में हिन्दू-मुस्लिम हृदयों के अजनबीपन को मिटाने की सामर्थ्य है। वस्तुतः इस ग्रन्थ का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक – दोनों दृष्टियों से महत्त्व है। जायसी इस ग्रन्थ में एक कुशल प्रबन्धकार के रूप में उपस्थित होते हैं, जिन्होंने अपनी प्रबन्ध-निपुणता से अनेक परवर्ती कवियों को प्रभावित किया है। स्वयं तुलसीदास उनकी चौपाई-दोहा शैली से प्रभावित हैं,पद्मावत में महाकाव्य के सभी लक्षणों का निर्वाह हुआ है।
कबीर की तुलना में जायसी लोकजीवन के कहीं अधिक निकट हैं। लोक में कहानी के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है। अद्भुत घटनाओं का संयोजन, लोकप्रचलित धर्म एवं विश्वासों का अवलम्बन तथा बोलचाल की अवधी का प्रयोग जायसी को महान् लोककवि के रूप में स्थान दिलाते हैं। हठयोग से प्रभावित होकर भी जायसी ने हठयोग को पूरी तरह ग्रहण नहीं किया। उनकी बातें गम्भीर हैं, जिन्हें हँसकर या सिर्फ मनोरंजक कहकर नहीं टाला जा सकता है। अवधी को उन्होंने इतना सप्राण कर दिया कि उसे तुलसी ने भी अपनाया।
जायसी की महत्ता इसमें भी है कि वे एक विरक्त साधक एवं भावुक कवि थे, इसीलिए उनका विरह-वर्णन मसनवी शैली में होकर भी अन्ततः हिन्दू-संस्कारों की व्याख्या करता हुआ प्रतीत होता है। उन्होंने हिन्दू पात्रों में हिन्दू आदर्शों को प्रतिष्ठित किया तथा पात्रों का चरित्रांकन हिन्दू-जीवन के अनुरूप किया है। उन्हें हिन्दू जीवन के धार्मिक सम्बन्धों- संस्कारों का पूरा ज्ञान है। उनका सम्पूर्ण वर्णन हिन्दू परिवेश का वर्णन है। उनका लोकपक्ष तुलसी की ही भाँति व्यापक एवं समृद्ध है। उनके पद्मावत में प्रेम एवं एकता के शाश्वत बीज हैं। कबीर ने भी हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयास किए, मगर उनकी कर्कश वाणी एवं उलटबांसियों के कारण उनका प्रयास एक ‘झीनी चदरिया’ बनकर रह गया। जायसी ने प्रेम को मनोवैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक चादर में लपेटकर कुलीनता पूर्वक प्रस्तुत कर हिन्दू-मुसलमान हृदयों के अपरिचय को मिटाया। इन्हीं विशेषताओं के कारण वे तुलसी, मीरा, सूर, कबीर की पंक्ति के अधिकारी हो जाते हैं।
- निष्कर्ष
सूफी रचनाएँ लोकरंजक एवं लोकमंगलकारी हैं। इन रचनाओं द्वारा जातिगत, धर्मगत एवं वर्गगत विद्वेष को मिटाने का सरस प्रयत्न किया गया है। ऐतिहासिक एवं काल्पनिक प्रेम कथाओं की अपेक्षा लोकगाथाओं पर आधृत प्रेम कथाओं में लोकतत्त्व की मात्रा अधिक है। यह कहना भी भ्रामक है कि सूफी कवि इस्लाम के छद्म प्रचारक थे। वस्तुतः यह सारी काव्य परम्परा विशुद्ध भारतीय रोमांचक काव्य परम्परा का अनुशीलन करती है।
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- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AF%E0%A5%80_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BE
- https://vimisahitya.wordpress.com/2008/09/17/sufikavi/
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
- https://senjibqa.wordpress.com/category/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AF%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF/
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