8 ज्ञानाश्रयी काव्यधारा

डॉ. राजेश पासवान

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • भक्ति काल की प्रमुख काव्यधाराओं के बारे में जान पाएँगे।
  • निर्गुण एवं सगुण धारा का भेद समझ सकेंगे।
  • निर्गुण धारा के एक अंग ज्ञानाश्रयी काव्यधारा का परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • ज्ञानाश्रयी काव्यधारा के प्रमुख सिद्धान्तों को जान सकेंगे।
  • ज्ञानाश्रयी काव्यधारा के प्रमुख सन्तों और उनकी रचनाओं का परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • इस धारा की प्रमुख विशेषताओं को समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

शस्य श्यामला भारतभूमि अनादिकाल से तत्त्वद्रष्टा ऋषियों, मन्त्रद्रष्टा मुनियों तथा युगद्रष्टा मनीषियों को जन्म देती रही है। वेद-उपनिषदों तथा आगम-निगम एवं षड्दर्शनों के प्रतिपादक इस देश की मनीषा ने जो विचार-मन्थन किया है तथा जो विपुल ज्ञानराशि उपलब्ध कराई है, उसी के बल पर भारत को विश्‍व का आध्यात्मिक गुरु कहा जाता रहा है। भक्तिकाल हिन्दी का ऐसा ही स्वर्ण-युग है, जिसमें बहुत से दर्शनों, मतों, वादों एवं सिद्धान्तों का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। ज्ञान, भक्ति एवं कर्मयोग की जो मन्दाकिनी इस युग में प्रवाहित हुई, उसने भारतीय जनमानस को उर्ध्वचेता और उर्ध्वमुखी बनाया। यह भक्तिकाव्य अनेक रूपों में प्रवाहित हुआ, जिसकी एक धारा ज्ञानाश्रयी काव्यधारा कही जाती है।

  1. नामकरण

 

आचार्य रामचन्‍द्र शुक्ल ने भक्तिकाव्य को सगुण एवं निर्गुण के रूप में विभाजित करते हुए निर्गुण काव्यधारा को पुनः ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी दो शाखाओं में विभाजित किया है। यह विभाजन इस मान्यता का प्रतीक है कि इस काव्यधारा के कवि अपनी साधना-पद्धति में ज्ञान को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं। इस धारा के कवियों ने ढाई आखर के प्रेम के समक्ष सारी दुनिया को हेय बताया। ऐसी स्थिति में इस धारा के कवियों को ज्ञानमार्गी कहना सम्‍भवत: उचित नहीं है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस काव्यधारा को ‘निर्गुण काव्यधारा’ कहा है। परशुराम चतुर्वेदी एवं डॉ. रामकुमार वर्मा इस भावधारा को सन्तकाव्य परम्परा कहना चाहते हैं। ‘सन्त’ शब्द का सामान्य अर्थ सज्जन है और कबीर-रैदास ने भी स्वयं के लिए सन्त शब्द का प्रयोग किया है –

  • कहत कबीर सुनो भाई सन्तो
  • सन्तन जात न पूछो निर्गुनिया
  • रविदास सुनहु रे सन्तों हरि जीउ ते सभैं सरे

 

दूसरी तरफ तुलसीदास के यहाँ सन्त का अर्थ है भक्त। उनके राम ‘सन्तनहितकारी’ हैं। सन्त समागम हरिकथा तुलसी दुर्लभ होय’ कहकर वे सन्त को भक्त मानते हैं, परन्तु अब प्रायः सगुणोपासक ‘भक्त’ कहे जाते हैं, तथा निर्गुण उपासक सन्त कहे जाते हैं। तथापि यहाँ इस धारा को ज्ञानाश्रयी-काव्यधारा ही कहा गया है, जो इस भावधारा की सबसे प्रमुख प्रवृति की तरफ संकेत करता है।

  1. निर्गुण भक्ति का स्वरूप

 

तुलसी जब कहते हैं – अगुणहिं सगुणहिं नहीं कछु भेदा/उभय हरहिं भव सम्भव खेदा। तो यह मानते हैं कि ये परस्पर विरोधी नहीं हैं। वस्तुतः ज्ञान की अनुभूति ही भक्ति है। ज्ञान मार्ग पर चलने वाले आचार्यों ने भी अनुभूति-पक्ष पर बल दिया है। आचार्य शंकर भी मानते हैं कि ज्ञान तबतक निष्फल है जब तक वह अनुभव में सिक्त नहीं हो जाए– ‘अनुभवावसानात् ब्रह्मज्ञानस्य।’

 

सामान्यतया आम आदमी मानता है कि भक्ति, पूजा, अर्चन, संकीर्तन सगुण की चीजें हैं। पर कबीर तथा तुलसी दोनों ने तेजपुंज, निरंजन, परम पुरुष, अचराचर, सर्वगत, सर्वदा बसत आदि का उल्लेख किया है। कबीर भी ‘दीपकज्ञान’ का उल्लेख करते हैं, तो तुलसी भी भगति-विज्ञान-वैराग्य-दीपावली का उल्लेख करते हैं। भले ही ‘राम नाम का मरम हो आना’ लेकिन ‘दशरथ सुत’ एक ही हैं। इस प्रकार, दोनों की भक्ति की अनुभूति में बुनियादी समानता पाई जाती है। वस्तुतः शंकराचार्य तथा वैष्णव आचार्यों रामानुज एवं वल्लभ की परस्पर विरोधी दृष्टि एवं सत्य-सम्बन्धी मान्यता में अन्तर होने से ब्रह्म के सगुणरूप एवं निर्गुण रूप में विरोध माना जाने लगा, तो भी सभी सगुण एवं निर्गुण मार्गी आराध्य एक ही नदी के दो घाट माने जा सकते हैं।

  1. ज्ञानमार्गी का अर्थ और दृष्टिकोण

 

ज्ञानमार्गी शाखा में ज्ञान का अर्थ न तो साधारण इन्द्रिय जन्य ज्ञान है, न ही बौद्धिक तर्क-वितर्क से प्राप्‍त दार्शनिक ज्ञान। इस पन्थ में ज्ञान से तात्पर्य है स्वतः उत्पन्‍न होने वाला अतीन्द्रिय बोध है। यह एक तरह से अन्तर्ज्ञान है जो सहज ही प्राप्‍त होता है, बिना किसी प्रत्यक्ष साधन के मिलता है। इसीलिए इसे सहज ज्ञान भी कहा जाता है। कबीर इसे ब्रह्मगियान कहते हैं, इसके प्राप्‍त होने पर सहज समाधि प्राप्‍त हो जाती है। सहज समाधि चित्त का विश्राम है, जिसका रस पीकर साधक मस्त हो जाता है – मन मस्त हुआ तब क्यों बोले। कबीर कहते हैं –

 

अब मैं पाइबो/पाइबो सहज गियान।

सहज समाधि सुख में रहिबो, कोटिकलप विश्राम।।

  1. निर्गुण सन्त परम्परा या ज्ञानाश्रयी शाखा की परम्परा

 

जो निर्गुण संवेदना भक्तिकाल में सन्तों द्वारा व्यापक रूप से अपने समय और समाज को प्रभावित करती है, उसके बीज पूर्ववर्ती साहित्य में भी मिलते हैं। श्‍वेताश्‍वेतरोपनिषद् में निर्गुण शब्द उस अद्वितीय परमात्मा के लिए आया है, जो सभी भूतों में अन्तर्निहित है, जो सर्वव्यापी है, जो सभी कर्मों का अधिष्ठाता है, जो सबको चेतना बाँटता हुआ भी स्वयं निरुपाधि है। गीता में भी निर्गुण ब्रह्म की चर्चा एवं व्याख्या है। कठोपनिषद, वृहदारण्यक उपनिषद आदि में निर्गुण ब्रह्म की चर्चा है। बौद्ध-दर्शन तथा नाथ-सिद्धों की दार्शनिक परम्परा में भी निर्गुण संवेदना की उपस्थिति है।

 

बौद्ध-दर्शन ने ब्राह्मण कीर्तिष्ठता, ईश्‍वर-पूजा का विरोध, जाति का विरोध किया; आध्यात्मिक दुखों से मुक्ति के बदले भौतिक दुखों से मुक्ति का समर्थन किया; तथा ज्ञान एवं तर्क को प्रमुखता दी। इसने अपने अनुभव एवं तर्क की कसौटी पर परखे हुए सत्य को ही मानने  को कहा, शब्द-प्रमाण की जगह प्रत्यक्ष प्रमाण को मानने का आग्रह किया। इस वैचारिक आँधी में सगुणमार्ग के पाँव उखड़ गए। पाखण्ड से त्रस्त दलित-पिछड़ी जातियों ने बौद्ध धर्म में एक नई रोशनी देखी तथा इस वर्ग ने बौद्ध-धर्म के विचारों को अपनाया।

 

बौद्ध मतावलम्बियों के चारित्रिक बौद्धिक स्खलन से नाथ-सिद्ध सम्प्रदाय पनपा, जिसमें अधिकांश ब्राह्मणेतर थे।उन सब ने निर्गुण विचारधारा को आगे बढ़ाया तथा पारम्परिक मर्यादाओं से एवं वैष्णवी मान्यताओं से जनता को आगाह किया। बौद्धधर्म की महाकरुणा, अहिंसा, व्यावहारिक सदाचार, रहस्य भावना, उलटबाँसी आदि का प्रभाव निर्गुण सन्तों पर दृष्टिगत हुआ।

 

हिन्दी की निर्गुण सन्त काव्य परम्परा का आरम्भ ईसा की 12वीं सदी में जयदेव से माना जाता है। इनके कुछ पद आदिग्रन्थ में संकलित हैं। ये पद निर्गुण भाव के हैं, सम्भवतः ये जयदेव गीतगोविन्द के रचयिता जयदेव नहीं हैं। इस परम्परा में 13वीं सदी में मराठी एवं हिन्दी में भजन लिखने वाले नामदेव उच्‍च कोटि के सन्त हुए। उनके निर्गुण भाव के साठ पद सिखों के गुरु ग्रन्थ साहिब में भी संकलित हैं।

 

इस परम्परा के प्रवर्तन का श्रेय कबीर को दिया जाता है। परन्तु उनसे पूर्व भी अनेक सन्त हो चुके थे, जिनमें नामदेव का नाम प्रमुख है। उन्होंने सम्पूर्ण उत्तरी भारत का भ्रमण किया तथा अपने सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। कबीर, रैदास, दादू आदि सन्तों ने भी नामदेव का उल्लेख किया है। हिन्दी में रचित इनकी पदावली बड़ी संख्या में मिलती है।

 

पन्द्रहवीं शताब्दी में कबीर का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने अपनी प्रखर प्रतिभा एवं कवि-सुलभ सहृदयता से ज्ञान-काव्य परम्परा का सारे भारत में प्रचार किया। कबीर के बाद यह परम्परा कई पन्थों में विभक्त होकर आगे बढ़ती गई – रैदासी पन्थ, सिख पन्थ, दादू-पन्थ, निरंजनी सम्प्रदाय, दरियादासी सम्प्रदाय, चरणदासी सम्प्रदाय, गरीब-पन्थ, रामस्‍नेही पन्थ आदि के नाम इनमें प्रमुख हैं, परन्तु इन सब सम्प्रदायों का मूल-स्वरूप एक ही है।

  1. सन्त-काव्य परम्परा या ज्ञानाश्रयी-काव्य पर प्रभाव

 

ज्ञानाश्रयी काव्यपरम्परा के विकास में निम्‍नलिखित पाठ ने प्रभाव डाला –

  • अपभ्रंश साहित्य : सन्त काव्य पर अपभ्रंश के सिद्ध जैन मुनियों के मुक्तक-काव्य का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। परम्परागत व्यवस्था एवं अन्य सम्प्रदायों की वाह्य पद्धतियों का खण्डन, स्वानुभूतियों की व्यंजना, मुक्तक शैली, रूपक शैली, प्रतीक-शैली, उलटबाँसियों का प्रयोग तथा सामान्य लोकभाषा को अपनाने की प्रवृत्ति इस परम्परा में अपभ्रंश साहित्य से आई है।
  • नाथ-पन्थ का प्रभाव: नाथ-पन्थ के प्रवर्तन का श्रेय गुरु गोरखनाथ को दिया जाता है। इस पन्थ के अनुयायी शिव की आराधना करते हैं तथा तन्त्र-मन्त्र एवं योग-साधना को महत्त्व देते हैं। इस पन्थ के लोग योगी कहे जाते हैं। यद्यपि ज्ञानाश्रयी कवियों ने योग आदि का खण्डन किया, परन्तु उनकी शब्दावली का उपयोग किया तथा नाथ-पन्थ के रहस्य एवं चमत्कार आदि का खण्डन किया। अवधू, सुरति, इंगला, पिंगला आदि शब्द नाथ-पन्थ में प्रचलित थे।
  • वैष्णव भक्ति आन्दोलन का प्रभाव: इस काव्यधारा के उद्गम काल तक रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, रामानन्द आदि द्वारा वैष्णव-भक्ति आन्दोलन का प्रवर्तन हो चुका था। ईश्‍वर के पर्यायवाची नामों का प्रयोग, गुरु के रूप में रामानन्द का उल्लेख, प्रेमानुभूति आदि का प्रभाव वैष्णव भक्ति आन्दोलन से ग्रहण किए गए हैं, इन्होंने वैष्णव भक्ति के प्रति भी श्रद्धा व्यक्त की है।
  • महाराष्ट्रीय सन्त-सम्प्रदाय का प्रभाव: महाराष्ट्र में उत्पन्‍न महानुभाव सम्प्रदाय, बारकरी सम्प्रदाय आदि की विचारधारा एवं अभिव्यंजना शैली का सन्त-काव्य से गहरा साम्य दिखाई देता है। महानुभाव सम्प्रदाय के संस्थापक चक्रधर स्वामी (सन् 1194-1274) ने जीव, देवता, परमेश्‍वर आदि को अनादि बताया था तथा अद्वैतवाद के कुछ सिद्धान्तों को भी स्वीकार किया था। इसी तरह बारकरी सम्प्रदाय के संस्थापक सन्त ज्ञानेश्‍वर (सन् 1197) ने भी अद्वैतमत सगुण रूप तथा भक्ति-भावना का समन्वय किया था। भगवान के प्रति दृढ़, अनुराग, मिलनाकांक्षा, प्रणय-निवेदन, गुरु-महिमा का प्रतिपादन मूर्ति-पूजा एवं जाति का विरोध, योग-साधना का खण्डन, हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतिपादन आदि बातें महाराष्ट्रीय सन्त कवियों में भी मिलती है, जिसे ज्ञानाश्रयी सन्तकवियों ने ग्रहण किया।
  • इस्लाम का प्रभाव: कुछ विद्वान वर्ण-व्यवस्था के विरोध, मूर्ति-पूजा के विरोध, निर्गुणोपासना आदि को इस्लाम का प्रभाव मानते हैं। सन्तमत के खण्डनात्मक पक्ष पर इस्लाम का प्रभाव परिलक्षित होता है।

 

वस्तुतः, ज्ञानाश्रयी काव्यधारा भक्ति आन्दोलन की ही एक शाखा है जिसका नेतृत्व उच्‍चवर्ग के शिक्षित लोगों द्वारा नहीं, अपितु निम्‍न वर्ग के अशिक्षित लोगों द्वारा किया गया। चूँकि उच्‍चवर्गों द्वारा स्थापित मन्दिरों-मूर्तियों तक निम्‍न वर्ग की पहुँच का निषेध किया गया था, सन्तों द्वारा मूर्तिपूजा, मन्दिरों की उपेक्षा एवं जातिवाद का विरोध स्वाभाविक ही था।

  1. ज्ञानाश्रयी काव्यधारा के प्रमुख कवि एवं उनका काव्य

 

ज्ञानाश्रयी काव्यधारा के प्रमुख कवियों का सामान्य परिचय इस प्रकार है –

 

(क) नामदेव: ज्ञानाश्रयी काव्यधारा की परम्परा की नींव डालने का श्रेय नामदेव को जाता है। मराठी में लिखे अभंगों के अतिरिक्त हिन्दी में लिखी इनकी अनेक रचनाएँ मिलती हैं। ज्ञानदेव की प्रेरणा से ही नामदेव निर्गुणोपासक सन्त बने थे। गुरुग्रन्थ साहब में इनके साठ से अधिक भजन संकलित हैं। इन्होंने निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप-निरूपण, कर्मकाण्ड के खण्डन एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता के अतिरिक्त ज्ञानी सन्तों की श्रेष्ठता सिद्ध की –

 

हिन्दू अन्धा तुरका काना दूवो तें ज्ञानी सयाना।

हिन्दू पूजे देहरा, मुसलमान मसीद।

नाभा सोई सेइया जहँ देहरा ना मसीद।

कबीर ने भी नामदेव को गुरुतुल्य माना है –

गुरुप्रसाद जैदेव नामा।

भगति के प्रेमी इनहीं है जाना।

 

(ख) कबीर : भारतीय धर्मसाधना के इतिहास में कबीर एक महान् विचारक एवं प्रतिभाशाली कवि हैं, जिन्होंने शताब्दियों की सीमा पार कर आजतक जनता का पथ आलोकित किया है।

कबीर के जीवन के सम्बन्ध में अनेक काल्पनिक बातें गढ़ ली गई हैं। उनका जन्म काशी में हुआ था। कबीर जुलाहा थे, उन्‍होंने अपनी रचनाओं में अपने को जुलाहा कहा है।

 

कबीर की मुख्य रचना बीजक है, जिसके तीन खण्ड हैं – साखी, सबद तथा रमैनी। साखी दोहे हैं जिनमें जीवन के अनुभवों को साक्षी/साखी रखा गया है। ‘सबद’ पद हैं। श्‍लोक-चौपाई शैली में हैं। कबीर के रचना-व्यक्तित्व के दो पक्ष हैं – जब वे जातिपाँति, छुआछूत, पूजा-नमाज, धार्मिक कर्मकाण्डों, कठिन योगसाधनाओं की हँसी उड़ाते हैं तथा उनपर कटु प्रहार करते हैं –

 

कण्ठी बाँधे हरि मिले तो कबिरा बाँधे हेंगा।

* * *

पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पुजूँ पहाड़।

* * *

मन ना रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा

* * *

अरे इन दोउन राह न पाई।

हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी तुरकन की तुरकाई।

जब वे परम प्रेम में डूबकर दाम्पत्य जीवन के प्रतीकों के माध्यम से अपना प्रेम प्रकट करते हैं –

हरि मोरा पीऊ मैं हरि की बहुरिया।

* * *

कबिरा देखत दिन गया, निसि भी देखत जाई।

बिरहिणी पीउ पावे नहीं, जियरा तलपे माई।

 

इस रूप में कबीर में दिव्य प्रेम, व्यापक करुणा, गहरी विरहानुभूति एवं सर्वहित की भावना मिलती है।कबीर ने खुद लिखा है कि वे पढ़े-लिखे नहीं हैं – ‘मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहीं हाथ।’ तथापि उनके नाम पर लगभग पैंसठ पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें कई अप्रामाणिक एवं विवादग्रस्त हैं।

 

कबीर ने श्रम को महत्त्व दिया था। वे स्वयं गृहस्थ थे। उनकी पत्‍नी का नाम था लोई। उनका एक पुत्र कमाल भी था। सम्भवतः वह कबीर से भी ज्यादा तार्किक एवं क्रान्तिकारी विचारों का था। कबीर के यहाँ शास्‍त्रज्ञान या पाण्डित्य का महत्त्व नहीं था। कहते हैं – ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय।’ उन्होंने संस्कृत की भी भर्त्सना की है –

 

संस्कीरत है कूप जल भाषा बहता नीर

उन्होंने अपने को पूरबी कहा और अपनी भाषा को भी पूरबी कहा। पूरबी अर्थात् भोजपुरी भाषा जो बनारस से पूरब बोली जाती है। कबीर ने पुस्तकीय ज्ञान से अनुभव-जन्य ज्ञान को श्रेष्ठ कहा है –

तू कहता कागद की लेखी।

मैं कहता हूँ आँखिन देखी।।

 

कबीर एक साथ समाज सुधारक, कवि, शास्‍त्र-विरोधी एवं रहस्यद्रष्टा थे। वे अत्यन्त प्रगतिशील विचार के थे। वे आने वाली शताधिक पीढ़ियों के प्रेरक हैं। निरक्षर होकर भी ज्ञान, वैराग्य, योग, भक्ति, हठयोग आदि का जो स्वरूप उन्होंने स्थिर किया, वह अत्यन्त सुबोध है।

 

(ग) रैदास : रैदास भी निम्‍न कुलोत्पन्‍न सन्त थे तथापि अपनी उत्तम जीवन-शैली, उत्कृष्ट साधना पद्धति तथा प्रशंसनीय आचरण के कारण वे धर्म-साधना के इतिहास में सादर स्मरण किए जाते हैं। इनका जन्म भी काशी में हुआ था। यह भी प्रसिद्ध है कि वे मीराबाई के गुरु थे। रैदास विवाहित थे तथा उनकी पत्‍नी का नाम लोना था। प्रसिद्ध है कि सिकन्दर लोदी के आमन्त्रण पर वे दिल्ली भी गए थे।

 

कबीर की भाँति रैदास भी कलापक्ष की अपेक्षा प्रतिपाद्य को अधिक महत्त्व देते हैं। इनके लिए भी ब्रह्म अनुभूति एवं जिज्ञासा का विषय था। वाह्याचारों का विरोध करते हुए उन्होंने आभ्यन्तरिक साधना को महत्त्व दिया –

 

अब कैसे छूटे राम रट लागी।

 प्रभु जू तुम चन्दन हम पानी।

 जाकी अंग-अंग बास समानी।

 

हजारीप्रसाद द्विवेदी का कहना है –‘अनाडम्बर, सहजशैली और निरीह आत्म समर्पण के क्षेत्र में रैदास के साथ कम संतों की तुलना की जा सकती है।’ (हिन्दी साहित्य, पृ. 139)

 

(घ) नानक देव: नानक-पन्थ के प्रवर्तक नानकदेव (सन् 1469-1538) एक ऐसे इतिहास-प्रसिद्ध सन्त हैं, जिनके जीवनकाल में ही उनके सम्प्रदाय ने एक व्यापक संगठन का रूप ले लिया था। राजनीतिक परिस्थितियों के कारण उनका सम्प्रदाय और भी व्यापक एवं सुदृढ़ होता चला गया। वे समन्वयशील एवं उदार हृदय के थे। उनमें अद्भुत संगठनशक्ति और दूरदर्शिता थी। लाहौर में जन्में नानक के पिता का नाम कालूचन्द एवं माता का नाम तृप्‍ता था। बचपन से ही वे सन्त-सेवा और ईश्‍वर-भक्ति की तरफ उन्मुख रहे। उनके दो पुत्र थे – श्रीचन्द्र एवं लक्ष्मीचन्द्र। पुत्र श्रीचन्द्र ने उदासी सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। चूँकि उन्होंने बहुत ज्यादा भ्रमण किया था और सभी धर्मों के साधु-सन्तों से उनकी भेंट हुई थी, इसलिए उनकी विचारधारा व्यावहारिक एवं अनुभूति पर आश्रित है। धार्मिक रूढ़िवाद, जातिवाद एवं धर्म के संकीर्ण स्वरूप पर उन्हें आपत्ति थी। यद्यपि उनके मन में ईश्‍वर के निर्गुण रूप के प्रति श्रद्धा है, तथापि वे अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति भी आदर का भाव रखते है। कबीर की भाँति उनके काव्य में भी जीवन के अनुभव का विस्‍तार है। उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं – जपुजी, असादीवार, रहिरास और सोहिला। उन्होंने पंजाबी, हिन्दी एवं फारसी बहुल पंजाबी भाषा का प्रयोग किया है।

 

                              सुखी बड़ा आखे सब कोई।

                              केवड़ा बड़ा डीठ होई।

                              कीमति पाई न कहिया जाई।

                              कहने वाले तेरे रहे समाई।

                              आँखनवाला किया विचारा।

                              सिफती भरे तेरे भण्डारा।

                              जिसे तू देहि तिसे कि आचारा

                              नानक सच सँवारण हारा।

 

(च) धर्मदास: कबीर के अनुयायी धर्मदास या धरमदास वैश्य की बड़ी ख्याति है। उनके अनुयायियों की शाखा धरमदासी शाखा कहलाती है। उन्होंने ही कबीर की बानियों का संग्रह ‘बीजक’ के रूप में किया। उनके पदों में गहन भक्ति का विकास दिखाई देता है। उनकी रचनाएँ कम परन्तु सरल भाव की हैं। उनकी रचनाओं का एक संग्रह धरमदास की बानी के नाम से प्रकाशित है। उनका एक पद बहुत प्रसिद्ध है –

                             

                               मीतवा मड़ैया सूनी करि गैलो।

                              अपने बलम परदेश निकरि गयो

                              हमरा के किछुवो ना गुन दै गैलो।

                              जोगिन होके मैं बन-बन ढूढौं

                              हमरा के विरह वैराग दै गैलो।

                              संग के सखी सब पार उतरि गैली

                              हम धनि ठाठ अकेलि रहि गैली।

                               धरमदास यह अरजु करत है

                              सार सबद सुमिरन दै गैलो।

 

(छ) दादू दयाल: सन्त दादू का जन्म अहमदाबाद में सन् 1544 में हुआ था। उनकी जाति ब्राह्मण, धुनिया, चमार आदि कही जाती है। उनके शिष्य रज्जब ने उन्हें धुनिया माना है। राजस्थान में उनकी गद्दी स्थापित है।दादू के काव्य में ईश्‍वर की व्यापकता, सतगुरु की महिमा, जाति पाँति का निराकरण, हिन्दू-मुस्लिम एकता, संसार की अनित्यता, नाम-जप की महिमा आदि की प्रमुखता है। वे सीधे सरल सन्त थे। उनकी वाणी में कबीर वाली अक्खड़ता एवं आक्रामकता नहीं है। खण्डन-मण्डन एवं वाद-विवाद में उनकी रुचि नहीं है। कबीर की मस्ती की तुलना में उनके स्वभाव में विनय मिश्रित मधुरता है। सच्‍ची साधना एवं विनम्रता के कारण दादू पन्थ का खूब प्रचार हुआ। उनके पन्थ में रज्जब, सुन्दरदास, जनगोपाल दास आदि सन्त-साधक एवं कवि उत्पन्‍न हुए।

 

निर्गुण सन्त होकर भी दादू सगुण रूप को मान्यता देते थे। कहा जाता है कि उनके बीस हजार पद एवं वाणियोंमें से आज बहुत कम उपलब्ध हैं। उनकी भाषा में सहजतापूर्ण गाम्भीर्य है –

 

दादू पद जड़ि क्या पाइए, साखी कहे का होय।

सती सिरोमनी साइयाँ, तत न चीन्हा कोय।

असत मिलई अन्तर पड़ई, भाव भगति रस जाई।

साधु मिलई सुख उपजई, आनन्द भंग नवाई।

 

(ज) मलूकदास (सन् 1574-1682): मलूकदास का जन्म उस समय हुआ,जब भारतवर्ष में अकबर के साम्राज्य का प्रमुख सहयोगी-समर्थक हिन्दू-जाति हो चुकी थी। मलूकदास जाति के खत्री थे। वे बाल्यावस्था से ही वैरागी थे। किसी सांसारिक काम में उनका मन नहीं लगता था। उनके करीब बारह ग्रन्थ हैं, जिनमें ज्ञानबोध, ज्ञानपरोक्ष, विभवविभूति, भक्त बच्छावली, विरुदावली गुरु-प्रताप तथा रतनखान प्रसिद्ध हैं। इनमें कवि ने योग, ज्ञान, निर्गुण भक्ति एवं वैराग्यादि का स्वरूप विवेचन किया है। कुछ पुस्तकों में अवतारों और चरित्रों का वर्णन है। उन्होंने अवधी और ब्रजभाषा में काव्य रचना की है।

 

                             कहत मलूक जो बिनसिर खोवे सो यह रूप बखाने।

                              या नइया के अजब कथा कोई विरला केवल जाने।

                              कहत मलूका निगुन के गुन कोई बड़भागी गावे।

                              क्या गिरही और क्या वैरागी, जेहि हरि देई सों पावे।

 

मलूकदास की गद्दियाँ इलाहाबाद, जयपुर, गुजरात, मुलतान, पटना, नेपाल आदि स्थानों पर हैं। उनकी कुछ रचनाएँ बोलचाल की हिन्दी में भी हैं –

 

अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम।

दास मलूका कह गए सबके दाता राम।

***

जहाँ जहाँ बच्छा फिरे तहँ तहाँ फिरै गाय।

कह मलूक जहँ सन्त जन, तहाँ रमैया जाय।

 

(झ) सुन्दरदास: सुन्‍दरदास का जन्‍म सन् 1596 ई. में जयपुर के निकट दौसा में हुआ था। दादू पन्थ के सर्वाधिक शिक्षित एवं विद्वान कवि सुन्दरदास जाति के वैश्य थे। वे बाल्यकाल में ही दादू के शिष्य हो गए थे। वे ग्यारह वर्ष की उम्र में काशी आ गए तथा इन्होंने साहित्य एवं दर्शन का अध्ययन किया। अनेक भाषाओं के जानकार सुन्दरदास ने काफी देशाटन किया था। उनकी रचित बयालीस पुस्तकें कही जाती हैं, जिनमें ज्ञान समुद्र  तथा सुन्दरविलास प्रमुख हैं। प्रायः सन्तकवियों का कलापक्ष अपरिपक्‍व रहा है, पर सुन्दरदास के साथ ऐसा नहीं है।

 

उनके अतिरिक्त रज्जबदास, पल्टू साहब, प्राणनाथ, धरनीदास, जगजीवनदास, चरणदास, सहजोबाई, दयाबाई आदि इस परम्परा के प्रमुख कवि हैं। आचार्य शिवपूजन सहाय की पुस्तक हिन्दी साहित्य और बिहार में दरियासाहब, टेकमनराम, मिनकराम, बालखण्डीदास, भीखमराम आदि को इसी परम्परा में माना है। डॉ.रामकुमार वर्मा ने पीपा, सेन, घना आदि अनेक कवियों की लम्बी परम्परा होने का उल्लेख किया है।इस प्रकार तेरहवीं से बीसवीं सदी तक अविच्छिन्‍न रूप से बने रहना तथा सम्पूर्ण भारत में विस्तृत होना इस काव्यधारा की लोकप्रियता का प्रमाण है।

  1. ज्ञानाश्रयी काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

 

हिन्दी का भक्तिकाव्य एक विशेष सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति की उपज है। कुछ प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जो समस्त भक्तिकाव्यधारा में उपस्थित हैं, परन्तु प्रत्येक काव्यधारा में कुछ विशिष्ट प्रवृत्तियाँ भी हैं, जो उनकी निजी पहचान कराती हैं। ज्ञानाश्रयी काव्यधारा की सुदीर्घ परम्परा की कुछ विशेष प्रवृत्तियाँ निम्‍नलिखित हैं –

 

(1) सहज अनुभूति का काव्य : ज्ञानाश्रयी काव्यधारा भावनात्मक एवं अनुभूतिप्रवण जनकाव्य है, जिसका प्रेरणास्रोत सामान्य जन का कल्याण था। इन कवियों ने जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों में शोषित और पीड़ित-प्रताड़ित मानव की समस्त परिस्थितियों एवं भावनाओं का गम्भीर चित्रण किया है। यह काव्यधारा इतनी अनुभव-पूर्ण है कि उसमें तत्कालीन जन-जीवन का पूर्ण बिम्ब उपस्थित हो गया है। यह काव्यधारा निराशा, वासना, प्रतिशोध और प्रतिहिंसा के अन्धकार में भटकते मानव-समाज को प्रेरणा और प्रकाश देने वाला है।इस काव्यधारा के अधिकांश कवि समाज के निम्‍न वर्ग या सामान्य वर्ग से आते थे जिनके लिए शास्‍त्र वर्जित था। इसलिए इन्होंने आत्मानुभव को प्रधानता दी। इनका मूल उद्देश्य था – अशिक्षित जनता में सत्य का निरूपण करना, कथनी-करनी में तारतम्य पर बलदेना तथा ‘नाम’ के माधुर्य को घर-घर पहुँचाना। उदात्त अनुभूति की हृदयस्पर्शी व्यंजना इस काव्यधारा की अनन्य विशेषता है। कबीर की उक्ति, ‘पण्डित और मशालची दोनों सूझे नाहि, औरन को करे चाँदना आप अंधेरे माँहि‘  से इसी कथन की पुष्टि होती है।

 

(2) सन्तों का निर्मल व्यक्तित्व : इस परम्परा से सम्बन्धित कवियों का व्यक्तित्व निम्‍न जाति का होने पर भी आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। उनमें किसी प्रकार की आत्महीनता नहीं है। इस विचारधारा के अनुसार क्षुद्र से क्षुद्र व्यक्ति में भी ब्रह्म का अस्तित्व है। जैसा सत्संग, ज्ञान, अनुभव इन्हें मिला था, उसने इनके व्यक्तित्व को पूर्णतः शोधित, परिष्कृत एवं निर्मल बना दिया था।

 

(3)सहज जीवन का समर्थन: सिद्धों एवं नाथों की परम्परा से सम्बद्ध होते हुए भी ये लोकपद्धति के विरोधी नहीं थे। अस्वाभाविक चमत्कार एवं कठिन साधना से वे ऊपर उठे हुए थे। उन्होंने अध्यात्म का ऐसा मार्ग खोजा, जो समाज की चारदीवारी की मर्यादा के भीतर रहकर अग्रसर होता था। किसी सन्त ने गृहस्थ धर्म का विरोध नहीं किया, गृह-त्याग का समर्थन भी नहीं किया, भोगवाद का समर्थन नहीं किया। वेद ही अन्तिम सत्य नहीं है, वर्णाश्रम एवं जातिवाद व्यर्थ है, सत्य, अहिंसा एवं सदाचार के अनुभवों से ही आत्मोन्‍नयन होता है, यह इनका सहज पन्थ था। वैष्णव-भक्तिधारा से भी उन्होंने प्रेमाभक्ति एवं नाम-स्मरण को ग्रहण कर लिया जो सहज साधना के अंग थे। तात्पर्य यह कि उन्होंने विभिन्‍न धर्मों-मतों का सामान्यीकरण या विज्ञानीकरण करते हुए धर्म को एक विश्‍वधर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया।

 

(4) ज्ञान का स्वाभिमान: अपनी सामाजिक स्थिति के कारण कुछ कवियों में उग्रता आई है, तो कुछ कवियों में विनम्रता। इन कवियों को चूँकि शिक्षा नहीं मिली थी, इन्होंने अनुभव को ज्ञान से श्रेष्ठ बताया तथा अपने अर्जित ज्ञान पर गर्व प्रदर्शित किया। उनके ज्ञान-गर्व ने चमत्कारपूर्ण रूपकों, उक्तियों, उलटबाँसियों के रूप में अभिव्यक्ति पाई है। यह ज्ञान का गर्व ही है, जिसके कारण कबीर पूछ सकते हैं –

 

जोतू बाभन बाभिनी जाया और राह ते क्यों नहीं आया।

जोतू तुरुक तुरुकनी जाया पेटे काहे ना सुन्‍नत कराया।

 

और दोनों सम्प्रदायों से उत्तर देते नहीं बनता। यह काव्यधारा ज्ञान के द्वारा पारस्परिक एकता की भावना में वृद्धि करती है।

 

(5) ब्रह्म-निरूपण: इस धारा के कवियों ने ब्रह्म, जीव, जगत, माया आदि विषयों पर विस्तार से लिखा है। यह ठीक है कि इनकी वाणी अटपटी एवं अस्पष्ट है, किन्तु इस गम्भीर विषय पर सांकेतिक रूप से प्रकाश अवश्य डालती है। इन कवियों का ब्रह्म नित्य सुख, अरूप, अव्यक्त, अनाम, अजर, अमर और सर्वव्यापी है –

 

अलख निरंजन लखै न कोई/ निर्भय निराकार है सोई।

सुनि अस्थल रूप नहीं रेखा/ दिस्ट अदिस्ट छिप्यो नहीं रेखा।

कबीर

जब पूरन ब्रह्म विचारिए, तब सकल आत्मा एक।

***

काया के गुण देखिए तो नाना बरन अनेक।।

 

कबीर के लिए राम दशरथ-सुत नहीं हैं। वे ब्रह्म स्वरूप हैं। निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं। अवतारवाद में सन्तों की आस्था नहीं है।

 

(6) माया-निरूप: ज्ञानाश्रयी कवियों ने माया पर बहुत कुछ लिखा है। मिथ्या ज्ञान ही माया है। रस्सी में सर्प का ज्ञान भ्रम या माया है। कबीर ने माया के कई रूपों का वर्णन किया है। माया सृष्टि का कारण है, अविद्या है, शक्ति है, सांसारिक सम्बन्धों की भी जननी है। मैं और मेरा का बोध माया ही देती है। माया दुःखों की जड़ है। यह ज्ञान विरोधी है। यह ‘महाठगिनी’ है। यह सत्मार्ग से विचलित करती है –

 

”कबीर माया मोहिनी जैसे मीठी खाँड़।”

”माया महा ठगिनि हम जानी”

कबीर के अनुसार, माया वासना को जन्म देती है। ब्रह्म में जो माया है, पिण्ड में वही कंचन है।

 

(7) जीव और जगत: सभी ज्ञानाश्रयी कवियों ने जीव और जगत के सम्बन्ध में लिखा है। जहाँ वे जीवन-जगत को ब्रह्म का अंश मानते हैं, वहाँ वे अद्वैतवाद के नजदीक हैं। कबीर कहते हैं – समस्त जीवात्मा एक है, परन्तु रूपाकार में पृथक है। यानी जल एक ही तत्त्व है, भले उसका नाम कुछ भी हो या किसी भी आकार में रखा हो। स्वर्ण मूलतः एक है, उसके आभूषण भले अलग-अलग हैं –

 

पानी ही तें हिम भया, हिम ह्वै गया बिलाय।

जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाय।

 

कबीर आदि सन्त मानते हैं कि जगत की उत्पत्ति ब्रह्म से होती है और नष्ट होकर जगत उसी ब्रह्म में समाहित हो जाता है। तात्पर्य कि सन्तों की जगत सम्बन्धी अवधारणा अद्वैतवादियों जैसी है। कबीर जगत को स्वप्‍न कहते हैं –‘जीवन सुपिन समान।’

 

(8) गुरु-महिमा का आख्यान : समस्त ज्ञानमार्गी काव्यधारा में गुरु महिमा को श्रेष्ठ साधन कहा गया है। भक्त कवियों ने भी गुरु को महत्त्व दिया है, मगर सन्त कवि तो गुरु को गोविन्द ही मानते हैं, क्योंकि वही ज्ञान देता है या पहचान कराता है कि यह ईश्‍वर है। संसार के बन्धनों से मुक्ति के लिए वैराग्य चाहिए। वैराग्य के लिए मनोनिग्रह चाहिए। इस मनोनिग्रह के लिए गुरु कृपा बहुत आवश्यक है। सद्गुरु ही इनके लिए ईश्‍वर तुल्य है।

 

(9) रहस्यवाद, नाम-स्मरण एवं प्रेम भावना: इन कवियों में अनेक रहस्यात्मक उक्तियाँ मिलती हैं, जो शंकर अद्वैत तथा नाथ-साधना का प्रभाव है। सन्तकाव्य में अलौकिक एवं गूढ़ प्रेम की व्यंजना हुई है – यही इनका रहस्यवाद है। कबीर के इस प्रसिद्ध दोहे पर शंकर अद्वैत का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है –

 

                              जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी।

                              फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह कथ कहै गियानी।

 

तर्क, जिज्ञासा, विस्मय एवं तत्त्वानुभूति इनके रहस्य चिन्तन के अंग हैं।सन्तकाव्य में रहस्यवाद के दो रूप हैं – हठयौगिक रहस्यवाद और सूफीमत प्रभावित प्रेम संलक्षण रहस्यवाद। हठयौगिक रहस्यवाद में कुण्डलिनी, चक्र, अनहद, नाद, इंगला-पिंगला आदि की चर्चा मिलती है। प्रायः रहस्यवाद को प्रतीकों द्वारा व्यक्त किया गया है –

 

रस गगन गुफा में अजर झरे।

अजपा सुमिरन जाप करे।

बिनु बाजा झनकार उठे जहँ समुझि परै जब ध्यान धरे।

बिनु चन्दा उजियारी दरसे जहँ तहँ हंसा नजरि परे।

आकासे मुख औधां कुआँ……….” 

 

(10) सूफियों के प्रेमदर्शन का प्रभाव: सूफी परमात्मा को प्रेमस्वरूप मानते हैं और उसे प्रेम के माध्यम से ही प्राप्‍त करते हैं। सूफियों के प्रेमदर्शन का प्रभाव सन्तकवियों पर भी पड़ा है। तथापि सन्तों की प्रेम पद्धति भारतीय ही रही है। अर्थात्, उन्होंने परमात्मा को प्रियतम माना है और स्वयं को प्रियतमा। हरि मोर पीउ मैं हरि की बहुरिया कहते समय कबीर इसी प्रेम सम्बन्ध की बात करते हैं। इस स्थिति के चित्रण के लिए संयोग एवं वियोग – दोनों के चित्र खड़े किए गए हैं। संयोग की अपेक्षा वियोग चित्रण में मर्मस्पर्शिता अधिक है।

 

(11) वैष्णव-चिन्तन का प्रभाव: ज्ञानाश्रयी काव्य परम्परा पर वैष्णव दर्शन एवं चिन्तन का भी प्रभाव है। कबीर ने बार-बार वैष्णवों की प्रशंसा की है और शाक्तों की निन्दा की है। वस्तुतः इन सन्तों ने राम, गोपाल आदि नामों के अतिरिक्त भक्ति भावना भी वैष्णवों से ली है। अहिंसा का तत्त्व भी वैष्णव सम्प्रदाय का ही है –

 

बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल।

जो नर बकरी खात हैं ताको कवन हवाल।

 

(12) नारी के प्रति कठोरता: प्रायः सभी सन्त कवि नारी के प्रति असहिष्णु हैं। उन्होंने उसकी निन्दा की है। सम्भवतः उन्होंने नारी की आसक्ति के कारण बौद्ध धर्म के भिक्खुओं तथा नाथों-सिद्धों के पतन को देखा था। कबीर कहते हैं –

 

नारी तो हमहूँ करी, तब ना किया विचार।

जब जानी तब परिहरी, नारी महाविकार।

मगर उसी कबीर ने चरित्रवान एवं सती नारियों की प्रशंसा भी की है।

 

(13) भाषा एवं शैलीगत प्रवृत्तियाँ :इन सभी कवियों ने प्रधानतः मुक्तक-काव्य लिखा है। इनमें दोहा और पद की प्रधानता है। इनके पद गेय हैं। लोकप्रियता के लिए इन्होंने चाँचर, फाग, हिण्डोला आदि लोकगीतों के लय में काव्य रचना की है।

 

सभी ज्ञानाश्रयी कवियों ने भोजपुरी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली, राजस्थानी आदि हिन्दी की बोलियों का प्रयोग किया है। इन सन्तों की मिली-जुली भाषा को ‘सधुक्‍कड़ी भाषा’ कहा गया है।

 

सन्त कवियों ने दीपक, कमलिनी, सरोवर, जल, नागिन, नाग, हंस, भौंरा, वृक्ष, पक्षी आदि प्रतीकों का प्रयोग किया है। उलटबाँसी भी इनकी एक शैली है।

 

इनकी भाषा में रस, छन्द, अलंकार पर विशेष ध्यान नहीं है। अलंकारों का प्रयोग सायास नहीं, बल्कि स्वाभाविक है। दोहा, चौपाई, सोरठा इनके प्रिय छन्द हैं।

  1. निष्कर्ष

 

ज्ञानाश्रयी काव्यधारा का लोकपक्ष अत्यन्त मजबूत एवं प्रभावशाली है। इस काव्‍यधारा के कवि लोक, परलोक दोनों को भी महत्त्व देते हैं। एक ओर वे सांसारिक भोगविलास की निन्दा करते हैं और जीवन की नश्‍वरता की बातें करते हैं, तो दूसरी तरफ सामाजिक जीवन में व्याप्‍त स्खलन, कटुता, विषमता आदि का विरोध करते हैं। इन कवियों ने श्रम का महत्त्व प्रतिपादित किया तथा हर सड़ी-गली मान्यता का विरोध किया। यह सही अर्थों में जन-काव्य है, जनोन्मुख काव्य है, प्रजातान्त्रिक मूल्यों का काव्य है और दलित अस्मिता का काव्य है। इनका सबसे प्रमुख देय है – समाज की विषमता का विरोध तथा मानववाद की स्थापना। धर्म एवं जाति को इन कवियों ने साहित्य से निर्वासित करने का सफल प्रयास किया। इन्होंने आम आदमी में गौरव एवं स्वाभिमान भर दिया।

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वेब लिंक

 

  1. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AF%E0%A5%80_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BE
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  3. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A3_%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE:_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AF%E0%A5%80_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2_/_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2
  4. https://www.youtube.com/watch?v=VeVGp2lJRno