16 साहित्य की स्त्री दृष्टि
रोहिणी अग्रवाल
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–
- साहित्य की स्त्री दृष्टि समझ सकेंगे।
- स्त्री दृष्टि से विश्लेषित हिन्दी साहित्य की पुनर्व्याख्या समझ सकेंगे ।
- स्त्री साहित्य की प्रमुख मान्यताओं से अवगत हो सकेंगे।
- स्त्री साहित्य में अभिव्यक्त स्त्री की मनोकांक्षा से परिचित हो सकेंगे ।
- स्त्री दृष्टि की सीमाएँ को जान सकेंगे।
- प्रस्तावना
‘साहित्य की स्त्री दृष्टि’ का सीधा अर्थ है साहित्य को स्त्री के नजरिए से देखना-परखना। यह पदबन्ध साहित्यिक परिदृश्य में रचयिता एवं पाठक के रूप में पुरुष के समानान्तर स्त्री की सक्रिय उपस्थिति का स्वीकार है। साहित्य की स्त्री-दृष्टि का एक अर्थ लिंग (जेण्डर) के आधार पर साहित्य-पाठ की दो दृष्टियों का अस्तित्व भी है । एक दृष्टि वह है जो साहित्य में स्त्री को पुरुष-रचनाकारों के माध्यम से देखती-समझती और चित्रित करती है। साहित्य-पाठ की दूसरी दृष्टि स्त्रियों द्वारा स्त्री, पुरुष, समय, समाज और साहित्य को विश्लेषित करने तथा इनके अन्तर्सम्बन्ध को गुनने-बुनने की दृष्टि है। यह दृष्टि रचना और पाठ के दौरान निरन्तर द्वन्द्वग्रस्त दिखाई देती है। लेखन और पठन में यह दृष्टि पुराने और नए साहित्य को स्त्री के नजरिए से देखती है। इस तरह यह दृष्टि पुराने साहित्य का पुनर्मूल्यांकन करने की कोशिश करती है।
- स्त्री दृष्टि : अर्थ व अवधारणा
साहित्य की स्त्री दृष्टि एक वैश्विक वैचारिक अवधारणा है। यूरोप में यह अवधारणा उग्र रूप में शुरू हुई। भारत में यह अवधारणा देर से और सौम्य रूप में आई। भारत में स्त्री को लेकर सिद्धान्त और व्यवहार पक्ष में काफी अन्तर रहा है। इसलिए शुरू में पुरुष विचारकों ने ही स्त्री के पक्ष में आवाज उठाने की कोशिश की। बाद में जैसे-जैसे स्त्री की भागीदारी बढ़ती गई, स्त्रीवादी सोच का रूप भी बदलता गया। खासकर तब, जब भारत के महिला लेखकों ने भी यूरोप के स्त्री विमर्शकारों की तरह देह-मुक्ति से खुद को जोड़ना शुरू किया।
स्त्री विमर्श चूँकि स्त्री अस्मिता को केन्द्र में लाकर उसे ‘मनुष्य’ रूप में समझे जाने की आवश्यकता पर बल देता है, इसलिए यह अनिवार्य रूप में समाज की विभिन्न संस्थाओं– परिवार, विवाह, धर्म, न्याय, मीडिया और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को स्त्री के सन्दर्भ में देखता है। मनुष्य की सभ्यता का इतिहास धीरे-धीरे पुरुष केन्द्रित होता चला गया। इस समाज में स्त्री का स्थान भी ‘गौण’ अथवा ‘अन्य’ हो गया। स्त्री, पुरुष के लिए एक वस्तु बन कर रह गई। उसके ‘होने’ की सार्थकता पुरुष की सहयोगी रूप तक सिमट गई।
राजनीतिक सत्ता एवं धर्म का संरक्षण पाकर इस सामाजिक हठधर्मिता ने कालान्तर में संस्कार का रूप ग्रहण कर लिया। इस प्रकार समाज स्त्री अस्मिता को स्वतन्त्र मनुष्य के रूप में न मान कर पुरुष की पूरक इकाई के रूप में मानने लगा। यह समय और समाज को एकांगी अथवा खण्डित दृष्टि से देखने और उसे ही स्वस्थ-समग्र दृष्टि, चिन्तन, दर्शन एवं इतिहास का नाम देने की हठधर्मिता का उदाहरण है।
साहित्य की स्त्री दृष्टि वर्चस्ववादी ताकतों के इस दृष्टि-दोष को दूर करने का प्रयास करती है। साहित्य की पुंसवादी दृष्टि जहाँ अपनी सुविधा और मनोरथ के अनुकूल स्त्री की सम्पूर्ण अस्मिता को परिभाषित करने का बौद्धिक-सांस्कृतिक प्रपंच है, वहीं साहित्य की स्त्री-दृष्टि स्त्री की आकांक्षाओं और संघर्ष का प्रतिबिम्ब है। यह दृष्टि अपनी बात कहने से पहले परम्परापोषित पूर्वाग्रहों को तोड़ने और पूरक पक्ष–पुरुष के भीतर स्त्री के प्रति संवेदनशीलता पैदा करने की माँग करती है। यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पुनरीक्षण का बीड़ा भी उठाती है। साहित्य की स्त्री दृष्टि चार रूपों में क्रियाशील दिखाई देती है :
- साहित्य में स्त्री की स्वाभाविक और सहज भावनाओं, अनुभूतियों को दर्ज करने का प्रयास
- पुरुष-दृष्टि से रचित साहित्य का पुनर्पाठ
- साहित्य-सृजन द्वारा अपनी मनोकांक्षाओं की अभिव्यक्ति
- लैंगिक पूर्वाग्रहों से मुक्त एक समग्र मनुष्य-समाज की निर्मिति का स्वप्न
- पुरुष-दृष्टि में स्त्री साहित्य
हिन्दी साहित्य मूलतः पुरुष-रचित साहित्य है। साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा में पुरुषों ने अपना दबदबा कायम रखा। दरअसल हिन्दी साहित्य की शुरुआत ही दरबारी-कवियों से हुई। हिन्दी के पहले बड़े कवि माने जाने वाले चन्द बरदाई एक दरबारी कवि ही थे।
आदिकाल से रीतिकाल तक की साहित्य-परम्परा में मीराबाई जैसी चन्द उल्लेखनीय स्त्री-रचनाकार ही साहित्येतिहास की पुस्तकों में दर्ज हैं। वे भी औसत पाठक की सहज-स्वाभाविक स्मृति से नहीं टकरातीं। वे या तो चैतन्य महाप्रभु की परम्परा में ‘पग घुंघरू बाँध’ नाचती भक्त हैं या सूरदास-रसखान की परम्परा में ‘बसौ मोरे नैनन में नन्दलाल’ का आह्वान करतीं कातर प्राणी। आश्चर्य नहीं कि भक्त कवयित्री की संज्ञा देकर हिन्दी की परम्परावादी आलोचना ने मीराबाई के समूचे साहित्यिक अवदान को अदृश्य कर दिया। लेकिन स्त्री-दृष्टि से देखा जाए तो मीरा राजसत्ता, कुल और पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देकर अपनी स्वतन्त्र राहों का अन्वेषण करने हेतु बाहर की विस्तृत दुनिया में निकली स्त्री-चेतना की पर्याय हैं। गत्यात्मकता, स्वतन्त्र निर्णय लेने की क्षमता और आर्थिक आत्मनिर्भरता के चलते वे पूरी पितृसत्तात्मक व्यवस्था से टकराने का माद्दा रखती हैं।
ठीक यही दृष्टि-दोष सुभद्रा कुमारी चौहान के साहित्यिक मूल्यांकन में भी दिखाई देता है। उन्हें मात्र एक कविता ‘खूब लड़ी मर्दानी’ तक सीमित कर राष्ट्रीय धारा की कवयित्री बना दिया जाता है। उनकी कहानियों का मूल्यांकन ठीक से नहीं होता। उन्होंने कहानियों के माध्यम से न केवल अपने युग की स्त्रियों के मानस को अभिव्यक्ति दी, बल्कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अमानुषिक रूप को भी उद्घाटित भी किया।
इसी तरह शिवरानी देवी को भी लिया जा सकता है। शिवरानी देवी ने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक प्रेमचन्द : घर में तथा कहानी संग्रह ‘नारी हृदय‘ में जिस निर्भीकता और ईमानदारी के साथ युग-सत्य और स्त्री-आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति दी, पुरुष की स्त्री विरोधी दृष्टि की पड़ताल करते हुए स्वयं स्त्रियों से स्वतन्त्र भारत के निर्माण में कूद पड़ने का आग्रह किया (‘समझौता‘ कहानी), वह उन्हें अनिवार्य रूप से प्रेमचन्द का विलोम बनाता है। किन्तु इस प्रखर एवं ऊर्जस्वी कहानीकार की हिन्दी साहित्य द्वारा निरन्तर उपेक्षा होती रही। आलोचना की स्त्री दृष्टि इस सांस्कृतिक प्रपंच को उघाड़ती है। गार्हस्थिक दायित्वों को पूरा करने के साथ-साथ साहित्य-साधना करने वाली शिवरानी देवी न केवल प्रेमचन्द की पत्नी के रूप में पहचानी जाती हैं, बल्कि उनके कृतित्व को प्रेमचन्द द्वारा छद्मनाम से रचित साहित्य कहने का दुस्साहस भी कर लिया जाता है।
सीमन्तनी उपदेश की रचयिता को ‘अज्ञात हिन्दू महिला’ कहना और उनकी रचना को जमींदोज़ कर देना साहित्य की पुंसवादी दृष्टि के समकक्ष स्त्री-दृष्टि को विकसित न होने देने की कुत्सित कोशिश है। बंगमहिला (मूल नाम राजेन्द्रबाला घोष) के साहित्यिक अवदान को प्रकाश और चर्चा में लाकर हिन्दी आलोचना बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में स्त्री-चेतना के विकास में साहित्य एवं समाज की भूमिका पर गौरवान्वित होती रही हैं। बावजूद इसके स्त्री-दृष्टि इस प्रश्न को केन्द्र में रख कर पुनर्विचार की माँग करती है कि क्यों अज्ञात हिन्दू महिला के अस्तित्व को जानबूझ कर नष्ट कर दिया गया और क्यों बंगमहिला को ‘विद्रोही’ स्त्री-चिन्तक के रूप में रेखांकित किया गया जबकि उनका समूचा लेखन पुरुष-व्यवस्था के परम्परागत स्वरूप के प्रति स्त्री की सहर्ष स्वीकृति का आख्यान है।
- स्त्री दृष्टि की सैद्धान्तिकी
साहित्य की स्त्री दृष्टि विश्लेषण की प्रक्रिया को पाठ और पुनर्पाठ की निरन्तरता से जोड़ती है। वह किसी रचना के मूल्यांकन को निरंकुशता में बाँध कर जड़ नहीं करती। वह पुरुष के सन्दर्भ में अपनी अस्मिता को पढ़े जाने का विरोध करती है। स्त्री-लेखन के लिए आत्माभिव्यक्ति जितनी जरूरी है उससे कहीं ज्यादा जरूरी है, स्त्री की स्वतन्त्र भास्वर अस्मिता पर कुठाराघात करते साहित्य और सांस्कृतिक संरचनाओं का विरोध। महादेवी वर्मा पुरुष रचित साहित्य में चित्रित स्त्री छवि के प्रति पहले ही असन्तोष व्यक्त कर चुकी हैं। ‘शृंखला की कडि़याँ’ में वे लिखती हैं– “पुरुष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परन्तु अधिक सत्य नहीं। विकृति के अधिक निकट पहुँच सकता है, परन्तु यथार्थ के अधिक समीप नहीं। पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान है, परन्तु नारी के लिए अनुभव। अतः अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र वह हमें दे सकेगी, वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरान्त भी शायद ही दे सके।” (घर और बाहर) वर्जीनिया वुल्फ भी कहती हैं कि पुरुष द्वारा रचित साहित्य में स्त्री के अन्तर्जगत को जानने की उत्सुकता नहीं, बल्कि उसे अपनी मर्दानगी की प्रयोगशाला बनाने की लालसा है। उनकी दृष्टि में पुरुष पुस्तकों को एक ऐसा मायावी दर्पण बना देना चाहते हैं जिनमें “मर्दों की आकृति को उसके स्वाभाविक आकार से दोगुना करके दिखलाने की जादुई और मजेदार शक्ति” हो। “इसलिए नेपोलियन और मुसोलिनी दोनों औरतों की हीनता पर इतना जोर देते हैं, क्योंकि अगर वे हीन नहीं होंगी तो वे बड़ा नहीं बन पाएँगे। … अगर वह सच बोलना शुरू कर देगी तो दर्पण की आकृति सिकुड़ने लगेगी… दर्पण वाली तस्वीर की महत्ता अपार है, क्योंकि इससे जीवनी-शक्ति भर जाती है, स्नायु-तन्त्र उत्तेजित हो जाता है। इसको हटा लीजिए और मर्द उसी तरह मर जा सकते हैं, जैसे नशेड़ी को कोकीन न दीजिए तो वह मर जाता है।” साथ ही वर्जीनिया वुल्फ इस तथ्य को रेखांकित करना भी नहीं भूलतीं कि “अगर मर्दों द्वारा लिखे कथा साहित्य के अतिरिक्त औरतों का कहीं और अस्तित्व न होता तो उनकी कल्पना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्राणी के रूप में की जाती; अत्यन्त विविधतापूर्ण; बहादुर और अधम; अद्भुत और घिनौनी; अनन्त रूपवती और चरम विकराल; उतनी ही महान जितने कि मर्द। कुछ का कहना है कि और भी ज्यादा महान। लेकिन यह औरत तो कथा साहित्य में है। वास्तविकता जैसा प्रोफेसर ट्रेवेलियन बताते हैं–उसे ताले में बन्द किया जाता था, पीटा जाता था और फर्श पर पटका जाता था। काल्पनिक रूप से उसका महत्त्व सर्वोच्च है; व्यावहारिक रूप से वह पूर्णतया महत्त्वहीन है। कविता में पृष्ठ दर पृष्ठ वह व्याप्त है, इतिहास से वह अनुपस्थित है। कथा साहित्य में वह राजाओं और विजेताओं की जिन्दगी पर राज करती है; वास्तविकता में वह उस किसी भी लड़के की गुलामी करती है, जिसके माँ-बाप उसकी उँगली में एक अँगूठी ठूँस देते हैं। साहित्य में कुछ अत्यन्त प्रेरक शब्द, कुछ अत्यन्त गम्भीर विचार उसके होठों से झरते हैं; असली जिन्दगी में वह कठिनाई से पढ़ पाती है, कठिनाई से बोल सकती है और अपने पति की सम्पत्ति है।” (वर्जीनिया वुल्फ, अपना कमरा)
यथार्थ और अभिव्यक्ति के बीच ठीक वही फाँक है जो हिन्दी के रीतिकालीन साहित्य में स्त्री को सौन्दर्य, विलास, सत्ता और समृद्धि की प्रतिमूर्ति बना कर प्रणयी पुरुष को उसका कृपाकांक्षी बनाती है। रीतिकालीन साहित्य रोज-रोज कठोर जीवन जीती स्त्री के संघर्ष और आकांक्षा का चित्रण नहीं करता। आधुनिक काल की सन्धि पर खड़ी स्त्री को ‘भाग्यवती’ के रूप में पहचान जरूर मिलती है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि आधुनिक काल स्त्री के प्रति समस्त पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों को छोड़ कर उसे चेतन एवं व्यक्तित्व सम्पन्न नागरिक बनाने में जुट गया है।
साहित्य की स्त्री-दृष्टि एक गहन तलस्पर्शी आलोचना-दृष्टि के साथ नवजागरण के एजेण्डे को समझ लेना चाहती है। सामाजिक कुरीतियों का विरोध, स्त्री शिक्षा का प्रसार एवं स्त्री की स्थिति बेहतर बनाने के लिए कानूनी अधिकारों का प्रावधान है– ऊपरी दृष्टि से नवजागरण आन्दोलन स्त्री-मुक्ति का पैरोकार दिखता है, किन्तु गहराई में उतरते ही पता चलता है कि यह मामूली परिवर्तन के साथ यथास्थितिवाद को बनाए रखने का उपक्रम है। स्त्री शिक्षा का पाठ्यक्रम लड़कों के पाठ्यक्रम से अलग सिलाई-बुनाई-कढ़ाई, मामूली गणित एवं व्याकरण तक सीमित रखना भर रह गया था। भारतेन्दु भी कहते हैं, “लड़कियों को भी पढ़ाइए किन्तु उस चाल से नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती है, जिससे उपकार के बदले बुराई होती है। ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल धर्म सीखे। पति की भक्ति करे और लड़कों को सहज में शिक्षा दे।” (भारतेन्दु समग्र, पृ. 1013) समाजसुधार आन्दोलन के समानान्तर सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद की लहर का जोर पकड़ना दरअसल भारतीय संस्कृति को अंग्रेजों से बचाने की आड़ में स्त्रियों को घर की चौहद्दी तक बाँधे रखने का सुनियोजित षड्यन्त्र है। इसलिए स्त्री-दृष्टि जब प्रेमचन्द, जैनेन्द्र कुमार, भगवतीचरण वर्मा, जैसे मानवतावादी स्त्री चिन्तकों की रचनाओं का अनुशीलन करती है, तो सहानुभूति की पहली परत उतरते ही ये रचनाकार स्त्री की सामाजिक-सांस्कृतिक हीनता की अवधारणा का पोषण करते नजर आते हैं।
- पुरुष बनाम स्त्री साहित्य
पुरुष-रचित साहित्य के स्त्री-पाठ के समानान्तर स्त्री-दृष्टि उसी युग में क्रियाशील स्त्री-पुरुष रचनाकारों का तुलनात्मक अध्ययन भी कर लेना चाहती है। बेशक उस दौर का अधिकांश स्त्री-लेखन (उदाहरणार्थ बंगमहिला, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा, उषादेवी मित्रा आदि) पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा दी गई दृष्टि से ही संचालित होता है, लेकिन स्त्रियों के मूलभूत मुद्दों और स्त्री-मानस की अभिव्यक्ति के निगूढ़तम क्षणों में वह अपनी नैसर्गिक ऊर्जा को अभिव्यक्त भी कर देता है। स्त्री-दृष्टि से साहित्य का पुनर्पाठ एक और तथ्य को प्रकाश में लाता है कि निबन्ध/सम्पादकीय में पुरुष रचनाकार सजग नागरिक के रूप में स्त्री-अधिकारों की पैरवी करते दिखते हैं, किन्तु अपने सर्जनात्मक साहित्य में पात्रों एवं घटनाओं के आपसी द्वन्द्व में वे अनजाने ही परम्परा पोषित पूर्वाग्रहों से संचालित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए विधवा विवाह के समर्थन में निबन्धकार भारतेन्दु की टिप्पणियाँ ‘नीलदेवी’ नाटक में विधवा विवाह के पक्ष-विपक्ष में आयोजित डिबेट का रूप ले लेती हैं। लेखक के लिए यह बेहद सुविधाजनक स्थिति है, क्योंकि अब उसे किसी एक पक्ष में खड़े होने की बाध्यता नहीं। इसके ठीक विपरीत उसी काल का स्त्री-लेखन ‘स्टैण्ड’ लेकर अपने मन्तव्यों को दृढ़ता एवं स्पष्टता के साथ पाठक तक सम्प्रेषित करता है। विधवा विवाह के सन्दर्भ में भारतेन्दु की दृष्टि का ढुलमुलपन उनकी ‘धर्मग्रहीता’ मल्लिकादेवी के उपन्यास कुमुदिनी (सम्भावित रचना काल सन् 1878-1880 के बीच) में डिबेट की व्यर्थता से ऊपर उठ कर कर्तव्य का रूप लेता है, जहाँ लेखिका अपनी विधवा नायिका का न केवल प्रेम-विवाह सम्पन्न कराती हैं, बल्कि विवाह के अनुष्ठानधर्मी उत्सव का परित्याग कर स्त्री जीवन को बन्दी बनाने वाली सांस्कृतिक अर्हताओं को अंगूठा दिखाती हैं। ठीक यही बात प्रेमचन्द के उपन्यास निर्मला और शिवरानीदेवी की कहानी साहस के लिए कही जा सकती है, जहाँ दहेज प्रथा एवं अनमेल विवाह के प्रतिकार के लिए उठी कलम एक कृति निर्मला में स्त्री को सहानुभूति देकर उसकी बेबसी को सींचती है, और दूसरी कृति साहस में उसे नायकत्व देकर स्वयं स्थितियों से टकराने और अपना रास्ता खोजने की दृढ़ता देती है।
स्त्री-दृष्टि से साहित्य का पाठ करने पर ज्ञात होता है कि साहित्य में भी स्त्रियाँ कठपुतलियाँ हैं, हाशियाग्रस्त हैं और ‘स्त्रियोचित मूल्यों’ की संवाहक हैं। एक अन्य तथ्य भी गौरतलब है कि समाज में पुरुष वर्चस्व के कारण सम्प्रेषण की भाषा पुंसवादी हो गई है। साहित्य में भी वह ठीक इसी रूप में अभिव्यक्त होती है। सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा झाँसी की रानी को ‘मर्दानी’ कहना जिस सक्रियता, दृढ़ता, गत्यात्मकता, निर्भीकता और नेतृत्वशीलता जैसे गुणों की ओर संकेत करता है, वे स्त्रियों के लिए आदर्श नहीं बताए गए हैं। यह ‘पुरुषार्थ’ है। जाहिर है इसकी रेंज से स्त्रियाँ पूरी तरह छूट जाती हैं। यहीं इस तथ्य का उल्लेख किया जाना भी अनिवार्य है कि जितनी भी गालियाँ समाज में प्रचलित हैं, वे स्त्रियों के अंगों या स्त्री-पक्ष के सम्बन्धियों को लेकर हैं, जो भाषिक स्तर पर समाज में स्त्री को घृणित और हीन बनाने के लिए काफी हैं।
स्त्री-लेखन स्त्री के तलघर को उसकी सृजनेच्छा के साथ बाहर लाता है। रिश्तों और साँसों की डोर में गुँथ कर जीवन जीते हुए वह पाती है कि परम्परा, संस्कृति और साहित्य जिन स्त्री-छवियों का आरोपण उस पर करते हैं, और उसकी सम्पूर्ण जीवन्तता को ‘सतीत्व’ में बाँध कर उसे पंगु बना रहे हैं, वह उसके चेतन-अवचेतन का सत्य नहीं है। वे लिखती हैं, क्योंकि आत्माभिव्यक्ति की अकुलाहट उसे राससुन्दरी देवी (बाँग्ला की पहली स्त्री-आत्मकथाकार) की तरह अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करना सिखाती है। वह पाती है कि तमाम आरोपित जड़ता के बावजूद जीवन और जगत के बारे में उसकी दृष्टि, सोच, सपने और असहमतियाँ हैं, जिन्हें सबके साथ साझा करना दूसरे के सन्दर्भ में अपने को समझे जाना भी है।
उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में रचित सीमन्तनी उपदेश, हिन्दू स्त्री का जीवन (पं. रमाबाई) और स्त्री-पुरुष तुलना (ताराबाई शिन्दे) जैसी कृतियाँ भारतीय धर्मग्रन्थों का विश्लेषण करते हुए उन्हें मूलतः स्त्री विरोधी भाषित करती हैं। महिमामण्डन के जरिए स्त्री का शोषण करते रहने के कुचक्रों का पर्दाफाश करते हुए पहली बार ये तीनों कृतियाँ स्त्री को ‘सती’ अथवा रीतिकालीन नायिका के कुहासे से मुक्त कर मनुष्य रूप में देखने का संस्कार देती हैं। सीमन्तनी उपदेश की रचयिता के तीखे-तुर्श तेवर परवर्ती स्त्री-साहित्य में आत्मान्वेषण की अकुलाहट बन कर उभरे हैं, जो समाज का ध्यान दो बिन्दुओं पर केन्द्रित करना चाहते हैं। एक, पितृसत्तात्मक व्यवस्था की संरचना, रणनीति एवं उद्देश्यों से परिचित होने की अनिवार्यता; ताकि स्त्रियों के साथ-साथ पुरुष भी समझ पाएँ कि उनकी मनुष्यता का आखेट कर आरोपित एवं एकांगी भूमिकाओं को उनकी समग्र अस्मिता पर चस्पाँ कर दिया गया है। दूसरे, इस तथ्य को रेखांकित किया जाना कि स्त्री-मुक्ति स्त्री द्वारा वर्जनाहीन उच्छृंखल जीवन की पैरवी नहीं है, बल्कि यह किसी एक व्यक्ति/संस्था/समाज के घनीभूत दबावों से मुक्त होकर एक संवेदनात्मक विवेकशीलता से जीवन जीने की सामंजस्यपूर्ण दृष्टि है।
कृष्णा सोबती के साहित्य में आकर यह स्त्री को ‘कामिनी’ (रतिसुख का सामान) छवि से मुक्त कर स्त्री-यौनिकता के सोशल-बायलॉजिकल सन्दर्भों में केन्द्र में लाती है। मृदुला गर्ग के माध्यम से वह मातृत्व और स्त्री-पुरुष के सन्दर्भ में स्त्री की आस्था और स्वायत्तता को उभारती है।
- स्त्री दृष्टि की सीमाएँ
दुर्भाग्यवश इक्कीसवीं सदी में वैचारिक दृष्टि से शून्य ऐसी युवा पीढ़ी का आविर्भाव कथा और कविता के क्षेत्र में हो चुका है जो बोल्ड लिख कर सनसनी के माध्यम से नाम कमाना चाहती हैं। जिस परिमाण में लेखिकाओं की बाढ़ आई है, उस परिमाण में स्त्री-प्रश्न पर समाज न संजीदा दिखाई देता है, न संवेदनशील। अपनी कामनाओं से संचालित यह स्त्री सिर्फ अपने लिए समस्त समाज-संस्थाओं और जीवन-मूल्यों में परिवर्तन चाहती है। जाहिर है, इस प्रक्रिया में वह पूरक दृष्टि से समय एवं समाज का पुनरीक्षण करने की बजाय एकांगी एवं खण्डित दृटि से अपने मनोवेगों की अभिव्यक्ति करने लगती है। स्त्री साहित्य को विमर्शों से ऊपर उठने की जरूरत है। स्त्री लेखन को देह केन्द्रित होने से बचने की जरूरत भी है। सस्ती लोकप्रियता के लिए सिर्फ ‘सेक्स’ को केन्द्र में रखकर लिखना स्त्री साहित्य के लिए खतरनाक है।
- निष्कर्ष
साहित्य की स्त्री दृष्टि समाज के पुनर्संस्कार का बीड़ा है। वह अपने आदर्श रूप में अर्धनारीश्वर की परिकल्पना का आख्यान है। लैंगिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर वह पूरे समाज में मनुष्य एवं नागरिक होने का बोध भर देना चाहती है। अर्धनारीश्वर की अवधारणा एक ध्रुव पर खड़े यथास्थितिवादियों/संस्कृतिवादियों की जड़ सोच पर कुठाराघात करती है तो दूसरी ओर दूसरे ध्रुव पर खड़े बोहेमियन स्त्रीवादियों की निरंकुशता का भी अस्वीकार है। ‘अर्धनारीश्वर’ शिव के पर्याय के रूप में नहीं, शिव और शक्ति, संवेदना और विवेक, स्त्री और पुरुष की संयुक्ति का रूपक रचता है जहाँ ‘मनुष्य’ स्वयं अपने भीतर संवेदना के स्तर पर स्त्री है, और निर्णयक्षमता के स्तर पर पुरुष। आत्मानुशासन तथा विवेक के साथ यह बदलती परिस्थितियों के अनुरूप अपनी दृष्टि को निरन्तर परिष्कृत करते रहने की दायित्वशीलता है।
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अतिरिक्त जानें
बीज शब्द
- साहित्य की स्त्री दृष्टि : स्त्री, उसकी समस्याओं और मनोभावों को केन्द्र में रखकर साहित्य को लिखने-पढ़ने और देखने की दृष्टि।
- विमर्श : किसी समस्या या विशेष मुद्दे को लेकर किया जा रहा वाद-विवाद-सम्वाद।
- अस्मिता :अपनी स्वतन्त्र पहचान।
पुस्तकें
- स्त्री चिन्तन की चुनौतियाँ, रेखा कस्तवार, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
- औरत : अस्मिता और यथार्थ, ज्ञानेन्द्र रावत (सम्पादक), कान्ती बुक सेन्टर, नई दिल्ली।
- आदमी की निगाह में औरत, राजेन्द्र यादव, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
- समकालीन कथा साहित्य,सरहदें और सरोकार, रोहिणी अग्रवाल, आधार प्रकाशन पंचकुला
- ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, सुधा सिंह, ग्रन्थ शिल्पी, नई दिल्ली।
- स्त्री उपेक्षिता, सिमोन दी बाउवा, अनुवाद, प्रभा खेतान, हिन्द पाकेट बुक्स, दिल्ली।
- Globalization and Feminist Activism, M.E. Hawkesworth, Rowman & Littlefield.
- Chris Beasley, What is Feminism?, New York : Sage.
- Bell Hooks, Feminism is for Everybody : Passionate Politics. Pluto Press.
- The Second Sex, Simone de Beauvoir, London Four Square.
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