6 साहित्य का सौन्दर्यशास्‍त्रीय अध्ययन

रामबक्ष जाट

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप

  • सौन्दर्यशास्‍त्र की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
  • साहित्य के काव्यशास्‍त्रीय अध्ययन एवं सौन्दर्यशास्‍त्रीय अध्ययन के पार्थक्य को स्पष्ट कर पाएँगे।
  • सौन्दर्यशास्‍त्रीय अध्ययन की दिशाओं से भी परिचित हो सकेंगे।
  • साहित्य के मूल्यांकन में सौन्दर्यशास्‍त्र की महत्ता जान पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

   साहित्य एक जनतान्त्रिक विद्या है। कोई भी साक्षर व्यक्ति इस का अध्ययन कर सकता है। वैसे साक्षरता इसकी अनिवार्य शर्त नहीं है; क्योंकि लोक-साहित्य का आस्वाद और पुनर्कथन निरक्षर व्यक्ति भी कर सकता है। इसी तरह नाटक को वह देख सकता है, गीत-भजन सुनकर समझ सकता है। कह सकते हैं कि साहित्य का पाठक हर व्यक्ति हो सकता है, साहित्य का आस्वाद कर सकता है, ग्रहण कर सकता है और उस पर अपनी राय भी दे सकता है। यह ‘राय’ या टिप्पणी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन का प्रथम सोपान है। इसके लिए किसी को विशेष प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता नहीं है। उसे साहित्य के रस-छन्द-अलंकार की जानकारी होना आवश्यक नहीं है। बस उसे वह भाषा आनी चाहिए, जिस भाषा में साहित्य प्रस्तुत किया गया हो। वह भाषा चाहे लिखित हो या मौखिक।

 

साहित्य का प्रत्येक पाठक उसका आलोचक होता है, क्योंकि उसकी कोई न कोई राय होती है। वह सुनकर कह सकता है कि रामचरितमानस का यह प्रकरण मुझे अधिक अच्छा लगा, या ‘गोदान’ के रायसाहब मुझे अच्छे नहीं लगे। क्यों अच्छे लगे? और क्यों अच्छे नहीं लगे? यह बताना आवश्यक नहीं है। इस प्रकार की टिप्पणियों को हम ‘पाठकीय प्रतिक्रियाएँ’ कहते हैं। यह आलोचना का प्रारम्भिक रूप है।

 

तथ्य है कि सजग पाठक की विचारवान प्रतिक्रिया आलोचना होती है। आलोचक के पास साहित्य की एक समझ होती है, कृति की कल्पना होती है। किसी नई कृति का आस्वाद करता हुए वह अपनी कल्पना के आधार पर उसका विश्‍लेषण करता है। कृति के गुण-दोष का विवेचन करते हुए उसका आधार स्पष्ट करता है। इस क्रम में वह कृति की पुनर्रचना करता है। तात्पर्य यह कि आलोचना साहित्य के वास्तविक अनुभव का विश्‍लेषण करती है। इसके अलावा ‘साहित्य का इतिहास’ होता है, इसमें इतिहासकार साहित्य के पूर्वापर क्रम का निर्धारण करता है। ‘प्रेमाश्रम’ की रचना गोदान से पहले हो गई थी, इसका ऐतिहासिक महत्त्व है। इस ऐतिहासिक महत्त्व को स्पष्ट किया जाता है। साहित्य के इतिहासकार का भी आलोचनात्मक विवेक होता है, लेकिन उसके अध्ययन का प्रधान विषय कालपरक होता है। आलोचना कृति का साहित्यिक महत्त्व स्पष्ट करती है, जबकि इतिहास उसे निश्‍च‍ित देश-काल में स्थिर करता है। इस तरह इतिहास और आलोचना दोनों का सम्बन्ध मुख्यतः साहित्यिक कृतियों से होता है।

 

साहित्य का सैद्धान्तिक विवेचन काव्यशास्‍त्र का विषय है। क्या सहित्य है, क्या नहीं? और क्यों कोई रचना साहित्य है या नहीं? इन प्रश्नों पर सैद्धान्तिक विवेचन काव्यशास्‍त्र का विषय है। ‘रसात्मक वाक्य काव्य है’ या ‘रमणीय अर्थ प्रतिपादित करने वाले शब्द साहित्य हैं’ ये वक्तव्य काव्यशास्‍त्र के अन्तर्गत आता है। साहित्य का माध्यम भाषा है, शब्द है, अतः काव्यशास्‍त्र इस माध्यम में अभिव्यक्त रचनाशीलता को अपने अध्ययन का आधार बनाता है।

  1. सौन्दर्यशास्‍त्र की अवधारणा

  कुछ सौन्दर्यशास्‍त्री मानते हैं कि कला का सौन्दर्य उसके माध्यम में है, जबकि अन्य विचारक मानते हैं कि साहित्य के माध्यम को नजरअन्दाज करके साहित्य की कलात्मकता का अध्ययन सौन्दर्यशास्‍त्र के अन्तर्गत आता है। यह सभी कलाओं में निहित सौन्दर्य की व्याख्या करता है। इस अध्ययन को समझने के लिए सौन्दर्यशास्‍त्र की जानकारी आवश्यक है। सौन्दर्यशास्‍त्र की दृष्टि से भी साहित्य का अध्ययन हो सकता है। भाषा से परे अभिव्यक्त सौन्दर्य और कलात्मकता का अध्ययन सौन्दर्यशास्‍त्र का विषय है। इसे जानने के लिए सौन्दर्यशास्‍त्र के स्वरूप और प्रकृति को जानना आवश्यक है।

 

जर्मन दार्शनिक बाउमगार्टेन ने सन् 1750 में ज्ञान के नए शास्‍त्र के रूप में सौन्दर्यशास्‍त्र की अवधारणा सामने रखी। उनके अनुसार सौन्दर्यशास्‍त्र संवेदनशील ऐन्द्रीय ज्ञान का शास्‍त्र है। उनके अनुसार सौन्दर्यानुभूति ‘ऐन्द्रीयबोध युक्त ज्ञान’ है। पश्‍च‍िम की बुद्धिवादी परम्परा में बुद्धि को ज्ञान समर्थ माना जाता रहा है। तब हमारी इन्द्रियों से प्राप्‍त ज्ञान का भी कोई महत्त्व है या नहीं? उनके अनुसार संवेदना से ज्ञान प्राप्‍त होता तो है, परन्तु वह निम्‍न कोटि का होता है। कला का सम्बन्ध संवेदना से होता है। अतः इस ज्ञान का विश्‍लेषण करने के लिए नए शास्‍त्र की आवश्यकता है, और यह कार्य सौन्दर्यशास्‍त्र करता है।

 

हीगेल ने सौन्दर्यशास्‍त्र के अर्थ को निश्‍च‍ित करते हुए कहा कि सौन्दर्यशास्‍त्र ‘ललित कलाओं का दर्शन’ है। ललित कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्त सौन्दर्य का अध्ययन-विश्‍लेषण सौन्दर्यशास्‍त्र में होता है। हीगेल के अनुसार ललित कलाएँ पाँच हैंᅳ स्थापत्य, मूर्ति, चित्र, साहित्य और संगीत। आजकल सिनेमा और फोटोग्राफी को भी ललित कलाओं में गिना जाता है। इन सभी कलाओं के माध्यम भिन्‍न-भिन्‍न हैं। इन भिन्‍न-भिन्‍न माध्यमों की विशेषताओं के भीतर निहित सौन्दर्य और कलात्मकता का अध्ययन सौन्दर्यशास्‍त्र का विषय है। माध्यम की विशिष्टता के अनुरूप इन कलाओं के अपने सिद्धान्त और शास्‍त्र हैं, उनकी उपयोगिता भी है, परन्तु सौन्दर्यशास्‍त्र समग्रता में इनका अध्ययन करता है।

  1. सौन्दर्यशास्‍त्रीय अध्ययन की दिशाएँ

   पश्‍च‍िम में पाँच ललित कलाओं और अन्य उपयोगी कलाओं में भेद किया गया है तथा इन पाँचों ललित कलाओं का एक शास्‍त्र विकसित किया गया। माध्यम की स्थूलता और सूक्ष्मता इस भेद का आधार है। जिस कला का माध्यम सबसे सूक्ष्म है, वह श्रेष्ठ है। इसलिए ललित कलाओं में संगीत सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि इसका माध्यम स्वर है। इसके बाद साहित्य आता है, जिसका माध्यम शब्द है। चित्रकला का माध्यम रंग, रेखाएँ और कैनवास है। मूर्तिकला के माध्यम मिट्टी और पत्थर है। स्थापत्य कला का माध्यम भवन-निर्माण सामग्री है। हीगेल के बाद पश्‍च‍िम में ललित कलाओं का यह विभाजन मान्य हो गया।

 

ललित कलाओं में सबसे अमूर्त और शुद्ध कला संगीत है; जबकि सबसे स्थूल स्थापत्य। माध्यम की भिन्‍नता के कारण उनका शास्‍त्र भिन्‍न हो जाता है। इन पाँचो ललित कलाओं में से एक को आधार मानकर सौन्दर्यशास्‍त्री उन सिद्धान्तों को अन्य कलाओं पर लागू करता है। उदाहरण के लिए रस नाटक या काव्य का गुण है। मानसिक अन्तराल का सिद्धान्त नाटक के अनुभव की व्याख्या करता है। ब्रिटिश कला आलोचक क्लाइव बेल का ‘सार्थक रूप’ चित्रकला पर आधारित है। चित्रकला में अमूर्तन कला सम्भव है। स्थापत्य में अमूर्तन नहीं हो सकता। इसलिए ‘माध्यम’ प्रत्येक कलाकृति को समझने का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

 

कला के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण शब्द है- कारीगरी। यह सही है कि कलाकार कारीगर से अलग होता है, परन्तु यह भी सही है कि कलाकार कारीगर से बेहतर होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कलाकार को कारीगरी भी आती है। उसे शिल्प की बारीकियों की भी समझ होती है। स्थापत्य कला के कलाकार को छैनी और हथौड़ा चलाना आता है। चित्रकार को तूली पकड़ना और आकृति बनाना आता है। कवि को शब्दों की समझ है। यहाँ तक कलाकार और कारीगर समान है, परन्तु कलाकार अपने माध्यम से खेल सकता है। दिए गए काम को कुशलता से करना कारीगरी है, इसके द्वारा एक नई रूप रचना करना कलाकार का काम है।

 

कलाकार के लिए अपने शिल्प का, माध्यम का, विषय का ज्ञानᅳसमझ अनिवार्य है, परन्तु इससे वह कलाकार नहीं हो जाता। उसमें ‘कुछ और’ भी होना चाहिए। यही ‘कुछ और’ उसे कलाकार बनता है और जो वह रचता है, वही कला है।

  1. बनाना और रचना

    यहाँ पर एक पद है ‘बनाना’ और दूसरा है ‘रचना’। वस्तु को देखकर चित्र बनाना कला नहीं है। गाय का चित्र बनाना। घोड़े का चित्र बनाना। कला नहीं है। इन सबका पैटर्न निश्‍च‍ित है, जिसे बना दिया जाता है। प्लेटो कहते हैं कि यह अनुकरण है। एक टेबल देखी और हजार टेबलें बना दीं। एक जूता देखा और हजारो-लाखो जूते बना दिए। यह बनाना है। यह निर्माण है; परन्तु जिसने पहली-पहली बार यह सोचा कि एक जूता होना चाहिए। जैसा पहले किसी ने नहीं सोचा था। यह मौलिकता है। यह नवीनता है। यह सृजन है। यह कला है। सबसे बड़ा कलाकार ईश्‍वर है। उसने सोचा कि आदमी बना दो। एकदम नया आदमी। यह कला है। क्लोन कला नहीं। यह बनाना है, रचना नहीं।

 

लिओनार्दो द विंची ने मोनालिसा तो बना दी किन्तु बाद में स्वयं विंची ने भी दूसरी मोनालिसा नहीं बनाई। कला नकल की सम्भावनाओं से परे है। ताजमहल कला है, वही लोग उसे दुबारा नहीं बना सकते, वे चाहते तो भी नहीं।

 

इस रचना का शास्‍त्र सौन्दर्यशास्‍त्र है, हालाँकि इस शास्‍त्र को पढ़ने से कोई कलाकार नहीं बनता। कुछ विद्वानों का मत है कि प्रत्येक कलाकृति स्वायत्त और सम्पूर्ण होती है। उसका आस्वाद किया जा सकता है, पर किसी  दूसरी कृति से उसकी तुलना नहीं की जा सकती। यदि किसी कृति में वे गुण हैं, जो अन्य कृतियों में भी हैं, तो वह रचना ‘अद्वितीय’ कैसे हुई? मौलिक कैसे हुई? उसमें नयापन कहाँ है! हमें ध्यान रखना चाहिए कि ‘नयापन’ रचना का प्राथमिक गुण है। जब तक एक कृति की दूसरी कृति से तुलना नहीं की जा सकती, तब एक कला की कृति से दूसरी कला की कृति से तुलना कैसे हो सकती है। उदाहरण के लिए अज्ञेय की कविता है, ‘दूज का चाँद’ और प्रसाद की कृति है ‘कामायनी’। अब इन दोनों में समानता के क्या बिन्दु हो सकते हैं? ‘कामायनी’ और ‘गोदान’ में कैसी समानता ढूँढी जाएगी? या ‘मैला आँचल’ और ‘ताजमहल’ के समान आधार क्या होंगे? जब स्थूल आधार ही समान नहीं होंगे, तब कलाओं के एक सौन्दर्यशास्‍त्र की कल्पना कैसे की जा सकती है?

 

इसके प्रत्युत्तर में सौन्दर्यशास्त्रियों का मत है कि प्रत्येक कला रचना में कुछ बातें तो समान होती ही हैं। उदाहरण के लिए प्रत्येक रचना का रचनाकार होता है, वह रचना की कल्पना करता है। अपनी कल्पना को वह आकार देता है। प्रसाद के मन में मनु और श्रद्धा की कल्पना होगी, तभी तो उन्होंने रचना की। प्रेमचन्द के मन में होरी-धनिया की अवधारणा होगी। दोनों ने अपनी-अपनी धारणाओं के अनुरूप अपने-अपने पात्रों की रचना की। अवधारणाएँ भिन्‍न-भिन्‍न थीं, परन्तु उनके मानस में अवधारणाएँ तो थीं ही। अतः कुछ बातें तो समान रही ही होंगी। ‘कोणार्क’ का सूर्यमन्दिर जिस कलाकार ने रचा होगा उसने कितना गहन अध्ययन किया होगा? कितनी विराट कल्पना से पत्थर को तराशा होगा। तब उस कलाकृति का रूप स्थिर हुआ होगा। इसलिए एक तत्त्व तो सभी कलाओं में समान है कि एक कलाकार होता है, जो रचना करता है सौन्दर्यशास्‍त्र उसका अध्ययन कर सकता है।

 

फिर दूसरा तत्त्व हैᅳकृति। कलाकार कोई नई चीज देता है। छोटा ही सही, अज्ञेय ने ‘दूज का चाँद’ लिखा। यह रचना पहले नहीं थी। ऐसी सभी रचनाओं पर कोई भी बातचीत हो सकती है। संसार में ढेरों कलाकृतियों के अलावा भी कुछ वस्तुएँ हैं, प्रकृति के कई रूप हैं। हम उन्हें पहचान कर अलग कर सकते हैं। इन कलाकृतियों की सामान्य चर्चा विशेषताओं पर क्यों नहीं हो सकती?

 

इसी तरह एक सहृदय होता है, पाठक होता है, दर्शक होता है, जो इन कलाकृतियों को देखता है, इनका आस्वाद करता है, मुग्ध होता है। राह चलता व्यक्ति हृदयहीन हो सकता है। इसकी भी कुछ सामान्य विशेषताएँ हो सकती हैं। जो किसी स्वार्थ से इनको नहीं देखता। किसी अलग ही दृष्टि से देखता है, जो बुनियादी दृष्टि से अलग होती है। अखबार पढ़ने और ‘कामायनी’ के पढ़ने में अन्तर होता है। अपने लिए मकान खरीदने वाली नजर और ताजमहल देखने वाली नजर एक ही नहीं होती। यहाँ मध्यवर्गीय व्यक्ति कला का सहृदय पारखी बन जाता है। वीर रस की रचनाओं का सहृदय, हास्य रस का सहृदय नहीं होता। परन्तु मेहरानगढ़ के किले का दर्शक सूर्यमन्दिर का भी दर्शक हो सकता है, बल्कि वह बेहतर दर्शक हो सकता है। दर्शक की दृष्टि से जुड़ी हुई कुछ सामान्य विशेषताएँ हो सकती हैं, जिनका विवेचन सौन्दर्यशास्‍त्र में होता है।

  1. सौन्दर्यशास्‍त्रीय दृष्टि

   इन मुद्दों से जुड़े अनेक प्रश्न हो सकते हैं, जो सभी कलाओं पर समान रूप से लागू होंगे। उदाहरण के लिए कला और समाज का रिश्ता। जिस समय हिन्दी कविता में भक्तिकालीन कविताएँ लिखी जा रहीं थीं, उस काल में भारतीय संगीत, चित्र, मूर्ति और स्थापत्य कलाओं पर भी भक्ति का गहरा असर था। रीतिकालीन मानसिकता का प्रभाव इस काल की चित्रकला पर भी देखा जा सकता है। यहाँ माध्यम की भिन्‍नता एक तरफ रह जाती है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में भारत की सभी कलाएँ प्रभावित हुईं। इस तरह बहुत से ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर कलाओं के समान तत्त्व खोजे जा सकते हैं, और जिन पर सौन्दर्यशास्‍त्री विचार कर सकते हैं।

 

इसके अलावा सारी कलाएँ सौन्दर्य की अभिव्यक्ति करती हैं। टालस्टाय की रचनाएँ सुन्दर हैं, मिस्र के पिरामिड अद्भुत हैं, बिथुवन का संगीत, पिकासो की चित्रकला सुन्दर है। तो इस प्रश्न पर सौन्दर्यशास्‍त्री विचार करते हैं कि सौन्दर्य क्या है? क्या है जो मनुष्य के मन को आकर्षित करता है? इसी तरह कला क्या है? कलात्मकता क्या है? इन दोनों प्रश्नों का अध्ययन सौन्दर्यशास्‍त्र में होता है और इस दृष्टि से साहित्य के सौन्दर्यशास्‍त्र का अध्ययन होता रहा है और आगे भी होने की सम्भावना है।

 

भारतीय चिन्तन में सौन्दर्यशास्‍त्र का विकास पश्‍च‍िम की इस परम्परा के अनुरूप नहीं हुआ। आधुनिक युग में हिन्दी में सौन्दर्यशास्‍त्र की चर्चा होती है, परन्तु यह माना जाता है कि यह शास्‍त्र हमारा नहीं है। भारतीय दर्शन के अनुसार ब्रह्म अखण्ड है। माया के कारण वह खण्ड रूप में दिखाई देता है। कला माया के पाँच कंचुकों में से एक है। कंचुक का अर्थ है आवरण। माया इन कंचुको में लपेटकर ही शिव को जीवन देती है। ये कंचुक है- काल, नियति,राग,विद्या और कला। इसी तरह छह परिग्रह हैंᅳ माया, कला, गुण, विकार, आवरण और अंजन। ब्रह्म अखण्ड है, परन्तु माया के कारण उसकी अखण्डता खण्ड रूप में दिखाई देती है। यही कला है, जो अखण्ड को खण्डों में बनता हुआ दिखलाती है। खण्ड रूप में आते ही खण्डों के बीच परस्पर संघर्ष आरम्भ हो जाता है। हालाँकि खण्ड, अखण्ड में मिलना चाहता है, परन्तु माया और कला इन्हें मिलने से रोकती है।

 

भारतीय दर्शन में किसी भी देवता की शक्ति सोलह कलाओं में विभाजित मानी गई है। जिस देवता में इन सोलह कलाओं का निवास होता है, वह ‘पूर्ण कलामूर्ति’ कहलाता है। यहाँ काव्य को विद्या तथा कला को उपविद्या माना गया है। कला सोलह और विद्या चौंसठ होती है। यहाँ ‘शब्द’ को ब्रह्म की उपमा दी गई है। इस कारण जिनका माध्यम शब्द है, वह श्रेष्ठ है। संगीत का अपना शास्‍त्र है, उसी तरह कविता का भी अपना शास्‍त्र है। नाट्यशास्‍त्र में सभी कलाओं का समन्वय मिलता है। यह अवश्य है कि चित्र, मूर्ति और स्थापत्य को इस श्रेणी में नहीं रखा जाता। यह शिल्प है, कारीगरी है, कौशल है। कौशल को श्रम से, मेहनत से, चतुराई से, प्रयासपूर्वक सीखा जा सकता है। शिल्प के पीछे किसी कलाकार का कोई स्वप्‍न, अवधारणा या आकांक्षा नहीं होती, जिसका पीछा करता हुआ कलाकार एक के बाद दूसरी ‘कृति’ का सृजन करता जाता है। इसलिए ऐसी कलाओं का यदि कोई शास्‍त्र है भी, तो भी काव्य से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता।

 

भारतीय परम्परा में कलाओं में कोटि-क्रम स्वीकार किया गया। जिस कला में अभिव्यक्ति के जितने सूक्ष्म उपकरणों की अपेक्षा होती है, वह उतनी उच्‍च कोटि की कला स्वीकार की गई है। इस आधार पर क्रम में : संगीत, साहित्य, चित्र, मूर्ति और स्थापत्य को स्थान दिया गया है।

ऐसा माना जाता है कि कलाएँ क्रियात्मक होती हैं और विद्याएँ ज्ञानात्मक होती हैं। यूँ तो विद्याएँ चौदह मानी गई हैं। ये हैंᅳ

  1. चार वेदᅳ ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद
  2. छह वेदांगᅳ शिक्षा, कला, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष
  3. चार शास्‍त्रᅳ पुराण, आन्वीक्षिकी, मीमांसा, स्मृति

काव्य पन्द्रहवीं विद्या है।

  1. सौन्दर्यशास्‍त्र और काव्यशास्‍त्र

    भारतवर्ष में कला शास्‍त्र के रूप में सौन्दर्यशास्‍त्र का विकास तो नहीं हुआ, परन्तु कुछ विचारकों का मत है कि काव्यशास्‍त्र, अलंकारशास्‍त्र, साहित्यशास्‍त्र आदि के सैद्धान्तिक विवेचनों की सौन्दर्यशास्‍त्रीय व्याख्या भी हो सकती है। भारतीय काव्यशास्‍त्र में आनन्द और रस की धारणा सौन्दर्यशास्‍त्र की ही अवधारणा है। इस सन्दर्भ में दो तीन बातों पर पुनर्विचार आवश्यक है। सौन्दर्यशास्‍त्र की तुलना में काव्यशास्‍त्र प्राचीन अनुशासन है। यूरोप में भी अरस्तू ने काव्यशास्‍त्र पर गहन विचार किया। सौन्दर्यशास्‍त्र तो बाद में विकसित हुआ है। भारत में काव्यशास्‍त्र की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। काव्यशास्‍त्र से भी पूर्व भरत का ‘नाट्यशास्‍त्र’ उपलब्ध है। ‘नाट्य’ में सभी कलाओं का समावेश हो जाता है। नाटक की रंगशाला स्थापत्य कला ही तो है। रंगशाला की सजावट, पात्रों की वेशभूषा आदि पर भी नाट्यशास्‍त्र में विचार किया गया है। फिर संगीत नाट्य का अनिवार्य अंग है। चित्र कला भी रंगशाला का उपयोगी तत्त्व है। ये सभी कलाएँ मिलकर कला का समन्वित रूप प्रस्तुत करती हैं। संयोग से इस परम्परा का आगे उतना विकास नहीं हुआ और हमारे चिन्तन के केन्द्र में ‘नाट्य’ के स्थान पर ‘काव्य’ आ गया।

 

भारतीय काव्यशास्‍त्र का घनिष्ठ सम्बन्ध व्याकरण से है। व्याकरण से सम्बन्धित होने के कारण इनकी मान्यताएँ अन्य कलाओं पर लागू नहीं हो सकतीं। साहित्य को कला न मानने की परम्परा हिन्दी में विकसित हुई। जयशंकर प्रसाद ने भी काव्य की गणना विद्या में और कलाओं की गणना उपविधाओं में की है। अपने मत के समर्थन में प्रसाद ने दण्डी, भामह और अभिनवगुप्‍त के प्रासंगिक सन्दर्भों को उद्धृत किया है। इसी तरह आचार्य शुक्ल ने साहित्य को कला मानने का विरोध किया है। उन्होंने लिखा है “सौन्दर्यशास्‍त्र में जिस प्रकार चित्रकला, मूर्तिकला आदि शिल्पों का विचार होने लगा, उसी प्रकार काव्य का भी, सबसे बेढ़ंगी बात तो यह हुई। “अभिव्यंजनावाद की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा कि “सारा उपद्रव काव्य को कलाओं के भीतर लेने से हुआ है। इसी कारण काव्य के स्वरूप की भावना धीरे-धीरे बेल-बूटे और नक्काशी की भावना के रूप में आती गई। इसी से यहाँ वाग्वैचित्र्य के अनुयायियों द्वारा चमत्कारवाद, वक्रोक्तिवाद आदि चलाए जाने पर भी इस प्रकार का विखण्डतावाद नहीं खड़ा किया गया। इधर हिन्दी में भी काव्य-समीक्षा के प्रसंग में ‘कला’ शब्द की बहुत उद्धरणी होने लगी है। मेरे देखने में तो हमारे काव्य-समीक्षा के क्षेत्र से जितनी जल्दी यह शब्द निकले, उतना ही अच्छा। इसकी जड़ पकड़ना ठीक नहीं।” इसके बाद किसी और विद्वान ने इस पर गम्भीरता से विचार नहीं किया। इसका एक कारण यह भी है की हिन्दी में अन्य कलाओं के जानकार आलोचक बहुत कम हैं।

  1. निष्कर्ष

   ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि भारत में ललित कलाओं में आपसी समन्वय नहीं है। उदाहरण के लिए नृत्य का सम्बन्ध साहित्य की बन्दिशों से है। नृत्य की मुद्राओं का प्रतिफलन मूर्तियों में होता है। खजुराहो, सूर्य मन्दिर जैसी जगह में अंकित मूर्तियों पर विभिन्‍न नायिकाओं का सौन्दर्य उकेरा गया है। मूर्तिकला का गहरा सम्बन्ध स्थापत्य से है। पूरे भवन में मूर्तियों का सौन्दर्य कुछ-न-कुछ जोड़ता ही है। इसी को चित्रकार अपनी कला में चित्रित करता है। संगीत और साहित्य का गहरा सम्बन्ध तो है ही, इसे अलग से प्रमाणित करने की जरूरत नहीं है। हमारा छन्द शास्‍त्र इन सम्बन्धों की शास्‍त्रीय अभिव्यक्ति है। इसलिए भारत में भी इन कलाओं के आपसी रिश्ते मौजूद हैं, परन्तु इन रिश्तों को मिलाने वाले शास्‍त्र का समुचित विकास नहीं हो पाया। इसलिए सौन्दर्यशास्‍त्र का नाम भले ही नहीं दिया गया हो, परन्तु हमारी रचनाशीलता में इसकी अभिव्यक्ति तो होती ही रही है।

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अतिरिक्त जानें

 

बीज शब्द

  1. सौन्दर्यशास्त्र : जिस शास्त्र के अन्तर्गत ललित कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्त सौन्दर्य का अध्ययन-विश्लेषण होता है, उस शास्त्र को सौन्दर्यशास्त्र कहा जाता है। सौन्दर्यशास्त्र संवेदनशील ऐन्द्रीय ज्ञान का शास्त्र माना जाता है। इसे ‘ललित कलाओं का दर्शन’ भी कहा जाता है।
  2. काव्यशास्त्र : प्राचीन साहित्य में काव्य-नाटक आदि से सम्बन्धित सिद्धान्त।

    पुस्तकें-

  1. भारतीय सौंदर्यशास्त्र की भूमिका, फतेह सिंह, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली
  2. पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र का इतिहास, सुनरीत कुमार वाजपेयी, राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली।
  3. अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा, रमेश कुन्तल मेघ, मैकमिलन कम्पनी ऑफ इंडिया, नई दिल्ली।
  4. विचार प्रवाह, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
  5. साहित्य सिद्धान्त, ऑस्टिन वारेन एवं रेनेवेलेक, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
  6. Revisiting literature, criticism and aesthetics in India, Avadesh Kumar Singh, D.K. Printworld, Delhi.
  7. Introdution to Aesthetics, Harold Osborne, Oxford University Press, Oxford.
  8. Reflection of Aesthetics and Poetics, Arun Ranjan Mishra, Pratibha Prakashan, Delhi.

    वेब लिंक्स

  1. https://www.youtube.com/watch?v=FFpGf7aPXNA
  2. https://www.youtube.com/watch?v=EIYPAMrn-CE
  3. https://www.youtube.com/watch?v=JS3Y0rSCAlI
  4. https://en.wikipedia.org/wiki/Aesthetics
  5. http://dictionary.reference.com/browse/aesthetic
  6. http://www.jstor.org/stable/2253285?seq=1#page_scan_tab_contents
  7. http://openjournals.library.usyd.edu.au/index.php/LA