19 साहित्य और विचारधारा

रामबक्ष जाट

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप

  • साहित्य और विचारधारा के सम्बन्ध को समझ सकेंगे।
  • विचारधारा के सम्बन्ध में ग्राम्शी का मत जान पाएँगे।
  • गोल्डमान की दृष्टि में विचारधारा क्या है? जान पाएँगे।
  • साहित्य और विचारधारा से सम्बन्धित मुक्तिबोध के विचारों से परिचित हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   साहित्य और विचारधारा के रिश्तों के प्रारम्भिक सूत्र, समाज विज्ञानियों, अर्थशास्‍त्रि‍यों और दार्शनिकों की रचनाओं में मिलते हैं। उन्होंने विचारधारा की अवधारणा पर लम्बी बहसें की और विचारधारा के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया। आगे चलकर इस बहस में साहित्य-चिन्तक और सौन्दर्यशास्‍त्री भी शामिल हो गए। इन लोगो ने साहित्य में विचारधारा की उपस्थिति पर विचार तो किया ही, विचारधारा की अवधारणा की भी नई व्याख्या प्रस्तुत की। फिर कुछ और विचारक आए, जिन्होंने साहित्य के सन्दर्भ में विचारधारा की प्रासंगिकता पर सवाल उठाए और स्थापित किया कि विचारधारा से साहित्य का रिश्ता अनिवार्य नहीं है।

 

रेमण्ड विलियम्स का मत है कि विचारधारा की अवधारणा का जन्म मार्क्सवाद में नहीं हुआ और आज भी इसकी चर्चा सिर्फ मार्क्सवाद तक सीमित नहीं है। नव-मार्क्सवादियों, संरचनावादियों, उत्तर-संरचनावादियों, उत्तर-आधुनिकतावादियों ने साहित्य और विचारधारा के विभिन्‍न पक्षों पर प्रकाश डाला। मार्क्सवाद के भीतर भी इस विषय पर गम्भीर चिन्तन-मनन आज भी चल रहा है। इन विचारकों में ग्राम्शी, गोल्डमान, अल्थूसर, टेरी ईगल्टन, रेमण्ड विलियम्स, डेनियल बेल आदि शामिल हैं। साहित्य और विचारधारा के अन्तर्सम्बन्धो को जानने के लिए इनके मतों को जानना आवश्यक है।

  1. ग्राम्शी का मत

   ग्राम्शी के अनुसार विचारधारा ‘विचारों की व्यवस्था है, जो कला, आर्थिक गतिविधि और सभी वैयक्तिक-सामूहिक जिन्दगी में अभिव्यक्त’ होती है। इसके साथ ही वह निश्‍च‍ित दिशा देने वाली शक्ति भी है। उनके अनुसार विचारधारा के चार स्तर होते हैं– दर्शन, धर्म, सहज ज्ञान और लोक श्रुति। विचारधारा इन चारों के रूप में अभिव्यक्त होती है। यदि ये सब विचारधारा है तो साहित्य इनसे अलग कैसे रह सकता है?

 

ग्राम्शी ने विचारधारा की कार्य-प्रणाली और शक्ति को रेखांकित करने हेतु प्रभुत्व की धारणा सामने रखी। ग्राम्शी ने सबसे पहले राजनीतिक समाज और नागरिक समाज का अन्तर स्पष्ट किया। राजसत्ता राजनीतिक समाज का हिस्सा है। राजसत्ता अन्ततः अपनी ताकत से, फ़ौज, पुलिस और कानून की ताकत से चलती है। परन्तु वह यह चाहती है कि राजसत्ता को नागरिक समाज का नियन्त्रण करने के लिए बल का प्रयोग न करना पड़े। शासक वर्ग विचारधारा द्वारा समाज के शेष सभी वर्गों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है और यह कार्य बिना दबाव के, स्वतन्त्र रूप से होता हुआ दिखाई देना चाहिए। इसमें कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं दिखनी चाहिए। इसके लिए राजसत्ता धार्मिक और शैक्षणिक संस्थाओं, प्रकाशकों, संचार-तन्त्र व साहित्य के द्वारा अपना प्रभुत्व स्थापित करती है। सूरदास रचित भ्रमरगीत  प्रकरण योग और निर्गुण मत के बहाने साधारण जनता पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास ही है। रामचरितमानस अन्ततः वैचारिक रूप से वर्णाश्रम व्यवस्था की सहमति बनाने में सफल हो जाती है। यह सब कार्य विचारधारा द्वारा होता है। विचारधारा साहित्य के माध्यम से यह कार्य आसानी से कर देती है। राष्ट्रीय जागरण और स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में साहित्यकारों ने महत्त्वपूर्ण वैचारिक भूमिका निभाई, इसे हम आसानी से देख-समझ सकते हैं। सत्ताधारी वर्ग के प्रभुत्व के विरुद्ध आम जनता अपना वैचारिक प्रभुत्व स्थापित करती है। प्रेमचन्द का साहित्य इसका प्रमाण है।

  1. लूसिएँ गोल्डमान का मत

    गोल्डमान ने साहित्य और विचारधारा के रिश्ते को नए ढंग से उद्घाटित किया। उनका मत है कि प्रत्येक मानवीय क्रिया को (जिसके भीतर साहित्य भी आता है) ‘संरचना’ के भीतर समझना चाहिए। मनुष्य अपनी क्रिया से ‘संरचना’ का निर्माण करता है। यह संरचना पिछली संरचना के विघटन से निर्मित होती है। अतः पुरानी संरचनाओं का विघटन और नई संरचना की उत्पत्ति, सतत मानवीय क्रिया-व्यापार है। इन संरचनाओं का निश्‍च‍ित ऐतिहासिक सन्दर्भ होता है तथा इनका चरित्र वर्गीय होता है। उनका मत है कि इन संरचनाओं का अध्ययन इनकी उत्पत्ति से करना चाहिए। इसी कारण इनका सिद्धान्त ‘उत्पत्तिमूलक संरचनावाद’ कहलाता है।

 

लेखक की कृति एक छोटी संरचना है। यह वृहत संरचना का हिस्सा होती है। साहित्य को सिर्फ लेखक के सन्दर्भ से नहीं जाना जा सकता, क्योंकि कई बार विरोधी प्रतीत होने वाले लेखकों में भी संरचनात्मक एकता होती है। इसलिए कृति का पाठ पर्याप्‍त नहीं है। पाठ से बाहर वृहत्तर संरचना है, जिसके विश्‍लेषण के बिना पाठ का विश्‍लेषण सम्भव नहीं होता है।

 

उल्लेखनीय है कि प्रत्येक वर्ग की अपनी विचारधारा होती है। वर्ग विशेष की विचारधारा किसी एक ही लेखक की रचनाओं में पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं हो पाती। अलग-अलग रचनाकार उस वर्गीय विचारधारा को आंशिक रूप में ही अभिव्यक्त कर पाते हैं। तात्पर्य यह कि कृति सिर्फ लेखक के विचारों को ही अभिव्यक्त नहीं करती, बल्कि उस वर्ग विशेष की विचारधारा को कलात्मक रूप में प्रस्तुत करती है। इसी तरह दार्शनिक कृतियाँ उसका तार्किक विश्‍लेषण प्रस्तुत करती हैं। इस प्रक्रिया में कृति उस वर्ग की वृहत्तर संरचना से सम्बद्ध हो जाती है।

 

गोल्डमान किसी वर्ग की वास्तविक चेतना और उसकी सम्भावित चेतना में अन्तर मानते हैं। ऐसा अन्तर होता है या हो सकता है। निश्‍च‍ित समय में, निश्‍च‍ित परिस्थिति में, विभिन्‍न मुद्दों पर किसी वर्ग की चेतना वास्तविक चेतना होती है। सम्भावित चेतना इस वास्तविक चेतना का अपने वर्ग के हित में विस्तार करती है। लेखक इस सम्भावना की कल्पना कर सकता है। यह लेखक के रचना-सामर्थ्य पर निर्भर करता है कि वह किस हद तक किसी वर्ग की सम्भावित चेतना को अभिव्यक्त कर पाता है। किसी वर्ग की सामूहिक चेतना और लेखक की व्यक्तिगत चेतना में कोई अन्तर्विरोध नहीं होता। हर सामूहिक चेतना सम्बद्ध वैचारिकता के लेखक की वैयक्तिक चेतना के भीतर ही अभिव्यक्त होती है। रेखांकित किया जाना चाहिए कि अलग-अलग लेखकों की व्यक्तिगत चेतना के जोड़-घटाव से सामूहिक चेतना का निर्णय नहीं होता, इस तरह वर्ग-विशेष की सम्पूर्ण चेतना कभी अभिव्यक्त नहीं होती। सम्भव है कि किसी लेखक में ये विचार बहुत सुगठित और प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्त हो जाएँ और कोई लेखक उन विचारों को ढीले-ढाले रूप में अभिव्यक्त करें। गोल्डमान का मत है कि साहित्य केवल लेखकों से पैदा नहीं होता। परा-व्यक्ति मानसिक संरचना से पैदा होता है। अर्थात साहित्य किसी समूह के साझे मूल्यों, विचारों और इच्छाओं की संरचना से जन्म लेता है।

 

गोल्डमान विचारधारा और विश्‍वदृष्टि में भी भेद करते हैं। कभी-कभी वे इन दोनों का समान अर्थ में भी प्रयोग करते हैं। उनके अनुसार विचारधारा आंशिक और अमूर्त्त होती है और विश्‍वदृष्टि अपने में पूर्ण होती है। इसी तरह विचारधारा पतनशील वर्ग की होती है, जबकि विश्‍वदृष्टि उभरते हुए वर्ग की होती है। समग्रता में उनका मत है कि किसी भी वर्ग की विश्‍वदृष्टि अन्ततः उसकी वर्ग-चेतना होती है, जो विभिन्‍न व्यक्तियों की कृतियों में अभिव्यक्त होती है। प्रतिभाशाली व्यक्तियों में किसी वर्ग की सम्भावित चेतना सबसे सशक्त रूप में अभिव्यक्त होती है। टेरी ईगल्टन ने गोल्डमान के विचारों का सार-संक्षेप करते हुए लिखा है कि कृति में सामाजिक वर्गों की विश्‍वदृष्टि जितनी सम्पूर्णता से अभिव्यक्त होती है, एक कला के रूप में उतना ही अधिक उसका महत्त्व और वैधता होती है।

 

महान लेखक ऐसी विलक्षण प्रतिभा वाले होते हैं जो अपने वर्ग और समूह की विश्‍वदृष्टि को कला के भीतर समाहित करते हैं और यह काम एकीकृत एवं पारभासिता के साथ उनके रचनाकर्म में मौजूद रहता है।

 

अपने आलोचना कर्म को गोल्डमान ने जैविक संरचनावाद कहा है। यहाँ संरचना शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया गया है कि साहित्य में व्यक्त होने वाली विभिन्‍न विश्‍वदृष्टियों की तुलना में उनकी दिलचस्पी किसी ख़ास विश्‍व-दृष्टि में नहीं थी। इस प्रकार दो अलग दिखने वाले लेखक मानसिक तौर पर एक ही सामूहिक संरचना से सम्बन्धित दिखाए जा सकते हैं। गोल्डमान इन मानसिक संरचनाओं की उत्पत्ति के कारण इतिहास के भीतर से तलाशना चाहते थे। वे उस कारण का भी पता लगाना चाहते थे कि जो विश्‍व-दृष्टि पैदा करता है। द हिडेन गॉड  में गोल्डमान द्वारा रेसिन की आलोचना उनकी आलोचना पद्धति की सबसे बड़ी मिसाल है। वे रेसिन के नाटकों में ईश्‍वर, विश्‍व, मनुष्य जैसी कुछ दुहराई जाने वाली संरचनाओं को देखते थे। ये संरचनाएँ अपनी अन्तर्वस्तु और अन्तर्सम्बन्धो के लिहाज से नाटकों में बदलती रहती है, लेकिन ये एक खास विश्‍वदृष्टि को ही व्यक्त करती हैं। यह ऐसे लोगों की विश्‍वदृष्टि है जो मूल्यहीन दुनिया में कहीं खो गए हैं, ईश्‍वर की अनुपस्थिति में केवल मानवीय दुनिया के अस्तित्व को स्वीकारते हैं और उसका विरोध भी करते हैं। ऐसे लोग अपने को कुछ अदृश्य और शाश्‍वत मूल्यों के नाम पर सही ठहराते हैं। गोल्डमान इस विश्‍वदृष्टि की उत्पत्ति फ़्रांस के धार्मिक आन्दोलन में देखते हैं, जिसे जेंसनिज्म कहा जाता था। गोल्डमान ने इसके उभार को सत्रहवीं सदी के फ़्रांस के विस्थापित सामाजिक समूह से जोड़कर देखा। वह दरबार से जुड़े ऐसे लोगों का समूह था जो अपनी जीविका के लिए राजशाही पर निर्भर था, लेकिन राजशाही की बढ़ती हुई निरंकुशता के कारण लगातार लाचार और शक्तिहीन होता जा रहा था। इस समूह के जीवन का यह अन्तर्विरोध, जेंसनिज्म द्वारा संसार के निषेध और इसके ऐतिहासिक परिवर्तन को अस्वीकार करने में व्यक्त होता है। इन सभी प्रसंगों का विश्‍वस्तरीय ऐतिहासिक महत्त्व रहा है। इस दरबारी वर्ग को बुर्जुवा वर्ग ने तैयार किया था; लेकिन यही दरबारी वर्ग, बुर्जुवा वर्ग की राजशाही निरंकुशता तोड़ने और पूँजीवादी विकास की स्थितियाँ निर्मित करने में आई असफलता को भी प्रकट करता है।

 

गोल्डमान ने साहित्यिक कृति, विश्‍वदृष्टि और इतिहास के संरचनात्मक सम्बन्धों को समझने का प्रयास किया। वे यह दिखाना चाहते हैं कि किस प्रकार किसी सामाजिक समूह या वर्ग की ऐतिहासिक स्थितियाँ कृति की संरचना में विश्‍व-दृष्टि के हस्तक्षेप के चलते समाहित हो जाती हैं। यह जानने के लिए केवल कृति से शुरू कर इतिहास की ओर जाना या इतिहास से शुरू कर कृति की ओर आना ही काफी नहीं है; बल्कि कृति, इतिहास और विश्‍वदृष्टि के बीच मौजूद और उनके बीच न दिखने वाले सम्बन्धों को नए सिरे से कायम करने वाली द्वन्द्वात्मक आलोचना पद्धति आवश्यक है। (मार्क्सवाद और साहित्यलोचन)

  1. अल्थूसर का मत

   अल्थूसर ने विचारधारा के अर्थ को व्यापक करने का प्रयास किया। उनका मत है कि विचारधारा मिथ्या चेतना नहीं होती, उसकी वास्तविक सत्ता होती है, यह सत्ता चश्मा, किताब या पत्थर की तरह मूर्त्त नहीं होती। वह मानवीय व्यवहार में होती है। इसे वस्तुगत रूप में मानवीय व्यवहार में देखा जा सकता है। अल्थूसर ने उदाहरण देकर बताया कि एक आदमी ईश्‍वर में विश्‍वास करता है, तो वह मन्दिर जाता है, पूजा करता है, भगवान के सामने नमन करता है और ईश्‍वर से डरता है। उसका यह व्यवहार ‘मिथ्या’ नहीं है, वास्तविक है। ये गतिविधियाँ उसके जीवन में घटित होते देखी जा सकती हैं। यदि वह अपने कर्तव्य में विश्‍वास करता है, न्याय में विश्‍वास करता है, तो वह कानून का पालन करता है। जहाँ कानून टूटता है, तो वह उसका प्रतिरोध करता है, मुकदमा करता है, धरना-प्रदर्शन-आन्दोलन करता है, उसका यह कर्म या व्यवहार भौतिक है। इस तरह अल्थूसर इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि विचारधारा के बिना कोई कार्य हो नहीं सकता। स्पष्टतः विचारधारा के बिना साहित्य-सृजन भी सम्भव नहीं है। यहाँ विचारधारा का सम्बन्ध साहित्य के सृजन, और फिर आस्वादन से जुड़ जाता है।

 

विचारधारा के राजनीतिक उपयोग पर चर्चा करते हुए अल्थूसर ने सवाल किया कि शासकों की जनविरोधी नीतियाँ और कानून आखिर जनता स्वीकार क्यों करती है? विद्रोह क्यों नहीं करती? इस प्रसंग में ग्राम्शी के विचारों का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि शासकों के पास– दमनात्मक और वैचारिक– दो तरह के उपकरण होते हैं।

 

शासन चलाने के लिए राज्य के पास– पुलिस, सेना, कानून, अदालत– कई दमनात्मक तरीके होते हैं। इनके सहारे राज्य लोगों को दबा देता है। दूसरी तरह के उपकरण वैचारिक होते हैं, जिनमें शिक्षा-व्यवस्था, व्यापारिक संगठन, परिवार, धर्म, मीडिया, फिल्म, समाचार पत्र, साहित्य आदि शामिल हैं। इन वैचारिक उपकरणों के कारण लोग सहज रूप से राज्य की सत्ता स्वीकार कर लेते हैं। अर्थात साहित्य राज्य का वैचारिक उपकरण होता है।

 

टेरी ईगल्टन ने अल्थूसर के मत का सार-संक्षेप प्रस्तुत करते हुए लिखा है, “कला को केवल विचारधारा तक सीमित नहीं रखा जा सकता… बल्कि इसका विचारधारा से विशिष्ट किस्म का सम्बन्ध होता है। साहित्य की भाँति विचारधारा भी उस दुनिया की काल्पनिक छवि गढ़ती है, जिसमें मनुष्य रहता है। लेकिन मनुष्य की विशेष परिस्थितियों का सैद्धान्तिक विश्‍लेषण करने के स्थान पर साहित्य उससे जुड़े अनुभवों को प्रकट करता है। कला उन अनुभवों को निष्क्रिय ढंग से व्यक्त करने के अलावा भी महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। यह विचारधारा के साथ रहकर भी उससे दूरी कायम करती है। यह दूरी इतनी भी नहीं होती कि उस विचारधारा के बोध और अनुभव का हमें अवसर न मिले, जिससे कृति का जन्म हुआ है। ऐसा करते हुए कला केवल उस सत्य के ज्ञान के लिए सक्षम नहीं बनाती, जिसे विचारधारा छिपाने का काम करती है, क्योंकि अल्थूसर के लिए ज्ञान का अर्थ है वैज्ञानिक ज्ञान। ऐसा ज्ञान जिसे मार्क्स की कृति केपिटल हमें प्रदान करती है, न कि डिकेंस की कृति हार्ड टाइम्स

 

विज्ञान और कला के बीच का अन्तर, दोनों के उद्देश्य की भिन्‍नता नहीं है, दोनों तो एक ही उद्देश्य को अलग-अलग तरीके से प्राप्‍त करने की चेष्टा करते हैं। विज्ञान हमें किसी परिस्थिति का सैद्धान्तिक ज्ञान देता है जबकि कला हमें परिस्थिति का अनुभव कराती है, जो विचारधारा के समान है। ऐसा करते हुए कला, विचारधारा से परिचय कराती है और उसके बारे में सम्पूर्ण जानकारी पाने की दिशा में हमें अग्रसर करती है, जो अपने में वैज्ञानिक ज्ञान से कम नहीं है। (मार्क्सवाद और साहित्यलोचन, पृ-35)

 

इसके पश्‍चात ईगल्टन ने पियरे मैशरे के मत को उद्घाटित किया। भ्रम और कथा का अन्तर स्पष्ट करते हुए मैशरे की राय है कि भ्रम का सम्बन्ध मनुष्य के विचारधारात्मक अनुभव से होता है, जिसके आधार पर कोई लेखक लिखना आरम्भ करता है। लिखने की प्रक्रिया में वह विचारधारा को एक नए रूप और आकार में ढाल देता है, ठोस रूप देकर उसे किसी कृति की सीमाओं में बाँधकर कला स्वयं को उससे दूर करती है। अर्थात मैशरे के मतानुसार कला हमें विचारधारात्मक भ्रमों से मुक्त करने का काम करती है। (मार्क्सवाद और साहित्यलोचन, पृ-35)

 

मैशरे से सहमति व्यक्त करते हुए ईगल्टन ने रचना के भीतर निहित चुप्पियों की भूमिका को रेखांकित किया। मैशरे के अनुसार कृति जो कहना चाहती है, उससे विचारधारा के साथ उसका सम्बन्ध तय नहीं होता, बल्कि जो नहीं कहा गया, उससे विचारधारा के साथ उसका सम्बन्ध तय होता है। इस प्रकार किसी रचना में मौजूद चुप्पियों से उसमें विचारधारा की उपस्थिति का अनुभव सर्वाधिक किया जा सकता है। इस चुप्पी के बारे में सबसे पहले आलोचकों को बताना चाहिए। किसी भी रचना में विचारधारात्मक कारणों से कई चीजों के बारे में कुछ नहीं कहा जाता। अपने ढंग से सत्य को व्यक्त करने के लिए लेखक उस विचारधारा की सीमाओं को उजागर करता है, जिसके प्रभाव में रहकर वह लिखता है। वह उन दरारों और चुप्पियों को दिखाता है, जो अभिव्यक्ति की समस्याओं के कारण पैदा होती हैं। इन्हीं दरारों और चुप्पियों के कारण कृति को कभी पूर्ण नहीं माना जा सकता है। समग्रता की तलाश ऐसे में व्यर्थ हो जाती है और अर्थों में मौजूद द्वन्द्व व अन्तर्विरोध ही सामने आ पाते हैं। किसी रचना का महत्त्व भी इन विभिन्‍न अर्थों की भिन्‍नता में होता है, न कि समानता में। गोल्डमान जैसे आलोचक रचना में केन्द्रीय संरचना ढूँढ़ते हैं, जबकि मैशरे के लिए वह हमेशा विकेन्द्रीकृत होती है। रचना का कोई केन्द्रीय सार नहीं होता, बल्कि वह कई अर्थों में निरन्तर द्वन्द्व और असमानता से भरी होती है। बिखराव, फैलाव, विविधता और अनियमितता, ये ऐसे शब्द हैं, जिन्हें मैशरे अपनी साहित्यिक समझ व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। (मार्क्सवाद और साहित्यलोचन, पृ- 48)

 

जब मैशरे कहते हैं कि किसी रचना के अधूरी होने का अर्थ यह नहीं कि रचना में कुछ छूट गया है, आलोचक उसे ढूँढ कर पूर्ण बनाए, बल्कि रचना की प्रकृति में ही अधूरापन होता है। वह किसी विचारधारा से जुड़ी होती है, जो किसी न किसी बिन्दु पर रचना को चुप होने के लिए मजबूर करती है। आलोचक का काम रचना के अधूरेपन को भरना नहीं; अर्थों के द्वन्द्व के सिद्धान्तों को समझना और दिखाना है कि किस प्रकार ये द्वन्द्व, रचना विचारधारा के सम्बन्धों से पैदा होते हैं। (मार्क्सवाद और साहित्यलोचन, पृ. 48-49)

 

उदाहरण के लिए बाणभट्ट की आत्मकथा को देख लें। इसमें हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि उन्हें इस कथा की पाण्डुलिपि अधूरी प्राप्‍त हुई थी। इसलिए इसमें कथा का अन्तिम हिस्सा नहीं है, लेकिन यह कृति अपूर्ण नहीं है। अपने में यह पूर्ण है। आगे सम्भावना है। बाणभट्ट और भट्टिनी का मिलन हो सकता है और नहीं भी हो सकता। यह खुलापन है, अधूरापन नहीं है। इस खुलेपन के भीतर कहीं गहरे अर्थ छिपे हुए हैं। सहमति, असहमति अपनी जगह है, पर दलित लेखकों द्वारा किया गया कफ़न का मूल्यांकन, कहानी के नए अर्थ को उद्घाटित करता है।

  1. गजानन माधव मुक्तिबोध का मत

    गजानन माधव मुक्तिबोध ने कविता की रचना-प्रक्रिया के सन्दर्भ में लेखक की वैचारिक दृष्टि की भूमिका पर विचार किया। उनके अनुसार विचारधारा या विश्‍वदृष्टि कला-रचना के बाहर का तत्त्व नहीं है। वह रचना-प्रक्रिया का हिस्सा है, यह दृष्टि अर्जित करने हेतु कवि को प्रयास करना पड़ता है। वे विश्‍वदृष्टि, विचारधारा, जीवन-ज्ञान को एक मानते हैं। मुक्तिबोध ने इस विश्‍वदृष्टि की निर्मित पर भी विचार किया। उनकी राय में “प्रतिक्रियाएँ तो मन करता ही है, किन्तु वे सही हैं या गलत, इसके लिए कुछ सोचना-विचारना भी पड़ता है। यह सोच-विचार निर्जन शून्य में नहीं हो सकता। इसके लिए कुछ पढ़ना पड़ेगा, कुछ अध्ययन करना पड़ेगा और दूसरों के अनुभवों और विचारों को भी, इस सम्बन्ध में, जानना पड़ेगा। मतलब यह कि इस काम में जितनी दूर तक और जितनी गम्भीरता से आगे बढ़ेंगे, आपकी प्रतिक्रियाओं और विचारों में उतनी व्यवस्था आती जाएगी। बस, इसी व्यवस्था को लोग आगे चलकर सिद्धान्त कहते हैं।” (मुक्तिबोध रचनावली, खण्ड-4, पृ. 25)

 

मुक्तिबोध इसी को विश्‍वदृष्टि कहते हैं। यह दृष्टि अर्जित करने हेतु कुछ लेखक प्रयास करते हैं, कुछ ऐसा नहीं करते। इस आलस को मुक्तिबोध ने बुद्धि का आलस कहा है, जिसका मूल कारण है कि बहुत-से लोग सोचते नहीं। वे मान लेते हैं कि ‘जो कुछ दूसरे सोचते हैं, वैसा ही ठीक होगा।’ रचनाकार सचेत रूप से अपनी विश्‍वदृष्टि का विकास भले न करे, उसकी रचना में विश्‍वदृष्टि अभिव्यक्त होती है। ‘यदि कवि कलाकार किसी शास्‍त्रीय पुस्तक के पास न भी पहुँचे, तब भी मनुष्य होने के नाते वह समस्याओं के प्रति संवेदनशील अवश्य होता है। यह सही है कि कोई लेखक-कलाकार अधिक संवेदनशील तो कोई कम संवेदनशील होता है, अथवा किसी की संवेदना का विस्तार संक्षिप्‍त तो किसी का व्यापक होता है। फिर भी यह कहना कि वह मानव-समस्या के प्रति संवेदनशील नहीं है, मुझे अत्युक्तिपूर्ण प्रतीत होता है।” (मुक्तिबोध रचनावली, खण्ड-5, पृ.- 322)

 

इस तरह मुक्तिबोध इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि “एक कला सिद्धान्त के पीछे एक विशेष जीवन-दृष्टि होती है, उस जीवन-दृष्टि के पीछे एक जीवन-दर्शन होता है, और उस जीवन-दर्शन के पीछे, आजकल के जमाने में, एक राजनीतिक दृष्टि भी लगी रहती है।” (मुक्तिबोध रचनावली, खण्ड-5, पृ. 324)

 

मुक्तिबोध कलाकार की विश्‍वदृष्टि को विचारधारा नहीं कहते, बल्कि इसे वे ‘एक आलोचनाशील मूल्यांकनकारी शक्ति’ कहते हैं। इसकी भूमिका रेखांकित करते हुए उनके मत का सार संक्षेप इस तरह होगा कि मूल्यांकनकारी शक्ति के रूप में लेखक की जीवन-दृष्टि, जीवन-प्रसंग की उद्धावना से लेकर रचना के अन्तिम सम्पादन तक सक्रिय रहती है। इस विश्‍व-दृष्टि का कोई वर्गीय स्वरूप भी होता है या नहीं?– इसका कुछ न कुछ सामाजिक आधार भी होना चाहिए। उनके अनुसार हमारी आत्मा जो कुछ है, वह सब इसी समाज का दिया हुआ है। लोगों ने जिसे व्यक्ति और समाज का विरोध कहा है, वह दरअसल समाज का अन्तर्विरोध है। इसमें समाज के भीतर की ही एक प्रवृत्ति दूसरी प्रवृत्ति से टकरा रही होती है। इस टकराहट में आप किन प्रवृत्तियों के साथ तदाकार हैं, यह महत्त्वपूर्ण है। (समकालीन हिन्दी आलोचक और आलोचना, पृ.124)

 

“तात्पर्य यह है कि यदि कोई लेखक संगत विश्‍वदृष्टि के विकास के द्वारा जीवन का प्रबुद्ध साक्षात्कार नहीं कर पाता, तो उसकी रचना की नींव कमजोर रह जाती है। यह कमजोरी पूरी रचना को प्रभावित करेगी और अन्तत: रचना को मूल्यहीन बना देगी। यह सही है कि पुष्ट अभिव्यक्ति से ही रचना, रचना बनती है, तब भी रचना सिर्फ उसी से नहीं बनती। साथ ही जीवनानुभव ही पर्याप्‍त नहीं है, उस ‘अनुभव के महत्त्व की भावना’ भी होनी चाहिए। यह भावना मूल्यांकनकारी शक्ति अर्थात विश्‍वदृष्टि अर्थात विचारधारा से आती है। (समकालीन हिन्दी आलोचक और आलोचना, पृ. 125)

 

आगे चलकर डेनियल बेल आदि विचारकों ने विचारधारा के अन्त की घोषणा की। पश्‍च‍िम की जो परम्परा यह मानती है कि पाठ का जन्म लेखक द्वारा होता है, वे विचारधारा की अनिवार्यता पर बल देते हैं। जो मानते हैं कि पाठ का जन्म लेखक से नहीं होता, वे लेखक की मृत्यु तक पहुँच जाते हैं। यह अलग प्रकार की विचार प्रणाली है, विचारधारा के समर्थक विचारक लेखक की निर्णायक भूमिका पर बल देते हैं।

  1. निष्कर्ष

   साहित्य के साथ विचारधारा के रिश्तों पर सवाल उठते रहे हैं, पर सचाई है कि विचारधारा की अभिव्यक्ति अनिवार्यतः मानव समाज की सामूहिक जीवन-व्यवस्था और सभी कलारूपों में होती ही है। प्राच्य से पाश्‍चात्य चिन्तकों तक की अवधारणाओं के अनुशीलन और साहित्य के वास्तविक परिदृश्य से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हर समाज की संरचना से कुछ घटकों का सक्रिय योगदान होता है। हर कृति स्वयं में एक संरचना होती है, साहित्य उस संरचना और व्यवस्था को पूर्णता देता है, इस क्रिया में विचारधारा का सम्प्रेषण होता है। राष्ट्रीय जागरण और स्वाधीनता आन्दोलन की परिणतियाँ, साहित्यिक कृतियों द्वारा विचार सम्प्रेषण की विधियाँ इसका सर्वाधिक प्रभावी उदाहरण हैं।

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अतिरिक्त जानें

 

बीज शब्द

  1. चेतना : वस्तुगत यथार्थ का ज्ञान।
  2. दर्शन : स्वत्व (अर्थात् प्रकृति और समाज) और मानव-चिन्तन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान।
  3. पूँजीवाद: समाजवाद तथा कम्युनिज्म से पहले की आर्थिक-सामाजिक संरचना।

    पुस्तकें

  1. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1 और 2 , धीरेन्द्र वर्मा (सं.) : ज्ञान मंडल, वाराणसी
  2. आलोचना की धारणाएँ , रेने वेलेक ,अनु इन्द्रनाथ मदान : हरियाणा हिंदी ग्रन्थ अकादमी चंडीगढ़
  3. मार्क्सवाद और साहित्यलोचन, टेरी ईगल्टन, अनुवाद एवम् प्रस्तुत– वैभव सिंह, आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा
  4. कला और साहित्य चिंतन, काल मार्क्स ,नामवर सिंह (सं.) गोरख पांडे (अनु.) : राजकमल प्रकाशन  नई दिल्ली
  5. मुक्तिबोध रचनावली ,नेमिचन्द्र जैन : राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
  6. वर्चस्व और प्रतिरोध ,एडवर्ड डब्ल्यू. सईद , रामकीर्ति शुक्ल (अनु),नयी किताब, दिल्ली
  7. समकालीन हिन्दी आलोचना और आलोचक, रामबक्ष, हरियाणा ग्रन्थ अकादमी, पंचकुला
  8. The Concept of Ideology,Jorge Larrain, B.I publications New Delhi
  9. Art Against Ideology : Fischer, Earnest, London
  10. The Concept Of Ideology and Other Essays, Lichtheim George,New York
  11. History And Class Conciousness , Gyorgy Lukacs, merlin press
  12. Ideology And Utopia,  K mannheim, Routledge & Kegen paul
  13. KeyWords, Raymond Williams, William Collins Sons And Co Ltd Glasgow
  14. Sociology Of Literature And Drama, (Ed.) Elizabeth And Tom Burns,Penguin books England
  15. Prison notebooks,  Antonio Gramsci, Columbia University Press, New York.

    वेब लिंक्स

  1. https://www.youtube.com/watch?v=Wz3YNMPMNzU
  2. https://www.youtube.com/watch?v=N1NL-ombZ4c
  3. https://en.wikipedia.org/wiki/Ideology
  4. http://www.newworldencyclopedia.org/entry/Ideology