20 समानुभूति और मानसिक अन्तराल

रामबक्ष जाट

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  1. पाठ का उद्देश्य

इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • एडवर्ड बुलो के समानुभूति और मानसिक अन्तराल की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे,
  • कला सर्जन में मानसिक अन्तराल की भूमिका समझ पाएँगे तथा
  • मानसिक अन्तराल के अतिरेक से उत्पन्‍न खतरे से वाकिफ हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   कोई बदमाश किसी कमजोर व्यक्ति पर अत्याचार करता हुआ दिखाई देता है तो हमसे यह अपेक्षा की जाती है कि हम उस कमजोर व्यक्ति की सहायता करें तथा उस बदमाश को ऐसा करने से रोकें। यही घटना यदि किसी नाटक में दिखाई जाती है तो हम खामोश बैठे हुए देखते रहते हैं। नाटक के दर्शक के रूप में हमसे ऐसी ही अपेक्षा की जाती है। यदि हम नाटक में सक्रिय हो जाएँ और पात्रों के अभिनय को रोक दें, तो यह रंग भंग माना जाएगा। ऐसा कैसे सम्भव होता है। सौन्दर्यशास्‍त्रि‍यों और नाट्य चिन्तकों ने इस पर गम्भीरता से विचार किया है।

 

कला के आस्वाद की विशिष्टता के सन्दर्भ में काण्ट ने ‘प्रयोजनहीन प्रयोजनीयता’ का सिद्धान्त प्रस्तुत किया था। टी.एस. इलियट ने ‘निर्वैयिक्तकता’ की धारणा सामने रखी। भारतीय काव्यशास्‍त्र में रस सिद्धान्त और साधारणीकरण में एक नाटक के आस्वाद की प्रक्रिया का विश्‍लेषण मिलता है। इसी सन्दर्भ में थि‍योडोर लिप्स ने समानुभूति की अवधारणा रखी।

  1. समानुभूति और मानसिक अन्तराल

    3.1 समानुभूति

 

जर्मन दार्शनिक थियोडोर लिप्स (सन् 1851-1914) ने समानुभूति अर्थात आन्तरिक अनुकरण को सौन्दर्यानुभूति की केन्द्रीय अवधारणा के रूप में रखा। उसने कहा कि सौन्दर्यात्मक समानुभूति ‘अन्य मानव की अनुभूति है। जिसे उसने ‘Feel into’ कहा है। दरअसल यह मनोविज्ञान की अवधारणा है, जिसका प्रयोग सौन्दर्यानुभूति के विश्‍लेषण में भी किया जाता है।

 

इन लोगों का विचार है कि हम कई तरह से दूसरे मनुष्यों को देखते हैं। कभी कोई व्यक्ति कष्ट में होता है और हम बड़प्पन से उसे देखते हैं। उसकी मदद करना चाहते हैं। हालाँकि वैसा दर्द हमने नहीं देखा। उदाहरण के लिए हम अन्धे व्यक्ति को देखते हैं। अन्धापन हमने नहीं देखा। यह दया है। कभी-कभी हम दूसरे को कष्ट में देखते हैं। हमें भी दुःख होता है। बहुत गहरा दुःख होता है। यह सहानुभूति है।

 

समानुभूति इससे अलग है। दूसरों की भावनाओं को इस रूप में समझना कि वे भावनाएँ अपनी ही लगें। यह समानुभूति है। जिसे एक मुहावरे की तरह कहा जाता है कि दूसरे के जूते में पाँव रखना अर्थात अपने आपको दूसरे के स्थान पर रखकर देखना और तब वैसा अनुभव करना समानुभूति है। हिन्दी में दलित लेखकों ने एक नई अवधारणा सामने रखी– स्वानुभूति। उनका मानना है की दलित रचनाएँ स्वानुभूति से ही लिखी जा सकती हैं। सहानुभूति या समानुभूति से नहीं लिखी जा सकती।

 

समानुभूति मनोविज्ञान का विषय तो है ही, यह सौन्‍दर्यशास्‍त्र की अवधारणा भी है। समानुभूति सिर्फ अस्वाद-प्रक्रिया का विश्‍लेषण नहीं करती। इसका गहरा सम्बन्ध रचना प्रक्रिया से भी है।

 

विचारकों का विचार है कि जब कोई कलाकार अपने आपको इस पात्र के भीतर प्रविष्ट कर पाता है, तब वह उसकी रचना कर पाता है और जब कोई अभिनेता उस पात्र के साथ समानुभूति के स्तर पर एकाकार हो जाता है, तब वह श्रेष्ठ अभिनय कर पाता है। इसी तरह साहित्य पढ़ते हुए पाठक भी समानुभूति के स्तर पर पात्र से एकाकार हो जाता है।

 

विचारकों का यह भी मत है कि उपन्यास पढ़ते हुए पाठक में समानुभूति के भाव जागृत हो जाते हैं, इससे वे दुनिया को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं और दुनिया के श्रेष्ठ नागरिक बन पाते हैं। ऐसा अपने से भिन्‍न संस्कृति, सभ्यता और भाषा की रचनाओं को पढ़ने से सम्भव होता है।

 

समानुभूति की यह अवधारणा सम्प्रेषण, कूटनीति, व्यापार और यहाँ तक की शिकार में भी प्रयुक्त होती है। शिकारी शिकार के पास समानुभूति के स्तर पर जा कर उसकी गतिविधियों का बेहतर आकलन कर शिकार करने में सफल होता है। सम्प्रेषण के इस गुण के द्वारा हम एक दूसरे को ठीक से सुन पाते हैं, समझ पाते हैं और तब हम अपना अगला कदम निर्धारित कर सकते हैं।

 

समानुभूति का अर्थ सहमति नहीं है। हमें असहमत व्यक्ति को भी ध्यान से सुनना चाहिए। उस ‘अन्य व्यक्ति’ को ठीक से समझने के लिए उसे समानुभूति के स्तर पर सुनना चाहिए। सुनकर और समझकर हम अपनी सहमति या असहमति व्यक्त कर सकते हैं। अल्फ्रेड एल्डर का मत है कि “दूसरों की आँखों से देखना, दूसरे के कानों से सुनना और दूसरे के दिल से महसूस करना” यह समानुभूति है। विद्वानों का विचार है कि‍ अर्थ शब्द में नहीं होते, शब्दों के पीछे खड़े मनुष्य में होते हैं। अतः हमें उस मनुष्य को समझना चाहिए, तभी हम अर्थ को अच्छी तरह से हृदयंगम कर सकते हैं। समानुभूति के समर्थकों का मत है कि यदि हम अन्य व्यक्ति की आँखों से उसे देख लेते हैं तो आसानी से उसके दिल में झाँक सकते हैं।

 

अन्य व्यक्ति के मन्तव्यों को हम इसी समानुभूति से समझते हैं। नाटक के पात्र को हम इसी भाँति समझ पाते हैं और इसी कला के द्वारा अपने से भिन्‍न संस्कृति और स्वभाव के व्यक्ति के गुणों की सराहना कर सकते हैं। समानुभूति के कारण हमारे आपसी वैयक्तिक विवाद जल्दी सुलझ सकते हैं। हम दूसरे व्यक्ति को उसकी दृष्टि से देखकर तब अपने से उसकी तुलना कर सकते हैं। यदि उस दी गई परिस्थिति में हमें रहना पड़े तो हम भी वैसा ही करेंगे। इससे हमारे मन में सहिष्णुता की भावना पैदा होती है। समानुभूति दूसरे का मूल्यांकन नहीं करती, उसकी कमियाँ नहीं निकालती, उसे सुधारने का प्रयास भी नहीं करती। बस उसके साथ होती है। उस दौरान उसे कुछ बोलना आवश्यक नहीं है। निःशब्द सम्प्रेषण आदर्श बन जाता है।

 

इस तरह रचना का अर्थ तभी ग्राह्य होता है जब हम उसे समानुभूति से, सिर्फ रचना को सुनते हैं। अपनी कोई टिप्पणी नहीं करते। टिप्पणी और मूल्यांकन की स्थिति बाद में आती है। जाहिर है कि समानुभूति के समर्थक चिन्तक मानसिक अन्तराल में विश्‍वास नहीं करते। वे हर प्रकार के अन्तराल के लोप का समर्थन करते हैं। दर्शक की अभिनेता के साथ एकाकार होना आदर्श सौन्दर्यानुभूति है। जब रंगमंच पर क्रोध का अभिनय होता है तब दर्शक की माँसपेशियों में भी हलचल होने लगती है। हम भी अभिनेता का अनुकरण करने लगते हैं। तब हम शारीरिक रूप से सक्रिय क्यों नहीं होते? इसी रहस्य पर से पर्दा उठाने की कोशिश एडवर्ड बुलो करते हैं।

 

3.2 मानसिक अन्तराल

नाटक के आस्वाद की प्रक्रिया कैसे घटित होती है? क्या दर्शक तटस्थ होता है या दर्शक उसका भागीदार होता है? भागीदार होते हुए भी वह शारीरिक रूप से निष्क्रिय कैसे रहता है? इस प्रश्‍न पर नए ढंग से विचार करते हुए एडवर्ड बुलो ने British Journal of Psychology में सन् 1912 में एक लेख लिखा Psychical Distance as a Factor in Art and as an Aesthetic Principal. इस निबन्ध में बुलो ने ‘मानसिक अन्तराल’ का सिद्धान्त को प्रस्तुत किया।

 

3.2.1 मानसिक अन्तराल का अर्थ

किसी भी वस्तु को देखने के लिए उससे निश्‍च‍ित दूरी बनाकर रखनी होती है। यह वास्तविक स्थानीय दूरी होती है। कला में इस स्थानीय दूरी को प्रदर्शित किया जाता है। कुछ अर्थों में यह कालगत दूरी भी होती है। काल और स्थान की दूरी के अलावा कला के आस्वाद के लिए इस दूरी का अर्थ है–मानसिक अन्तराल एक विशेष प्रकार की मानसिक प्रक्रियाएँ, जो कलावस्तु (या नाटक) के भावन और आस्वाद के लिए अनिवार्य है। यह अन्तराल तभी उत्पन्‍न होता है, ‘जब हम अपने व्यक्तिगत उद्देश्यों और प्रयोजनों के सन्दर्भ से उसे बाहर कर देते हैं।’ बुलो के अनुसार इसके दो पक्ष है–निषेधात्मक और विधेयात्मक। निषेधात्मक रूप में वह वस्तुओं के व्यावहारिक पक्षों तथा उनके प्रति हमारी व्यावहारिक वृत्ति को काट कर अलग कर देता है। विधेयात्मक रूप में उसी वर्जनात्मक क्रिया द्वारा प्रस्तुत की गई नवीन भूमि पर अनिभव का विस्तार करना है।

 

यह नवीन आधारभूमि इस दृष्टि में निहित है, जिसमें कलाकृतियों को वस्तुनिष्ठ दृष्टि से देखना होता है, अपनी ओर से केवल ऐसी प्रतिक्रियाओं को अवसर देना होता है, जिनसे अनुभव के वस्तुनिष्ठ रूप को बल मिले; और फिर अपने आत्मनिष्ठ संवेगों की ऐसी व्याख्या करनी होती है, जिसमें अपनी निजी सत्ता की अपेक्षा सामान्य तत्त्वों की विशेषताएँ प्रकट हों।

 

इस तरह एडवर्ड बुलो के अनुसार ‘मानसिक अन्तराल’ स्‍व को उसके अर्थ से अर्थात स्वार्थ से मुक्त करता है अर्थात आवश्यकता या निजी उपयोगिता से बोध को अलग करता है। इसी से कलात्मक बोध सम्भव हो पाता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि कलात्मक बोध स्व से इतना अलग हो जाए की वह अनुभव निर्वैयक्तिक अनुभव में बदल जाए। कलात्मक बोध न तो नितान्‍त वैयक्तिक होता है और न निर्वैयक्तिक। बुलो के अनुसार कलाबोध अत्यन्‍त राग-रंजित वैयक्तिक बोध होता है।

 

3.2.2 मानसिक अन्तराल की मात्रा

बुलो का मत है कि नाटक के आस्वाद के लिए उचित मात्रा में ‘मानसिक अन्तराल’ होना अपेक्षित है। इस औचित्य का आधार और प्रक्रिया कैसे घटित होती है? इस विषय पर एडवर्ड बुलो ने पर्याप्‍त विचार नहीं किया है। इस प्रक्रिया पर परवर्ती चिन्तकों ने अनेक प्रश्‍न किए हैं। बुलो के अनुसार कलाकृति के स्वरूप और दर्शक की मनःस्थिति के अनुरूप अन्तराल का आधार घटता-बढ़ता है। संस्कृत काव्यशास्‍त्र में ‘सहृदय’ की योग्यता को लेकर व्यापक विचार-विमर्श हुआ है। बुलो ने इस प्रक्रिया को रहस्यमय मनोवैज्ञानिक मानकर छोड़ दिया है।

 

3.3.3 ‘मानसिक अन्तराल’ के अतिरेक

बुलो ने अन्तराल के खतरों की ओर इशारा किया है। मानसिक अन्तराल के दो अतिरेक हो सकते हैं–अत्यधिक मानसिक अन्तराल और मानसिक अन्तराल का लोप। इन दोनों स्थितियों में कलात्मक अनुभव में बाधा उत्पन्‍न होती है। यदि किसी रचना के साथ दर्शक का मानसिक अन्तराल अधिक होता है, तब उसकी प्रतिक्रिया बेजान, ठण्‍डी और निर्वैयक्तिक हो जाती है। मोहन राकेश के आधे-अधूरे की सावित्री के साथ किसी-किसी दर्शक को ऐसा हो सकता है। नाटक देखते समय ऐसा दर्शक सोच सकता है कि ऐसा तो हमने कभी देखा ही नहीं। मेरा तो ऐसा अनुभव है ही नहीं। यह दृश्य बेतुका और कृत्रिम है। इसमें हँसने जैसी कोई बात ही नहीं। यह तो फूहड़ है। यह मजाक तो बहुत बचकाना है। यह स्थिति असम्भव है। इस तरह दर्शक असम्भव का आश्‍चर्यजनक आनन्द नहीं ले पाता। नाटक में दर्शक की रूचि वैयक्तिक सम्बन्ध भावना के कारण आती है। यदि दर्शक का लगाव नहीं हो पाता, दर्शक का अन्तराल बढ़ता जाता है, तब ऐसा नाटक दर्शकों से दूर होता जाता है। एक सीमा के बाद ऐसे नाटक के दर्शक बीच में से उठकर चले जाते हैं। कभी-कभी ऐसे दर्शक नाटक के मंचन में व्यवधान उपस्थित कर देते हैं। कुछ भी हो, रचना का आस्वाद वैयक्तिक अनुभव होता है। दर्शक की भागीदारी के बिना नाटक का आस्वाद सम्भव नहीं है। यह सब मानसिक अन्तराल की अधिकता से होता है। रामायण में हनुमान पर्वत को उठाकर उड़ते हुए चले आते हैं। यह दृश्य भारतीय लोकमानस में स्वीकृत होने के कारण मानसिक अन्तराल की आधुनिकता की श्रेणी में नहीं आता। भारतीय दर्शक का लगाव बना रहता है। भारतीय धर्म-दर्शन से अनभिज्ञ व्यक्ति के रसास्वाद में इससे बाधा उत्पन्‍न हो सकती है। इसी कारण भारतीय काव्यशास्‍त्र में वैयाकरणों को काव्य आस्वाद के योग्य नहीं माना जाता।

 

नाटक देखते समय कभी-कभी दर्शक नाटक के किसी पात्र विशेष के साथ तादात्म्य की स्थिति में आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में मानसिक अन्तराल का लोप हो जाता है। दर्शक उन स्थितियों में इतना घुल-मिल जाता है, जिससे वह उस तथ्य में निहित वृहत्तर सत्य को देख ही नहीं पाता। बुलो ने इस प्रकरण में शेक्सपियर के नाटक ऑथेलो का उदाहरण दिया है। यदि कोई दर्शक स्वयं ईर्ष्यालु वृत्ति का है और वह नाटक देखने आता है, तो कभी-कभी वह ऑथेलो की जगह अपने आप को देखने लगता है और इस तरह नाटक के माध्यम से अपने आपको उचित ठहराने लगता है। ऐसा दर्शक नाटक नहीं देखता, नाटक का आस्वाद नहीं करता। अपने आपको नाटक में प्रक्षेपित करता चलता है।

 

एडवर्ड बुलो ने कहा कि दर्शक कल्पना करता है, वह जानता है कि वह ऑथेलो का मंचन देखने के लिए आया हुआ है। इस दौरान उसका मंच पर जाना और पात्रों के अभिनय में बाधा डालना अनुचित है। सौन्दर्यशास्‍त्र का यह प्रश्‍न है कि नायक के पास तादात्म्य की स्थिति में भी दर्शक शारीरिक रूप से निष्क्रिय होकर रंगशाला में बैठा रहता है। लौकिक जीवन में वह शारीरिक रूप से सक्रिय हो सकता है, नाटक में दर्शक मानसिक रूप से सक्रिय और शारीरिक रूप से निष्क्रिय हो जाता है। बुलो के अनुसार ऐसा मानसिक अन्तराल के कारण सम्भव होता है। दर्शक जानता है कि यह नाटक है, जीवन नहीं है। इसी कारण वह नाटक देख पाता है। मानसिक रूप से सक्रियता के बावजूद वह उसका अंग नहीं है। तब प्रश्‍न उठता है कि आदर्श मानसिक अन्तराल कैसा होना चाहिए? कितना होना चाहिए? इस पर बुलो ने कहा कि यह अन्तराल कम से कम होना चाहिए, परन्तु मिटना नहीं चाहिए। यह आदर्श स्थिति है। ऐसा किन दर्शकों के साथ किन नाटकों के साथ कब-कब घटित होता है या हो सकता है? — इसका ब्यौरा बुलो ने नहीं दिया है।

 

3.4.4 कला सर्जन में ‘मानसिक अन्तराल’

बुलो ने कला सर्जन के क्षेत्र में भी मानसिक अन्तराल का सिद्धान्त लागू किया है। बुलो के अनुसार रचनाकार का पात्र के साथ एक रिश्ता रहता है, इस रिश्ते में भी मानसिक अन्तराल होता है। होना चाहिए। रचनाकार रचना के दौरान कृति में या पात्र में अपने जीवन अनुभव को समाहित करता है। इस तरह के प्रत्येक पात्र के भीतर लेखक होता है, परन्तु वह लेखक का प्रतिरूप नहीं होता। लेखक से अलग एक पात्र होता है। यह अलगाव अन्तराल से आता है, तभी रचनाकार उसका सृजन कर पाता है। अन्यथा सृजन सम्भव ही नहीं है। पात्र लेखक की पसन्द-नापसन्द की कठपुतली बन जाता है। अतः कह सकते हैं कि यहाँ अन्तराल का लोप हो गया है। यदि किसी पात्र में लेखक के जीवनानुभव हैं ही नहीं, तब हम कह सकते हैं कि इसकी रचना कृत्रिम मनोभावों से की गई है। लेखक जब सुनी-सुनाई बातों के आधार पर या सोच-विचार कर किसी पात्र का निर्माण करता है तो वह पात्र हमें प्रभावित ही नहीं करता। दर्शक ऐसे पात्रों को नकार देता है, क्योंकि दर्शक नाटक के किसी पात्र से तदाकार की स्थिति में नहीं आते। यहाँ रचना अति अन्तराल की शिकार हो जाती है। इस तरह हम कह सकते हैं कि आस्वाद की भाँति सृजन में भी उचित मात्रा के मानसिक अन्तराल की आवश्यकता पड़ती है। यह सही है कि बुलो ने मुख्यतः आस्वाद की प्रक्रिया के सन्दर्भ में मानसिक अन्तराल का विश्‍लेषण किया है। सर्जन प्रक्रिया में इसका संकेत मात्र दिया है। एडवर्ड बुलो का मत है कि एक साधारण भी अनुभूति की क्षमता से युक्त होता है, तब भी वह मानसिक अन्तराल स्थापित करने की उचित क्षमता से वंचित रहने के कारण एक सफल रचनाकार नहीं बन पाता।

 

बुलो का मत है कि कलात्मक अनुभूति वैयक्तिक अनुभूति होती है। वह तटस्थ और वस्तुनिष्ठ नहीं होती। वह मानसिक अन्तराल की स्थिति में होती है। बुलो के अनुसार अन्तराल का सम्बन्ध मात्रा से है। अन्तराल कलावस्तु के स्वभाव और दर्शक की क्षमता के अनुरूप घटता-बढ़ता रहता है। उनके अनुसार एक ही व्यक्ति में विभिन्‍न कलाओं के बोध के समय भी यह घट-बढ़ हो सकता है। यह बात अन्तराल की मात्र दो शर्तों पर निर्भर है– कला वस्तु का स्वभाव और दर्शक की क्षमता। दोनों के संयोग से सौन्दर्यानुभूति सम्भव हो पाती है। अन्यथा अन्तराल का लोप हो सकता है। अन्तराल का लोप होते ही सौन्दर्यानुभूति असम्भव हो जाती है। सैद्धान्तिक रूप से अन्तराल के लोप की कोई सीमा नहीं हो सकती। हालाँकि इस सन्दर्भ में आँकड़े उपलब्ध हैं, तब भी व्यवहार में प्रत्येक व्यक्ति में अन्तराल स्थापित करने की क्षमता होती है। कलाकार में यह क्षमता अधिक होती है। दैनिक जीवन में काम-सम्बन्धों में अन्तराल की सीमा न्यूनतम स्तर की होती है। इन सम्बन्धों का वर्णन करने वाली कलाओं में भी सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है। सामाजिक अत्याचार की घटनाओं के सन्दर्भ में भी अन्तराल के लोप का खतरा रहता है। उचित अन्तराल के अभाव में कलाकृतियों और कलाकारों की निन्दा होती है। कई बार कलाकारों और कलाकृतियों पर सनकीपन, अश्‍लीलता और विकृति फैलाने के आरोप लगाए जाते हैं।

 

कुछ कलाओं में अन्तराल की अधिकता का खतरा रहता है। विशेष रूप से अमूर्त्त धारणाओं से उत्पन्‍न, प्रतीकवादी तथा सामान्य-शाश्‍वत सत्य भी अभिव्यक्ति करने वाली कलाओं में मानसिक अन्तराल आवश्यकता से अधिक हो जाता है। बुलो कला को यथार्थवादी नहीं मानते। वे कला को यथार्थ विरोधी कहते हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि कला प्रकृति नहीं है वह प्रकृति होने का दावा भी नहीं कर सकती तथा खुद को प्रकृति मानने का विरोध करती है। इससे कला का कलात्मक चरित्र प्रकट होता है। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख करना आवश्यक है कि कला बनाम प्रकृति का विवाद पुराना है। यदि कला प्रकृति नहीं है तो कला क्या है? कुछ लोग कला को प्रकृति का अनुकरण या आदर्शवादी मानते हैं। यह परम्परा प्लेटो-अरस्तू से चली आई है। कला और प्रकृति के इस विवाद में मानसिक अन्तराल की धारणा सहायता कर सकती है। कला जितनी ही अधिक प्रभावशाली होगी, उतनी ही हमारी मान्यताओं के अनुरूप होगी। हमारी मान्यताएँ प्रकृति पर ही आधारित होती है। प्रकृति से निरन्‍तर निकटता स्थापित करना, साथ ही अन्तराल की सीमा को न्यूनतम स्तर तक बनाए रखना ही कला की प्रकृति रही है। प्रकृति का अनुकरण करके दर्शक को धोखे में रखना कि वह कला नहीं, प्रकृति देख रहा है। यह कला को उसके यथार्थवादी स्वभाव और अन्तरालयुक्त आत्मीयता को भूल जाना है। इस तरह ऐन्द्रीयता का शिकार हो जाना है।

 

अधिक अन्तरालयुक्त कलाओं का काल सांस्कृतिक ह्रास का काल होता है। ऐसे युग में साधारण वस्तुओं का सौन्दर्य नहीं, बल्कि असाधारण वस्तुओं का विचित्र सौन्दर्य ही प्रभावित करता है। ऐसा काल जनता की परेशानी का काल होता है, जिसमें कुछ सम्पन्‍न लोग कलावादी होते हैं। कला के विकास के उत्थान के काल प्रायः उचित सीमा के अन्तराल की हीनता के द्योतक होते हैं।

 

कला की यथार्थ विरोधी प्रकृति के कारण कलाओं के विषयवस्तु में फैण्‍टेसी को स्वीकार कर लिया जाता है। कला में सम्भव और असम्भव को हमारे वास्तविक अनुभव के अनुपात में नापना नहीं चाहिए, बल्कि इसका निर्धारण अन्तराल की निरन्तरता द्वारा होना चाहिए। वैसे अन्तराल के न होने का सम्बन्ध प्रस्तुतीकरण से भी होता है। नाटक के पात्रों के अभिनय से अन्तराल कम-अधिक हो सकता है। नाटकीय सम्‍भावना, संकलन त्रय, नाटकीय प्रतिभास आदि के सिद्धान्त वास्तव में अन्तराल की स्थिति की व्याख्या करते हैं। नाटक के मानसिक अन्तराल रचना के शिल्प की व्याख्या करते हैं। नाटक के प्रस्तुतीकरण की एकता से उचित अन्तराल सम्भव होता है। मानसिक अन्तराल रचना के शिल्प का उद्देश्य तो होता ही है, इससे दर्शक का कलात्मक बोध भी आसान हो जाता है। इसी में कथावस्तु का सौन्दर्य निहित है। कला में ऐन्द्रियता होती है, लेकिन अन्तराल के माध्यम से छनकर आने के कारण कला बोध में आत्मीयता आ जाती है।

  1. निष्कर्ष

   एडवर्ड बुलो ने आम जीवन में मानसिक अन्तराल की व्याख्या करते हुए समुद्र पर कोहरे का उदाहरण दिया है। समुद्र में यात्रा करते हुए नाविक को दूर समुद्र पर कोहरा दिखाई देता है। जाहिर है कि समुद्री यात्रा में कोहरा आसन्‍न संकट की सूचना है। जहाज रास्ता भटक सकता है, दूसरे जहाज से टकरा सकता है या समुद्र में किसी द्वीप से टकराकर टूट सकता है। ख़तरा आसन्‍न है। जहाज के चालक दल के सदस्य इसे जानते हैं। अतः उनकी प्रतिक्रया अपने जीवन पर आने वाले संकट से जुड़ जाती है। स्व से सम्बद्ध कर देखने पर यह कोहरा डरावना लगने लगता है। भय पैदा करने लगता है। एक क्षण के लिए नाविक अपने स्व से दूर हटकर प्राकृतिक सौन्दर्य के रूप में देखता है, उसका दुधिया सफ़ेद रंग समुद्र के सौन्दर्य को बढ़ा देता है। नाविक इस घटना को मानसिक अन्तराल से देखता है तो उसे कोहरे के सौन्दर्य की अनुभूति होती है। मानसिक अन्तराल यही करता है। विवेकानन्द ने कन्याकुमारी में समुद्र के सौन्दर्य को देखा, इतने अधिक मुग्ध हुए कि समुद्र में छलाँग लगा ली। यहाँ मानसिक अन्तराल का लोप हो गया। यदि विवेकानन्द इस अन्तराल को बनाए रखते तो समुद्र में कूदते नहीं। इन उदाहरणों से हम बुलो के मानसिक अन्तराल को समझ पाएँगे।

 

समानुभूति और मानसिक अन्तराल के ये दोनों सिद्धान्त कला और साहित्य को समझने के अलग-अलग पैमाने हैं। दोनों एक दूसरे की आलोचना करते हैं। दोनों के माध्यम से हम साहित्य की सौन्दर्यशास्‍त्रीय व्याख्या कर सकते हैं।

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अतिरिक्त जानें

 

बीज शब्द

  1. समानुभूति : दूसरों की भावनाओं को इस रूप में समझना कि वे भावनाएँ अपनी ही लगें। इसी को समानुभूति कहा जाता है।
  2. मनोविज्ञान : मनुष्य के मन को समझने-बूझने व उसका विश्लेषण करने वाली विज्ञान की शाखा।
  3. निर्वैयिक्तकता’ का सिद्धान्त : टी.एस इलियट द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धान्त जिसमें उन्होंने कहा कि रचनाकार को रचना करते समय उससे निरपेक्ष रहना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर वह रचना अच्छी नहीं हो सकेगी।

    पुस्तकें

  1. आलोचना और विचारधारा, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन. नई दिल्ली।
  2. साहित्य का समाजशास्त्र, डॉ. नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
  3. साहित्य सिद्धान्त, ऑस्टिन वारेन एवं रेनेवेलेक, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
  4. आलोचना का समाजशास्त्र, मुद्राराक्षस, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
  5. समाजशास्त्र का परिचय, आनंद कुमार, विवेक प्रकाशन, दिल्ली।
  6. समाजशास्त्र कोश, हरिकृष्ण रावत, रावत पब्लिकेशन, जयपुर।
  7. साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, मैनेजर पाण्डेय, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, हरियाणा।
  8. Sociology Of Literature And Drama, (Ed.) Elizabeth And Tom Burns, penguin books England
  9. Notes to Literature, T.W. Adorno (Tramslation), Columbia University Press, New York.
  1. Literature and the Image of the Man, Leo Lowenthal,  The Beacon Press, Boston.
  2. Literature, Popular Culture and Society, Leo Lowenthal, Pacific Book Publication, California.

10. Literature and Mass Culture, Leo Lowenthal, New Brunswick, USA

 

वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Edward_Bullough
  2. http://www.jstor.org/stable/2104844?seq=1#page_scan_tab_contents
  3. http://web.csulb.edu/~jvancamp/361_r9.html
  4. http://www.britannica.com/biography/Edward-Bullough
  5. Freud and the history of empathy

http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pubmed/?term=Pigman%20GW%5BAuthor%5D&cauthor=true&cauthor_uid=7628894

 

11.  Theodor Lipps and the shift from “sympathy” to “empathy http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pubmed/15812816

 

12. https://www.academia.edu/6136522/Empathy_in_Dialogue_The_Phenomenological_Reception_of_Theodor_Lipps_Theory_of_Einf%C3%BChlung

 

13.  Psychical Distance’ as a Factor in Art and as an Aesthetic Principle”(excerpts)by Edward BulloughBritish Journal of Psychology, Vol. 5 (1912), pp. 87-117 http://web.csulb.edu/~jvancamp/361_r9.html