3 समकालीन साहित्य चिन्तन का नयापन

विनोद शाही

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप

  •  समकालीनता का अभिप्राय समझ पाएँगे।
  •  समकालीन और नए की अवधारणा समझ सकेंगे।
  •  प्रमुख समकालीन विचारधाराओं का संक्षिप्‍त परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  •  समकालीन साहित्य चिन्तन की मुख्य बातें जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

    समकालीन साहित्य चिन्तन में नएपन की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए ‘समकालीन’ का अभिप्राय  समझना जरूरी है। समकालीनता का सीधा अर्थ होता है वर्तमान समय से जुड़ा हुआ। परन्तु  साहित्य में आने के बाद यह बहुवचन हो जाता है। इसके कई भिन्‍न अर्थ हो जाते हैं।

 

वैश्विक सन्दर्भ में ‘समकालीन’ चिन्तन रूप और विकासमान सक्रिय धाराओं का ताल्लुक दो प्रसंगों से है–

  1. विश्‍ववाद (ग्लोबलिज्म) से, जिसे हिन्दी में लोग भूमण्डलवाद भी कहते हैं; पर असल में वह पूरे विश्‍व से ताल्लुक न रख कर, अपने क्षेत्र को ‘बहुराष्ट्रीय’ (मल्टी-नेशनल) रूप में व्याख्यायित करता है, इसलिए इसे अनेक विद्वान ‘बहुराष्ट्रीयतावाद’ कहना पसन्द करते हैं।
  2. समकालीन से सम्बद्ध साहित्य-चिन्तन में जो कुछ नया है, वह एक ओर बहुराष्ट्रीय या भूमण्डलीय अन्तर्वस्तु की वजह से, तो दूसरी ओर ‘आधुनिकता बोध’ और ‘आधुनिकतावाद’ के कालखण्डों के पश्‍चात सामने आने वाले ‘उत्तर-काल’ से सम्बद्ध होने के कारण।

   अर्थात उसका सम्बन्ध ‘उत्तर-आधुनिक’ प्रवृत्तियों से है। इन उत्तर-आधुनिक प्रवृत्तियों की जमीन है– ‘उत्तर औद्योगिक’ परिदृश्य; जिसका निर्माण ‘उत्तरपूँजी’ या वित्तीय पूँजी’ द्वारा होता है, आगे चलकर यही ‘वित्तीय पूँजी’ हमारे समय को उस परिदृश्य तक ले जाती है, जिसका उल्‍लेख  ‘बहुराष्ट्रीय’ या ‘भूमण्डलीय’ रूप में हुआ है।

 

निम्‍नांकित तालिका में उक्‍त काल विभाजन को स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है।

 

आधुनिक काल : इसे मध्यकाल से अलग यूरोप के पन्द्रहवीं सदी के पुनर्जागरण से आरम्भ हुआ माना जाता है। इसके साथ औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत होती है और विज्ञान, धर्म को पीछे करता हुआ, चिन्तन व जीवनशैलियों के निर्धारण में अहम भूमिका निभाने का प्रयास करता है। आगे इसके कई चरण हैं–

आरम्भिक आधुनिक पुनर्जागरण 15वीं सदी से आरम्भ
ज्ञानोदय काल 18वीं सदी से
आधुनिक बोध का संस्थाकरण 1789 की फ्रांसीसी जनक्रान्ति से लेकर विश्‍वयुद्ध पूर्व तक अर्थात 1920 तक

आधुनिकतावादी काल  सन् 1920-50 अथवा सन् 1960 तक : इस काल में ‘आधुनिकता बोध’ का उपयोग एक ‘वाद’ के रूप में शुरू हो गया था। दरअसल यूरोप को अपनी औपनिवेशिक साम्राज्यवादी लूट की नैतिक जिम्मेदारी से खुद को बचाना था। लूट से ‘औद्योगिक पूँजीवाद’ तो खूब फल-फूल रहा था, पर प्रतिस्पर्धा बढ़ गई थी। विश्‍वयुद्धों की व्यापक हिंसा, अनैतिकता, मूल्य-विघटन आदि उसी की परिणति है। अन्ततः विश्‍वयुद्धों से कमजोर यूरोप को औपनिवेशिक विस्तारवाद से भी मुँह मोड़ना पड़ा।

 

उत्तर-आधुनिक काल : सन् 1950 या सन् 1960 के बाद से अब तक चला आता हुआ यह काल दो हिस्सों में विभाजित है।

 

क. उत्तर-औपनिवेशिक काल : सन् 1960-80

ख. बहुराष्ट्रीय या भूमण्डलीय काल : सन् 1980 से अब तक इसे ‘रूस के पतन’ और ‘इतिहास के अन्त’ के हालात से भी जोड़ा जाता है और कम्‍प्‍यूटर क्रान्ति से भी।

 

उत्तर औपनिवेशिक काल में दुनिया के सारे उपनिवेश एक-एक कर आजाद होते गए। उत्तर औद्योगिक पूँजी के विकास-विस्तार के लिए दुनिया के बाजार पर कब्जा किया गया। इसे बाजारवादी उत्तर-औद्योगिक क्रान्ति भी कह सकते हैं, जो सन् 1980 के बाद कम्‍प्‍यूटर और ई-नेट वाली दूर-संचार-साधन केन्द्रित क्रान्ति में तब्‍दील हो गई।

  1. समकालीन और नएका अभिप्राय

  आधुनिक युग के काल-विभाजन की तालिका से स्पष्ट हो सकता है कि ‘समकालीन’ का अभिप्राय उत्तरआधुनिक और भूमण्डलीय समयावधियों की प्रवृत्तियों से ताल्लुक रखने वाली अवधारणा है।

 

‘नए’ का मतलब चिन्तन के तल पर प्रकट होनेवाली वे तमाम प्रवृत्तियाँ हैं जो उत्तर आधुनिकता और भूमण्डलीय अर्थबोध से तो ताल्लुक रखती है, पर आधुनिकतावाद और आधुनिकता बोध की प्रवृत्तियों से कुछ भिन्‍न भी होती हैं।

 

उल्‍लेख हो चुका है कि ‘नयापन’ उन प्रवृत्तियों या धारणाओं के लिए इस्तेमाल में आता है, जो उन्हें पिछले समयों की प्रवृत्तियों या धारणाओं से अलगाती हैं। इससे हम यह तो देख सकते हैं कि हमारे समकालीन साहित्य चिन्तन में नया क्या है, परन्तु इससे इस ‘नएपन’ की अन्तर्वस्तु की व्याख्या नहीं होती।

 

साहित्य-चिन्तन द्वारा नएपन की पहचान हमारे अध्ययन का विषय है। स्‍थापित धारणाएँ जब कृति की व्‍याख्‍या हेतु अक्षम हो जाती है, साहित्य चिन्तन में तब नएपन की आवश्यकता होती है, उससे हम अपने समय की नई व्याख्या करने की कोशिश करते हैं। समय के यथार्थ से उसके रिश्ते को समझना चाहते हैं। ये ज्ञान-चिन्ताएँ हमें साहित्य चिन्तन में नई धारणाओं और प्रवृत्तियों के विकास की ओर ले जाती हैं।

 

 समकालीन साहित्य-चिन्तन की नई धारणाओं एवं चिन्तन-पद्धतियों की निम्‍नलिखित सूची से नएपन के क्षेत्र की व्यापकता का अनुमान किया जा सकता है ।

क्रमांक परम्परागत आधुनिक साहित्य-चिन्तन के वाद/ विचारधाराएँ

 

समकालीन साहित्य-चिन्तन के वाद/ सिद्धान्त/ धारणा

 

1. मार्क्सवादी साहित्य चिन्तन नवमार्क्सवादी साहित्य चिन्तन

 

2. संरचनावाद उत्तर-संरचनावाद
3. लेखक-केन्द्रित साहित्य चिन्तन पाठक-केन्द्रित साहित्य चिन्तन
4. अर्थनिश्चयवादी साहित्य चिन्तन विखण्डनवादी साहित्य चिन्तन
5. इतिहासवादी

चिन्तन प्रविधि

अर्थ-मीमांसावादी

चिन्तन-प्रविधि

 

6 मुख्यधारागत अथवा केन्द्रीय अन्तर्विरोधमूलक साहित्य पाठ हाशिया का साहित्य पाठ

 

7 विचारधात्मक साहित्य पाठ संस्कृति – उद्योग मूलक साहित्य पाठ
9. मनोविश्‍लेषणवादी नव-मनोविश्‍लेषण
10. अस्तित्ववादी नव-अस्तित्ववादी
11 परम्परागत साहित्य चिन्तन प्रवासी साहित्य

दलित साहित्य

स्‍त्री लेखन

    समकालीन साहित्य-चिन्तन में नएपन के साथ सक्रिय आलोचकों-चिन्तकों का यहाँ नामोल्लेख किया जा रहा है।  विविध क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण कार्य करने वाले चिन्तक अब पूरी दुनिया में दिख रहे हैं, पर परम्परागत रूप में अभी तक यूरोप व अमेरिका का वर्चस्व स्थापित है। तीसरी दुनिया के देशों के आलोचकों–चिन्तकों को वैश्‍व‍िक परिदृश्य में अभी तक बहुत मान्यता नहीं दी जा सकी है। यहाँ यूरो-अमेरिकी चिन्तन परिदृश्य के साथ थोड़ा हिन्दी आलोचना का परिदृश्य भी उल्लेखनीय हैं:

  1. प्रमुख समकालीन चिन्तक

1. नवमार्क्सवादी साहित्य-चिन्तक

रेमण्ड विलियम्स, अडोर्नो, अल्यूसर, वाल्टर बेन्जामिन।

 

2. उत्तरसंरचनावादी साहित्य -चिन्तन

मिशल फूको, रोलाँ बार्थ।

 

3. विखण्डनवादी साहित्य चिन्तन

देरिदा

 

4.स्‍त्रीवादी साहित्य चिन्तन

जूलियट क्रिस्तोवा, प्रभा खेतान, अर्चना वर्मा

 

5.हिन्दी में गैर परम्परागत आलोचक

विद्यानिवास मिश्र, मलयज, अशोक वाजपेयी, सुधीश पचौरी

  1. व्याख्या एवं विवेचन

   हमारे समय में साहित्य चिन्तन के नएपन की वजह यही नहीं है कि इस दौर में साहित्य का अस्तित्व संकट में पड़ा है; अपितु यह भी है कि खुद साहित्य-चिन्तन को अपने बचाव में उतरना पड़ रहा है।

 

हाल ही में हमारे समय के एक बड़े चिन्तक टेरी ईगल्टन ने ‘साहित्य चिन्तन के सिद्धान्त के अन्त’ की बात उठाई और फिर उसके बचाव में दलीलें पेश कीं। दरअसल, सन् साठ के बाद से साहित्य की विविध विधाओं के ‘अन्त’ की बातें, लगातार उठाई जाती रही हैं। वह संकट अब खुद साहित्य-चिन्तन का संकट बनने की ओर आगे बढ़ा है। इस चुनौती का सामना करने के लिए साहित्य चिन्तन को अनेक नई दिशाओं को छूने और आगे बढ़ने की जरूरत सामने आ रही है।

 

 ‘विशुद्ध साहित्य’ के रूप में प्रचारित अस्तित्व वाले  साहित्य की पहचान अब ‘व्यापक संस्कृति’ के अंग के रूप में होती है। यह एक ‘सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य’ है। उसमें साहित्य के साथ और भी बहुत-सी चीजें हैं।उनमें सबसे ताकतवर है– जनसंचार माध्यमों द्वारा पुष्ट होने वाली ‘लोकप्रिय संस्कृति’। उच्‍च तकनीकी ने हमारे दौर को ‘मास मीडिया’ के रूप में उत्तर-आधुनिक सांस्कृतिक उत्पादों से भर दिया है। इण्टरनेट से लेकर लोकप्रिय धारावाहिकों तक में ऐसे सांस्कृतिक उत्पाद उपभॊक्ताओं तक पहुँचाए जा रहे हैं– जो ‘साहित्य जैसे’ ही मालूम पड़ते हैं। ऐसे में ‘रचनात्मक साहित्य’ का अब तक का जो एक ‘विशुद्ध रूप’ साहित्य-चिन्तन के द्वारा स्थापित हुआ था– उसकी जरूरत और प्रयोजन को लेकर सवाल उठ खड़े हुए हैं।

 

अडोर्नो और वाल्टर बेन्जामिन जैसे साहित्य-चिन्तकों ने इसे ‘संस्कृति के उद्योग’ का नाम दिया है। इसके उत्पादों को ‘यान्त्रिक पुनरुत्पादनों’ की तरह समझा और समझाया है। ऐसी लोकप्रिय संस्कृति के उत्पादों के सन्दर्भ में साहित्य की व्याख्या कैसे करेंगे– यह सवाल नए रूप में हमारे सामने आ कर खड़ा हो गया है। अब हम साहित्य को संस्कृति की दुनिया या ‘परिप्रेक्ष्य’ से बाहर रखकर देखने की स्थिति में नहीं रह गए हैं। जबकि आधुनिक काल के आरम्भिक दौर तक साहित्य खुद एक तरह का ‘व्यापक परिप्रेक्ष्य’ था, जिसमें धर्मग्रन्थों से लेकर अन्य सभी ज्ञानानुशासनों की गणना की जाती थी। संस्कृति को मुख्यतः ‘धर्म या लोक’ से जुड़ा माना जाता था और साहित्य इसके मुकाबले खुद अपने पैरों पर खड़ा था।

 

उत्तर आधुनिक काल में संस्कृति के एक अंग की तरह साहित्य का विलय हो गया है। वह अपना विशिष्ट अस्तित्व खो चुका है। इसलिए अब साहित्य के बारे में निर्णय और मूल्यांकन का काम, सत्ता के हितों की रक्षा करने वाली ‘सांस्कृतिक संस्थाओं’ के हाथों में चला गया है। टेरी ईगल्टन ने साहित्यिक सिद्धान्त की मृत्यु’ (डैथ आफ लिटरेरी थ्योरी, (यूसी वर्कले लेक्चर, 10 अप्रैल 2010) का सवाल यह कहते हुए उठाया कि अब ‘पूरी सम्भावना है कि साहित्य का मूल्यांकन सत्ता के सांस्कृतिक और अकादमिक संस्थान करने लगेंगे।’ हालाँकि, हालात इतने निराशाजनक भी नहीं हैं। टेरी ईगल्टन तथा अन्य नवमार्क्सवादी तथा उत्तर आधुनिक साहित्य चिन्तन यहाँ ‘साहित्य और साहित्य चिन्तन पर मँण्डराते जिस संकट’ की बात कर रहे हैं, वह मुख्यतः उन देशों के सांस्कृतिक परिदृश्य को ध्यान में रखकर किया जा रहा है, जहाँ भौतिक विकास अपने चरम पर पहुँच चुका है। तीसरी दुनिया का सांस्कृतिक परिदृश्य थोड़ा अलग है। वहाँ साहित्य और साहित्य चिन्तन में बहुत सी नई बातें दिखाई दे रही हैं। यह नयापन ऐसा नहीं है कि यहाँ ‘साहित्य और साहित्य सिद्धान्त की मृत्यु’ को करीब देखा जा सके।

 

तीसरी दुनिया के सांस्कृतिक परिदृश्य में अभी स्थितियाँ ऐसी नहीं हुई हैं कि साहित्य के अलग और विशिष्ट रूप का संस्कृति के व्यापक परिदृश्य में ‘विलय व आत्मसातीकरण’ हो गया हो। वजह यह है कि पुस्तकों या साहित्यिक कृतियों का प्रकाशन-तन्त्र, तीसरी दुनिया में अभी तक, पूरी तरह से ‘मुनाफावादी पूँजी के बाजारतन्त्र’ में खप नहीं पाया है। स्वतन्त्र लेखन और स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा साहित्य का ‘मुनाफे की परवाह किए बगैर’ प्रकाशन अभी तक जारी है। साथ ही साहित्य का एक अपना अलग पाठक-वर्ग अभी तक बचा हुआ है।

 

पश्‍च‍िम के उत्तर-औद्योगिक हालात में संस्कृति को जिस तरह ‘सांस्कृतिक उद्योग’ में बदला जा सका है, वह काफी हद तक बाकी दुनिया में आ रही तब्दीली की भी व्याख्या करता है, परन्तु उसे शेष विश्‍व का ‘पूरा यथार्थ’ नहीं कह सकते ।

 

वस्तुस्थिति यह है कि भारत समेत, पूरी तीसरी दुनिया के पास ‘साहित्य-चिन्तन’ के रूप में जो भी ‘नए विचार’ आ रहे हैं, वे पश्‍च‍िम में विकसित हुए ‘संकटग्रस्त साहित्य से सम्बन्धित चिन्तन’ से ताल्लुक रखते हैं। इसे हम तीसरी दुनिया में ‘वर्चस्ववादी पश्‍च‍िम के ज्ञान का आयात’ व ‘आरोपण’ का नाम दे सकते हैं। इस ‘आरोपित चिन्तन’ को स्वीकार कर लेने से हमारे यहाँ भी यह विचार चला आता है कि हमारा साहित्य भी ‘पश्‍च‍िम के सांस्कृतिक उद्योगों की छाया में पड़ा हुआ है और उसका अपना ‘अलग व विशुद्ध अस्तित्व’ अब उसके पास नहीं बचा है। साहित्य-चिन्तन में ‘आयातित चिन्तन की समस्या’ को ‘उत्तर औपनिवेशिक साहित्य-चिन्तन’ के रूप में समझने की कोशिश की जा रही है।

 

साहित्य चिन्तन में प्रकट हुए इस नए ‘उत्तर औपनिवेशिक संकट’ के साथ ‘प्रवासी साहित्यिक-चिन्तन’ की समस्याएँ भी आ जुड़ी हैं। तीसरी दुनिया के उत्तर-औपनिवेशिक यथार्थ को एडवर्ड सईद और एजाज़ अहमद ने सैद्धान्तिक रूप देने की कोशिश की है। एडवर्ड सईद का सिद्धान्त ‘प्राच्यवादी साहित्य चिन्तन’ के रूप में सामने आया है, जबकि एजाज़ अहमद इसे ‘तृतीय विश्‍ववादी सिद्धान्त’ कहना ज्यादा पसन्द कर रहे हैं। इन चिन्तकों  द्वारा पश्‍च‍िम के वर्चस्ववादी साहित्य चिन्तन के ‘सांस्कृतिक उद्योग’ के संकट से परे, यह समझने की कोशिश की गई है कि अपनी जमीन से ताल्लुक रखने वाला तीसरी दुनिया का साहित्य भी श्रेष्ठ कोटि का साहित्य है। दूसरे यह कि वह कैसे मुख्य उत्तर-औद्योगिक संकट का साक्षी न होकर, गौण बना दिए जाने की वजह से उपजे अलग संकट की चुनौती का सामना करता है। इसे गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक ने ‘क्या दोयम जन बोल सकते हैं?’ (‘कैन सवाल्टर्न स्पीक) शीर्षक के रूप में सवाल की तरह पेश किया है ।

 

वर्चस्ववादी मुख्यधारा की उत्तर-औद्योगिक संस्कृति को उद्योग में बदल देने वाले पश्‍च‍िम के संकटग्रस्त साहित्य और उसके चिन्तन को, इस संकट से उबारने हेतु अनेक दलीलें पेश की जा रही हैं। ये तमाम तर्क पश्‍च‍िमी साहित्य चिन्तन के समकालीन रूप में मौजूद ‘नए विचारों व प्रवृत्तियों’ की ओर इशारा करते हैं। जैसे –

  • संस्कृति के अन्य ज्ञानानुशासनों की तरह साहित्य भी ‘वैज्ञानिक व तर्कसम्मत व्याख्याओं’ के रूप में देखा जाना चाहिए।
  • व्यापक सांस्कृतिक परिदृश्य में साहित्य की विशुद्ध सत्ता के विलय हो जाने के कारण अब साहित्य की व्याख्याओं के शास्‍त्र को  ‘साहित्यालोचन के सिद्धान्त’ की बजाए, ‘अन्तरानुशासनात्मक’ पद्धति से समझना चाहिए।
  • जिस तरह संस्कृति के सभी अनुशासनों की अपनी खास ज्ञान-भाषा होती है, साहित्य की भी होनी चाहिए, जिसकी व्याख्या ‘भाषा के नियमों, संरचनाओं, रूपों, स्तरों व आयामों’ से हो। साहित्य-चिन्तन का विश्‍लेषण ‘ज्ञान की विविध भाषाओं’ की तरह होना चाहिए , ‘अर्थमीमांसा’ द्वारा उसका मर्म  ग्रहण करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
  • विविध ज्ञान-विमर्शों तथा उनकी अर्थमीमांसा का सम्बन्ध ‘विविध सामाजिक’ व ‘मानवचितगत’ संरचनाओं से होता है। अतः सामाजिक संरचनाओं व चित्त की संरचनाओं के गठन, विखण्डन, पुनर्गठन द्वारा ही साहित्य का अर्थ समझना चाहिए। यहाँ ‘उत्तर संरचना’ एवं ‘विखण्डन’ के सिद्धान्त, साहित्य चिन्तन के नए सिद्धान्तों की तरह महत्त्व रखने वाले हो जाते हैं।
  • साहित्य को एक ‘संस्कृति पाठ’ या ‘भाषिक पाठ’ मानकर दलील दी जा रही है कि –
  1. साहित्य भी अन्य भाषा-पाठ की तरह एक अन्य पाठ होता है।
  2. साहित्य की रचना, उसकी परम्पराओं से बँधी होती है, परन्तु ‘समय का यथार्थ’ उसमें अपनी भूमिका निभाता  है। इसलिए लेखक वही लिखता है, जो उससे ‘परम्परा व समसमय’ के द्वारा लिखवाया जाता है।
  3. ‘परम्परा और समसमय’ मिलकर संस्कृति के रूप में अर्थपूर्ण होते हैं। अतः संस्कृति की तरह मौजूद सभी का साझा अर्थबोध ही साहित्य की रचना का हेतु होता है।
  4. लेखक द्वारा जो साहित्य रचा जाता है, वह सबके साझे अर्थबोध का आईना होता है।
  5. पाठक वर्ग ही लेखक के भीतर से साहित्य की रचना का आधार बनता है।

    ये दलीलें ‘लेखक की मृत्यु’ और ‘पाठकवादी आलोचना’ के जन्म की ओर ले जाती है।

  • पाठक के चित्त का निर्माण ‘सामूहिक संस्कृति’ करती है। हमारे समय में संस्कृति की ‘सामूहिकता’ का निर्माण, पाठक के बजाए दूसरी आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक ताकतें करने लगी हैं। साहित्य की रचना के पीछे भी इन ताकतों की भूमिका बढ़ी है। इसका मतलब यह है कि –
  1. बाजार पर जिन वर्गों का कब्जा होता है, वे प्रकाशन-प्रसारण से जुड़े जनसंचार माध्यमों द्वारा पाठकों में  खास तरह की ‘रुचियाँ’ उत्पन्‍न करते हैं। वे विज्ञापनों या पाठकों-दर्शकों की ‘टी आर पी’ द्वारा तय करते हैं कि पाठक क्या पढ़ेगा और दर्शक क्या देखेगा।
  2. समाज में जो वर्ग ताकतवर होता है, वह अपनी ‘संस्कृति’ या अपनी तरह के मूल्य आरोपित करने की कोशिश करता है। अर्थात वह साहित्य के खास  ‘रूपों की माँग’ पैदा करता है।
  3. सत्ता की अपनी जरूरतें होती हैं। वह बाजार को तथा समाज के ताकतवर वर्गों को अपने पक्ष में करता हुआ, समूह की ‘चेतना को अनुकूल बनाने’ की कोशिश करता है। सत्ता के ‘चेतना-अनुकूलन’ में साहित्य की भी भागीदारी खड़ी की जाती है।

    इस तरह साहित्य, ‘विशुद्ध साहित्य’ न रहकर, ‘सत्ता का संस्कृति पाठ’ हो जाता है।

 

सत्ता की संस्कृति-पाठ के समक्ष चुनौतियाँ रहती हैं कि वह सामान्य जन-समुदायों में से कितनों को अपने साथ रख पाता है ? इसलिए अनेक वर्गों-समुदायों को अपने-अपने दमित अर्थों की सीमित अभिव्यक्ति की आजादी दे दी जाती है। ये सभी अभिव्यक्तियाँ, हमारे समय की ‘संस्कृति के दमित-पाठों का साहित्य’ बन कर उभरी हैं। इनके रूप में हमारे साहित्य और साहित्य-चिन्तन के अनेक नए क्षेत्र खुले और विकसित हुए हैं। इसी क्रम में स्‍त्री लेखन का ‘स्‍त्रीवादी’ रूप सामने आया है। भारत में दलित लेखन का एक अलग ‘दलितवादी’ आयाम खुल गया है। प्रवासी, उत्तर-औपनिवेशिक, युवा, आदिवासी और पर्यावरणीय या पारिस्थितिक साहित्य भी इसी तर्ज पर धीरे-धीरे अपने अलग ‘वाद’ के गठन तक जाता हुआ मालूम पड़ रहा है।

  • इन नए आयामों के कारण विशुद्ध साहित्य चिन्तन में अलग भी बहुत कुछ ऐसा आ जुड़ा है जिससे यह क्षेत्र ‘सांस्कृतिक धरातल पर नवचिन्तन’ का अग्रदूत होता जा रहा है। स्‍त्रीवादी चिन्तन इनमें प्रमुख है। इसकी वजह है –
  1. संस्कृति की पितृसत्तात्मक व्याख्या का उलट दिया जाना ।
  2. पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना पर प्रश्‍नचिह्न लगना ।
  3. इसमें संस्कृति व समाज की पुनर्रचना के स्वर के अलावा आलोचना चिन्तन, मानव चिन्तन की भी नई व्याख्या की जरूरत आन पड़ी ।

    संस्कृति, समाज एवं चित्त– इन तीनों धरतलों के विखण्डन और पुनर्गठन के लिहाज से स्‍त्रीवादी आलोचना सबसे आगे निकल रही है। यहाँ मानवविज्ञान और समाजशास्‍त्र वाले संरचनावादी दौर के सिद्धान्तों को पीछे छोड़ते हुए, अब राजनीति और मनोविश्‍लेषण की ओर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है।

  1. निष्कर्ष

   समकालीन साहित्य चिन्तन का नयापन यह है कि इसका रूप अब एक जैसा नहीं है। किसी एक ही विचार का महत्त्व अलग-अलग संस्कृतियों और देशों के लिए अलग-अलग हो गया है।

 

दुनिया के विकसित देशों के विचारक जो सोचते-कहते हैं, उन सभी बातों को तीसरी दुनिया के लेखक आँख मूँद कर मानने के लिए तैयार नहीं हैं। अब विचारों में विविधता आ रही है। पुराने विचारधाराओं को फिर से व्याख्यायित किया जा रहा है। साहित्य और संस्कृति को नए परिप्रेक्ष्य में देखने परखने की कोशिश हो रही है। हिन्दी में उत्तर-आधुनिक विमर्श इन्हीं के अन्तर्गत आता है; जिसमें दलित, आदिवासी, स्‍त्री और पर्यावरण संवेदना प्रमुख हैं।

you can view video on समकालीन साहित्य चिन्तन का नयापन

 

अतिरिक्त जानें

 

 बीज शब्द

  1. नए– ‘नए’ का मतलब चिन्तन के तल पर प्रकट होनेवाली वे तमाम प्रवृत्तियाँ हैं जो उत्तर आधुनिकता और भूमण्डलीय अर्थबोध से तो ताल्लुक रखती है।
  2. भूमण्डलीकरणभूमंडलीकरण का शाब्दिक अर्थ स्थानीय या क्षेत्रीय वस्तुओं या घटनाओं के विश्व स्तर पर रूपान्तरण की प्रक्रिया है। सामान्य अर्थों में पूरे विश्व का एक मंच पर आना , वैश्विक ग्राम की संकल्पना और व्यापारिक प्रतिबन्धों का हटना भूमंडलीकरण है।
  3. उत्तर-आधुनिकतावादउत्तर-आधुनिकतावाद बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ एक सैद्धान्तिक आन्दोलन है। उत्तर-आधुनिकतावाद एक ही साथ आधुनिकतावाद का विकास भी है और उसका विलोम भी। इसने पुराने सिद्धान्तों पर फिर से विचार करने पर जोर दिया।

    पुस्तकें

  • आत्मनेपद, अज्ञेय,भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
  • नयी कविता और अस्तित्वाद, रामविलास शर्मा,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  • आलोचना और विचारधारा, नामवर सिंह ,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  • कला का जोखिम, निर्मल वर्मा,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  • Ideology : An introduction, Terry Eagleton, London, New York : Verso
  • In theory : Classes, nations, literatures, Aijaz Ahmad ,Verso, London
  • Literary Theory : An Introduction, Terry Eagleton,The University of Minnesota Press, US
  • Beginning Theory : An Introduction to Literary and Cultural Theory, Peter Barry  Manchester University Press, Manchester
  • Literary Theory and Criticism, Patricia Waugh,Oxford University Press, New Delhi

    वेब लिंक्स

  1. https://www.youtube.com/watch?v=-20dZxUAfu0
  2. https://www.youtube.com/watch?v=AKDH1h2wt80
  3. https://www.youtube.com/watch?v=m6nJ-A0ZWts