33 वॉल्टर बेंजामिन की साहित्य दृष्टि

विनोद शाही

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप

  • वॉल्टर बेंजामिन के आलोचना की पृष्ठभूमि जान पाएँगे।
  • पाश्चात्य साहित्यालोचना में उनके योगदान का मूल्यांकन कर पाएँगे।
  • उनकी इतिहास सम्बन्धी अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
  • उनकी प्रमुख स्थापनाओं को जान पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

    वॉल्टर बेंजामिन (सन् 1892-1940) एक जर्मन दार्शनिक, आलोचक, मीडिया-चिन्तक थे। वे फ्रैंकफर्ट स्कूल के प्रमुख नव-वाम विमर्शकारों में से थे। जर्मन फासीवाद व नाजीवाद के खिलाफ सक्रिय संघर्ष में रत होने के कारण उन्हें देश छोड़ने को विवश होना पड़ा। अड़तालीस वर्ष की अल्पायु में उनकी मृत्यु हो गई, फलस्वरूप उनका अधिकांश लेखन, उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित एवं अनूदित हुए।

  1. यान्त्रिक पुनरुत्थान के दौर में कला-कृति

    वॉल्टर बेंजामिन की कला-दृष्टि उनके चर्चित कार्य यान्त्रिक पुनरुत्थान के दौर में कला-कृति  में देखने को मिलता है। सन् 1936 में ज्योंही उनका यह कार्य प्रकाश में आया, उनकी धारणाएँ विश्‍व भर के कला-साहित्य चिन्तन इतिहास के लिए अनिवार्य महत्त्व की मानी जाने लगीं। इसके साथ ही उनकी गणना फ्रैंकफर्ट  स्कूल के प्रतिनिधि आलोचकों में होने लगी। इससे पहले वे जर्मन त्रासदी के उद्भव  पर अपना शोध-कार्य प्रस्तुत कर चुके थे। इस शोध-कार्य की मौलिकता और नवीनता को तत्कालीन अकादमिक तन्त्र द्वारा सहज ही स्वीकार नहीं किया जा सका। इस कारण बतौर आलोचक बेंजामिन को स्वीकृति पाने में सन् 1936 तक के एक दशक से भी ज्यादा समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। जल्द ही उन्हें अकादमिक क्षेत्र से अडोर्नो जैसे बड़े समाजशास्‍त्री व आलोचक की प्रशंसा व सहयोग मिला, जिससे उनकी प्रतिभा का प्रभाव-क्षेत्र बहुत बड़ा हो गया।

 

इस आलेख में बेंजामिन ने कहा कि मनुष्य हमेशा ही वस्तुओं का निर्माण करता रहा है। इसे हम सब सिद्धान्त रूप में मानते हैं। इन वस्तुओं में कला वस्तुएँ भी शामिल हैं फिर वह उन वस्तुओं का अनुकरण करता है ताकि वह उन्हें बनाना सीख जाएँ वह उन वस्तुओं के निर्माण के शिल्प पर अधिकार कर लेता है। इस कौशल के द्वारा वह वस्तुओं का पुनरुत्पादन करता है। आरम्भ में कला कृतियाँ ताम्बें, पत्थर या ठोस धातुओं से बनती थी। फिर काष्ठ कला का प्रचार हुआ, चीजें आसान हुई। इसके बाद फोटोग्राफी का आविष्कार हुआ। इस क्रम में छापेखाने के आविष्कार ने साहित्य और कला के पुनरुत्पादन की सारी पद्धति बदल दी। बेंजामिन ने पॉल वेलेरी को उद्धृत किया। पॉल वेलेरी ने कहा कि जिस प्रकार पानी, गैस और बिजली हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूर से आ जाती है उसी तरह अब चाक्षुश और ध्वनि बिम्ब हमारे हाथ के इशारे से पलक झपकते ही आ जाते हैं और चले जाते हैं। यह सिनेमा में देखा जा सकता है।

 

साहित्य का उदाहरण देते हुए बेंजामिन ने कहा कि शताब्दियों तक लेखकों की बहुत थोड़ी संख्या कई हज़ार पाठकों तक पहुँच पाई थी। लेकिन छापेखाने के आविष्कार के बाद लाखों करोड़ों पाठक सामने आ गये। इसका व्यापक प्रभाव पड़ा। इसके एक उदाहरण के रूप में बेंजामिन ने कहा कि ये जो पाठक थे वे लेखक बन गये। उदाहरण के लिए दैनिक अख़बारों में सम्पादक के नाम पत्र लिखकर भी कोई लेखक बन सकता है। अर्थात पाठक कभी भी लेखक बन सकता है। बेंजामिन की इस धारणा से आगे चलकर पाठक वादी आलोचना का प्रारम्भ माना जा सकता है।

  1. पृष्ठभूमि
  • युगगत- एक: दो विश्‍वयुद्धों के बीच के समय का यूरोप

       दो: इतिहास की ‘धारणा’ का संकटग्रस्त होना

   तीन: ऐतिहासिक भौतिकवाद की अपर्याप्‍तता

   मुख्य स्रोत: उनकी कृतियाँ इल्यूमिनेशंज  तथा मास्को डायरी

  • संस्कृतिगत : मुख्यतया कला, साहित्य, मीडिया, फिल्म व फोटोग्राफी के सन्दर्भ में

       एक: उनकी कृति जर्मन त्रासदी का उद्भव

   दो: गेटे पर निबन्ध  शीर्षक से प्रकाशित लेख

   तीन: प्रगतिशील व मीडिया-परक लेखन

 

वॉल्टर बेंजामिन की साहित्य-दृष्टि का विकास उस दौर की चुनौतियों से उबरने की कोशिशों की प्रक्रिया के तहत हुआ, जब जर्मनी में दो विश्‍वयुद्धों के बीच के समय में हिटलर का नाजीवाद अपनी अमानवीय युक्तियों को तर्कसंगत साबित करने में लगा हुआ था। इस बात को हिटलर की युद्धलिप्सु मानसिकता में उतारे बिना नहीं समझा जा सकता। हिटलर की आत्मकथा मीन काफ  में बड़े तर्कसंगत तरीके से यह बात स्थापित की गई है कि ‘प्रगति व विकास के लिए इतिहास द्वारा तर्कसंगत ठहराए जाने वाले मार्गों पर संकल्पवत होकर चलने के सिवाय दूसरा विकल्प क्यों शेष नहीं रहा था?’ हिटलर इसे ‘इतिहास के निष्कर्ष व निर्णय’ के रूप में प्रस्तुत कर रहा था कि जर्मनी को ‘अपने विशुद्ध आर्य रक्त वाले वर्णवादी इतिहास के पुनरुत्थान’ की जरूरत क्यों पड़ी? इसी से गोरे यूरोपीय लोगों ने यहूदियों के सामूहिक रक्तपात का निष्कर्ष निकाला था और जर्मनी की विश्‍वविजय का सपना भी। इस तरह उस दौर की ज्ञानमीमांसा के बुनियादी विमर्श की संरचनाओं में, ‘इतिहास की अवधारणा’ केन्द्र में गई।

 

वॉल्टर बेंजामिन का दर्शन, मूलतः इसी दबाव व चुनौती के रूबरू होने की वजह से, मूलतः ‘इतिहास-दर्शन’ के रूप में सामने आता है। ‘इतिहास’ को उस दौर में यूरोप एक ऐसी धारणा के रूप में देख रहा था, जो ‘सामाजिक विकास’ व ‘प्रगति’ के समाजशास्‍त्रीय सिद्धान्तों को तर्कसंगत व वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए एक कसौटी बन गई थी।

 

कार्ल मार्क्स ने सामाजिक विकास की व्याख्या, ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ के रूप में की थी। उन्होंने समाज के विविध चरणों में हुए विकास को, मनुष्य की श्रमोत्पादन क्षमता बढ़ाने वाले संयन्त्रों की खोजों से जोड़ा और इसे समाज की ‘उत्पादन पद्धतियों के इतिहास’ के रूप में तर्कसंगत वैज्ञानिक व्याख्या प्रदान की। इसी क्रम में उन्होंने ‘आग’, ‘पहिए’ व ‘यन्त्र’ के उत्पादनमूलक इस्तेमाल से पैदा होने वाली पद्धतियों को सिलसिलेवार विकास का नाम दिया। वॉल्टर बेंजामिन को, अपने समय के ‘औद्योगिक पूँजीवाद’ की ‘यान्त्रिक पुनरुत्थान’ की पद्धति को, ‘विकास व प्रगति का पर्याय’ मानने में निम्‍नलिखित कारणों से हिचक थी–

  • यान्त्रिक पुनरुत्थान की पद्धति से समाजवादी-साम्यवादी क्रान्ति-चेतना का विकास नहीं हो पा रहा था।
  • औद्योगिक पूँजीवाद, फासीवादी अमानवीय सत्ता को मजबूती दे रहा था।
  • औद्योगिक पूँजीवाद के द्वारा मजदूरों के शोषण से भी क्रान्ति-सम्भावनाएँ गहरा नहीं रही थीं,
  • औद्योगिक पूँजीवाद द्वारा, ‘क्रान्ति का इस्तेमाल भी उपभोक्ता माल’ की तरह होने लगा था, जिससे ‘दिखावे’ की या ‘आकर्षक’ कोटि की छद्म क्रान्ति-चेतना फ़ैल रही थी।
  • उत्पादन-पद्धतियों के ऐतिहासिक विकास का मार्क्स का सिद्धान्त इसलिए अपर्याप्‍त था, क्योंकि सारी उत्पादन पद्धतियाँ ‘प्रकृति पर विजय’ की चेतना से जन्म लेती हैं। ‘प्रकृति का शोषण’ छिपा रहता है। प्रकृति के शोषण से जो विकास किया जाता है, वह शोषित मजदूर के हाथों होता है। इससे मजदूरों के भीतर ‘वास्तविक शोषण-विरोधी चेतना’ का विकास नहीं हो पाता।

   वॉल्टर बेंजामिन की मार्क्सवाद पर की गई इस तरह की टिप्पणियों के कारण ‘उग्र मार्क्सवादी’ उनका विरोध करते रहे। परन्तु बेंजामिन इससे इतिहास की एक ‘व्यापक समझ’ की ओर आगे बढ़े। उनका ऐतराज हिटलर से भी था। हिटलर भी इतिहास की मनमानी व पुरुत्थानवादी व्याख्या कर रहा था। फिर औद्योगिक पूँजीवाद की यान्त्रिक पुनरुत्पादन की पद्धति का इस्तेमाल वह युद्ध के मानव-विनाशक साजो-सामान बनाने के लिए ही अधिक कर रहा था। लोगों की चेतना को वश में करने के लिए वह, सत्ता द्वारा अपने हित में मीडिया का इस्तेमाल करने की दिशा में भी सक्रिय था। मीडिया उसके (कु)-प्रचार का चेहरा बनकर सामने आ रहा था।

 

इस हाल में बेंजामिन ने, ‘इतिहास’ की धारणा पर ही पुनर्विचार नहीं किया, बल्कि ‘यान्त्रिक पुनरुत्पादन’ के दौर में कला, मीडिया, फिल्म व साहित्य की भूमिका को नए रूप में समझने की दिशा में भी आगे बढ़े। इस सन्दर्भ में उनके कुछ उल्लेखनीय निष्कर्ष निम्‍नलिखित हैं–

  • इतिहास ‘विजेताओं का इतिहास’ नहीं होता, अपितु सारी मानवजाति का ‘सार्वभौम’ इतिहास होता है।
  • परन्तु जब तक हम सार्वभौम इतिहास की पुनर्रचना नहीं कर लेते, हमें ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ या ‘नाज़ीवाद पुनरुत्थान’ जैसे सरलीकरणों की आलोचना करनी चाहिए।
  • इतिहास मनुष्य के वर्तमान में जीवन्त वस्तु होती है जो कौंध की तरह उसे संकट के क्षणों में उपलब्ध हो जाता है।
  • इतिहास की कौंध, एक तरह का ‘मसीहाई’ या आध्यात्मिक अनुभव होता है।
  1. वॉल्टर बेंजामिन की साहित्य दृष्टि : स्वरूप व चुनौतियाँ

    वॉल्टर बेंजामिन ने साहित्य के स्वरूप या आत्मा की खोज इस रूप में की कि वह कौन-सी चीज थी, जो औद्योगिक पूँजीवाद के जनसंकुल-उत्पाद (मास प्रोडक्शन) करने वाले यान्त्रिक-तकनीकी माध्यमों के कारण खतरे में पड़ गई थी। इसे उन्होंने स्वयं कला और साहित्य की सृजनशीलता के ही संकटग्रस्त हो जाने के रूप में देखा था। हालाँकि इस वजह से वे उत्तर-आधुनिक चिन्तकों की तरह इतनी दूर तक नहीं गए थे कि कह सकें कि ये तो ‘साहित्य के अन्त’ की प्रस्तावित धारणा वाले हालात हैं। तथापि बाद में उत्तर-आधुनिक साहित्य चिन्तन में जो ‘अन्तवाद’ सामने आया, उसकी पृष्ठभूमि या भूमिका बनाने में वॉल्टर बेंजामिन की साहित्य सम्बन्धी अवधारणाओं का परोक्ष योगदान अवश्य है।

 

जनसंकुल पुनरुत्पाद की पद्धति ने कला व साहित्य को जनसुलभ बनाया। इससे होना तो यह चाहिए था कि एक सृजनधर्मी संस्कृति का निर्माण व विकास होता परन्तु हुआ यह कि ‘वास्तविक सृजनधर्मिता’ का दमन हो गया और बाजार व सत्ता की राजनीति के अनुकूल पड़ने वाली लुभावनी, शानदार व ग्लैमरस प्रवृत्तियों वाली छद्म सृजनशीलता, साहित्य की अन्तर्वस्तु पर हावी हो गई। साहित्य तो वही रहा, परन्तु ‘यान्त्रिक पुनरुत्पादन की पद्धति’ का उसमें ‘आरोपनात्मक दख़ल’ हो गया, जिससे साहित्य का ’स्वरूप’ विरूपित हुआ और ‘अर्थ’, ‘अन्यार्थ’ से ग्रस्त हो गया।

 

वॉल्टर बेंजामिन उत्पादन पद्धति के, अर्थ की तरह वस्तु में प्रतिष्ठित हो जाने कि जो बात सामने रख रहे थे, उसी की शक्ल बदलकर, बाद में उत्तर-आधुनिक मीडिया-चिन्तक मार्शल मैक्लुहान ने कहा था कि ‘माध्यम सन्देश या अर्थ होता है’। लेकिन इस खतरे को वॉल्टर बेंजामिन बहुत पहले से महसूस कर पाए थे। इसीलिए उन्होंने अन्ततः कला-साहित्य के बारे में अपना यह निष्कर्ष सामने रखा था कि ‘सब कलाएँ राजनीतिक होती हैं।’ इतना ही नहीं, वॉल्टर बेंजामिन ने मास्को डायरी में लेनिन सम्बन्धी साहित्य और पोस्टरों के जनसंकुल उत्पादों के लेनिनग्राद के बाजार को लक्ष्य बनाते हुए यहाँ तक कह दिया कि साहित्य और कलाएँ जब सामूहिक उपभोक्तावादी तरीके से खरीदी-बेची जाती हैं तो क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु भी यथास्थितिवादी हो जाता है और सत्ता के पक्ष में झुकने लगता है।

 

इस विवेचन को आधार बना कर बेंजामिन इस नतीजे तक पहुँचे कि साहित्य भी जीवन की तरह होता है जो जमीनी हालात, पर्यावरण व इतिहास में जन्म लेता, पनपता और विस्तार पाता है। उसके इस जमीनी इतिहास वाले अर्थ को उपलब्ध करने के लिए एक सार्वभौम इतिहास वाली चेतना की जरूरत पड़ती है, ताकि हम उसे उस जमीन में पुनः रोप सकें। जिस जमीन पर हमारा जन्म हुआ है, वहाँ का सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण हमारी चेतना का निर्माण करता है। यह चेतना समय की चुनौतियों के उपस्थित होने पर, जिन ‘सृजनधर्मी संश्‍लेषों’ को खोज पाती है, वे वही होते हैं, जो अपनी उसी जमीन को कसौटी बनाते हैं। जमीन या स्थानीय पर्यावरण को कसौटी बनाने का अर्थ है– उस जमीन के सामाजिक पर्यावरण से पाए उस सामूहिक इतिहास की चेतना के साथ जीना, जो हमारी जातीय स्मृतियाँ बनकर हमारे रक्त का हिस्सा हो जाता है। यह वह इतिहास है जिसे सभी लोग अपनी जमीनी संस्कृति के माध्यम से पाते हैं और उसमें धर्मों की भी एक खास भूमिका रहती है। इस इतिहास के द्वारा हम प्रतिभा या कल्पनाशील तरीके से अपने सहज-ज्ञान के रूप में जान रहे होते हैं कि मानव-जाति का सार्वभौम इतिहास क्या हो सकता है?

 

बेंजामिन साहित्य को जमीनी संस्कृति से जुड़े ऐसे ‘प्रभामण्डल के सौन्दर्यानुभव’ तक ले जाने वाली वस्तु मानते हैं जो हमें ‘समय में उत्खनन’ करते हुए, ‘समकालिकता से सार्वभौम इतिहास के जीवन्त सहजज्ञान’ तक ले जाता है। इसका अर्थ यह यह है कि–

  • साहित्य के पास अन्तर्जीवन होता है।
  • जमीनी अनुभव साहित्य में अन्तर्जीवन का आधार होते हैं।
  • समय यानी वर्तमान चुनौतियाँ, साहित्य को पुनः अपना अन्तर्जीवन उपलब्ध करने का आधार बनती हैं।
  • वर्तमान राजनीति व व्यवस्था-तन्त्र से अपना  अन्तर्जीवन पाने के लिए साहित्य, ‘समय में उत्खनन’ करता है।
  • अतः सत्य के रूप में सार्वभौम इतिहास का सहज-ज्ञान पाकर साहित्य अपने प्रभावमण्डल से युक्त हो जाता है।
  • प्रभामण्डलीय संरचनाएँ, साहित्य को हमारे सौन्दर्यबोध में बदलने का कारण बनती हैं।

   वॉल्टर बेंजामिन अपने समय के यान्त्रिक पुनरुत्पादन की पद्धति पर इसलिए चोट करते हैं, क्योंकि साहित्य की कृतियों का पुनरुत्पादित रूप उन कृतियों के प्रभामण्डलों को नष्ट करता है। प्रकाशित होते ही कृति अपने समय और स्थान से अलहदा हो जाती है। इससे कृतियों में, उनका जो ‘अन्तर्जीवन-मूलक अर्थ’ है– वह नष्ट हो जाता है।

 

उस वास्तविक अर्थ की बजाय कृतियाँ, अलग समय और स्थान से जुड़े पाठकों के, बहुलतावादी-पृथकतावादी अर्थों का आधार हो जाती हैं। बेंजामिन जिस बात को साहित्य के लिए संकट की तरह देख रहे थे, उसी को आधार बना कर, उत्तर-आधुनिक साहित्य-चिन्तन में, ‘पाठकवादी आलोचना’ का विस्तार हुआ। देरिदा का विखण्डन भी कृतियों के पाठ को उनके अपने समय और स्थान से मुक्त पाठों के रूप में ही ग्रहण करता है। तथापि बेंजामिन के अनुसार वे सारे अर्थ जो ‘वास्तविक जमीनी अर्थ’ से अलग होते हैं, राजनीतिक होते हैं और सत्ता के यथास्थितिवाद का पोषण करते हैं, ऐसे अर्थों का आधार उन्हें ‘इतिहास के भग्नावशेषों के दौर के उपस्थित हो जाने में दिखाई देता है, एक तरह से वे इतिहास में उसी ‘विखण्डन’ को देख पा रहे थे, जिसे बाद में देरिदा ने पूरी ‘भाषा-संरचना’ में खोजने की कोशिश की। परन्तु बेंजामिन इसके विरोध में खड़े नजर आते हैं। बेंजामिन ने इस सन्दर्भ में क्ली नामक चित्रकार की पेण्टिग एंजलस नोवस का उल्लेख किया है जो इतिहास के भग्नावशेषों को अपने सामने पाकर परेशान है। वह इतिहास को दुरुस्त करना चाहता है पर ‘प्रगति’ के नाम पर ऐसी आँधी चल रही है कि अपने पंख खोल ही नहीं पाता।

  1. एक साहित्यालोचक के रूप में बेंजामिन

   वॉल्टर बेंजामिन साहित्य को जीवन की गहरी ऐतिहासिक व मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं से जोड़कर देखने और समझने की कोशिश करते थे। इसलिए एक आलोचक के तौर पर वे अकादमिक या शास्‍त्रीय किस्म के साहित्य की न तो व्याख्या करते थे, न मूल्यांकन… हालाँकि उन्हें हम ‘मार्क्सवादी आलोचकों’ के समान साहित्य व समाज के द्वन्द्वात्मक रिश्तों की ऐतिहासिक-वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए पाते हैं, परन्तु उन्हें हम मार्क्सवादी आलोचना की सीमाओं को लाँघ कर एक मौलिक आलोचना-दृष्टि का विकास करता हुआ भी पाते हैं।

 

मार्क्सवादी आलोचकों की तरह उनकी साहित्य-दृष्टि द्वन्द्वात्मक है, परन्तु अपनी इस द्वन्द्वात्मकता को वे ‘ज्ञात इतिहास के दिक्‍काल’ से परे मौजूद, सार्वभौम इतिहास तक गहराते चले जाते हैं। इसलिए उन्हें कुछ लोग ‘नव-मार्क्सवाद’ विरोधी तक भी घोषित कर देते हैं।

 

साहित्य के मूल्यांकन के लिए वॉल्टर बेंजामिन ने एक जटिल प्रस्ताव  सामने रखा हैं, इसे मूल्यांकन की संश्‍ल‍िष्ट पद्धति कहा जा सकता है। उनकी व्यावहारिक आलोचना, जो ‘जर्मन त्रासदी के उद्भव’ की खोज करती है। उनकी समीक्षाएँ– जो विविध पत्र-पत्रिकाओं में छपीं और बाद में ‘इल्युमिनेशंस’ के अंग के रूप में शामिल हुईं –में उनकी आलोचना दृष्टि स्पष्ट हुईं। हालाँकि इस सम्बन्ध में उनकी कोई कृति ऐसी नहीं है जिसे ‘विधिवत सैद्धान्तिक आलोचना के रूप में लिखा गया हो।

 

साहित्य के स्वरूप, उद्गम, विकास व प्रभाव– इन चार क्षेत्रों पर मुख्यतः अपना स्वतन्त्र चिन्तन प्रस्तुत करते हुए बेंजामिन ने, साहित्य के मूल्यांकन के लिए, अपने आधार व कसौटियाँ तय कीं। इन्हें बेतरतीब रूप में लिखा गया है, तथापि उनके विचारों को कुछ इस प्रकार तरतीब दी जा सकती है–

  • विधारूप चिन्तन अथवा साहित्य के उद्गम पर विचार
  • अन्तर्वस्तु या अन्तर्जीवन-मूलक चिन्तन
  • दिक्‍काल-मूलक द्वन्द्वात्मकता अर्थात् ‘समय में उत्खनन’ से जुड़ी रचनाप्रक्रिया
  • सौन्दर्यानुभूति मूलक आस्वाद एवं अन्य कलारूपों से
  1. सम्बद्ध साहित्य की भाषापाठीय संरचनाएँ

   वॉल्टर बेंजामिन ‘अच्छे गद्य’ को साहित्य की श्रेष्ठता की कसौटी की तरह देखते थे। जिस तहत संस्कृत में बाणभट्ट या श्रीहर्ष के अच्छे गद्य की प्रशंसा करते हुए यह कथन प्रचलित हो गया था कि ‘गद्य कविताई की कसौटी है’ (गद्यं कविनां निकषं वदन्ति) उसी तरह बेंजामिन ने ‘काव्यात्मकता’ को गद्य के गुण की तरह रेखांकित किया है।

 

‘कथा’ पर अपनी एक टिप्पणी में बेंजामिन ने लिखा कि ‘अब अच्छी कथाएँ लिखी जानी असम्भव हो जाएँगी। क्योंकि हमारे समय में गद्य में काव्यात्मकता का अभाव देखने को मिल रहा है।’ विधारूप, बेंजामिन की निगाह में, स्वयं जीवन के उद्गम व विकास की प्रक्रियाओं से बँध कर विकास पाते हैं। जैसे; पहली कहानी पर उन्होंने कहा कि वह ‘परीकथा’ होगी, जिसे प्रागैतिहासिक समयों के मनुष्य ने, देखे गए दु:स्वप्नों के विकल्पों की तरह विकसित किया होगा। इस कथन का विस्तार करते हुए उन्होंने, कथा के विकासक्रम में मिथकों की भूमिका पर विचार किया। यहीं से कथा के मूल्यांकन की कसौटी भी निकली। अच्छी कथा वह है जो हमें, हमारे समय में, उन समयों तक वापस ले जाने का प्रयास करती है, जिनसे खुद कथा के स्रोत बँधे हैं। यानी साहित्य अपने विकास-क्रम में चाहे जितना भी ‘आगे’ निकल जाए, उसे अपनी ‘जड़ों’ में पाँव जमाए रखने की जरूरत पड़ती है, ताकि वह खाद-पानी से रहित होकर अन्ततः निष्प्राण न हो जाए। इस बात को ठीक से समझ लेने पर, हमारे लिए उनके ‘साहित्य के अन्तर्जीवन’ व ‘समय में उत्खनन’ की अन्य धारणाओं को समझ पाना आसान हो जाता है।

 

7.1. साहित्य का अन्तर्जीवन

 

बेंजामिन और बाद में अडोर्नो ने, साहित्य पर विचार करते हुए क्रमशः साहित्य के ‘अन्तर्जीवन’ व ‘अन्तर्व्यक्तित्व’ की बात की है। इन धारणाओं को ‘साहित्य की आत्म-स्वायत्तता’ की धारणाओं तक ले जाना थोड़ा खींचतान करने जैसा लगता है। कहा जा सकता है कि आगे चलकर साहित्य को स्वायत्त घोषित करने वाले चिन्तकों के लिए, बेंजामिन व अडोर्नो एक भूमिका बनाने का काम कर गए से लगते हैं, लेकिन इन दो चिन्तन-प्रणालियों में फर्क भी है। बेंजामिन व अडोर्नो स्वायत्तता के पक्ष में खड़े होने के लिए, कभी अपनी जमीन का परित्याग नहीं करते।

 

बेंजामिन के लिए अच्छा साहित्य वह है जो अपने ‘दिक्‍काल’ की उपज हो और समकालिकता की जो चुनौतियाँ उसे इस जमीन से अलहदा करना चाहती हों, उनसे बचने के लिए प्रतिरोध करे; वह ‘समय के उथलेपन’ का मुकाबला करने के लिए ‘समय की गहराई’ का प्रयोग एक अस्‍त्र की तरह करे। साहित्य के अन्तर्जीवन की बेंजामिन की धारणा का सम्बन्ध, उनके द्वारा विकसित एक और धारणा से भी है। इसे वे साहित्य की ‘एकल सत्ता’ (सिंगल अथॉरिटी ऑफ लिटरेचर) कहते हैं।

 

बेंजामिन ने बार-बार इस सन्दर्भ में, अपनी इस चिन्ता अभिव्यक्त की कि उनके दौर में स्थापित हो गई जनसंकुल उत्पादन पद्धतियों ने अपने यान्त्रिक पुनारुत्पादों के द्वारा, साहित्य की जिस वस्तु को सबसे ज्यादा चोट पहुँचाई, वह है उसकी ‘अपनी एकल सत्ता’। साहित्य के पास अपनी एकल सत्ता की निधि कैसे बची रह सकती है? इस सवाल के जवाब में उन्होंने साहित्य की एक ‘अन्तःक्षमता’ का उल्लेख किया है, जिसका वह पाठकों के चित्त में हरदम उद्बोधन करती है। वह अन्तःक्षमता है – मनन के सम्भावना क्षेत्र को जन्म देने का  सामर्थ्य। साहित्य, मनन को उद्बद्ध करने वाला ज्ञान-सौन्दर्य-मूलक अनुशासन है।

 

साहित्य के ‘अन्तर्जीवन’ की ‘एकल सत्ता’ से पाठक के चित्त में ‘मनन की अन्तःक्षमता’ उत्पन्‍न होती है। साहित्य का यान्त्रिक पुनरुत्पादन उस क्षमता को, सांस्कृतिक अथवा सौन्दर्यबोधात्मक आघात पहुँचाता है। ‘सौन्दर्यबोधात्मक आघात’ वाली बेंजामिन की धारणा रेखांकित करती है कि कैसे एक ही सामग्री पत्र-पत्रिकाओं, किताबों, धारावाहिकों, फिल्मों या कला-बिम्बों के रूप में, बार-बार ‘बिना किसी अन्तराल के’ तथा एक ‘सातत्यमूलक पुनरुक्तियों-पुनर्प्रस्तुतियों’ से पाठक के चित्त पर आरोपित की जाती है? इससे शब्द व बिम्ब, एक लुभावनी और दृश्याभिराम निरन्तरता में, हमारे चित्त पर छाए रहते हैं। फलस्वरूप हमारे ‘मनन का क्षेत्र’ बचता ही नहीं। यों ‘मनन के सम्भावना-क्षेत्र के विनाश’ द्वारा साहित्य को केवल एक लुभावना पर निष्प्राण भाषावास्तु-मूलक उत्पाद बना लिया जाता है, इसे बेंजामिन साहित्य के अन्तर्जीवन के विनष्ट होते जाने के रूप में देखते हैं।

 

निष्कर्ष यह है कि अच्छा साहित्य वही है जो इस यान्त्रिक पुनरुत्पादन के दौर में भी, अपनी ‘अलग से पढ़े जाने की जरूरत’ बनाए रख पाता है और जिसे पाठक अपने मनन के सम्भावना-क्षेत्र के लिए जरूरी पाते हैं।

 

7.2. समय में उत्खनन की रचना-प्रक्रिया

 

साहित्य में अन्तर्जीवन का सम्बन्ध, ‘समय की गहराई’ और जमीन (स्पेस) से सम्बद्धता के साथ है। इसलिए साहित्य के सन्दर्भ में उसके अपने ‘समय के इतिहास’ को, तथा उसकी ‘जमीन से उपज सकने वाले प्रभामण्डल’ को बचाना सबसे अधिक जरूरी है। ये दोनों चीजें ऐसी हैं, जिन्हें बेंजामिन अपने यान्त्रिक पुनरुत्पादन के दौर में, सर्वाधिक संकटग्रस्त हुआ पाते हैं। स्पष्ट किया जा चुका है कि कैसे यह दौर समय के ‘उथले समकालिक पर्त’ को बचाता है, तथा ‘समय की गहराई में मौजूद इतिहास का दमन’ करता है।

 

बेंजामिन ने अपने दौर के उस यूरोप को देखा था, जो साम्राज्यवादी विस्तारवाद की नीति के तहत, दुनिया भर के मूलनिवासियों को अपनी जमीन से बेदखल कर रहा था। इसलिए ‘अन्तर्राष्ट्रीयता’ के नाम पर ‘जमीन के इतिहास में गहराई’ को नकार कर, उसका स्थगन कर रहा था।

साहित्य के जरिये, जमीन सौर समय (दिक्‍काल) की गहराई में उतर सकने की जो सम्भावनाएँ खुल सकती हैं; वे बेंजामिन के अनुसार, श्रेष्ठ साहित्य की कसौटी हैं। गहराई में उतरते हुए वे अपने इतिहास-दर्शन को साहित्य की रचना-प्रक्रिया की शक्ल में ढालते हैं।

 

7.3. भाषापाठीय संरचनाएँ और सौन्दर्यानुभूति

 

बेंजामिन ने साहित्य को एक कला-अनुभव की तरह देखा जो हमारे सामने भाषापाठों के रूप में आया। इस सम्बन्ध में उनका एक प्रसिद्द उद्धरण है कि अच्छा गद्य एक संगीत की तरह उतरता है, स्थापत्य की तरह व्यवस्थित होता है तथा बुनकरी के रूप में लिखा जाता है। एक और उद्धरण है कि साहित्य हमें ‘निर्णयों तक नहीं’, मनन से लेकर मौन होने तक के बोध और अनुभूतियों की क्षमता तक ले जाता है।

 

साहित्य को एक समग्र कला-अनुभव की तरह देखने की वजह से, बेंजामिन ने अच्छे साहित्य को ‘सौन्दर्यमूलक आस्वाद वाले मौन’ तक ले जाने की क्षमता से जोड़ा। उनका यह ‘आस्वाद-मूलक मौन’ वह काव्यास्वाद नहीं है, जिसे संस्कृत काव्यशास्‍त्र ‘रस की अनिर्वचनीयता’ से जोड़कर देखता है। वह तो ‘समय का प्रतिरोध करने वाले सार्वभौम इतिहास की वर्तमान में कौंध से जन्म लेता है। यह वह इतिहास है जो जीवन्त व संश्लिष्ट होता है। इसे पढ़ा या खोजा नहीं जाता, अपितु समय में उत्खनन करते हुए खुद को एक कौंध की तरह उद्घाटित करता है।

  1. निष्कर्ष

   वॉल्टर बेंजामिन नव-वाम विमर्शकारों में से एक हैं। उनकी उदार सोच के कारण कई विचारक उन्हें ठीक-ठीक वामपन्थी नहीं मानते। वॉल्टर बेंजामिन ने ‘अच्छे गद्य’ को साहित्य की श्रेष्ठता की कसौटी की तरह देखा है। जिस तरह संस्कृत में बाणभट्ट या श्रीहर्ष के अच्छे गद्य की प्रशंसा करते हुए कथन प्रचलित हुआ कि ‘गद्य कविताई की कसौटी है’ उसी तरह बेंजामिन ‘काव्यात्मकता’ को गद्य के गुण की तरह रेखांकित करते हैं।

 

बेंजामिन ने हिटलर की कट्टरपन्थी सोच को उसके समय में ही चुनौती दी थी। बेंजामिन को पढ़ते हुए हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि साहित्य भी जीवन की तरह होता है। वह जमीनी हालात, पर्यावरण व इतिहास में जन्म लेता है, पनपता है, विस्तार पाता है। इस जमीनी इतिहास वाला अर्थ उपलब्ध होने के लिए एक सार्वभौम इतिहास वाली चेतना की जरूरत पड़ती है, ताकि हम उसे उस जमीन में पुनः रोप सकें। जिस जमीन पर हमारा जन्म हुआ है, वहाँ का सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण हमारी चेतना का निर्माण करता है। यह चेतना समय की चुनौतियों के उपस्थित होने पर, जिन ‘सृजनधर्मी संश्‍लेषों’ को खोजती है, वे वही होते हैं जो अपनी उसी जमीन को कसौटी बनाते हैं। जमीन या स्थानीय पर्यावरण को कसौटी बनाने का अर्थ है – उस जमीन के सामाजिक पर्यावरण से पाए उस सामूहिक इतिहास की चेतना के साथ जीना, जो हमारी जातीय स्मृतियाँ बनकर हमारे रक्त का हिस्सा हो जाता है। यह वह इतिहास है जिसे सभी लोग अपनी जमीनी संस्कृति के माध्यम से पाते हैं और उसमें धर्मों की भी एक खास भूमिका रहती है।

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अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  1. फ्रैंकफर्ट स्कूल : सामाजिक सिद्धान्तों और दर्शन से सम्बन्धित संस्थान जो गोयथे विश्वविद्यालय, फ्रैंकफर्ट, जर्मनी का एक महत्वपूर्ण अंग है।
  2. नाजीवाद : हिटलर की राजनैतिक विचारधारा जो जर्मनी के नाज़ी दल से सम्बन्धित है।
  3. ऐतिहासिक भौतिकवाद : मार्क्सवादी दर्शन का संघटक भाग जो समाज के इतिहास की व्याख्या करता है।

    पुस्तकें

  1. संकट के बावजूद, मैनेजर पाण्डेय(सं.),वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
  2. मास्को डायरी, वॉल्टर बेंजामिन, (अनुवाद : संतोष चौबे), मेघा बुक्स दिल्ली।
  3. Understanding Brecht, Walter Benjamin, (Translation : Anna Bostock), Verso, London.
  4. Walter Benjamin and Romanticism, Edited by Beatrice Hanssen and Andrew Benjamin, Continuum, New York, London.
  5. Working with Walter Benjamin : Recovering a Political Philosophy, Andrew Benjamin, Edinburg University Press, Edinburg.

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