18 विचारधारा और साहित्य

रामबक्ष जाट

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप

  • विचारधारा क्या होती है? इसे जान पाएँगे।
  • साहित्य रचना और उसके मूल्यांकन में विचारधारा की क्या भूमिका होती है? इसे समझ पाएँगे।
  • विचारधारा के सम्बन्ध में कार्ल मार्क्स और अन्य विचारकों के मत से परिचित हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   साहित्य का सृजन क्यों होता है? लेखक क्यों साहित्य सृजन करना चाहता है? लेखक अपनी रचना के माध्यम से  क्या और क्यों कहना चाहता है? उसने इसके विपरीत क्यों नहीं चाहा?– इस तरह के अनेक प्रश्‍न पैदा हो सकते हैं। ये प्रश्‍न साहित्य के बाहर के प्रश्‍न हैं। इन प्रश्‍नों के समाधान के लिए हमें दर्शन, विचारधारा, चिन्तन-मनन की जरूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए एक रूढ़िगत वाक्य को देखा जा सकता है– ‘अन्त भला तो सब भला’। यह सिर्फ वाक्य नहीं है, यह वाक्य एक निश्‍च‍ित विचारधारा से पैदा होता है। रचना का कथ्य और निष्कर्ष यह वाक्य पहले से ही तय कर देता है। यह एक ऐसे समाज की विचारधारा है, जो दुखान्त को पसन्द नहीं करता। इसलिए तमाम विघ्‍न-बाधाओं के बावजूद दुष्यन्त और शकुन्तला मिल जाते हैं। अधिकतर फिल्मी और गैर-फिल्मी प्रेम कहानियों का अन्त सुखद मिलन में हो जाता है। यह किसी एक लेखक की एक रचना की व्याख्या-विश्‍लेषण भर का मामला नहीं है। इसे अनेक प्रसंगों में देखा जा सकता है। इसलिए, प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानी कफ़न  में घीसू और माधव इस बात से आश्‍वस्त हैं कि बुधिया का अन्तिम संस्कार तो हो ही जाएगा। यह विचारधारा लेखक के सृजन को बहुत दूर तक प्रभावित करती है।

  1. रचना और विचारधारा

    रचना की व्याख्या सिर्फ रचना की अन्तर्वस्तु के आधार पर नहीं की जा सकती। रचनाकार जब अपने विषय का चुनाव करता है, उस चुनाव में ही विचारधारा भूमिका निभाती है। उदाहरण के लिए सूरदास ने एक वैचारिक निर्णय लिया कि उन्हें निर्गुण मत और योग मार्ग का खण्डन करना है। उन्होंने इस कार्य के लिए भ्रमरगीत  प्रसंग को चुना और उद्धव-गोपी संवाद द्वारा निर्गुण मत का खण्डन किया। गोस्वामी तुलसीदास राम के माध्यम से एक आदर्श मनुष्य,राजा,पुत्र, भाई, मित्र के रूप को समाज में प्रतिष्ठित करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने रामकथा को चुना और रामचरितमानस   की रचना की। इसी तरह रीतिकाल के कवि मानते थे कि मनुष्य के आनन्द का सर्वोत्तम रूप काम-सम्बन्धों में मिलता है, इसलिए उन्होंने स्‍त्री-पुरुष काम-सम्बन्धों पर कविताएँ लिखीं और अपनी कविता में शृंगारिकता को महत्त्व दिया। इस तरह हम कह सकते हैं कि रचनाकार की विचारधारा रचना की विषयवस्तु को प्रभावित और नियमित करती है। यह अवश्य है कि विचारधारा के कारण न तो रचना श्रेष्ठ होती है और न निकृष्ट। रचना की श्रेष्ठता का पैमाना अलग होता है।

 

विषय चयन के बाद पात्रों के चरित्र निर्माण में भी लेखक की वैचारिक समझ अहम भूमिका निभाती है। प्रेमाश्रम में ज्ञानशंकर सबसे कुटिल पात्र है। वह जमीन्दार है। किसानों का दुश्मन है। उसमें और भी अनेक चारित्रिक दुर्गुण विद्यमान हैं। असहयोग आन्दोलन से पूर्व प्रेमचन्द समझते थे कि जमीन्दार किसानों का सबसे बड़ा शत्रु होता है। अंग्रेज अफसर फिर भी भले होते हैं। असहयोग आन्दोलन के बाद प्रेमचन्द इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अंग्रेजी राज ही किसानों का सबसे बड़ा शत्रु है। अतः इसके बाद प्रेमचन्द ने किसी भी जमीन्दार को उतना कुटिल और शक्तिशाली नहीं बनाया। बाद के सारे जमीदार पात्र कर्ज में डूबे हुए एवं पतित वर्ग के रूप में हमारे सामने आते हैं। गोदान के रायसाहब से प्रेमाश्रम  के प्रेमशंकर की तुलना की जा सकती है। यह सब प्रेमचन्द के विचारों में आए हुए परिवर्तनों से सम्भव हुआ।कामायनी  में प्रसाद ने मनु और श्रद्धा के प्रथम मिलन का मोहक वर्णन इसलिए किया, क्योंकि वे मानते थे कि प्रथम दृष्टि से उत्पन्‍न प्रेम ही सच्‍चा होता है, परन्तु मन्‍नू भण्डारी ने प्रेम की इस धारणा पर प्रश्‍न उठाया और यही सच है  कहानी लिखी।

 

विचारधारा से व्यक्तित्व का रूपान्तरण हो जाता है। इसकी चर्चा मुक्तिबोध ने अन्धेरे में  और कल जो हमने चर्चा की थी कविता में की है। कई बार हम देखते हैं कि रचना के विकास और गति को नियन्त्रित करने का काम विचारधारा करती है।

  1. विचारधारा की धारणा का विकास

    विचारधारा मुख्यतः जीवन जगत के बारे में हमारी समझ का एक रूप है। हम यथार्थ के बारे में जो कुछ जानते-समझते हैं, उस पर टिप्पणी करते हैं। यथार्थ को बदलने या बनाए रखने के लिए जो कुछ करते हैं, वह सब विचारधारा है। विचारणीय है कि कोई भी अवधारणा एकाएक नहीं आती। उसका एक इतिहास होता है। आज भले ही यह माना जाता हो कि बिना विचारधारा के किसी मानव समाज के होने की सम्भावना मुश्किल जान पड़ती है, तब भी अपने वर्तमान रूप में विचारधारा की अवधारणा लगभग दो सौ वर्ष पुरानी है। इससे पहले धर्म था, दर्शन था, चिन्तन था, विचार भी थे, परन्तु समग्रतः विचारधारा की अवधारणा नहीं थी।

 

इस अवधारणा का जन्म यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति के बाद हुआ। निर्णायक रूप से फ्रांसीसी क्रान्ति (सन् 1789) से इस अवधारणा का प्रारम्भ माना जा सकता है। इस क्रान्ति के कुछ वर्षों बाद सन् 1797 में प्रबोधन काल के बुद्धिजीवियों में से एक एण्टोइक डेस्टेट्ट द ट्रेसी (Antoine Destutt de Tracy, सन् 1754-1836) ने पहली बार विचारधारा पद का प्रयोग किया। ट्रेसी के अनुसार विचारधारा ‘विचारों का विज्ञान’ है। चूँकि यह विज्ञान है, अतः ये विचार पूर्व निर्धारित नहीं होते। विचारों का निर्माण किया जा सकता है। ये आप्‍त वचन नहीं होते। इनका सृजन इन्द्रिय बोध से होता है। इसलिए ट्रेसी के अनुसार विचारधारा जीव विज्ञान का विषय है, मनोविज्ञान का नहीं। उनकी राय में हमारे चेतन जीवन के चार अंग हैं– बोध, स्मृति, निर्णय और इच्छा। ये चारों सम्वेदना के विविध रूप हैं, यह कार्य हमारे शरीर की नाड़ियाँ करती हैं। अर्थात यह कोई अतीन्द्रीय अनुभव नहीं है, शारीरिक अनुभव है।

 

ट्रेसी ने कहा कि विज्ञान की अन्य शाखाओं की तरह विचारों का विज्ञान भी परीक्षण पर आधारित है और सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त है। उनका मत है कि तर्क से मनुष्य को प्रसन्‍नता प्राप्‍त होती है। इसलिए तर्क को विकसित करने के लिए चर्च के स्थान पर विश्‍वविद्यालय की स्थापना करनी चाहिए। प्रबोधन काल के बुद्धिजीवियों की तरह ट्रेसी का भी मत है कि सृष्टि मूलतः तार्किक है, इसे मात्र तर्क से समझा जा सकता है। मानव जीवन को हम प्रकृति की तरह समझ सकते हैं। जब समझ सकते हैं, तो उसी तरह उसमें परिवर्तन और विकास भी कर सकते हैं, जैसा कि इंजीनियर प्रकृति के साथ करते हैं। इसको जानने-समझने और बदलने के लिए मानवीय अनुभूति ही प्रमाण है। इस तरह विचारधारा अपने मूल अर्थ में सामाजिक परिवर्तन और विकास का माध्यम है।

 

पाश्‍चात्य दार्शनिक चिन्तन में विचार, ज्ञान, सत्य और अनुभव पर लम्बी बहस हुई है। यह बहस हीगेल और फायरबाख तक चली। फिलहाल विचारधारा सम्बन्धी मार्क्स के विचारों का अध्ययन करते हैं।

  1. कार्ल मार्क्स का मत

   मार्क्स का मत है कि मनुष्य अपने जीवन निर्वाह के लिए भोजन, पानी और आवास की व्यवस्था करता है। इसके लिए उसे काम करना पड़ता है। “जीवन निर्वाह के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और परिणामतः उस जनगण का अथवा उस युग में उपलब्ध आर्थिक विकास का स्तर वह आधार होता है, जिस पर जनगण की राजकीय संस्थाएँ, कानूनी धारणाएँ, कला और यहाँ तक कि उनके धर्म-सम्बन्धी विचार विकसित हुए होते हैं। उसकी रोशनी में ही इनकी व्याख्या की जानी चाहिए, न कि इसके उलटे तरीके से।”

 

इस बात को समझने के लिए उत्पादन के साधनों का अवलोकन किया जा सकता है। औजार, हल, बैल, मानवीय श्रम आदि उत्पादन के साधन हैं। उत्पादन, मनुष्य अकेला नहीं करता। सब लोग मिल-जुलकर उत्पादन करते हैं। इस प्रक्रिया में मनुष्य के आपसी सम्बन्ध बनते हैं। ये सम्बन्ध उत्पादन सम्बन्ध कहलाते हैं। इन दोनों को मिलाने से उत्पादन पद्धति बनती है। यह समाज का आधार है। इस आधार के अनुरूप समाज का ऊपरी ढाँचा बनता है। कला, विचारधारा और साहित्य समाज का ‘ऊपरी ढाँचा’ है।

 

आधार और ऊपरी ढाँचा में अन्तर्विरोध होता है। इसे इस रूप में समझा जा सकता है कि उत्पादन के साधनों में लगातार विकास होता रहता है, वे विकसित होते रहते हैं, परन्तु उत्पादन के सम्बन्ध लम्बे समय तक वही बने रहते हैं। तब उत्पादन के साधनों और उत्पादन सम्बन्धों में संघर्ष होता है। इस संघर्ष से समाज का विकास होता है। इस प्रक्रिया में आधार बदलता रहता है। आधार के परिवर्तन के साथ ऊपरी ढाँचा में स्वतः परिवर्तन नहीं होता, इनमें संघर्ष होता है। इस प्रक्रिया में दो विरोधी मान्यताएँ सामने आती हैं। उत्पादन सम्बन्ध या तो उत्पादन के साधनों को बढ़ावा देते हैं या उनके विकास की गति को रोकते हैं। जब रुकावट आती है, तो संघर्ष होता है, अन्ततः पुराने सम्बन्ध समाप्‍त होते हैं, नए सम्बन्धों की शुरुआत होती है। ये उत्पादन सम्बन्ध अपने समर्थन में विचार, नीति, धर्म, क़ानून, पुलिस और तन्त्र को सामने लाते हैं।

 

इसके साथ ही आधार और अधिरचना में भी अन्तर्विरोध होता है। ऊपरी ढाँचा में आधार का अन्तर्विरोध प्रतिबिम्बित होता है। इस अन्तर्विरोध के कारण समाज में वर्ग-संघर्ष होता है। मार्क्स का मत है कि अब तक का इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास है। साहित्य, संस्कृति और अन्य वैचारिक क्षेत्रों में भी यह वर्ग-संघर्ष प्रतिबिम्बित होता है। यह मार्क्स की मूल मान्यताओं का सार-संक्षेप है। इनके भीतर अनेक अन्तर्निहित बिन्दु हैं, जिन पर अलग से चर्चा हो सकती है।

 

विचारों के सन्दर्भ में मार्क्स का मत है कि उत्पादन की प्रक्रिया विचार की प्रक्रिया की जननी है। उत्पादन के क्रम में विचार उत्पन्‍न होते रहते हैं। जब-जब उत्पादन की पद्धति में परिवर्तन होता है, तब-तब संस्थाओं और विचारों में भी परिवर्तन हो जाता है। इसी क्रम में साहित्य में भी परिवर्तन हो जाता है। इसी कारण हम देखते हैं कि जो बात एक समय में नैतिक समझी जाती थी, वही दूसरे काल में, दूसरी अवस्था आने पर अनैतिक समझी जाने लगती है। जो बात किसी समय अनैतिक मानी जाती थी, वह आज क्रान्तिकारी लग सकती है। इसलिए जब भी भौतिक परिवर्तन होता है, उत्पादन का ढंग बदलता है, उसके साथ ही विचारों का संघर्ष भी छिड़ जाता है।

 

ऐसे सारे सिद्धान्त विशेष देश और काल के सामाजिक संगठन के प्रतिनिधि होते हैं। कोई भी विचार शाश्‍वत नहीं होता। देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार उन विचारों का अर्थ भी बदल जाता है। यूनान के शहरी राज्यों में समानता का सिद्धान्त गुलामों पर लागू नहीं होता था। महान फ्रांसीसी क्रान्ति के पदबन्ध ‘स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व’ का अभिप्राय सिर्फ इतना था कि उभरते हुए पूँजीपति वर्ग को खुलकर व्यापार करने की स्वतन्त्रता मिले, सामन्तों और सम्राट के साथ समानता का व्यवहार हो तथा आपस में भाईचारा बना रहे। ये विचार फ्रेंच उपनिवेशों और वहाँ के गरीब दासों पर लागू नहीं थे। तात्पर्य यह कि विचार सार्वभौमिक और सार्वकालिक नहीं होते। उनका वर्गीय चरित्र होता है। शक्तिशाली वर्ग के विचार शेष समाज पर इस तरह थोप दिए जाते हैं कि वे विचार शाश्‍वत और सार्वकालिक लगे।

 

समाज में सत्ता अपने विरोधी विचारों को ध्वस्त करने, उन्हें मिथ्या साबित करने, दण्ड देने, जेल भेजने या फाँसी देने के लिए क़ानून और राज सत्ता का उपयोग करती है। यहाँ रेखांकित किया जाना चाहिए कि विचार भौतिक परिस्थितियों से केवल उत्पन्‍न होते हैं, पर उत्पन्‍न होने के बाद वे मनुष्य के कार्यों, घटना क्रम और भौतिक परिस्थितियों को प्रभावित करने लग जाते हैं। इसलिए वैचारिक संघर्ष होता है। पुरानी परिस्थितियों के समर्थक और नई परिस्थितियों के समर्थक विचारों में टकराहट होती है। यह संघर्ष अवश्यम्भावी है। इसे टाला नहीं जा सकता। साहित्य इस वैचारिक संघर्ष का हिस्सा है और यह सब विचारधारात्मक संघर्ष है।

 

मार्क्स का मत है कि मनुष्य अपने श्रम द्वारा इस दुनिया को बदलता है, प्रकृति को बदलता है, इस क्रम में वह अपने आप को भी बदलता है। ऐसा इसलिए सम्भव है क्योंकि मनुष्य का श्रम प्रयोजनमूलक होता है। वह किसी कार्य की सिद्धि के लिए श्रम करता है। यहाँ मनुष्य की चेतना सक्रिय होती है, जो उसे पशु से अलग करती है और वह उसकी अन्धी गतिविधि नहीं होती है। पशु का कार्य उसकी जैविक गतिविधि है, मनुष्य का श्रम उसकी सचेत क्रिया है। इसलिए मार्क्स ने लिखा है कि मनुष्य द्वारा निर्मित खराब से खराब भवन भी बया के खूबसूरत घोसले से बेहतर होता है, और इस अर्थ में किसी भी ढाँचे के निर्माण से पहले मनुष्य उसे कल्पना में निर्मित कर चुका होता है। उसका निर्माण पहले मनुष्य की चेतना में हो चुका होता है, बाद में अपने श्रम द्वारा वह उसे मूर्त्त रूप देता है। इस तरह कलात्मक निर्माण और सामान्य निर्माण में कल्पना की भूमिका को मार्क्स रेखांकित करते हैं।

 

मनुष्य अपने श्रम द्वारा उत्पादन करते हुए सामाजिक जीवन का भी निर्माण करता है। इस क्रम में मनुष्य में आपसी सहयोग के अन्तःसम्बन्ध विकसित होते हैं और इसी में श्रम विभाजन की अवधारणा सामने आती है। ज्यों ही श्रम विभाजन तय होता है, हर व्यक्ति के लिए उसकी भूमिका तय हो जाती है। इस अर्थ में मनुष्य स्वयं अपने इतिहास का निर्माण करता है, परन्तु यह निर्माण वह अपनी मर्जी से नहीं कर सकता। वह अतीत से निर्धारित क्षेत्र के भीतर ही कर पाता है। इस कारण कुछ लोग सम्पत्ति से वंचित रह जाते हैं।

 

मार्क्स ने आगे कहा कि मनुष्य अपनी क्रिया द्वारा ही ज्ञान प्राप्‍त करता है। विचार सिर्फ चिन्तन से पैदा नहीं होता। आँख मूँदकर ध्यान करने से दर्शन निर्मित नहीं होता। ज्यों-ज्यों उसके श्रम के कौशल का विकास होता है, उसका चिन्तन विकसित होता जाता है। मनुष्य की चेतना उसका सचेत अस्तित्व है। यही अस्तित्व समाज में, दर्शन में, विचार में, कविता में व्यक्त होता है।

 

मार्क्स ने कहा कि सिर्फ प्रभुत्वशाली वर्ग ही विचार पैदा नहीं करता, समाज के सभी वर्ग विचार पैदा करते हैं, लेकिन प्रभुत्वशाली वर्ग के विचार समाज पर हावी रहते हैं। इसलिए जिस वर्ग का भौतिक प्रभुत्व होता है, उसी वर्ग का बौद्धिक प्रभुत्व भी हो जाता है। कई बार उपेक्षित-वंचित वर्ग द्वारा उत्पन्‍न विचार भी शासक वर्ग के हित-साधन में लग जाते हैं। यह सीधी प्रक्रिया नहीं है, अत्यन्त जटिल और द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया है।

  1. मिथ्या चेतना

    मार्क्सवाद के अनुसार विचारधारा मिथ्या चेतना है। हालाँकि मार्क्स ने कभी मिथ्या चेतना शब्द का प्रयोग नहीं किया। इस शब्द का प्रयोग पहली बार एंगल्स ने किया। मार्क्सवाद के अनुसार पूँजीवादी समाज में मजदूरों और अन्य वर्गों के रिश्तों की मिथ्या समझ पैदा हो जाती है। समाजवाद से पूर्व के समाज में यह मिथ्या चेतना वर्ग शक्तियों के वास्तविक रिश्तों को छिपाती है और मजदूरों के मन में यह मिथ्या धारणा भरती है कि वे भी मेहनत करके उच्‍च वर्ग में शामिल हो सकते हैं। यह धारणा उनकी मिथ्या चेतना है।

 

इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि एक व्यक्ति के पास पैसा है और दूसरे व्यक्ति के पास जूता है। वह पैसा देकर जूता खरीद लेता है। अर्थात उसने जूते का मूल्य चुका दिया है। अब इन दोनों के बीच कोई मानवीय रिश्ता नहीं बनता। हम वह मान लेते हैं, जो नहीं है। हम मान लेते हैं कि ऐसा ही होता है। यही सही है। इसमें खरीद-बिक्री में कोई बेईमानी नहीं हुई है। अतः यही नियम है। मार्क्सवादियों का मानना है कि इसे नियम मान लेना, स्वाभाविक मान लेना, उचित मान लेना मिथ्या चेतना है।

 

मार्क्स कहते हैं कि समाज में सभी लोग एक दूसरे के साथ प्रतिद्वन्द्विता की स्थिति में है। सब एक दूसरे से संघर्ष की स्थिति में जीते हैं। यह वर्ग-संघर्ष है। इस प्रतिद्वन्द्विता या संघर्ष में वह वर्ग जीतता है जो अपने वर्गहित को सारे समाज के हित के रूप में सिद्ध करने में सफल हो जाता है। यह मिथ्या चेतना है और यह सब विचारधारा द्वारा सम्भव हो पाता है।

 

वर्ग विभाजित समाज में धन और सत्ता का असमान वितरण होता है। इसको उचित, स्वीकार योग्य, अवश्यम्भावी, सहज और प्राकृतिक की तरह प्रस्तुत करने का काम विचारधारा करती है। शोषित और उत्पीड़ित जनता यह विश्‍वास करने लगती है कि यह नैसर्गिक है। किसान मान लेता है कि जमीन्दार बड़ा होता है और इसी कारण मजदूर पूँजीपति का आदेश मान लेता है। यह मान लेना मिथ्या चेतना है। यह मान लेना विचारधारा है।

 

उदाहरण के लिए यह माना जाता है कि ‘कानून के सामने सभी बराबर हैं।’ अब जिसके पास उत्पादन के साधन हैं, वह बेहतर वकील नियुक्त कर सकता है। इसलिए वह अपने पक्ष में फैसले जुटाने में सक्षम हो जाता है। इसी तरह शिक्षा का अधिकार समान है, परन्तु व्यवहार में पूँजी के मालिक बेहतर शिक्षा पाते हैं। इस तथ्य को छिपाना मिथ्या चेतना है।

 

समाज के अन्तर्विरोध को विचारधारा कई तरह से छिपाती है–

  • 1) वह अन्तर्विरोध को नकारती है। कई बार ऐसा कहा जाता है कि समाज में समरसता है। कहीं कोई अन्तर्विरोध है ही नहीं। सब अपना-अपना काम हँसी-खुशी कर रहे हैं।
  • 2) कई बार वह अन्तर्विरोधों को गलत ढंग से समझती और समझाती है। कई बार आर्थिक और सैनिक संघर्षों को धार्मिक या जातिवादी संघर्ष के रूप में दिखाती है।
  • 3) जहाँ अन्तर्विरोध नहीं है, वहाँ वह अन्तर्विरोध दिखाती है। इस तरह अन्तर्विरोधों का भ्रम पैदा करती है।
  • 4) वह अन्तर्विरोधों को कम करके प्रस्तुत करती है। बहुत सामान्य घटना की तरह उनका वर्णन करती है।

    ये सारे काम साहित्य में बड़ी आसानी से किए जा सकते हैं। मध्यकालीन साहित्य में इसे बखूबी देखा जा सकता है।

 

बहुत दिनों तक मार्क्सवादी चिन्तकों ने मार्क्सवाद को विचारधारा के रूप में स्वीकार नहीं किया था। वे कहते रहे कि विचारधाराएँ तो बुर्जुआ होती हैं, जबकि मार्क्सवाद एक विज्ञान है। बाद में लेनिन सहित अन्य विचारकों ने स्वीकार किया कि मार्क्सवाद भी विचारधारा है। तब वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मार्क्सवाद मजदूर वर्ग की वर्ग-चेतना है, मिथ्या चेतना नहीं। लेनिन ने कहा कि सर्वहारा स्वयं स्वतः स्फूर्त्त रूप में सिर्फ मजदूर संघ बना सकता है। वर्ग चेतना से युक्त राजनीतिक दल नहीं बना सकता। ये काम बाहरी बुद्धिजीवी करते हैं।

 

जॉर्ज लुकाच ने मिथ्या चेतना और वर्ग चेतना के बारे में कुछ नई बातें जोड़ीं। लुकाच के अनुसार मनुष्य के इतिहास में सर्वहारा पहला ऐसा वर्ग है, जिसमें सही अर्थों में वर्ग-चेतना हो सकती है। शेष सभी वर्ग, जिसमें बुर्जुआ वर्ग भी शामिल है, वे ‘मिथ्या चेतना’ से ग्रसित रहते हैं, जिस कारण वे इतिहास को सम्पूर्णता में नहीं देख पाते। सर्वहारा इतिहास का विषय है, जिसका निर्माण पूँजीवादी समाज की रचना के दौरान हो गया था और वह कर्ता भी है, जिसके श्रम से दुनिया की रूप रचना होती है। इसलिए उसका ज्ञान वास्तविक और सम्पूर्ण होता है। अन्त में लुकाच इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किसी भी समाज की वास्तविक शक्ति अन्तिम अर्थ में आत्मिक शक्ति होती है। हम सिर्फ ज्ञान से ही मुक्त हो सकते हैं। इसलिए साहित्य सहित जो विधाएँ ज्ञान की साधना करती हैं, वही मानवता को मुक्त करेंगी।

 

मार्क्सवादी आलोचना लेखक की विचारधारा के आधार पर उसका मूल्यांकन करती है। कबीर के विचार आध्यात्मिक हैं, परन्तु उनका सामाजिक चिन्तन क्रान्तिकारी है। अतः कबीर श्रेष्ठ कवि हैं। इसी तरह तुलसीदास के विचारों से असहमति व्यक्त करते हुए भी उनके साहित्य के सृजनात्मक पक्ष का विश्‍लेषण किया जाता है। हालाँकि विचाराधारात्मक रूप से एकदम सही लेखक, रचनाकार के रूप में भी श्रेष्ठ हों, ऐसा उदाहरण हिन्दी में बहुत कम है। सिर्फ मुक्तिबोध को इसके आदर्श उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। शेष रचनाकारों के मूल्यांकन के समय उनकी वैचारिक असंगति को रेखांकित किया जाता है, पर अन्ततः विचारधारा को अनदेखा कर दिया जाता है। इसलिए स्वयं मार्क्सवादी आलोचना में भी मूल्यांकन का अन्तिम आधार विचारधारा नहीं है।

  1. निष्कर्ष

    प्रारम्भिक काल से साहित्य सृजन के उद्देश्य पर ग्रन्थकारों ने अपने-अपने मत दिए हैं। उन सभी मतों के सूक्ष्म विश्‍लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि यह उद्देश्य सीधे-सीधे विचारधारा से सम्बद्ध है। साहित्य जनचित्तवृत्ति के विकास क्रम की गाथा है, और नवजीवन की हर भली-बुरी गतिविधि का उद्देश्य एक विचारधारा से सम्बद्ध है। वर्ग चेतना और सहज सामाजिक विकास क्रम में दो परिस्थितियों के समर्थक विचारों का पारस्परिक संघर्ष अनिवार्य घटना है, इस संघर्ष में कोई एक विचार अपना वर्चस्व बनाता है, कभी-कभी किसी तीसरे विचार का उदय भी हो जाता है। साहित्य, इस वैचारिक संघर्ष का भोक्ता, साक्षी, विवेचक और संरक्षक होता है। यही कारण है कि साहित्य के सृजनोत्तर मूल्यांकन हेतु विचारधारा एक महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में सामने रहती है।

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अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  1. विचारधारा : चिन्तन और विचार से सम्बन्धित सिद्धान्तों के प्रतिपादन की व्यवस्था।
  2. मिथ्या चेतना : समाज के बारे में भ्रामक समझ जिसे स्वयं सही समझते हों।

   पुस्तकें

  1.  वर्चस्व और प्रतिरोध ,एडवर्ड डब्ल्यू. सईद , रामकीर्ति शुक्ल (अनु), नयी किताब, दिल्ली
  2. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1 और 2,धीरेन्द्र वर्मा (सं.) ,ज्ञान मंडल, वाराणसी
  3. कला और साहित्य चिंतन, काल मार्क्स ,नामवर सिंह (सं.) गोरख पांडे (अनु.),राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
  4. आलोचना की धारणाएँ , रेने वेलेक ,अनु इन्द्रनाथ मदान, हरियाणा हिंदी ग्रन्थ अकादमी चंडीगढ़
  5. मुक्तिबोध रचनावली , नेमिचन्द्र जैन, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
  6. मार्क्सवाद और साहित्यलोचन, टेरी ईगल्टन, अनुवाद एवम् प्रस्तुत– वैभव सिंह, आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा
  7. आलोचना की धारणाएँ , रेने वेलेक ,अनु इन्द्रनाथ मदान, हरियाणा हिंदी ग्रन्थ अकादमी चंडीगढ़
  8. KeyWords , Raymond Williams ,William Collins Sons And Co Ltd Glasgow
  9. Sociology Of Literature And Drama, (Ed.) Elizabeth And Tom Burns, penguin books England
  10. Ideology And Utopia , K mannheim, Routledge & Kegen paul
  11. History And Class Conciousness , Gyorgy Lukacs, merlin press
  12. The Concept Of Ideology and Other Essays, Lichtheim George, New York
  13.  History And Class Conciousness, Gyorgy Lukacs,merlin press
  14.  Art Against Ideology , Fischer, Earnest , London

    वेब लिंक्स 

  1. http://www.newworldencyclopedia.org/entry/Ideology
  2. https://www.youtube.com/watch?v=N1NL-ombZ4c
  3. https://www.youtube.com/watch?v=Wz3YNMPMNzU
  4. https://en.wikipedia.org/wiki/Ideology
  5. https://www.marxists.org/subject/art/lit_crit/works/farrell/litandideology.htm
  6. http://www.jstor.org/stable/468528?seq=1#page_scan_tab_contents