11 विखण्डनवाद

विनोद शाही

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • विखण्डनवाद की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
  • विखण्डनवाद के व्याहारिक पक्ष को समझ सकेंगे।
  • साहित्य चिन्तन की प्रक्रिया में इसकी भूमिका का मूल्यांकन कर सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

  विखण्डनवाद सन् 1967 में प्रकाशित जॉक देरिदा की पुस्तक ऑफ़ ग्रामाटोलोजी (grammatology) की देन है। यह मुख्य रूप से साहित्यिक और दार्शनिक विश्‍लेषण का एक रूप है। सन् 1980 के दशक में इस सिद्धान्त ने साहित्य और दर्शन के विभिन्‍न क्षेत्रों के अलावा इतिहास-लेखन, भाषाविज्ञान, मनोविश्‍लेषण, राजनीतिक सिद्धान्‍त आदि में भी अपनी जगह बनाई।

 

विखण्डनवाद का अभिप्राय होता है– भाषा में पहले से निर्धारित या निश्‍च‍ित कर लिए गए अर्थों को ‘विखण्डित’ कर उनकी जगह ऐसे ‘दूसरे अर्थों’ को ले आना, जिन्हें पूर्वनि‍र्धारि‍त मुख्यार्थ दमित, उपेक्षित या गौण बना देता है। विखण्डनवाद मूलतः भाषा में पूर्व-निश्‍च‍ित मुख्यार्थ की किसी नए अर्थ से विस्थापन की प्रविधि  है। यह प्रक्रिया सीधी या इकहरी नहीं, शृंखलाबद्ध होती।

 

आधुनिक भाषाविज्ञान के प्रवर्तक सस्यूर का मानना था कि भाषा में किसी भी शब्द का अर्थ ‘विशुद्ध’ या ‘निश्‍च‍ित’ नहीं होता। शब्द में अर्थ उसके ‘प्रयोग’ व ‘सन्दर्भ’ से आता है। यानी किसी शब्द का प्रयोग जिस सन्दर्भ में किया जाता है, वही उसके अर्थ को निश्‍च‍ित करता है। एक ही शब्द को अलग-अलग सन्दर्भों में, अलग-अलग अर्थों में प्रयोग में लाया जा सकता है, जैसे ‘कुत्ता’ शब्द का अर्थ एक जानवर या नाम तो है परन्तु वह गाली की अर्थ-ध्वनि भी दे सकता है या किसी की वफादारी बताने के लिए भी उसका इस्तेमाल हो सकता है।

 

विखण्डनवाद में भाषा को इस तरह देखा जाता है कि पूर्वनिश्‍च‍ित मुख्यार्थों ने किसी अभिव्यक्ति या अर्थ-सम्‍प्रेषण को रोका तो नहीं है? ऐसा होने पर विखण्डनवादी अन्यार्थों को मुख्यार्थ की जगह ला कर बिठाने की कोशिश करते हैं और ऐसा करते हुए वे ‘मुख्यार्थ के वर्चस्व’ को चुनौती देते हैं।

 

विखण्डनवाद में इस बात का खास ध्यान रखा जाता है कि भाषा की किसी ‘कृति’ या ‘संरचना’ में कोई भी अर्थ इतना वर्चस्वपूर्ण नहीं होना चाहिए कि वह अन्यार्थों को दमित करने या गौण बनाने की हैसियत में चला जाए। यानी विखण्डनवाद, एक तरह से वर्चस्ववाद के खिलाफ एक चुनौती की तरह हमारे सामने आता है। विखण्डनवाद की जो प्रक्रिया व्यवहार में लाई जाती है, वह ‘स्वरूपतः एक प्रक्रिया या पद्धति’ भर है, अतः वह वर्चस्ववाद का विखण्डन तो करती है, परन्तु उसका विकल्प हमारे सामने नहीं लाती। अर्थ-मीमांसा में यह विकल्पहीनता उसकी मुख्य सीमा है। इसे अनेक विखण्डनवादी ‘अर्थमूलक अनिश्‍च‍ितता’ भी कहते हैं।

 

विखण्डनवाद में अर्थ को ‘निश्‍च‍ित’ करने या मानने की स्थिति को ही विखण्डनीय माना जाता है। यानी विखण्डनवाद में मुख्यार्थ ही नहीं, अन्यार्थ भी विखण्डनीय होता है। इसे विखण्डन दर विखण्डन, एक शृंखला की तरह भाषा पर लागू किया जाता है।

  1. विखण्डन की प्रक्रिया का व्यवहार पक्ष

    भाषा के विखण्डन की प्रक्रिया को व्यवहार में लाने के लिए दो धारणाओं का विशेष रूप में प्रयोग किया जाता है–

  1. अर्थों का द्विभाजन और एक पक्ष का दमन
  2. द्विभाजित अर्थों की शृंखला में अन्यार्थों का ‘अभावन’

    उदाहरण–

‘हम घर आए हो राजा राम भरतार’ (कबीर)। हमारे घर, यानी हृदय में, राजा राम एक भरतार के रूप में, पति रूप में उपस्थित हुए हैं। यहाँ ‘घर’ के वास्तविक अर्थ का दमन कर उसके प्रतीकार्थ के रूप में हृदय को मुख्यार्थ बना लिया गया है। इस मुख्यार्थ का द्विभाजन, पंक्ति के सन्दर्भ में ‘प्रयुक्त’ अर्थों के तहत ‘राजा’ और ‘राम’ के रूप में हुआ है, यानी मुख्य अर्थ दो रूपों में विभाजित है —

  1. घर में कौन आया है? – राजा पधारे हैं
  2. घर में राजा के रूप में राजा नहीं पधारे हैं, अपितु राम ही राजा के रूप में उपस्थित हो गए हैं।

   तो घर के मुख्यार्थ का यानी हृदय का सम्बन्ध राजा और राम के बीच द्विभाजित उपस्थिति से है। यहाँ अर्थ द्विभाजित इसलिए है, क्योंकि सामान्यतः लोक में राजा का वर्चस्व होता है, परन्तु कबीर अपने हृदय पर राम का वर्चस्व मानते हैं। तो ‘राजा’ वाले अर्थ का यहाँ ‘राम’ वाले अर्थ में वर्चस्व हो गया है।

 

इस तरह हम विखण्डनवाद की पद्धति का प्रयोग करते हुए कबीर की इस पंक्ति में मुख्यार्थ के द्विभाजन से प्रकट होने वाले अर्थ को रेखांकित करते हैं, तो हमारा ऐसा कहने का अभिप्राय यह होगा कि–

 

पहला चरण–इस पंक्ति में कबीर अपने समय की सामाजि‍क-राजनीतिक सत्ता के प्रतिनिधि राजा के वर्चस्व को गौण बना कर देना चाहते हैं और उसकी जगह राम की सत्ता के सांस्कृतिक वर्चस्व को स्थापित करना चाहते हैं। अर्थात मुख्यार्थ में द्विभाजन है; एक अर्थ का दमन है, गुणीभूत अर्थ का स्थापन है।

 

दूसरा चरण– सांस्कृतिक सत्ता के चरि‍त्र द्वारा राजसत्ता के चरित्र के विस्थापन से कबीर के समय के मुख्य सामाजिक अन्तर्विरोध का पता चलता है। यह अन्तर्विरोध और उसका विभाजन इसलिए मुख्यार्थ हो सका, क्योंकि यहाँ ‘घर’, ‘राजा’, ‘राम’ और ‘भरतार’ के सभी अर्थों को व्यावहारिक व सामाजिक रूप में स्वीकार्य बनाया है।

  1. अन्यार्थ-मूलक अन्तर्विरोध

   कबीर के समय में ‘घर’ का अर्थ है पितृसत्ता वाली व्यवस्था में पुरुष का वर्चस्व। इस दृष्टान्त में दी गई पंक्ति में ‘भरतार’ पति के रूप में अर्थ रखता है। यहाँ पितृसत्ता द्वारा स्‍त्री (मातृसत्ता) का दमन या गुणीभाव स्पष्ट है। राम राजा ही नहीं, भरतार भी हैं, घर के सन्दर्भ में पति-स्वरूप। अतः शेष सभी की स्थिति ‘स्त्रैण’ व ‘गौण’ हो जाती है।

 

राम को पुरुष या पतिमूलक परमात्मा का रूप दिया गया है, कबीर पुरुष हैं पर उनकी आत्मा यानी उनकी चेतना का सार स्त्रैण है। तो, यह अर्थ राजसत्ता वाले अर्थ का विस्थापन करता हुआ, मुख्यार्थ की जगह ‘अन्यार्थ’ को ले आता है, परन्तु यह अन्यार्थ भी अपने अन्तर्विरोध के साथ आता है, जहाँ एक पक्ष वर्चस्व में है और दूसरा गौण व दमित।

 

उक्‍त उदाहरण से मुख्यार्थ के अन्तर्विरोध-मूलक द्विभाजन से विस्थापन को समझने की कोशिश की गई है, परन्तु विखण्डनवाद में यह विस्थापन एक शृंखला क्रम के रूप में लगातार जारी रहने वाली प्रक्रिया है। ‘सन्दर्भगत प्रयोग’ द्वारा विखण्डनवादी ऐसे सूत्र खोजते हैं, जिनसे मुख्यार्थ के बाद संगत व स्थापित प्रतीत होने वाले सभी अन्यार्थ विस्थापित होते हैं।

 

उदाहरणस्वरूप कबीर की जिस पंक्ति को यहाँ विखण्डन-प्रक्रिया का आधार बनाया गया, उसमें ‘सन्दर्भित-प्रयोग’ के रूप में ‘हम घर आए’ के मुख्यार्थ को अन्यार्थ से विस्थापि‍त कर ‘राजा, राम तथा भरतार’ के अर्थ-परिवर्तन को लक्ष्य कि‍या सकता है। ‘हम’ शब्द में ‘मैं’ या ‘हम’ का वर्चस्व तभी हो सकता है जब वह ‘तुम’ और ‘वह’ को विस्थापित करता हो।

 

इसका अर्थ यह है कि ‘राजा राम भरतार’, ‘हमारे’ घर में इसलिए आए हैं, क्योंकि वे ‘तुम्हारे’ या उसके ‘घर’ नहीं गए हैं। ऐसा कहकर कबीर ‘आत्म-प्रतिष्ठा’ कर रहे हैं, और इस आत्म-प्रतिष्ठा या वर्चस्व की स्थापन करते हुए दरअसल उस ‘तुम’ या ‘वह’ का बहिष्कार कर रहे हैं, जिसे कबीर के समय में ‘राम’ के दर्शनों का एकाधिकार मिला हुआ था। यानी ‘ब्राह्मण या पण्डित (पाण्डे) या अवधूत या मुल्ला’ को इन अर्थों में शामिल देख सकते हैं।

 

कबीर की इस पंक्ति का अन्यार्थ उस आत्म या हम की प्रतिष्ठा करता है, जो राम के राज-वर्चस्वी रूप को वास्तविक भरतार के रूप में पाने लायक हो गया है, तो इससे ‘राजा राम भरतार’ के वे अर्थ भी विस्थापित हो जाते हैं जो ब्राह्मण, पाण्डे, अवधूत या मुल्लों द्वारा उन्हें दिए गए हैं।

विखण्डनवादी मानते हैं कि इस प्रकार भाषा में अर्थों के विस्थापन व नव-स्थापन की प्रक्रियाएँ लगातार जारी रह सकती हैं। इसका कारण यह है कि भाषा में सभी अर्थ ‘इच्छित, सामजिक, सन्दर्भगत या निर्मित’ होते हैं।

 

जिस समय सन्दर्भ में भाषा-पाठ को समझा जाता है, उसके दृष्टिकोण से अर्थ बदलते रहते हैं और समय कभी रुकता नहीं, ऐसे ही पाठक भी अनन्त होते हैं, अतः ‘पाठकवादी अर्थ विखण्डन’ भी ‘समयगत अर्थ विखण्डन’ की तरह हमेशा जारी रहता है।

 

तथापि इससे ‘अर्थमूलक अनिश्‍चयवाद’ या अराजकता के उपस्थित होने का संकट उत्पन्‍न हो सकता है। अतः विखण्डनवाद का प्रयोग सिद्धान्त या धारणागत आग्रह की तरह करना अनुचित है। इसे केवल ‘उत्तरोत्तर पुनर्नवीकरण-मूलक विकास की सम्भावनाओं’ द्वारा खुला रखने भर के लिए एक भूमिका की तरह ही इस्तेमाल करना संगत व समीचीन है।

 

विखण्डनवाद की प्रक्रिया का प्रयोग सिद्धान्तों व विचारधारात्मक आग्रहों की जकड़बन्दियों को तोड़ने के लिए किया गया है। सिद्धान्त व विचारधारा में भाषा-पाठ के अर्थ लगभग तय होते हैं। वहाँ मुख्यार्थ के रूप में स्थापित द्विभाजन को मुख्य अन्तर्विरोध माना जाता है, जिसका खण्डन-विखण्डन यहाँ जरूरी माना गया है।

  1. विखण्डनवाद के प्रकट होने की वजह व जमीन

   शास्‍त्रीय दौर के दर्शन सिद्धान्त सुकरात, प्लेटो व अरस्तू के साथ विकसित हुए थे। उन्होंने दर्शन को ‘व्यवस्था’ के आधार रूप में अपनाया था, तब राजसत्ता का एक गणतान्त्रिक रूप प्रकट हुआ था, जिसमे राजा व दार्शनिक-पुरोहित मिलकर व्यवस्थापक की भूमिका निभाते थे। उनमें ‘व्यवस्था’ के प्रतिनिधि होने की योग्यता देखी व दिखाई जाती थी, क्योंकि वे ‘सत्य’ की ‘परमसत्ता’ को समझ और पहचान कर, विरोधों का समन्वय करने के लिए नियम गढ़ने की स्थिति में होते थे। इसलिए सुकरात, प्लेटो और अरस्तू मूलतः यह चिन्ता करते हैं कि एक ‘आदर्श’ गणतन्त्र का आदर्श नागरिक कौन हो सकता है? इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखेंगे तो समझ में आ सकेगा कि ‘आदर्श सत्य’ की उनकी अवधारणा का क्या मतलब है? आदर्श विचार के पक्ष में वे जगत या पदार्थ को कसौटी पर कसते थे और पदार्थ व जगत के ‘अन्तर्विरोधों के समन्वय’ के लिए जरूरी मानते थे कि उनका विलय आदर्श विचार में कर दिया जाए।

 

पहली बात यह समझनी चाहिए कि– शास्‍त्रीय दर्शन-सिद्धान्तों का अर्थमूलक प्रयोजन राजनीतिक है। यानी ये दर्शन मूलतः व्यवस्था के सत्ता-वर्चस्व को बनाए रखने की जमीन तैयार करते हैं।

 

दूसरी बात यह कि जगत या पदार्थ स्वरूपतः अन्तर्विरोधात्मक है। वहाँ ‘भले और बुरे’, ‘सत्य या असत्य’, ‘सुन्दर और कुरूप’, ‘सच्‍चरित्र और चरित्रहीन’ के बीच लगातार संघर्ष चलता रहता है। शास्‍त्रीय दर्शन इसका समाधान यह देते हैं कि जहाँ ‘आदर्श सत्य’ से जितनी दूरी होते हैं, वहाँ उतना ही संघर्ष और पतन दिखाई देता है । अतः जरूरी यह है कि ‘आदर्श सत्य से दूरी कम करते हुए संघर्षों व विरोधों का उसमें विलय’ कर लिया जाए। सम्‍भ्रान्‍त आदर्श में विलयन, जन का सत्ता में विलयन है, इसलिए वह सत्ता की व्यवस्था का दर्शन है।

 

तीसरी बात यह कि सत्ता के दर्शन उसके वर्चस्व की व्यवस्था स्थापित करते हैं, अतः उन्हें आमतौर पर ‘सिद्धान्त’ के रूप में विकसित किया जाता है। सिद्धान्त का मतलब होता है, नियम सब पर लागू हो। वहाँ अपवाद की ज्यादा गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती। इसे ‘सिद्धान्त की समग्रता-मूलक प्रवृत्ति‍’ कही जाती है।

 

विखण्डनवाद का जो विमर्श प्रकट हुआ है, वह मूल सिद्धान्त का विखण्डन है। यानी सिद्धान्त को सिद्धान्त बनाने वाली, तीन चीजों का विखण्डन–

  1. किसी केन्द्रीय सत्ता का वर्चस्व
  2. केन्द्रीय या मूल सत्ता में शेष सभी का विलय
  3. शेष या अन्यों के विलय का समग्रतावादी रूप

    इस बुनियादी बात के अलावा कुछ और बातें भी हैं, जिनकी जरूरत सिद्धान्त के विखण्डन के समय पड़ती है। जैसे –

  1. सिद्धान्त की जरूरत ‘व्यवस्था’ के लिए होती है। अगर सिद्धान्त को विखण्डित करेंगे तो व्यवस्था का आधार क्या होगा ?
  2. परम्परागत रूप से सिद्धान्त का सम्बन्ध न केवल सत्ता से, बल्‍कि‍ ज्ञान के स्रोतों की खोज के रूपों से भी रहा है। अतः सत्ता के विखण्डन से, ज्ञान को खोजने की प्रक्रियाएँ भी बदल सकती हैं, तब हम क्या करेंगे? यह आपत्ति खास तौर पर मिशल फूको की ‘ज्ञान-सत्ता’ या ‘सत्ता-ज्ञान’ की बाबत किए गए खोज के प्रयासों की ओर हमारा ध्यान दिलाती है।
  3. सिद्धान्त का सम्बन्ध, ‘भाषा के गठन व उसकी अर्थ-मीमांसा की परम्परा’ से है। सिद्धान्त के विखण्डन से, हमारी भाषा की समझ के परम्परागत रूपों पर भी सवाल खड़ा हो जाता है।

    विखण्डनवादी जि‍स तरह इन तीनों की जमीन खिसका लेते हैं, इसे महत्त्वपूर्ण ‘शिफ्ट’ के रूप में देख सकते हैं –

  1. ‘ईश्‍वर या राजा’ की केन्द्रीयता का व्यवस्था और सत्ता-वर्चस्व के पर्याय के रूप में अस्वीकार
  2. प्रकृति और मनुष्य की केन्द्रीयता का ज्ञान के व्यवस्थामूलक स्रोत के रूप में अस्वीकार
  3. भाषा में सत्तामूलक ज्ञान की केन्द्रीयता बनाए रखने वाली वाणी के दैवीय होने से इनकार

    वाणी की दैवीयता के बजाय ‘भाषा’ को विश्‍लेषण का आधार बनाने से, परम्परागत सत्ता-ज्ञान के वर्चस्व उलट सकते हैं। वाणी की दैवीयता का मतलब है कि भाषा में जो भी शब्द हैं, उनके अर्थ निश्‍च‍ित हैं। यानी शब्दों के वे अर्थ होते हैं, जो ईश्‍वर उन्हें देता या तय करता है। इसका आधार है कि‍ राजा, धर्मगुरु या दार्शनिक भाषा को अर्थ देते हैं और जो उनकी व्यवस्था को बनाए रखते हैं। ज्ञान की प्रक्रिया भी इसके अनुसार ही चलती है। प्रकृति व मनुष्य जैसे शब्दों के कोई तयशुदा अर्थ नहीं होते। भौतिक और आन्तरिक पदार्थ को प्रकृति कह कर निपटा लिया जाता है और संस्कृति, सदाचार, नैतिकता आदि के स्रोत के लिए कहा जाता है कि ‘मनुष्य’ या उसका ‘हृदय’ (अन्तःकरण) उसका स्रोत है। अतः अन्तःकरण की आवाज सुनने की बात उभारी जाती है। सारी अर्थ-मीमांसा ज्ञान और भाषा के अर्थ तय करने का विज्ञान अभी तक आदर्शवादी रहा है। इसे ही विखण्डित करने की कोशिश की जाती है।

 

इन अर्थों में विखण्डनवाद के मुख्य सूत्र हैं–

  1. भाषा ही ज्ञान का एकमात्र स्रोत है। वाणी भी भाषा की ही प्रोक्ति होती है।
  2. भाषा में शब्दों का अर्थ निश्‍च‍ित नहीं होता, अर्थ स्थितिमूलक या पारिस्थितिक होते हैं।
  3. भाषा में शब्द की स्थिति व सन्दर्भ देखकर अर्थ ग्रहण करना होता है।
  4. अर्थ निश्‍चय करने के लिए जिन अर्थों को मुख्य समझा जाता है, उनका विस्थापन, अन्यार्थों से करना होता है, ताकि वर्चस्व का विखण्डन हो सके।
  5. मुख्यार्थ, यथार्थ की व्याख्या मुख्यार्थ की तरह करता है और उसे मुक्य अन्तर्विरोध की तरह देखता व दिखाता है। जैसे जगत की नश्‍वरता का ईश्‍वर की अमरता से विरोध दिखाकर, ईश्‍वर में उसका विलय कर लिया जाता है, पर विखण्डन में अन्यार्थ का विरोध केन्द्रीय होकर इस तरह के विलयन को सम्भव नहीं रहने देते।

    दार्शनिक धरातल पर शास्‍त्रीय दर्शन सिद्धान्त की जगह विखण्डन का विमर्श, क्रमशः एक दार्शनिक विकास की तरह सामने आया है –

चरण दर्शन दार्शनिक वाद
पहला चरण शास्‍त्रीय दर्शन सिद्धान्त प्लेटो व अरस्तू आदर्श
दूसरा चरण आधुनिक दार्शनिक सिद्धान्त हीगेल/मार्क्स द्वन्द्वात्मक आदर्शवाद
तीसरा चरण उत्तर आधुनिक ज्ञान-विमर्श या अर्थ-मीमांसा सस्यूर, फूको, देरिदा बहुद्वन्द्वात्मक यथार्थवाद
  1. देरिदा की मुख्य विखण्डनवादी अवधारणाएँ :

   जॉक देरिदा की किताब ‘आफ ग्रामाटोलोजी’ (1967) के प्रकाशन के बाद से विखण्डनवाद एक मुख्य विमर्श की तरह उभर कर सामने आया है। उनकी मुख्य मान्यताएँ इस प्रकार हैं–

  1. भाषा में शब्दों के अर्थ द्विभाजित होते हैं– शास्‍त्रीय अर्थ मीमांसा में एक अर्थ का दूसरे पर वर्चस्व रखता है। यह विभाजन क्रमिक रूप में अन्य द्विभाजनों की शृंखला की तरह रहता है। दमित अर्थ से वर्चस्वी अर्थ का विस्थापन करते हुए हम पाते हैं कि भाषा में अर्थमूलक अनिश्‍चय (Rule of undecideability of meaning) ही मुख्य बात है।
  2. भाषा को ‘भाषा-पाठ’ (text of language) की तरह ग्रहण किया जा सकता है। ‘पाठ’, भाषा का ठोस व व्यावहारिक रूप होता है इसलिए भाषा के विश्‍लेषण का अर्थ है– ‘भाषा-पाठ का विश्‍लेषण’।
  3. भाषा-पाठों के अर्थ राजनीतिक होते हैं। इसका अर्थ यह है कि सभी भाषा-पाठ किसी न किसी तरह की सत्ता के वर्चस्व को केन्द्र में लाते हैं। हमारे समय में राजनीतिक अर्थ, अनेक सामाजिक समूहों की विचारधाराओं व विमर्शों में विभाजित हैं इसलिए राजनीतिक अर्थों में अनेकता और बहुलता होती है।
  4. राजनीतिक होने के कारण भाषा पाठों के अर्थ द्विभाजित होते हैं। राजनीतिक सत्ता-वर्चस्व इस द्विभाजन को ‘एक अर्थ के हिंसक उच्च-वर्चस्व’ तक ले जाता है। इसे देरिदा ‘वायलेण्‍ट हाइरारकी’ कहते हैं।
  5. देरिदा के द्वारा भाषा-पाठों के राजनीतिक अर्थ-द्विभाजनों को कुछ ‘मूल-ज्ञान’ (एपिटीम्‍स) के उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है। ये मूल-तत्त्व ज्ञान हैं –
  • काव्य के मुकाबले में दर्शन का वर्चस्व
  • तर्क के मुकाबले ‘सत्य के अवतरण’
  • ज्ञान-संरचनाओं के मुकाबले रचनाशीलता
  • सामान्यबोध के मुकाबले अन्तर्बोध
  • सकर्मकता की बजाय अकर्मकता
  1. स्वीकृत वर्चस्वपूर्ण अर्थों को हटाकर, अन्यार्थों को केन्द्र में लाने का अर्थ है –
  • अन्यार्थों (डिफ़रेंस व डिफरेंट) को स्वीकृति
  • अन्यार्थों को आधार बनाने से पैदा अनिश्‍चयात्मकता का स्वीकार
  • अनिश्‍चयों की अनन्तता या अमरता
  1. विखण्डनवाद का उद्देश्य
  • श्रेष्ठ और कालजयी साहित्य का पुनर्पाठ : विखण्डनवाद एक ऐसी पद्धति है जो कृतियों का समय के साथ विस्तार होता हुआ देखती और दिखा सकती है। उसकी मदद से किए गए पुनर्पाठ द्वारा अब तक के अनछुए अर्थों को उद्घाटित कर सकते हैं। कारण समय के विकास के साथ साहित्य के भीतर पड़े दमित व गौण अर्थ महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। उन्हें महत्त्व प्रदान करने वाले पुनर्पाठ यह सिद्ध करते हैं कि साहित्यिक कृतियाँ कालजयी होती हैं। उनमें अपने समय से आगे झाँकने की शक्‍ति‍होती है। समय के बदलने से, इन कृतियों के गौण अर्थ, प्रकाश में लाए जा सकते हैं। विखण्डनवाद इस सन्दर्भ में बेहद उपयोगी आलोचना-पद्धति है।
  • श्रेष्ठ या कालजयी साहित्य की ‘लेखकीय-पाठ’ से मुक्ति : विखण्डनवाद कृतियों को भाषा-पाठ मानता है। अभी तक कृतियों को लेखक की रचना या उनका भाषा-पाठ माना जाता रहा है। विखण्डनवाद से यह स्पष्ट होता है कि लेखक कृतियों के सन्दर्भ में ‘वास्तविक रचयिता’ नहीं होता; अपितु नए भाषा-पाठों के वास्तविक जनक पहले से मौजूद भाषा-पाठ होते हैं। लेखक पहले से मौजूद पाठों को एक नई शक्ल भर देता है। जब पाठक या आलोचक उसे विखण्डित कर रहे होते हैं तो भाषा-पाठ पाठक या आलोचक का हो जाता है। लेखकीय पाठ से कृति की मुक्ति, उसके विकास का आधार हो जाती है।
  • संस्कृति का विकास : संस्कृति, भाषा-पाठों का वृहत् उत्पाद होती है। विखण्डन की मदद से गौण अर्थों को प्रकाश में लाने से संस्कृति की मध्यकालीन पवित्रता या दैवीयता नष्ट हो जाती है। इससे उसे आधुनिक, उत्तर-आधुनिक रूप में अग्रविकास करने में मदद मिलती है।
  • आलोचना के लोकतन्त्र का विकास-विस्तार : विखण्डनवादी भाषा-पाठ के गौण अर्थों को महत्त्व देता है। इससे साहित्य में सत्तावर्चस्व की सामन्तीय छवि‍ का भी विखण्डन होता है। अर्थों की बहुलता एक तरह से साहित्य में लोकतान्त्रिक आलोचनात्मक चेतना का विकास-विस्तार है।
  1. विखण्डनवाद की सीमाएँ
  • अति अनिश्‍चयवाद या अर्थ-बहुलतावाद : विखण्डनवाद में भाषा-पाठ को ही आरम्भ और अन्त मान लेने से अर्थों की इतनी बहुलता प्रकट हो जाती है कि ‘अनिश्‍चय की भूल-भुलैया हमें किसी अटल शून्य गुहा में धकेलने लगती है’। (एम.एच. अब्राम्ज)
  • संकेतित अर्थों के यथार्थ का लोप : दमित अर्थों की अनन्त-शृंखला को महत्त्व देने का अर्थ यही है कि ये अर्थ सामाजिक यथार्थ की वजह से स्‍पष्‍ट नहीं होते; ‘भाषा-पाठ की सम्भावनाएँ’ ही इन अर्थो को मुख्यार्थ का विस्थापक करने लायक बनाती है। इससे सामाजिक यथार्थ की बजाय भाषा-पाठ ही यथार्थ की वास्तविक जमीन बनते हुए दिखाई देने लगते हैं – जबकि ऐसा होता नहीं।
  • इतिहास के साथ इतिहासबोध का भी विखण्डन : देरिदा इतिहास को भी एक भाषा-पाठ बना देते हैं। जबकि इतिहास वर्तमान में इतिहास-बोध की तरह जीवन्त रहता है। परन्तु विखण्डनवादी उसे भी विखण्डनीय बना कर, विकास की सम्भावनाओं तक को नष्ट कर देते हैं। ऐसा सम्भवतः देरिदा की मार्क्सवाद के प्रति उस प्रतिक्रि‍या की वजह से है, जिसके तहत उन्होंने मार्क्सवाद को ‘यूरोप के सर पर मँडराता प्रेत’ बताया है, जिसका अर्थ यह है कि विखण्डनवाद स्वयं में भी एक राजनीतिक भाषा-पाठ बन कर रह जाता है।
  1. निष्कर्ष

   विखण्डनवाद का सम्बन्ध मूलतः देरिदा से है। इसका अभिप्राय है– भाषा में पहले से निर्धारित या निश्‍च‍ित कर लिए गए अर्थों को ‘विखण्डित’ कर ऐसे ‘दूसरे अर्थों’ को ले आना, जिन्हें मुख्यार्थ गौण बना देता है। विखण्डनवाद मूलतः भाषा में पूर्व-निश्‍च‍ित मुख्यार्थ की किसी नए अर्थ से विस्थापन की प्रविधि या पद्धति है। यह एक शृंखलाबद्ध प्रक्रिया है।

 

विखण्डनवाद में इस बात का खास ध्यान रखा जाता है कि भाषा की किसी ‘कृति’ या ‘संरचना’ में कोई भी अर्थ इतना वर्चस्वपूर्ण नहीं हो कि वह अन्यार्थों को गौण बनाने की हैसियत में चला जाए। विखण्डनवाद, वर्चस्ववाद के खिलाफ एक चुनौती की तरह हमारे सामने आता है। विखण्डनवाद वर्चस्ववाद का विखण्डन तो करती है, पर उसका विकल्प हमारे सामने नहीं लाती। अर्थ-मीमांसा में यह विकल्पहीनता उसकी मुख्य सीमा है। इसे अनेक विखण्डनवादी ‘अर्थमूलक अनिश्‍च‍ितता’ भी कहते हैं।

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अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  1. भाषा-पाठ : विखण्डनवाद में भाषा का अध्ययन उसके बोले गए या सुने गए रूप में न होकर, लिखे गए और पढ़े गए रूप में होता है। अतः यहाँ वाणी की जगह पाठ का महत्त्व है। पाठ के रूप में भाषा एक ‘व्यवस्था’ पाती है। यह व्यवस्था ‘पाठ’ को अपने सन्दर्भ-संयोजकनों से अर्थ प्रदान करती है। पाठ एक ठोस वस्तु है– जिसका आधार ‘लिखित’ में होता है। लिखा गया भाषा-पाठ एक दस्तावेज बन जाता है। उसे हम ‘भाषा का उत्पाद’ भी कह सकते हैं।
  2. अर्थ-द्विभाजन (बाइनरी अपोजीशन) एवं भिन्नार्थ उत्पाद : भाष-पाठ द्विभाजनों का उत्पादन करते हैं। अर्थों का द्विभाजन हर भाषा-पाठ के भीतर, उसकी ‘अपनी-व्यवस्था’ की उपज होता है। इसका कारण होता है – मुख्यार्थ का वर्चस्व तथा उसके कारण भिन्नार्थ या अन्यार्थ का दमन या विस्थापन।
  3. भिन्नार्थ श्रृंखला : भिन्नार्थ का सम्बन्ध वर्तमान से होता है। अतीत के अर्थ वर्चस्वी होते हैं। कई बार भविष्य के अर्थ जैसे मुक्ति या मोक्ष भी वर्चस्वी हो सकते हैं। वर्तमान के अर्थों के द्वारा क्रमिक रूप में अतीत या भविष्य का लगातार विस्थापन हो सकता है। इससे भिन्नार्थों की श्रृंखला का निर्माण होता है।
  4. भाषा-पाठ क्षेत्र तथा अन्तर्पठनीयता : कोई भाषापाठ, अपने समय में उपलब्ध, अन्य सभी पाठों से क्रिया-प्रतिक्रिया करता है। भिन्नार्थों का उत्पादन, अन्य भाषा-पाठों से, किसी भाषापाठ के रिश्तों या अन्तःसम्बन्धों से होता है। सभी भाषापाठ मिलकर भाषापाठ क्षेत्र बनाते हैं। एक भाषापाठ का शेष भाषापाठों से सम्बन्ध अन्तर्पठनीयता का आधार बनता है।

    पुस्तकें

  1. संरचनावाद, उत्तर-संरचनावाद  एवं प्राच्य काव्यशास्त्र, गोपीचंद नारंग, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली।
  2. पाठकवादी आलोचना, गोपीचंग नारंग, सारांश प्रकाशन, दिल्ली।
  3. पॉपुलर कल्चर, सुधीश पचौरी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  4. उत्तर-आधुनिक साहित्यिक विमर्श, सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  5. भूमण्डलीकरण और उत्तर-सांस्कृतिक विमर्श, सुधीश पचौरी, प्रवीण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  6. Structuralism and post-structuralism, edited by, Imtiaz S. Hasnain, Bahari Publication, New Delhi.
  7. Roland Barthes : Structuralism and After,  Annette Lavers, Methuen, London.
  8. Of Grammatology, J. Derrida, (Translation: Gayatri Chakravorty Spivak), Motilal Banarsidas, Delhi.
  9. Derrida: A very short introduction, Simon Glendinnig, OUP, UK.
  10. Derrida for Beginners, Jim Powell,
  11. The Post Card, J. Derrida, University of Chicago Press, Chicago.

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