30 लुसिएँ गोल्डमान की साहित्य दृष्टि

विभास चन्द्र वर्मा

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप

  • लुसिएँ गोल्डमान की साहित्य सम्बन्धी अवधारणा जान पाएँगे;
  • लुसिएँ गोल्डमान के अनुसार साहित्य और समाज में सम्बन्ध की जानकारी हासिल कर सकेंगे;
  • साहित्य में गोल्डमान के योगदान की समझ बना पाएँगे;
  • गोल्डमान की प्रमुख साहित्यिक अवधारणाएँ जान सकेंगे;
  • गोल्डमान की साहित्य सम्बन्धी धारणाओं का महत्त्व जान पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

    लुसिएँ गोल्डमान का जन्म सन् 1913 में बुखारेस्ट, रोमानिया में एक यहूदी परिवार में हुआ था। बाद में उन्हें रोमानिया छोड़ना पड़ा। उनकी अधिकांश शिक्षा-दीक्षा पेरिस और वियना में हुई। वियना में उन्होंने प्रमुख ऑस्ट्रियन सिद्धान्तकार मैक्स एडलर के व्याख्यान सुने। सन् 1934 में वे पेरिस आ गए। अपने वामपन्थी विचारों के कारण वे कुछ समय जेल में रहे। वे लुकाच की आरम्भिक पुस्तकों सोल एण्ड फॉर्म, थिअरी ऑफ नावेल तथा हिस्ट्री ऐण्ड क्लासकांशसनेस से बड़े प्रभावित हुए। युद्ध के दिनों में वे बतौर राजनीतिक शरणार्थी स्विट्ज़रलैण्ड चले आए, जहाँ उन्होंने मशहूर बाल मनोवैज्ञानिक ज्याँ पिजे के साथ काम किया। बाद में वे अपनी शिक्षा पूरी करने पेरिस वापस आ गए और प्रोफेसर नियुक्त हुए। सन् 1950 से 1970 के बीच उनकी अधिकांश महत्त्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित हुईं। उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैंᅳअव्यक्त ईश्‍वर(1956), उपन्यास के समाजशास्‍त्र की एक दिशा (1964) आदि। उनकी मृत्यु सन् 1971 में हुई।

 

लुसिएँ गोल्डमान ने राजनीति, दर्शन, समाजशास्‍त्र और साहित्य सभी क्षेत्रों में कार्य किया। साहित्य के समाजशास्‍त्र में एक निश्चित पद्धति का निर्माण करने वाले, वे पहले विचारक हैं। उन्होंने प्राचीन और आधुनिक साहित्यिक कृतियों का समाजशास्‍त्रीय अध्ययन भी किया। वे महज साहित्य के समाजशास्‍त्री नहीं हैं। उनका सिद्धान्त एक तरह से संस्कृति के समाजशास्‍त्र का सिद्धान्त भी है। हिडेन गॉड(1956) (अव्यक्त ईश्‍वर)” में उन्होंने रासीन की दु:खान्तकियों और पास्कल के दर्शन में निहित संरचनाओं का अध्ययन किया है। दूसरी प्रमुख पुस्तक टुवर्ड्स सोशियोलॉजी ऑफ नावेल (1964) में आन्द्रे मारलो और परवर्ती आधुनिकतावादी उपन्यासों का अध्ययन है। इसके अलावा उनके कई सैद्धान्तिक लेख और निबन्ध हैं। गोल्डमान की मान्यताओं के तीन स्रोत हैं – जार्ज लुकाच का आरम्भिक चिन्तन, पिजे का मनोविज्ञान और संरचनावाद।

 

लुसिएँ गोल्डमान दर्शन, समाजशास्‍त्र और मनोविज्ञान की विवेक यात्रा करते हुए साहित्य चिन्तन की ओर आए। इसलिए उनके चिन्तन में व्यापकता के दर्शन होते हैं। उन्होंने एक व्यापक ऐतिहासिक समाजशास्‍त्रीय दृष्टिकोण के निर्माण का प्रयत्‍न किया है। उनका ‘उत्पत्ति मूलक संरचनावाद’ बहुत प्रसिद्ध है।

  1. उत्पत्ति मूलक संरचनावाद

   गोल्डमान ने अपने समय के फ्रांस और पूरे यूरोप के चिन्तन की विभिन्‍न प्रवृत्तियों से संवाद और संघर्ष करते हुए अपनी दृष्टि तथा पद्धति विकसित की थी। इसलिए उनके चिन्तन में मार्क्सवाद से अस्तित्ववाद का द्वन्द्व था। फ्रायड और पिजे की मान्यताएँ मनोविज्ञान सम्बन्धी थीं। संरचनावाद का व्यापक प्रभाव था और साहित्य -चिन्तन में इन सबसे प्रभावित आलोचना दृष्टियों का संघर्ष भी था। इन सबके बीच से, इनकी कमजोरियों से बचते हुए, इनसे बहुत कुछ सीखते हुए, गोल्डमान ने अपने लिए नया रास्ता बनाया।

 

गोल्डमान किसी कृति की विश्‍व-दृष्टि और किसी वर्ग की विश्‍व-दृष्टि की संरचनाओं के बीच समानधर्मिता की खोज करते हैं। सम्बन्ध की इस खोज के लिए ही गोल्डमान ने उत्पत्तिमूलक संरचनावादी पद्धति का विकास किया।

 

उन्होंने साहित्यिक कृति के सामाजिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा कि प्रत्येक कृति उस लेखक के विचारों और अनुभूतियों को व्यक्त करती है। ये विचार और भाव समाज तथा वर्ग के दूसरे व्यक्ति के व्यवहार और चिन्तन से प्रभावित होते हैं। इसलिए साहित्यिक कृति सामूहिक चेतना या परावैयक्तिक चेतना की अभिव्यक्ति इस अर्थ में होती है कि उसकी विश्‍व-दृष्टि की संरचना लेखक की निजी निर्मित नहीं होती, बल्कि उस वर्ग के दूसरे व्यक्ति भी उस विश्‍व-दृष्टि के सहभागी होते हैं।

  1. साहित्यिक कृति का कर्ता व्यक्ति नहीं, समष्टि है

   गोल्डमान के अनुसार साहित्यिक कृति का वास्तविक कर्ता समष्टि (सामाजिक समूह) है, व्यक्ति नहीं। लेकिन वे इस पर जोर देते हैं कि समष्टि परावैयक्तिक सम्बन्धों का एक जटिल संजाल है। इस संजाल की संरचना और इसके अन्दर स्थित उस व्यक्ति के विशिष्ट स्थान को सर्वदा रेखांकित किया जाना चाहिए।

 

रचनाकार को कर्ता मानकर किए जानेवाले अध्ययन के साथ समस्या है कि कई रचनाकार जीवित नहीं होते, कई को हम नहीं जानते, कुछ रचनाकार के निकट के स्रोतों से जान भी लें तो भी – हर स्थिति में रचनाकार की मनोवैज्ञानिक जटिलता का वास्तविक विश्‍लेषण बहुत कठिन है। व्यक्ति (रचनाकार) के मनोविज्ञान की जटिलता इस कारण भी दुरूह हो जाती है कि हर व्यक्ति विभिन्‍न सामाजिक समूहों (पारिवारिक, पेशागत, राष्ट्रीयतागत, मित्रवर्ग सम्बन्धी, सामाजिक वर्गगत आदि) की विशाल संख्या अथवा पहचानों से सम्बद्ध रहता है। इनमें हरेक समूह अपनी चेतना को गढ़ कर एक विशिष्ट जटिल और अपेक्षाकृत असम्बद्ध संरचना का निर्माण करता है, जिसका अध्ययन दुरूह है। इसके विपरीत जब किसी एक तथा सामान्य समूह के दायरे में व्यक्तियों की बड़ी संख्या को लाकर अध्ययन किया जाता है तो उस सामाजिक समूह के अलावा अन्य समूहों का सदस्य होने के मनोवैज्ञानिक तत्व अप्रासंगिक हो जाते हैं और हमें एक अधिक सुसंगत और सम्बद्ध संरचना मिल पाती है।

  1. विश्‍वदृष्टि

   महान कृतियाँ उल्लिखित परा-वैयक्तिक मानसिक संरचना पर आधारित होती हैं। साहित्यिक कृति के विश्‍व की संरचना और उक्त मानसिक संरचना में एक बोधगम्य सम्बन्ध होता है। यानि कृति की विश्‍वदृष्टि और सामाजिक समूह की परा-वैयक्तिक मानसिक संरचना (विश्‍व-दृष्टि) में अनुरूपता होती है। ये सामाजिक समूह विश्‍व की मानसिक छवि के साथ उपस्थित यथार्थ से जैसे-जैसे तालमेल बिठाते हैं, उनकी ‘विश्‍व-दृष्टि’ सृजित  (संरचनाकृत) और विसर्जित (विसंरचनाकृत) होती रहती है। इस प्रकार गोल्डमान विश्‍व-दृष्टि को सामाजिक समूह की ऐतिहासिक स्थिति से सम्बद्ध मानते हैं। यहीं वे उन संरचनावादियों से भिन्‍न हो जाते हैं जो कृति के ऐतिहासिक सन्दर्भ की उपेक्षा करते हुए उसमें निहित संरचना की स्थिरता और समकालिकता पर अधिक जोर देते हैं। सामाजिक समूह की यह विश्‍व-दृष्टि इसकी वास्तविक चेतना नहीं, बल्कि उसकी सम्भाव्य चेतना है। लुकाच ने संभाव्य चेतना को वर्ग-चेतना से जोड़ा है लेकिन गोल्डमान इसे वर्ग-चेतना नहीं कहते। वे इन सामाजिक समूहों को भी वर्ग नहीं समूह कहते हैं। विश्‍व-दृष्टि किसी सामाजिक समूह के जीवन में, यानि उसके सदस्यों के कर्म, भाव और चिन्तन में निहित होती है, लेकिन वह साहित्य, कला और दर्शन जैसे सांस्कृतिक रूपों में व्यक्त होती है। जैसा कि कहा गया कि यह वास्तविक चेतना नहीं बल्कि सम्भाव्य चेतना है और उस समूह की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में अधिक व्यक्त होती है जो संकटग्रस्त होते हैं या फिर जिन समूहों की चेतना “सारी मानवता की जीवन-दृष्टि की ओर उन्मुख” होती है।

 

गोल्डमान ने स्वीकार किया कि सामाजिक वर्ग इस प्रकार के समूह हो सकते हैं लेकिन गैर-यूरोपीय समाजों में इस श्रेणी को लागू करने प्रति आशंका भी जाहिर की। गोल्डमान के अनुसार साहित्य के समाजशास्‍त्र का काम है, ऐसे समूह की विश्‍व-दृष्टि की संरचनाओं और कृति के भीतर रचित विश्‍व की संरचनाओं की समानधर्मिता की खोज । उनके अनुसार महान रचनाओं में यह समानधर्मिता अधिक सुसंगत रूप में प्रकट होती है। गोल्डमान के अनुसार यह सामूहिकता समूह के सदस्यों की चेतना पर असर डालती है, लेकिन उससे कृति के कुछ सतही तत्त्वों की ही व्याख्या हो सकती है, उसकी सारभूत संरचना की नहीं। रासीन, मोलियर और कोर्नियल का ‘फ्रांसीसी’ और समकालीन में होने से उनकी कृतियों के कुछ शैलीपरक तत्त्वों को समझा जा सकता है लेकिन उनके रचनाओं की संरचना इतनी भिन्‍न, यहाँ तक कि विरोधी क्यों हैं, इसका पता नहीं लग सकता। उनकी पुस्तक द हिडन गॉड में किया गया उनका व्यावहारिक अध्ययन उनकी इस पूरी पद्धति को स्पष्ट करता है। इस का पूरा शीर्षक हिडन गॉड : ए स्टडी ऑफ ट्रैजिक विजन इन द पैनसीज़ ऑफ पास्कल ऐण्ड द ट्रैजिडीज़ ऑफ रासीन है। हिडेन गॉड में रासीन की ट्रैजेडियों, पास्कल के दर्शन, एक फ्रांसीसी धार्मिक मत (यानसेनिज़्म) तथा एक सामाजिक समूह (नोबलेस द ला रोब्स) के बीच सम्बन्ध खोज निकाला गया है। यानसेनवादी विश्‍व-दृष्टि ट्रैजिक है : यह व्यक्ति को आशाहीन रूप से पापपूर्ण जगत और एक अनुपस्थित ईश्‍वर के बीच विभाजित देखती है। ईश्‍वर ने जगत से किनारा कर लिया है लेकिन धर्मविश्‍वासी व्यक्ति पर उसका पूर्ण प्राधिकार है। इस स्थिति में व्यक्ति नितान्त ट्रैजिक एकाकीपन में चले जाने को बाध्य है। रासिन की ट्रैजेडियों में सम्बन्धों की अन्तर्निहित संरचना में यही यानसेनवादी दुखद परिस्थिति है, जिसका सम्बन्ध नोबलेस द ला रोब्स  के सामजिक स्थिति के पतन से जुड़ता है। नोबलेस द ला रोब्स  राज दरबारियों का एक वर्ग था, लुई चौदहवें के निरंकुश राजतन्त्र द्वारा इनके राजनीतिक अधिकार छीन लिए गए थे और इनकी जगह राजा के अधिकारी भेज दिए गए। इससे इस वर्ग में असन्तोष तो हुआ लेकिन आर्थिक रूप से राजतन्त्र पर निर्भर होने के कारण वे इस सन्तोष को विद्रोह के रूप में व्यक्त नहीं कर सकते थे। फलत: ये अधिकाधिक अशक्त होकर एक अवसादपूर्ण एकाकीपन की ओर बढ़ते जा रहे थे। इस वर्ग की मानसिक संरचना या विश्‍व-दृष्टि ‘ट्रैजिक विजन’ की है। इस ‘ट्रैजिक विजन’ का निर्माण यानसेनवादी विचारकों के प्रभाव और नोबलेस द ला रोब्स की ऐतिहासिक स्थिति के कारण हुआ था। रासीन के नाटकों और पास्कल की वैचारिक कृति ‘पैनसीज़’ के ट्रैजिक विजन की संरचना इसी के समानधर्मिता में है। इसे उन दोनों की जीवनी या मनोविज्ञान के सहारे सुसंगत रूप से नहीं समझा जा सकता।

  1. संरचनात्मक विश्‍लेषण

    गोल्डमान के अनुसार रचनाकार के माध्यम से कृति का वास्तविक कर्ता बना सामाजिक समूह और कृति के विशेष बीच का सम्बन्ध उसी कोटि का है जो कृति के तत्त्वों और कृति की समग्रता (टोटैलिटी) के बीच है। दोनों मामलों में हमें एक व्यापक संरचना के तत्त्वों और समग्रता के आपसी सम्बन्ध से रूबरू होना पड़ता है। यह सम्बन्ध एक साथ व्यापक भी है और व्याख्यात्मक भी।

यहाँ दो प्रश्‍न खड़े होते हैं –

  • समूह और कृति के सम्बन्धों का अनुक्रम कैसे निर्धारित किया जाएगा?
  • कैसे जाना जाएगा कि किन कृतियों और किन समूहों के बीच सम्बन्ध पहचाने जा सकते हैं?

    साहित्य केसमाजशास्‍त्र के अन्य सिद्धान्त कृति की अन्तर्वस्तु और सामजिक चेतना के बीच सम्बन्ध दिखानेकी चेष्टा करते हैं, जिसमें दो प्रकार की दिक्कतें हैं। पहली तो यह कि सामूहिक चेतनाकी अन्तर्वस्तु के तत्त्व यानि  उस समूह के चारों ओर फैली सामाजिक चेतना के तात्कालिक अनुभूतिमूलकआयाम कभी पूरी तरह व्यवस्थित नहीं होते और कृति में कुछ ही बिन्दुओं पर दृष्टिगोचरहोते हैं। अर्थात जो समाजशास्‍त्रीय अध्ययन अन्तर्वस्तु की संगति की ओर उन्मुखहोता है, वहकृति की समग्रता में निहित एकता नहीं पकड़ पाता और इसलिए उसमें कृति का विशिष्ट साहित्यिकचरित्र भी अनदेखा रह जाता है। दूसरी दिक्कत है कि सामाजिक यथार्थ और सामूहिक चेतनाके तात्कालिक आयाम जिन कृतियों में सीधे प्रस्तुतकर दिया जाता है वे आम तौर पर कमतर शक्ति की साहित्यिक कृतियाँ होती हैं। इनमें वैयक्तिकअनुभव को व्यक्त भर कर दिया जाता है, उसकेअतिक्रमण की चेष्टा नहीं की जाती। इसलिए अन्तर्वस्तु के आधार पर किए जानेवाले समाजशास्‍त्रीयअध्ययनों का चरित्र ब्यौरे गिनाने वाला होता है और महान रचनात्मक कृतियों के बजाए औसतमहत्त्व की कृति या साहित्यिक प्रवृत्ति का अध्ययन बन जाता है। अन्तर्वस्तु आधारित समाजशास्‍त्रसाहित्यिक कृति को सामाजिक चेतना का प्रतिबिम्ब भर मानता है जबकि उत्पत्तिपरक संरचनावादीपद्धति समग्रता की धारणा से अनुशासित होती है। कृति में निहित अलग-अलगपक्षों के बोध से अधिक उसकी समग्रता का बोध महत्त्वपूर्ण है। और इसकी आन्तरिक पूर्णताके बोध से व्यापक सामाजिक ऐतिहासिक प्रक्रिया के सम्बन्ध की व्याख्या और भी अधिकमहत्त्वपूर्ण है। इसीलिए उन्होंने कहा किअन्तर्वस्तु की बजाय उसकी संरचना, जिसेउन्होंने’अन्तर्वस्तु का रूप’ कहा है, काविश्‍लेषण किया जाना चाहिए। उनके अनुसार इस रूप के दो भेद हैं – पहला, कृति में निहित विश्‍व-दृष्टि अर्थातसमूह की परावैयक्तिक मानसिक संरचना की सुसंगत अभिव्यक्ति का रूप तथा दूसराअभिव्यक्ति के माध्यम अर्थात शैली आदि का रूप।

  1. उपन्यास का समाजशास्‍त्र

   अपनी दूसरीपुस्तक में गोल्डमान समकालीन साहित्य और पूँजीवादी समाज में कला और समाज की स्थितिपर विचार किया है। उन्होंने पूँजीवाद के विकास के साथ उपन्यास के स्वरूप के इतिहासको जोड़ा है। पहली अवस्था 19वीं सदी के मध्य सेसन् 1910 तककी है, जिसे वे‘उदारपूँजीवाद’ कहते हैं। यह मध्यवर्ग के उदय और व्यक्तिवाद का दौर था, जिसमें महाकाव्य कीसामूहिक चेतना को अपदस्थ करके उपन्यास विधा का जन्म हुआ। इसलिए यह क्लासिक उपन्यासों का काल है। इसका नायक समस्याग्रस्तनायक (प्रॉब्लेमैटिकहीरो) हैजो जीवन के प्रामाणिक मूल्यों की तलाश के लिए संघर्ष करता दिखता है। उन्होंने इस दौरपर अधिक कार्य नहीं किया, क्योंकिलुकाच इसदौर के उपन्यासों पर विस्तृत कार्य कर चुके थे। समस्याग्रस्त नायक की बात भीलुकाच ने कही।

 

गोल्डमान नेअगले दौर को संकटग्रस्त पूँजीवाद (मोनोपलीकैपिटलिज़्म) केरूप में चिह्नित किया। उन्होंने इस परअधिक विस्तार से कार्य किया।यह दौर सन् 1890 से सन् 1945 तक का है। इस दौर में व्यक्ति के महत्त्व और गरिमा का तेजीसे पतन हुआ। यह दौर द्वितीय विश्‍वयुद्ध तक का दौर है। इसके अन्तर्गत उन्होंने आन्द्रेमार्लो पर विस्तार से विचार करने के साथ-साथ सार्त्र, काफ़्का तथाकामू के उपन्यासों पर विचार भी किया है। यहाँ नायक व्यक्तित्वहीन हो गए हैं या उनके व्यक्तित्वका विघटन हो गया है। बल्कि नायक (हीरो) कीधारणा ही समाप्‍त हो गई है। दर्शन के क्षेत्र में अस्तित्ववाद का आविर्भाव तथा सार्त्र, कामूऔर काफ़्का के उपन्यासों की विश्‍व-दृष्टि मेंएक समानधर्मिता मिलती है।

 

तीसरी अवस्था ‘बाजार पूँजीवाद’ या ‘उपभोक्ता पूँजीवाद’ की है। यह समय सन् 1945 के बाद का है, इसमें मनुष्य बाजार के सामने निष्क्रिय उपभोक्ता मात्र होकर रह गया। पण्य-मूल्य तक या बाजार में बिकनेवाले माल तक मानव-मूल्य का ह्रास हो गया और मानव-जीवन पर वस्तुएँ हावी हो गईं। वस्तुएँ इन्सान को अपदस्थ करने लगीं। मार्क्स ने इस स्थिति को ‘रि-इफिकेशन’ कहा था, जिसे हिन्दी में वस्तुकरण कहा जाता है। गोल्डमान ने इस दौर के प्रतिनिधि उपन्यासकार के रूप में एला रॉब-ग्रिए को महत्त्वपूर्ण माना है। उसकी उपन्यासों की संरचना की समानधर्मिता उस युग के मध्यवर्गीय जीवन की विश्‍वदृष्टि की संरचना से दिखाई है। एक जगह उन्होंने रॉब-ग्रिए के ईर्ष्या  उपन्यासका एक वाक्य को उद्धृत किया है- “हल्के रबर सोलके जूतों से कोई आवाज नहीं आ रही है”। गोल्डमानने चिह्नित किया कि रॉब-ग्रिए ने यहनहीं लिखा किनायक धीरे-धीरेचल रहा है, क्योंकि आज की दुनिया में मनुष्य पर वस्तुओं का बस चलता है, वस्तुओंपर मनुष्य का नहीं। घटनाएँ वस्तुओं से प्रेरित हो रही हैं।

  1. कला और विद्रोही चेतना

   गोल्डमान ने ज्याँ जेने के नाटकों पर भी विस्तार से लिखा। दरअसल वे आवाँगार्द रंगमंच एवं फिल्मों के माध्यम से समकालीन दौर की सांस्कृतिक स्थितियों को समझने की कोशिश करते रहे। ज्याँ जेने के नाटकों को उन्होंने अपनी पद्धति की समकालीनता सिद्ध करने तथा उपभोक्तावादी समाज-व्यवस्था में विद्रोही चेतना की अर्थवत्ता खोजने का माध्यम बताया। गोल्डमान के अनुसार आधुनिक कला अस्वीकार की कला है। पूँजीवादी समाज में जिस प्रकार चेतना संकुचित हो रही है, संवेदनशीलता और सृजनशीलता का ह्रास होता जा रहा है, उसके प्रति विद्रोह और अस्वीकार सांस्कृतिक कर्त्तव्य बन जाता है। कला में इस स्थिति के विरुद्ध विद्रोह के दो रूप मिलते हैं। पहला, रूपात्मक विद्रोह, जो समाज में प्रचलित और स्वीकृत कला-रूपों का नकार है, जो कि फ्रांस के नए उपन्यास में मिलता है; दूसरा रूप कृति की अन्तर्वस्तु की संरचना बनकर व्यक्त होता है। लुकाच जहाँ आधुनिकतावादी कृतियों को उनके निराशावाद और अमूर्त्तन के कारण यथार्थवाद का विरोधी मानते थे वहाँ गोल्डमान ने जेने के बालकोनी  के विश्‍लेषण से सिद्ध किया कि आधुनिकतावाद और यथार्थवाद हमेशा विरोधी हों यह आवश्यक नहीं है। आधुनिकतावादी कृतियों में भी समकालीन सामाजिक यथार्थ की सारभूत विशेषताओं की पुनर्रचना की जा सकती है। जेने के नाटकों में गोल्डमान विद्रोह की संरचना पाते हैं, जिसका सम्बन्ध उन्होंने समकालीन वामपन्थी बुद्धिजीवी समुदाय की विश्‍व-दृष्टि से लगाया है। उसके नाटकों में व्यक्ति नहीं, समूह चरित्रों के रूप में आते हैं। इन समूहों के बीच विरोधमूलक सम्बन्ध अधिक हैं और उनके तरह-तरह के संघर्षों के माध्यम से इतिहास-प्रक्रिया प्रकट होती है। शासकों के प्रति शासित संघर्ष करते हैं, लेकिन उनके प्रति आकर्षित भी हैं, जिससे एक तनाव की रचना होती है। इस तनाव का एक और पहलू है कि शासक शासितों पर शासन करते हैं, पर उन्हें पूरी तरह अपने वश में करने में असफल रहते हैं। विरोधी भावों का यह तनाव कृति की संरचना में एक सुसंगति लाता है। गोल्डमान ने जेने के नाटकों में स्वतन्त्रता, असहमति और विद्रोह की समस्याओं के बीच सम्भाव्य चेतना की अभिव्यक्ति पाते हैं।

 

गोल्डमान की पर्याप्‍त आलोचनाएँ भी हुईं। खुद उन्होंने अपने एक निबन्ध में अपनी विश्‍लेषण-पद्धति की अनेक सीमाओं को स्वीकार किया। उनकी पद्धति में लेखक के जीवन-चरित्र के लिए अवकाश नहीं। जेने के जीवन को देखते हुए यह संगत नहीं लगता जबकि सार्त्र इसके विश्‍लेषण के लिए ‘सोशिओलॉजी ऑफ फ़ैमिली’ लाए। दूसरा, उन्होंने कृति में सुसंगति और एकान्विति पर बहुत बल दिया, लेकिन रचना में पाए जाने वाले अन्तर्विरोध और विविधता भी रचना को महान बनाती है। इन सीमाओं के बावजूद लुसिएँ गोल्डमान एक विद्वान तथा साहित्य के समाजशास्‍त्री के रूप में प्रासंगिक हैं।

  1. निष्कर्ष

    गोल्डमान ने विश्‍वदृष्टि और समानधर्मिता के प्रसंग में बार-बार सुसंगति की चर्चा करते हुए उसकी कसौटी पर साहित्यिक कृतियों की परख की। उन्होंने यह भी माना कि समाज या वर्ग के जीवन से रचना का घनिष्ट सम्बन्ध, कल्पना की सृजनशीलता का विरोध नहीं है। उन्होंने पूँजीवाद के विकास के साथ उपन्यास के स्वरूप को जोड़ा है।

 

गोल्डमान समाज और साहित्य के बीच सम्बन्ध की खोज अन्तर्वस्तु के स्तर पर नहीं करते। वे साहित्यिक कृति का संरचनात्मक विश्‍लेषण करते हैं। इस तरह वे अपने को अन्तर्वस्तुवादियों से अलग करते हैं। वे जिन संरचनाओं का विश्‍लेषण करते हैं, वे अर्थ की संरचनाएँ हैं, रूप की नहीं। वे ‘अर्थ की संरचनाओं’ को कभी-कभी ‘अन्तर्वस्तु का रूप’ भी कहते हैं। इसलिए उनकी पद्धति रूपवादी संरचनावादियों से भिन्‍न है।

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अतिरिक्त जानें

 

बीज शब्द

  1. उत्पत्तिमूलक संरचनावाद : लूसिएँ गोल्डमान द्वारा स्थापित साहित्य सिद्धान्त जिसमें उन्होंने संरचनावाद की नई व्याख्या की है।
  2. विश्वदृष्टि : विश्व को देखने-समझने की दृष्टि। लूसिएँ गोल्डमान के अनुसार किसी सामाजिक समूह की वास्तविक और सम्भावित चेतना विश्व-दृष्टि कहलाती है।

     पुस्तकें

  1. साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, मैनेजर पाण्डेय, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, हरियाणा।
  2. साहित्य का समाजशास्त्रीय चिन्तन, निर्मला जैन (सम्पादक), भारत सरकार, दिल्ली।
  3. कला का जोखिम, निर्मल वर्मा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
  4. साहित्य का समाजशास्त्र, डॉ. नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
  5. समाजसास्त्र की रूपरेखा, आई. एम. चौहान (समपादक), मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल।
  6. Lucien Goldmann : An Introduction, Mary Evans, The Harvester Press, Sussex.
  7. Method in the Sociology of Literature, Lucien Goldmann, (Translation : William Q. Boelhower), Blackwell Publishers, Oxford.
  8. Towards the Sociology of Novel, Lucien Goldmann, (Translation : Alan Sheridan), Tavistock Publications, London.

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