28 रोलाँ बार्थ की साहित्य दृष्टि

विनोद शाही

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • रोलाँ बार्थ के आरम्भिक आलोचना-क्रम से परिचि‍त होंगे।
  • संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद से रोलाँ बार्थ का सम्बन्ध जान सकेंगे।
  • रोलाँ बार्थ की आलोचना पद्धति, उसके स्वरूप, वैशि‍ष्‍ट्य और सीमाओं की जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • पूर्व प्रचलित अवधारणाओं के प्रति रोलाँ बार्थ की धारणाएँ जान सकेंगे।
  • रोलाँ बार्थ की प्रमुख साहित्यिक अवधारणाओं से अवगत हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

    रोलाँ बार्थ फ्रेंच भाषा और साहित्य के जाने-माने आलोचक, सिद्धान्तकार और विचारक थे। संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद के सम्बन्ध में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण स्थापनाएँ दी हैं। उनका जन्म 1915 में हुआ था। अपने जीवन के शुरुआती दौर में उन्होंने सांकेतिकता और मिथक पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया। अपने लेखन में बार्थ ने मिथकों के प्रचलित अर्थों से हट कर नए अर्थों का उद्घाटन किया। द डेथ ऑफ द ऑथर (सन् 1967 में प्रकाशित आलेख) से रोलाँ बार्थ को काफी प्रसिद्धि मिली।

 

राइटिंग डिग्री जीरो (1953), माइथॉलाजिज (1957), एलीमेण्‍ट्स ऑफ सिमियोलाजी (1965) आदि रोलाँ बार्थ की प्रमुख रचनाएँ हैं। उनकी मृत्यु सन् 1980 में हुई।

  1. रोलाँ बार्थ की साहित्य-दृष्टि की विकास यात्रा

   3.1. संरचनावाद से उत्तर-संरचनावाद तक का सफर : एक पृष्ठभूमि

 

रोलाँ बार्थ की साहित्य-दृष्टि लगातार विकासमान रही है। उनकी आरम्भिक आलोचना, मुख्यतः आधुनिक भाषाविज्ञान से सम्‍बद्ध है। उन्होंने अपने शुरुआती लेखन में भाषाविज्ञान में मौजूद संरचनावादी अर्थ विज्ञान व अर्थमीमांसा की धारणाओं को आधार बनाया है।

 

आधुनिक भाषाविज्ञान के विकास की दो महत्त्वपूर्ण आधार-भूमियाँ हैं। एक का सम्बन्ध प्रत्यक्ष भाषा-संरचनाओं से है, तो दूसरी का सम्बन्ध इन भाषा-संरचनाओं से, परन्तु वहाँ आधारभूमि — मानवविज्ञान है। मानवविज्ञान ने आधुनिक भाषाविज्ञान को एक समृद्ध ऐतिहासिक दुनिया से जोड़ा है, जो उसे ज्ञात इतिहास से भी पीछे के कबीलायी इतिहास में ले जाती है। इस तरह आधुनिक भाषाविज्ञान का समसामयि‍क रूप, कालक्रमिक) हो पाता है। मायथोलोजीज़ (सन् 1957) रोलाँ बार्थ की आरम्भिक कृति‍यों में से है। इस में वे अपने एलीमेण्‍ट्स ऑफ सीमियोलोजी (द राइटिंग जीरो- 1953) की अर्थ विज्ञान की जमीन को, मिथकों के विश्‍लेषण के माध्यम से कालक्रमी-संरचनाओं तक ले जाते हैं।

 

इस तरह उनका अर्थ विज्ञान, आधुनिक भाषाविज्ञान की दोनों भूमियों की भाषा-संरचनाओं को अपने विवेचन में ले आता है। यहाँ स्पष्ट करना भी जरूरी लगता है कि आधुनिक भाषाविज्ञान का भाषा केन्द्रित स्वरूप-गठन मुख्यतः सस्यूर द्वारा सम्भव हुआ, जबकि मानवविज्ञान के सहारे मिथकों में उतरने की गहन प्रक्रिया मुख्यतः लेवी स्‍त्रॉस के विवेचनों से सम्भव हुई। सस्यूर और लेवी स्‍त्रॉस को एक साथ रखकर देखे बिना आधुनिक भाषाविज्ञान की समकालि‍क और कालक्रमी संरचनाओं के अर्थ को ठीक से समझना कठिन हो सकता है, अतः जरूरी है कि हम पहले इस पृष्ठभूमि को ठीक से जान-समझ लें।

 

दूसरी बात यह समझने की है कि रोलाँ बार्थ मुख्यतः अर्थ विज्ञान के क्षेत्र में काम करते रहे, परन्तु धीरे-धीरे वे अपने अर्थ वैज्ञानिक विवेचनों को अर्थमीमांसा के उत्तर-संरचनावादी रूपों के दहलीज तक खींच ले आए। अर्थ विज्ञान और अर्थमीमांसा में जो फर्क है, उसे भी समझना जरूरी है। अर्थ विज्ञान का आधार भाषा-संरचनाएँ होती हैं ; जबकि अर्थमीमांसा (हरमेन्यूटिक्स) इन भाषा-संरचनाओं को सामाजिक-संरचनाओं के साथ सापेक्ष व सन्‍दर्भगत रिश्तों में ग्रहण करती हुई आगे बढ़ती है।

 

रोलाँ बार्थ की साहित्य-दृष्टि का विकासक्रम भी इसी रूप में सामने आता है–

  • पहले वे आधुनिक भाषाविज्ञान की अर्थ विज्ञान वाली भूमि से जुड़े (दृष्‍टव्‍य : द एलीमेण्‍ट्स ऑफ सीमियोलोजी)
  • फिर वे अपने अर्थ विज्ञान को मिथकों के विवेचन के माध्यम से कालक्रमी गहराइयों में ले गए और इस आधार पर पश्‍च‍िमी सभ्यता के पतनशील हो जाने के ऐतिहासिक कारणों व रूपों की पड़ताल की।
  • तदुपरान्त वे अपनी सर्वाधिक चर्चित धारणा द डेथ ऑफ द ऑथर (सन् 1967 में प्रकाशित आलेख) के साथ अपनी अर्थ वैज्ञानिक भूमि को नव्य-अर्थमीमांसा से जोड़ते नजर आए। उनके इस आलेख को संरचनावाद व उत्तर-संरचनावाद के बीच पुल बनाने का कार्य करने वाला भी माना जा सकता है।

    3.2. स्वरूप

 

रोलाँ बार्थ की साहित्य-दृष्टि स्वरूपतः अन्तरानुशासनात्मक है, हालाँकि उन्हें उनकी ‘अर्थ विज्ञान-केन्द्रित’ व्याख्याओं के आधार पर, मुख्यतः येल स्कूल का आलोचक माना जाता है, जिसका सम्बन्ध ‘नई आलोचना से लेकर उत्तर-संरचनावादी व विखण्डनवादी आलोचना से है।

येल स्कूल साहित्य की पाठ-केन्द्रित, कृति-केन्द्रित, भाषा-केन्द्रित ऐसी व्याख्याओं के विकास व सम्बन्धों से जुड़ा रहा है, जो उत्तर-संरचनावाद से सम्बद्ध उत्तर-आधुनिक आलोचना की सर्वाधिक चर्चित-विवादास्पद व्याख्याएँ बन गई हैं। इनमें शामिल आलोचक विखण्डनवादी, अर्थ वैज्ञानिक, अर्थमीमांसीय एवं प्रज्ञावादी पद्धतियों का इस्तेमाल करते देखे जा सकते हैं।

 

रोलाँ बार्थ की आलोचना का सम्बन्ध मुख्यतः अर्थ विज्ञान व अर्थमीमांसा से माना जा सकता है– जिसकी जमीन आधुनिक भाषाविज्ञान में है। तथापि उनकी व्याख्याएँ आगे चलकर ‘लेखक की मृत्यु’ वाली अवधारणाओं का विकास करती हैं, तो वे संरचनावाद से साफ तौर पर उत्तर-संरचनावाद में प्रवेश करते नजर आते हैं। यहाँ उनकी धारणाएँ अर्थ-ध्रुवीयता व अर्थ-बहुलता के इतने करीब आ जाती हैं कि उन्हें हम विखण्डनवाद की भूमिका बनाने वाले आलोचक के रूप में भी देख सकते हैं।

 

इसके अलावा वे लेवी स्‍त्रॉस के संरचनावादी मानवविज्ञान को सस्यूर के भाषाविज्ञान की जमीन को गहराने के लिए, जिस तरह से लाए; उसे देखते हुए उन्हें भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी मौलिक कार्य करने वाले आलोचक के रूप में प्रतिष्ठा मिली। उनकी इस अन्तरानुशासनात्मकता को प्रमाणित करने वाले, उनसे सम्बद्ध ज्ञानानुशासनों की सूची नीचे दी जा रही है–

  1. आधुनिक भाषाविज्ञान
  2. अर्थ विज्ञान
  3. अर्थमीमांसा
  4. प्रज्ञावाद
  5. संरचनावादी मानवविज्ञान
  6. मार्क्सवाद

    3.3 आलोचना-पद्धति

 

मूल प्रश्‍न यह समझने का है कि रोलाँ बार्थ को उत्तर-संरचनावादी आलोचना पद्धति का विकास करने की जरूरत क्यों पड़ी? उन्होंने खुद अपने पहले के दौर की संरचनावादी आलोचना-पद्धति को अपनाने-आजमाने के बाद अपर्याप्‍त क्यों समझा? और उनके समय में साहित्य की व्याख्या के लिए जो अन्य आलोचना-पद्धतियाँ सक्रिय थीं, उनकी उन्होंने आलोचना क्यों की और उन्हें अप्रासंगिक हुआ मान कर उत्तर-संरचनावाद की ओर प्रस्थान क्यों किया?

 

इन सवालों के हल से पहले, एक नजर उन सभी आलोचना-पद्धतियों पर डाल लेते हैं, जो रोलाँ बार्थ के समय में विकासमान थीं, परन्तु जिन्हें अपर्याप्‍त जान कर उन्‍होंने उनकी आलोचना की। वे पद्धतियाँ थीं–

  1. स्वच्छन्दतावादी आलोचना पद्धति
  2. यथार्थवादी आलोचना-पद्धति एवं मार्क्सवादी आलोचना पद्धति
  3. अस्तित्ववादी आलोचना-पद्धति
  4. संरचनावादी आलोचना पद्धति

    रोलाँ बार्थ ने इनमें से पहली तीन की सीमाओं को उजागर किया और चौथी पद्धति; यानी संरचनावाद को अपनाया। परन्तु जल्द ही वे इस पद्धति की सीमाओं के प्रति भी सचेत हो गए और इस क्रम में आगे बढ़ते हुए वे उत्तर-संरचनावादी आलोचना-पद्धति तक जा पहुँचे।

 

अब यहाँ संक्षेप में, रोलाँ बार्थ द्वारा रेखांकित उपर्युक्त आलोचना-पद्धतियों की सीमाओं का उल्लेख करना जरूरी प्रतीत होता है।

 

3.4 पूर्व-प्रचलित आलोचना-पद्धतियों की सीमाएँ

 

एक : स्वछन्‍दतावादी आलोचना पद्धति

इस आलोचना पद्धति की सीमाओं पर प्रकाश डालते हुए रोलाँ बार्थ ने निम्‍नलि‍खि‍त निष्कर्ष निकाले–

  1. इस पद्धति द्वारा जिस दृष्टि का इस्तेमाल किया जाता है उसे ‘मनोवैज्ञानिक निर्धारण’ का नाम दिया जा सकता है।
  2. मनोविज्ञान से जुड़ी प्रवृत्ति‍यों, संवेदनाओं, रचना प्रक्रियाओं, कल्पना-विलास आदि के प्रभुत्व से यह पद्धति अनैतिहासिकता को महत्त्व देने लगती है।
  3. सामाजिक विकास की ‘ऐतिहासिक’ प्रक्रियाओं के ठोस रूपों की बजाय, यह पद्धति, ‘आध्यात्मिकता’ तथा स्वतःस्फूर्ति को महत्त्व देती है, जिससे बुर्जुआ मानसिकता पुष्ट होती है।
  4. कहने को यह पद्धति ‘निम्‍न वर्गों के प्रति सहानुभूति की बात करती है, परन्तु ‘परिवर्तन’ की जरूरत को ख़ारिज करने की वजह से, वह बुर्जुआ या उच्‍च वर्गों के हितों की पूर्ति करने वाली पद्धति बन जाती है।

   स्‍पष्‍टत: उनकी यह आलोचना-दृष्टि, ‘मार्क्सवादी-यथार्थवादी’ आलोचना दृष्टि से प्रभावित दिखाई देती है। तथापि आगे चलकर वे इस यथार्थवादी-मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि व उसकी पद्धति की सीमाओं के प्रति भी सजग हो गए।

 

दो : यथार्थवादी-मार्क्सवादी आलोचना पद्धति की सीमाएँ

रोलाँ बार्थ को इस आलोचना-पद्धति के द्वारा साहित्य की व्याख्या करने में निम्‍न खामियां दिखाई दीं-

  1. इस साहित्य-दृष्टि में पात्रों-स्थितियों-सामाजिक मूल्यों के मूल्यांकन के लिए ‘रूढ़ नैतिक बोध’ को महत्त्व दिया जाता है। ‘रूढ़’ होने का कारण राजनीतिक दल या प्रतिवक्ताओं के ख़ास आग्रहों को कसौटी बनाना होता है।
  2. यथार्थवादी-मार्क्सवादी व्याख्याएँ, अपने तयशुदा लक्ष्यों या रूपान्‍तर के मॉडलों को सामने रख कर, ‘एक ही तरह की व्याख्याओं को महत्त्व देती है’ इससे ‘अन्य व्याख्या-सम्भावनाओं का दमन’ होने लगता है।
  3. उदाहरण के लिए रोलाँ बार्थ ने बालजाक पर काम करते हुए, उनकी ‘एक ही तरह की’ यानी यथार्थवादी-मार्क्सवादी व्याख्या’ को अपर्याप्‍त माना और ‘अन्य व्याख्या-सम्भावनाओं’ को भी बालजाक को समझने के सन्दर्भ में उपयोगी कहा और ‘परोक्ष विचारधारात्मक आग्रह’ छोड़ने पर बल दिया।

    तीन : अस्तित्ववादी आलोचना पद्धति की सीमाएँ

अस्तित्ववादी आलोचना पद्धति ‘व्यक्तित्व-केन्द्रित’ होती है और संरचनामूलक ‘चुनाव’ को, पाठ में व्यक्तित्व की ‘शैलीमूलक अभिव्यक्ति’ मानती है। इस पद्धति की आलोचना करते हुए रोलाँ बार्थ ने सवाल उठाया कि ‘शैली’ तो लगातार बदलने वाली वस्तु है। उसे व्यक्तित्व कि अभिव्यक्ति कैसे माना जा सकता है? क्योंकि वह पहले से मौजूद साहित्य-पाठों के ‘नियमों के ख़ास-सेट’ की तरह, पाठ में प्रवेश करती है। साहित्य पाठों की रूढ़ियाँ, इतिहास-परम्पराएँ और समय के बदलाव से शैली बदलती रहती है, अतः उसमें ‘व्यक्तित्वमूलक अस्तित्व की खोज’ का कोई अर्थ नहीं है।

 

चार : संरचनावादी आलोचना पद्धति

रोलाँ बार्थ खुद शुरुआती दौर में संरचनावादी आलोचना-पद्धति का इस्तेमाल करते रहे, परन्तु जल्द ही वे इसकी सीमाओं से परिचित होकर, इस पर सवाल उठाने लगे। रोलाँ बार्थ की मुख्य आपत्ति थी कि संरचनावादी आलोचना-पद्धति, भाषा के ‘संकेतकों’ का इस्तेमाल, शाश्‍वत या सार्वभौम अर्थों में करती है। संकेतकों के अतिक्रमी हो जाने से, नुकसान यह होता है कि ‘एक तरह की व्याख्या’ के लिए जगह बनती है और शेष व्याख्या-सम्भावनाओं का दमन होता जाता है।

 

उल्‍लेख हो चुका है कि रोलाँ बार्थ की ठीक यही आपत्ति यथार्थवादी-मार्क्सवादी आलोचना पद्धति को लेकर भी थी। दोनों में फर्क यह है कि यथार्थवादी-मार्क्सवादी प्रकृति, विचारधारा को सार्वभौम व अतिक्रमी व्यवस्था या इतिहास प्रदान करने की कोशिश करती है, जबकि संरचनावादी प्रकृति, ठीक यही काम भाषा के बीज-संकेतकों या मुख्य-संकेतकों को लेकर करती है।

 

रोलाँ बार्थ ने ऐसे केन्द्रीय या मुख्य संकेतकों में कई चीजें रेखांकित की हैं–जैसे ‘सत्ता से जुडी समस्याएँ’। उदाहरण के लिए ‘राजा का महल’ एक अतिक्रमी-संकेतक हो सकता है, जिससे जुड़ा अर्थ अन्य अर्थ-सम्भावनाओं का दमन करता है।

 

मार्क्सवादी आलोचना पद्धति, यही काम ‘मुख्य-अन्तर्विरोध’ को बाकी अन्तर्विरोधों के दमन के आधार पर केन्द्र में रख कर करती है।

 

यहाँ इस चिन्तन-पद्धति की तुलना देरिदा की विखण्डनवादी आलोचना पद्धति से कर सकते हैं। रोलाँ बार्थ ने जिन्हें ‘सार्वभौम या अतिक्रमी संकेतक’ कहा है, उन्हें देरिदा ने पूरी भाषा-व्यवस्था और उसके अन्तर्गठन से जुड़ी संरचनाओं की खोज की। इस तरह देरिदा, रोलाँ बार्थ से बहुत आगे निकल आए। हालाँकि उनकी दिशा ठीक रोलाँ बार्थ वाली ही थी। देरिदा ने ऐसे सार्वभौम-संकेतकों को ‘प्रकृति, ईश्‍वर, मनुष्य’ जैसे शब्दों में निबद्ध कूट-संरचनाओं में बद्धमूल पाया और उनका विखण्डन कर दिखाया।

 

उपर्युक्त रूप में रोलाँ बार्थ ने, अपने समय में प्रचलित लगभग सभी साहित्यालोचन-पद्धतियों की सीमाओं को पहचान कर रेखांकित किया, तथा उस आधार पर अपनी उस आलोचना-पद्धति का विकास, जो उन्हें ‘लेखक की मृत्यु’ की धारणा के विस्तार के सतह, उत्तर-संरचनावाद तक ले आई। आगे चलकर हम इसी आलोचना-पद्धति की मुख्य अवधारणाओं पर विचार करेंगे। परन्तु उन्हें समझने के लिए जरूरी है कि हम उन सिद्धान्तों को समझें, जो उनकी इन अवधारणाओं की आधारभूमि बने।

 

a. सिद्धान्त भूमि

जिसे रोलाँ बार्थ ने आधुनिक भाषाविज्ञान, अर्थ विज्ञान, अस्तित्ववाद, अर्थमीमांसा, संरचनात्मक मानवविज्ञान और मार्क्सवादी विमर्शों के साथ अन्तरानुशासनात्मक सम्बन्धों को भी विकसित किया।

 

यहाँ इस सिद्धान्त-भूमि को संक्षिप्‍त तालिका की शक्ल में दिया जा रहा है, ताकि उसका एक अनिवार्य परिचय पाया जा सके। इन सिद्धान्तों के विस्तार में जाने के लिए उल्लिखित ज्ञानानुशासनों को आधार बनाने की आवश्यकता होगी।

 

सिद्धान्त तालिका–

एक    :    ‘रोलाँ बार्थ की किताबों से लिए उद्धरणों के आधार’ भाषा क्या है? भाषा संविधान जैसी व्यवस्था है, जिसके नियम वाणी से तय किए कूटों (कोड्स) द्वारा बनाए व समझे जाते है।

 

दो      :    भाषा को केवल ‘बोलने-सुनने’ की क्रियाओं से जुड़ी वस्तु नहीं समझना चाहिए। वह ‘समग्र दैहिक अभिव्यक्ति’ जैसी होती है। अतः भाषा का सम्बन्ध ‘भाषा विज्ञान’ से ही नहीं है, वह ज्यादातर ‘इतर-भाषावैज्ञानिक’ होती है।

 

तीन    :    वाक् या वाणी, भाषा के संविधान में, नियमों व कूटों के रूप में मौजूद होकर. हमें ‘सन्देश’ तक ले जाती है। वाणी के नियम व कूट सामाजिक होते हैं. अतः वाणी और भाषा ‘निजी’ नहीं हो सकती।

 

चार   :    साहित्य के भाषा-पाठ में ‘लेखक’ कहाँ होता है? वह ‘देह से अनुपस्थित’, अन्य-पुरुष की तरह ‘बोलता’ है, इसलिए वह साहित्‍य-पाठ का अन्यपुरुषगत पाठ करने वाला पाठक होता है, उसे साहित्य-पाठ को अर्थ देने वाले बुर्जुआ की तरह देखना अनुचित है।

 

पाँच   :    साहित्य-पाठों की भाषा में पात्रों-स्थितियों-रिक्तस्थानों व शब्दों के अन्तस्सम्बन्धों से ऐसी अर्थ-मीमांसाएँ पैदा होती हैं; जिनका अध्ययन केवल भाषाविज्ञान से नहीं हो सकता। उसके लिए अर्थ विज्ञान व अर्थमीमांसा का अतिक्रमी भाषाविज्ञान चाहिए होता है। इसमें ‘इतर-भाषावैज्ञानिक’ अर्थ भी विवेचनीय हो सकते हैं, तथापि यह भी पूरी तरह ‘वैज्ञानिक’ अध्ययन है, जिसे ‘सभी विज्ञानों का साझा विज्ञान’ कह सकते हैं।

 

साहित्य के ऐसे अर्थ वैज्ञानिक अध्ययन के लिए निम्‍नलि‍खि‍त चरणों को अध्ययन का आधार बनाया जा सकता है- (दृष्‍टव्‍य : एलीमेण्‍ट्स ऑफ सीमियोलॉजी)

  1. भाषा व वाणी के द्वन्‍द्वात्मक रिश्तों का अध्ययन
  • साहित्य के सन्‍दर्भ में ‘वाणी’ या ‘वाक्’ का अर्थ है–प्रवचन या ‘डिस्कॉर्स।’
  • साहित्य-पाठ (टेक्स्ट) के अर्थों को समझने के नियमों के कूट (कोड्स) इसी प्रवचन में होते हैं।
  • हालाँकि वाक् या प्रवचन भी अर्थ की आखिरी कसौटी नहीं, वहाँ अन्य व्याख्याओं के लिए गुंजाइश छोड़नी पड़ती है। क्योंकि all speech is classification and all classifications are oppressive.
  1. उपर्युक्त ‘भाषा-वाक् द्वन्‍द्वात्मकता’ के सम व विषमक्रमी अध्ययन।
  2. उपर्युक्त के अभिधामूलक व लक्षणा-व्यंजनामूलक अर्थस्तरों का अध्ययन।
  3. उपर्युक्त का सामाजिक व्यवहारगत मूल-व्यवस्था के आधार पर अध्ययन–यहाँ हम ‘मूल्यों की सामाजिक संरचनाओं’ को देखते हैं। रोलाँ बार्थ ने यह पाया कि ये संरचनाएँ दो तरह की होती हैं–
  • जिन्हें मिथकों के जरिये बुर्जुआ वर्ग रूढ़ मूल्य संरचनाओं की शक्ल देता है।
  • लोकचित्र की व्यवहारगत मूल्य संरचनाएँ जो विकासमान होती हैं।
  1. साहित्य-पाठ के अर्थगत मूल्यांकन के लिए हमें विकासमान लोक-व्यवहारगत मूल्य संरचनाओं को तथा उनसे जुड़े अर्थों को उभारना चाहिए और देखना चाहिए कि बुर्जुआ मूल्य संरचनाएँ उनका दमन तो नहीं कर रहीं? इसके लिए संस्कृति‍ का मनोविश्‍लेषण हमारे लिए उपयोगी हो जाता है।

     3.5 प्रमुख अवधारणाएँ

  1. पाठ की आत्मसम्भवता : साहित्य का पाठ ‘अपने आप में’ पर्याप्‍त होता है। कृति के अर्थ को उस पाठ के भीतर से खोजना चाहिए। पाठ एक प्रकथन या प्रवचन की तरह होता है; जो अर्थ-सन्देश के नियमों के कूट अपने भीतर छिपाए रहता है। इन नियमों को पाठ की भाषा के विविध घटकों, अंगों, स्वरों व आयामों के द्वन्‍द्वात्मक रिश्तों के माध्यम से पढ़ा-समझा जा सकता है।
  2. लेखक, साहित्य के कृतिपाठ में अनूदित होकर, उसी के एक हिस्से की तरह वहाँ रहता है। लेखक, पाठ में, ‘अलग से’, अर्थ देने के लिए, दिशा-निर्देशों के साथ मौजूद नहीं होता। लेखक पाठ का ‘रचयिता’ भी नहीं होता। वह पाठ में ‘अन्यपुरुष’ के रूप में होता है, देहगत रूप में नहीं। उसके भाव-विचार-संवेदनाएँ-अर्थ सब ‘पाठ’ का रूप लेकर ही हमारे सामने आते हैं। इसे एक तरह से लेखक का पाठ में अर्थानुवाद या भावानुवाद कह सकते हैं।
  3. लेखक की पाठ में देहगत अनुपस्थिति, एक तरह से लेखक की मृत्यु है।

    बुर्जुआ काव्यशास्‍त्र में लेखक को रचयिता माना जाता था। इससे उसकी मौजूदगी ‘ईश्‍वर’ जैसी हो जाती थी। उसके दिए अर्थ ही, पाठ की एकमात्र व्याख्या हो जाते थे।

 

पर यह मान लेने पर कि लेखक पाठ का हिस्सा होता है, उसकी ईश्‍वर जैसा रचनाकार होने की स्थिति का अन्त हो जाता है, यह कैसे होता है?

  • यह इसलिए होता है क्योंकि लेखक, पहले के पाठों की परम्परा के आधार पर लिखता है।
  • अर्थात पूर्वपाठों की परम्परा, लेखक के माध्यम से, पाठ को नए रूप में लिखता है।
  • लेखक वहाँ एक माध्यम भर होता है, रचयिता नहीं, रचयिता होती है–पूर्वपाठों की शृंखला।
  • पूर्वपाठ शृंखला, लेखक के माध्यम से खुद को, नए रूप में लिखवाती है; जहाँ लेखक खुद उस नए पाठ का एक पाठक होता है।
  • पाठक होने से पूर्व लेखक, पूर्वपाठ शृंखला का नए रूप में पाठ संकलन करता है अर्थात लेखक, लेखक न होकर पाठ का संकलनकर्ता होता है।

    4. लेखक की मृत्यु का अर्थ है पाठ की आजादी–भाषा अथवा साहित्य के कृतिपाठ जब लेखक के रचयिता होने में अर्थ से जुड़े रहते हैं, तो वे अन्य व्याख्याओं के लिए आजाद नहीं हो पाते। लेखक की मृत्यु पाठ की उसी तरह की आजादी है, जैसे ईश्‍वर या तानाशाह की सत्ता से आधुनिक समाज की आजादी।

 

लेखक की मृत्यु से पाठ की आजादी का अर्थ है–उसकी विविध अर्थ सम्भावनाओं की प्रजातान्‍त्रि‍क तरीके से अभिव्यक्ति की आजादी

 

5. लेखक की मृत्यु यथास्थितिवाद विरोधी प्रगतिधर्मी विचार है–ईश्‍वर, राजा, तानाशाह, सत्ता और लेखक के केन्द्रीय महत्त्व का सम्बन्ध परम्परागत यथास्थितिवाद को बनाए रखने में था। इसे रोलाँ बार्थ बुर्जुआ मानसिकता के हितों की पूर्ति से जोड़ते हैं। इसके अन्त का अर्थ है–निम्‍न वर्गों से जुड़े, भाषणों के नए अर्थों के प्रकट हो सकने की सम्भावनाओं का खुलना।

 

6. पाठक के दायित्व-बोध पर भरोसा–कृतिपाठ के केन्द्र में जब लेखक नहीं रहता, तो पाठक आ जाता है। हर पाठक कृति को अपने अनुभव-संसार के अर्थों से जोड़ कर समझता है। एक तरह से हर पाठक कृति को, अपने सन्दर्भ में पुनः रचता है।

 

7. पाठक केन्द्रित अर्थ-पुनर्रचना अराजक नहीं होती- रोलाँ बार्थ पाठक के वाक् (स्पीच) को सामाजिक नियमों के व्यवहार-कूटों से संचालित मानते हैं। अतः पाठक पर, एक दायित्वपूर्ण सामाजिक की तरह ही भरोसा किया जा सकता है कि उसकी व्याख्याएँ, भाषा में सामाजिक व्यवस्था का अक्स होंगी।

 

8. भाषा में सामाजिक व्यवस्थाएँ, भाषागत कूटों-नियमों के रूप में रहती हैं : दुर्खीम और सस्यूर की तुलना। रोलाँ बार्थ अपनी इस अवधारणा में, समाजशास्‍त्री दुर्खीम की बजाय, सस्यूर के ज्यादा निकट हैं। वे भाषा को केन्द्रीय स्थान देते हैं, परन्तु उनकी भाषा, सस्यूर के मुकाबले कहीं व्यापक आयामों वाली है, जो इतर-भाषावैज्ञानिकों व अतिक्रमी-भाषावैज्ञानिक धरातलों को भी छूता है।

 

9. भाषा में सन्देश, स्थापत्य या चित्र से भी अधिक घनीभूत होते हैं–स्थापत्य, चित्र आदि में सन्देश यथार्थ के दो या तीन आयामों को घनीभूत करते हैं, जबकि भाषा में ‘समय’ व चेतना के आयाम भी घनीभूत हो जाते हैं।

 

10. पाठ सदा मौजूद निरन्तर विकासमान वस्तु है। रोलाँ बार्थ पाठ को ‘शाश्‍वत रूप में मौजूद’ कहते हैं, अतः उसे समय के साथ, नए अर्थों को उपलब्ध होते रहने के लिए खुला व आजाद छोड़ देना चाहिए।

 

इस प्रकार पाठ, उत्तरोत्तर तरलता व बहुलता को उपलब्ध करने लायक हो जाते हैं। तरलता व बहुलता के आधार पर, उत्तर-संरचनावादी साहित्य के भाषा-पाठों की नव-अर्थमीमांसीय तथा विखण्डनवादी व्याख्याएँ करते हैं।

 

4 निष्कर्ष

 

रोलाँ बार्थ का महत्त्व यह है कि उन्होंने आधुनिकतावादी आलोचना परिदृश्य में काम करते हुए भी भविष्य का जैसे पूर्वानुमान कर लिया था। वे आधुनिक भाषाविज्ञान को अर्थमीमांसा की सहायता से, आलोचक के लिए व्यापक उपयोग की वस्तु बना सके, परिणामस्‍वरूप उनके समय से समसामयिक आलोचना में ‘पाठकवादी आलोचना’ की शुरुआत के लिए एक पुख्ता जमीन तैयार हुई।

 

रोलाँ बार्थ को संरचनावाद और उत्तर संरचनावाद के बीच की कड़ी के रूप में जाना जाता है। फ्रांस के संरचनावादी विचारकों में रोलाँ बार्थ प्रमुख हैं। बार्थ बुर्जुआ मानसिकता के सख्त खिलाफ थे। अपने लेखन में बार्थ ने बुर्जुआ वर्ग को धूर्त ठहराते हुए कहा कि यह वर्ग अपने घटिया उत्पादों को सामाजिक मिथकों में मूल्यों के प्रतिरोपन द्वारा समाज में प्रतिष्ठित करने की कोशिश करता है। बुर्जुआ वर्ग ने जिस जिस चीज को बौद्धिकता के लिए रेखांकित किया, बार्थ ने उसे भी नकार दिया।

 

अपनी चर्चित पुस्तक डेथ ऑफ दी अथर में पाठ और अन्तरपाठ की उत्तर-संरचनावादी अवधारणाओं का ग्राफ खींचा है। बार्थ यहां लेखक और पाठक के पुराने सम्बन्धों ने फिर से पारिभाषित करने की कोशिश करते हैं। वह कहते हैं कि लेखक हर तरह से अपने ही मूल के विध्वंस का आगाज करता है। इस तरह बार्थ ने लेखक के महत्त्व को कम किया और पाठक के महत्त्व को स्थापित करने की कोशिश की।

you can view video on रोलाँ बार्थ की साहित्य दृष्टि

 

अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  1. संरचनावाद : सस्युर द्वारा स्थापित भाषा विज्ञान की एक संकल्पना।
  2. मिथक : आदिकालीन चेतना में यथार्थ का कपोल-कल्पनात्मक परावर्तन जो प्राचीन युग के लिए अभिलाक्षणिक मौखिक लोककथाओं में मूर्त रूप ग्रहण करता था।
  3. अर्थविज्ञान : संकेतविज्ञान की एक शाखा।

    पुस्तकें

  1. साहित्य और इतिहास दृष्टि, मैनेजर पाण्डेय,पीपुल्स लिटरेसी,नई दिल्ली
  2.  कला का जोखिम, निर्मल वर्मा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
  3. Empire of Signs, Roland Barthes, (Translation : Richard Howard), Hill and Wang, New York.
  4. The Eiffel Tower and other mythologies, Roland Barth, Hill and Wang, New York.
  5. Roland Barthes : Structuralism and After, Annette Lavers, Methuen, London.
  6. Roland Barth, Michael Moriarty, Polity Press, Cambridge.
  7. Roland Barth, Graham Allen, Routledge, London, New York.
  8. Roland Barth : The Professor of Desire, Steven Ungar, University of Nebraska Press, Lincoln.

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