14 रूसी रूपवाद

प्रियम अंकित

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • रूसी रूपवाद के वैशिष्ट्य की, उसकी प्रमुख शिक्षाओं की, उसके प्रमुख चिन्तकों की रचना दृष्टि की जानकारी हासिल करेंगे;
  • आलोचना के क्षेत्र में रूसी रूपवाद के प्रभाव को जान पाएँगे;
  • रूपवाद और परम्परागत आलोचना के सम्बन्ध को समझ सकेंगे;
  • रूसी रूपवाद की सीमाओं से अवगत हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   प्रस्तुत इकाई साहित्य और कला की आलोचना के क्षेत्र में क्रान्तिकारी मोड़ लाने वाले सम्प्रदाय रूसी-रूपवाद के अध्ययन के निमित्त है। रूसी रूपवाद रूस में सन् 1910 से लेकर सन् 1930 तक कला और साहित्य की समीक्षा के क्षेत्र में प्रभावशाली रहा। इस सिद्धान्त की शिक्षाओं के मुख्य प्रतिपादक विक्तोर श्क्लोव्स्की, यूरी तिनिअनोव, व्लादिमीर प्रॉप्प, बोरिस आईकेनबॉम, रोमन याकोबसन, बोरिस तोमशेव्स्की, ग्रिगोरी गुकोव्स्की आदि थे। इन्होंने कविता की भाषा और साहित्य की स्वायत्तता एवं विशिष्टता के सिद्धान्तों की स्थापना कर साहित्यालोचना को क्रान्तिकारी मोड़ दिया। इनमें से ज़्यादातर आलोचकों का सम्बन्ध ‘मॉस्को लिंग्विस्टिक सर्किल’ (स्थापित 1915) और पेत्रोग्राद की ‘सोसायटी फॉर द स्टडी ऑफ पोएटिक लैंग्वेज’ (स्थापित 1916) से था।  रूसी रूपवाद ने मिखाईल बाख़्तिन, यूरी लोतमान जैसे विचारकों को और संरचनावाद के सिद्धान्त को गहराई से प्रभावित किया। आधुनिक साहित्य चिन्तन के संरचनावादी और उत्तर-संरचनावादी दौर में रूसी रूपवादी आलोचकों का प्रभाव बना रहा। स्तालिन के समय में ‘रूपवाद’ एक निन्दनीय पद बन गया और अभिजात साहित्य के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा।

  1. रूसी रूपवाद की विशेषताएँ

   रूसी रूपवाद विविधताओं से युक्त आन्दोलन था। इसके विभिन्‍न चिन्तकों के बीच सहमति का कोई केन्द्रीय तत्त्व या कोई एकीकृत सिद्धान्त नहीं था। रूसी-रूपवाद को साहित्यिक और आलोचनात्मक उपकरणों की व्यावहारिक भूमिका पर ज़ोर देने के लिए और साहित्येतिहास की मौलिक अवधारणाओं के लिए अलग से पहचाना जाता है। रूसी-रूपवादियों नें काव्य-भाषा के अध्ययन के लिए ‘वैज्ञानिक’ पद्धति का प्रयोग करने की वकालत की। इसमें आलोचना में प्रयुक्त होने वाली पारम्परिक मनोवैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पद्धतियों का निषेध शामिल था। रूसी रूपवाद के बारे में प्रसिद्ध उक्ति है कि यह “साहित्य सिद्धान्त के दायरे को समाजवैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक संक्रमण से बचाकर साहित्य लेखन में प्रयुक्त होने वाले कलात्मक उपकरणों के व्यावहारिक प्रयोग के अध्ययन तक सीमित रखने का उपक्रम था।”

 

साहित्य का रूपवादी अध्ययन दो प्रमुख सिद्धान्तों पर आधारित है– पहला यह कि स्वयं साहित्य या उसके वे लक्षण जो उसे अन्य मानवीय गतिविधियों से अलग करते हैं, साहित्यालोचना में अन्वेषण का मूल विषय होने चाहिए। दूसरा, ‘साहित्यिक तथ्यों’ को साहित्यालोचन की तत्त्वमीमांसीय प्रवृत्तियों– चाहे वे दार्शनिक हों, सौन्दर्यशास्‍त्रीय हों या फिर मनोवैज्ञानिक हों – पर वरीयता मिलनी चाहिए। इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए रूपवादियों ने साहित्यालोचना के कुछ प्रतिमान विकसित किए।

 

रूपवादियों ने समाजशास्‍त्रीय आलोचना की उपदेशात्मकता और प्रतीकवादियों के तत्त्वमीमांसीय आग्रहों के खिलाफ काव्य-भाषा की स्वायत्त प्रकृति पर बल दिया। यह ध्यान देने योग्य है कि इस आलोचना पर ‘रूपवाद’ का ठप्पा उसके विरोधियों ने ही लगाया था। बाद में यह पद इन आलोचकों के सन्दर्भ में व्यापक रूप से प्रचलित हो गया। रूसी रूपवादियों ने रचना, उसके घटकों एवं उसकी स्वायत्तता के महत्त्व को मजबूती से स्थापित किया। रूपवादियों का उद्देश्य पारम्परिक आलोचना प्रविधियों में व्याप्‍त अनिश्‍च‍ितताओं को उजागर करके साहित्य आलोचना को अविच्छिन्‍न और विशिष्ट बौद्धिक गतिविधि के रूप में स्थापित करना था।

 

सन् 1915 के आसपास रूपवादियों का यह स्पष्ट मानना था कि अब समय आ गया कि साहित्य को इतिहास, समाजशास्‍त्र, संस्कृति-अध्ययन जैसे संक्रामक अनुशासनों के प्रभाव से मुक्त करके साहित्यालोचना के क्षेत्र को इस तरह सीमित किया जाए कि केवल रचना को उसके भाषिक-घटकों के माध्यम से ही व्याख्यायित किया जा सके। रोमन याकोबसन ने इसे यों स्पष्ट किया है– ‘साहित्य-अध्ययन का उद्देश्य साहित्य का समग्र अध्ययन न होकर उसका साहित्यिक अध्ययन होना चाहिए। यानी उन तत्त्वों का अध्ययन, जो साहित्य को साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।’ आईकेनबॉम का भी कहना था कि ‘आलोचक की निष्ठा केवल साहित्य-सामग्री के विशिष्ट लक्षणों के अन्वेषण के प्रति होनी चाहिए।’ रचना के नाभिक को रचनाकर की या पाठक अथवा भावक की मानसिक संरचना के भीतर या उनकी ऐतिहासिक परिस्थितियों में खोजने की प्रवृत्ति को फिजूल मानते हुए रूपवादियों ने इस नाभिक को रचना के भीतर प्रतिष्ठित करने का प्रयत्‍न किया।

  1. वस्तु, रूप, शैली और तकनीक

   रूपवाद को स्पष्ट करने के लिए ‘वस्तु’ और ‘रूप’ को समझना आवश्यक है। काव्य में विचार, भावानुभूति, प्रवृत्ति और इच्छा आदि जिन्हें कवि व्यक्त करना चाहता है, वस्तु के रूप में स्वीकार किए जाते हैं। रूप वह पद्धति, शब्द संरचना या आवयविक संघटन है, जिसके माध्यम से वस्तु को व्यक्त किया जाता है। जो विचारक काव्य में सामाजिक मूल्यों या जीवन यथार्थ को अधिक महत्त्व देते हैं, वे वस्तु को मुख्य मानते हैं। इसके विपरीत जो काव्य को पूर्णतः स्वायत्त मानते हैं, वे रूप को अधिक महत्त्व देते हैं।

 

विक्तोर श्क्लोव्स्की का मानना है कि कला सबसे पहले शैली और तकनीक है, उसके बाद और कुछ। लेकिन उनका कहना था कि कला तकनीक केवल पद्धति या रीति नहीं है, वह कला की वस्तु भी है। उसकी दृष्टि में कलाकार क्या कहता है यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण यह है कि वह कैसे कहता है। रूपवादी कलाकार-रचनाकार को एक कारीगर या शिल्पी के रूप में देखते हैं। रूपवादी यह मानता है कि कविता सबसे पहले तकनीक है और तकनीक पूरी तरह से रूप रचना है, मात्र पद्धति नहीं। कवि के जीवन के यथार्थ को शब्द संघटन के सहारे एक सुन्दर कविता का रूप दे दिया है। जीवन यथार्थ कविता में समाहित है। उसका पृथक अस्तित्व नहीं रह जाता। कविता अपनी पूर्णता में भाषिक संरचना ही है। पाठक पर प्रभाव इसी संरचना का पड़ता है। इससे गुजरते हुए वह कवि की अनुभूति और उसमें स्पन्दित जीवन यथार्थ तक पहुँचता है।

 

रूसी रूपवाद के पुरोधा विक्तोर श्क्लोव्स्की ने कहा था, ‘‘कला हमेशा जिन्दगी से मुक्त होती है। इसका ध्वज शहर की चारदीवारी पर फहराते हुए झण्डे के रंग को प्रतिबिम्बित नहीं करता।’’ उसका निश्‍च‍ित मत था कि, ‘‘कला-रूपों का विवेचन कला-नियमों द्वारा ही होना चाहिए।’’

 

रूपवाद मुख्यत: अपने तो रचना की शिल्पगत प्रौद्योगिकी तक ही सीमित रखता है और रचना के तकनीकी पक्ष एवं उसमें प्रयुक्त उपकरणों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करता है। विक्तोर श्क्लोव्स्की के अनुसार ‘रचना एक मशीन की तरह होती है। वह उस मानवीय गतिविधि का उत्पाद होती है जिसमें एक खास किस्म के कौशल को प्रयुक्त करके कच्‍चे माल को ऐसी जटिल कारीगरी द्वारा ढाला जाता है जिससे कुछ विशेष लक्ष्यों को प्राप्‍त किया जा सके।’ यह अन्तर्दृष्टि साहित्यिक कृति को उसके समस्त लेखकीय, पाठकीय और मनोवैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक सम्बन्धों से निरावृत कर देती है। इस धारणा को श्क्लोव्स्की की आरम्भिक कृति आर्ट एण्ड डिवाईस के इन शब्दों से समझा जा सकता है : रचना उन साहित्यिक और कलात्मक उपकरणों का समुच्‍चय है, जिनका कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करके कलाकार उसे किसी शिल्प में ढालता है।

  1. रूपवाद और परम्परागत आलोचना

   रूपवादियों ने अपने समय में रूस की आलोचनात्मक चिन्‍तन परम्परा में व्याप्‍त आग्रहों का खण्डन किया। पारम्परिक आलोचना एक तरफ साहित्य को सामाजिक एवं राजनीतिक उत्पाद मानती थी, बेलिंस्की जैसे आलोचकों का स्पष्ट मानना था कि सामाजिक और राजनीतिक इतिहास के सन्दर्भ में ही साहित्यिक रचना अर्थवान होती है। तो दूसरी तरफ रचना को लेखक के व्यक्तिगत अनुभवों की प्रतीकों और बिम्बों के रूप में अभिव्यक्ति के तौर पर देखा जाता था। इस तरह पारम्परिक आलोचना साहित्य का मूल्यांकन या तो व्यापक साहित्यिक और राजनीतिक परिदृश्य को आधार मानकर चलती थी, या फिर लेखक के अस्पष्ट मनोवैज्ञानिक-प्रभाववादी परिदृश्य को। अत: रूपवादियों का लक्ष्य यह था कि कुछ ऐसे प्रतिमान गढ़े जाएँ जो साहित्य को एक विलग और विशिष्ट निकाय के रूप में स्थापित कर सकें। रूसी-रूपवादियों ने साहित्य के मूल्यांकन की अव्यवस्थित, व्यक्तिनिष्ठ और प्रभाववादी पद्धतियों को नकार कर साहित्य को भाषिक व्यवहार के सघन समुच्‍चय की व्यवस्थित और वैज्ञानिक प्रणाली के रूप में व्याख्यायित किया। रचना की अन्तर्वस्तु के बजाए, उसके शिल्प या रूप को महत्ता प्रदान की। साहित्य में प्रयुक्त होने वाली भाषा और आम बोलचाल की सूचनात्मक भाषा के बीच के अन्तर पर रूपवादियों ने विशेष बल दिया।

 

संरचनावादी भाषिकी और संरचनात्मक नृतत्त्वशास्‍त्र से रूपवादी समीक्षा का अद्भुत साम्य है। रूपवादी भी स्वनिमीय उपायों तक ही अपने को सीमित रखते हैं। स्वनिमीय वस्तु, सन्देश, इतिहास आदि से उसे कुछ लेना-देना नहीं है। उसकी दृष्टि में कला की स्वायत्तता निर्विकार है और कला की पड़ताल का क्षेत्र उसका रूप है। समीक्षा को साहित्य के ‘क्या’ से नहीं, ‘कैसे’ से अपना सम्बन्ध रखना चाहिए। जैकोब्सन के मतानुसार– समीक्षक को साहित्यिकता या उन तत्त्वों से जिनसे साहित्य निर्मित होता है, उलझना चाहिए। साहित्य की संरचना कृति में है, कृतिकार में नहीं; कविता में है, कवि में नहीं। विक्तोर श्क्लोव्स्की का कहना है कि कला का केन्द्रवर्ती बिन्दु ‘अजनबी बनाने’ में है, यथार्थ को डिस्टॉर्ट (रूप परिवर्तन) करने में है। पहचानी हुई चीज पर अनचाहेपन का रंग चढ़ाने  में है। साहित्यिक भाषा अजनबी होती ही है। इसको भारतीय काव्यशास्‍त्र में कुन्तक विचित्र अभिधा कहते हैं। रूपवादी भाषा पर जोर देते हैं, क्योंकि साहित्य की भाषा सामान्य से कहीं अधिक उदात्त होती है। कविता में शब्द मात्र विचारों का वाहक नहीं है, अपने आप में वस्तु (ऑब्जेक्ट) है, स्वायत्त इकाई है। वह वाचक न होकर स्वयं वाच्य (सिग्‍न‍िफाइड) है। काव्यगत शब्द का निश्‍च‍ित वाच्यार्थ नहीं होता। वह काव्य में प्रयुक्त होकर वाच्यार्थ को विस्तार देता है और अन्य अभिधेयों से सम्‍बद्ध होकर दूसरे अर्थ में संक्रमित कर जाता है।

 

रूपवादियों ने सबसे ज़्यादा ‘साहित्यिकता’ पर बल दिया। ‘साहित्यिकता’ यानी वह चीज़ जो साहित्यिक पाठ को अन्य पाठों से अलग करती है। स्पष्ट है कि साहित्य के मूल्यांकन की रूपवादी प्रणाली उसके अन्त:अनुशासनात्मक अध्ययन का निषेध करती है। साहित्यिकता या कलात्मकता ही रचना के पाठ को सौन्दर्य की वस्तु में तब्दील करती है, और यह रचना के भाषिक उपकरणों के भीतर निवास करती है, उनके बाहर नहीं। अत: भाषिक उपकरणों को ही साहित्य के मूल्यांकन का समग्र आधार माना जाना चाहिए। रूपवादियों ने साहित्यिक पाठों का अध्ययन उनमें निहित साहित्यिकता की खोज करने के लिए किया; उन उपकरणों और तकनीकी तत्त्वों को सामने लाने के लिए जिनका इस्तेमाल रचनाकर द्वारा भाषा को साहित्यिक बनाने के लिए किया जाता है। रचना के भीतर क्या कहा गया है यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्त्वपूर्ण है कि कैसे कहा गया है। भाषा के साहित्यिक उपकरण वे हैं जो आम बोलचाल की व्यावहारिक भाषा में नहीं मिलते। जैसे– छन्द, लय, उनकी मात्राएँ, रचना का खास किस्म के पदों में संयोजन और विभाजन आदि। कविता इसलिए कविता नहीं है क्योंकि वह मानवीय संस्थितियों के अन्वेषण के लिए व्यापक और गहरे विषयों का सन्‍धान करती है, बल्कि इसलिए है क्योंकि उसमें भाषा अनूठी होती है। भाषा को यह अनूठापन प्रदान करने के क्रम में ही रचना कलात्मक बनती है। रोज़मर्रा के जो अनुभव हमारे सामान्य व्यवहार का अंग बनते हैं, वे बासी और नीरस होते हैं। काव्य-भाषा का अनूठापन जानी पहचानी और सामान्य व्यवहार का अंग बन चुकी वस्तुओं को भी ताज़े और सरस आलोक में प्रकाशित करता है। यह ताज़गी और यह रस कला का हासिल हैं। कविता में रोज़मर्रा की भाषा अजनबी बनाई जाती है। यही शब्द का अजनबीकरण है। यही नयापन है। यही उसका रूप है। काव्यात्मक भाषा मूलत: रूपात्मक ही होती है। जहाँ कहीं रूप होगा, वहाँ अपरिचयीकरण होगा। काव्य-भाषा रोज़मर्रा की भाषा से सिर्फ इसलिए अलग नहीं होती क्योंकि उसके शब्द रोज़मर्रा की जिन्‍दगी में नहीं मिलते। बल्कि इसलिए अलग होती है क्योंकि उसकी तरकीबें (लय या तुक) रोज़मर्रा के सामान्य शब्दों को नया (अपरिचित) बनाते हैं, उनके स्वरों को बदलते हैं। इसलिए रचना प्रकटत: जटिल या कठिन होती है। अत: कला विशिष्ट है, असाधारण है और विचित्र भी है।

  1. अपरिचयीकरण की अवधारणा

   अपरिचयीकरण की अवधारणा के चलते रूसी-रूपवाद एक चुनौतीपूर्ण सम्प्रदाय बना। रूपवाद के अनुसार साहित्यालोचना का काम कविता की भाषा और व्यवहार की भाषा में भेद को प्रकट करना या उसे विश्‍लेषित करना है। यह काम अपरिचयकरण की प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। अपरिचयीकरण को भेद के जरिये स्थापित किया जाता है। कविता की तुलना, जो कविता नहीं है उससे ही स्थापित होती है।

 

सुधीश पचौरी के अनुसार “रूसी रूपवाद ने सबसे बड़ा काम यह किया कि उसने साहित्य की प्रचलित सर्वसंग्रहवादी दृष्टि को व्यर्थ करार दिया और साहित्याध्ययन को एक स्वतन्त्र अनुशासन बनाया। मनगढ़न्‍त अन्दाजों और मनगढ़न्‍त निष्कर्षवाद से मुक्त कर रूपवाद ने समीक्षा को एक निश्‍च‍ित अध्ययन में बदल दिया।  सच तो यह है कि रूपवाद उन तरकीबों का अध्ययन था जो भाषा को नया या अजनबी बनाती है। बाद में रूपवादियों ने पाया कि लगातार दोहराव से तरकीब भी परिचित बन जाती है। श्क्लोव्स्की ने कहा कि तकनीक के रूप में कला, उसकी रूप-व्यवस्था, एक हद के बाद खुद परिचित और स्वत:स्फूर्त बन जाती है। इसलिए कला इससे भी अपने भेद अपरिचय से स्थापित करती है। वह प्रचलित व्यवस्था को तोड़ती है, उसमें अव्यवस्था पैदा करती है। रूसी-रूपवाद ने बेहद स्पष्टता और दृढ़ता से सिद्ध किया कि साहित्य को किसी भी अन्य चीज़ में बदल कर नहीं देखा जा सकता। यहाँ साहित्य अन्य शास्‍त्रों से भेद के आधार पर ही अलग है। यहीं श्क्लोवस्की का ‘अपरिचयीकरण’ का सिद्धान्त लागू होता है। अनुभव हमारी आदतों में, रोज़मर्रा के जीवन में अन्तर्भुक्त हो जाते हैं, उन्हें ‘अपरिचित’ बनाना ही साहित्य है। चलना एक अन्तर्भुक्त यथार्थ है। हम सब चलते हैं। हम सोचते भी नहीं कि हम कैसे चलते हैं लेकिन जब हम नृत्य करते हैं, तो चलने की विशेषताएँ स्थापित होती हैं। इसलिए नृत्य कला है, रूप है। इसी तरह सामान्य भाषा अन्तर्भुक्त हो जाती है। कविता इस भाषा को कभी टेढ़ी, कभी कठिन, कभी जटिल बनाकर अपरिचय से परिचय देती है। यही रूपवाद है। कविता में रोज़मर्रा की भाषा अजनबी बनाई जाती है। यही शब्द का अजनबीकरण है। यही नयापन है। यही उसका रूप है। ‘काव्यात्मक भाषा मूलत: रूपात्मक ही होती है’ क्योंकि जहाँ कहीं रूप हो, अपरिचयीकरण होगा।’

 

दुनिया भर के साहित्य एवं भाषा चिन्तन पर रूसी-रूपवाद का असर हुआ। रूपवाद ने साहित्य को रचनाकार और परिस्थिति से अलग कर दिया। लिखित पाठ या टेक्स्ट की अवधारणा के पहले बीज यहीं पड़े जो बाद में संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद के बुनियादी और निर्णायक पद बने। आधुनिक भाषा-विज्ञान और साहित्य में नया सम्बन्ध यहीं स्थापित हुआ।

  1. रूसी रूपवाद की सीमाएँ

   रूपवाद की सबसे बड़ी सीमा है कि वह साहित्य के अन्त:अनुशासनात्मक अध्ययन का पूर्णतया निषेध करता है। अत: मार्क्सवादी, उत्तर-संरचनावादी और उत्तर-औपनिवेशिक आलोचना पद्धतियों ने रूसी रूपवाद की कड़ी आलोचना की है।

 

रूपवाद पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए डॉ. बच्‍चन सिंह कहते हैं, ‘‘वस्तुतः रूपवाद, कलावाद का ही दूसरा नाम है। इस कलावाद ने समीक्षा के क्षेत्र में काफी कहर ढाया है। साहित्य को जीवन से अलग करके सिर्फ संरचना तक ही अपने को सीमित कर लेना प्रतिक्रियावादी मनोवृत्ति की चरम सीमा है। साहित्य के आस्वाद से भी इसे कुछ लेना-देना नहीं है। जिस संवेदना शून्य भाषा यानी रोज़मर्रा की भाषा को संवेदन पूर्ण बनाने की चेष्टा की जाती है उसमें संवेदना क्या है? ‘रूपवाद’ इस पर भी विचार नहीं करता।’’ फिर भी रूसी रूपवाद का महत्त्व इस बात में है कि उसने बीसवीं शताब्दी में पहली बार कला को कला के रूप में परखने के व्यावहारिक और वैज्ञानिक मानदण्ड प्रस्तुत किए। रूसी रूपवाद की आलोचनादृष्टि को विक्तोर श्क्लोव्स्की के इन शब्दों में समेटा जा सकता है– ‘वस्तु महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण है वस्तु में निहित कलात्मकता को समझने का तरीका’। कला ‘कलात्मकता को समझने’ में ही निहित है।

  1. निष्कर्ष

   रूसी रूपवाद विविधताओं से युक्त एक साहित्यिक आन्दोलन था। इसकी शुरुआत रूस में हुई थी। श्क्लोव्स्की इसके प्रमुख सिद्धान्‍तकार थे। रूसी रूपवाद का कोई केन्द्रीय तत्त्व या कोई एकीकृत सिद्धान्त नहीं था। रूसी-रूपवाद को साहित्यिक और आलोचनात्मक उपकरणों की व्यावहारिक भूमिका पर ज़ोर देने के लिए और साहित्येतिहास की मौलिक अवधारणाओं के लिए अलग से पहचाना जाता है।  साहित्य का रूपवादी अध्ययन दो प्रमुख सिद्धान्तों पर आधारित है– पहला यह कि स्वयं साहित्य, या उसके वे लक्षण जो उसे अन्य मानवीय गतिविधियों से अलग करते हैं, साहित्यालोचना में अन्वेषण का मूल विषय होने चाहिए। दूसरा, ‘साहित्यिक तथ्यों’ को साहित्यालोचन की तत्त्वमीमांसीय प्रवृत्तियों– चाहे वे दार्शनिक हों, सौन्दर्यशास्‍त्रीय हों या फिर मनोवैज्ञानिक हों– पर वरीयता मिलनी चाहिए। इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए रूपवादियों ने साहित्यालोचना के कुछ प्रतिमान विकसित किए। कलाकार क्या कहता है यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण यह है कि वह कैसे कहता है। रूपवादी कलाकार को एक कारीगर या शिल्पी के रूप में देखते हैं। रूपवादी यह मानता है कि कविता सबसे पहले तकनीक है और तकनीक पूरी तरह से रूप रचना है, मात्र पद्धति नहीं। कवि के जीवन के यथार्थ को शब्द संघटन के सहारे एक सुन्दर कविता का रूप दे दिया है। जीवन यथार्थ कविता में समाहित है। उसका पृथक अस्तित्व नहीं रह जाता। कविता अपनी पूर्णता में भाषिक संरचना ही है। पाठक पर प्रभाव इसी संरचना का पड़ता है। इससे गुजरते हुए वह कवि की अनुभूति और उसमें स्पन्‍दि‍त जीवन यथार्थ तक पहुँचता है। अपरिचयीकरण की अवधारणा के चलते रूसी-रूपवाद एक चुनौतीपूर्ण सम्प्रदाय बना। रूपवाद के अनुसार साहित्यालोचना का काम कविता की भाषा और व्यवहार की भाषा में भेद को प्रकट करना या उसे विश्‍लेषित करना है। यह काम अपरिचयकरण की प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। अपरिचयीकरण को भेद के जरिये स्थापित किया जाता है। रूपवाद की सबसे बड़ी सीमा यही है कि वह साहित्य के अन्त:अनुशासनात्मक अध्ययन का पूर्णतया निषेध करता है। अत: मार्क्सवादी, उत्तर-संरचनावादी और उत्तर-औपनिवेशिक आलोचना पद्धतियों ने रूसी रूपवाद की कड़ी आलोचना की है।

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अतिरिक्त जानें

 

बीज शब्द

  1. रूसी रूपवाद : साहित्यिक आलोचना का एक प्रभावशाली स्कूल (सम्प्रदाय) था जो सन् 1910 के दशक से आरम्भ होकर सन् 1930 के दशक तक रूस में प्रभावशाली था।
  2. कलावाद : आलोचना और रचना का वह रूप जो किसी रचना की कलात्मकता को ज्यादा महत्व देता है।
  3. अपरिचयीकरण : रूस के रूपवादी आलोचक विक्टर श्क्लोवस्की का चर्चित साहित्य-सिद्धान्त जिसके अनुसार रचनाकार हमारी जानी पहचानी वस्तुओं को भी अपनी रचना में एक अपरिचित वस्तु के रूप में पेश करता है जिससे हमारा ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो सके।

    पुस्तकें

  1. Russian Formalist Theory and it’s poetic ambience, Krystyna Pomorska, Moutem, The Hogue.
  2. Russian Formalism: History-Doctrine, Vicktor Erlich, Yale University Press, New Haven.
  3. Formalism and Marxism, Tony Bennette, Methuen, London.
  4. The Prison House of Language ; A Critical Account of Structuralism and Russian Formalism, Fredric Jameson, Princeton University Press, Princeton, N.J.
  5. The Cambdrige History of Literary Criticism from formalism to poststructuralism, Edited by Raman Selden, Cambridge University Press, Cambridge.
  6. Theory of Literature, Paul H. Fry, Yale University Press, New Haven.

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