27 राल्फ फॉक्स की साहित्य दृष्टि
प्रियम अंकित
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप
- राल्फ फॉक्स की साहित्य-दृष्टि की विशेषताओं की जानकारी हासिल करेंगे।
- आलोचना के क्षेत्र में उनकी साहित्य-दृष्टि के प्रभाव और आने वाले समय की आलोचना पर इस दृष्टि के प्रभाव जान सकेंगे।
- उपन्यास, महाकाव्य एवं लोक-जीवन का सम्बन्ध स्थापित करने की पद्धति और साहित्यालोचन पर इसके प्रभाव की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
प्रस्तुत पाठ राल्फ फॉक्स की साहित्य-दृष्टि के अध्ययन के निमित्त है। राल्फ फॉक्स ने साहित्य और कला की आलोचना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। राल्फ फॉक्स का जन्म सन् 1900 में हेलीफैक्स, यॉर्कशायर, इंग्लैण्ड में एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। राल्फ फॉक्स ने विधिवत विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से आधुनिक भाषाओं की पढ़ाई की। इस अर्थ में उनका जीवन क्रिस्टोफर कॉडवेल से अलग था। कॉडवेल ने स्वाध्याय से ज्ञान प्राप्त किया था। इसलिए उनके चिन्तन में कहीं-कहीं हड़बड़ी के दर्शन होते हैं। जबकि फॉक्स नियमित विद्यार्थी थे तथा अपने समय के बौद्धिक जगत के नियमित सम्पर्क में थे। फिर उन्होंने अध्ययन और देशाटन के द्वारा अपने ज्ञान को पुष्ट किया। वे प्रथम विश्व-युद्ध के दौरान अधिकारियों की कैडेट रेजीमेण्ट में लेफ्टीनेण्ट के रूप में भर्ती हुए। मगर इससे पहले कि उन्हें मोर्चे पर लड़ने के लिए भेजा जाता, प्रथम विश्व-युद्ध समाप्त हो गया। इस बीच सन् 1917 रूस में बोल्शेविक क्रान्ति हो गयी। रूसी क्रान्ति के बाद फॉक्स ऑक्सफोर्ड में ‘हैण्ड्स ऑफ रशिया’ समिति के सक्रिय सदस्य रहे और वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन की स्थानीय इकाई की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस बीच वे नियमित पत्रकारिता भी करते रहें। उन्होंने मार्क्स एंगिल्स और लेनिन की रचनाओं का गंभीर अध्ययन किया। 1933 में उन्होंने लेनिन की जीवनी लिखी। इसी के साथ उन्होंने फ्रेंच, इंग्लिश और अन्य यूरोपीय साहित्य और विशेष रूप उपन्यासों का अध्ययन किया। फॉक्स की मृत्यु कारडोबा, स्पेन में 3 जनवरी 1937 में हुई। वे अन्तर्राष्ट्रीय फासीवाद के विरुद्ध स्वैच्छिक रूप से ‘इण्टरनेशनल ब्रिगेड’ में शामिल हुए तथा उन्हीं की तरफ से लड़ते हुए उन्होंने अपनी जान दे दी। उन्होंने मार्क्सवादी दृष्टि से साहित्य का मूल्यांकन करने की पद्धति विकसित करने का आरम्भिक प्रयास किया। उनकी प्रमुख कृति द नॉवेल एण्ड द पीपुल है । हिन्दी में इस पुस्तक का अनुवाद उपन्यास और लोकजीवन के नाम से हुआ। इसकी भूमिका हिन्दी के सुप्रसिद्ध आलोचक और विचारक रामविलास शर्मा ने लिखी है। यह पुस्तक उनकी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का आधार ग्रन्थ है।
- महाकाव्य और उपन्यास
फॉक्स की राय में वर्तमान समय में उपन्यास महाकाव्य का ही एक कला रूप है। अतीत के महाकाव्यों के अध्ययन के बाद फॉक्स ने अपना ध्यान अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी उपन्यास के विकास पर केन्द्रित किया। फॉक्स ने अठारहवीं सदी के साहित्य के विकास की जो अवधारणाएँ प्रस्तुत कीं, वे बुर्जुआ आलोचकों के इस सम्बन्ध में फैलाई गई छद्म धारणाओं का खण्डन करती हैं। उन्होंने साबित किया कि अठारहवीं शताब्दी के ब्रिटिश साहित्य का इतिहास वास्तव में लोकतान्त्रिक और प्रतिक्रियावादी दृष्टियों के आपसी संघर्ष का इतिहास है। ऐसा करते हुए फॉक्स ने अठारहवीं सदी के साहित्य के प्रतिनिधि के रूप में स्मॉलेट और फील्डिंग को मान्यता दी है, एडीसन, स्टील और रिचर्ड्सन को नहीं; जिन्हें बुर्जुआ आलोचक प्रतिनिधि मानते थे। साथ ही फॉक्स ने जोर देकर यह भी स्पष्ट किया कि जीवन के प्रति गहन आलोचनात्मक दृष्टि रखने के कारण ही फील्डिंग और स्मॉलेट दुनिया को अपनी यथार्थवादी रचनाएँ दे पाए।
राल्फ फॉक्स का मत है कि उपन्यास वर्तमान पूँजीवादी युग का महाकाव्य है। परन्तु उपन्यास महाकाव्य से अलग है। महाकाव्य में समाज की पूर्ण अभिव्यक्ति होती है। उपन्यास में वैसी अभिव्यक्ति सम्भव ही नहीं है। फॉक्स ने लिखा है कि “महाकाव्य के पात्रों तथा उस समाज के बीच जिसमें वे रहते थे,एक सन्तुलन था,जो अब विलुप्त हो चुका है।” (उपन्यास और लोक जीवन, पृष्ठ.48) अपनें मत के समर्थन में उन्होंने इलियड का उदाहरण दिया और कहा कि इलियड किसी एक पात्र का चित्र प्रस्तुत नहीं करता, बल्कि पूर्ण समाज का चित्र प्रस्तुत करता है। यहाँ व्यक्ति समाज का ही अंग है। वह समाज के विरुद्ध नहीं है। वह प्रकृति के विरुद्ध भी नहीं है। वह प्रकृति का अंग है। यदि हम इसके समानान्तर रामचरितमानस को देखें तो कह सकते हैं कि उसमें सम्पूर्ण समाज है, राम और सीता व्यक्ति मात्र नहीं है। वे प्रतीक है।
इसके बाद उपन्यास की विषयवस्तु पर चर्चा करते हुए फॉक्स ने कहा कि “उपन्यास का विषय है व्यक्ति। यह समाज के विरुद्ध, प्रकृति के विरुद्ध व्यक्ति के संघर्ष का महाकाव्य है और यह केवल उसी समाज में विकसित हो सकता था जिसमें व्यक्ति और समाज के बीच सन्तुलन नष्ट हो चुका हो और जिसमें मानव का अपने सहजीवी साथियों और प्रकृति से युद्ध ठना हो। पूँजीवादी समाज ऐसा ही समाज है।” इस सन्दर्भ में फॉक्स ने विस्तार से ओडिसी और रोबिन्सन क्रूसो की तुलना करके अपने मत को स्पष्ट किया।
राल्फ फॉक्स रोबिन्सन क्रूसो के बड़े भारी प्रशंसक थे। उन्होंने इसका बारीक विश्लेषण करते हुए कहा कि “रोबिन्सन ने अतीत को तिलांजलि दे दी और स्वयं अपना इतिहास बनाने में जुट गया। वह ऐसा मानव था जो प्रकृति को,अपने शत्रु को, काबू में करने को सन्नद्ध था। रोबिन्सन की दुनिया एक वास्तविक दुनिया है और भौतिक चीजों के मूल्य के प्रति एक विवेकपूर्ण और सजीव भावना के साथ उसका वर्णन हुआ है। तूफान एक विभीषिका है जो जहाज और उस पर लदे माल को खतरे में डाल देती है, पुरुष समुद्री लुटेरे और बागी हैं – अपने साथियों के प्रति क्रूर और निर्मम। किन्तु क्रूसो का आत्मविश्वास, उसका अनगढ़ आशावाद,उसकी मदद करते हैं, और वह एक तरफ जहाँ जान-माल को खतरे में डालनेवाली अपनी मूर्खता, प्रकृति की क्रूरता तथा अपने साथी – पुरुषों की पाशविक शत्रुता पर विजय पाने में सफल होता है, वहाँ समुद्रों के पार वह अपनी आदर्श बस्ती भी बसा लेता है।” (वही, पृ.50)
इस तरह फॉक्स यह स्थापित करते हैं कि उपन्यास का प्रारम्भ पूँजीवाद के प्रारम्भ के साथ जुड़ा हुआ है। यह उस दौर की विधा है जब पूँजीवाद फॉक्स के अनुसार प्रगतिशील भूमिका निभाता है। सामन्तवाद को समाप्त करता है। आगे चलकर जब पूँजीवाद पतनोन्मुख हो जाता है तब उपन्यास में भी गतिरोध उत्पन्न होता है।
भारत में उपन्यास के उदय की यही कहानी दोहराई नहीं गई थी। यहाँ पर उपन्यास नैतिक शिक्षा और समाज सुधार के लिए आया तथा कुछ जासूसी और एय्यारी रचनाओं के साथ आया। हालाँकि एक अर्थ में दोनों में समानता है कि अंग्रेजी और भारतीय उपन्यास गद्य रचनाएं हैं और दोनों आधुनिक युग में उत्पन्न हुई।
- यथार्थवाद :
इसके साथ उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि उपन्यास में जीवन की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। रचनाकार वास्तविक मानव चरित्रों का चित्रण करें, सिर्फ विचारों की कठपुतली नहीं। इसलिए उसे ‘सभी श्रेणी और स्तरों के लोगों के साथ अपनत्व स्थापित’ करने की क्षमता विकसित करनी चाहिए जीवन के गहन साक्षात्कार के बिना कोई भी रचना सम्भव नहीं है। इसके लिए फॉक्स ने दो बाधाओं का जिक्र किया है। जिसमें से एक का सम्बन्ध उस समाज से है, जिसमें लेखक रहता है। लेखक अपने युग की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पाता।
प्राउस्त की आलोचना करते हुए फॉक्स ने लिखा है, “प्राउस्त को महान उपन्यासकारों की पाँत में स्थान नहीं दिया जा सकता, क्योंकि उनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण गुण का अभाव है – उन्होंने जीवन को इतनी गहराई के साथ नहीं पकड़ा है कि वे पात्रों को खुद अपना एक पूर्ण जीवन व्यतीत करने की शक्ति प्रदान कर सकें – ऐसा जीवन जिसमें आप उनसे कोई भी प्रश्न पूछ सकें और वे उत्तर देने पर बाध्य हों।” (पृष्ठ.108) इसलिए वे अन्य आलोचकों के इस मत से सहमत हैं कि उन्हें उपन्यासकार मानना ही नहीं चाहिए। वे तो एक निबन्धकार हैं।
फॉक्स ने जेम्स जॉयस की आलोचना भी इसी आधार पर की। ‘युलीलिस’ की चर्चा करते हुए फॉक्स यह तो मानते हैं कि ‘ब्लूम के रूप में जॉयस ने हमें एक मानव-चरित्र’ दिया है। शेषमात्र केवल ‘लेखक के परिचितों के दायरे में से लिए गए लोगों की छवि मात्र’ है। उनके कुछ पात्रों के बारे में फॉक्स का कहना है कि वे ‘फोटोग्राफ’ लगते हैं जीवित चरित्र नहीं। मानव चरित्र के वर्णन के सन्दर्भ में फॉक्स शेक्सपियर के प्रशंसक है। अपने ग्रन्थ में उन्होंने एक स्थान पर विलियम हेजलिट के मत को उद्धृत किया है। हेजलिट ने चौसर और शेक्सपियर की तुलना की है। हेजलिट ने लिखा “चौसर के एक पात्र एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं, किन्तु उनमें अपने-आप में बहुत ही कम विविधता पाई जाती है, वे बहुत-कुछ एक ही श्रेणी के लगते हैं। वे सुसंगत, किन्तु एकरूप हैं। आरम्भ से लेकर अन्त तक हमें उनके बारे में कुछ पता नहीं चलता। उन्हें भिन्न-भिन्न रूपों में नहीं दिखाया गया है न ही नई-नई परिस्थितियों में उनके दबे हुए गुणों को उभारकर दिखाया गया है। वे मानो आकृतियाँ हैं, जिनका वर्णन अत्यन्त सच्चाई एवं कल्पनातीत पूर्णता के साथ हुआ है, किन्तु उनके हाव-भाव एक-से ही हैं जो कभी बदलते नहीं। शेक्सपियर के पात्र ऐतिहासिक विभूतियाँ हैं,उतने ही सही और सच्चे, किन्तु उन्हें अमल के क्षेत्र में उतारा गया है जहाँ दूसरों के साथ संघर्ष में, टक्कर और तुलना के समूचे प्रभाव को लिए हुए, प्रकाश और छाया की तमाम बारीकियों के साथ, उनकी हर रंग और माँसपेशी को उभारकर दिखाया गया है। चौसर के पात्र वर्णनात्मक हैं, शेक्सपियर के नाटकीय और मिल्टन के महाकाव्यात्मक। यथार्थ यह कि चौसर अपनी कहानी का केवल उतना ही अंश प्रकट करते थे जितना कि वे प्रकट करना चाहते थे, जितना कि उनके उद्देश्य-विशेष के लिए आवश्यक होता था। अपने पात्रों की ओर से वह स्वयं ही उत्तर देते थे। शेक्सपियर में वे मंच पर खड़े कर दिए जाते हैं, दुनिया-भर के सवाल उनसे पूछे जा सकते हैं और वे अपने उत्तर स्वयं देने पर बाध्य होते हैं। चौसर में चरित्र का सारतत्व स्थिर है। शेक्सपियर में ये तत्त्व निरन्तर संघटित और विघटित होते रहते हैं। अन्य मूल पिंडों के सम्पर्क में आने पर उनके प्रति आकर्षण या विकर्षण की एक के बाद दूसरी क्रिया के कारण सम्पूर्ण पिंड का प्रत्येक कण उबलता-उफनता रहता है। जब तक प्रयोग जारी रहता है,हम उसके नतीजों को भांप नहीं पाते, यह नहीं जान पाते कि अपनी नई परिस्थितियों में पात्र कौन-सी करवट लेगा।” (वही ,पृष्ठ.111 -112)
इस लम्बे उद्धरण से हम फॉक्स की दृष्टि को भी समझ सकते हैं। वे अपने ग्रन्थ में एक तरफ जहाँ रचनाकारों की वैयक्तिक अक्षमता का प्रश्न उठाते हैं, दूसरी तरफ उस युग की आलोचना करते हैं जिसमें उन्होंने लेखन किया।
- लेखक की विचारधारा
इसके साथ फॉक्स ने यह भी स्थापित किया की एक सुसंगत जीवन दृष्टि के अभाव में मानवीय व्यक्तित्व की पूर्ण अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। फॉक्स के अनुसार उपन्यासकार व्यक्ति के जीवन की कथा कहता है। उसके भाग्य और संघर्ष को एक परिणति तक पहुँचाता है। ऐसा वह तब तक नहीं कर सकता “जब तक वह सम्पूर्ण वास्तविकता के इस सुस्पष्ट-सुस्थिर दर्शन से भी लैस न हो। उसमें यह समझ होनी चाहिए की उसके पात्रों के व्यक्तिगत द्वन्द्वो से किस प्रकार उसका अन्तिम निष्कर्ष प्रकट होता है, साथ ही उसे यह भी समझना चाहिए कि जीवन की वे विविध परिस्थितियाँ कौन सी हैं जिनकी बदौलत उन व्यक्तियों में से प्रत्येक वैसा बना है जैसा कि वह है।” (वही, पृष्ठ.39)
इसका तात्पर्य यह नहीं कि उपन्यासकार को दार्शनिक होना चाहिए। उन्होंने प्रश्न उठाया की महान उपन्यास महान क्यों हैं, इसलिए महान हैं कि उनमें चिन्तन का यह गुण निहित है कि वे जीवन की अत्यन्त भावपूर्ण या यूँ कहिए कि प्रेरणापूर्ण टीका है। यही वह गुण है जिससे कथा-स्थापनाओं की परख होती है साहित्य के क्षेत्र में प्रथम और द्वितीय कोटि की स्थापना विशिष्टताओं से सामान्य नतीजे निकालने की परख होती है। यह सच है कि अनेक दार्शनिक उपन्यास लिखने में बुरी तरह विफल रहे हैं, किन्तु कोई भी उपन्यासकार अपने पात्रों की विशिष्टताओं से सामान्य नतीजे निकालने की उस क्षमता के बिना रचना नहीं कर सका है, जो कि जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण से पैदा होती है।” (वही, पृष्ठ-62)
उपन्यास और लोक जीवन के नए संस्करण की भूमिका में सुरेश सलिल ने चेखव के मत को उद्धृत किया है। चेखव संसार के महानतम कहानीकार हैं लेकिन उन्होंने एक भी उपन्यास नहीं लिखा। चेखव के प्रशंसकों के मन में जिज्ञासा थी कि ऐसा क्यों हुआ अपने एक मित्र को पत्र लिखते हुए उन्होंने इसका जवाब दिया। उन्होंने लिखा “चिकित्सा-कर्म जैसे एक भिन्न क्षेत्र में अपना अधिकांश समय देने के कारण मैं अपना कोई समग्र जीवन-दर्शन विकसित नहीं कर पाया। एक सुस्पष्ट जीवन-दर्शन के बिना कहानियाँ ही लिखी जा सकती हैं, उपन्यास नहीं।” (वही, पृष्ठ-6) इस तरह हम कह सकते हैं कि उपन्यासकार के लिए सुसंगत जीवन दृष्टि कितनी अनिवार्य है।
हालाँकि फॉक्स अंततः इस निष्कर्ष पर जाकर ठहरते हैं कि आज के युग में ऐसी दृष्टि मार्क्सवाद ही है। इस बिन्दु पर किसी की सहमति या असहमति हो सकती है, परन्तु यह तो तय है कि जीवन के बारे में चिन्तन किए बिना जीवन की रचना सम्भव नहीं है और जीवन की रचना के बिना महान लेखन सम्भव नहीं है। उन्होंने लिखा- “लेखक का उपदेश झाड़ना नहीं, बल्कि जीवन का एक वास्तविक, ऐतिहासिक चित्र प्रस्तुत करना।”
- फॉक्स की साहित्य-दृष्टि की विशेषताएँ
फॉक्स ने अपने लेखन में मुख्यतः 18वीं और 19वीं शताब्दी के उपन्यासों को केन्द्रीय स्थान दिया। वे 18वीं शताब्दी को उपन्यास का स्वर्ण युग मानते हैं। इस उपन्यास की परम्परा का विकास 19वीं शताब्दी में बाल्जाक, फ्लाबेयर, और टॉलस्टॉय की रचनाओं में होता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने टॉलस्टॉय को गम्भीरता से पढ़ा नहीं था। टॉलस्टॉय के बारे में वे लेनिन के मत को उद्धृत करते हैं। उन्होंने 18वीं में फील्डिंग के उपन्यासों को सबसे अधिक महत्त्व दिया। हालाँकि वे फील्डिंग की रचनाओं में कुछ तकनीकी कमियाँ देखते थे। ऐसा लगता है कि फील्डिंग को उपन्यास लेखन के कुछ नियमों की जानकारी नहीं थी। इसी तरह वे फील्डिंग के दृष्टिकोण की कुछ कमियों को भी रेखांकित करना नहीं भूले थे।
जीवन के यथार्थ के बारे में उनका इनता अधिक आग्रह था कि उन्होंने समाजवादी यथार्थवाद के लेखकों की कठोर आलोचना की वे मानते थे कि उपन्यास का काम ‘इतिवृत लिखना भर नहीं है’। इसी तरह वे मानते हैं कि आधुनिक विज्ञान से मानव चरित्र के बारे में हमारी समझ बहुत विकसित हो चुकी है। विशेष रूप से मानव मन के उपचेतन के बारे में हमें अब गहरी जानकारी मिल चुकी है। लेकिन “इसका यह अर्थ नहीं निकलता कि मनोवैज्ञानिक तथ्यों के इन संकलनों से, अपने आप में, तमाम मानवीय क्रिया-कलापों या मानवीय विचारों और भावनाओं को समझा जा सकता है। फ्रायड, हैवलॉक, एलिस या पावलोक का समूचा कृतित्व भी इस बात की अनुमति नहीं देता कि उपन्यासकार मनोवैज्ञानिक के हाथों में अपना काम सौंप कर संतोष कर ले।” (वही पृष्ठ 115) इसी आधार पर फॉक्स प्राउस्त और जेम्स जॉयस की आलोचना करते हैं। उनका मत है कि ये लोग मानव व्यक्तित्व की रचना नहीं करते वरन् ‘मानव व्यक्तित्व का विघटन’ करते हैं।
सर्वहारा साहित्य पर लगाये गए इन आरोपों से फॉक्स सहमत हो जाते हैं कि “हड़ताल के नेता पूँजीवादी ‘बॉस’, नए विश्वास की खोज करते बुद्धिजीवी और बस : नए लेखक इसके आगे जाने का साहस नहीं करते और इन पात्रों को भी हाड़-माँस से युक्त जीवित आदमियों के रूप में चित्रित करने में बहुत ही कम मात्रा में सफल होते हैं।” (वही पृष्ठ 121-122)
- फॉक्स की साहित्य-दृष्टि की सीमाएँ
फॉक्स की मृत्यु अल्पायु में ही हो गई। इतने कम समय में उन्होंने जो कुछ लिखा, उससे मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि के विकास में काफी मदद मिली। फिर भी उनकी कुछ मान्यताओं से बाद के मार्क्सवादी आलोचकों ने असहमतियाँ ज़ाहिर कीं। उदाहरण के लिए ब्रिटेन में अठारहवीं शताब्दी के उपन्यासों को आलोचनात्मक यथार्थवाद की चरम उपलब्धि मानना और विक्टोरियन काल के उपन्यासों को हीन मानना एवं डिकेंस, थैकरे, गैस्केल, शार्लोट ब्रॉंटे जैसे लेखकों को हीन मानना, जिनके बारे में स्वयं मार्क्स का यह ख्याल था कि उन्होंने दुनिया के राजनीतिक और साहित्यिक सत्यों का कहीं ज़्यादा ईमानदारी से चित्रण किया है। इन सीमाओं के बावजूद उपन्यास और लोकजीवन का महत्त्व अमूल्य है। फॉक्स ने स्पष्ट किया कि किस तरह वर्तमान समय में उपन्यास का पतन वास्तव में उन लेखकों की चेतना के सम्पूर्ण दिवालिएपन का साक्ष्य देता है, जो अपने भाग्य को पतनशील बुर्जुआ वर्ग के प्रतिक्रियावाद के साथ जोड़ चुके हैं। उन्होंने सम्राज्यवादी दौर में पतनशील बुर्जुआ संस्कृति के ऐतिहासिक मूल की शिनाख़्त करने का ईमानदार प्रयास किया । साथ ही साथ अपने दौर की कला को साम्राज्यवादी और बुर्जुआ पतनशील प्रवृत्तियों से उबरने का रास्ता भी सुझाया। राल्फ फॉक्स उन आलोचकों में से थे जिन्होंने ब्रिटेन में मार्क्सवादी दृष्टि से रचनात्मकता के नए आयामों को पहचानने और तलाशने का तथा समाजवाद और समाजवादी संस्कृति के पक्ष में सृजनात्मक उपकरणों को जुटाने का काम पूर्ण प्रतिबद्धता और समर्पण के साथ किया था।
- निष्कर्ष
राल्फ फॉक्स ने अपने लेखन में समाज और साहित्य के अन्तः सम्बन्धों को प्रकाशित किया। परन्तु उनके लेखन में निहित यांत्रिकता की आलोचना परवर्ती काल में हुई। स्वयं नव मार्क्सवादी आलोचना ने उन्हें गम्भीरता से लेना बन्द कर दिया। राल्फ फॉक्स में अपने विचारों के प्रति आग्रह था। उनका एक पक्ष था जिसे वे सही समझ रहे थे। परन्तु आगे चलकर इतिहास की गति उनके बताए हुए रास्ते पर नहीं चली। मार्क्सवाद को भले ही उनसे मदद मिली हो, परन्तु आज के पाठक को उनका सरलीकरण ज्यादा रूचिकर नहीं लगता। आज का साहित्य-चिन्तन ज्यादा अधिक जटिल और मर्मस्पर्शी है। इनकी तुलना में फॉक्स का लेखन प्रारम्भिक ही माना जाएगा। हालाँकि इस प्रवृत्ति के विकास में उनका नाम कॉडवेल के साथ लिया जाता है। उनके लेखन की ख्याति का एक कारण उनका राजनीतिक जीवन भी है, जहाँ उन्होंने अपने मूल्यों के समर्थन में अपने प्राण त्याग दिए।
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अतिरिक्त जानें
बीज शब्द
- जनवाद :सत्ता का एक रूप जो अल्पसंख्या के बहुसंख्या से अधिक होने के सिद्धान्त की आधिकारिक घोषणा करता है और नागरिकों की समानता तथा स्वाधीनता को स्वीकार करता है। इसे जनतंत्र, लोकतंत्र और गणतंत्र के नाम से भी जाना जाता है।
- पूँजीवाद : समाजवाद तथा कम्युनिज्म से पहले की आर्थिक-सामाजिक संरचना जिसमें पूँजी का वर्चस्व रहता है।
पुस्तकें
- उपन्यास और लोक जीवन , राल्फ फॉक्स, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली।
- उपन्यास का उदय, आयन वॉट, हरियाणा हिन्दी ग्रंथ अकादमी, चंडीगढ़।
- उपन्यास और लोकतंत्र, मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
- मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तन : इतिहास तथा सिद्धान्त, शिवकुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
- Communism and changing civilization, Ralph Fox, Kitabistan, Allahabad.
- Theory of Novel, George Lukacs, Merlin Press, London.
- The Novel After Theory, Judith Ryan, Columbia University Press, New York.
- The Art of Novel, Milan Kundera, (Translation : Linda Asher), Faber, London.
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