36 फ्रेडरिक जेमसन की साहित्य-दृष्टि

विनोद शाही

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • फ्रेडरिक जेमसन की साहित्यिक अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
  • संरचनावाद और रूसी रूपवाद के आपसी रिश्‍ते समझ सकेंगे।
  • आख्यान और इतिहास के द्वन्द्वात्मक रिश्तों से परि‍चि‍त हो सकेंगे।
  • तीसरी दुनिया के देशों के आख्यान पर फ्रेडरिक जेमसन के विचार जान सकेंगे।
  • फ्रेडरिक जेमसन ने अस्तित्वाद से नव मार्क्सवाद की ओर किस तरह प्रस्थान किया, यह भी जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   फ्रेडरिक जेमसन फ्रैंकफर्ट स्कूल के नव-वाम (न्यू लेफ्ट) चिन्तन धारा के महानतम साहित्यलोचकों में से एक हैं। उनका नाम टेरी ईगल्टन तथा मिखाइल बाख्तिन के साथ लिया जाता है। तीसरी दुनिया से सम्बद्ध साहित्य पर फ्रेडरिक जेमसन ने कई महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त दिए हैं। शायद इसीलिए तीसरी दुनिया के कई महत्त्वपूर्ण आलोचक भी अपनी स्थापनाओं के लिए फ्रेडरिक जेमसन के लेखन की मदद लेते हैं। ऐसे आलोचकों में भारत के गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक और नामवर सिंह, पाकिस्तान के एज़ाज अहमद प्रमुख हैं। तीसरी दुनिया के इन आलोचकों ने फ्रेडरिक जेमसन की कई स्थापनाओं पर एक-दूसरे से संवाद करने की कोशिश की है। फ्रेडरिक जेमसन ने भी अपने उत्तर-काल में तीसरी दुनिया की ओर खास रुख किया तथा तायवान व चीन को आधार बनाते हुए अपने चिन्तन को आगे बढ़ाया। इसलिए वे उत्तर-आधुनिक साहित्यालोचन की महत्त्वपूर्ण शाखा के रूप में उभर रही तृतीय विश्‍ववादी आलोचना का प्रतिनिधित्व करने वाले महत्त्वपूर्ण आलोचक माने जाते हैं।

 

फ्रेडरिक जेमसन के साहित्य-चिन्तन को मुख्यतः उत्तर-आधुनिकता, उत्तर संरचनावाद और नवमार्क्सवाद के क्षेत्रों से जोड़कर देखा जाता है। इस लिहाज से उनकी मान्यताओं के विकास-क्रम को रेखांकित करना चाहें, तो उनके चिन्तन की भूमिका व प्रस्थान भूमि के रूप में उनकी निम्‍नलिखित क्षेत्रों की साहित्य सम्बन्धी आलोचना को देखा जा सकता है।

  1. वाद से नवमार्क्सवाद की ओर प्रस्थान

   फ्रेडरिक जेमसन ने अपना आरम्भिक शोधकार्य महान अस्तित्‍ववादी दार्शनिक व साहित्यकार सार्त्र पर किया। शोधकार्य में उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की कि सार्त्र के अस्तित्‍ववादी साहित्य का अध्ययन द्वन्द्वात्मक मार्क्सवादी आलोचना-दृष्टि का इस्तेमाल करते हुए भी किया जा सकता है। चिन्तन के क्षेत्र में यह एक महत्त्वपूर्ण काम माना जाता है, क्योंकि अस्तित्‍ववाद और मार्क्सवाद चिन्तन के क्षेत्र की दो विपरीत धाराएँ मानी गई हैं।

  1. संरचनावाद और रूसी रूपवाद से प्रस्थान

    आधुनिक भाषाविज्ञान की मान्यताओं पर आधारित संरचनावाद और रूसी रूपवाद का अध्ययन करते हुए फ्रेडरिक जेमसन इस नतीजे पर पहुँचे कि ‘विशुद्ध भाषा वैज्ञानिक विमर्श’ ‘भाषा के कारागार’ खड़ा करने का कारण होता है। यानी भाषा की चौहद्दी में घिरकर साहित्य अपना महत्त्व खोने लगता है। उसकी पहुँच सीमित होती जाती है। दूसरी ओर साहित्य, भाषा की इस कारा को तोड़कर, समाज का प्रतीक-रूप विकल्प हो सकता है।

  1. फ्रेडरिक जेमसन की साहित्य-दृष्टि

   फ्रेडरिक जेमसन फ्रैंकफर्ट स्कूल के अन्य नव-वाम चिन्तकों की उस कतार में खड़े नजर आते हैं, जिन्होंने मार्क्सवादी सिद्धान्त का इस्तेमाल लचीले, रचनात्मक व मौलिक तरीकों से किया है। यही कारण है कि नवमार्क्सवादियों को परम्परागत मार्क्सवादियों की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ता है। नवमार्क्सवादी आलोचक उस चिन्तनधारा के विरोध में भी खड़े नजर आते हैं, जिन्हें विशुद्ध उत्तर-आधुनिक विमर्शकारों का खेमा समझा जाता है। फ्रेडरिक जेमसन के अलावा अडोर्नो, वाल्टर बेंजामिन, रेमण्ड विलियम्स को समझे बिना, उत्तर-आधुनिक चिन्तन को समझना कठिन हो जाता है। अतः सुविधा के लिए यहाँ फ्रेडरिक जेमसन की साहित्य-दृष्टि को उत्तर-आधुनिक साहित्य-दृष्टि के रूप में ही देखेंगे। इसका स्पष्ट कारण यह है कि उत्तर-आधुनिकता किसी एक विचार-सम्प्रदाय की ही सम्पत्ति या विरासत न होकर, पूरे विश्‍व की संस्कृति और सामाजिक इतिहास के लिए विचारणीय वस्तु हो गई है।

 

उत्तर-आधुनिकता मूलतः दो तरह से व्याख्यायित-पारिभाषित होती है–बहुलतावादी अथवा विखण्डनवादी उत्तर-आधुनिकता और आलोचनात्मक उत्तर-आधुनिकता।

 

फ्रेडरिक जेमसन तथा फ्रैंकफर्ट स्कूल के उनके अन्य नवमार्क्सवादी विमर्शकारों को ‘उत्तर-आधुनिकता के आलोचनात्मक रूप’ के व्याख्याकार के रूप में देखा जा सकता है। उत्तर-आधुनिकता के प्रति फ्रेडरिक जेमसन की आलोचनात्मक मार्क्सवादी दृष्टि है, जो उनकी साहित्य-दृष्टि के रूप में हमारे सामने आती है। अतः पहले उनकी उत्तर-आधुनिकता की आलोचना की साहित्य-दृष्टि को समझने का प्रयास किया जाए।

 

फ्रेडरिक जेमसन ने आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता की युगबोधक धारणा की व्याख्या करने की कोशिश की है। इनके अनेक उत्तर व अनेक व्याख्याएँ अलग-अलग रूपों में विकसित हो गई हैं।

 

फ्रेडरिक जेमसन ने आधुनिकता को पूँजीवादी सांस्कृतिक तर्क का उत्पाद या गठन माना है। इसी तर्ज पर वे उत्तर-आधुनिकता को ‘विलम्बित पूँजीवाद’ का ‘सांस्कृतिक तर्क’ मानते हैं।

 

अधिकांश पश्‍च‍िमी विचारकों के अनुसार आधुनिकता का प्रारम्भ 17वीं शताब्दी में हो जाता है जो सन्1960 तक चलता है। इसके बाद उत्तर-आधुनिकता का दौर प्रारम्भ होता है। जेमसन ने उत्तर-आधुनिकता को समझने के लिए इस दौर की उत्पादन पद्धति पर विचार किया है। उनके अनुसार सन् 1950-1960 के बाद उत्पादन पद्धति में तीन बड़े परिवर्तन हुए–

  1. इस दौरान बड़ी मात्रा में बहुराष्ट्रीय निगमों का विस्तार हुआ। इस विस्तार में कई राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएँ जुड़ गयी।
  2. दूसरे अब यह पूरी तरह से स्थापित हो गया कि यूरोपीय ढ़ंग का उपनिवेशवाद अब नहीं चल सकता। अतः इन बहुराष्ट्रीय निगमों ने छोटे-छोटे देशों के धनी वर्ग से आर्थिक रिश्ता बना लिया इस प्रक्रिया में अमेरिका सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा और वह अपने ढ़ंग से इस ‘मुक्त विश्‍व’ को चलने लगा।
  3. बिजली से संचालित मशीनों ने कम्प्यूटर, मास-मीडिया और सूचना-प्रोद्योगिकी के लिए रास्ता बनाया।

   इन परिवर्तनों के कारण एकाधिकार पूँजीवाद विलम्बित पूँजीवाद में बदल गया। आधुनिकता एकाधिकार पूँजीवाद की संस्कृति थी,जबकि उत्तर-आधुनिकता विलम्बित पूँजीवाद का सांस्कृतिक तर्क है। अब यह नयी प्रोद्योगिकी किसी नए उत्पाद के निर्माण के स्थान पर बिम्ब (शब्द, चित्र, ग्राफ) बनाने पर जोर देने लगी जिसमें अधिकाधिक सूचनाएँ इक्कठी हो सकें यह सूचनाएँ उत्पाद से अधिक कीमती हो गयी, जिन्हें बहुराष्ट्रीय निगम नियंत्रित करने लगे।

 

ईराचेरनस(http://spot.colorado.edu/~chernus/NewspaperColumns/LongerEssays/JamesonPostmodernism.htm) ने जेमसन के उत्तर-आधुनिकता सम्बन्धी विचारों को अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। ऐसा माना जाता है कि आधुनिकता एकता में, समग्रता में और पूर्णता में विश्वास करती है जबकि उत्तर-आधुनिकता के अनुसार यह समग्रता कुछ अर्थों में खतरनाक होती है क्योंकि ऐसे में उन सब लोगों पर प्रतिबन्ध लग जायेगा जो अलग तरह से सोचना और जीना चाहते हैं। जिन लोगों ने द्वितीय विश्‍व युद्ध को देखा है वे इस समग्रता में तानाशाही का समर्थन देखते हैं। ऐसे में हम उनके विरुद्ध हो जाते हैं। जो हम सोचते हैं वह सही है और जो हमारी बात पर विश्वाश नहीं करता वह पापी है।

 

साहित्य की दृष्टि से देखें तो आधुनिकता महागाथा का समर्थन करती है, जबकि उत्तर-आधुनिकता महागाथा के विरोध में है।

उत्तर-आधुनिकता के सांस्कृतिक तर्क हैं–

  1. उपभोक्तावाद
  2. बाज़ारवाद
  3. अति-सन्दर्भात्मकता
  4. द्विभाजनमूलक असामान्यता यानी ‘अनुभव संसार का बिखराव’
  5. सन्देहवाद
  6. मिश्र-संस्कृति : उच्‍च व निम्‍न संस्कृति के अन्तर का विलोपन
  7. समय व इतिहास का दुर्बलीकरण

    इन तर्कों के आधार पर उत्तर-आधुनिकता के ‘सांस्कृतिक तर्क’ का अर्थ मिल सकता है। जिन चीजों या प्रक्रियाओं से ‘उत्तर-आधुनिकता का औचित्य’ साबित होता है; उन्हें उस औचित्य का ‘तर्क’ कहा जा सकता है।

 

जेमसन उत्तर-आधुनिकता के प्रति आलोचनात्मक रुख रखते हैं, वे खुद को, अब भी ‘आधुनिकता की विधायक सम्भावनाओं’ के प्रति आश्‍वस्त पाते हैं। ऐसी सम्भावनाएँ, जो उन्हें लगता है कि अभी इतिहास के द्वारा खारिज नहीं हुई हैं। मार्क्सवाद के प्रति उनकी आश्‍वस्ति और रुझान का आधार भी, उनकी ‘आधुनिकता की विधायक सम्भावनाओं में आश्‍वस्ति’ से जुड़ा है।

 

जबकि उत्तर-आधुनिक नजरिए से मार्क्सवाद एक विखण्डनीय वस्तु में बदल चुका है और उससे अब किसी ‘साझे सामूहिक रूपान्तरण’ के प्रकट होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। उत्तर-आधुनिकता ने आधुनिकता के साथ ही मार्क्सवाद को भी सन्देह के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। जेमसन, इसके उलट, आधुनिकता के ‘सांस्कृतिक तर्क’ यानी ‘यूटोपिया’ की बची सम्भावनाओं के सहारे, उसकी सीमित प्रासंगिकता को हमारे रखने का प्रयास करते हैं

 

जेमसन कहते हैं कि दुनिया जिस बहुराष्ट्रीय विश्‍ववाद की बातें कर रही है; वह और कुछ नहीं; ‘विलम्बित पूँजीवाद’ है। जेमसन यह नहीं कहते कि दुनिया उत्तर-पूँजीवाद या वित्तीय पूँजीवाद की दुनिया हो गई है। वे मानते हैं कि यह ‘विलम्बित पूँजीवाद’ ही है। यानी वह, जो पूँजीवाद का सांस्कृतिक तर्क था, वह अब केवल अपने एक विलम्बित रूप में चला आया है, न कि वह उसे विखण्डित करके किसी नई जमीन पर, नया विमर्श-तर्क बनकर उपस्थित हुआ है। यानी, जेमसन के अनुसार, उत्तर-आधुनिकता भी ‘गहरे में आधुनिकता’ का ही एक खास रूप भर है। बस उसने खुद को सही साबित करने के लिए, अपने ‘औचित्य को प्रमाणित’ करने के लिए, एक नए ‘सांस्कृतिक तर्क’ को गढ़ लेने का काम भर किया है। यह नया तर्क एक अलग शक्ल वाला है, परन्तु इसकी जमीन पूँजीवादी आधुनिकता ही है। मूल भूमि वही है–फर्क है तो बस ‘रूपभिन्‍नता’ का। इसलिए जेमसन यह दिखाते हैं कि उत्तर-आधुनिकता, विखण्डन या बहुलतावादी किस्म का कोई नया विमर्श नहीं लाती; वह आधुनिक विमर्शों के ही द्विभाजित-अन्तर्भाजित होने जैसी बात है।

 

वे कहते हैं कि नया युगविमर्श, नई उत्पादन पद्धति से उपजता है। उत्तर-आधुनिकता नई उत्पादन पद्धति से आया है। वह उत्पादों के लिए नया ‘दृष्टिकोण’ व नए हालात यानी एक बाजार लाती है। यह रूप भिन्‍नता है, मूलभूमि का रूपान्‍तरण नहीं है। बात इतनी ही है कि यान्त्रिक पुनरुत्पाद करने वाला पूँजीवाद, अपने विलम्बित दौर में, उच्‍च तकनीकी मीडिया की मदद से एक बहुराष्ट्रीय विश्‍ववादी बाजार बनाने लायक हो गया है। उत्पादन पद्धति व उत्पाद-भूमियों में अन्तर नहीं आया है, बस उनका विश्‍ववादी-बाजारवादी तरीके का व्यापक उपभोक्ताकरण भर हुआ है।

 

यह ‘उपभोक्ताकरण’, उत्तर-आधुनिकता का सांस्कृतिक तर्क, उत्पाद हेतु ही है। माल की खपत के लिए विश्‍ववादी बाजार, तीसरी दुनिया का नव-उपनिवेशीकरण कर रहा है। यह काम उच्‍चतकनीकी मीडिया की मदद से हो रहा है। पर मीडिया का ‘सांस्कृतिक उद्योग’ जिस ‘चेतना का उत्पाद’ करता है; उसकी मूलभूमि उसी पूँजीवादी उत्पादन-पद्धति वाली है और चूँकि बाजार बहुलतावादी है, इसलिए विमर्शों को विखण्डनीय, लचीला और अनिश्‍चयात्मक बना लिया गया है, ताकि नव-उपनिवेशीकरण में निरंकुशता की प्रवृत्तियाँ न आएँ और प्रतिरोध न उठे। इसलिए हर तरह का प्रतिरोध सन्देह, अनिश्‍चय व अनिर्णय के रूप में बहुलतावादी बना दिया गया है, और इसे विचार की आजादी के नाम पर प्रचारित किया जा रहा है।

 

फ्रेडरिक जेमसन को लगता है कि उत्तर-आधुनिकता का यह सांस्कृतिक तर्क, एक तरह का चर्मरोग है। इसे वे ‘स्किजोफ्रेनिया’ नाम देते हैं। इसका रोगी ‘भाषा के रूपों’ को, मूलभूमि से असम्बद्ध करके इस्तेमाल में लाता है। वह जो कहता है, उसका जमीन से रिश्ता नहीं होता। इसी तरह जेमसन मानते हैं कि उत्तर-आधुनिकता जो कहती है, उसका उसकी ‘आधुनिकता वाली मूल भूमि’ से रिश्ता नजर नहीं आता। जमीन खो चुके उत्तर-आधुनिक विमर्श इसीलिए नकारात्मकता का शिकार हो जाते हैं।

 

मानना चाहिए कि जेमसन के अनुसार उत्तर-आधुनिकता अनिश्‍चयात्मक, सन्देहवादी व बहुलतावादी चिन्तन है। इसका कारण उसका अति सन्दर्भमय होना है। वैश्‍व‍िक बाजारवादी बहुलता के रूबरू होने से अति-सन्दर्भमयता उसके लिए एक समस्या हो जाती है। इसका हल उसे अपनी गहराई को खो कर, केवल उथली समसामयिकता से काम चलाने की शक्ल में मिलता है। नई मीडिया संस्कृति में इसे संस्कृति के मिश्र-उत्पाद की तरह लिया जाता है। यहाँ अच्छे-बुरे के बीच फर्क मिट-सा जाता है। इतिहास की गहराई से पल्ला झाड़ लिया जाता है। एक घुडदौड़ की तरह, दुनिया भर की जमीनों, मण्डियों, बाजारों पर कब्जा करने की प्रवृत्ति बलवती हो जाती है–जिसे जेमसन स्थानातिक्रमण की तरह देखते हैं।

 

जेमसन के अनुसार, औद्योगिक दौर के पूँजीवाद की ‘यान्त्रिक पुनरुत्पादन’ पद्धति–

  • ‘कुदरती संसाधन’ को एक ‘पदार्थ-मात्र’ रूप में ढाल लेती है। कुदरत से मनुष्य संवाद कर सकता है, रिश्ता जोड़ सकता है, पर कुदरती वस्तुएँ जब ‘संसाधन’ बनती हैं, तो उनके साथ मनुष्य का रिश्ता ‘पदार्थ-मात्र’ वाला रिश्ता हो जाता है।
  • जो वस्तु ‘पदार्थ-मात्र’ है, उसे पदार्थमूलक उत्पाद में बदल लिया जाता है। इस तरह कुदरत के साथ हमारा रिश्ता, अब केवल उत्पादमूलक हो जाता है, जिसे ‘बाजार-वस्तु’ या बाजार-उत्पाद का रूप दिया जा सकता है।
  • बाजार-उत्पाद, वस्तु की (जो ‘कुदरती तौर पर कीमत’ हो गई है) उस ‘कीमत से युक्त’ होता है, जिसके लिए माँग पैदा की जा सकती है।
  • माँग पैदा कर बाजार-उत्पाद की जो मूल्यवृद्धि की जाती है, वह उत्पाद-पदार्थ पर इसलिए आरोपित हो पाती है, क्योंकि यह ‘आरोपण’ कुछ दूसरी तरह की माँगों की आपूर्ति भी करता है। जैसे – अभाव की आपूर्ति। अभाव ढकने के लिए उत्पाद की कीमत अकल्पनीय हदों तक ले जाई जा सकती है। सांस्कृतिक अचेतन की परितृप्‍त‍ि की जा सकती है, जिससे उत्पाद को प्रतीक बना कर उस तरह की आपूर्ति के लायक बनाया जाता है।
  • आरोपित मूल्य का ‘फेटिशिज्म’, साम्यता-भ्रम के प्रतीक रूपों का वहन करने वाला हो सकता है, जिसमें ‘वस्तु’, ‘ब्राण्ड’ बन जाती है :
  • – या वस्तु सत्ता-रूप का पर्याय हो जाती है
  • – या वस्तु आध्यात्मिक श्रेष्ठता का पर्याय हो जाती है

    ये कुछ अनायास उभर आने वाले उदाहरण मात्र हैं। इनसे अनुमान लगा कर ‘साम्यता-भ्रम’ की प्रक्रिया से होने वाली ‘भ्रामक मूल्यवृद्धि’ के और असंख्य रूप-दृष्टान्‍त बाजारवादी पर्यावरण में अपने चारों ओर सहज ही खोज सकते हैं।

 

फ्रेडरिक जेमसन, इन सभी तरह की ‘अवास्तविक व पतनशील’ उत्तर-आधुनिक प्रक्रियाओं को विश्‍लेषित करते हुए इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि इस गहनता-विहीन स्‍थि‍ति‍यों से मूल्यवृद्धि हो सकती है, पर उसी कारण मनुष्य की प्राकृतिक और सांस्कृतिक गहराई खो जाती है।

  1. फ्रेडरिक जेमसन की साहित्य सम्बन्धी मुख्य अवधारणाएँ

    फ्रेडरिक जेमसन उत्तर-आधुनिक को आधुनिकता का ही ‘विलम्बित रूप मानते हैं, उत्तररूप नहीं। अर्थात वे उत्तर-आधुनिकता की जमीन की तलाश में पुनः आधुनिकता के कुछ बचे रह गए सकारात्मक पहलुओं व सम्भावनाओं को तलाशते हैं। इसीलिए फ्रेडरिक जेमसन की साहित्य-दृष्टि, साहित्य में इतिहास के खो जाने की स्थिति से नहीं, साहित्य में इतिहास को पुनः खोज लेने की सम्भावना के साथ विकासित होती है।

 

चेरनस के अनुसार उत्तर-आधुनिकता में अर्थ का लोप हो गया है। यहाँ तक कि विषय का भी लोप हो गया है। यथार्थ के चित्रण को लेकर जेमसन का कहना है कि आधुनिकता में यथार्थ का शाब्दिक अर्थ में यथावत प्रस्तुतीकरण होता है जबकि उत्तर-आधुनिकता द्वारा लाये गए यह चिन्ह अपने से बाहर किसी भी यथार्थ का प्रतिनिधित्व नहीं करते। हालाँकि इन चिन्हों का निर्माण अत्यन्त प्रतिभाशाली लोगों द्वारा किया जाता है। उदाहरण के लिए किसी भी बहुराष्ट्रीय निगम के लोगो (logo) को लिया जा सकता है। जब कोई व्यक्ति कोई उत्पाद खरीदता है तो वह इस लोगो (logo) को देखता है न कि उस उत्पाद की उपयोगिता या गुणवत्ता को।

 

यहाँ तक कि किसी उत्तर-आधुनिक उत्पाद में आयी हुई सामग्री का भी आपस में कोई सम्बन्ध नहीं होता उदाहरण के लिए किसी पत्रिका में किसे राजनेता का व्यक्तित्व, युद्ध की खबरें बेघर व्यक्ति की पीड़ा और धनी वर्ग के शौक पर एक साथ सामग्री आ सकती है। या टेलीविज़न में युद्ध के दृश्य के बीच बीयर का विज्ञापन आ सकता है। जिसके एक साथ रहने का कोई तर्क नहीं है। उनके अनुसार विज्ञापन तो पूरी तरह से उत्तर-आधुनिक है विज्ञापन में अन्त तक यह पता नहीं चलता कि किन चीजों को विज्ञापित किया जाना है।

 

उत्तर-आधुनिकता में प्रत्येक सांस्कृतिक उत्पाद मात्र उत्पाद है जिसे बाजार में खरीदा और बेचा जाता है। बाजार वह जगह है जहाँ चीजें खरीदी और बेची जाती हैं। बहुराष्ट्रीय निगमों ने सारे संसार को एक बाजार बना दिया है। यहाँ पर महान लेखक भी तब तक महान हैं जब तक वे बिकते हैं।  गाँव का एक गरीब व्यक्ति रेडियो खरीदता है। रेडियो में वह समाचार और गानों के साथ विज्ञापन सुनता है। फिर वह दुबारा शहर जाता है और उसी विज्ञापित वस्तु को खरीद कर लाता है। इस तरह वह भी उत्तर-आधुनिक बाजार में शामिल हो जाता है।

  1. तीसरी दुनिया के देशों के आख्यान सम्बन्धी स्थापनाएँ

    जेमसन का मानना है कि तीसरी दुनिया के देशों के ‘टेक्स्ट’ को उसी तरह नहीं पढ़ा जाना चाहिए जिस तरह विकसित देशों के ‘टेक्स्ट’ को पढ़ा जाता है। जेमसन के अनुसार तीसरी दुनिया के देशों के ‘टेक्स्ट’ को ‘नेशनल एलिगरी’ या राष्ट्रीय रूपक के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने चीन के प्रसिद्ध लेखक लू-शुन की चर्चित कहानी एक पागल की डायरी की व्याख्या की है। जेमसन का मानना है कि एक पागल की डायरी उस समय के चीन का राष्ट्रीय रूपक है।

  1. सीमाएँ

    फ्रेडरिक जेमसन द्वारा ‘नवमार्क्सवादी सिद्धान्त’ का, साहित्य-संस्कृति के रचना-सिद्धान्त की तरह, ‘द्वन्द्वात्मक रचनाशीलता’ की व्याख्या की गई है। यह व्याख्या ऐसे उत्तर-आधुनिक दौर में आई हैं, जब ‘सिद्धान्त’ अपने आप में विखण्डनीय वस्तु हो गया है। इसलिए उत्तर-आधुनिक आलोचक फ्रेडरिक जेमसन को ‘सिद्धान्तवादी-समग्रतावादी’ कह कर कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करते हैं। इसी तरह मार्क्सवादियों को लगता है कि जेमसन समाजैतिहासिक ‘आधार’ से ‘बहुत दूर’ चले गए हैं।

  1. निष्कर्ष

    जेमसन के अनुसार–

  • साहित्यालोचन में जिसे ‘शैली’ कहा जाता है, उसे अस्तित्‍ववादी व्याख्या के आधार पर वैयक्तिक अभिव्यक्ति न मान कर; ‘समाजेतिहास के रूपों की अभिव्यक्ति’ की तरह व्याख्यायित करना चाहिए।
  • साहित्य-संस्कृति के अभिव्यक्ति रूपों में, समाजेतिहास प्रतीक-रूप में मौजूद रहता है, तथापि इस ‘प्रतीक’ के अन्तर्गठन में उसका एक ‘अपना समाजेतिहास भी होता है।’
  • साहित्यालोचन में पाठ की भूमिका केन्द्रीय होती है, परन्तु जेमसन ‘पाठवादी आलोचक’ नहीं हैं। वे ‘पाठ’ का अध्ययन नवमार्क्सवादी सिद्धान्त के रूप में निम्‍नलिखित तरीके से करते हैं–
  • पाठ में भाषा की अन्तर्गठनात्मक असंगतियों का अध्ययन, इन असंगतियों को प्रतीक मानना और प्रतीक की अन्तर्वस्तु के रूप में समाजेतिहास के अन्तर्विरोधों को देखने की कोशिश।
  • ‘आख्यान’ को ‘व्याख्या-आधार’ मानना चाहिए, ‘व्याख्या’ करते हुए उसे ‘इतिहास के प्रतीक’ की तरह देखना चाहिए और आख्यान के तनाव व उनके समन्वायों को, इतिहास के अन्तर्विरोधों से जोड़कर समझने की कोशिश करनी चाहिए।
  • आख्यान व महाख्यान का रिश्ता यह है कि मार्क्सवादी यूटोपिया या सामाजिक रूपान्‍तर के अन्य महाख्यान, हर ‘आख्यान’ की ‘व्याख्यात्मक धारणाभूमि’ में मौजूद रहते हैं।
  • ‘इतिहास’ ही साहित्य की ‘व्याख्या’ के लिए उपलब्ध ‘एकमात्र स्थाई आधारवस्तु’ है।
  • साहित्य ‘सौन्दर्यशास्‍त्रीय उत्पादन-पद्धति’ का ऐसा उत्पाद है, जो शेष उत्पादों से कहीं अधिक व्यापक व गहन है।
you can view video on फ्रेडरिक जेमसन की साहित्य-दृष्टि

 

अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  1. यूटोपिया : एक काल्पनिक समाज, जो मनमाने ढंग से रचित सामाजिक आदर्श है।
  2. तीसरी दुनिया : दुनिया के वे देश जो भौतिक रूप से अभी विकसित नहीं हो सके हैं।

    पुस्तकें

  1. Brecht and method, Fredric Jameson, Verso, London, New York.
  2. The Ideologies of theory,  Fredric Jameson, Verso, London, New York.
  3. The Modernist Papers, Fredric Jameson, Verso, London, New York.
  4. The Political Unconsciousness : narrative as socially Symbolic act, Fredric Jameson, Cornell University Press.
  5. Fredric Jameson : A Critical reader, Palgrave Macmillan.
  6. Postmodernism or The Cultural Logic of Late capitalism, Fredric Jameson, Duke University Press.

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