29 जॉक देरिदा की साहित्य दृष्टि

विनोद शाही

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप

  • जॉक देरिदा के लेखन से परिचित हो सकेंगे।
  • साहित्य के बारे में जॉक देरिदा के विचारों की जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • देरिदा से सम्बन्धित विवादों के बारे में जान सकेंगे।
  • आलोचना के क्षेत्र में उनकी साहित्य दृष्टि का क्या असर रहा और आने वाले समय की आलोचना को इस दृष्टि ने कैसे प्रभावित किया यह भी हम जानेगें।
  • विखण्डन की प्रक्रिया किस तरह साहित्य में लागू होती है इसकी जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

    जॉक देरिदा (1930-2004) एक फ्रांसीसी दार्शनिक थे जिनका जन्म फ़्रांस के अल्जीरिया फ्लोरिडा क्षेत्र में हुआ। एक दार्शनिक के रूप में उनका महत्त्व फ्रांस में ‘हीडेगर’ और ‘मिशेल फूको’ के बराबर माना जाता है। प्रो. सुधीश पचौरी के अनुसार देरिदा ने ‘लेखन’, ‘पठन’ एवं ‘पाठ’ की महिमा को बहाल किया और अपने विखण्डन के जरिए पाठ को पढ़ने की नई जनतान्त्रिक रणनीतियाँ बताईं। उनका मुख्य योगदान : भाषा की अर्थमीमांसा, विखण्डनवाद, उत्तर आधुनिक एवं उत्तर-संरचनावादी चिन्तक के क्षेत्रों में माना जाता है। देरिदा की प्रमुख कृतियाँ हैं– स्पीच एण्ड फेनॉमेना, ऑफ ग्रामाटोलोजी और राइटिंग एण्ड डिफरेंस

 

जॉक देरिदा मूलतः साहित्यलोचक नहीं थे। उन्हें एक दार्शनिक कहा जा सकता है। तनिक और स्पष्टता से कहना हो तो देरिदा को ‘भाषा-दार्शनिक’ का नाम भी दिया जा सकता है। चूँकि मानव-समाजों के द्वारा भाषा का प्रयोग हर ज्ञानानुशासन तथा हर तरह के बोधगम्य सम्प्रेषण के लिए अनिवार्य है, अतः उनकी मान्यताओं ने ज्ञानानुशासनों के अधिकांश चिन्तन-क्षेत्रों को प्रभावित किया है। उनके इस प्रभाव को साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में अधिक गहराई से अंकित देखा जा सकता है। साहित्य-चिन्तन व आलोचना भी अन्ततः साहित्य-पाठों की भाषागत अर्थ-मीमांसा है। इस दृष्टि से देरिदा को अर्थ-मीमांसा का दार्शनिक कहना और भी समीचीन लगता है। तथापि यह बात यहाँ और देरिदा के समस्त अध्ययनों के सम्बन्ध में ख़ास तौर पर ध्यान में रखनी जरूरी है कि देरिदा साहित्य-चिन्तन के लिहाज से जितने महत्त्वपूर्ण हैं, उतने ही वे संस्कृति, राजनीति, समाजशास्‍त्र, अर्थशास्‍त्र, भाषाविज्ञान और यहाँ तक कि विविध विज्ञानों के सन्दर्भ में भी अपनी चिन्तन-पद्धति का प्रभाव छोड़ने वाले दार्शनिक हैं।

  1. विखण्डन

    स्पष्ट किया जा चुका है कि देरिदा का चिन्तन, मूलतः भाषा की अर्थ-मीमांसा से ताल्लुक रखता है। उनकी अर्थमीमांसा मुख्यतः दार्शनिक चिन्तन की पद्धति की तरह हमारे सामने आती है। आधुनिक भाषाविज्ञान के जनक फर्डीनेंड द सस्यूर को माना जाता है। देरिदा उनसे प्रभावित हैं, परन्तु वे सस्यूर की धारणाओं का इस्तेमाल दर्शन की व्यवस्था के रूप में करते हैं।

 

आधुनिक भाषा विज्ञान का उत्तर आधुनिक दार्शनिकों के द्वारा जो विकास किया गया, उससे अर्थमीमांसा (हरमेन्युटिक्स) का भी एक नया उत्तर-संरचनावादी रूप सामने आया। उत्तर-संरचनावादियों अर्थ-मीमांसकों के दो समूह खास तौर पर प्रभावी हुए हैं। एक वह जिसका प्रतिनिधित्व देरिदा करते हैं और दूसरा वह जो अमेरिका में मुख्यतः रिचर्ड रोर्टी के नेतृत्व में विकसित हुआ। देरिदा का अमेरिका-प्रवास के दौरान जो काम सामने आया, उसमें वे रिचर्ड रोर्टी से एक तरह का द्वन्द्वात्मक व पूरक रिश्ता बनाते नज़र आते हैं। फिर भी दोनों में चिन्तन-पद्धतियों में कुछ मूलभूत भिन्‍नताएँ हैं।

 

देरिदा का विखण्डनवाद मूलतः अनिश्‍चयात्मक है। जबकि प्रज्ञामूलक अर्थमीमांसा मूलतः सन्दर्भ धर्मी उपयोगिता (कन्टेक्सचुअल यूटिलिटी) की ओर ले जाने का माध्यम है। इस लिहाज से ये दोनों पूरक हैं कि बिना अर्थमीमांसीय विखण्डन के प्रज्ञामूलक अर्थमीमान्सा सम्भव ही नहीं है। इस पूरक अनिवार्यता पर निगाह डालें, तो ही हम समझ सकते हैं कि क्यों देरिदा का विखण्डनवाद, हमारे समय की तमाम उत्तर आधुनिक व उत्तर-संरचनावादी साहित्य-दृष्टियों के लिए एक प्रस्थान-भूमि की तरह का काम करता है?

 

अर्थमीमांसीय विखण्डन साहित्य से जुड़े भाषा-पाठों के सन्दर्भ में ज्यादा उपयोगी मालूम पड़ता है। दरअसल अर्थमीमांसीय विखण्डन ‘भाषा-मात्र’ का नहीं, भाषा-पाठ का होता है। एक ‘पाठ’ के रूप में, साहित्य सर्वाधिक आत्मगर्भ पाठ होता है, इसलिए सभी तरह की भाषागत अर्थमीमांसाएँ मुख्यतः साहित्य के पाठों में रूचि लेने लगती हैं। भाषा-पाठों के विखण्डन का रास्ता खुल जाने से जिस ज्ञान-सृजन के क्षेत्र पर सबसे ज्यादा खतरा मण्डराया है– वह साहित्य है।

 

विखण्डन साहित्य को भी अन्य सभी ज्ञानानुशासनों जैसा ही एक भाषा-पाठ मानता है। इससे साहित्य का सृजनधर्मी वैशिष्ट्य नष्ट हो जाता है। शायद इसलिए इस संकट दरपेश होते ही ‘साहित्य के अन्त’ की बात (जिसे रोलाँ बार्थ ने उठाया था) ज़्यादा मुखर-संकट की तरह चर्चा के केन्द्र में आ गई। तब साहित्य को बचाने के लिए यह भी कहा गया कि विखण्डन साहित्य-दृष्टि के रूप में ग्राह्य ही नहीं है। इसलिए भी विखण्डन के साहित्य-दृष्टि के रूप में विकास की बात और गहराई पकड़ने लगी।

 

देरिदा ने स्पष्ट किया कि साहित्य में हमें ऐसे पाठ मिलते हैं, जो भाषा के नए पाठों के सृजन के लिए, भाषा के व्युत्पत्ति-मूलक स्रोतों तक ले जाते है- इसलिए विखण्डन को एक जरुरी साहित्य-विश्‍लेषण की पद्धति की तरह ग्रहण किया जा सकता है।

 

साहित्य के भाषा-पाठों के व्युत्पत्तिमूलक, मिथकीय, लोकधर्मी तथा गहन-सामाजिक आयामों की मौजूदगी को देखते हुए, साहित्य के लिए विखण्डन का एक आलोचना दृष्टि की तरह इस्तेमाल, ज़्यादा उपयोगी निष्कर्षों तक ले जा सकता है।

  1. विवाद-दर-विवाद

   क्या देरिदा की इतिहास-दृष्टि का सम्बन्ध इतिहास से है?

देरिदा की इतिहास-दृष्टि के स्वरुप को समझने से पहले, जहाँ इससे पूर्व हमने उसके महत्त्वपूर्ण होने के कारणों पर एक नजर डाली; वहीं पहले एक और सवाल भी अपने सामने रखने की जरुरत को देखेंगे। दरअसल हुआ यह कि विखण्डनवाद नें बड़े विवाद खड़े कर दिए।

 

विखण्डनवाद ने सबसे पहले संरचनावाद के आधार पर चोट की। देरिदा अपने प्रसिद्ध आलेख : स्ट्रक्चर, साईन एण्ड प्ले में परम्परागत दर्शनों के ‘मुख्य अन्तर्विरोध’ वाली धारणा को खण्डित करते हैं और उसकी जगह ‘अन्तर्विरोधों के सिलसिले’ को ले आते हैं। इसे वे ‘प्ले’ यानी एक ‘खेल’ कहते हैं। इसके बाद ‘संरचनावाद के अन्त’ और ‘उत्तर-संरचनावाद’ के विकास की सम्भावनाएँ खुलने लगती हैं।

 

फिर देरिदा इतिहास की स्वीकृत संरचनाओं पर भी, इसी आधार पर चोट करते हैं। इतना ही नहीं, वे दार्शनिक तल पर ईश्‍वर, प्रकृति व मनुष्य के केन्द्रीय होने की बात का भी खण्डन करते हैं, जो विखण्डनवाद से प्रेरित होकर नारे, दूसरे विद्वानों के द्वारा प्रचलित हो गए।

 

उदाहरण के लिए, पीछे उल्लेखित ‘साहित्य का अन्त’ ऐसे ही ‘इतिहास का अन्त’ (फूकूयामा) तथा ‘ईश्‍वर का अन्त’ (नीत्शे) भी प्रचलित हुए। देरिदा से जुड़ गया– ‘मनुष्य का अन्त’ हालाँकि देरिदा ने परवर्ती किताबों में इस तरह के सरलीकरणों का भी विरोध और खण्डन किया है। यहाँ तक कि देरिदा ने एक जगह खुद को (एक उद्धरण में) ‘एक इतिहासकार’(अ हिस्टोरियन) कह डाला।

 

यूरोप में 1960 के आसपास ‘पश्‍च‍िमी संस्कृति’ की पतनशीलता की बात नुमायाँ हो रही थी। देरिदा इस पतनशीलता के आधरों तक गए। उन विचारों के स्रोतों तक गए, जो इस पतनशीलता को जन्म देते थे और यथास्थिति बनाए रखना चाहते थे। इस लिहाज से देखें तो समझ सकेंगे की देरिदा का विखण्डन, दरअसल पतनशील होती पश्‍च‍िमी संस्कृति के प्रभुत्व का विखण्डन है।

  1. देरिदा की साहित्य-दृष्टि का स्वरुप

   देरिदा के अनुसार साहित्य भाषा-पाठों का समुच्‍चय है जो विखण्डनीय है। ‘भाषा-पाठ के बाहर कुछ नहीं होता’। देरिदा के सबसे ज्यादा चर्चित व उद्धृतकथनों में से यह कथन एक है कि ‘भाषा पाठ के बाहर कुछ नहीं होता। ’ देरिदा मूलतः एक दार्शनिक थे अतः उनके इस कथन को भी दर्शन के आधार पर ही समझना चाहिए। वे यहाँ एक प्रसिद्ध विद्वान ‘हसरेल’ के सन्दर्भ में विश्‍लेषण करते हुए ऐसा कहते हैं। हसरेल की मान्यता थी कि मनुष्य का ‘अनुभूत यथार्थ’ ही उसका समूचा संसार है। जो हमारी अनुभूति में नहीं आता, उसे यथार्थ के रूप में हम कैसे जान सकते है? देरिदा इस बात को आगे बढाते हैं। वे ‘विटगेंस्टीन’ से इस बात को लेते हैं कि मनुष्य का चित्त ‘भाषा में संरचित’ होता है। इससे वे इस नतीजे पर पहुंचे कि हमारे पास जानने के लिए ‘सिवाय भाषा-पाठों’ के कोई और ठोस जमीन नहीं होती।

 

यह व्यवस्था ‘अनुभूत शास्‍त्र’ (फिनोमिनालॉजी) से ली गई है। इसका मतलब यह नहीं है कि ‘वास्तविक यथार्थ’ भाषा-पाठों के ‘बाहर’ या ‘परे’ होता ही नहीं। वह होता है, परन्तु हमारे सम्बन्ध उतने यथार्थ से हैं, जिसे हम अनुभव करके भाषा-पाठों के जरिये जान व समझ सकते हैं।

साहित्य को देरिदा भाषा-पाठ का ही एक रूप जानते हैं। इससे साहित्य की सृजनशीलता की व्याख्या नहीं की जा सकती है। देरिदा की साहित्य दृष्टि की यह खासियत भी है और एक सीमा भी कि वे भाषा पाठ पर जोर दे कर, सृजनशील होने की बात की व्याख्या को एक नयी शक्ल दे देते हैं। देरिदा की निगाह में, हर नया भाषा-पाठ, एक तरह से साहित्य जैसे ही है या कहें कि साहित्य भी अन्य सभी भाषा-पाठों जैसा ही होता है, फिर भी एक फर्क है। साहित्य के भाषा-पाठ भाषा के स्रोतों में अधिक जाते हैं, इसलिए वहाँ अर्थों की बहुलता, बाकी भाषा-पाठों के मुकाबले, ज्यादा होती है। सम्भवतः देरिदा की सृजनशीलता की व्याख्या, साहित्य की सृजनशीलता को इससे ज्यादा अहमियत नहीं दी।

 

देरिदा की निगाह में साहित्य, भाषा-पाठों के ‘भीतर’, सबसे ज्यादा ‘सक्रिय बहुलता’ वाला होता है। इसलिए साहित्य के लिए उनकी विखण्डन की प्रकृति का बहुत ज़्यादा उपयोग भी हो सकता है।

 

देरिदा के उपर्युक्त मशहूर कथन को इससे जोड़कर पढ़ें, तो क्या इस व्याख्या से हम इस नतीजे पर नहीं पहुँचते कि ‘साहित्य के भाषा पाठ के बाहर कुछ नहीं; क्योंकि साहित्य के भाषा पाठ हमें भाषा की व्युत्पत्तियों से लेकर सम-समय की जटिलताओं तक के अनुभव संसार में ले जाते हैं?’

 

हालाँकि देरिदा अपने विखण्डन के लिए ‘ईश्‍वर, प्रकृति और मनुष्य’ की परम्परागत स्वीकृत धारणाओं के विखण्डन की केन्द्रीय जरुरत तक पहुँच गए थे– अपने दार्शनिक विवेचनों में ही सही। लेकिन साहित्य के भाषा पाठ हमारे सामने सबसे ज्यादा ‘जटिल अनुभव-संसार’ को रखते या खोलते हैं, इसलिए इस केन्द्रीय विखण्डन-भूमि का सबसे ज्यादा उपयोग, साहित्यलोचन में हुआ। इसे हम उनकी साहित्य-दृष्टि की दूसरी सबसे बड़ी खासियत या मौलिकता की तरह देख सकते हैं। उनकी इस धारणा को समझने के लिए उनका एक कथन बेहद उपयोगी हो सकता है कि ‘भाषा में अर्थ भाषा-पाठों के भीतर ही होते हैं’। यानी ‘पाठ’ में भाषा का जो संयोजित रूप होता है, वह भाषा के शब्दों के अर्थों का निर्धारण करता है। आप किसी भी शब्द का अर्थ पहले से तयशुदा रूप में ग्रहण करके, भाषा पाठ के ‘भीतर के अर्थ’ कभी नहीं समझ सकते। जैसे ईश्‍वर का जो अर्थ विविध धर्मों या संस्कृति के द्वारा ‘तय किया गया’ है, जरूरी नहीं कि भाषा पाठ के भीतर ईश्‍वर ठीक उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ हो। यही स्थिति ‘प्रवृति’ व ‘मनुष्य’ के शब्दों के प्रयोग की भी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि देरिदा के मुताबिक़ ये शब्द अति-परिभाषित हो-हो कर भी, अन्ततः अपरिभाषित हैं। इन शब्दों का ‘अपना कोई अर्थ नहीं है’। इन्हें अर्थ देते हैं– भाषा पाठ।

 

यहाँ साहित्य की भूमिका सबसे ज़्यादा क्रान्तिकारी मालूम पड़ती है। कवि, कथाकार, नाटककार आदि अपनी उक्तियों में ईश्‍वर, प्रकृति व मनुष्य को, अनुभूति के– यानी प्रेम करुणा आदि भावों के ख़ास अर्थों के द्वारा- नए रूप में हमारे सामने लाते हैं। जैसे कबीर जब ‘क्या बहरा हुआ खुदाय’ कहते हैं तो वे ‘खुदा’ के उस अर्थ को पकड़ते हैं, जो ‘कंकड़-पत्थर जोड़ कर खड़ी की गई मस्जिद’ में न समाता है, न उसकी कोई बात उस तक पहुँचती है। यह कविता के द्वारा परम्परागत तयशुदा अर्थ में ग्रहण किये गए अर्थ का सृजनशील विखण्डन है।

 

इस तरह हम यह कह सकते हैं कि देरिदा जब भाषा पाठों के द्वारा परम्परागत दर्शन व्यवस्थाओं की केन्द्रीय धारणाओं के विखण्डित होने की बात करते हैं, तो उसका सबसे ज़्यादा सक्रिय व जीवन्त रूप सर्जनात्मक साहित्य में ही दिखाई देता है। इस वजह से देरिदा की विखण्डन की पद्धति, उत्तर आधुनिक साहित्यलोचन की, बेहद उपयोगी साहित्य-दृष्टि हो गई।

 

देरिदा को साहित्यलोचन के सिद्धान्तकार का दर्जा नहीं दिया जा सकता। तथापि साहित्य के भाषा पाठों के विश्‍लेषण के लिए उनकी ‘विखण्डन की प्रक्रिया’ साहित्य-विवेचन व विश्‍लेषण की एक जरूरी पद्धति अवश्य मानी जा सकती है। साहित्य-पाठों के बहुलार्थी होने के कारण साहित्य के लिए इस प्रक्रिया की उपयोगिता हमारे समय के साहित्यलोचन में अनिवार्य उपस्थिति दर्ज कराने वाली हो गई है।

  1. विखण्डन-प्रक्रिया

     1) देरिदा ने स्पष्ट किया है कि विखण्डन ‘करने’ की वस्तु नहीं है, वह एक ऐसी वस्तु है जो ‘समय के साथ खुद घटित होती हैं’ यानी समय के साथ भाषा के ऐसे नए अर्थ खुद ब खुद प्रकट होते हैं, जो पहले के अर्थों के विखण्डन का आधार हो जाते हैं।

2) देरिदा ने अपने समय में विखण्डन की जरुरत को इसलिए अपने सम्मुख पाया, क्योंकि उनके अनुसार ‘पश्‍च‍िमी संस्कृति इस कदर पतनशील हो गई थी, कि उसका विखण्डन जरूरी हो गया था। ’

    पश्‍च‍िमी संस्कृति ने आधुनिक समय में जिन साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी तौर-तरीकों को अपनाया था, उनके पतनशील होने की वजह से एडवर्ड सईद ने, देरिदा से प्रभावित होकर, पश्‍च‍िमी संस्कृति का प्राच्यवादी विखण्डन किया।

दूसरा उदाहरण है– नारीवादी विमर्शों के द्वारा परम्परागत अर्थ में मौजूद मर्दवादी पश्‍च‍िमी संस्कृतिमूलक अर्थ-संरचनाओं का विखण्डन इस सन्दर्भ में देरिदा से प्रभावित नारीवाद साहित्य आलोचना प्रकट हुई, जिसके प्रमुख हस्ताक्षर हैं- जूलिया क्रिस्तेवा, लूस इरिग्रे, गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक आदि।

 

3) भाषा-पाठों में स्वीकृत अर्थों का समय में प्रकट हुई नयी सम्भावनाओं के द्वारा विखण्डन होता है। इसलिए देरिदा ने खुद को एक ‘इतिहासकार’ कहना पसंद किया है। उनका विखण्डन समय के इतिहास-क्रम में विकास से पैदा हुई नयी अर्थ-सम्भावनाओं से खुद-ब-खुद होता है। परन्तु देरिदा अपने विखण्डन की प्रक्रिया को इतिहास के ताल पर भी, दार्शनिक रूपों में ही हमारे सामने रखते हैं। हालाँकि उनकी दो किताबें उत्तर आधुनिक समयों में प्रकट होने वाले, परम्परागत पश्‍च‍िमी विचारधाराओं के विखण्डन पर, ‘इतिहास’ के सन्दर्भ में भी एक जायज़ा प्रस्तुत करती है।

 

उदाहरण के लिए स्पेक्टर्ज ऑफ मार्क्स में वे उन वामपन्थी विचारधारों का विखण्डन करते हैं, जो यूरोप के सामने प्रकट हुई चुनौतियों के कारण खुद-ब-खुद जरूरी हो गई थीं, तथा जिन के लिए सूत्र खुद मार्क्स के भाषा पाठों के भीतर मौजूद थे। इस सन्दर्भ में उनकी दूसरी किताब ‘उत्तर आधुनिक समय में आतंक’ के प्रकट होने के कारणों व रूपों पर केन्द्रित है।

 

4) साहित्य के भाषा पाठों का विखण्डन, समय या इतिहास के सिलसिले में पैदा हुई नयी चुनौतियों से कैसे खुद-ब-खुद होता है? इस सवाल का जवाब उन्होंने इस रूप में दिया है कि साहित्य के भाषा पाठ ‘पश्‍च‍िमी संस्कृति की बुराइयों’ से ग्रस्त है। वहाँ पश्‍च‍िमी संस्कृति के पतनशीलों का वर्चस्व बनाए रखने वाली भाषा का प्रभुत्व है। यह प्रभुत्व, साहित्य के भाषा पाठों की पितृसत्तात्मक संरचनाओं की तरह देखा जा सकता है। पितृसत्ता यानी मर्दवादी तरीके से भाषा पाठ पश्‍च‍िमी संस्कृति को स्थापित करने वाले ‘ज्ञानविमर्शों की केन्द्रिकता’ से आक्रान्त हैं। ये ज्ञानविमर्शात्मक संरचनाएँ साहित्य के भाषा पाठों को अर्थों के बल पर द्विभाजित करती है। द्विभाजन का आधार यह है कि मर्दवादी ज्ञानविमर्श का प्रभुत्व रहता है और शेष अर्थों का दमन होता है।

 

    मर्दवादी पश्‍च‍िमी संस्कृति आक्रामक है, ईश्‍वर-केन्द्रित है, मनुष्य की अवधारणाओं को ‘सफलता’ से जोड़ती है, ‘अन्य पर विजय’ उसका मकसद है। तर्क व ज्ञान-विज्ञान का प्रभुत्व इसकी भूमि है। इससे भाव-जगत का, संवेद्य ह्रदय का, सामान्य-ज्ञान का तथा कल्पनाशील काव्य का दमन होता है। इस तरह विखण्डन की प्रक्रिया के द्विभाजन को समय से पैदा हुई जरूरत की तरह समझा जा सकता है।

 

5) उपर्युक्त विवेचन के आधार पर अब हम विखण्डन की इस प्रक्रिया के तकनीकी शब्दों व अवधारणाओं को समझ सकते हैं। विखण्डन प्रक्रिया के चार बीज शब्द हैं–

 

एक       : भिन्‍नार्थ

दो         : स्थगितार्थ

तीन       : संस्कारार्थता

चार       : स्रोतार्थ

 

जो गौण अर्थ, मुख्यार्थ के प्रभुत्व के कारण सीधे-सीधे दमित रूप में मौजूद नजर आता है – वह भिन्‍नार्थ है। जो अन्यार्थ वहाँ भाषा पाठ में उसके भीतर मौजूद हो तो होते हैं, पर स्थगित हालत में पड़े रहते हैं- उन्हें स्थागितार्थ कहते हैं। भिन्‍नार्थ व स्थगितार्थ भी जब मुख्यार्थ के विखण्डन का हेतु बनते हैं, तो वे पाते हैं कि उनके ‘नए या अलग अर्थों’ का संचालन भी, पहले से मौजूद अर्थ-संस्कार ही कर रहे होते हैं। तब वे उन अर्थ-संस्कारों के द्वारा अपने विखण्डन को पूरा नहीं कर पाते हैं, ये संस्कारार्थ हैं। संस्कारार्थों कि विखण्डन के लिए स्रोतार्थों का, यानी शब्दों के व्युत्पत्तिमूलक अर्थों का इतिहास काम में लाया जाता है।

 

6) ऊपर दी गई विखण्डन प्रक्रिया की तकनीकी बातों का इस्तेमाल, अन्ध-रूढ़ि की तरह नहीं किया जाना चाहिए। समय या इतिहास में जन्म लेने वाली नयी अर्थ-सम्भावनाओं को ही खुद-ब-खुद विखण्डन का आधार होते हुए देखना-दिखाना चाहिए।

7) विखण्डन की प्रक्रिया को, एक अन्तहीन प्रक्रिया समझना चाहिए।

8) विखण्डन की प्रक्रिया में किसी अर्थ को, अन्तिम अर्थ नहीं मानना चाहिए। इसलिए इस प्रक्रिया को ‘शाश्‍वत अनिश्‍चय की प्रक्रिया’ भी कहा जाता है।

9) विखण्डन की प्रक्रिया का आधार, चूँकि पतनशील पश्‍च‍िमी संस्कृति के प्रभुत्व को खारिज करता है, इसलिए इसका उद्देश्य है– ‘संस्कृति- बहुल अर्थों की प्रजातान्त्रिकता’ जिसे एक विकल्प की तरह ग्रहण किया जाता है।

10) बहुलार्थी सम्भावनाओं को प्रकट होने के लिए, भाषा पाठों के विखण्डन के अनेक स्तरों से होकर गुजरना पड़ता है।

 

क्रमिक रूप में विखण्डन के ये स्तर निम्‍न हैं, हालाँकि स्थिति-सन्दर्भगत भेद से क्रम का भी विखण्डन किया जाता है।

 

एक : समक्रमी रूप में ही नहीं इतिहासक्रमी रूप में भी विखण्डन।

 

दो : भिन्‍नार्थता को प्रजनक मानते हुए विखण्डन : यानी एक अर्थ के बाद दूसरे या तीसरे या चौथे अर्थ की सम्भावना को पहले वाले अर्थों के ‘भीतर’ से खोजना।

 

तीन : भाषा पाठ में शब्दों के समक्रम या इतिहास-क्रम से ही प्रजनक अर्थों को प्रकट होने का मौक़ा नहीं देना चाहिए, अपितु इससे भी आगे बढ़कर रिक्तस्थान से जुड़े अर्थों से भी भिन्‍नार्थों व अन्यार्थों को लाना चाहिए। देखना चाहिए कि भाषा पाठ के खास संयोजन कैसे अन्य संयोजकों की सम्भावनाओं को रिक्त स्थानों में स्थगित रखते हैं?

 

चार : प्रभुत्व के आधार पर उप-अर्थों की ओर ध्यान देना चाहिए।

 

पाँच : एक भाषा-पाठ का अर्थ, अन्य सम्बद्ध भाषा-पाठों से उसके रिश्तों के आधार पर करना चाहिए। इसे भाषा पाठ क्षेत्र कहते हैं। जिसमें समग्रपाठ के दमन व स्थगन की सम्भावनाएँ पैदा हो सकती हैं।

 

छः : समग्रपाठों के क्षेत्रीय-विखण्डन से संस्कृति के मूल्यों के प्रभुत्व का विखण्डन निकलता है। इस प्रकार अन्ततः मूल्य-विखण्डन तक पहुँचना इस प्रक्रिया का लक्ष्य है।

 

सात : एक और सम्भावना भी है- विखण्डन प्रक्रिया। जहाँ यह जरूरी न हो, वहाँ समय व इतिहास को अधिमान देना चाहिए। परन्तु तब उसे खुद ‘इतिहास के ही विखण्डन’ का आधार बना लेना चाहिए।

  1. निष्कर्ष

    देरिदा मुख्यतः एक साहित्यालोचक नहीं थे। वे एक दार्शनिक थे। उन्हें एक भाषा दार्शनिक भी कहा जा सकता है। भाषा से सम्बन्धित जो सिद्धान्त उन्होंने दिया वह साहित्य की आलोचना में भी इस्तेमाल किया गया। साहित्य और भाषा का गहरा सम्बन्ध होता है, इसीलिए देरिदा के इस सिद्धान्त को व्यवहार में लाया जा सका।

 

देरिदा की साहित्य दृष्टि का साहित्यलोचन में इस्तेमाल मुख्यतः निम्‍न कारणों-प्रयोजनों से किया जाता है–

  • कालजयी कृतियों के पुनर्पाठ के लिए
  • साहित्य की स्वीकृत धारणाओं के पुनर्मूल्यांकन के लिए
  • रूढ़ियों के खण्डन-विखण्डन के लिए
  • मुख्यार्थ के प्रभुत्व वाली सामन्तीय या तानाशाह अर्थ-संरचनाओं की बहुलार्थक प्रजातान्त्रिक अर्थ-संरचनाओं को अपनाने के लिए
  • उपेक्षित क्षेत्रों के साहित्य पाठों को भी साहित्य की मुख्यधारा में उनके अनुकूल प्रतिष्ठा प्रदान करने के लिए, जिसके तहत लोक साहित्य, नारीवादी साहित्य, दलित साहित्य,प्रवासी साहित्य, तृतीय विश्‍ववादी साहित्य,उत्तर औपनिवेशिक साहित्य जैसे क्षेत्रों को भी साहित्य की मुख्यधारा में स्थान दिए जाने की भूमिका तैयार हो रही है।

    देरिदा का सबसे चर्चित सिद्धान्त विखण्डनवाद है। साहित्यालोचकों ने साहित्य की समीक्षा में इस सिद्धान्त का भरपूर उपयोग किया हैं।

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अतिरिक्त जानें  

बीज शब्द

  1. विखण्डनवाद : विखण्डनवाद देरीदा द्वारा स्थापित एक सिद्धान्त है जिसमें वे पाठ के विखण्डन द्वारा उसके अर्थ की प्रक्रियाओं को समझाते हैं ।
  2. पाठ : विखण्डनवाद के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु एक ‘पाठ’  होती है। प्रत्येक व्यक्ति एक पाठक होता है। किसी एक ही रचना का पाठ प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग- अलग हो सकता है।

    पुस्तकें                                                                           

  1. संरचनावाद, उत्तर-संरचनावाद  एवं प्राच्य काव्यशास्त्र, गोपीचंद नारंग, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली।
  2. पाठकवादी आलोचना, गोपीचंग नारंग, सारांश प्रकाशन, दिल्ली।
  3. उत्तर-आधुनिक साहित्यिक विमर्श, सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  4. भूमण्डलीकरण और उत्तर-सांस्कृतिक विमर्श, सुधीश पचौरी, प्रवीण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  5. Of Grammatology, J. Derrida, (Translation : Gayatri Chakravorty Spivak), Motilal Banarsidas, Delhi.
  6. Derrida : A very short introduction, Simon Glendinnig, OUP, UK.
  7. Derrida for Beginners, Jim Powell,
  8. The Post Card, J. Derrida, University of Chicago Press, Chicago.

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