12 उत्तर संरचनावाद

विनोद शाही

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • उत्तर-संरचनावाद के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से परिचित हो सकेंगे।
  • उत्तर-संरचनावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों और सिद्धान्तों का परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • उत्तर-संरचनावाद और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के आपसी रिश्तों को समझ सकेंगे।
  • उत्तर-संरचनावाद की प्रमुख विशेषताएँ जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   उत्तर-संरचनावाद, उत्तर-आधुनिकता के समान्तर प्रकट होने वाला एक ‘ज्ञान-विमर्श’ है। विचारों की दुनिया में यह सोचने और विश्‍लेषण करने का नया तरीका है। उत्तर-आधुनिकता और उत्तर-संरचनावाद के बीच में एक गहरा रिश्‍ता भी है। इसे समझना जरूरी है।

 

उत्तर-आधुनिकता व्यापक है। आधुनिकतावाद के बाद यह एक ‘सांस्कृतिक विमर्श’ के रूप में सामने आया है। फ्रेडरिक जेम्सन, इसलिए इसे ‘विलम्बित पूँजीवाद’ का ‘सांस्कृतिक निष्कर्ष’ बताते हैं। उत्तर-औद्योगिक बहुराष्ट्रीय बाजार की स्‍थि‍ति‍ बीसवीं सदी के मध्यकाल से स्‍पष्‍ट होने लगी थी। इसका सम्बन्ध उपनिवेशों की आजादी से भी है इसलिए उत्तर-आधुनिकता के विमर्श का एक बड़ा रूप ‘उत्तर औपनिवेश विमर्श’ वाला भी है। सन् 1947 में भारत आजाद हुआ, धीरे-धीरे बाकी उपनिवेशि‍त देश भी आजाद होने लगे थे। इसे हम उत्तर-आधुनिकता की पृष्ठभूमि के रूप में देख सकते हैं।

 

उत्तर-संरचनावाद ने इस उत्तर-आधुनिक, उत्तर-औद्योगिक व उत्तर-औपनिवेशिक दौर की शुरुआत के लगभग पन्‍द्रह-बीस बरस बाद, यानी सन् 1960 से 1970 के बीच आकार ग्रहण करना आरम्भ कि‍या।

 

‘उत्तर संरचना’ का आरम्भिक रूप ‘आधुनिक कला’ तथा साहित्य के नए व्याख्या-प्रयासों से स्पष्ट होना आरम्भ होता है।

 

‘अगर उत्तर-आधुनिकता विलम्बित पूँजीवादी स्‍थि‍ति‍ का सांस्कृतिक निष्कर्ष है, तो उत्तर-संरचनावाद उसका ‘अर्थमीमांसीय’ आयाम है।

 

जिस तरह आधुनिकता के उदय के बाद, उससे जुड़े वैज्ञानिक विकास को समझने के लिए ‘संरचनावादी दर्शनों व विचारधाराओं’ ने हमारी मदद की थी, उसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि अगर हमें उत्तर-आधुनिकता को समझना और व्याख्यायित करना है, तो हमें सोचने समझने के उत्तर-संरचनावादी तौर-तरीकों की मदद लेनी होगी।

  1. ऐतिहासिक विकास क्रम

   उत्तर-संरचनावाद के विकास में योगदान देने वाले अनेक विद्वानों का सम्बन्ध संरचनावाद से भी रहा है। उन्हें संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद–दोनों को विकसित करने का श्रेय दिया जाता है। अर्थात् अनेक भि‍न्‍नताओं के बाजूद संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद ऐतिहासिक रूप से एक स्रोत से जुड़े ज्ञान और अर्थमीमांसा की पद्धत्तियाँ हैं। दोनों की भिन्‍नता का सरोकार ‘क्षेत्रविस्तार’ व ‘जटिलता-व्यवस्थापन’ से है। जब संरचनावादी अर्थमीमांसा द्वारा यथार्थ की जटिलताओं की पूरी व्याख्या सम्भव नहीं रह गई, तब उन जटिलताओं के संदर्भ में उत्तर-संरचनावादी चिन्तन-पद्धत्तियों व विमर्शों का विकास हुआ।

 

संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद दोनों से सम्बन्ध रखने वाले प्रमुख चिन्तक हैं–लेवी स्‍त्रॉस, रोलाँ बार्थ, मिशेल फूको। जिन विमर्शकारों-आलोचकों को विशेष तौर पर उत्तर-संचनावाद से ही जोड़कर देखा जाता है, उनमें प्रमुख हैं–जाक देरिदा, गिलिस डेल्यूज़, ज्याँ बॉद्रिला, ज्याँ लाकाँ, जूलिया क्रिस्तेवा और बटलर।

 

अम्बर्तो इको की द ओपन टेक्स्ट को उत्तर-संरचनावादी आलोचना-विमर्श की ‘आरम्भिक’ पाठ-वस्तु के रूप में रेखांकित करते हैं। इसका प्रकाशन सन् 1962 में हुआ। इतिहास क्रम में शुरुआती भूमिका तीन मुख्य ‘कृति-पाठ’ की है—सन् 1962 में प्रकाशित अम्बर्तो इको का द ओपन टेक्स्ट, सन् 1966 में पढ़ा गया जॉक देरिदा का शोध-आलेख स्ट्रक्चर, साईन एण्ड प्ले इन डिसकोर्सेस ऑफ ह्यूमन साइंसेस।हिन्दी में इसे ‘मानव विज्ञानों के विमर्शों में संस्था, संकेत व खेल’ कह सकते हैं। यहाँ ‘खेल’ शब्द सर्वाधि‍क महत्त्‍वपूर्ण है, जो उत्तर-संचनावादी विश्‍लेषण-पद्धत्ति का ‘बीज शब्द’ बन गया। तीसरा पाठ है, सन् 1967 में प्रकाशित रोलाँ बार्थ का एलिमेण्‍ट्स आफ सीमियोलोजी यानी ‘अर्थ विज्ञान के तत्त्‍व’। अपनी इस पुस्तक में रोलाँ बार्थ ने महाभाषा (मेगा-लैंग्वेज) की धारणा प्रस्तुत की। संरचनावाद में जहाँ ‘भाषा’ केन्द्र में हैं, वहीं, इस रेखांकन से उत्तर-संरचनावाद में भाषा का महाभाषिक ‘प्रतीक-पक्ष’ केन्द्र में आ जाता है।

 

रोलाँ बार्थ की एक अन्य धारणा द डेथ ऑफ द ऑथर यानी लेखक की मृत्यु के रूप में पारि‍भाषि‍त है। इसमें कृति को दो तरह से समझने की बात की गई है–एक ‘लेखकीय पाठ’ के रूप में, दूसरा ‘पाठकीय पाठ’ (रीडरली टेक्स्ट) के रूप में। यह ‘पाठकीय पाठ’ भी उत्तर-संरचनावाद की केन्द्रीय अवधारणाओं में से एक हो गया है।

 

उपर्युक्त कृतियों या धारणाओं के अलावा उत्तर-संरचनावाद को, उसके परिपक्व सिद्धान्त भूमि तक पहुँचाने का श्रेय नि‍म्‍नलि‍खि‍त अति महत्त्‍वपूर्ण कृतियों को दिया जाता है–

  • क. अम्बर्तो इको का ‘मुक्त पाठ’(द ओपन टेक्‍स्‍ट)
  • ख. रोलाँ बार्थ की ‘महाभाषा’ (मेटा-लैंग्वेज), जो गैरभाषिक (नॉनलिंग्विस्टिक) माने जाने वाले अर्थों को भी शामिल करने की सलाह देती है।
  • ग. जॉक देरिदा का ‘विखण्नडवाद’
  • घ. गिलिस डेल्यूज़ का ‘अराजक अर्थ-क्षेत्र’ बताता है कि भाषा-पाठों में जिन अर्थों को हम चुनते हैं, उनका चुनाव उनके आस-पास मौजूद असंख्य अर्थों की अराजकता के दमन के आधार पर होता है।
  • ङ. मिशेल फूको का ‘इतिहास की जन वंशावली’ का विमर्श तथा ‘ज्ञान भूगर्भ-विज्ञान’(आर्कियोलोजी ऑफ नॉलेज) का विमर्श, जो गौण जन-विमर्श को चुनौती देने के लिए उन्हें आधार बनाता है।

    इनके अलावा फूको की ‘सत्ता-ज्ञान व ‘ज्ञान-सत्ता’ की धारणाएँ भी उत्तर-संरचनावाद के विकास की अहम कड़ियाँ हैं।

  • च. पितृसत्ता के प्रभाव के कारण ‘मातृ-भाषा रूपों’ के दमन से मुक्ति की धारणा का जूलिया क्रिस्तेवा के ‘नारी-विमर्श’ में भाषा-पाठों में मातृभाषा-रूपों के दमन को पहचान कर मुख्यार्थ वाली पितृसत्ता की अर्थ-व्यवस्था का विस्थापन दिखाई देता है।
  • छ. जूडिथ वटलर का ‘लिंगभेद संकट’ (जेण्‍डर ट्रबल) भी स्‍त्री-भाषा के दमन के रूपों को पहचानने में मदद करता है।
  • ज. ज्याँ लाकाँ का ‘भाषा का मानवि‍त्त के अर्थो की प्रतीकार्थक रचना’ का विमर्श, जो अन्तर्मन को अन्यार्थों का क्षेत्र बताता है।
  1. प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं पद्धतियाँ

   उत्तर-संरचनावादी चिन्तन-पद्धत्ति के विकास की मूल अवधारणा है कि यथार्थ की जटिलता की व्याख्या ‘संरचनात्मक दृष्टि’ से नहीं हो सकती।

 

यथार्थ ‘अर्थ’ की व्याख्या करने में समर्थ ‘शाश्‍वतों’ के आधार पर यथार्थ को ‘सैद्धान्तिक’ में बँधा देखना ‘संरचनात्मक दृष्टि’ है। आधुनिक काल में विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टि को ग्रहण करने के बाद ‘प्रकृति’ अथवा ‘वस्तुनिष्ठ भौतिक पदार्थ’ को ‘शाश्‍वत सत्ता’ वाली वस्तु मान लिया गया। यह कुछ-कुछ उसी तरह था जैसे मध्यकाल में, ‘ईश्‍वर’, ‘आत्मा’, ‘चेतना’ जैसी वस्तुएँ शाश्‍वत मान ली गई थीं। नए आधुनिक शाश्‍वत तत्त्व थे–प्रकृति, पदार्थ, मनुष्य–जिन्हें अपने तौर पर व्याख्यायित किये बिना उनके ‘आधार’ पर वैज्ञानिक दृष्टि वाले सिद्धान्त खड़े कर लिए गए। ये सिद्धान्त विज्ञान की मदद से हासिल कि‍ए गए और इसलिए स्थापित मान लिए गए। ये ‘द्वन्द्वात्मकता’ को आदर्श रूप में रखते थे। एक को ‘आधार’ बनाकर ये सिद्धान्त ‘अन्यों’ को उनके विरोध में रखकर सिद्धान्त बनाने में लग गए थे। इसे ‘द्विभाजन’ वाले ‘बायनरी अपोजीशन’ सिद्धान्त कहते हैं। अगर पदार्थ ‘आधार’ हो गया तो ‘चेतना’ उसके द्विभाजनगत विरोध में प्रकट वस्तु की तरह, उसकी ‘अधिरचना’ मान ली गई। इसी तरह मार्क्सवाद में समाज के उत्पादन मूलक आर्थिक रिश्ते और उत्पादन-पद्धति‍याँ आधार हो गईं, जिनके द्वारा समाज की बाकी चीजों–धर्म, कानून, राजनीति, संस्कृति आदि की निर्मिति को ‘सिद्धान्त’ बना लिया गया। इससे पहले डार्विन के विकासवाद का सिद्धान्त आया था। उसमें ‘प्रकृति’ का चुनाव करने की सामर्थ्य को ‘आधार’ मान लिया गया। प्रकृति की इस चुनाव-सामर्थ्य के आधार पर जीवन के रूपों के विकास की व्याख्या कर ली गई थी। फ्रायड के मनोविश्‍लेषण में समाज से सीधे जुड़े चेतन मन के ‘अहं’ वाले भाग को अहमियत दे दी गई थी। अचेतन, अतिचेतन आदि को विरोधी ध्रुव की जगह दे कर, अहं के पक्ष में इनकी व्याख्या करने की कोशिश की गई।

 

यथार्थ को दो हिस्सों में विभाजित करने के कारण ही संरचनावाद को एक ‘सिद्धान्तवादी’ विमर्श कहा जाता है। यह किसी एक पक्ष को अहमियत देता है और उस आधार पर ‘दूसरे पक्ष’ की व्याख्या प्रस्तुत करता है।

 

उत्तर-संरचनावाद ने संरचनावाद के इस ‘सिद्धान्तवाद’ से असहमति दिखाई। मुख्य असहमतियाँ इस प्रकार हैं :

  • क. संरचनावाद एक समग्रतावादी विचारधारा है, जो दावा करती है कि उसके द्वारा समूचे यथार्थ की व्याख्या हो गई है, जबकि ऐसा नहीं होता।
  • ख. संरचनावाद अति-तर्कवादी चिन्तन-व्यवस्था है, जो ‘ज्ञात तथ्यों’ के बेहद सीमित होने के बावजूद हठ करती है कि ‘ज्ञात ही पर्याप्‍त है।’
  • ग. संरचनावाद जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर खड़ा होता है उसका आधार साधारणीकरण है। यानी वह ‘विशिष्ट’ चीजों के ‘साझे’ और ‘समान’ रूपों पर जोर देकर ‘सिद्धान्त’ खड़ा करता है जिससे उन चीजों की ‘विशिष्टताएँ’ अपवाद की तरह पीछे खड़ी रह जाती है।
  • घ. संरचनावाद यथार्थ को दो हिस्सों में विभाजित कर, उनमें जो ‘आपसी विरोध’ दिखाता है, वह ‘यथार्थ’ न होकर ‘सिद्धान्तगत’ या ‘भाषागत’ होता है, अतः यह विश्‍वसनीय नहीं है।
  • ङ. संरचनावाद में ‘आधार’ को ज्यादा अहमियत दी जाती है, जो एक तरह की ज्ञान की राजनीति है। इसमें यथार्थ ‘मुख्यधारा के विरोधों’ तक सीमित होकर रह जाता है। जबकि परिधि पर बहुत से और विरोध होते हैं, जिनकी उपेक्षा होती है। जैसे वर्ग-संघर्ष को अहमीयत देने से लिंगवादी, नस्लवादी, भाषावादी, पर्यावरणवादी दमन व उपेक्षाएँ किसी गिनती में नहीं रह जाती।

    उल्‍लि‍खि‍त पाँच कारणों को असहमतियों की तरह दर्ज करता है उत्तर-संरचनावाद दावा करता है कि ‘संरचनावाद के पैरों तले की जमीन खिसक चुकी है। अगला युग उपेक्षितों-वंचितों और अभावग्रस्त समाजों व उपेक्षित विमर्शों का है– जिन्हें उत्तर-संरचनावादी तरीके से अभिव्यक्त होने का ‘प्रजातान्‍त्रि‍क’ अवसर मिल सकता है।’ (मिशेल फूको)।

  1. उत्तर-संरचनावाद और सत्ता-विकेन्द्रीकरण

   उत्तर-संरचनावाद सत्ता-विकेन्द्रीकरण का प्रजातान्‍त्रि‍क विमर्श है। फ्रांस में सन् 1968 में हुए छात्र आन्‍दोलन से वहाँ जो सत्ता परिवर्तन हुआ, अनेक विद्वानों के अनुसार, उसके पीछे उत्तर-संरचनावादी विमर्श की ही भूमिका है। उत्तर-संरचनावाद के व्यावहारिक एवं आर्थिक रूप में प्रकट होने के पीछे एक मुख्य कारण है, फ्रांस के छात्र-आन्‍दोलन में बुर्जुआ पूँजीवादी व्यवस्था और परम्परागत मार्क्सवादी विकल्प की सम्भावना का खो जाना। इसका परिणाम यह हुआ कि संरचनावाद के मॉडलों के खिलाफ खड़े होने और नए तरीके से सोचने की जरूरत को स्वीकार करने की बातें सामने आई।

 

मिशेल फूको ने इस संदर्भ में परम्परागत संस्थाओं के ‘दमनकारी’ रूपों पर भी प्रहार किया और कहा कि समाज के सभी संस्थागत अनुशासन समाज को एक तरह के जेलखाने में बदलने का काम करते हैं।

 

हालाँकि उत्तर-संरचनावादी माने जाने वाले ज्याँ ल्योतार ने समाज में मौजूद ‘आधुनिक संस्थाओं’ में अभी भी सम्भावना के बचे होने की बात की। साथ ही यह भी कहा कि संरचनावाद के सभी सिद्धान्त ‘महाख्यान’ पेश करते हैं और अब इन महाख्यानों के अन्त का समय आ गया है। इसीलिए ज्याँ ल्योतार के सिद्धान्त को महाख्यानों के अन्त (डेथ ऑफ मेटा-नेरेटिज्म) का सिद्धान्त कहा जाता है।

 

संरचनावादी ‘सिद्धान्त’ ऐसे भाषा पाठों का नाम है, जिनका आधार किसी केन्द्रीय मुख्यार्थ की बर्चस्वी स्थिति में निहित होता है।

 

उत्तर-संचनावादी ज्ञान-विमर्श की पद्धत्ति का मूल प्रयोजन मुख्यार्थ की वर्चस्वपूर्ण भूमिका का अस्वीकार है। ऐसा करने के लिए उत्तर संचनावादी विमर्श ‘अन्यार्थों’ को गौण स्थिति में रखने के पक्ष में नहीं होते। वे पाठ के मुख्यार्थ के अलावा अन्य गौण अर्थ की सभी सम्भावनाओं को खोजते हैं। इस प्रकार मुख्यार्थ के विकेन्द्रीकरण की सम्भावना तलाशने के लिए रास्ते खुल जाते हैं। परन्तु विज्ञान-समर्थित साधारणीकृत मुख्यार्थ को विस्थापित करना इतना आसान भी नहीं होता। इसके लिए ‘साधारण अर्थों’ की बजाय ‘अर्थों के विशिष्ट रूपों’ की तलाश की जाती है, जो अपवाद का काम करे और मुख्यार्थ विस्थापन के विकेन्द्रीकरण को तर्क-सम्मत बनाएँ।

 

भाषा-पाठ को ‘मुक्त-पाठ (ओपन-टेक्‍स्‍ट) के रूप में ग्रहण करना

 

अम्बर्तो इको के ‘ओपन टेक्‍स्‍ट’ के सिद्धान्त में यह मत प्रतिपादित किया गया कि भाषा पाठों का ठीक वही अर्थ नहीं होता, जो ‘लेखक’ के अनुसार वहाँ होता है, अपितु हर भाषा-पाठ, अन्य बहुत से भाषा पाठों की शृंखला में एक कड़ी की तरह होता है। अतः हर भाषा-पाठ, अपने अर्थ के लिए, अन्य भाषा पाठों पर निर्भर करता है।

  1. उत्तर-संरचनावाद की विशेषताएँ

   भाषा-पाठों में ‘मुख्यार्थ’ की वर्चस्वपूर्ण स्थिति तभी स्थापित होती है, जब ‘अन्यार्थ’ गौण हो। अर्थात् ‘ज्ञान’ की दृष्टि से मुख्यार्थ, अन्यार्थों के अभाव के कारण अर्थपूर्ण होता है। इस बात का असल अर्थ यह है कि अन्यार्थ, गहराई में, मुख्यार्थ का ही हिस्सा होते हैं, वर्ना वह कभी हो ही नहीं सकता था। जैसे ब्लैकबोर्ड पर सफेद खडि़या नजर आती है तो उसका कारण आस-पास का ‘काला क्षेत्र’ है। वह काला-क्षेत्र न हो तो, सफेद नजर ही नहीं आएगा। इसे हम अर्थ के ‘होने’ को अन्य अर्थों की ‘अनुपस्थितियों’ पर आधारित वस्तु कह सकते हैं। यह अर्थ के विखण्डन की प्रक्रिया है– जिसे उत्तर-संरचनावाद में ‘मुख्य विमर्श’ होने का श्रेय प्राप्‍त है। देरिदा विखण्डन को लगातार जारी रहने वाली प्रक्रिया की तरह देखते हैं, जिसमें मुख्यार्थ को बार-बार विस्थापित करना पड़ता है।

 

उत्तर-संरचनावादी ‘शब्द’ के स्थान पर, शब्दों के बीच के रिक्त स्थानों को भी अर्थपूर्ण मानते हैं और उन्हें भी भाषा-वाणी का अंग मानने की सलाह देते हैं।

 

उत्तर-संरचनावादी भाषा-पाठों के ‘निश्‍चय’, ‘व्यक्त’ और ‘संगति’ को अर्थों के ‘सरलीकरण’ से जोड़ते हैं। अतः वे भाषा-पाठों में प्रयोगशीलता या ‘खेल-भाव को अधिक महत्त्‍व देते हैं।

 

उत्तर-संरचनावाद में ‘सिद्धान्त’ की जगह ‘गौण विमर्श’ पर अधिक बल दिया जाता है। वर्चस्ववादी इतिहास के स्थान पर, उत्तर-संरचनावाद वाले इतिहास के ‘जन-वंशावली’ (जीनियोल रेजिकल्ल) वाले रूपों को ग्रहण करने की सलाह देते हैं। लिखित इतिहास राजनीतिक वर्चस्व के इतिहास होते हैं, अतः उत्तर-संरचनावादी उस वास्तविक इतिहास को खोजने और ग्रहण करने का सवाल उठाते हैं, जो जन-स्मृतियों में जीवित होता है।

 

समाज का ‘विचारधारात्मक नियोजन’ संरचनावादी सिद्धान्त का प्रयोजन था, जबकि उत्तर-संरचनावादी, विचारधारा के स्थान पर, अर्थमीमांसीय नियोजन की बात करते हैं।

 

दो ऐसे चिन्तकों के विवेचन को देखा जा सकता है, जिसका सम्बन्ध संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद दोनों से हैं। मिशेल फूको का संरचनावादी विवेचन ज्ञानमीमांसा से ताल्लुक रखता है। परन्तु बाद में जब उन्‍होंने उत्तर-संरचनावाद की ओर रुख कि‍या तो उन्हें ‘ज्ञान-परमाणु’ जैसी अधि‍क लचीली अवधारणा को लेकर चलने की जरूरत महसूस हुई। फ्रेडरिक जेमसन ने विचारधारा परमाणु की बात की। ये उत्तर-संरचनावादी अवधारणाएँ हैं, जो मानव-समाज के चित्त में मौजूद दिखाई देती है, परन्तु यह ज्ञानमीमांसा की ‘सरलीकृत व्यवस्था’ के अंकुश को नहीं मानती।

 

इतिहास में कालक्रमिक तारतम्य को महत्त्‍व दिया जाता है। संरचनावादी इस इतिहास को मानते रहे हैं। परन्तु उत्तर-संरचनावादी ‘तात्कालिक इतिहास’ की बात करते हैं। यानी उस वर्तमान में स्थित इतिहास की जो अतीत का जीवन्त इस्तेमाल करता है। इसे ‘समसामयिक इतिहास बोध’भी कहा जाता है।

 

उत्तर-संरचनावाद में अर्थों के ‘स्थितिजन्य’ रूप पर अधिक जोर दिया जाता है। उनके निर्धारित रूपों पर उत्तर-संरचनावादी भाषा-पाठों में अर्थों की जटिलता, बहुलता और सापेक्षिकता को महत्त्‍व दि‍या जाता है।

 

उत्तर-संरचनावाद न तो निरा वैज्ञानिक सिद्धान्त है और न निरा अमूर्त्त भाववाद या आदर्शवाद। वह इन दोनों के बीच मौजूद रहता है। इसे कुछ लोग अस्तित्ववाद के ‘अनुभववादी’ सिद्धान्त का विस्तार भी मानते हैं, क्योंकि ठोस भाषा-पाठों पर आधारित होने के बावजूद, इसकी जटिलताएँ मानव-चित्त से जुड़ी रहती हैं।

 

मानवचित्त को भी उत्तर-संरचनावादी अपने विमर्श में शामिल करते हैं। अतः उनके यहाँ संचनावाद का ‘विचारधारात्मक इतिहास’ एक नई शक्ल में ढल जाता है जिसे ‘मनोतिहास’(सायकोहिस्ट्री) का नाम दिया गया है।

  1. निष्कर्ष

    संरचनावाद के सैद्धान्तिक ज्ञान-विमर्शों में, सस्यूर के आधुनिक भाषा विज्ञान के प्रभाव बढ़ने के बाद, ‘भाषा-विमर्श’ महत्त्‍वपूर्ण हो उठा।

 

ज्ञान के केन्द्रीय विमर्श के रूप में भाषा-विमर्श की मुखरता से उत्तर-संरचनावाद की ‘जटिल अर्थ-मीमांसाओं’ के प्रकट होने की स्थितियाँ गहरा गईं।

 

अर्थमीमांसा में मुख्यार्थ विस्थापन, विकेन्द्रीकरण और विखण्डन द्वारा उत्तर-संरचनावाद बहुलतावाद को उत्तर-आधुनिक समयों के निष्कर्ष की तरह स्थापित करता है। इसे ‘हाशिये की दुनियाँ के उभार’, ‘जनेतिहासों के विकास’, दलित व गौण अर्थ-संसार के स्वीकार और नई अस्मिताओं व चेतनाओं के अलग भाषा संसारों में मुख्य होने जैसी सकारात्मक बातों से जोड़कर देखा जाता है।

 

परन्तु इसके साथ ही अति-जटि‍लता के कारण उत्तर संरचनावाद की अराजकतावादी, अनिश्‍चयवादी, दिशाविहीन व आधारविहीन बताते हुए, अनेक लोग इसकी सीमाओं को भी देखने-समझने का प्रयास करते हैं।

 

कई विद्वानों के लिए संरचनावाद और उत्तर संरचनावाद, विरोधी न होकर, मूलतः एक हैं। उत्तर-संरचनावाद को ये लोग, संरचनावाद की सीमाओं से उबारने वाले विमर्श की तरह देखते हैं।

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अतिरिक्त जानें :

बीज शब्द :

  1. महाभाषा (मेटा लेंग्वेज) : वह भाषा या संकेत जो किसी दूसरी भाषा या प्रतीकात्मक भाषा के विश्लेषण या व्याख्या के लिए व्यवहार में लाई जाती है।
  2. आधुनिकतावाद–आधुनिकतावाद एक आन्दोलन है। व्याख्याकारों का मत है कि आधुनिकतावाद प्रयासपूर्वक अपना सम्बन्ध परम्परा से तोड़कर अभिव्यक्ति के मौलिक और नए रूपों की तलाश करता है। इसका सम्बन्ध उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी के प्रारम्भ के साहित्य और कला के अलग-अलग रूपों से है।

    पुस्तकें

  1. संरचनावाद, उत्तर-संरचनावाद  एवं प्राच्य काव्यशास्त्र, गोपीचंद नारंग, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली।
  2. पाठकवादी आलोचना, गोपीचंग नारंग, सारांश प्रकाशन, दिल्ली।
  3. पॉपुलर कल्चर, सुधीश पचौरी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  4. उत्तर-आधुनिक साहित्यिक विमर्श, सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  5. भूमण्डलीकरण और उत्तर-सांस्कृतिक विमर्श, सुधीश पचौरी, प्रवीण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  6. जूलिया क्रिस्तेवा, पावरज़ आफ हॉरर, एनएसए एण्ड ए जे कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस कोलम्बिया, 1982
  7. द फोर फाउंडेशनल सायको-अनोल्लासिस, ज्या लाक, एडिशनज़ टू सुइल।
  8. Structuralism and post-structuralism, edited by, Imtiaz S. Hasnain, Bahari Publication, New Delhi.
  9. Roland Barthes : Structuralism and After,  Annette Lavers, Methuen, London.
  10. Of Grammatology, J. Derrida, (Translation : Gayatri Chakravorty Spivak), Motilal Banarsidas, Delhi.
  11. Derrida : A very short introduction, Simon Glendinnig, OUP, UK.
  12. Derrida for Beginners, Jim Powell,
  13. The Post Card, J. Derrida, University of Chicago Press, Chicago.

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