5 उत्तर-आधुनिकतावादी साहित्य चिन्तन

एस. डी. कपूर

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्‍ययन से आप निम्‍नलिखित बिन्दुओं से परिचित हो सकेंगे –

  • उत्तर-आधुनिकतावाद की परिभाषा।
  • उत्तर-आधुनिकता और साहित्य चिन्तन में सम्बन्ध।
  • उत्तर-आधुनिकतावाद के आरम्भ से जुड़े तथ्य।
  • उत्तर-आधुनिकतावाद के परिवर्तनकारी प्रमुख बिन्दु
  • उत्तर-आधुनिकता, साहित्य और संस्कृति का सम्बन्ध।
  1. प्रस्तावना

   उत्तर-आधुनिकतावाद बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ एक सैद्धान्तिक आन्दोलन है। यह विशुद्ध साहित्यिक आन्दोलन नहीं है। साहित्य के साथ-साथ इसने कला के कई रूपों को भी प्रभावित किया है। इसने पुराने सिद्धान्तों पर फिर से विचार करने पर जोर दिया।

 

उत्तर-आधुनिकतावाद एक ही साथ आधुनिकतावाद का विकास भी है और उसका विलोम भी। आधुनिकतावाद ने मनुष्य को केन्द्र में रखकर अपना विस्तार किया था। मनुष्य ने अपनी सुख-सुविधा को केन्द्र में रखा। इसके लिए नए-नए वैज्ञानिक आविष्कार किए। प्रकृति पर नियन्‍त्रण पाने की कोशिश की। पूँजी का विकास हुआ। भौतिक विकास को ही मनुष्य का वास्तविक विकास माना जाने लगा। परिणाम यह  हुआ कि प्रकृति के साथ समाज का एक बड़ा हिस्सा भी हाशिए पर चला गया।

 

उत्तर-आधुनिकतावाद का विकास आधुनिकतावाद की इन्हीं प्रवृत्तियों के विरोध में हुआ। उत्तर-आधुनिकतावाद ने हाशिए की आवाज को केन्द्र में लाने की कोशिश की। विकास की अवधारणा को प्रश्नांकित किया। परिणामस्‍वरूप हाशिए की चीजें केन्द्र में आने लगीं। आदिवासी विमर्श, दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, पर्यावरण संवेदना आदि कई विमर्श शुरू हुए। समाज में शुरू हुए इन विमर्शों ने साहित्य, राजनीति, कला, फिल्म आदि कई चीजों को प्रभावित किया।

  1. उत्तर-आधुनिकतावाद का आरम्भ

    आधुनिकता की मान्यताओं को प्रश्नांकित करते हुए हाशिए की आवाज से उत्तर-आधुनिकतावाद की शुरुआत होती है। आधुनिकता मनुष्य को केन्द्र में रखती आई है। उसने औद्योगिकीकरण को बढ़ावा दिया। कल-कारखानों को आधुनिकता ने मन्दिर के समतुल्य ठहरा दिया। मनुष्य ने अपनी सुख-सुविधा के लिए प्रकृति और प्रकृति के सबसे अधिक करीब रहने वालों का जम कर दोहन किया। आधुनिक मानव को लगने लगा कि उसने प्रकृति को अपने वश में कर लिया है। पर बात ऐसी नहीं थी ।

 

लोग पूँजीवाद के विकसित रूप एवं तकनीक को समाज के हर क्षेत्र में महसूस कर रहे थे। आधुनिकता के साथ ही साम्राज्यवाद का भी उदय हुआ। मार्क्स ने कहा है कि साम्राज्यवाद भारत में सामाजिक बदलाव ला रहा था, लेकिन इस प्रक्रिया में साम्राज्यवादियों के इरादे नेक नहीं थे। साम्राज्यवादियों के अपने हित सर्वोपरि थे, अतः उन्होंने आधुनिकता का अपने फायदे के लिए ही इस्तेमाल किया। आधुनिकता में मौजूद भौतिक पक्ष को उन्होंने अत्याधिक महत्त्व दिया। उनके इस कृत्य एवं स्वार्थ के बावजूद उन्होंने भारत में जो कुछ किया वह अनजाने में ही भारत का इतिहास बदलने का कारण बना। ये दो विरोधी बातें उत्तर-आधुनिकता के करण-कारण को समझने में मदद करती है। साम्राज्यवादियों ने बड़ी ही चालाकी से भारतीयों का एक वर्ग तैयार किया, जिसे हम मध्यम वर्ग कहते हैं। यह वर्ग अपने मालिकों का अनुसरण करता था तथा उनकी संस्कृति को प्रशंसा की नजर से देखता था। लि‍हाजा बहुत हद तक वहअपनी संस्कृति से दूर हो गया। इस मध्य वर्ग ने ही अंग्रेजों को भारत में सत्ता जमाने में मदद की। इनका कार्य और व्यापार उनके एजेण्ट करते थे और ये झूठ फैलाते रहते थे। इसके साथ ही उन्होंने सुनियोजित तरीके से अपनी भाषा और संस्कृति को सबसे श्रेष्ठ बताने की कोशिश की और भारतीय संस्कृति को कमतर आँका; इस कार्य में वे काफी हद तक सफल भी हुए। वे जिन मानवीय मूल्यों और मर्यादा की बात आधुनिकता के सन्दर्भ में करते थे, उसे उन्होंने कभी नहीं निभाया। इस प्रकार उनका दोमुँहापन भारतीयों के सामने आने लगा। एक ओर तो वे भारत के समृद्ध साहित्य का अध्ययन कर रहे थे; दूसरी ओर यहाँ की संस्कृति को नकार भी रहे थे। जार्ज ओरवेल इसे कपटपूर्ण आचरण कहते हैं। उन्‍नीसवीं शताब्दी में मार्क ट्वेन ने अमेरिका द्वारा फिलीपियन्‍स को अपने कब्जे में लेने के बाद लिखा कि यह एक विरोधाभास है कि अमेरिका में तो लोकतन्त्र रहे और अन्य देशों में साम्राज्यवाद। इनके अलावा नस्लभेद की नीति भी उनके अवचेतन में विद्यमान थी। अमेरिका में दास प्रथा सैद्धान्तिक रूप में समाप्त होने के बाद भी व्यवहार में समाप्त नहीं हुई थी। नस्लभेदी नीति का व्यापक प्रभाव दूसरे महायुद्ध में दिखाई दिया जब हजारो यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया गया। यह विश्‍व के इतिहास की सबसे दुःखद घटना थी। पूरा यूरोप इस घटना से विलोड़ित हो गया था एवं पश्‍च‍िम के इतिहास और विकास की प्रक्रिया पर एक सवालिया निशान लग गया। इसके दूरगामी परिणाम हुए तथा आधुनिकता की निम्‍नलि‍खि‍त दो आधारभूत मान्यताओं को चुनौती मिली–

  1. मनुष्य मात्र उत्कृष्टता की तरफ बढ़ रहा है; वह शीघ्र ही एक आदर्श मनुष्य बन जाएगा।
  2. समाज भी एक आदर्श समाज की ओर जा रहा है, जहाँ मनुष्य अपने तरीके से जीवन जी सकेंगे और अपना धर्म पालन करने में स्वतन्त्र होंगे।
  1. उत्तर-आधुनिकतावाद का विस्तार

   विकास, तार्किकता, समीक्षात्मक खोज, धर्म निरपेक्षता सब बेमानी हो गए। इस त्रासदी का प्रभाव हर संवेदनशील नागरिक पर पड़ा, विशेष रूप से विद्वानों और लेखकों पर जो समाज की हर हलचल को रेखांकित करते हैं। लेखक इस त्रासदी से जूझने के तरीके तलाश करने लगे। क्योंकि यह अनुभव आधुनिकता के सन्दर्भ में अप्रत्याशित था। अतः इसे रूप देना एवं काल्पनिक चेतना के अधीन लाना मुश्किल हो गया। परिणामस्वरूप वास्तविकता से मोहभंग हो गया। नाजी जहाँ एक ओर जर्मनी में मानवता की बात कर रहे थे, बच्‍चों के लिए दूध भेज रहे थे, वहीं दूसरी ओर गैस चेम्बर में यहूदियों को मारा जा रहा था। उनकी मनुष्यता को किस श्रेणी में रखा जाए? डेविड वार्थल्मे अपने उपन्यास स्‍नो-व्हाइट में मनुष्य की बदली हुई परिभाषा इस प्रकार देते हैं– “ऐसा आदमी बनने की कोशिश करे जिसे जो वह कर रहा था उसे कुछ भी मालूम नहीं था। अभी भी उसे उसके बारे में मालूम नहीं है। उसने हमें जो निर्देश दि‍या वह बहुत रोचक नहीं था। एक पेड़ ज्यादा रोचक है। एक सूटकेस ज्यादा रोचक है। एक बन्द डिब्बा ज्यादा रोचक है।” सम्बन्धों को परिभाषित करना सरल नहीं है। इस उपन्यास में लेखक वार्थल्मे की समस्त पूर्व अवधारणाओं, चरित्र, मनोविज्ञान एवं लेखक के अधिकार को चुनौती देते हैं। उसी उपन्यास में वह कहते हैं कि एक ही अनुभव की बहुत सारी व्याख्याएँ हो सकती हैं।

 

सैमुअल बेकेट जो उत्तर-आधुनिकतावादी काल के प्रमुख नाटककारों और उपन्यासकारों में थे। वे इस नए अनुभव को इस तरह व्यक्त करते हैं– वर्णन करने के लिए कुछ नहीं है, कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे इसका वर्णन किया जा सके, व्यक्त करने की शक्ति नहीं है। परन्तु साथ ही वह यह भी कहते हैं कि इसके व्यक्त करने का दायित्व भी लेखक पर ही है। यही सबसे बड़ी चुनौती है कि वह इसे किस तरह व्यक्त करें। वर्णन करने से बचा नहीं जा सकता। उसी को वह तरीका निकालना है जिससे इस अव्यवस्था और भ्रान्ति को व्यक्त किया जा सके। कहीं अर्थहीन वाक्यों द्वारा इसे व्यक्त किया गया है। कहीं अर्थहीन वार्तालाप के द्वारा। वे अनुभव और भाषा में विच्छेद की बात करते हैं। मौन का उपयोग करते हैं, जो शब्दों से अधिक बोलता है। अपने नाटक में वे मौन का निर्देश देते हैं, कहीं थोडा मौन, कहीं बड़ा लम्बा मौन, चलने फिरने का निर्देश देते हैं; लेकिन चलना फिरना नहीं है।

  1. उत्तर-आधुनिकतावाद की विशेषताएँ
  • उत्तर-आधुनिकतावाद आधुनिकतावाद का विकास भी है और विलोम भी।
  • उत्तर-आधुनिकतावाद कृति की जगह पाठ पर जोर देता है। इसलिए एक ही रचना के कई पाठ हो सकते हैं, यानी उत्तर-आधुनिकतावाद में लेखक की जगह पाठक प्रमुख होता है।
  • उत्तर-आधुनिकतावाद व्यक्ति और सामाजिक इकाइयों की स्वतन्त्रता का समर्थन करता है।
  • उत्तर-आधुनिकतावाद पूर्णतावादी दृष्टि का विरोध करता है। इस प्रकार यह समग्रता का विखण्डन करता है।
  • उत्तर-आधुनिकतावाद हाशिए की आवाज को प्रमुखता देता है।
  • उत्तर-आधुनिकतावाद में ज्ञान की जगह सूचना का महत्त्व अधिक होता है।
  1. उत्तर-आधुनिकतावाद के परिवर्तनकारी बिन्दु

6.1. महाशून्यता

उत्तर-आधुनिकतावाद का कारण दो और परिवर्तनकारी शक्तियाँ बनीं। प्रथम पूँजीवाद का विकसित रूप जिसमें मनुष्य का सम्बन्ध मानवीय भावनाओं से टूट गया। यहाँ सम्बन्ध अमूर्त्त हो जाते हैं। मार्क्स इसको रेईफिकेशन कहते हैं। यहाँ सम्बन्धों में स्थायित्व ढूँढ़ना अर्थहीन है। भीतर की शक्ति समाप्त हो गई है और मनुष्य एक वृहत एकरसता का हिस्सा बन गया है। बाहर से सब कुछ ठीक दिखता है पर भीतर एक महा-शून्य है और वह सतही तौर पर जीता है। एक असन्तोष और शक्तिहीनता है; लेकिन वह इसका कारण नहीं जानता। एक खालीपन जिसे वह समझता है कि अपव्यय से दूर किया जा सकता है लेकिन यह असन्तोष फिर भी बना रहता है। वह एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाता है परन्तु उसे आत्मतोष नहीं मिलता। वह एक नकली जिन्दगी जीता है तथा उससे निकलने का रास्ता भी नहीं मिलता। एक तो उसका समाज के साथ संवाद खत्म हो जाता है और अपने आप से संवाद नहीं हो पाता।

 

6.2. मानवता का पतन

यह परिवर्तनकारी शक्ति तकनीक या प्रौद्योगिकी है। यह एक विश्‍व पूँजीवादी व्यवस्था का हिस्सा है तथा ऐसे विचारों को मजबूती प्रदान करता है। वह मनुष्य को यन्त्रवत बना देता है और वह एक पुर्जे की तरह काम करता है। व्यक्ति वस्तुतः व्यक्ति न होकर एक नम्बर हो जाता है जिसे आप गिन सकते हैं। तकनीक की दुनिया में मनुष्य अपने आपको समायोजित करता है, बदलता नहीं। धीरे-धीरे वह तकनीक की गिरफ्त में आ जाता है एवं इसी से उसकी दिनचर्या निर्धारित होती है। मानवता शायद जम गई है। मानव मात्र की इच्छाएँ व आदतें एक जैसी हो जाती हैं। यदि उसकी आदतें भिन्‍न होंगी तो सामाजिक मशीनरी में घर्षण उत्पन्‍न होगा। लुईस मशीन एक कविता में लिखते हैं–

 

मरने से पूर्व प्रार्थना

मैं अभी पैदा नहीं हुआ हूँ।

भगवान, मुझे शान्ति दे

जिससे मैं उनके खिलाफ खड़ा हो सकूँ।

जो मेरी मानवता को जमा देना चाहते हैं।

जो मुझे प्राणघातक स्वचालित मशीनों में धकेल रहे हैं

मुझे मशीन का पुर्जा बनाना चाहते हैं

एक चीज बनाना चाहते हैं

आधे चेहरे के साथ, एक चीज।

 

ऐसे प्रौद्योगिकी के जमाने में मानवता के लिए जगह ही कहाँ है? बेकेट के वेटिंग फार गोदो  में चरित्र किसका इन्तज़ार करते हैं– मालूम नहीं, शायद भगवान का! ऐसे ही रोबे ग्रिलेट का एक उपन्यास है द ईररेर्स , यह हत्यारों के एक समूह की कहानी है, जिसमें एक आदमी को मारने का जिम्मा सौंपा जाता है। गलती से वह किसी अन्य आदमी को मार देते हैं, तभी से वे असहज रहते हैं, जब तक वह सही आदमी को नहीं मार देते हैं। जब वे उस आदमी को मार देते हैं, तो सामान्य हो जाते हैं। ग्रिलेट बताना चाहते हैं कि जैसा समाज में होता है वैसा ही उपन्यास में भी होता है। दोनों ही स्वचालित यन्त्र की तरह काम कर रहे हैं, लेकिन उससे बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिलता। लगता है मनुष्य एक जाल में जकड़ गया है और उससे बाहर न निकल पाना उसकी नियति है। वैसे ही जैसे एक बड़े पत्थर को बार-बार पहाड़ी के ऊपर ले जाने की कोशिश की जाए और वह पत्थर बार-बार नीचे आ जाए।

 

6.3. मानवीय मूल्यों का अन्त

यह बहुत हद तक सही है कि उत्तर-आधुनिकतावादी साहित्य में निश्‍च‍ित मानवीय मूल्य कोई विशेष महत्त्व नहीं रखते और बहुत से आलोचक निराशावादी, नकारात्मक और अतार्किक तत्त्वों को ही महत्त्व देते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इसमें आधुनिकवाद की सारी अवधारणाओं को नकार दिया गया है। उत्तर-आधुनिकवादी भी नए अनुभवों को बाँधने पर जोर देते हैं और अनुभव के बन्धन के नए तरीके तलाश कर रहे हैं, क्योंकि नैतिक और बुद्धिमत्तापूर्ण विचार अप्रासंगिक हो गए हैं या मृतप्राय हैं। लेसली फेडलर, सुसेन सोंटेग, जार्ज साइलेंस, रिचर्ड पायोनियर, और इहाब हसन इसको एक महत्त्वपूर्ण खोज मानते हैं।

 

6.4. नई आलोचना

उत्तर-आधुनिकता को अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया गया है। फ्रेंक करमोडे और गेराल्ड ग्राफ इसको आधुनिकतावाद का विस्तार मानते हैं। माल्कन ब्राडबरी और उहाब हसन इसे आधुनिकतावाद का विस्तार भी मानते हैं एवं उससे अलग भी। इरविंग होव इसको ह्रास और पतन मानते हैं। फ्रेडरी जेमसन इन दोनों को अलग अलग घटना मानते हैं, क्योंकि दोनों अपने मायने और सामाजिक कार्यों में अलग-अलग हैं। वे इसे मार्क्सवादी विचारधारा से जोड़कर देखते हैं। वे उत्तर-आधुनिकतावाद को लेट केपेटेटिव या मल्टीनेशनल केपेटेटिव से जोड़ते हैं; जिसने सांस्कृतिक क्षेत्र को बिल्कुल बदल दिया है। यह प्रभाव व्यक्ति के सम्बन्धों में देखा जा सकता है।

रेमण्ड विलियम्‍स कहते हैं कि उत्तर-आधुनिक लेखकों और आलोचकों ने कुछ क्षेत्रों को दर्शाया है और कुछ क्षेत्रों की उपेक्षा की। अतः इसे विचारधारा के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है। उनके अनुसार आधुनिकतावाद का आधार दो क्षेत्र है–

  1. सामाजिक वास्तविकता की नवीन प्रक्रिया, जिसने समाज को एक नैतिक विवेचना दी; एवं
  2. उन बाह्य पहलुओं का नवीनीकरण, जिसने भाषा को नए तरीके से लिखने की प्रेरणा दी।

   सन्दर्भ को नकारना, इतिहास को नकारना और केवल टेक्स्ट पर ही केन्द्रित होना एक भुलावा देने वाली विचारधारा का हिस्सा है। जैसे उत्तर-आधुनिकतावादी मानते हैं कि जीवन में एक विखराव है तो उसको समझने का तरीका केवल टेक्स्ट पर ही केन्द्रित करना एक भुलावा देने वाली विचारधारा है। न्यू क्रिटिसिज्म इसी विचारधारा का हिस्सा है। टेक्स्ट दुनिया से हट कर शब्द पर केन्द्रित हो गई है और इसके लिए तरह तरह के नकार इस्तेमाल कि‍ए जाने लगे। विलियम्स के अनुसार सन्दर्भ से हट कर कोई साहित्यिक कृति अपना पूरा संसार नहीं बना सकती। वे कहते हैं कि यदि उत्तर-आधुनिकता की जकड़न से बाहर निकलना है तो उस परम्परा को पुनः जीवित करना होगा जिन्हें उत्तर-आधुनिकता की रफ्तार ने पीछे छोड़ दिया है और उन कृतियों पर ध्यान देना होगा जिनमें समुदाय को दुबारा स्थापित किया जा सके। जाहिर है विलियम्स उस अलगाव के खिलाफ लिख रहे हैं जो अनुभव और उसको व्यक्त करने की प्रक्रिया में आ गया है। यदि इतिहास को खँगाला जाए तो उन सब मुद्दों को केन्द्र में लाना होगा जो नई विचारधारा में हाशिए पर डाल दिए गए हैं। यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अक्सर किसी कृति के सन्दर्भ की तलाश में वे मूल कृति को ही भूल जाते हैं। यह ठीक नहीं है।

 

रेमण्ड विलियम्स जिस समय लिख रहे थे, वह समय विश्‍व में बदलाव का युग था। एक के बाद एक देश साम्राज्यवादी शिकंजे से मुक्त हो रहे थे और वहाँ के लोग उन मूल्यों एवं अधिकारों की बात कर रहे थे और जो उनके अधिकार क्षेत्र में थे। उनके एजेण्डे में काले अमेरिकी, राष्ट्रवादी तत्त्व, दलित या उनसे समानता रखने वाले थे। यदि उन्हें ऐतिहासिक सन्दर्भ में नहीं देखा जाएगा तो उनके मुद्दे बेमानी हो जाएँगे। ये विश्‍व भर में उत्तर-आधुनिकतावाद के विरोध में खड़े थे। इसलिए उत्तर-आधुनिकतावाद के साथ इन तत्त्वों को भी ध्यान में रखना चाहिए। हालाँकि यह खतरा हमेशा बना रहता है कि यह उस वृहद विचारधारा में दब न जाए। भारत में उत्तर-आधुनिकता की बात करते समय उनकी वेदना को उनके अनुभव को नकारना नहीं चाहिए। भारत में लेखक उस हद तक नहीं पहुँचा है जहाँ एक उत्तर-आधुनिक विचार गया है।

 

इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उत्तर-आधुनिकतावाद के प्रभाव में नहीं आए। हमने उत्तर-आधुनिक चेतना को उसी तरह स्वीकार कर लिया जैसे आधुनिक को स्वीकार किया था। फर्क केवल इतना है कि वह काफी हद तक आयातित है जबकि आधुनिक चेतना कुछ हद तक देशज थी। उत्तर-आधुनिक लेखक उन तत्त्वों को स्वीकार करते हैं जो या तो विकसित नहीं हुए या मौजूद ही नहीं थे। जैसे विमुखीकरण की संकल्पना, जो उस समय बड़े शहरों में थी और कुछ लोगों तक ही सीमित थी, लेकि‍न पूरे भारत में यह संकल्पना आरोपित लगती है। हिन्दी में उत्तर-आधुनिकता की चर्चा सबसे पहले निर्मल वर्मा ने की। निर्मल वर्मा भारत के उन चन्द लेखकों में थे, जो देश-परदेश में हो रहे साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन को एक साथ देख रहे थे। उन्हें समझने का प्रयास कर रहे थे। वे शायद पहले हिन्दी लेखक हैं जिन्होंने आधुनिकता के विकास मॉडल पर गम्भीर सवाल उठाए।

 

6.5. संस्कृति का प्रश्‍न

पिछले दो तीन दशकों से बहुत तेजी़ से उदारीकरण हुआ है और भौतिकता पूरी तरह समाज में व्याप्त हो गई है। शुरू में इसका विरोध हुआ लेकिन बाद में वह भी गायब हो गया। ऐसी प्रक्रिया विचारों को भी प्रभावित करती है और साहित्यिक रचनाओं को भी। प्रश्‍न यह है कि लेखक उस अनुभव को कहाँ से देखते हैं। उदारीकरण के भीतर से या उस स्थान से जहाँ उसे समझने और मायने देने के प्रयास शुरू होते हैं। लेकिन यह प्रयास पूँजीवादी जटिल प्रक्रिया से दब जाता है और यह मालूम भी नहीं होता कि कब उसकी गिरफ्त में आ गया। आधुनिकतावाद की एक विलोम अवस्था की प्राचीनता से तुलना होती थी एवं उत्तर-आधुनिकवाद की आधुनिकतावाद से।

 

कहना सही नहीं होगा कि सारी संस्कृतियाँ उत्तर-आधुनिकतावाद से प्रभावित हैं। रेमण्ड विलियम्स कहते हैं कि आधुनिकवाद अप्रासंगिक नहीं होता, इसलिए अनुभव को पुनः स्थापित करने के लिए परम्परा से जोड़ना होगा। वे सांस्कृतिक कृतियों की बात करते समय बची हुई और उभरते रूप की बात करते हैं। काले अमेरिकी जिस तरह का साहित्य लिख रहे हैं वह काफी हद तक प्रभुत्वपूर्ण विचारधारा से अलग है। इसी प्रकार तीसरी दुनिया के लेखक के लिए प्रश्‍न है कि तीसरी दुनिया के लेखकों ने उत्तर-आधुनिकवाद को किस रूप से स्वीकार किया है। यदि वे इसे पूर्ण रूप से स्वीकार करते हैं तो वे शताब्दियों को लाँघ जाते हैं। वे समझने लगते हैं कि जो पश्‍च‍िमी देशों की त्रासदी है वह उनकी भी है, वैश्विक असमानता के साथ। कुछ हद तक यह सही भी है। लेकिन जो दुर्दशा और पीड़ा वह अपने चारों ओर देखते हैं वह उन्हें अलग सोचने पर (यदि अलग सोचते हैं तो) मजबूर करती है। लेकिन यदि वह उत्तर-आधुनिकवाद के रूप को स्वीकार करते हैं तो क्या उसके कन्टेन्ट को ना कह सकते हैं! इस दुविधा से निकलने के लिए काले अमेरिकी लेखकों, अफ्रीकन लेखकों और अन्य तीसरी दुनिया के लेखकों ने अपनी चेतना को टटोला और उसकी अभिव्यक्ति उनकी आत्मकथाओं में हुई। रेमण्ड विलियम्‍स की बात सही है कि तीसरी दुनिया के लोगों को जो परोसा जाता है, उसे वह वैसे ही स्वीकार करते हैं। इसे वे सलेक्टिव एशोसिएशन कहते हैं। चुने हुए तथ्यों को स्वीकार करके वे विवेचनात्मक को फिर से स्थापित करना चाहते हैं, जिसमें ऐतिहासिक चेतना और वास्तविक चेतना अलग नहीं होती।

 

6.6. चयन का अधिकार

तीसरी दुनिया के लेखकों के पास अभी भी चुनने का अधिकार है। उसमें वह पश्‍च‍िमी समकालीन सभ्यता को एक विवेचनात्मक भौतिकता से देख सकते हैं। यथार्थवादी वास्तविकता का वर्णन करने वाली शब्दावली का इस्तेमाल उच्‍च कला के नाम पर नकार दिया गया है। इन देशों को लेखक अब भी अतीत से अपना सम्बन्ध बनाए हुए हैं। यहाँ तक कि समुदाय और व्यक्ति के सम्बन्ध भी टूटे नहीं है। इन देशों की कलाओं और साहित्य में परम्परा स्मृति के माध्यम से पुनर्नवता प्राप्त कर रही है। इसका अर्थ यह नहीं है कि तीसरी दुनिया के देश अतीतजीवी होने लगे हैं। पर अतीत की एक नई व्याख्या शुरु हो गई है। यह व्याख्या आधुनिकता की व्याख्या से अलग है। अब मध्यकालीन कह कर या प्राचीन कह कर यूँ ही किसी कृति या मूल्य को नकारा नहीं जा रहा। उन पर पुनर्वि‍चार हो रहे हैं।

 

पिछले दो दशकों से उत्तर-आधुनिकवाद के व्यापक मूल्यों के खिलाफ एक मुहिम चली है। यह उत्तर-उपनिवेशवादी विचारधारा के तहत है, जिनमें उन तत्त्वों का विवेचन और विस्तार है जो उपनिवेशवाद के मूल्यों को नकारते हैं। इससे राजनीतिक वास्तविकता के बारे में चेतना विकसित हुई है। अब दलित और नारीवादी लेखक भी अपनी बात अलग ढंग से कह रहे हैं। आश्‍चर्य नहीं कि कुछ दलित लेखक उत्तर-आधुनिकतावाद और पूँजीवाद का स्वागत करते हैं।

 

उत्तर-आधुनिक साहित्य चिन्तन को भारत के सन्दर्भ में समझने के लिए हिन्दी की दो रचनाओं का उदाहरण दिया जा सकता है। अज्ञेय का अपने अपने अजनबी जो पिछली शताब्दी के आठवें दशक में प्रकाशित हुआ। दूसरा उदय प्रकाश की चर्चित कहानी और अन्त में प्रार्थना… जो सन् 1992 में हंस में प्रकाशित हुई थी। दोनों रचनाओं का चिन्तन अलग है और दोनों के सन्दर्भ भी अलग हैं। अज्ञेय का उपन्यास विदेश की पृष्ठभूमि में लिखा गया है और पूर्णरूप से उत्तर-आधुनिक पश्‍च‍िमी साहित्य चिन्तन से प्रभावित है। उदय प्रकाश की कहानी की पृष्ठभूमि भारतीय है और वह उन उलझी हुई सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समस्याओं से जूझती है जिनका निराकरण दिखाई नहीं देता। इस प्रकार उदय प्रकाश की कहानी इस चिन्तन को पूर्ण रूप से भारतीय दृष्टि से देखती है। वह आधुनिकता और आधुनिकता की आड़ में छिपे मध्यकालीन बोध – दोनों को ही पाठक के सामने नंगा करती है।

  1. निष्कर्ष

   रेमण्ड विलियम्स कहते हैं कि यह जरूरी है कि उत्तर-आधुनिकतावादी अनुभव को आधुनिकतावाद की कसौटी पर देखा जाए और आधुनिकतावाद के साथ भी यही व्यवहार किया जाए। मनुष्य के जीवन के दो पहलू है–वास्तविक और दूसरा सम्भावित। उत्तर-आधुनिकतावाद पश्‍च‍िम में केवल वास्तविक पहलू पर ही जोर देता है क्योंकि वहाँ मनुष्य अपने माहौल में कैद है। यह स्थिति धीरे-धीरे तीसरी दुनिया के देशों में प्रवेश करने लगी है। इसलिए यह लेखक का दायित्व है कि वह उस स्थिति‍ से निकलने का रास्ता भी दिखाए। रास्ता न भी दिखा सके तो कम से कम पाठक को इस स्थिति का बोध तो अवश्य ही कराए। बीमारी का इलाज करना ही बड़ी बात नहीं होती। कई बार बीमारी को सही ढंग से पहचान कर बीमार को इसका ज्ञान कराना भी एक बड़ा काम होता है। उत्तर-आधुनिकता आज यही काम कर रही है।

you can view video on उत्तर-आधुनिकतावादी साहित्य चिन्तन

 

अतिरिक्त जानें

 

बीज शब्द-

  1. आधुनिकता आधुनिकता एक मूल्यबोध है। कोई प्राचीन या मध्यकालीन व्यक्ति भी अपने विचारों में आधुनिक हो सकता है।
  2. आधुनिकतावाद आधुनिकतावाद  आधुनिकता के सांस्कृतिक-पक्ष को द्योतित करता है। आधुनिकतावाद एक आन्दोलन है। व्याख्याकारों का मत है कि आधुनिकतावाद प्रयासपूर्वक अपना सम्बन्ध परम्परा से तोड़कर अभिव्यक्ति के मौलिक और नए रूपों की तलाश करता है। इसका सम्बन्ध उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी के प्रारम्भ के साहित्य और कला के अलग-अलग रूपों से है।
  3. उत्तर-आधुनिकतावादउत्तर-आधुनिकतावाद बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ एक सैद्धान्तिक आन्दोलन है। उत्तर-आधुनिकतावाद एक ही साथ आधुनिकतावाद का विकास भी है और उसका विलोम भी। इसने पुराने सिद्धान्तों पर फिर से विचार करने पर जोर दिया। आधुनिकता की मान्यताओं को प्रश्नांकित करते हुए हाशिए की आवाज से उत्तर-आधुनिकतावाद की शुरुआत होती है।  

    पुस्तकें

  1. उत्तर आधुनिकता : साहित्य और संस्कृति की नई सोच, देवेन्द्र इस्सर, इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली
  2. आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता, गंगा प्रसाद विमल, नई किताब, दिल्ली
  3. उत्तर आधुनिकता : स्वरूप और आयाम, बैजनाथ सिंघल, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला
  4. उत्तर-आधुनिक साहित्यिक विमर्श, सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन,  नई दिल्ली
  5. In theory: Classes, nations, literatures, Aijaz Ahmad, Verso, London. First published : 1992
  6. What is Post modernism, Charles Jencks ,Academy Edition, London, Ed. 1986
  7. Postmodernism, or, the Cultural Logic of Late Capitalism, Fredric Jameson,Duke University Press, Ed. 1991
  8. The Postmodern Condition: A Report on Knowledge , Jean-François, Lyotard,Manchester University Press, Manchester, Ed : 1984

    वेब लिंक्स –

  1. https://www.youtube.com/watch?v=m95ck7A2Ooc
  2. https://www.youtube.com/watch?v=PqjrpyAd4Z8
  3. https://www.youtube.com/watch?v=9Ehh1b6kNWA
  4. https://www.youtube.com/watch?v=SozfIGPf58o