4 आधुनिकतावाद
प्रियम अंकित
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप
- आधुनिकतावाद की अवधारणा को समझ पाएँगे।
- आधुनिकतावाद की प्रमुख मान्यताओं को जान पाएँगे।
- साहित्य में आधुनिकतावाद के प्रभाव को जान पाएँगे।
- आधुनिकतावाद ने आलोचना को किस रूप में प्रभावित किया है? इसे समझ पाएँगे।
- प्रस्तावना
आधुनिकतावाद एक आन्दोलन है। यह आन्दोलन यूरोप से प्रारम्भ हुआ और धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैला। इसका सम्बन्ध सिर्फ साहित्य तक सीमित नहीं है। साहित्य के साथ-साथ यह चित्रकला, संगीत, भवन-निर्माण आदि अनेक क्षेत्रों में पनपा और विकसित हुआ। इसका प्रारम्भ उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त के आस-पास हुआ। इसके प्रभाव से बुद्धिजीवियों और कलाकारों ने अतीत से अपने रिश्ते बदले। पहली बार अतीत को नकारा तथा परम्परा के प्रति सन्देह व्यक्त किया। अतीत हमसे अलग है। जो हम कर रहे हैं, वह अतीत में नहीं हुआ था। इस धारणा से आधुनिकता का प्रारम्भ हुआ। इस इकाई में इन्हीं मसलों पर विचार किया जाएगा ।
- आधुनिकता और आधुनिकतावाद
आधुनिकता और आधुनिकतावाद एक नहीं है। आधुनिकता एक मूल्यबोध है। कोई प्राचीन या मध्यकालीन व्यक्ति भी अपने विचारों में आधुनिक हो सकता है। आधुनिकता की तुलना प्राचीनता से होती है या मध्ययुगीनता से होती है। जब मध्ययुगीनता से आधुनिकता की तुलना होती है, तो आधुनिकता का अर्थ होता है सप्रश्न दृष्टि। आधुनिकता किन्ही आप्त वचनों पर विश्वास नहीं करती, प्रत्येक स्थिति पर प्रश्न करती है, सन्देह करती है और जब तर्क द्वारा सन्तुष्ट हो जाती है, तभी उसे स्वीकार करती है। इसलिए कबीर मध्यकालीन होते हुए भी अपने विचारों में आधुनिक हैं।
आधुनिकतावाद एक आन्दोलन है। व्याख्याकारों का मत है कि आधुनिकतावाद प्रयासपूर्वक अपना सम्बन्ध परम्परा से तोड़कर अभिव्यक्ति के मौलिक और नए रूपों की तलाश करता है। इसका सम्बन्ध उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी के प्रारम्भ के साहित्य और कला के अलग-अलग रूपों से है।
आधुनिकता अपने आप में एक प्रगतिशील मूल्य होती है, जबकि आधुनिकतावाद को नकारात्मक रूप में देखा जाता है।
- आधुनिकतावाद के प्रेरणास्रोत
आधुनिकतावाद मूलतः पाश्चात्य अवधारणा है। हिन्दी पर भी इस आन्दोलन का प्रभाव पड़ा, कई लेखकों ने इसके प्रभाव में रचनाएँ कीं। यह सिर्फ साहित्यिक आन्दोलन ही नहीं, चित्रकला, स्थापत्य, संगीत आदि कला माध्यमों का भी आन्दोलन था। इस आन्दोलन का प्रारम्भ उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी के प्रारम्भ में हुआ। इस आन्दोलन के प्रारम्भ का गहरा सम्बन्ध यूरोपीय समाज के रूपान्तरण से जुड़ा हुआ है। उन्नीसवीं सदी में यूरोप में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया तेज हुई, जिससे बड़े-बड़े नगरों का विकास हुआ। इस कारण यहाँ रहने वाले मनुष्यों के जीवन में परिवर्तन होने लगा। इस परिवर्तन की एक अभिव्यक्ति आधुनिकतावाद के रूप में हुई।
विचारकों का मत है कि व्यवस्था और स्थायित्व में पूर्व आधुनिक समाज विश्वास करके चलता था। सामूहिक सामाजिक मूल्यों को मानता था। जबकि आधुनिक समाज भयावह अस्थिरता में जीने लगा। यहाँ सामूहिक सामाजिक मूल्यों को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। इससे अविश्वास, सन्देह और असमंजसपूर्ण अस्मिता का बोध उत्पन्न हुआ। आधुनिकतावादी विचारकों ने विक्टोरिया युग की तमाम नैतिकताओं का खण्डन किया तथा प्रयासपूर्वक अपने अतीत से अपना रिश्ता तोड़ा। इन विचारकों की दृष्टि में प्रत्येक वस्तु सन्देह के घेरे में है। प्रत्येक स्थिति पर प्रश्न उठाए जाने की सम्भावना है।
आधुनिकतावाद के व्याख्याकारों का मत है कि विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ-साथ दर्शन के स्तर पर भी नई मान्यताएँ हमारे सामने आईं। इनमें फ्रायड की मान्यताएँ महत्त्वपूर्ण हैं। फ्रायड ने स्वप्न-विश्लेषण कर स्थापित किया कि मनुष्य कोई भी कार्य तर्क से नहीं करता, अन्तःप्रेरणा से करता है। जैसा मनुष्य दिखाई देता है, वह वैसा होता नहीं है। वैसा वह अपने आपको प्रदर्शित करना चाहता है। उसके क्रियाकलापों का निर्धारण उसके अवचेतन मन से होता है, जिस पर स्वयं उस व्यक्ति का नियन्त्रण नहीं है। फ्रायड ने कहा कि मस्तिष्क की अपनी संरचना होती है और व्यक्ति का अनुभव मस्तिष्क के भागों की क्रिया पर आधारित होता है। इसी आधार पर बाह्य दुनिया की कल्पना भी की जाती है। अर्थात जो यथार्थ बाहर दिखाई देता है, वह दरअसल भीतर है।
इसी समय विज्ञान के क्षेत्र में ‘प्रत्यक्षवादी’ दर्शन विकसित हुआ, जिसके अनुसार प्रकृति में वस्तुओं के सम्बन्धों की कोई गारण्टी नहीं होती, इन्हें केवल मानसिक आशुलिपि के माध्यम से ही जाना जा सकता था। पहले माना जाता था कि व्यक्ति से बाहर एक निरपेक्ष वास्तविकता होती है जो किसी भी व्यक्ति पर प्रभाव डाल सकती है। जिसकी ओर जॉन लाक ने संकेत किया था। लाक ने मष्तिष्क की कल्पना कोरे कागज के रूप में की, जिस पर बाहरी दुनिया के अनुभव लिखे जा सकते हैं। इसी तरह कार्ल युंग ने ‘सामूहिक अवचेतन’ की धारणा विकसित की। इसी समय डार्विन ने जीवों की उत्पत्ति का विवेचन करते हुए स्थापित किया कि मनुष्य भी दरअसल ‘पशु’ से ही विकसित हुआ है। इसलिए ‘मनुष्य ईश्वर की सन्तान है’, इस धारणा का स्वतः खण्डन हो जाता है। मनुष्य की अपनी पाशविक प्रवृत्ति समाज की अशान्ति के मूल में हो सकती है। इसी तरह जर्मन चिन्तक नीत्शे के अनुसार मनुष्य के मन में ‘शक्ति प्राप्त करने की इच्छा बलवती होती है, जीवन के बाक़ी तथ्य और बातें गौण हैं। इसी तरह आइन्स्टीन ने विज्ञान के क्षेत्र में सापेक्षता का नया सिद्धान्त प्रस्तुत किया। कार्ल मार्क्स ने पूँजीवादी समाज का विश्लेषण कर नए समाजवादी राज्य की परिकल्पना प्रस्तुत की। यह सारा चिन्तन जब सामने आया तब वास्तविकता, प्रकृति और जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण सामने आया। इतनी सारी नई बातों से अतीत की सम्पूर्ण समझ, परम्परा, सामूहिक जीवन मूल्य और स्वयं मनुष्य सन्देह के घेरे में आ गया। ये सभी लेखक विक्टोरियन युग की नैतिकता और सामूहिक मूल्यों की स्थिरता में विश्वास नहीं करते थे।
आधुनिक शब्द का प्रारम्भिक प्रयोग समकालीन के अर्थ में होता रहा है। जिस समय किसी कला की रचना होती है, उस समय वह आधुनिक ही होती है। भले ही वह 16वीं सदी में ही क्यों न हुई हो। रामचरितमानस अपने रचना काल में आधुनिक ही था। प्रियप्रवास भी आधुनिक ही माना जाएगा। इसलिए रेमण्ड विलियम्स ने इस शब्द का प्रारम्भिक अर्थ किया, अभी-अभी। जो इस समय उपलब्ध है, वह इस समय आधुनिक है।
आधुनिकता का प्रारम्भ भवन निर्माण कला से माना जाता है। प्रारम्भ में इस अवधारणा का सकारात्मक प्रयोग नहीं होता था, बाद में इसका अर्थ बदला और आधुनिक का अर्थ सुधार या विकास के लिए होने लगा। भवन निर्माण कला के अलावा चित्र कला ने इस अवधारणा को सबसे पहले स्वीकार किया। चित्रकला के अनेक आन्दोलन आधुनिकतावाद की देन माने जाते हैं।
हालाँकि इन विचारकों में आपस में गहरे मतभेद थे, परन्तु समाज पर इनका सामूहिक प्रभाव भी पड़ा था। इस प्रभाव की एक अभिव्यक्ति आधुनिकतावाद के रूप में सामने आई।
- आधुनिकतावाद की विशेषताएँ
आधुनिकतावाद कोई एक अवधारणा नहीं है। इसमें कई परस्पर विरोधी अवधारणाएँ शामिल हैं। आधुनिकता, प्राचीन या मध्ययुग की तरह का अन्य काल नहीं है। मनुष्य ने अपने सक्रिय मानवीय प्रयासों से जीवन की परिस्थितियों का विकास किया है। यह विकास जीवन के सभी क्षेत्रों में हुआ – जैसे राजनीति, उद्योग, समाज, अर्थशास्त्र, वाणिज्य, यातायात, संचार, विज्ञान, औषधि, संस्कृति आदि सभी क्षेत्रों में प्रगति हुई। इस परिवर्तन को आधुनिकतावादियों ने प्रगति और विकास के रूप में देखा।
आधुनिकतावाद के व्याख्याकारों ने भाप के इंजन की शक्ति से प्रेरित औद्योगीकरण को आधुनिकता का प्रमुख प्रेरक तत्त्व माना है। इससे कला और अभियान्त्रिकी का समन्वय सम्भव हुआ, जिसके कारण गगनचुम्बी इमारतों का निर्माण हुआ, सड़क पर लम्बे-लम्बे पुल बनाए गए, शीशे और लोहे से रेलवे के नए भवन बनाए गए। पेरिस के एफिल टॉवर ने तो मनुष्य द्वारा बनाई हुई ऊँची इमारतों की सारी सीमाएँ तोड़ दीं।
मशीनीकरण का प्रभाव मनुष्य के जीवन और रहन-सहन पर भी पड़ा। वह प्रत्येक चीज को मशीन के रूप में देखने लगा। भवन को परिभाषित किया जाने लगा कि वह इमारत जिसमें निवास किया जाता है। कार क्या है? कार वह मशीन है जिसमें यात्रा की जाती है। हर चीज मशीन है, तो मनुष्य भी मशीन है। उसकी भी मरम्मत की जाती है, वह भी मशीन की तरह काम करता है, आराम करता है। इसलिए आधुनिकतावादियों के विरोधियों ने कहा कि आधुनिकतावाद जीवन रहित मशीन का प्रवक्ता है। प्राचीन लोग कुछ दया-धर्म में विश्वास करते थे, उनमें अच्छाई और बुराई का विवेक था, उनके कुछ मूल्य थे, आदर्श थे। लेकिन आधुनिकतावादियों ने इन सबको नकार दिया।
मशीनीकरण और औद्योगीकरण के कारण नगरीकरण की प्रक्रिया तेज हुई, जिससे बहुसंख्यक आबादी गरीबी, बेकारी और भुखमरी की शिकार हो गई। इसी के साथ शहरों में भद्र मध्यवर्गीय, बुद्धिजीवियों का शक्तिशाली वर्ग पैदा हुआ। इस वर्ग ने साहित्य, संस्कृति और कला से बहुसंख्यक जनता को बाहर कर दिया। इस कारण आधुनिकतावादियों पर यह भी आरोप लगा कि यह विशिष्ट जनों की संस्कृति का समर्थक है। सुरुचि सम्पन्न कला का निर्माण इनका उद्देश्य है।
इसी बीच प्रथम विश्वयुद्ध हुआ। युद्ध में भीषण नर-संहार हुआ। बुद्धिजीवियों ने महसूस किया कि परम्परा से प्राप्त सारे मानवीय मूल्य निरर्थक हो चुके हैं। इसका दबाव इस काल के बुद्धिजीवियों पर दिखाई देता है।
साहित्य के साथ-साथ चित्रकला में भी आधुनिकतावाद का व्यापक प्रभाव पड़ा। इसके प्रभाव में अतियथार्थवादी कला के कई चित्रकार सामने आए, बिम्बवाद, दादावाद, प्रभाववाद आदि अनेक कला आन्दोलन यूरोप में हुए। इसी तरह संगीत में भी कई कलाकारों ने नए-नए प्रयोग किए। इन सबके सम्मिलित प्रभावों को विद्वानों ने आधुनिकतावाद की संज्ञा दी। इन सब प्रभावों से व्यक्तिवाद का उदय हुआ। व्यक्तिवाद के समर्थन में यह तर्क सामने आया कि बाहरी सामाजिक शक्तियों के दबाव और मशीनीकरण के कारण अस्तित्व की निजता और स्वायत्तता की रक्षा सबसे बड़ी जरूरत है। अतिकलावादी प्रवृत्तियों का एक कारण यह व्यक्तिवाद भी हो सकता है।
- आधुनिकतावाद की प्रयोगधर्मिता
आधुनिकतावादी लेखक मानते हैं कि मानव जीवन की हर कहानी पहले कही जा चुकी है। या तो उसे एक तरह से कहा जा चुका है, या उसे परिवर्तित रूप में अभिव्यक्त किया जा चुका है। जब सब कुछ अभिव्यक्त हो चुका है, तो कुछ भी ‘नया’ ‘नए रूप’ में ही कहा जा सकता है। इस कारण आधुनिकतावादी रचनाकारों ने अनेक प्रयोग किए, यहाँ तक कि प्रयोगशीलता आधुनिकता का पर्याय बनने लगी थी। इलियट, जेम्स जॉयस, एजरा पाउण्ड की रचनाओं में इस प्रयोगधर्मिता को देखा जा सकता है। हिन्दी में अज्ञेय ने इस प्रवृत्ति को रेखांकित करने का प्रयास किया। इस तरह आधुनिकता का एक अर्थ हुआ अतीत के प्रति अवमानना और प्रयोग के प्रति ललक। जिसे एज़रा पाउण्ड ने कहा ‘make it new’ अर्थात इसी पुराने को नया बनाकर प्रस्तुत करो।
आधुनिकतावादी लेखक टी. एस. इलियट के अनुसार– हमारी सभ्यता के वर्तमान को देखते हुए, ऐसा प्रतीत होता है कि उसके कवियों को भी कठिन होना चाहिए। हमारी सभ्यता विविधता और जटिलता के विराट आयामों को समावेशित करती है, और यह विविधता और जटिलता एक परिष्कृत संवेदनशीलता से संयोजित होकर जो परिणाम उत्पन्न करती है, उन्हें भी विविध और जटिल ही होना चाहिए। कवि को ज़्यादा से ज़्यादा समावेशी, ज़्यादा सांकेतिक, ज़्यादा परोक्ष होना चाहिए, जिससे कि वह अपने अर्थ-सन्धान के लिए भाषा को बाध्य कर सके, और अगर जरूरी हो तो उसमें तोड़-फोड़ कर सके। इस तरह अभिव्यक्ति के नए धरातलों को तोड़ने के प्रयास बड़े पैमाने पर होने लगे। काव्यात्मक अभिव्यक्ति के वैशिष्ट्य को सही शब्दों का सही क्रम (राईट वर्ड्स इन द राईट ऑर्डर) के रूप में पहचाना जाने लगा। लेकिन कविता का यह ‘सही’ हर कवि के लिए तय नहीं था। इस ‘सही’ को जानने, समझने और परखने के रास्ते हर कवि ने अपने अपने तरीके से तलाशे। कला के अन्य रूपों की तरह कविता भी प्रयोगधर्मिता का संवाहक बनी।
यह प्रयोग क्यों? तकनीकी अन्वेषण की इस अपरिहार्य स्वीकृति को व्याख्यायित करते वक्त आधुनिकतावादी कवि-चिन्तक पर्याप्त सावधान हैं। हिन्दी साहित्य में दूसरा सप्तक की भूमिका में अज्ञेय का यह स्पष्टीकरण इस सावधानी का सूचक है– ‘प्रयोग का हमारा कोई वाद नहीं है, इसको और भी स्पष्ट करने के लिए एक बात हम और कहें। प्रयोग निरन्तर होते आए हैं, और प्रयोगों के द्वारा ही कविता या कोई भी कला, कोई भी रचनात्मक कार्य, आगे बढ़ सका है। जो कहता है कि मैने जीवन भर कोई प्रयोग नहीं किया, वह वास्तव में यही कहता है कि मैंने जीवन भर कोई रचनात्मक कार्य करना नहीं चाहा; ऐसा व्यक्ति अगर सच कहता है तो यही पाया जाएगा कि उसकी कविता कविता नहीं है, उसमें रचनात्मकता नहीं है; वह कला नहीं, शिल्प है, हस्तलाघव है। जो उसी को कविता मानना चाहते हैं, उनसे हमारा झगड़ा नहीं है। झगड़ा हो ही नहीं सकता क्योंकि हमारी भाषाएँ भिन्न हैं, और झगड़े के लिए भी साधारणीकरण अनिवार्य है! लेकिन इस आग्रह पर स्थिर रहते हुए भी हमें यह भी कहना चाहिए कि केवल प्रयोगशीलता ही किसी रचना को काव्य नहीं बना देती। पाठक या सहृदय के लिए कोई हमारे प्रयोग का महत्त्व नहीं है, महत्त्व उस सत्य का है जो प्रयोग द्वारा हमें प्राप्त हो। हमने सैकड़ों प्रयोग किए हैं यह दावा लेकर हम पाठक के सामने नहीं जा सकते, जब तक हम यह न कह सकते हों कि देखिए, हमने प्रयोग द्वारा यह पाया है। प्रयोगों का महत्त्व कर्ता के लिए चाहे जितना हो, सत्य की खोज, लगन, उसमें चाहे जितनी उत्कट हो, सहृदय के निकट वह सब अप्रासंगिक है। पारख़ी मोती परखता है, गोताखोर के असफल उद्योग नहीं। गोताखोर का परिश्रम या प्रयोग अगर प्रासंगिक हो सकता है तो मोती को सामने रखकर ही– इस मोती को पाने में इतना परिश्रम लगा– बिना मोती पाए उसका कोई महत्त्व नहीं है।’ यानि कवि ने अभिव्यक्ति के चाहे जितने दुर्गम रास्तों पर चलकर अपने पाँव छलनी किए हों, उसके लहू का कोई मोल तब तक नहीं है, जब तक वह किसी नए सत्य तक न पँहुचे। यह आधुनिकतावादी कवि की प्रतिबद्धता है, उस सत्य के प्रति, जिसकी उपलब्धि के लिए उसने इतना परिश्रम किया है। लहूलुहान होना आत्मश्लाघा का गौरव नहीं है, बल्कि एक विनम्र हठ है, उस सत्य को प्राप्त करने की, जिसे वह मूल्यवान मानता है।
इस प्रयोगधर्मिता ने काव्य के क्षेत्र में जिन तकनीकी परिवर्तनों को जन्म दिया वह नए विचारों, या बोध के स्तर पर कवि के अवधारणात्मक विन्यास में आए क्रान्तिकारी परिवर्तनों द्वारा प्रेरित थे। नए-नए शिल्पों की खोज के पीछे नई अन्तर्वस्तुओं को रूपाकार देने की सकारात्मक चाहत काम कर रही थी। इसमें कवि के बौद्धिक आग्रहों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। बौद्धिक आग्रहों की बहुलता और विविधता ने कविता के शिल्प, तकनीक और अन्तर्वस्तु के विकास को इस तरह सम्भव बनाया कि हर कवि और पाठक के लिए यह विकास बोध और संवेदना के स्तर पर नई उपलब्धियों का आधार बना। इन बौद्धिक आग्रहों का निर्माण करने में स्वत्व, मिथक, अचेतन-अवचेतन, लैंगिक अस्मिता आदि से सम्बन्धित उन आधारभूत और मौलिक विचारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा जिसे आधुनिकतावादियों ने फ्रेडरिक नीत्शे, आँरी बर्गसाँ, फिलिप्पो तोम्मासो मारिनेत्ति, जेम्स फ्रेज़र, सिग मण्ड फ्रायड, कार्ल युँग, अल्बर्ट आइन्स्टाईन और उनके जैसे दूसरे विशेषज्ञ-विद्वानों से ग्रहण किया। इसके अतिरिक्त सँस्कृतियों के आर-पार जाकर संस्कार ग्रहण करने और विश्लेषण के वैज्ञानिकता-सम्मत नमूनों की खोज के विचार ने भी कलात्मक तकनीकों में परिवर्तन को सम्भव बनाया। टी. एस. इलियट और अज्ञेय दोनों के यहाँ संस्कृतियों के आर-पार जाकर प्राप्त किए गए संकेतों और मिथकों का सार्वजनीन बरताव मिलता है। द वेस्ट लैण्ड में भगवद्गीता के उद्धरण और अज्ञेय के काव्य में इकेरस जैसे यूनानी मिथक का प्रयोग इसका उदाहरण है।
शिल्प और अन्तर्वस्तु की नवीनताओं ने काव्य-प्रविधि के स्तर पर जिन नमूनों को सम्भव बनाया, उनका भिन्न-भिन्न इस्तेमाल हुआ, कई बार तो एक दूसरे के विपरीत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया। ईलियट के द वेस्ट लैण्ड और द हॉलो मेन जैसी कविताओं में असम्बद्ध वस्तुओं या विचारों को पास-पास रखने की जो तकनीक मिलती है, वही ब्रेख़्त की कविताओं में भी बहुतायत से मिलती हैं। ईलियट की कविता मार्क्सवाद-विरोधियों के पक्ष में आसानी से खड़ी होती है, जबकि ब्रेख़्त की कविताएँ अपने मार्क्सवादी तेवर के लिए मशहूर हैं। ईलियट, एज़रा पाउण्ड, ऑडेन, स्पेण्डर आदि से लेकर ब्रेख़्त, नेरुदा, हिकमत, अरागों और एलुआर जैसे विभिन्न आधुनिकतावादी कवियों ने अजनबीपन (एलिएनेशन) के विषय का जैसा प्रविधिक व्यवहार किया है, उसका हाल भी यही है। काव्य-प्रविधि के एक ही नमूने का विविध प्रयोजनों के लिए इस्तेमाल, आधुनिकतावाद के समावेशी चरित्र का उदाहरण है। आधुनिकतावाद के इस समावेशी चरित्र से हम भारतीय बहुत हद तक अन्जान हैं, क्योंकि औपनिवेशिक गुलामी और उसका पिष्टपेषण करने वाली अकादमिक और शिक्षण संस्थाओं ने आधुनिकतावाद को ज़्यादातर अंग्रेज़ी कविता तक ही महदूद रखा है।
- आधुनिकतावाद और अमूर्त्तन की कला
आधुनिकतावादी काव्य यथार्थ के अमूर्त्तन को अहमियत देता है। इस अमूर्त्तन को लेकर रोजर फ्राई का आधुनिकतावादी कला के सन्दर्भ में जो प्रेक्षण था, वह आधुनिकतावादी कविता के सन्दर्भ में भी सही है–‘कलाकार वास्तविक प्रतीतियों को धुँधली प्रतिच्छायायों में अभिव्यक्त नहीं करना चाहते, बल्कि नए और स्पष्ट यथार्थ की प्रामाणिक और भरोसेमन्द अनुभूतियों को जाग्रत करना चाहते हैं। वह संरचनाओं का अनुकरण नहीं करना चाहते, बल्कि मौलिक संरचनाओं का निर्माण करना चाहते हैं; वह जीवन का अनुकरण नहीं करना चाहते, बल्कि जीवन के समतुल्य की खोज करना चाहते हैं। मैं कहना यह चाहता हूँ कि यह कलाकार ऐसे बिम्बों का निर्माण करने को उत्सुक हैं जो अपनी स्पष्ट तार्किक संरचना और बनावट की सूक्ष्म एकान्विति के द्वारा हमारी वस्तुनिष्ठ और वैचारिक कल्पनाशीलता को उसी विविधता के साथ संवेदित कर सके जिस तरह वास्तविक जीवन की वस्तुएँ हमारी व्यावहारिक गतिविधियों को संवेदित करती हैं। भ्रम की नहीं, यथार्थ की सृष्टि वास्तव में उसका लक्ष्य है।’
यहाँ देखा जा सकता है कि आधुनिकतावाद यथार्थ की अभिव्यक्ति के परम्परागत रिवाज़ों से इत्तफाक नहीं रखता। आधुनिकतावादी कवि के लिए कलम उस कैमरे की तरह नहीं है जो यथार्थ की सिर्फ निश्चेष्ट फोटो खींच सके। उसके लिए यथार्थ एक स्थानीय और सतही सत्ता नहीं है, बल्कि एक जीवित, गहन और सार्वजनीन ताकत है, जो अपने तार्किक गठन द्वारा हमें कायल करती है। बाद में उत्तर-आधुनिकतावाद ने यथार्थ की इसी गहनता, सार्वजनिकता और तार्किकता पर हमला करते हुए सतही, स्थानीय और अतार्किक यथार्थ की अभिव्यक्ति की पुरजोर वकालत की। सत्य की स्पष्टता और तार्किकता के पक्ष में आधुनिकतावाद ने जिन प्रतिमानों को गढ़ा था, उत्तर-आधुनिकतावाद ने उनको नकार कर सत्य की वस्तुनिष्ठ सत्ता के अस्तित्व से ही इन्कार किया। निस्सन्देह आधुनिकतावाद ने वस्तुनिष्ठता की मुखालफत करने वाली ताकतों से लगभग आधी सदी तक डट कर मुकाबला किया।
आधुनिकतावाद में सत्य के अमूर्त्तन के प्रति जो आग्रह मिलता है, वह तार्किकता और स्पष्टता के साथ-साथ सार्वजनिकता में अडिग विश्वास का परिणाम है। आधुनिकतावादी अमूर्त्तन कविता को कठिन बनाता है, इसलिए नहीं कि वह सत्य को अस्पष्ट और अतार्किक बनाता है। सत्य की अभिव्यक्ति में अस्पष्टता और अतार्किकता का हर सम्भव नकार ही आधुनिकतावादी कवि को अमूर्त्तन की तरफ ले जाता है। ऐसा अमूर्त्तन सत्य के बोध और संवेदन के परम्परागत उपकरणों में उलझाव उत्पन्न करके उनका अतिक्रमण करता है। वह अभिव्यक्ति और आस्वाद के सीमान्तों का अतिक्रमण करता है। कवि अमूर्त्त सत्य की अभिव्यक्ति के लिए जो बिम्ब रचता है, वह बहुत सघन और मूर्त्त होते हैं। वह हर फालतू शब्द का, हर उस विशेषण का परिहार करता है जो सत्य के किसी पहलू का उद्घाटन नहीं करता। भारतीय और पाश्चात्य दोनों परम्पराओं में कविता की श्रेष्ठता का एक पैमाना अमूर्त्त की मूर्त्त रूप में अभिव्यक्ति को भी माना गया है।
आधुनिकतावादी लेखक समय की सरल रेखा में विश्वास नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने कथानक और चरित्र में संगति का कभी समर्थन नहीं किया। कथानक के विकास में वे ‘कारण-कार्य’ की व्याख्या से सन्तुष्ट नहीं थे। इसलिए वे आख्यान के स्थान पर अमूर्त्तन पर जोर देते थे। हिन्दी आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार ‘आधुनिक कला अपने उद्देश्य को, या कहें गन्तव्य को पहले से ही निश्चित नहीं करना चाहती। उद्देश्य पहले से ही जान लेने पर प्रक्रिया का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। एक अमेरिकन समीक्षक ने लिखा है कि न्यूयार्क के एक प्रख्यात और अग्रणी चित्रकार ने एक बार उससे कहा– “ ‘क’ (कोई विशिष्ट चित्रकार) आधुनिक नहीं है। वह रेखाचित्रों के आधार पर चित्र बनाता है। वह रिनेसां युग का है।” रेखाचित्र से चित्र बनाने को अनाधुनिक इसीलिए कहा गया क्योंकि रेखाचित्र पूर्ण कर लेने पर उसका गन्तव्य एक बार निश्चित हो जाता है। फिर दुबारा फलक पर उसकी अनुकृति या उसके आधार पर बना हुआ चित्र प्रामाणिक नहीं होगा, क्योंकि कलात्मक प्रक्रिया एक बार जब सम्पूर्ण हो जाती है तो उसे दोहराया नहीं जा सकता। इसलिए आधुनिकतावादी लेखन में अलगाव और अनिश्चितता बनी रहती है और रहनी भी चाहिए। कथानक और चरित्र दोनों अनिश्चित रहे, तभी रचना आधुनिकतावाद की कसौटी पर खरी उतरेगी।
- आधुनिकतावाद की सीमाएँ और सामर्थ्य
आधुनिकतावाद के बारे में अक्सर कहा जाता है कि वह कला को राजनीति और समाज से स्वायत्त सत्ता के रूप में देखता है। शीत युद्ध के दौर में सोवियत संघ की शासकीय विचारधारा ने आधुनिकतावाद को कला की जनविरोधी और पतनशील प्रवृत्ति के रूप में व्याख्यायित किया। इस दृष्टिकोण की सैद्धान्तिकी को विकसित करने का सर्वाधिक श्रेय जॉर्ज लुकॉच को जाता है। लुकॉच के प्रेक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और जनवादी अन्तर्दृष्टियों से भरपूर हैं, मगर ये प्रेक्षण आधुनिकतावाद की एकांगी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं (यहाँ यह याद दिलाए जाने की जरूरत है कि फासीवाद की भयावहता का प्रामाणिक चित्रण करके उसका शिद्दत से विरोध करने वाली पाब्लो पिकासो की कलाकृति ‘गुएर्निका’ आधुनिकतावादी रचना है, जो अपनी राजनीतिक पक्षधरता के लिए इतिहास में अमर है)। बाद में थिओडोर अडोर्नो, वाल्टर बेन्जामिन आदि मार्क्सवादी आलोचकों ने आधुनिकतावाद के समावेशी चरित्र की सुसंगत व्याख्या की और आधुनिकतावादी कला का न्यायपूर्ण विवेचन करने की कोशिश की। यह सही है कि आधुनिकतावाद कला और संस्कृति के भीतर उपजा आन्दोलन था, मगर तत्कालीन राजनीति से इसके गहरे सम्बन्ध रहे। यूरोप और अमेरिका की उदारवादी राजनीतिक सोच वाले कवियों और वामपन्थी राजनीति की ओर झुकाव रखने वाले लेखकों का आधुनिकतावाद के साथ जीवन्त रिश्ता था ही, फासीवादी राजनीतिक चेतना सम्पन्न लेखकों ने भी आधुनिकतावाद से सघन रिश्ता कायम किया। एज़रा पाउण्ड जैसे कवि को तो अपनी फासीवादी शिक्षाओं के चलते जेल की सज़ा काटनी पड़ी थी। आधुनिकतावाद अपने आप में राजनीतिक रूप से सकारात्मक या नकारात्मक भूमिका नहीं निभाता। यह निर्भर करता है कि किस राजनीतिक चेतना से सम्पन्न कलाकार द्वारा उसे व्यवहृत किया गया है। ‘हाई-मॉडर्निस्ट’ कवियों में ईलियट और ऑडेन ने ईसाईयत पर आधारित राजनीतिक दृष्टिकोण की वकालत की और यीट्स एवं अज्ञेय ने अराजनीतिक किस्म के रहस्यवाद की प्रतिष्ठा की तो ब्रेख्त, अरांगो, एलुआर, शमशेर आदि कवियों का राजनीतिक दृष्टिकोण मार्क्सवादी रहा। अत: आधुनिकतावाद पर कोई भी अन्तिम निर्णय देने से पहले उसके समावेशी चरित्र को ध्यान में रखना होगा।
- निष्कर्ष
आधुनिकतावाद ने जीव विज्ञान से लेकर काल्पनिक चरित्र के विकास और फिल्म निर्माण तक हर चीज़ में अनिरन्तरता और अस्वीकार्य निर्विघ्न परिवर्तन को स्वीकार किया। इसने साहित्य एवं कला के सरल यथार्थवाद में विघ्न, अस्वीकृति या उसे निकाल बाहर करने की और संगीत में रागिनी को अस्वीकृत करने या नाटकीय ढंग से इसमें फेरबदल करने को मंजूरी दी। इसने अभिव्यक्ति के नए धरातलों को तोड़ने के प्रयास बड़े पैमाने पर किए। काव्यात्मक अभिव्यक्ति के वैशिष्ट्य को सही शब्दों का सही क्रम के रूप में पहचाना जाने लगा। लेकिन कविता का यह ‘सही’ हर कवि के लिए तय नहीं था। इस ‘सही’ को जानने, समझने और परखने के रास्ते हर कवि ने अपने अपने तरीके से तलाशे। कला के अन्य रूपों की तरह कविता भी प्रयोगधर्मिता की संवाहक बनी। आधुनिकतावादी कलाकार के लिए यथार्थ एक स्थानीय और सतही सत्ता नहीं है, बल्कि एक जीवित, गहन और सार्वजनीन ताकत है जो अपने तार्किक गठन द्वारा हमें कायल करती है।
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अतिरिक्त जानें
बीज शब्द
- आधुनिकता– आधुनिकता एक मूल्यबोध है। कोई प्राचीन या मध्यकालीन व्यक्ति भी अपने विचारों में आधुनिक हो सकता है।
- आधुनिकतावाद– आधुनिकतावाद आधुनिकता के सांस्कृतिक-पक्ष को द्योतित करता है। आधुनिकतावाद एक आन्दोलन है। व्याख्याकारों का मत है कि आधुनिकतावाद प्रयासपूर्वक अपना सम्बन्ध परम्परा से तोड़कर अभिव्यक्ति के मौलिक और नए रूपों की तलाश करता है। इसका सम्बन्ध उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी के प्रारम्भ के साहित्य और कला के अलग-अलग रूपों से है।
पुस्तकें
- आधुनिकता बोध और आधुनिकीकरण; रमेश कुन्तल मेघ, अक्षर प्रकाशन (प्रा) लिमिटेड, दिल्ली.
- हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1,2, प्रधान सम्पादक, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी.
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- Cosequences of Modernity, Anthony Giddnes, Polity Press, Cambridge.
- The Age of Capital : 1848-1875, Eric Hobsbawm, Hachette, UK,
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वेब लिंक्स
- http://berkleycenter.georgetown.edu/
- https://www.youtube.com/watch?v=m95ck7A2Ooc
- https://www.youtube.com/watch?v=PqjrpyAd4Z8
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- https://books.google.co.in/books?id=A7lmwcWs77QC&printsec=frontcover&source=gbs_ge_summary_r&cad=0#v=onepage&q&f=false