31 अडोर्नो की साहित्य दृष्टि

विनोद शाही

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई  के अध्ययन के उपरान्त आप

  • अडोर्नो की दृष्टि में साहित्य का परिचय जान सकेंगे।
  • अडोर्नो की साहित्य-दृष्टि के निर्माण की सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियाँ  समझ सकेंगे।
  • अडोर्नो की साहित्य-दृष्टि की प्रमुख अवधारणाओं से रू-ब-रू हो सकेंगे।
  • साहित्य के सन्दर्भ में अन्तर्द्वन्द्वात्मकता जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

    थ्योडोर डब्ल्यू. अडोर्नो (1903-1969) मूलतः एक समाजशास्‍त्री थे। पर दर्शन से जुड़े सवालों व मीमांसाओं से जुड़े होने के कारण उनका समाजशास्‍त्र ‘विशुद्ध समाजशास्‍त्र’ नहीं था। हालाँकि उन्होंने समाजशास्‍त्र की अनुशासनगत जरूरतों के तहत यह महसूस किया था कि दार्शनिक धारणाओं की मदद से विकसित समाजशास्‍त्र ऐसा ‘अमूर्त क्षेत्र’ है, जिसे ‘तथ्यों व आँकड़ों’ से प्रमाणित करने पर ही स्थापित किया जा सकता है। तथापि उनकी अपनी रुचि चूँकि दर्शन में थी, इसलिए उनके कार्य को ‘समाजशास्‍त्रीय दर्शन’ का नाम भी दिया जाता है। परन्तु अडोर्नो की बहुमुखी प्रतिभा यहीं तक सीमित नहीं थी, वे अपने इस ‘समाजशास्‍त्रीय दर्शन’ से प्राप्‍त  दृष्टियों की मदद से अनेक ज्ञानानुशासनों के मौलिक विकास की ओर बढे़। ये क्षेत्र थे – संस्कृति, मीडिया, संगीत, सौन्दर्यशास्‍त्र और साहित्य।

 

अडोर्नो को मूलतः साहित्य-चिन्तक या आलोचक नहीं कहा जा सकता। साहित्य की बाबत बात करने के लिए वे सौन्दर्यशास्‍त्र को आधार बनाते थे। संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। संगीत के क्षेत्र में मौलिक कार्य करते हुए वे मीडिया की दुनिया से जुड़े और उसके बाजार की चुनौतियों को देखते हुए जो धारणाएँ बनाईं, वे ही उनकी ‘संस्कृति-विमर्श’ की जमीन हैं। आगे चलकर इसी संस्कृति-विमर्श के कारण वे पूरी दुनिया के चिन्तकों-दार्शनिकों के बीच चर्चित हुए। अपनी चर्चित धारणा ‘संस्कृति-उद्योग’ (कल्चर इण्डस्ट्री) पर विचार करते हुए अडोर्नो ने  संस्कृति की व्याख्या के लिए समाजशास्‍त्र व दर्शन की ओर रुख किया।

 

दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने कार्लमार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की अनेक आधारभूत धारणाओं को चुनौती दी। फिर वे खुद को एक अन्य दार्शनिक “होर्खामर” के करीब पाते हुए, अपनी मौलिक दार्शनिक दृष्टि को नए नाम से प्रस्तुत किया – ‘निषेधमूलक द्वन्द्वात्मक’ (नेगेटिव डायलेक्टिक्स)। अडोर्नो की साहित्य-दृष्टि को समझने के लिए उनकी इस पूरी चिन्तन-यात्रा को सामने रखना होगा।

 

साहित्य कि व्याख्या के लिए अडोर्नो ने अपनी इस स्वरूपतः अन्तरानुशासनात्मक दृष्टि को आधार बनाया। साहित्य उनके लिए सौन्दर्यशास्‍त्र, मीडिया, संस्कृति, समाजशास्‍त्र और दर्शन सभी से सम्बन्ध रखने वाली वस्तु थी। अतः उसकी व्यख्या के लिए इन सभी का उपयोग जरूरी है।

  1. अडोर्नो की दृष्टि में
  • साहित्य व्यापक संस्कृति का एक जरुरी अंग है।
  • अन्य सांस्कृतिक उत्पादों की तरह साहित्य एक सृजन-उत्पाद है।
  • अन्य सांस्कृतिक उत्पादों की तरह, साहित्यिक कृतियाँ भी ‘संस्कृति-उद्योग की आयात-वस्तुएँ’ हैं।
  • इन उत्पाद-आयातों का निर्माण, साहित्य की अपनी परम्पराओं के भीतर न होकर, सामाजिक जरूरतों के दबाव से होता है। ऐसा दबाव समाजशास्‍त्रीय अन्तःक्रियाएँ पैदा करती हैं।
  • समाजशास्‍त्रीय अन्तःक्रियाओं के दबाव से पैदा हुए इस उत्पाद साहित्य की अन्तर्वस्तु भी सामाजिक होती है।
  • सामाजिक अन्तर्वस्तु वाले सांस्कृतिक-उत्पाद के रूप में साहित्य की व्याख्या भी एक ‘कृति-आधारित सामाजशास्‍त्रीय इकाई’ की तरह की जानी चाहिए।

    उल्लिखित छह धारणाओं को मिलाकर सार रूप में अडोर्नो की दृष्टि में ‘साहित्य क्या है?’ का उत्तर देना चाहें, तो कह सकते हैं कि साहित्य एक तरह से ‘समान्तर’ या ‘अभ्यन्तरित’ समाज ही है।

  1. अडोर्नो की साहित्य-दृष्टि के निर्माण की सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियाँ

   अडोर्नो की साहित्यिक धारणाओं का जन्म व विकास उस दौर में हुआ, जब जर्मनी दो विश्‍वयुद्धों की विभीषिका के महानायक के रूप में उभरा और फिर परास्त हुआ। उत्तरपूँजी की पतनशीलता से उपजे युद्धोन्माद और फासीवाद ने आधुनिकता के विकास के साथ उपजने वाले अमानवीय रूपों को भी मानव-जाति के सामने प्रकट कर दिया। आधुनिकता, पुनर्जागरण और वैज्ञानिक विकास से अगर मानवजाति को प्रजातन्त्र व समाजवाद की ओर आगे बढ़ने की राह खोलने में मदद मिली, तो यूरोप ने यह भी देखा कि विज्ञान से जुड़ा अन्धयन्त्रवाद व अन्धपूँजीतन्त्र किस तरह फासीवाद, औपनिवेशिक लूट और पाशविक प्रतिस्पर्धा तक ले जा रहा था। तब अडोर्नो, मेक्स वेवर की ‘पुनर्जागरण से मोहभंग’ की धारणाओं से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने खुद अपनी आरम्भिक कृतियों में ‘पुनर्जागरण की द्वन्द्वात्मकता’ को व्याख्यायित किया। आधुनिकता, विज्ञान और पुनर्जागरण को इस द्वन्द्वात्मक अन्तस्संरचना से उनकी संस्कृति व साहित्य सम्बन्धी धारणाओं का जन्म हुआ।

 

अडोर्नो का सम्बन्ध जर्मनी में बेहद सक्रिय नव-वाम (न्यू लेफ्ट) चिन्तकों से था। संस्कृति और साहित्य के सवालों पर ये चिन्तक मार्क्सवादी तरीके से सोचते थे, परन्तु हालात की जटिलताओं को देखते हुए वे इस चिन्तनधारा के सरलीकरणों से भी सहमत नहीं थे। साहित्य और संस्कृति को सामाजिक यथार्थ का ही एक उत्पाद मानने के पीछे इसी चिन्तनधारा का असर था। इसकी मदद से वे चाहते थे कि साहित्य और संस्कृति के उत्पादों को ‘सामाजिक रूपान्तर’ के लिए आधार-सामग्री की तरह इस्तेमाल करके समाजवाद की ओर हो सकने वाले सम्भावित विकास की रफ़्तार को तेज किया जाए। परन्तु यहाँ हालात की जटिलताएँ उनके सामने व्याख्या की चुनौतियाँ पेश कर रहीं थीं– जिनसे साहित्य के सरोकारों और समाजवादी लक्ष्यों की पूर्ति लगभग असम्भव होती नजर आती थी। इन चुनौतियों को समझना जरूरी है, तभी हम समझ सकते हैं कि वाम-चिन्तन से यह ‘फ्रेंकफर्तियन नव-वाम चिन्तनधारा’ अलग क्यों है?

 

उस दौर की संस्कृति व साहित्य की मुख्य चुनौती थी कि साम्राज्यवादी औद्योगिक पूँजीवाद ने ‘संस्कृति का बाज़ार’ खड़ा कर लिया था। साथ ही उस पर काबिज अमानवीय सत्ता-रूपों ने इस बाजार का इस्तेमाल अपने हित में करना आरम्भ कर दिया था। ये सत्ता-रूप थे, औपनिवेशिक साम्राज्यवाद से उपजे सत्ता के फासीवादी या निरंकुश रूप, जो प्रजातन्त्र और समाजवाद के नाम पर या उनका चेहरा लगाकर, लोकचित्र को अपने ‘संस्कृति-प्रचारों’ से भ्रमित कर रहे थे। पूँजीवाद, क्रमशः व्यापारिक, औद्योगिक और उत्तर-औद्योगिक रूपों में विकास करता हुआ, अब इस लायक हो गया था, कि साहित्य और संस्कृति को अपने ‘यान्त्रिक पुनरुत्थान’ में बदल सके। इसे अडोर्नो ‘संस्कृति-उद्योग’ कहते थे। इससे हो यह रहा था कि समाज के समाजवादी रूपान्तर के सरोकारों-लक्ष्यों वाली चेतना के साथ लिखा साहित्य भी, संस्कृति-उद्योग को यान्त्रिक पुनरुत्थान में बदल कर, समाज को रूपान्तरित करने की इन्कलाबी सम्भावनाओं को खो देता था। ऐसा इसलिए होता था, क्योंकि संस्कृति-उद्योग का बाजार, वास्तविक इन्कलाबी चेतना पैदा करने की बजाय, एक ‘बाज़ारवादी छद्म अस्मिता’ को जन्म देने वाली चेतना उत्पन्‍न  करता है। इस रूप में उपस्थित समय की चुनौतियों का गहरा विश्‍लेषण करते हुए, अडोर्नो इस नतीजे पर पहुँचे कि साहित्य को हमें संस्कृति उद्योग के ऐसे उत्पाद के रूप में देखना चाहिए, जो हमें बाजार में ‘आयात वस्तु’ के रूप में उपलब्ध होता है।

 

इस आधार पर अडोर्नो ने साहित्य की व्याख्या ‘आयात-वस्तुओं’ के रूप में की। इसका अर्थ यह है कि हमें साहित्य को केवल इस रूप में ही नहीं देखना चाहिए कि उसमें ‘लेखक ने क्या कहा है?’ अपितु इस रूप में भी देखना चाहिए कि एक ‘आयात वस्तु’ में बदलने की प्रक्रिया में वह अन्तर्वस्तु किस रूप में ‘संस्कृति-उद्योग’ के उत्पाद के साँचों या मॉडलों’ में ढला है ? ऐसा देखने पर हम साहित्य के ‘भीतर’ समाज के वास्तविक तनावों व अन्तर्विरोधों को, कृतियों के अन्तर्विरोधों की शक्ल लेते हुए देख-दिखा सकते हैं।

 

दूसरी, बड़ी चुनौती आ रही थी कि आधुनिकतावादी साहित्य-चिन्तन से पूँजीवाद को महान प्रजातान्त्रिक क्रान्ति का आधार मानने वाले ये चिन्तक, इसे मानवजाति की वैज्ञानिक सोच के रूप में बड़ी अहमियत देते थे। वे इसे मानवजाति का परम्परा से होने वाली मुक्ति के रूप में देखते थे। उन्हें लगता था कि प्रजातान्त्रिक और वैज्ञानिक सोच ने ही यह मुमकिन बनाया था कि हर नागरिक को वह आजादी दी जा सकती है, जो उसे एक ‘अस्मिता’ या ‘व्यक्तित्व’ देगी, यहाँ तक तो बात ठीक थी। परन्तु वाम-चिन्तन में बहुत लोगों को शंका होती थी कि अस्मिता और व्यक्तित्व की आजादी को आधार बनाकर, वे लोग साहित्य और संस्कृति की जिस स्वायत्तता को उभारते हैं, वह उनका ‘छद्म-आदर्शवाद’ था। ऐसा कहने के पीछे ‘समाजशास्‍त्रीय यथार्थ’ यह था कि पूँजीवाद ऐसी अस्मिता, केवल उच्‍चवर्ग या उच्‍चमध्यवर्ग को ही दे पाता था। निम्‍नमध्यवर्ग तथा शेष जन-समुदायों को इससे उलटे एक ‘व्यक्तिहीन भीड़’ में बदल लिया जाता था।

 

बेशक यह एक चुनौती थी, पर अडोर्नो ने वाम-चिन्तकों के विरोध की परवाह किए बिना, इस सचाई को नहीं  नकारा कि साहित्य और संस्कृति के स्वायत्तता, अन्तर्विकास व मुक्ति का लक्षण है। वामपन्थी धारा से जुड़े उग्र विचारधारा वाले युवाओं और उनके छात्रों तक में, इस बात के लिए अडोर्नो का बहिष्कार हुआ था। परन्तु अडोर्नो ने अपने साहित्य-चिन्तन को बड़े व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया, जिसका प्रतिवाद मुमकिन नहीं था। वे साहित्य में स्वायत्तता को ख़ारिज किए बिना इस नतीजे पर पहुँचे थे कि संस्कृति-उद्योग की मदद से पूँजी व उत्तर-पूँजी का तन्त्र, साहित्य में भी एक छद्म-साहित्य को जन्म देता है जिससे स्वायत्तता भ्रामक हो जाती है।

  1. अडोर्नो की साहित्य-दृष्टि की मुख्य अवधारणाएँ

   कला वस्तु का यथार्थ : संस्कृति-उद्योग का उत्पाद

पहली बात साहित्य के एक उत्पाद-वस्तु होने की है। इस सन्दर्भ में यह बात समझने लायक है कि संस्कृति-उद्योग का उत्पाद होने के कारण, साहित्य अकेला नहीं है, जो सृजन से एक उत्पाद-वस्तु में बदल दिया गया है। वह संस्कृति के अन्य सभी रूपों में से– यानी संगीत, नृत्य, कला, स्थापत्य, शिल्प, मीडिया आदि में से एक है। अडोर्नो ने संस्कृति के इन सभी रूपों के एक उद्योग-उत्पाद में बदल दिए जाने की प्रक्रिया को  मुख्यतः आधुनिक कला, संगीत और साहित्य के सन्दर्भ में समझा और व्याख्यायित किया।

 

अडोर्नो स्वयं एक उच्‍चकोटि के संगीतकार थे। उन्होंने शास्‍त्रीय संगीत के अनेक पश्‍च‍िमी रागों को मौलिक रूप में पुनः रचा व विकसित किया था। उनकी निगाह में, संगीत मीडिया की उत्पाद-वस्तु की तरह, श्रोताओं की रुचियों के अनुरूप, रचा जा रहा था। इससे संगीत की ‘विशुद्धता’ या ‘मौलिक शास्‍त्रीय जमीन’ संकटग्रस्त हो रही थी। माँग के अनुसार संगीत के ‘लोकप्रिय’ रूपों को महत्त्व दिया जा रहा था, जो संगीत को ‘मिश्र’ या ‘संकर’ रूप प्रदान कर रहे थे। अडोर्नो के इन विवेचनों को आधार बना कर बाद में कुछ उत्तराधुनिक चिन्तकों ने कहा कि हमारे समय की यह ‘उत्तर-आधुनिक संस्कृति’, दरअसल एक ‘खिचड़ी-संस्कृति’ हो गई है।

 

अडोर्नो अपने विवेचन में संगीत, आधुनिक कला अथवा साहित्य के उत्पाद-वस्तु में बदल जाने की स्थिति को एक ‘मिश्र युगचेतना’ की भूमिका बनाने की बात अलग तरह से  समझाया। उन्होंने कहा कि यह रुचि-संकरता, केवल युगबोध की सामाजिक स्थिति भर ही है जो रुचियाँ बनाती व माँग पैदा करती है। अपितु वह गहरे में खुद कला-वस्तुओं के भीतर भी, उनकी अन्तर्वस्तु की तरह उतर जाती हैं।

 

अन्तर्द्वन्द्वात्मकता

कला वस्तुओं या उत्पादों में ‘अभ्यन्तरीकृत’ हुए संस्कृति-उद्योग के अन्तर्विरोध, साहित्य समेत सभी कलावस्तुओं को ‘अंतर्द्वन्द्वात्मक’ बनाते हैं। अडोर्नो की इस ‘अन्तर्द्वन्द्वात्मक’ धारणा को ठीक से समझने की जरूरत है। कुछ विद्वान् इसे ‘मार्क्सवाद का अन्तर्विकास’ मानते हैं, जबकि ‘उग्र मार्क्सवादी’ इसे मार्क्सवाद-विरोधी धारणाओं की सूची में रखना बेहतर समझते हैं। मार्क्सवाद के परम्परागत स्वीकृत ढाँचे में ‘साहित्य’ की व्याख्या भी, ‘समाज’ की तरह, अधिरचना सम्बन्धो के आधार पर की जाती है। सामाजिक अथवा राजनीतिक सम्बन्धों के स्वरूप को किसी ‘मुख्य अन्तर्विरोध’ के आधार पर व्याख्यायित किया जाता है। इस अन्तर्विरोध से विकास व रूपान्तर की दिशाओं को जोड़ा जाता है, फिर माना जाता है कि इससे सामाजिक रूपान्तर व विकास की जो दिशाएँ तय होती हैं; वे ही ‘संस्कृति’ आदि अधिरचनाओं की मूलभूमि या अन्तर्वस्तु होती है। यानि अधिरचना में भी ‘मुख्य अन्तर्विरोध’ की सबसे अहम् भूमिका रहती है और उसे किन्हीं अन्य तरह के ‘अन्तर्विरोधों’ की भूमि और परिणाम नहीं माना जा सकता।

 

अडोर्नो साहित्य, संगीत, कला आदि की उत्पाद-वस्तुओं में –यानी अधिरचना मानी जाने वाली संस्कृति में – एक तरह की ‘अन्तर्द्वन्द्वात्मकता’ देखते हैं। यहाँ समाज के मूल या मुख्य अन्तर्विरोध होते तो हैं, परन्तु ‘अभ्यन्तरीकृत’ रूप में वे, कलावस्तुओं के अपने ‘भीतरी संसार’ के अन्य अन्तर्विरोध की शक्ल में विकास करते हैं। इसे ही अडोर्नो साहित्य की ‘बहुलताधर्मी’ जमीन मानते हैं। यह बहुलता कैसे पैदा होती है और किन रूपों में देखी जा सकती है ? साहित्य समेत सभी कलावस्तुएँ सामाजिक अन्तर्विरोधों का अभ्यन्तरीकरण करती हैं और फिर उसे अपने ‘अन्तः स्वायत्त’ संसार का हिस्सा बना कर, अन्य अन्तर्विरोधों से जोड़ लेती हैं; इस प्रक्रिया में मुख्य अन्तर्विरोध को रूपान्तरित कर देती हैं।

 

सामाजिक उत्पाद है  लेखकीय उत्पाद

अभ्यन्तरीकरण होने या आत्मसात किए जाने के बाद, सामाजिक अन्तर्विरोध, साहित्यिक कृतियों व अन्य कलावस्तुओं में, जिस अन्तर्द्वन्द्वात्मक तरीके से नई शक्ल प्राप्‍त करता है, उसका आधार कलावस्तुओं की अन्तस्संरचना है। इसका मतलब हुआ कि ‘बाहरी यथार्थ’ साहित्यिक कृतियों का ‘भीतरी यथार्थ’ बनता जरूर है, पर कृति के भाषापाठ की जरूरतों के मुताबिक वह एक नई ही शक्ल ले लेता है।

 

अडोर्नो की निगाह में साहित्यिक कृतियाँ भी एक तरह की ‘वस्तु’ हैं। इसलिए वहाँ ‘लेखक’ और उसकी ‘सृजन-प्रक्रिया’ की परख कृति के ‘भाषापाठ’ के रूप में मौजूद ‘वस्तु’ के सन्दर्भ में ही होनी चाहिए। यानि लेखक (सब्जेक्ट), भाषापाठ (ऑब्जेक्ट) का हिस्सा होकर कृति की अन्तःद्वन्द्वात्मकता के एक रूप को जन्म देता है। इस तरह भाषापाठ में, लेखक एक सामाजिक-प्रकार्य करने वाला व्यक्ति भर हो जाता है। कृति की भाषिक अन्तस्संरचनाएँ ही, यह तय करती है कि वह प्रकृति हमें सामाजिक रूपान्तर की कौन-सी दिशा दिखाएगी। इस तरह भाषिक-अन्तस्संरचनाएँ, कृति के भीतरी संसार में, अपने तरीके से अन्तर्विरोधों का संचालन करती हैं यानी यह अन्तर्द्वन्द्वात्मकता दो तरह की हो जाती है–

  • सृजन प्रक्रिया के दौरान लेखक कृति की भाषिक अन्तस्संरचना के माध्यम से किए गए आत्मसातीकरण  के रूप में
  • बाहरी सामाजिक यथार्थ के अन्तर्विरोध के अभ्यन्तरीकरण को भीतरी भाषिक संसार की जरूरतों के मुताबिक संचालित करने के रूप में

   अस्मिता एवं छद्म अस्मिता उर्फ़ ‘उपभोक्ता रुचियों का मानकीकरण’

साहित्यिक कृतियों में  भाषापाठीय संसार का ‘भीतरी यथार्थ’ रचा जाता है – कृति के पाठ की जरूरत के मुताबिक वहाँ मौजूद ‘बिम्ब, पात्र, स्थितियाँ, वृत्त-समय और वातावरण’ ‘बाहरी यथार्थ’ के घटक, यानि उत्तर पूँजी से उपजी मानसिकताएँ, सत्ता-समीकरण, समूहों-जातियों-वर्गों में विभाजित मनुष्य, सामाजिक संस्थाएँ और विविध विचारधाराओं के अनुरूप चलने वाले रूपान्तर संघर्ष सब के सब वहाँ अंकित होते हैं। कृति में प्रवेश करता हुआ यह बाहरी यथार्थ, कृति के भाषापाठ की बिम्बगत-पात्रगत-स्थितिगत-परिणतिगत जरूरतों से संचालित होता है– वहाँ बाहरी यथार्थ के अन्तर्विरोधों का रूप भी बदलने लगता है।

 

अडोर्नो ने बाहरी यथार्थ के ‘मुख्य अन्तर्विरोध’ की व्याख्या करते हुए कहा कि पूँजी और उत्तर-पूँजी ने एक ऐसी उत्तर-आधुनिक दुनिया पैदा कर दी है, जिसमें समाजवादी इन्कलाब और रूपान्तर की सम्भावनाएँ अब अपनी ताकत खो चुकी हैं। इसका कारण है उत्तर-आधुनिक बाजार। इस बाजार ने संस्कृति को भी एक उद्योग बना दिया है। इससे ‘युग की मानसिकताओं का उत्पाद’ होने लगा है। सामाजिक विकास का लक्षण था कि मनुष्यों को अस्मिता और व्यक्तित्व मिलेगा; जिसका भविष्य में क्रान्तिकारी इस्तेमाल हो सकेगा; उसकी अब छद्म अस्मिताओं ने जगह ले ली है, उपभोक्ता बाजार द्वारा पैदा किए गए व प्रचारित स्थापित हो गए मानकीकरणों की व्यवस्था के द्वारा छद्म अस्मिताएँ पैदा होती हैं।

 

मानकीकरण का सिद्धान्त अडोर्नो की मौलिक देन है। बाजार अच्छे-बुरे, खरे-खोटे,श्रेष्ठ-निकृष्ट आदि के ‘मानक’ खड़े करता है। इसे ‘ब्राण्ड-मूल्य’ भी कहा जाता है। लोग, प्रचारवश, इन मानकों के आधार पर जीते व श्रेष्ठता के स्तरों की बाबत फैसले करते हैं। मानकीकरण की यह व्यवस्था, छद्म अस्मिताएँ पैदा करती हैं। अडोर्नो ने इसे  समझाया कि ‘लोगों को लगता है कि बाजार के सारे उत्पाद, ख़ास तौर पर उन्हीं के लिए बाजार में लाए गए हैं। इससे उन्हें ‘अस्मिता’ से युक्त होने का छद्म आभास होता है और वे इसी भ्रम की छवि के साथ जीने लगते हैं।

 

अब साहित्य के ‘भीतरी संसार’ में इस ‘बाहरी यथार्थ’ के अन्तर्विरोधों की शक्ल बदल जाने का मतलब समझते हैं। साहित्य में ‘अस्मिताएँ’ दोनों तरह की होती हैं– वास्तविक भी, छद्म भी। कहानियों-उपन्यासों-कविताओं में वास्तविक अस्मिताएँ, युगछाया की तरह मौजूद छद्म अस्मिताओं के साथ संघर्ष करती हैं। ये संघर्ष ‘अवास्तविक’ नहीं होते। बाहरी यथार्थ में भी छद्म अस्मिताओं का विरोध करने वाली चेतना मौजूद देखी जा सकती है पर वह व्यक्ति-सत्य तो हो सकता है, युग-सत्य नहीं। इसलिए बहुत से नए संघर्ष ऐसे अन्तर्विरोधों को जन्म देने की सम्भावना के साथ बाहरी यथार्थ में रहते हैं, जो साहित्य में, भाषापाठ की ‘परिणतियों की जरूरतों’  द्वारा तर्कसंगत हो कर, मुखर हो सकते हैं।

 

कलावस्तु (और साहित्य भी) अपने युग के संस्कृति-उद्योग का उत्पाद होने के कारण, अपनी परिणति में ज्यादा क्रान्तिकारी नहीं हो पाता है। वहाँ बाहरी यथार्थ के दबाव, ‘भाषापाठों के अलग तरह के मानकीकरणों’ की व्यवस्था खड़ी कर लेते हैं। किस तरह का साहित्य श्रेष्ठ है और कैसा साहित्य बिक सकता है? इस आधार को अकादमिक मानकीकरण प्रभावित करते हैं। इस तरह साहित्य की कृतियों की अस्मिताएँ भी, अलग तरह की छद्म (या अकादमिक) अस्मिताओं के साँचों में ढलने लगती है।

 

स्वायत्तता एवं छद्म स्वायत्तता

बाजार व अकादमिक संस्थाओं के मानकीकरणों के दबाव के कारण, साहित्यिक कृतियों की स्वायत्तता का सवाल भी एक चुनौती बन जाता है। हालाँकि अडोर्नो स्वायत्तता के पक्ष में हैं, क्योंकि तभी साहित्य खुद अपने विकास का रास्ता चुनने के लायक हो सकता है।

 

साथ ही अडोर्नो यह भी देखते-दिखाते हैं कि किस प्रकार बाजार व अकादमिक संस्थाएँ, साहित्य व अन्य कलावस्तुओं को स्वायत्त बनाने का केवल दिखावा करती हैं। बाजार व अकादमिक क्षेत्रों के मानकीकरणों की व्यवस्था का तन्त्रजाल इतना मजबूत होता है कि वह परोक्ष रूप में खुद तय करता है कि कैसा साहित्य लिखा जाना चाहिए? इससे साहित्य, छद्म-स्वायत्तता की चुनौती से घिरा, उससे जूझता रहता है।

 

यथास्थिति और दायित्वबोध

छद्म अस्मिताएँ व स्वायत्तता को बाजार व अकादमिक क्षेत्र, इसलिए मानकीकृत करते हैं ताकि साहित्य खुद यह तय न कर सके कि उसका ‘दायित्व’ क्या है? जितनी स्वायत्तता बढ़ेगी, उतना ही साहित्य दायित्व-बोध से युक्त होगा। पर सत्तातंत्र द्वारा यथास्थिति बनाए रखने के लिए छद्म स्वायत्तता पैदा करने वाले मानकीकरण प्रचारित किए जाते हैं।

 

निषेधमूलक द्वन्द्वात्मकता : आत्म-संरक्षण, अनुकरण और सहमतिवाद

अरस्तू के काव्यशास्‍त्र के ‘अनुकरण’ की अवधारणा को समाजशास्‍त्रीय रूप में पुनः विकसित करते हुए अडोर्नो इस नतीजे पर पहुँचे कि सभी समाजों में एक ख़ास तरह का ढाँचागत आत्म-संरक्षण भाव होता है। इसलिए समाजों की व्यवहार-पद्धतियों को ‘अनुकरणात्मक ढाँचे’ से जोड़ा जा सका। ‘व्यवस्था’ स्थापित करने वाला जो सामाजिक-तन्त्र होता है, लोगों द्वारा उसका अनुकरण किया जाता है। इसका कारण है उनमें मौजूद आत्म-संरक्षण की मूल-प्रवृत्ति। उत्तर-आधुनिक समाजों में यह प्रवृत्ति आज सत्ता के प्रति लोगों की सहमतियों के ढाँचे में नजर आती है।

 

यह सहमति-तन्त्र ही है, जो उत्तर-आधुनिक समाजों में, मानकीकरणों की व्यवस्था स्थापित कर छद्म अस्मिताओं व छद्म स्वायत्तताओं द्वारा समाज को हाँकता है। अडोर्नो का यह मानना है कि यह मूलप्रवृत्तिगत सहमतिवाद, उत्तराधुनिक समाजों में, निषेधमूलक द्वन्द्वात्मकता का जनक है। इसकी मौजूदगी के कारण ही अब भावी समाजवादी-साम्यवादी कोटियों के क्रान्तिकारी रूपान्तर, अब असम्भव हो गए हैं। तथापि साहित्य के भीतर यह सृजनधर्मी गुंजाईश हमेशा बनी रहती है कि वह कृतिपाठों की परिणतिगत जरूरतों के मुताबिक, निषेधमूलक द्वन्द्वात्मकता से उबरने के लिए सम्भावनाओं को मूर्त्त रूप दे सके।

 

अडोर्नो यहाँ साहित्य के सौन्दर्यशास्‍त्र की भूमिका को रेखांकित करते हैं। उनकी राय में साहित्य में ‘अचेतन संसार’ के उद्बोधन की बड़ी सम्भावनाएँ होती हैं। वहाँ से वह, ऐसे इतिहासगत आधार खोज सकता है, जो प्रतीक-रूप में ‘निषेधमूलकता’ के साथ एक नए अन्तर्विरोधात्मक रिश्ता बना सके। इस तरह साहित्य, अपने कृतिपाठों के मुताबिक, भिन्‍न अन्तर्विरोधों के उभार सकने की सम्भावनाओं को प्रकट कर सकता है।

 

सौन्दर्यवाद और यथास्थितिवादी सहमतिवाद

साहित्य के सौन्दर्यबोध की अडोर्नो की व्याख्याओं का आधार उनकी संगीत व आधुनिक कला की समझ है। गिरजाघरों के संगीत में उन्हें लोगों के अचेतन के उद्बोधन की अपार क्षमता नजर आती थी। परन्तु मीडिया  द्वारा जिस संगीत की माँग सामने आती थी, यह युगगत मानकीकरणों पर आधारित छद्म-चेतनाओं को जन्म देने का प्रयास कर रहा था। साहित्य में भी उन्होंने इन्हीं दोनों तरह की सौन्दर्यबोधात्मक अभिरुचियों व अभिव्यक्तियों को देखा। उन्हें लगता है कि साहित्य को पर्याप्‍त स्वायत्तता इसलिए नहीं दी जाती, क्योंकि सत्ता-बाजार-उद्योग की रुचि लोगों को सहमतिवादी  बनाए रखने में अधिक होती है।

 

इस तरह साहित्य में इस बुनियादी सौन्दर्यबोधात्मक अन्तर्विरोध की सृजन अभिव्यक्ति भी दिखाई देती है।

 

बहुलताधर्मी द्वन्द्वात्मकता

साहित्य में जो भाषापाठीय भीतरी संसार की परिणतिगत जरूरतें प्रकट होती हैं– उन्हें समाधान तक ले जाने के लिए साहित्य ‘निषेधमूलक द्वन्द्वात्मकता’ को, बहुलताधर्मी द्वन्द्वात्मकता में बदल देता है।

 

अन्तर्वस्तु और सत्य-अन्तर्वस्तु

बहुलताधर्मी द्वन्द्वात्मकता की अभिव्यक्ति, साहित्य या कलावस्तुओं की सृजनधर्मिता की कसौटी है। इससे हमें साहित्य के भीतरी यथार्थ की जटिलता का पता चलता है। साहित्य का जटिल अन्तः यथार्थ, साहित्य की अन्तर्वस्तु होता है। साहित्य की अन्तर्वस्तु की व्याख्या – उन परिणितियों के आधार पर होती है , जिनकी ओर यह अन्तर्वस्तु आगे बढ़ती है।

 

अन्तर्वस्तु के ‘आगे बढ़ने की दिशाएँ’ उसके भीतरी यथार्थ के अन्तर्विरोधों का स्वरूप बताती है और परिणतियाँ  बताती हैं कि कृतियाँ अपने अन्तर्विरोध का रूपान्तर कैसे करती हैं? अन्तर्विरोधों का रूपान्तर, साहित्यिक कृतियों की ‘सत्य-अन्तर्वस्तु’ होता है।

 

यानि जिसे हम साहित्य कहते हैं, वह सामाजिक यथार्थ की कृति पाठीय अन्तर्वस्तु का सत्य-अन्तर्वस्तु में बदलना है। परन्तु वह किसी राजनीतिक विचारधारात्मक कोटि का समन्वय-संश्‍लेष नहीं होता।

  1. निष्कर्ष

    अडोर्नो मूलतः एक समाजशास्‍त्री माने जाते हैं। समाजशास्‍त्र के अलावा उन्होंने कला, साहित्य, संगीत और मीडिया पर भी अपने विचार रखे हैं। वे स्वयं उच्‍चकोटि के संगीतकार थे। उन्होंने शास्‍त्रीय संगीत के अनेक पश्‍च‍िमी रागों को मौलिक रूप में पुनः रचा व विकसित किया था। परन्तु संगीत, उनकी निगाह में, मीडिया की उत्पाद-वस्तु की तरह, श्रोताओं की रुचियों व माँगों के अनुरूप, रचा जा रहा था। इससे संगीत की ‘विशुद्धता’ या ‘मौलिक शास्‍त्रीय जमीन’ संकटग्रस्त हो रही थी। माँग के अनुसार संगीत के ‘लोकप्रिय’ रूपों को महत्त्व दिया जा रहा था, जो संगीत को ‘मिश्र’ रूप या ‘संकर’ रूप प्रदान कर रहे थे। अडोर्नो के इन विवेचनों को आधार बना कर बाद में कुछ उत्तर-आधुनिक चिन्तकों ने कहा कि हमारे समय की यह ‘उत्तर-आधुनिक संस्कृति’, दरअसल एक ‘खिचड़ी-संस्कृति’ हो गई है।

you can view video on अडोर्नो की साहित्य दृष्टि

 

अतिरिक्त जानें

 बीज शब्द

  • संस्कृति उद्योग : अडोर्नो के अनुसार संस्कृति अब उद्योग में परिवर्तित हो चुकी है। उसकी प्रत्येक रचना किसी भी व्यापारिक उत्पाद की तरह एक उत्पाद है, जिसे ख़रीदा और बेचा जाता है।
  • फ्रैंकफर्ट स्कूल : जर्मनी के फ्रैंकफर्ट शहर में गोयथे विश्वविद्यालय में समाजविज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत नव-वामपंथियों की संस्था।

    पुस्तकें

  1. संस्कृति उद्योग, टी. डब्ल्यू. अडोर्नो, (अनुवाद : राम कवीन्द्र सिंह), ग्रन्थ शिल्पी, दिल्ली।
  2. साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, मैनेजर पाण्डेय, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, हरियाणा।
  3. Adorno, Martin Jay, Harvard University Press, Cambridge, Mass.
  4. Culture Industry, T.W. Adorno, Routledge, London.
  5. Adorno and the Ends of Philosophy, Andrew Bowie, Polity, Cambridge, UK.
  6. Dialectic of enlightenment, T.W. Adorno, Verso, London.

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