15 साहित्य की दलित दृष्टि

एस. डी. कपूर

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन उपरान्त आप–

  • साहित्य की दलित दृष्टि की मूल अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
  • दलित आन्दोलन की उत्पत्ति के विषय में जान पाएँगे।
  • बाबा साहेब अम्बेडकर  के दलित-चिन्तन से अवगत हो सकेंगे।
  • साहित्य के माध्यम से सिद्धान्त रूप में दलित आन्दोलन का विकास-क्रम जान पाएँगे।
  • दलित विमर्शकारों की प्रमुख अवधारणाओं को जान पाएँगे।

    2.   प्रस्तावना

 

साहित्यिक विधाओं और समाज विज्ञान के अनुशासनों में दलित विमर्श अपनी जगह बना रहा है। यहाँ हम मुख्य रूप से साहित्य की दलित-दृष्टि पर विचार करेंगे। हिन्दी में अभी भी साहित्य की दलित दृष्टि का सैद्धान्तिक पक्ष पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुआ है। ऐसे में हमें यह जान लेने की आवश्यकता और अधिक हो जाती है कि साहित्य की दलित दृष्टि की मूल अवधारणाएँ क्या हैं? हिन्दी साहित्य में इस दृष्टि के आने से क्या परिवर्तन हुए?

  1. साहित्य की दलित दृष्टि की अवधारणा

   दलित विमर्श वर्तमान समय की आलोचना-दृष्टियों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यह शुद्ध साहित्यिक सिद्धान्त नहीं है। इस सिद्धान्त का सम्बन्ध दलित समाज के सामाजिक-संघर्ष और आन्दोलन से जुड़ा हुआ है। हिन्दी साहित्य में दलित-विमर्श बाद में आया। पहले-पहल यह भारत की अन्य भाषाओं में विकसित हुआ। सबसे पहले इसकी शुरुआत मराठी से हुई। इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला यह कि महाराष्ट्र में दलितों का शोषण चरम पर था। दया पवार की रचना अछूत इसका प्रमाण है। दूसरा महत्त्‍वपूर्ण कारण महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले और सावित्री फुले का कार्य क्षेत्र रहा। बाबा साहेब अम्बेडकर भी महाराष्ट्र से ही जुड़े थे।

 

साहित्य की दलित-दृष्टि की समझ बनाने के लिए भारतीय समाज में दलितों की स्थिति को समझना जरूरी है; उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जानना जरूरी है इसके साथ ही अहम प्रश्‍न है कि वे कौन हैं? किस धर्म से सम्बन्धित हैं? वे हिन्दू हैं या नहीं? यदि वे हिन्दू हैं, जैसा कि गाँधी जी मानते थे, तब यह प्रश्‍न उठता है कि उनको उन सब चीजों से क्‍यों वंचित रखा गया, जो एक सवर्ण हिन्दू को स्वतः प्राप्‍त हैं? यदि वे हिन्दू नहीं हैं तो वे किस धर्म से सम्बन्धित हैं? बाबा साहेब अम्बेडकर इस प्रश्‍न से जिन्दगी भर जूझते रहे और अन्त में उन्होंने हिन्दू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर का कहना था कि हिन्दू धर्म लोकतान्त्रिक नहीं है। नरेन्द्र जाधव ने अपनी पुस्तक ‘Outcaste’ में इस संघर्ष पर गम्‍भीरता से वि‍चार कि‍या। साहित्य सम्‍बन्‍धी दलित-दृष्टि उनके सामाजिक संघर्ष और सामाजिक आन्दोलन से जुड़ी है।

 

दलित विमर्शकार मानते हैं कि हजारो वर्ष तक समाज ने उनको अमानवीय जीवन जीने पर मजबूर किया। पर समाज-व्यवस्था ने अपनी इस गलती को कभी स्वीकार नहीं किया। आज भी उन्हें समाज में पूरी तरह वह दर्जा प्राप्‍त नहीं है जैसा एक सवर्ण को प्राप्‍त है। भारत में दलितों ने अपनी दासता को अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था। इसका कारण था कि कई पीढ़ियों से होता हुआ यह संस्कार उनके स्वभाव का हिस्सा बन गया था। उनके अन्दर की विद्रोही चेतना खत्म हो गई थी। उन्हें सवर्ण मानसिकता ने इतना संवेदनहीन बना दिया कि वे इसके खिलाफ अपनी सोच में विद्रोह नहीं करते थे। हिन्दू धर्म एक तरफ कहता है कि सब भगवान की सन्‍तान हैं। दूसरी ओर सामाजिक व्यवहार में उनसे दूरी बनाए रखते हैं। यह बात भारत के सभी धर्मों में थोड़ी बहुत लागू होती है। अपने सिद्धान्त और व्यवहार में प्रत्येक धर्म में यह कमी मिलती है।

 

इस सामाजिक बनावट के लिए मिथक गढ़े जाते हैं। इन मिथकों से दलित-जीवन उनमें बाँध दिया जाता है। उन्हें कहा जाता है कि वे अपने कर्मों का फल भुगत रहे हैं। यह भी कि इस जन्म में वे कुछ गलत नहीं करेंगे तो उनका अगला जन्म सफल होगा। समाज में बराबरी का स्थान पाने के लिए समाज में रूढ़ि बन चुके इन मिथकों को तोड़ना होगा। साहित्य की दलित-दृष्टि यही प्रयास करती है।

  1. दलित आन्दोलन

   व्यवस्था के खिलाफ अतीत में भी आवाज उठाई गई है। लेकिन वह आवाज एक नैतिक स्वर पर उठाई गई, जिसमें शोषकों के हृदय परिवर्तन पर जोर दिया गया था। हृदय परिवर्तन की बात गाँधी जी भी करते हैं। लेकिन यह परिवर्तन सीमित है, क्योंकि यह व्यवस्था को बदलने वाला नहीं है। इसीलिए बाबा साहेब अम्बेडकर  नैतिक चेतना और राजनीतिक चेतना में फर्क करते हैं। विश्‍व इतिहास के हवाले से वे कहते हैं कि किसी भी राजनीतिक विस्तार से पहले धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन जरूरी है। मतलब सबसे पहले दिमाग और आत्मा की मुक्ति जरूरी है। इस तरह सामाजिक और धार्मिक चेतना नैतिक चेतना का आधार बनती है। बाबा साहेब अम्बेडकर  का मानना है कि पहले जितनी आवाजें जाति-व्यवस्था के खिलाफ उठीं, वे दलितों को समाज में बराबरी का स्थान दिला सकती हैं। इसके लिए जरूरी है कि दलितों की राजनीतिक चेतना भी जागृत हो। यह राजनीतिक स्तर पर ही सम्भव है। समाज की बनावट बदले बि‍ना उनको वह स्थान नहीं मिल सकता। स्वतन्त्रता के बाद संविधान में तो उनको बराबरी का दर्जा मिल गया लेकिन उसके साथ न तो भाईचारा आया और न ही सही मायने में आजादी। यह बात बाबा साहेब अम्बेडकर ने संविधान सभा में कही थी।

 

दलितों में राजनीतिक चेतना की शुरुआत ज्योतिराव फुले से मान सकते हैं। इस चेतना का विकास नारायण गुरु और पेरियार के यहाँ अधिक फली-फूली। लेकिन सही मायने में इसको राजनीतिक रूप बाबा साहेब अम्बेडकर ने ही दिया। बाबा साहेब अम्बेडकर का मानना था कि दलितों की यह नैतिक चेतना बढ़कर जब तक राजनीतिक चेतना तक नहीं पहुँचती, कोई भी बदलाव सम्भव नहीं है। उन्होंने दलितों को प्रेरित करते हुए कहा कि वे संगठित हों। अपने आप को शिक्षित करें। सवर्णवादी मानसिकता के खिलाफ संघर्ष करें। अधिकार लिए जाते हैं, इनायत से नहीं मिलते

 

मनुस्मृति में समाज को वर्णों में बाँट दिया गया है। लेकिन समाज में सिर्फ चार वर्ण ही नहीं हैं। व्यवहार रूप में भारतीय समाज कई जातियों और उप-जातियों में बँटा हुआ है। जाति-व्यवस्था बहुत ही जटिल है।

 

माना जाता है कि पहले समाज में वर्णों का विभाजन श्रम के आधार पर होता था। बाद में यह विभाजन जन्म के आधार पर होने लगा। बाबा साहेब अम्बेडकर कहते हैं कि सबसे निन्दनीय बात यह है कि इसमें सब से नीचे तबकों को अछूत करार दे दिया गया। उनकी राय में गुलाम भी हमेशा एक जैसा जीवन व्यतीत नहीं करते। वे आजाद भी हो सकते हैं। काले अमेरि‍कियों के साथ ऐसा ही हुआ। लेकिन ‘दलित अछूत पैदा होता है और जब मरता है तब भी वह अछूत ही रहता है।’ इसका अर्थ यह हुआ कि सवर्णों ने दलितों को सांस्कृतिक स्तर तक पहुँचने से वंचित रखा। अक्षर ज्ञान से भी वंचित रखा। साक्षरता की ओर उन्‍मुख दलि‍त को दण्डित किया जाता। मनुस्मृति में एक ही अपराध के लिए सवर्णों और शूद्रों के लिए अलग-अलग सजा निश्चित की गई।

 

कहना न होगा कि बाबा साहेब अम्बेडकर ने जाति-व्यवस्था को दैवीय मानने से इनकार कर दि‍या। वे कहते हैं कि इस पवित्रताबोध और दैवीयगुणबोध को खत्म किया जाना चाहिए। अर्थात शास्‍त्रों की सत्ता समाप्‍त कि‍ए बि‍ना जाति-व्यवस्था समाप्‍त नहीं हो सकती।

  1. दलित अस्मिता का सवाल : इतिहास के हवाले से

   बाबा साहेब अम्बेडकर कहते हैं कि दलितों को अपनी अस्मिता बनाने के लि‍ए अपना अतीत बनाना पड़ेगा। क्या वे अपना अतीत हिन्दू-संस्कृति में नहीं तलाश सकते? इसे बिल्कुल अस्वीकार कर देना चाहिए? कुछ दलित विमर्शकारों ने तो इसे सिरे से अस्वीकृत कर दिया है। काँचा इलाइया की पुस्तक Why I am not a Hindu इस सन्दर्भ की महत्त्‍वपूर्ण पुस्तक है।

 

बाबा साहेब अम्बेडकर ने भारतीय इतिहास को नए सिरे से परिभाषित किया। उन्होंने इसमें एक धर्मनिरपेक्ष परम्परा देखी। यह परम्परा महात्मा बुद्ध से शुरू होती है। शायद बुद्ध पहले विचारक हैं जो ब्राह्मणवादी विचारधारा को चुनौती देते हैं। दलितों को समाज में स्थान दिलाने के लिए करीब एक हजार वर्ष तक बुद्ध की विचारधारा भारत में प्रचलित रही। बाद में ब्राह्मणवादी विचारधारा ने बुद्ध की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को विस्थापित कर उसको भारत के बाहर धकेल दिया। बुद्ध की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा सिद्ध और नाथ परम्परा में अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। लेकिन बाद में सिद्ध और नाथ परम्परा ने बाहरी आडम्बर और रूढ़ियाँ अपनाकर सामान्य जन से खुद को दूर कर लिया। कबीर से यह परम्परा पुनः अपने स्वाभाविक विकास की ओर बढ़ती है। सच कहा जाय तो सन्‍त कवियों ने इस परम्परा के विकास में महत्त्‍वपूर्ण योगदान दिया।

  1. साहित्य की दलित दृष्टि के मूल सरोकार : साहित्य के माध्यम से

    हिन्दी में दलित साहित्य में तीन बातें विशेष रूप से दिखाई देती हैं

  1. सामाजिक अस्मिता की तलाश
  2. समाज की सवर्णवादी मानसिकता को प्रश्नांकित करने की प्रवृति
  3. अपनी स्थिति को अपने लेखन के माध्यम से समाज के समाने लाने की प्रवृत्ति

    उपर्युक्त तीनों तत्त्‍व विशेष रूप से दलित लेखकों की आत्मकथाओं में दिखाई देते हैं। चाहे वह वाल्मीकि हों, लिम्बाले हों या नैमिशराय हों या तुलसीराम हों।

 

दलित विमर्शकार अक्सर कहते हैं कि दलित साहित्य प्रतिरोध का साहित्य है। इससे यह सवाल भी उठता है कि प्रतिरोध और साहित्य का क्या सम्बन्ध है? क्या प्रतिरोध किसी रचना के साहित्यिक तत्त्‍वों को कमजोर करता है? क्या साहित्य के स्वीकृत गुण इसमें रुकावट डालते हैं? जब दलित उन मूल्यों के खिलाफ लिखेगा जो उसको समाज से अलग रखते हैं तो वह स्वतः विरोध का ही साहित्य होगा। अगर व्यापक दृष्टि से देखें तो पता चलता है कि उत्कृष्ट साहित्य तो सदा ही प्रतिरोध का साहित्य रहा है। साहित्य सत्ता का सदाबहार विपक्ष रहा है। जो समाज के बुनियादी संघर्ष से जूझता है और रास्ता दिखाता है। दलित साहित्य इस सन्दर्भ में महत्त्‍वपूर्ण है कि समाज के ताने-बाने को इस तरह पाठकों के सामने रखे कि पढ़ने वाला यह कहे कि ‘क्या ऐसा भी होता है?’

 

दलित साहित्य दो विचारधाराओं से प्रेरित होकर लिखा जाता है। महाराष्ट्र में विशेष रूप से बाबा साहेब अम्बेडकर वादी विचारधारा और दूसरी मार्क्सवादी विचारधारा। कुछ दलित लेखक तो कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी हैं। बाबा साहेब अम्बेडकर  समाजवाद की बात तो करते हैं पर वह मार्क्सवाद के हिंसा के सिद्धान्त और अधिकारवादी सिद्धान्त को नहीं मानते। बाबा साहेब अम्बेडकर की सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि कम्युनिस्ट जाति की यथार्थता को स्वीकार नहीं करते।

 

मार्क्सवादी विचारधारा की राजनीतिक पार्टी सी.पी.आई. ने सन् 1948 में पहली बार जाति की यथार्थता को स्वीकार किया था। मराठी दलित-लेखक अन्‍नामाऊ साठे और नारायण सुर्बे मार्क्सवादी लेखक हैं, उसी विचारधारा के तहत वे दलितों की समस्या का समाधान ढूँढते हैं। इसी तरह हिन्दी के तुलसीराम भी मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े दलित लेखक हैं। मराठी के नामदेव ढसाल बाबा साहेब अम्बेडकर की विचारधारा से प्रभावित हैं। जो अपनी कविता छ्वुए छवू में अप्रत्यक्ष रूप से बाबा साहेब अम्बेडकर  के प्रभाव का जिक्र करते हैं। ध्यान देने की बात है कि 21वीं सदी में हिन्दी के दलित लेखक किसी भी विचारधारा से जुड़ने से इनकार करते हैं। उनका मानना है कि उनकी विचारधार बाबा साहेब अम्बेडकर वादी है। इसी प्रकार अर्जुन डेंगले अपनी कविता रि‍वोल्‍यूशन में अपने अस्तित्व को ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखते है–

 

हम उनके दोस्त होते थे

जब हमारे गले में होड़ी लटकती थी

और पीछे झाड़ू लगा होता था

*           *           *

जब हम वहाँ से मरे हुए जानवर को

ले जाकर उनका माँस निकालते थे

और उनको बना कर खाते थे

तब वह हमको प्यार करते थे

*           *           *

अब हम सर से पैर तक बदलाव देखते हैं।

ऊपर की गली हमारे लिए बन्द है।

विजय के लिए नारे लगाओ

बोलो विजय

उनको जलाओ जो परम्पराओं पर प्रहार करते हैं।

 

डेंगले अपनी कविता में इस ओर इशारा करते हैं कि सवर्ण क्रान्ति की बात तो करते हैं पर जो लोग क्रान्ति लाना चाहते हैं उनके खिलाफ काम करते हैं।

 

बाबा साहेब अम्बेडकर को यह उम्मीद थी कि शिक्षित दलित अपने अशिक्षित साथियों को ऊपर उठने में मदद करेंगे। लेकिन उनको यह देखकर निराशा हुई कि शिक्षित दलित अपने वृहत कार्य को भूलकर एक आरामदायक मिडिल क्लास का हिस्सा बन गए। इस तरह न तो अपनी दीनता की भावना से ऊपर आ सके न ही समाज में बराबरी का दर्जा पा सके और न ही अन्य दलितों की मदद कर सके। इस सन्दर्भ में अर्जुन डेंगले की प्रमोशन कहानी उल्लेखनीय है। जिसमें ‘वाघमरे’ रिजर्वेशन के अन्तर्गत रेलवे में APO बन जाता है, इसी वजह से विभाग के विशिष्ट लोग उसके जूनियर हो जाते हैं। जूनियर न तो उसकी इज्जत करते हैं और न ही सहयोग। वाघमरे ऑफिसर वाले ठाठ-बाट से रहने लगते हैं और अपनी पत्‍नी से भी स्टैण्‍डर्ड मेण्‍टेन करने को कहते हैं। इसके बाद भी उनकी जाति उनका पीछा नहीं छोड़ती। उसके परिवार को दलित होने का दंश झेलना ही पड़ता है”प्रमोशन …उनके पंख अब गिर चुके थे और ज़मीन पर पाण्डुरंग सखा वाघमरे उसको कितनी मेहनत करनी पड़ेगी, कितना संघर्ष करना पड़ेगा। लेकिन इस संघर्ष में उसको आन्तरिक यातना देने वाले विश्‍वास से निकलना होगा।

 

बाबुराव वगुल की कहानी जब मैंने अपनी जाति छुपाई थी  दलितों के एक अलग ही संघर्ष को उजागर करती है। एक तरफ तो उसमें अपनी जाति छुपाने का आग्रह है जो मानसिक द्वन्द्व पैदा करता है, वहीं दूसरी ओर इसे गर्व से स्वीकार करने का भाव भी है। बागुल की कहानी जब मैंने अपनी जाति छुपाई थी में एक तीसरा विकल्प सामने आता है। इस कहानी में दो दलित (महार) चरित्र हैं और वे रेलवे की नौकरी करने आते हैं। अन्य चरित्र ब्राह्मण या क्षत्रि‍य हैं। एक दलित पात्र काशीनाथ है, जो शान से कहता है वह महार है और सवर्ण जाति के लोगों को ललकारता है। दूसरा दलित ऐसी स्थिति में आ जाता है कि वह बता ही नहीं पाता कि वह महार है। अपनी जाति छुपाने के प्रयास में उसे सवर्णों द्वारा पीटा जाता है। तभी काशीनाथ चाकू घुमाता हुआ आ जाता है और अपने साथी को बचाता है। सवर्ण एक दूसरे को पुकार कर कहते हैं–“अरे! बम्बई का धेड मवाली हाथ में छुरा लेकर आदमियों को मारता आ रहा है, दौड़ो…।” यह जो उनकी चेतना पर घाव पड़े हैं उनको जब तक दूर नहीं किया जाता वे इन परिस्थितियों से नहीं निकल सकते। यह शिक्षा और संघर्ष से ही सम्भव है।

 

ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी बन्धुआ लोकतन्त्र सरकारी दखल से गाँव में दलित जाति का साहसी ‘रूपचन्द’ निर्विरोध उम्मीदवार के रूप में सरपंच घोषित कर दिया जाता है। लेकिन यहीं से उसका जीवन बहुत कष्टदायक हो जाता है। पूरी व्यवस्था उसके खिलाफ हो जाती है। पूरा का पूरा गाँव, सरकारी दफ्तर, अखबार कोई उसके पक्ष में खड़ा नहीं होता। लेखक के शब्दों मेंएक छोटे से गाँव ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए लोकतन्त्र को बन्धक बना लिया था। जिसे छुड़ाने के लिए रूपचन्द अपने पूरे परिवार के साथ शहर की सड़कों पर भटक रहा था। दाने-दाने को मोहताज होकर वह भूखमरी के कगार तक पहुँच गया था।” (नया ज्ञानोदय, जून 2011 पृ. 45) यह कहानी दलित और सवर्ण समाज के बीच के सम्बन्ध को बहुत खूबसूरती से दिखाती है, लेकिन जिसे सम्भावित चेतना कहा जाता है, वह इसमें नहीं है।

 

सलाम बिन रज़ाक की कहानीएकलव्य का अंगूठा में एक मिल मजदूर का बेटा एकलव्य बहुत ही बुद्धिमान बालक है जो हायर सेकेण्‍ड्री में प्रथम आने के बाद एक मेडिकल कॉलेज दाखिले के लिए जाता है। इण्टरव्यू के समय उसके सामने प्रिन्‍सि‍पल की कुर्सी पर गुरु द्रोणाचार्य हैं, जिन्हें धर्मसंकट में एकलव्य को बी.सी. के कोटे में एडमिशन देना पड़ता है। ‘ऊँची उड़ान भरने वाले प्रशिक्षण-गृह’ के इतिहास में ऐसा पहली बार होता है कि पिछड़ी जाति का एकलव्य उच्‍च-वर्ग के होनहार सपूतों को शर्मशार करते हुए कालेज में सर्वश्रेष्ठ अंकों से पास होता है। प्रिन्‍सि‍पल उसे अपने कक्ष में बुलाते हैं और पुराने द्रोणाचार्य की तरह, वह भी गुरु दक्षिणा माँगते हैं और वह भी दाएँ हाथ का अँगूठा। एकलव्य एक झटके में दाएँ हाथ का अँगूठा काट कर गुरु दक्षिणा दे देता है। कहानी आगे बढ़ती है। सम्भावित चेतना की तरफ ले जाती है। एकलव्य फिर प्रकट होता है इस बार एक प्रतिष्ठित डॉक्टर बनकर और एक कान्‍फ्रेन्‍स में भाग लेने उस जगह आता है जहाँ द्रोणाचार्य को अध्यक्षता करनी है। एकलव्य उनसे मिलने आता है, अपना परिचय पत्र भेजता है, जिसमें उसकी डिग्रियाँ लिखी हैं और लन्दन का पता। वह उन्हें बताता है कि वह दिल की खुली शल्य चिकित्सा का खुला प्रदर्शन देने आया है। प्रिन्‍सि‍पल उसके हाथ की तरफ़ देखते हैं…यह कैसे सम्भव है? वह कहता है कि सर जिन्दगी शतरंज का खेल है इसीलिए एक चाल से किसी को दुबारा मात नहीं दी जा सकती‘उसने बताया कि वह अंसारी है और अपने सारे काम बाएँ हाथ से करता है। मेरे बाएँ हाँथ का अँगूठा अब भी सलामत है।” एकलव्य पुरानी मानसिकता को अस्वीकार कर बराबरी की मानसिकता को स्थापित कर पहले भी सर झुकाता था और अब भी झुकाता है। पर अब वह ज्यादा सक्षम है। वह उस मिथक को नकारता है जो जातियों में भेद करती है। यह कहानी उस पूरे आक्रोश को एक नई दिशा देती है। एकलव्य किसी से कम नहीं है और उच्‍च वर्ग को हर क्षेत्र में मात दे सकता है।

  1. निष्कर्ष

    कुछ दलित विमर्शकारों का मानना है कि गैरदलित न तो दलित से अनुराग कर सकता है और न ही उस पर लिख सकता है। इसके लिए भोगा हुआ अनुभव होना जरूरी है। उनका मानना है कि गैरदलित लेखक दलित अनुभव को लेकर कोई सिद्धान्त उद्घाटित नहीं कर सकता। भोगे हुए अनुभव को सैद्धान्तिक विचार का आधार बनाने के लिए उसको चेतना में बदलना पड़ता है।

 

दलित साहित्य अब सीमित दायरे से बाहर निकल रहा है। अपने अनुभव को विस्तार दे रहा है। साथ ही साथ अपनी रचनाओं में साहित्यिकता के गुण भी लाने की कोशिश कर रहा है। इसमें वह सफल भी हो रहा है। तुलसीराम की दो खण्डों में छपी आत्मकथा इसका सबसे अच्छा उदाहरण है।

 

दलित चेतना और दलित संवेदनाओं से जो लिखा जाता है वही साहित्य का दलित चरित्र है। साहित्य में रचनाकार को स्रष्टा भी कहा जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि वह अपने भीतर की संवेदना को इतना विकसित कर लेता है कि एक सामान्य मनुष्य से काफी ऊपर उठ जाता है। इसलिए जब वह रचना करने बैठता है तब एक ही साथ कई जिन्दगियाँ जी रहा होता है। अपने पात्रों की जिन्दगियाँ। दलित विमर्शकारों का एक खेमा यह मानता है कि कोई भी रचनाकार दलित मुद्दों पर लिख सकता है। लेकिन अधिकतर विमर्शकार यह मानते हैं कि दलितों पर सिर्फ दलितों को ही लिखने का अधिकार है। हिन्दी में इस समय दलित साहित्य और विमर्श अपने को समृद्ध कर रहा है। इस समृद्धि में दलित और गैरदलित दोनों तरह के रचनाकर शामिल हैं।

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अतिरिक्त जानें  

 

बीज शब्द

  1. दलित : भारतीय समाज व्यवस्था में अति पिछड़े वर्ग की जातियों से सम्बन्धित लोग। इसमें कई जातियों और उप-जातियों के लोग शामिल हैं। लम्बे समय तक सवर्ण जातियों द्वारा इन्हें अस्पृश्य माना जाता था। इन जातियों के लिए अलग-अलग सम्बोधन था। बाद में विमर्शकारों ने इन्हें सामूहिक रूप में दलित नाम दिया।
  2. ब्राह्मणवाद : भारतीय समाज की वह मानसिकता या सोच जो वर्ण व्यवस्था का समर्थक और पोषक है।

    पुस्तकें :

  1. मुख्यधारा और दलित साहित्य, ओमप्रकाश बाल्मीकि, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  2. दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, ओमप्रकाश बाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  3. दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, शरण कुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  4. दलित साहित्य, जयप्रकाश कर्दम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  5. दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचन्द, सदानंद साही (सम्पादक), प्रेमचंद साहित्य संस्थान, गोरखपुर।
  6. भारतीय दलित साहित्य : आरम्भ और चिन्तन, बजरंग बिहारी तिवारी, शब्दारम्भ प्रकाशन, दिल्ली।
  7. चिन्तन की परम्परा और दलित साहित्य,  सम्पादक डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन और डॉ. देवेन्द्र चौबे, नवलेखन प्रकाशन, हजारीबाग, बिहार।
  8. Contemporary Dalit Literature, Tanuja Trivedi, Jnanada Prakashan, New Delhi.
  9. Critical Essays on Dalit Literature, Edited by Dr. Murali Manohar, Atlantic Publishers and Distributers, New Delhi.

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