13 नई समीक्षा

प्रियम अंकित

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्‍ययन के उपरान्‍त आप

  • नई समीक्षा का वैशिष्ट्य जान सकेंगे।
  • नई समीक्षा की प्रमुख विशेषताओं के बारे में जानकारी प्राप्‍त करेंगे।
  • नई समीक्षा के प्रमुख चिन्तकों की रचना दृष्टि को समझ सकेंगे
  • आलोचना के क्षेत्र में नई समीक्षा का प्रभाव जानेंगे।
  1. प्रस्तावना

    नई समीक्षा की शुरुआत पहले-पहल अंग्रेजी साहित्य में हुई। नई समीक्षा बीसवीं शताब्दी में आंग्ल–अमेरिकी साहित्य में आलोचना की एक प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में उभरी। टी.एस. एलियट नई समीक्षा के जनक माने जाते हैं। सन् 1941 में प्रकाशित जॉन क्रो रैंसम की पुस्तक दी न्यू क्रिटिसिज्म से यह नाम आलोचना के क्षेत्र में रूढ़ हो गया।

 

नई समीक्षा में किसी रचना के ऐतिहासिक और सामाजिक पक्ष पर विचार करने को अनावश्यक माना गया। रचना से हटकर रचनाकार पर जोर देने का भी विरोध किया गया। टी.एस. एलियट का सुझाव था कि किसी रचना का मूल्यांकन उसके रचनाकार, रचना-समय और परिवेश को हटाकर किया जाना चाहिए। रचना के रूप और अन्तर्वस्तु का ही विश्‍लेषण होना चाहिए। इसमें साहित्येतर तत्त्वों से निरपेक्ष रहकर ‘कृति की आन्‍तरिक संहिति’ का विश्‍लेषण करना ही आलोचना का प्रमुख उद्देश्य था। रचना के रूप पर ज्यादा जोर देने का परिणाम यह हुआ कि नई समीक्षा नाम की आलोचना दृष्टि कलावाद का रूप धारण करने लगी।

 

नई समीक्षा का इतिहास टी.एस. एलियट के निबन्ध-संग्रह सेक्रेड वुड (सन् 1920) से आरम्भ हुआ। आइ.ए. रिचर्ड्स की पुस्तक प्रिन्‍सि‍पल्स ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म (1924) में भी नई समीक्षा के तत्त्व मौजूद हैं।

  1. मुख्य सिद्धान्त

   नई समीक्षा से जुड़े सभी विद्वानों के सिद्धान्त एक समान नहीं हैं, किन्तु काव्य और उसकी समीक्षा से सम्बद्ध कतिपय मौलिक तथ्यों के विषय में वे प्रायः एकमत हैं। नई समीक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्‍नलि‍खि‍त हैं :

  1. नई समीक्षा किसी रचना के रूप और अन्तर्वस्तु को अलग करके देखने का विरोध करती है। उसका मानना है कि रचना का रूप उसकी अन्तर्वस्तु से ही तय होता है।
  2. कविता पदार्थ है, विचार या भाव नहीं। वह अपने आप में एक विशिष्ट अनुभव है, जो अपने रूप के अनुभव से सर्वथा अभिन्‍न है।
  3. नैतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक अथवा अन्य प्रकार की असम्बद्ध धारणाओं को बीच में लाकर इस अनुभव को अशुद्ध नहीं करना चाहिए।
  4. आलोचक का कर्तव्य-कर्म किसी कृति के समग्र रूप और अंगों के अन्तः सम्बन्धों का विश्‍लेषण कर उसकी जटिल संरचना का परीक्षण करना है ।
  5. कलाकृति का रूप ही समीक्षा का वास्तविक विषय है, और इस रूप की अपनी स्वतन्त्र सत्ता है – वह किसी अन्य अर्थ का वाहन मात्र नहीं है। अथवा यह कहना चाहिए की कलात्मक संरचना का समग्र अर्थ ‘रूप’ में ही निहित है।
  1. एलेन टेट की व्याख्या

    तनाव : ‘तनाव’ शब्द का प्रयोग एलेन टेट ने किया था। टेट ने अपने निबन्ध टेन्‍शन इन पोएट्री (कविता में तनाव) में इस शब्द की व्याख्या की है। उन्होंने इस शब्द का लाक्षणिक प्रयोग सामान्य रूप में न कर विशेष सीमित अर्थ में किया है। शब्द के अर्थ-संकेत दो प्रकार के होते हैं– एक अन्तर्मुख और दूसरे बहिर्मुख। अन्तर्मुख प्रयोग में शब्द के अर्थ-संकेत किसी भावना या विचार के प्रतीक मात्र होते हैं– बाह्य जगत के गोचर पदार्थों के साथ उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता– अर्थात शब्द के प्रचलित वाच्यार्थ में और काव्यगत अभीष्ट अर्थ में युक्तियुक्त सम्बन्ध नहीं रहता।

 

टेट कहते हैं की काव्यगुण वहीं होता है, जहाँ शब्दों के बहिर्मुख और अन्तर्मुख शब्द-संकेतों में सन्तुलन होता है। बहिर्मुख और अन्तर्मुख शब्द-संकेतों में यह सन्तुलन ही ‘तनाव’ कहलाता है। उदाहरण के लिए कविता में अमूर्त्त भावना के लिए मूर्त्त बिम्ब का प्रयोग। जब कविता में अमूर्त्त भावना के लिए मूर्त्त बिम्ब का प्रयोग किया जाता है तो विरोधाभास उत्पन्‍न होता है। परन्तु जब कविता में इस विरोधाभास का उपयोग ऐसे होता है कि अभीष्ट अर्थ बाधित नहीं होता, बल्कि अन्तर्मुख और बहिर्मुख अर्थ-संकेतों के पूर्ण सन्तुलन या तादात्म्य के कारण और भी चमत्कृत हो जाता है, तब काव्य-गुण उत्पन्‍न होता है। यह सन्तुलन या तादात्म्य ही तनाव है और यही कवित्व का सार है।

 

 काव्य-गुण के विषय में टेट के विचारों को सारांशत: निम्‍नवत रखा जा सकता है–

  1. काव्य का आधार भाव या विचार नहीं है, भाषा है। किसी कवि का दर्शन कुछ भी हो, पाठक तो उसे उसकी भाषा के द्वारा ही जानता है। उसके कथ्य की उचित सीमा उसकी भाषा है।
  2. काव्य भाषा का मुख्य गुण है उसका तनाव या सन्तुलन।
  3. स्वछन्दतावादी या प्रतीकवादी या आवेगप्रधान कविता में मनोराग का आवेश प्रमुख हो जाता है और कवि-कर्म गौण।
  4. अलंकृत कविता में रागात्मक संस्कार जगाने की अपेक्षा लक्षित बिम्बों की सृष्टि करना ही कवि का उद्देश्य होता है। यहाँ शब्दों का प्रयोग नियत एवं स्थिर होता है और अपने बाहर के गोचर पदार्थों के साथ उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध रहता है। इस कविता की भाषा मूर्त्त होती है।
  5. उत्तम काव्य की सृष्टि के लिए यद्यपि उपर्युक्त दोनों ही प्रवृत्तियाँ अनुपयुक्त हैं, फिर भी अलंकारवादी कविता की भाषा अपने मूर्त्त रूप के कारण अधिक काव्योचित है।
  6. स्वछन्दतावादी काव्य शैली और अलंकृत काव्य शैली के विषय में कोई सामान्य निर्णय नहीं दिया जा सकता–अर्थात यह नहीं कहा जा सकता कि इनमें से कोई एक स्वभावतः उत्कृष्ट और दूसरी निकृष्ट होती है। दोनों के ही उत्कृष्ट अंश श्रेष्ठ काव्य के अन्तर्गत आते हैं और दोनों में ही अपनी-अपनी अपूर्णताएँ हैं।
  7. काव्य का उत्तम रूप सीमान्तवर्ती यानी अतिवादी प्रवृत्तियों में नहीं बल्कि मध्यवर्ती अर्थातसन्तुलित शैली में ही उपलब्ध होता है।
  8. अन्त में, दबी ज़बान में, टेट यह स्वीकार करते हैं कि शेक्सपियर की कविता की अपेक्षा डन की कविता में उपर्युक्त काव्यगुण अधिक है।
  1. विलियम एम्पसन और अनेकार्थता का सिद्धान्त

  ‘अनेकार्थता’ या ‘एम्‍बि‍गुटी’ के प्रतिपादक हैं विलियम एम्पसन, जिनकी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम है सेवेन टाईप्स ऑफ एम्‍बि‍गुटी –अर्थात‘अनेकार्थता के सात प्रकार’।सामान्य व्यवहार में अनेकार्थता को एक दोष माना जाता है, परन्तु काव्य में इसका प्रयोजन होता है चमत्कार की सृष्टि। भारतीय अलंकारशास्‍त्र में भी श्‍लेष का चमत्कार अनेकार्थता पर ही निर्भर करता है। फिलिप व्हीलराएट के अनुसार ‘एम्‍बि‍गुटी’ की जगह ‘प्लूरिसिग्नेशन’ शब्द का इस्तेमाल बेहतर होता।

 

एम्पसन के अनुसार, ‘अनेकार्थता का आशय सर्वथा स्पष्ट है, उसमें अनिवार्यतः कुछ न कुछ विदग्धता या प्रवंचना का तत्त्व रहता है। इसकी परिधि में शब्द के ऐसे सभी सूक्ष्म से सूक्ष्म संकेतों को शामिल किया जा सकता है, जिनके द्वारा शब्दावली विशेष से एक से अधिक शब्दों की व्यंजना होती हो। एक शब्द के कई अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं, कई ऐसे अर्थ हो सकते हैं, जो परस्पर सम्बद्ध हैं या जो अपने आशय को पूरा करने के लिए एक-दूसरे की अपेक्षा करते हैं, या कई ऐसे अर्थ हो सकते हैं जो परस्पर संयुक्त होकर एक विशेष सम्बन्ध अथवा प्रक्रिया के द्योतक होते हैं।’

 

एम्पसन ने सात प्रकार की अनेकार्थता का विवेचन किया है। इस विवेचन के द्वारा उन्होंने काव्य में उपलब्ध शब्दार्थ-जन्य चमत्कार के विविध रूपों को समाहि‍त करने का साधारण प्रयास किया है। पहले भेद के अन्तर्गत अर्थ-चमत्कार के सामान्य रूपों का उल्लेख है। उदाहरण के लिए अनेक प्रकार के लाक्षणिक अर्थ, जो प्रयोग रूढ़ हो जाने के कारण अब चमत्कार उत्पन्‍न नहीं कराते, या वक्ता और श्रोता को जिनके चमत्कार का परिज्ञान नहीं होता, या फिर विविध प्रकार के ‘अन्य अर्थ’ जो अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं, अथवा छन्द की लय और संगीत द्वारा उत्पन्‍न अतिरिक्त अर्थ आदि।

 

दूसरा भेद वह है जहाँ शब्द के दो या दो से अधिक अर्थ एक में परिणत हो जाते हैं। कभी-कभी प्रयोक्ता के मन में एक से अधिक अर्थ-विकल्पों की स्थिति रहती है, किन्तु सावधानी से शब्दावली का वाचन करने पर उससे एक ही अर्थ सिद्ध होता है। इस प्रकार की उक्तियों में कभी-कभी विचारगत और भावगत अर्थ-वैविध्य का अन्तर सामने आता है– जबकि भाव सरल और विचार-प्रक्रिया अत्यन्त जटिल होती है, परन्तु आशय फिर भी एक ही निकलता है।

 

अनेकार्थता का तीसरा भेद वहाँ मिलता है,जहाँ दो पृथक विचार, जो सन्दर्भगत संगति के कारण एक-दूसरे के साथ सम्बद्ध होते हैं, एक ही शब्द के द्वारा व्यक्त किए जाते हैं। यहाँ प्रायः यमक का चमत्कार रहता है।

 

अनेकार्थता के चौथे भेद के अन्तर्गत एक वक्तव्य से ऐसे दो या दो से अधिक अर्थों की प्रतीति होती है, जो प्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे से भिन्‍न होते हुए भी संयुक्त रूप से वक्ता या कवि के अभिप्रेत किसी जटिलतर अर्थ को व्यक्त करने की क्षमता रखते हैं।

 

अनेकार्थता का पाँचवाँ प्रकार इन सबसे भिन्‍न है: यहाँ कवि या लेखक अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में अभीष्ट अर्थ की उपलब्धि करता है। पूरा अर्थ लेखक के मन में उपस्थित नहीं रहता, लेकिन शब्द-विधान की प्रक्रिया में वह रूप धारण कर लेता है।

 

अनेकार्थता का छठा प्रकार कुछ अधिक जटिल है। यहाँ उक्ति में सामान्यतः कोई अर्थ नहीं होता, किन्तु पर्याय शब्दों की आवृति‍ और परस्पर विरोधी अथवा असम्बद्ध कथन द्वारा कवि उसमें ऐसी कुशलता से वैचित्र्य उत्पन्‍न कर देता है की पाठक को अपनी ओर से विभिन्‍न, कभी-कभी विरोधी अर्थों की कल्पना करनी पड़ जाती है।

 

अनेकार्थता का सातवाँ औरअन्तिम प्रकार वहाँ होता है जहाँ शब्द विशेष के दो अर्थ सन्दर्भ के अन्तर्गत दो परस्पर विरोधी भावों की इस प्रकार व्यंजना कराते हैं की कुल मिला कर उनके द्वारा कवि या वक्ता के मन्तव्य में निहित मूलवर्ती अन्तर्विरोध का संकेत मिलता है। इस प्रकार के प्रयोग सर्वथा अज्ञात रूप में किए जाते हैं और उनके पीछे अवचेतन मन की प्रेरणा रहती है। फ्रायड के अवचेतन विज्ञान ने इस प्रकार के प्रयोगों का मर्म उद्घाटित करने में काफी योगदान दिया है। हमारे अवचेतन की इच्छा और चेतन मन की प्रवृत्ति में प्रायः विरोध रहता है, इस नियम के अनुसार सन्दर्भगत अर्थ और कवि के अभीष्ट अर्थ में कभी-कभी, अज्ञात रूप से, विरोध की स्थिति उत्पन्‍न हो जाती है। इस अन्तिम भेद का सम्बन्ध ऐसी ही विरोधमूलक अनेकार्थता से है।एम्पसन ने शेक्सपियर के हैमलेट, मैकबेथ आदि नाटकों से अनेक उदाहरण देकर सन्दर्भगत अर्थ और वक्ता के अभीष्ट अर्थ के परस्पर विरोध में निहित अनेकार्थता का विश्‍लेषण किया है। भावों की जटिल ग्रन्थियों की अभिव्यक्ति में इस प्रकार की अनेकार्थता का सूक्ष्मतर रूप और ‘विरोधाभास अलंकार’ के प्रचलित प्रयोगों में इसका रूढ़ रूप प्राप्‍त होता है।

 

यहाँ एम्पसन की दो सामान्य स्थापनाएँ ध्यान देने योग्य हैं :

  1. अनेकार्थता के केवल इतने ही रूप होते हैं, यह कहना संगत नहीं है। यह वर्गीकरण सुविधा के लिए किया गया है और उसमें उल्लिखित भेद उपलक्षण मात्र हैं।
  2. इन सात प्रकारों में तर्क की संगति‍ क्रमशः कम होती जाती है–

    अर्थात पहले भेद में अर्थ की उपपत्ति सबसे अधिक तर्कसंगत और अन्तिम भेद में सबसे कम होती है। अनेकार्थता से सम्बन्धित एम्पसन का सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्‍त्र के ‘अलंकार सम्प्रदाय’ से काफी मेल खाता है।

  1. सार्वभौम मूर्त्तविधान (कंक्रीट यूनिवर्सल)

    ‘सार्वभौम मूर्त्तविधान’ शब्द का प्रयोग और उसकी व्याख्या विलियम के. विमसाट ने की थी। यह प्रयोग उन्होंने हीगेल से ग्रहण किया। काव्य के प्रसंग में आरम्भ से ही यह सामान्य मत रहा है कि उसका स्वरूप विशेष भी होता है और सार्वभौम भी। इन दोनों विरोधी गुणों की युगपत उपस्थिति काव्य का वैचित्र्य है, जिसकी अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। नव्यशास्‍त्रवाद में सार्वभौम पर अधिक बल रहता है और रोमेण्टीसिज्म या स्वछन्दतावाद में विशेष या व्यक्ति-वैचित्र्य पर। नई समीक्षा के आलोचक दोनों सीमान्तों को मिला कर कविकर्म की सिद्धि ऐसे बिम्बों की संरचना में मानता है जो अपना स्वतन्त्र गोचर व्यक्तित्व रखते हुए भी सार्वभौम गुणों से युक्त हों। इसी तत्त्व को विमसाट ने हीगेल से ग्रहण कर ‘सार्वभौम मूर्त्तविधान’ कहा है।

 

सार्वभौम मूर्त्तविधान का प्रयोग प्रबन्ध-विधान के स्तर पर भी होता है और शब्द विधान के स्तर पर भी। प्रबन्ध-विधान के स्तर पर चरित्र-सृष्टि और शब्द-विधान के स्तर पर उपचार-वक्रता अथवा लक्षणा का प्रयोग सार्वभौम मूर्त्तविधान के अन्तर्गत ही आता है। प्रबन्ध-विधान में कवि या कथाकार चरित्र की कल्पना इस प्रकार करता है कि सजीवता, जटिलता आदि का समावेश हो जाने से उसका व्यक्तित्व स्वतन्त्र और विशिष्ट रूप धारण कर लेता है, किन्तु साथ ही उसमें कुछ ऐसे तत्त्व भी रहते हैं जो सार्वभौम होते हैं अर्थात जो मानव-प्रकृति के मौलिक गुण-दोष होते हैं। शब्द-विधान के स्तर पर लक्षणा या उपचार-वक्रता भी यही काम करती है। रैंसम के अनुसार काव्योक्ति में दो प्रकार के तत्त्व परस्पर अनुस्यूत रहते हैं– भावार्थ जो सार्वभौम तत्त्व होता है, और विशेष शब्द-विधान, जो मूर्त्त किन्तु प्रस्तुत अर्थ से असम्बद्ध होता है। प्रस्तुत के लिए अप्रस्तुत का प्रयोग ही उपचार या लक्षणा है, अत: लाक्षणिक प्रयोग या उपचार-वक्रता में सार्वभौम भावार्थ के लिए मूर्त्त अप्रस्तुत का विधान रहता है। दूसरे शब्दों में लक्षणा शब्द-विधान के स्तर पर सार्वभौम मूर्त्तविधान के प्रयोग का ही नाम है।

  1. प्रक्रिया

    उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि नई समीक्षा मुख्यत: काव्यभाषा की समीक्षा है, जिसमें आलोचक का ध्यान पाठ-विश्‍लेषण पर केन्द्रित रहता है। ये आलोचक मानते हैं कि काव्य में प्रयुक्त शब्द सामन्य अर्थ का वाचन नहीं करते। कवि-कल्पना के प्रभाव से छन्द की लय में ढलकर उनमें विशेष अर्थ का समावेश हो जाता है, फलस्‍वरूप वाच्य अर्थ से अधिक रमणीय होता है। फिर भी यह नया रमणीय अर्थ वाच्य अर्थ से पूर्णत: विच्छिन्‍न नहीं होता, बल्कि उससे किसी न किसी रूप से जुड़ा रहता है। इस प्रकार काव्य की शब्दावली शास्‍त्र और लोक की शब्दावली से प्रकृति में अभिन्‍न होते हुए भी प्रभाव में भिन्‍न हो जाती है। अतः काव्य को समझने के लिए रमणीय किन्तु असंगत अर्थ में संगति की प्रतिष्ठा करना आवश्यक होता है। यह कार्य कठिन है, असाध्य नहीं, क्योंकि काव्य की शब्दावली में अतिशय अर्थ का समावेश हो जाने पर भी सामान्य अर्थ का सर्वथा क्षय नहीं होता। नई समीक्षा के सिद्धान्तों के अनुसार सच्‍चे आलोचक, भाषाविज्ञ आलोचक का कर्त्तव्य-कर्म वास्तव में यही है।

 

अमेरिका के समीक्षक मरे क्रीगर ने नव समीक्षा पद्धति की तर्कसंगत व्याख्या की है। नई समीक्षा की प्रक्रिया के सन्दर्भ में दो शब्द विशेष रूप से महत्त्‍वपूर्ण हैं। स्ट्रक्चर अर्थात अर्थ-विधान और टैक्सचर अर्थात शब्द-विधान। जान क्रो रैंसम ने इन दोनों के आठ भेद को प्रभावी रीति से स्पष्ट किया है। अर्थ-विधान यानी भावार्थ, जिसके आधार पर कृति का निर्माण होता है। शब्द-विधान का अर्थ है कविता का मूर्त्त रूप। अर्थ-विधान या भावार्थ सामान्य और तर्क-संगत होता है। शब्द-विधान या मूर्त्त रूप विशेष होता है और उसमें तार्किक संगति नहीं रहती। भावार्थ के साथ उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता, बल्कि वह विरोध, असंगति आदि के द्वारा भावार्थ को बाधित करता है। अर्थ-विधान में भाषा अपने अभीष्ट अर्थ की ओर ऋजु-सरल गति से बढ़ जाती है, किन्तु शब्द-विधान में वह शब्द-अर्थ के वक्र अथवा रमणीय प्रयोगों के साथ क्रीड़ा करती हुई मस्त-मन्थर गति से अभीष्ट अर्थ तक पहुँचती है। शास्‍त्र में अर्थ-विधान का ही महत्त्‍व है, परन्तु काव्य में शब्द-विधान प्रमुख है। शास्‍त्र में शब्द-अर्थ का सम्बन्ध सीधा और तर्क-संगत होता है, काव्य में यह सम्बन्ध तर्क-विरुद्ध और जटिल होता है। शब्द-विधान (टेक्सचर) में प्रयुक्त शब्द-अर्थ के इन जटिल और अतार्किक सम्बन्धों में संगति का सन्धान करना ही नई समीक्षा की प्रविधि है। पाठ-विश्‍लेषण द्वारा काव्य के शब्दार्थमय शरीर के सौन्दर्य का उद्घाटन ही नई समीक्षा है।

  1. शक्ति और सीमा

   आलोचना के क्षेत्र में नई समीक्षा का सबसे बड़ा योगदान यह है की उसने साहित्येतर मूल्यों के आक्रमण से साहित्य की रक्षा कर उसकी स्वायत्त सत्ता की प्रतिष्ठा की है। इसके प्रयत्‍न से काव्य के रूप और शिल्पविधान की पुनः प्रतिष्ठा हुई। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में विज्ञान और राजनीति के बढ़ते हुए प्रभाव ने अनेक वैचारिक आन्दोलनों को जन्म दिया, फलस्वरूप कला एवं साहित्य के क्षेत्र में भी विचार का प्रभुत्व आवश्यकता से अधिक बढ़ने लगा था और रूप-सौन्दर्य की उपेक्षा होने लगी। नई समीक्षा ने साग्रह घोषित किया की कविता विचार नहीं, उक्ति है– वाणी की कला है।

 

नई समीक्षा की सबसे बड़ी सीमा यह है की वह जीवन और काव्य के सम्बन्ध का निषेध करती है। काव्य के सौन्दर्य पक्ष की प्रतिष्ठा के लिए अर्थवाद के रूप में तो एक सीमा तक यह ग्राह्य हो सकता है, किन्तु मूलतः यह सिद्धान्त गलत है। काव्यार्थ और जीवन के अनुभवों के बीच संवाद अनिवार्य है, इस संवाद के अभाव में काव्य की सार्थकता ही नष्ट हो जाएगी।

 

इसके साथ ही शब्द और अर्थ के कुशल प्रयोग से उत्पन्‍न चमत्कार को ही काव्य का प्रयोजन मानने पर काव्य का महात्म्य अत्यन्त सीमित हो जाएगा। वह पहेली या चित्रकाव्य का ही समुन्‍नत रूप बनकर रह जाएगा। यह कविता और साहित्य के महत्त्व का संकुचन होगा।

 

शब्द-विधान की स्वतन्त्र और मौलिक सत्ता को स्वीकार कर लेने से चमत्कार को काव्य में अत्यधिक महत्त्‍व मिल जाता है। इससे काव्य की सहजता बाधित होती है।

 

नई समीक्षा ने काव्य को अत्यधिक जटिल बना दिया और सरलता एवं स्वाभाविकता का तिरस्कार किया।

 

यह समीक्षा पद्धति प्रगीत और मुक्तक के लिए तो एक सीमा तक उपयोगी है, किन्तु काव्य की अन्य प्रबन्ध-विधाओं के लिए अव्यावहारिक है।

  1. निष्कर्ष

    नई समीक्षा का आरम्भ इंग्लैण्ड में बीसवीं शती में 1920 के आसपास हो गया था। नई समीक्षा के सिद्धान्तों का बीज इलियट, रिचर्ड्स आदि के विवेचन में स्पष्ट रूप में मिलता है। नई समीक्षा’ पदबन्‍ध का प्रयोग सम्भवतः सबसे पहले जोएल स्पिंगर्न ने सन् 1911 में किया और इसकी परिभाषा जॉन क्रो रेन्सम ने अपनी पुस्तक द न्यू क्रिटिसिज़्म (सन् 1941) की भूमिका में प्रस्तुत की। नई समीक्षा स्पष्टत: लक्षणबद्ध तब हुई, जब बीसवीं सदी के अन्त में यह अमेरिका के साहित्य क्षेत्र में पहुँची और एक विशिष्ट समीक्षा-दृष्टि का प्रतिनिधित्व करने लगी। सामान्य रूप में नई समीक्षा के उन्‍नायकों में अमेरिका के जॉन क्रो रैंसम, एलन टेट, रिचर्ड टी. ब्लैकमर, रोबर्ट पेन वारेन, क्लीन्थ ब्रुक्स तथा इंग्लैण्ड के विलियम एम्पसन का नाम लिया जा सकता है। नई समीक्षा के सभी उन्‍नायकों के सिद्धान्त पूर्णतः या प्रायः समान हों, ऐसा नहीं है। किन्तु काव्य और उसकी समीक्षा से सम्बद्ध कतिपय मौलिक तथ्यों के विषय में वे प्रायः एकमत हैं।संक्षेप में इन तथ्यों को इस प्रकार गिनाया जा सकता है की कविता पदार्थ है, विचार या भाव नहीं है। वह अपने आप में एक विशिष्ट अनुभव है जो अपने रूप के अनुभव से सर्वथा अभिन्‍न है। नैतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक अथवा अन्य प्रकार की असम्बद्ध धारणाओं को बीच में लाकर इस अनुभव को अशुद्ध नहीं करना चाहिए। आलोचक का कर्तव्य-कर्म है किसी कृति के समग्र रूप और अंगों के अन्तः सम्बन्धों का विश्‍लेषण कर उसकी जटिल संरचना का परीक्षण करना। कलाकृति का रूप ही समीक्षा का वास्तविक विषय है, और इस रूप की अपनी स्वतन्त्र सत्ता है– वह किसी अन्य अर्थ का वाहन मात्र नहीं है। अथवा यह कहना चाहिए की कलात्मक संरचना का समग्र अर्थ ‘रूप’ में ही निहित है।’तनाव’, ‘अनेकार्थता’ और ‘सार्वभौम मूर्त्तविधान’ नई समीक्षा के प्रमुख पारिभाषिक पद हैं।

 

आलोचना के क्षेत्र में नई समीक्षा का सबसे बड़ा योगदान यह है की उसने साहित्येतर मूल्यों के आक्रमण से साहित्य की रक्षा कर उसकी स्वायत्त सत्ता की प्रतिष्ठा की है। इसके प्रयत्‍न से काव्य के रूप और शिल्पविधान की पुनर्प्रतिष्ठा हुई। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में विज्ञान और राजनीति के बढ़ते हुए प्रभाव ने अनेक वैचारिक आन्दोलनों को जन्म दिया, जिनके फलस्वरूप कला एवं साहित्य के क्षेत्र में भी विचार का प्रभुत्व आवश्यकता से अधिक बढ़ने लगा था और रूप-सौन्दर्य की उपेक्षा हो रही थी। नई समीक्षा ने साग्रह घोषित किया कि कविता विचार नहीं, उक्ति है– वाणी की कला है।

 

नई समीक्षा की सबसे बड़ी सीमा यह है की वह जीवन और काव्य के सम्बन्ध का निषेध करती है। काव्य के सौन्दर्य पक्ष की प्रतिष्ठा के लिए अर्थवाद के रूप में तो एक सीमा तक यह ग्राह्य हो सकता है, किन्तु मूलतः यह सिद्धान्त गलत है। काव्यार्थ और जीवन के अनुभवों के बीच संवाद अनिवार्य है, इस संवाद के अभाव में काव्य की सार्थकता ही नष्ट हो जाएगी।

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अतिरिक्त जाने      

 

बीज शब्द

  1. नई समीक्षा : ‘नई समीक्षा’ समीक्षा की वह पद्धति है जिसमें किसी रचना के ऐतिहासिक और सामाजिक पक्ष पर विचार करने को अनावश्यक मानती है। इसमें रचना से हटकर रचनाकार पर जोर देने का भी विरोध किया जाता है।
  2. तनाव : किसी शब्द के अर्थ-संकेत दो प्रकार के होते हैं– एक अन्तर्मुख और दूसरा बहिर्मुख। शब्दों के बहिर्मुख और अन्तर्मुख शब्द-संकेतों में सन्तुलन ही ‘तनाव’ कहलाता है

    पुस्तकें

  1. नयी समीक्षा, अमृत राय, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद।
  2. नयी समीक्ष नये संदर्भ, डॉ. नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली.
  3. पाश्चात्य साहित्य चिन्तन, निर्मला जैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  4. नयी समीक्षा के प्रतिमान, निर्मला जैन (सम्पादक), नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
  5. आधुनिक हिन्दी आलोचना के बीज शब्द , बच्चन सिंह, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली।
  6. साहित्य का भाषा चिन्तन, रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  7. पाश्चात्य साहित्य चिन्तन, निर्मला जैन, कुसुम बांठिया,राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  8. नयी समीक्षा : नये संदर्भ, नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई  दिल्ली।
  9. शैलीविज्ञान और आलोचना की नई भूमिका, रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा।
  10. After the new criticism, Lentricchia, frank, The Athone pres, London.
  11. Literaray Criticism : A Short History, Wimsat & Brooks, Oxford Publishing Comp New Delhi
  12. The Common Pursuit, Lewis F.R, Pelican, London.
  13. The Literary Critisics, Watson George, Penguin,London
  14. The Cambridge History of Literary Criticism, Cambridge University Press, Cambridge, England.
  15. William Empson and the Philosophy of Literary Criticism, Christopher Norris, Athlone Press, London.
  16. Principals of Literary Criticism, I.A. Richards, Routledge, London.

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