9 अनुवाद अध्ययन
देवशंकर नवीन
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप :
- अनुवाद और अनुवाद अध्ययन में भेद एवं उसकी प्रमुख पारिभाषिक शब्दावली की जानकारी हासिल कर सकेंगे,
- समकालीन साहित्य चिन्तन में अनुवाद अध्ययन का योगदान समझ सकेंगे,
- अनुवाद अध्ययन के कारण सांस्कृतिक बहुलता के सार्वत्रिक संचरण की प्रक्रिया समझ सकेंगे,
- विश्व साहित्य एवं तुलनात्मक साहित्य की अवधारणा में अनुवाद और अनुवाद अध्ययन के योगदान से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
मानव सभ्यता के इतिहास में अनुवाद की उपस्थिति प्रारम्भिक काल से ही रही है। भाषायी भिन्नता के बाधक तत्त्वों की उपस्थिति के बावजूद मनुष्य जाति अपनी धारणाओं की अभिव्यक्ति निरन्तर करती आ रही हैं, तो इसका श्रेय अनुवाद को ही जाता है। तथ्य है कि अनुवाद के स्थूल उपयोग से निरन्तर सारे विधान पूरे होते रहे, पर इस क्रम में स्रोत-पाठ की सामाजिक-सांस्कृतिक छवियाँ, जनपदीय रहन-सहन, जीवन-यापन की पारम्परिक पृष्ठभूमि, पाठ की भाषिक संरचना, भाषिक भूगोल, काल-पात्र के स्थानीय स्वरूप, विचार-व्यवस्था आदि जिस तरह लक्ष्य-पाठ में पहुँच जाती थी; और उस आदान-प्रदान से वहाँ के पाठक-मानस की भव्यता और साहित्य-फलक की समृद्धि जिस तरह होती जा रही थी, उस तरफ ध्यान पहले नहीं दिया जा रहा था। इस दिशा में सोचने-समझने और चिन्तनशील होने की प्रेरणा अनुवाद अध्ययन के कारण हुई। इस पाठ में अनुवाद और अनुवाद अध्ययन के इन्हीं बिन्दुओं पर विचार किया जाएगा। अनुवाद-कार्य से जुड़ी प्रमुख पारिभाषिक शब्दावली की जानकारी भी इस क्रम में अपेक्षित होगी।
- अनुवाद और अनुवाद अध्ययन : उद्यम और अनुशीलन
अनुवाद और अनुवाद अध्ययन– दो अलग-अलग प्रसंग है, इन्हें एक समझने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए। अनुवाद को अंग्रेजी शब्द ट्रान्सलेशन का समानार्थी समझा जाता है। लेकिन अनुवाद शब्द का उपयोग सदियों पूर्व ब्राह्मण-ग्रन्थों में, और फिर महान भारतीय ग्रन्थकार यास्क मुनि एवं पाणिनी (ई.पू. पाँचवीं सदी) के यहाँ स्पष्टता से मौजूद है, जब ट्रान्सलेशन तो क्या, उसके पूर्ववर्ती शब्द ट्रान्सलेटस और ट्रान्सलेटियोभी अस्तित्व में नहींथे।
अनुवाद का व्यावहारिक अर्थ और आचरणमूल रूप से पूर्वप्रदत्त कथन की अनुकृति है; भाषा कोई भी हो, पर कही हुई बात कोफिर से कहने की पद्धति को अनुवाद कहा जाता है, जिसका उपयोग सम्प्रेषण के क्रममें अनुकथन, अनुवचन, पुनर्कथन, भाष्य, टीका, अन्वय, विश्लेषण, व्याख्या, रूपान्तरण, आत्मसातीकरण होते हुए क्रमश: भाषान्तरण तक आ पहुँचाऔर लोग ट्रान्सलेशनके लिए भाषान्तरणकी जगह अनुवाद का उपयोग करने लगे।
यहाँ सबसे पहले हम उन पारिभाषिक शब्दावलियों पर विचार कर लेते हैं। दी हुई परिस्थिति में हमें जिस पाठ का अनुवाद करना होता है, उसे स्रोत-पाठ या मूल-पाठ और जिस भाषा से अनुवाद होता है, उसे स्रोत-भाषा या मूल-भाषा कहते हैं। ठीक इसी तरह जिस भाषा में प्रदत्त पाठ का अनुवाद करना होता है, उसे लक्ष्य-भाषा या लक्षित-भाषा, और अनूदित पाठ को लक्ष्य-पाठ या लक्षित-पाठ कहते हैं। चूँकि हर भाषा की संरचना और संस्कृति में उसके भौगोलिक परिवेश और जनपदीय जीवन-यापन की सूक्ष्मताएँ पिरोई रहती हैं, इसलिए ये सारे तत्त्व हर पाठ के अस्तित्व में समाए रहते हैं; लिहाजा अनुवाद के समय स्रोत और लक्ष्य– दोनों ही भाषाओं के सन्दर्भ में इन प्रसंगों पर सावधान रहने की आवश्यकता पड़ती है।
प्राचीन काल से चली आ रही भारतीय अनुवाद पद्धति में अनुवाद के कई रूप सामने आए। प्राचीन गुरु-आश्रमों में गुरुओं द्वारा कही गई बातों को शिष्यों द्वारा दुहराने की पद्धति को अनुवाद, अनुवचन, या अनुवाक् कहा जाता था। ‘वद्’ धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय लगने से बने शब्द ‘वाद’ का स्पष्ट अर्थ कथन या वचन होता है; इसमें ‘अनु’ उपसर्ग लगाकर अनुवाद, अनुवचन, अनुकथन, अनुवाक् बनता है; और अर्थ होता है– अनुसरण करते हुए कहना। अनुवाद का उपयोग ऋग्वेद (अनु…वदति), ब्राह्मण, उपनिषद (अनुवदित) में दुबारा कहने के लिए हुआ है; यास्क ने इसे (कालानुवादं परीत्य) ‘ज्ञात को कहना‘ माना है; भट्टोजि, वासुदेव दीक्षित जैसे भाष्यकारों द्वारा पाणिनि के सूत्र ‘अनुवादे चरणानाम्’ का अर्थ ‘ज्ञात को कहना‘ होता है। भर्तृहरि ने भी इसे (आवृत्तिरनुवादो वा) दुहराना या पूनर्कथन ही कहा है। इस क्रम में कुछ लोगों ने अनुवाद का अर्थ पुनरुक्त भी लगा लिया है, क्योंकि दोनों में शब्दों की आवृत्ति होती है; पर असल अर्थ में अनुवाद पुनरुक्ति नहीं है, साहित्य में पुनरुक्ति एक दोष है, यह निरर्थक भी होता है; जबकि अनुवाद में हुआ पुनर्कथन सार्थक और किसी महत् प्रयोजन से होता है। प्राचीन आचार्य अकसर अपने आर्ष-वचन सूत्र में कहा करते थे; उनकी सूत्रात्मक गाँठें खोलकर अर्थ स्पष्ट करना भाष्य कहलाता है। कठिन और अप्रचलित शब्दों के प्रयोग के कारण कथन में उपस्थित अर्थ की अस्पष्टता मिटाकर सहज शब्दों में पाठ की व्याख्या टीका कहलाती है। इसी अर्थ में बोलचाल की भाषा में की गई व्याख्या को भाषा-टीका कहा जाता है। इस भाष्य और टीका में कई बार शब्दों और पदों का व्याकरणिक अन्वय किया जाता है, अर्थात व्याकरणिक नियमों के आश्रय से उसके सन्धि विच्छेद, समास-विग्रह, धातु-प्रत्यय-विश्लेषण, उपसर्ग-योग आदि के उपयोग से कथन के मूल अर्थ तक सहजतापूर्वक पहुँचने की पद्धति को अन्वय कहते हैं।
सृजनात्मक कौशल से अलंकृत भाषा में कही गई बातों में अकसर गूढ़ार्थ उपस्थित हो जाते हैं। भावों, विचारों की श्रेष्ठतर और प्रभावी अभिव्यक्ति के लिए गुणी-जन कई बार प्रतीक-व्यवस्था का प्रयोग करते हैं, भाषा में यह प्रतीक शब्दों में होता है, और इस कारण कथन में कई बार बहुपरतीय अर्थ भर जाते हैं। जैसे छायावाद के समय में खग, नभ, पर्वत, समुद्र जैसे स्वच्छन्द प्रतीकों; या नई कविता के दौरान भेड़िया, अन्धकार, सड़ान्ध, सुरंग जैसे त्रासद और घुटन भरे प्रतीकों का प्रयोग हुआ, और पाठ में बहुपरतीय अर्थवत्ता समा गई। ऐसे में कथन का जो सहज अर्थबोध होता है, उसे सरलार्थ; और प्रतीक, अलंकार, या अन्य सृजनात्मक कौशल के कारण जो विशेष अर्थ छिपे होते हैं, उसे विशेषार्थ कहते हैं। किसी पाठ के शब्दानुवाद, भावानुवाद में इस सरलार्थ, विशेषार्थ की बड़ी जरूरत होती है। स्रोत-पाठ से लक्ष्य-पाठ में जाते हुए अनुवादक जब शब्दों, वाक्यों के कोशीय समानार्थी ढूँढते हैं, तो वह शब्दानुवाद कहलाता है। पर यह अनुवाद बेहतर नहीं माना जाता क्योंकि भाषा की प्रयुक्तिगत विशिष्टता के कारण, ऐसे अनुवाद में अधिकतर अनर्थकारी अनुवाद की गुंजाइश बनी रहती है। लोकजीवन की प्रयुक्तियों, मुहावरे, सांस्कृतिक दृष्टिकोण आदि के कारण एक भाषा की प्रयुक्तिगत विलक्षणता कोश के सहारे स्पष्ट नहीं होती; उसे अनुवादक अपने भाषा-समाज-संस्कृति सम्बन्धी बोध और पाठ के प्रसंग से ही स्पष्ट करता है। वरना ‘एट अलेवन्थ आवर’ (अन्तिम क्षण में) का अनुवाद कोशीय अर्थ से ‘ग्यारहवें घण्टे में’ कर दिया जाएगा। इसलिए बेहतरीन अनुवाद वह होता है जिसमें अनुवादक स्रोत-भाषा के पूरे पाठ के प्राण-तत्त्व को अक्षत रखते हुए उसके भाषिक भूगोल, लौकिक संस्कार, और सांस्कृतिक सन्दर्भ के साथ लक्ष्य-भाषा में पहुँचाए। इस तरह अनूदित पाठ जब सार-संक्षेप में व्यक्त हो, तो उसे भावानुवाद या सारानुवादकहते हैं। भावानुवाद या सारानुवाद में मूल पाठ के कई विवरण छोड़ दिए जाते हैं, पर मूल कथन मौजूद रहता है।
अनुवाद की एक और कोटि है– आशु-अनुवाद अर्थात तत्क्षण अनुवाद। इस विधि का उपयोग अकसर मौखिक होता है– पर्यटकों के लिए, या किसी विदेशी यात्री, सन्त, प्रवक्ता आदि के लिए दुभाषिये का इन्तजाम रहता है, जो दो भाषिक-व्यवस्था के लोगों के बीच संवाद का सेतु बनाता है, अर्थात वाचक की भाषा में वाचक की बात सुनकर ग्राही के समक्ष वाचक के भावों को ग्राही की भाषा में सही-सही अभिव्यक्त करता है। अंग्रेजी में इस वृत्ति को इण्टरप्रिटेशन कहते हैं, हिन्दी में इसके लिए आशु-अनुवाद, भाष्य और निर्वचन शब्द चलन में है। संसदीय बहसों और राजनयिक सन्दर्भों में आशु-अनुवाद या र्निवचन बड़ा ही संवेदनशील होता है, अर्थबोध की जरा-सी चूक भी किसी बड़े अनिष्ट को बुलावा दे सकती है, इसलिए यह बड़ा ही जोखिम भरा काम होता है। इस जोखिम का प्रमुख कारण होता है कि इसमें पुनर्प्रयास की गुंजाइश नहीं होती।
वस्तु और विचार के विनिमय हेतु अनुवाद की आवश्यकता मानव सभ्यता के शुरुआती दौर में ही पड़ी, जो बाद में मत, पन्थ के प्रचार-प्रसार, राज-काज के संचालन, और फिर बहुत बाद में आकर राजनीतिक सम्बन्धों की समझ के लिए महत्त्वपूर्ण घटक साबित हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद अन्तर्राष्ट्रीय सम्प्रेषण हेतु अनुवाद एक अनिवार्य घटक बन गया। ज्ञान-विज्ञान की आधुनिक शैक्षिक शाखा अनुवाद अध्ययनमें अनुवाद उद्यम का मूल्यांकन औरअनुशीलन करते हुए इन सारे प्रसंगोंपर विचारकिया जाता है–अनुवाद के इतिहास, परम्परा, प्रयोजन, प्रत्यक्ष-परोक्ष उद्देश्य, परिणति आदि पर विचार करने की जरूरतपुराने समय के बुद्धिजीवियों को शायद नहीं हुई हो; पर अब स्पष्ट दिखने लगाहै; बल्कि उन्नीसवीं शताब्दी के कुछ आरम्भिक दशकों से ही दिखने लगा था किअनुवाद केवल एक भाषिक व्यवस्था में उपलब्ध पाठ का दूसरी भाषिक व्यवस्था मेंकायान्तरणभर नहीं है; मूल पाठ की भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भाषिक सीमाबन्धतोड़कर यह धर्म, धारणा, विचार, विधान के व्यापक सम्प्रेषणका अचूक माध्यम भीहै। अनुवाद कार्य में अनुवाद की धारणा, प्रायोजक की मंशा, सांस्कृतिक संचरण कीपद्धति, ज्ञान-विज्ञान एवं विचार के प्रचार-प्रसार का आधार, ऐतिहासिक-पारम्परिक धरोहर की खोज, अन्तर्राष्ट्रीयसांस्कृतिकता के पारस्परिक साम्य-वैषम्य, विश्व-साहित्य की अवधारणा, तुलनात्मक साहित्य के सूत्र, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध-सूत्र, ग्राहीसाहित्य एवं समाज की सम्पन्नताऔर स्रोत-पाठकी सुदूर पहुँच…आदि विवेचनीय हो उठे। अनुवाद अध्ययन इन सभी विन्दुओं परसुसंगत और तार्किक विश्लेषण का शैक्षिक अनुशासन है। इसकी अनिवार्यता तो बहुतपहले ही आन पड़ी थी, पर इसका उदय बिलम्ब से हुआ।
- अनुवाद अध्ययन : प्रारम्भ और परिणति
अनुवाद अध्ययन की शुरुआत बेशक हाल-फिलहाल की घटना है, पर इसके आदिसूत्र बड़े पुराने हैं। अपनी पद्धति और दृष्टिकोण में यह एक अन्तरानुशासनिक शैक्षिक अध्ययन है, जिसमें अनुवाद एवं अनुवचन के इतिहास, परम्परा, पद्धति, प्रकार, सिद्धान्त, विश्लेषण, अनुशीलन, अनुप्रयोग एवं स्थानीकरण पर व्यवस्थित ढंग से विचार किया जाता है। इस प्रक्रिया में यह तुलनात्मक साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र, भाषाविज्ञान, संकेत विज्ञान, दर्शन-शास्त्र, कम्प्यूटर विज्ञान… जैसे विभिन्न शैक्षिक क्षेत्रों को अपनी परिधि में शामिल कर लेता है।
अनुवाद अध्ययन की परम्परा ढूँढते हुए इसकेइतिहासकार पश्चिमी अनुवाद की प्रारम्भिक विचार-शृंखला के पुनरावलोकन में बहुधासिसेरो (ई.पू. 106 से ई.पू. 43) केउद्धरण पर अटक जाते हैं, जिसमें उल्लेख है कि अपनी वक्तृता सुधारने में सिसेरो नेग्रीक से लैटिन अनुवाद का इस्तेमाल किया; या सन्त जेरोम (सन् 347-420) की धारणाओं पर आकर रुक जाते हैं। ग्रीकइतिहासकार हेरोडोटस (ई.पू. 484- ई.पू. 425) ने भीमिस्र में दुभाषियों के विवरणात्मक इतिहास में अनुवाद अध्ययन या अनुवाद प्रक्रियाके बारे में कुछ उल्लेखनीय नहीं कहा है।
ज्ञात सूत्रों के अनुसार प्रसिद्ध अमेरिकी विचारक, कवि, अनुवादक जेम्स होल्म्स (सन् 1924-1986) की गणना अनुवाद चिन्तन के प्रारम्भिक चरण के चिन्तकों में होती है। उन्होंने ही शुरुआती दौर में वैज्ञानिक पद्धति से अनुवाद अध्ययन की रूपरेखा तैयार की और इसे लोकप्रिय बनाने का प्रथम प्रयास किया। सन् 1972 में प्रकाशित अपने बहुचर्चित निबन्ध द नेम एण्ड नेचर ऑफ ट्रान्सलेशन स्टडीज में उन्होंने अनुवाद अध्ययन के नए-नए आयामों को रेखांकित कर अनुवाद की तीन महत्त्वपूर्ण शाखाएँ बनाईं– वर्णनात्मक शाखा, जहाँ अनुवाद का वर्णन होता है; सैद्धान्तिक शाखा, जहाँ अनुवाद सिद्धान्त की व्याख्या होती है, ताकि अनुवाद प्रक्रिया की जानकारी मिले, और अनुप्रयुक्त शाखा, जिसमें उक्त दोनों शाखाओं से प्राप्त जानकारी का व्यावहारिक प्रयोग हो। होल्म्स की अवधारणाएँ अनुवाद सिद्धान्तों के विकास में मदद देती हैं, वह अनुवाद-प्रक्रिया और लक्ष्य-भाषा में अनूदित पाठ के भावबोध पर अधिक केन्द्रित है।
प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान एडविन जेण्ट्ज्लर (सन् 1951) का अनुवादतकनीक, अनुवादअध्ययन, अनुवादऔर उत्तर उपनिवेशीय सिद्धान्तएवंतुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट काम है। वे अमेरिकी अनुवाद एवंनिर्वचनअध्ययन संघ कीकार्यकारी समिति के सदस्य भी हैं। समकालीन अनुवाद सिद्धान्तोंपर काम करते हुएउन्होंने अनुवाद कार्यशाला, अनुवादविज्ञान, बहुपद्धतीयअनुवाद सिद्धान्त, विखण्डनजैसे अनुवाद अध्ययन के आधुनिक दृष्टिकोणों परगम्भीरता से विचार किया। उल्लेखनीयहै कि सन् 1960 के दशक के मध्य में शुरू होकर ये सारी पद्धतियाँ अनुवाद अध्ययनके क्षेत्र में अत्यधिक प्रभावशाली हो उठीं। इस क्रम में उन्होंने इन पद्धतियोंकी खूबी-खामियों पर विचार करने के साथ-साथ विभिन्न वैचारिक स्कूलों के दृष्टिकोणोंके पारस्परिक अनुबन्धों पर भी विचार किया। संस्कृति अध्ययनकीवर्तमान बहस के सन्दर्भ में उन्होंनेप्रमुख अनुवाद सिद्धान्तों की मान्यताओं पर भी सवाल उठाया।
उनके अनुसार हर भाषा की अपनी साहित्यिक परम्परा होती है, उसके संरचनात्मक सन्दर्भ होते हैं, और अपने इस वैशिष्ट्य के लिए हर पाठ का अपना स्थानिक महत्त्व होता है। जाहिर है कि स्रोत-पाठ और अनूदित-पाठ का गहन सरोकार उनकी अपनी-अपनी साहित्यिक परम्परा और संरचनात्मक सन्दर्भ से होगा। पर दोनों पाठ को सामने रख कर हम विचार करेंगे तो स्पष्ट दिखेगा कि स्रोत-भाषा की साहित्यिक परम्परा और संरचनात्मक सन्दर्भ से स्रोत-पाठ और अनूदित-पाठ का आपसी सरोकार वैसा नहीं होगा, जैसा ग्राही-भाषा की संस्कृति के संरचनात्मक सन्दर्भ में। जेण्टलर ने अपनी तुलनात्मक पद्धति में इस बिन्दु पर गम्भीरता से विचार किया है।
सन् 1958 में मास्को में स्लाविस्त्स का दूसरा कांग्रेस आयोजित हुआ; उसमें अनुवाद के भाषायी और साहित्यिक दृष्टिकोण पर विचार-विमर्श का प्रस्ताव आया। भाषावैज्ञानिक और साहित्यिक मान्यताओं की दृढ़ता से मुक्त होकर अनुवाद के सभी पक्षों के अध्ययन हेतु एक अलग विज्ञान की शुरुआत पर बल दिया गया। कुछ अमेरिकी विश्वविद्यालयों में सन् 1960 में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन के दौरान अनुवाद कार्यशालाओं को प्रोत्साहित किया गया। इसके बाद व्यवस्थित रूप से अनुवाद का भाषाविज्ञानाभिमुख अध्ययन भी शुरू हुआ। क्युबेक में सन् 1958 में, फ्रैंच और अंग्रेजी की वैषम्यमुखी तुलना होने लगी। सन् 1964 में, चॉम्स्की के जेनरेटिव ग्रामर से प्रभावित यूगीन नायडा ने टुवार्ड्स ए साइन्स ऑफ ट्रान्सलेटिंग शीर्षक से एक अनुवाद-निर्देशिका प्रकाशित करवाई। सन् 1965 में, जॉन सी. कैटफोर्ड ने भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण से अनुवाद सिद्धान्त प्रतिपादित किया। सन् 1960-1970 के दशक में चेक और स्लोवाक में साहित्यिक अनुवाद की शैली पर काम शुरू हो गया। अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान पर सन् 1972 में कोपेनहेगन में आयोजित तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रस्तुत अपने पर्चे द नेम एण्ड नेचर ऑफ ट्रान्सलेशन स्टडीजमें जेम्स एस होल्म्स ने साहित्यिकअनुवाद सम्बन्धी इन प्रारम्भिक अनुसन्धानपरक पहल का संज्ञान लिया है।
अनुवाद अध्ययन पर विचार करते हुए निकटवर्ती शैक्षिक अनुशासनों से उसके सरोकारों की जानकारी अनिवार्य हो जाती है। पर यह काम द्वन्द्व के बिना असम्भव है। तथ्य है कि पारम्परिक रूप से अनुवाद की शिक्षा हर जगह भाषा और साहित्य के विभागों में ही शुरू हुई, अपने उद्गम पर ही स्वतन्त्र अस्तित्व कायम करना अनुवाद अध्ययन एवं प्रशिक्षण के लिए आसान तो होता नहीं, द्वन्द्व अपरिहार्य था। पर इस सांस्थानिक अपरिहार्यता के बावजूद अनुवाद अध्ययन की वैज्ञानिक वैधता भी आवश्यक थी। सम्भवत: यही कारण हो कि अनुवाद व्यवहार के मद्देनजर अनुवाद विज्ञान के साथ व्यतिरेकी भाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, तुलनात्मक साहित्य, कम्प्यूटेशनल भाषाविज्ञान आदि के सम्बन्धों की गुत्थियाँ अभी भी पूरी तरह सुलझी नहीं हैं। सन् 1979 में प्रसिद्ध यूरोपीय विद्वान वेरनर कोलर ने इस पर विस्तार से विचार किया। उन्होंने महसूस किया कि व्यावहारिक तौर पर इस दिशा में पहले से पर्याप्त व्यवस्थित काम हो चुका है, सिर्फ इसे प्रमुखता से रेखांकित कर ने की जरूरत है। इस समाधान हेतु उन्होंने अनुवाद की समतुल्यता की धारणा पर बल दिया। उनकी यह धारणा अननुवाद्यता के प्रतिपक्ष में थी। जिस पाठ के अनुवाद की कोई गुंजाइश न हो, उसे अननुवाद्य पाठ कहा जाता है, हालाँकि यह एक प्रकार का मिथ ही है। अनुवाद के दौरान भाषा प्रयोग के रूप में चूँकि अनुवाद की समतुल्यता स्पष्ट दिख रही थी, अर्थात स्रोत-पाठ के शब्दों, या वक्तव्यों के समतुल्य लक्ष्य-भाषा में स्पष्ट शब्द और वक्तव्य मिल रहे थे; इसलिए संगत भाषा प्रणालियों के बीच किसी द्वैध की गुंजाइश नहीं बनती थी। करीब दशक भर पूर्व जॉर्ज माउनिन ने भी सॉस्यूर के पुनरान्वेषण के हवाले से अनुवाद में सापेक्षिक संरचनावाद पर ऐसी ही बात कह दी थी। मूल बात यह है कि कोई बात कही गई है, उसका अर्थ किसी एक भाषा में स्पष्ट है, तो वह कथन किसी दूसरी भाषा में स्पष्टत: व्यक्त हो सकता है! भाषावैज्ञानिक पद्धति भले भिन्न हो, पर भाषायी समतुल्यता के साथ यह बात न तो व्यावहारिक रूप से असंगत है, न सैद्धान्तिक रूप से। अनुवाद में भाषायी समतुल्यता की इस मान्यता से अनुवाद अध्ययन की नींव मजबूत हुई; सम्बद्ध शोध, प्रशिक्षण एवं अन्य गतिविधियों को यूरोपीय समुदाय में सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्थानिक आश्वस्ति मिली, समर्थन मिला, उपयोगी अनुसन्धान के मार्ग प्रशस्त हुए।
बाद के वर्षों में अनुवाद अध्ययन का तीव्रता सेविकास हुआ। वर्णनात्मक अनुवाद और सांस्कृतिक सन्दर्भों के साथ वैज्ञानिक पद्धति सेविचार करने की सहूलियत विकसित हुई। अनुवाद में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय सन्दर्भों की तुल्यताप्रमुखता से विचारणीय हुई।
इस दिशा में सांस्कृतिक सन्दर्भ और आगे रहा– सुसन बेसनेट और आन्द्रे लफेवेयर ने अनुवाद केक्षेत्र में पहलेतो इतिहासऔर संस्कृति के लिए,और फिर जल्दी ही लिंगवाद, उत्तर-उपनिवेशवादऔर सांस्कृतिक सन्दर्भों जैसे अन्य अध्ययन-क्षेत्रों के साथ अनुवाद केसापेक्ष अध्ययन और विचार-विनिमय की प्रेरणा जगाई। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रवेशकालमें न केवल विभिन्न चिन्तकों द्वारा प्रस्तावित समाजशास्त्र और इतिहास लेखन कासन्दर्भ इसमें सुसंगत हुआ, बल्किभूमण्डलीकरण और प्रौद्योगिकी भी अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण होउठे। बाद के दशकों में तो अनुवाद अध्ययन में विकास की और भी नई दिशाएँ दिखीं। विश्वविद्यालयस्तर पर अनुवाद अध्ययन से सम्बन्धित पाठ्यक्रमों का तेजी से विकास हुआ। सन् 1995 आते-आते साठ देशों के विश्वविद्यालयों एवं शैक्षिक संगठनों में अनुवाद और निर्वचनसे सम्बन्धित विविध स्तरीय लगभग ढाई सौ पाठ्यक्रमों की शुरुआत हो गई। सन् 2013 आते-आते अनुवाद सम्बन्धी पाठ्यक्रम चलाने और प्रशिक्षण देनेवाले संस्थानों कीसंख्या पाँच सौ से अधिक हो गई। स्वाभाविक रूप से अनुवाद-सम्मत संगोष्ठियों, सम्मेलनों, पत्रिकाओं, प्रकाशनों की बढ़ोतरी हुई, विकास के इस परिदृश्यसे अनुवाद अध्ययन के लिए राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की प्रेरणा जगी।
- पाश्चात्य अनुवाद चिन्तन
मार्कुस तुलियस सिसेरो की रचना ऑन द‘ ओरेटर (ई.पू. 55) जैसेप्राथमिक पाठ से पश्चिम में परवर्ती अनुवाद प्रवक्ताओं को काफी प्रोत्साहन मिला।होरेस ने अपनी शैलीपरक चिन्तनसेप्रसिद्ध ग्रन्थों की पुनर्प्रस्तुतिहेतु तर्क दिया कि यह कार्य एक ही प्रयास में हो जाने जैसा न तो बहुत आसान है, न ही विश्वसनीयता बरकरार रखने हेतु शब्दानुवादजैसा असम्भव। क्विण्टिलियन ने कहा कि ग्रीक रचना के अनुवाद में बेहतरीन शब्द-सम्पदा केप्रयोगहेतु सम्भव है कि हमेंअसंख्य नए शब्द केसृजन करने पड़ें, कारणग्रीक और रोमन भाषा मेंतात्त्विक रूप से बहुत अन्तर है।
सन्त जेरोम ने बड़ी स्पष्टता सेस्वीकारा (सन् 395) कि ग्रीक पाठ का अनुवाद करने में जहाँ कहीं वाक्यविन्यास दुविधापूर्ण रहा मैंनेशब्दानुवाद का मार्ग त्यागकर पाठ के भाव-पक्ष का मार्ग अपनाया।
सन् 1530 में मार्टिन (सन् 1483-1546) ने आमजनों के लिए सम्प्रेषणीय अनुवाद पर बल दिया। आधुनिक काल में आकर पीटर न्यूमार्क (सन् 1916-2011) ने अनुवाद की केन्द्रीय समस्या पर विचार करते हुए कहा कि अनुवाद की हमेशा ही दो पद्धतियाँ होंगी– या तो वह शब्दानुवाद होगा, या स्वतन्त्र अनुवाद होगा। अनुवाद की दो प्रकृतियों– अर्थगत अनुवाद और सम्प्रेषणीय अनुवाद के बीच भेद करते हुए उन्होंने कहा कि अर्थगत अनुवाद वैयक्तिक धारणा से सम्पोषित होती है, जो मूल रचनाकार की विचार प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए अनुवाद में अग्रसर होती है, अर्थ की सूक्ष्मताएँ तलाशती है, व्यावहारिक प्रभाव सम्प्रेषित करने के क्रम में संक्षिप्तता की ओर उन्मुख रहती है। जबकि सम्प्रेषणीय अनुवाद में प्रयास रहता है कि मूल पाठ की सटीक, सुसंगत, प्रासंगिक अर्थ-छवियों के साथ इस तरह पुनर्प्रस्तुति हो कि कथ्य और भाषा– दोनों स्तरों पर अनुवाद पाठकों के लिए सहज-सुबोध हो। सूचना-प्रधान और उपदेशात्मक पाठ की स्थिति में अनुवाद की सम्प्रेषणीयता और भी जरूरी है।
- प्राच्य अनुवाद चिन्तन
भारत की प्राचीन शिक्षण पद्धति मेंगुरुजनों के लिए अनुवाद का एकमात्रउद्देश्य ज्ञानसम्मत दुर्बोध पाठ का शिष्यों के समक्ष सम्पूर्ण सम्प्रेषण होता था, जिसके लिए वे अनुकथन, पुनर्कथन, अन्वय, विश्लेषण, भाष्य, टीका, सरलार्थ, विशेषार्थ, प्रतीकार्थ… आदि कई पद्धतियों से अर्थ स्पष्टकरते थे। उधरश्रुति-ग्रन्थों की परम्परासे लेकर बाद के दिनों तक की भाषा-पद्धति में हुए परिवर्तनों के कारण भारतीयआचार्यों को अपने ही ग्रन्थों का बार-बार भाष्य करना पड़ा। मुगल शासनकाल से पूर्व तकभारतीयेतर ग्रन्थों की ओर हमारे प्राचीन चिन्तकों की अनुरक्ति का कोई उल्लेख नहींमिलता, अपने ही चिन्तकों के कालजयी विचारों के भाष्य में वे निरन्तर व्यस्त रहे।
भारतीय भाषा में किसी भारतीयेतर ग्रन्थ के अनुवाद का पहला उदाहरण सन् 1880 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा अनूदित विलियम शेक्सपीयर की कृति दुर्लभ बन्धुहै। इसके बाद फिर महावीर प्रसाद द्विवेदीद्वारा अनूदित हर्बर्ट स्पेन्सर (शिक्षा, 1906), और जान स्टुअर्ट मिल (स्वाधीनता, 1907); आचार्यरामचन्द्र शुक्ल द्वारा अनूदित अर्न्स्ट हैकल (विश्वप्रपंच) की कृति से स्वाधीनताआन्दोलन के दौरान भारतीय नागरिकों का आहत मनोबल ऊँचा हुआ। उपनिवेशवादी धारणाओं सेप्रेरित अनुवाद जब भारतीय समाज, कानून, इतिहास, संस्कृति, साहित्य, परम्परा, चेतना और अस्मिता का विरूपित चेहरा पेश कर रहाथा; आचार्यद्विवेदी, आचार्यशुक्ल ने भारत की उस अनूदित अस्मिता पेश करने वालों की नीयत पर गहरा आघात किया। इनसबके साथ भातीय अनुवाद की दीर्घ परम्परा में राजा राममोहन राय, आर.सी.दत्त से लेकर विष्णुखरेतक केमनीषियों के योगदान सर्वदा स्मरणीय रहेंगे।
डॉ. नगेन्द्र के सत्प्रयास से सन् 1960-62 में आकर दिल्ली विश्वविद्यालय में अंशकालीन अनुवाद प्रशिक्षण का सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम शुरू हुआ। बाद के दिनों में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा द्वारा डिप्लोमा कार्यक्रम की शुरुआत हुई। केरल विश्वविद्यालय में अनुवाद और प्रशासनिक पत्र-व्यवहार में अंशकालीन सर्टिफिकेट कार्यक्रम शुरू हुआ। इस समय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र में अनुवाद में एम. फिल., पी-एच. डी. और इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के अनुवाद अध्ययन एवं प्रशिक्षण विद्यापीठ समेत अनेक शैक्षिक संस्थाओं में कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। ये कार्यक्रम कहीं एम. ए., कहीं डिप्लोमा, कहीं स्नातकोत्तर डिप्लोमा और कहीं सर्टिफिकेट स्तर के हैं। ये सभी कार्यक्रम पूर्णतया स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं।
- विश्व साहित्य और अनुवाद अध्ययन
विश्व के सभी राष्ट्रीय साहित्य को समग्रता में विश्व साहित्य कहा जाता है, पर व्यवहारत: जो कृति राष्ट्रीय सीमा पारकर विभिन्न देशों में अपनी व्यापक ख्याति बना ले उसे लोग विश्व साहित्य में गिनने लगते हैं। अतीत काल में पश्चिमी यूरोपीय साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों को विश्व साहित्य कहा जाता था, यह पदबन्ध आज वैश्विक सन्दर्भ में प्रयुक्त होने लगा है। उत्कृष्ट अनुवाद के कारण आज दुनिया भर की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हर जिज्ञासु पाठक को उपलब्ध है। बीसवीं शताब्दी के नौवें दशक से ई-संचार सुविधा के कारण कलात्मक एवं राजनीतिक मूल्यों से सम्बद्ध एक जीवन्त सूचना-शृंखला विकसित हुई, जो राष्ट्रीय परम्पराओं की अपेक्षा वैश्विक प्रक्रियाओं की ओर अधिक उन्मुख दिखती है।
जोहान वोल्फगैंग वॉन गेटे ने उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में अपने कई निबन्धों में विश्व साहित्य की अवधारणा का उपयोग गैरपश्चिमी मूल की कृतियों समेत यूरोपीय साहित्यिक कृतियों की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के वर्णन हेतु किया। अपने शिष्य जोहान पीटर एक्करमैन से उन्होंने जनवरी 1827 में एक साक्षात्कार में कहा कि आने वाले वर्षों में साहित्यिक रचनात्मकता के प्रमुख साधन के रूप में विश्व साहित्य, राष्ट्रीय साहित्य को विस्थपित कर देगा। उन्होंने भविष्यवाणी की तरह अपनी आश्वस्ति जाहिर की कि कविता जनसमूह में हर जगह, हर समय खुद को मूर्त्त करती हुई मानव-जाति के लिए सार्वभौमिक होती है, इस कारण मैं अपने लिए अन्य राष्ट्रों की धारणा के बारे में सोचता हूँ और हर किसी को सलाह देता हूँ कि वे भी वैसा ही करें। राष्ट्रीय साहित्य अब एक निरर्थक पद है, विश्व साहित्य का युग निकट है, हर किसी को अपने दृष्टिकोण की बेहतरी का प्रयास करना चाहिए।
प्राचीन कृतियाँ सहित, वैश्विक परिदृश्य की समझ के साथ लिखा गया सभी समकालीन साहित्य आज विश्व साहित्य समझा जाता है। बीसवीं सदी के अन्त आते-आते दुनिया भर के बुद्धिजीवी विश्व साहित्य के मद्देनजर अपनी राष्ट्रीय कृतियों की संरचना के बारे में गहनता से सोचने लगे। लू शुन सहित चीन के कई प्रगतिशील लेखकों के निबन्धों में भी ऐसा पाया गया है।
उन्नीसवीं सदी के दौरान, और काफी दिनों तक बीसवीं सदी में भी, विश्व साहित्य की रुचि को राष्ट्रवाद की लहर का ग्रहण लग गया, पर युद्धोत्तरकाल में, तुलनात्मक साहित्य और विश्व साहित्य का संयुक्त राज्य अमेरिका में पुनरुत्थान हुआ। अप्रवासियों के राष्ट्र के रूप में, और कई पुराने देशों की तुलना में कमतर सुस्थापित राष्ट्रीय परम्परा के साथ, संयुक्त राज्य अमेरिका तुलनात्मक साहित्य और विश्व साहित्य के अध्ययन के लिए सम्पन्न केन्द्र बन गया। प्रारम्भ में तो ग्रीक एवं रोमन के प्राचीन साहित्य और पश्चिमी यूरोपीय शक्तियों के प्रमुख आधुनिक साहित्य को एक हद तक प्राथमिकता दी गई, लेकिन 1980-90 के दशक में दुनिया भर के बड़े फलक के लिए खुलापन आया।
गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक जैसे विचारकों केविमर्शों द्वारा विश्व साहित्य सम्बन्धी बहस जारी रही। कहा गयाकि अनुवाद द्वाराविश्व साहित्य का अध्ययन बड़े महत्त्व का काम है। यह बहुधा मूल पाठ कीभाषायी समृद्धि और राजनीतिक शक्ति– दोनोंको अपने मूल सन्दर्भमें सहज बनाता है। इसके विपरीत अन्य विद्वानों की रायहुई कि विश्व साहित्य काअध्ययन मूल भाषा और सन्दर्भोंके साथ किया जाना चाहिए, भलेही वह कृति के रूप में दूसरे देशों में नए आयाम और नए अर्थ ले ले।
इधर आकर ई-संचार के सहयोग से विश्व साहित्य कावैश्विक संचरण सुगम हुआ, पाठकों को दुनिया भर की साहित्यिक प्रस्तुतियों का नमूनासहजता से उपलब्ध होने लगा, हर सीमा और दूरी का अवरोध मिटाकर यह विश्व वांग्मय केबेहतरीन चयन का अवसर देने लगा। इन सबके बावजूद सचाई है कि विश्व साहित्य की समझ औरसम्वर्द्धन के लिए व्यापक अन्तर्राराष्ट्रीय वितरण अकेले पर्याप्त नहीं है;उत्कृष्ट कलात्मकमूल्य, मानवीयता, विज्ञान और खासकर दुनिया भर के साहित्य के विकासकी इसमें निर्णायक भूमिका होगी। किसी साहित्यिक कृति का वैश्विक दर्जा तय करने के लिएसार्वभौमिक स्वीकृति का कोई मापदण्डबनाना आसान नहीं है, क्योंकि कृति का अनुशीलन सम्बद्ध लौकिक औरक्षेत्रीय सन्दर्भों में ही होना चाहिए।
- तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद अध्ययन
पारम्परिक रूप से अनुवाद अध्ययन को अपनी उपश्रेणी मानने के तुलनात्मक साहित्य के दावे के बावजूद अन्तर्सांस्कृतिक अध्ययन पर आधारित विषय के रूप में अनुवाद अध्ययन की वर्चस्वपूर्ण पहचान कायम हुई, और सैद्धान्तिक एवं वर्णनात्मक– दोनों ही दृष्टि से प्रभावपूर्ण पद्धति की पेशकश हुई, इसलिए तुलनात्मक साहित्य को इसकी शाखा मानने में कोई संशय नहीं है। अनुवाद अध्ययन और तुलनात्मक साहित्य का वास्तविक सम्बन्ध यही है। अपनी अन्तरानुशासनिक प्रकृति के कारण तुलनात्मक साहित्य का सरोकार अनुवाद अध्ययन, समाजशास्त्र, आलोचना सिद्धान्त, संस्कृति अध्ययन, धर्म-शास्त्र अध्ययन, इतिहास जैसे कई क्षेत्रों से जुड़ जाता है। लिहाजा, विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक साहित्य कार्यक्रम की रूपरेखा कई विभागों के सम्मिलन से तैयार किया जाना लाजिमी है।
तुलनात्मक साहित्य के विशेष अध्ययन हेतु संयुक्तराज्य अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में अलग व्यवस्था है। भारत के कई विश्वविद्यालयोंमें भी इस पर अलग अध्ययन की व्यवस्था बनाई गई है। तुलनात्मक साहित्य के अध्येताराष्ट्रीय सीमाओं, कालावधियों, भाषा-बन्धों, विधाओं, साहित्यिक सीमाओं; संगीत, चित्रकला, नृत्य, फिल्मजैसी अन्य कलाओं; साहित्य, मनोविज्ञान, दर्शन, विज्ञान, इतिहास, वास्तुकला, समाजशास्त्र, राजनीति जैसे अनुशासनों के पार अन्तरानुशासनिक वैशिष्ट्यके साथ अध्ययन करते हैं। यूँ कहें कि तुलनात्मकसाहित्य एक निस्सीम साहित्य-शृंखलाका अध्ययन है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तरपर इसके तीन स्कूल बताए जाते हैं—फ्रेंच स्कूल, अमेरिकी स्कूल, जर्मनस्कूल।
- समकालीन साहित्य चिन्तन और अनुवाद अध्ययन
विकासमान शैक्षिक विधान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रोन्नत अवदान, वैश्वीकरण के वर्चस्व, अन्तस्सांस्कृतिक सम्बन्ध, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय साहित्यिक सम्मिलन आदि में अनुवाद की बहुविध भूमिका देखते हुए आज यह कहना सुसंगत होगा कि अपने अन्तरानुशासनिक दृष्टिकोण के साथ अनुवाद अध्ययन इस समय समकालीन साहित्य चिन्तन का अनिवार्य खण्ड हो गया है। विश्व साहित्य और तुलनात्मक साहित्य जैसे नव शैक्षिक क्षेत्र अनुवाद अध्ययन के निकटतम उपश्रेणी है; अनुवाद एवं अनुवाद अध्ययन के बिना इन अनुशासनों की अवधारणा ही असम्भव हो जाएगी। भूमण्डलीकरण, अन्तर्राष्ट्रीय राजनयिक सम्बन्ध, नव जनसंचार माध्यम, नई व्यापार नीति, नई शिक्षा पद्धति, शासन तन्त्र, पर्यटन, इलेक्ट्रोनिक तन्त्रजाल…कोई भी क्षेत्र इस समय अनुवाद की पहुँच से बाहर नहीं है। जाहिर है कि वर्तमान सन्दर्भ में स्वयं को सावधान, समकालीन, अद्यतन, और सुसंगत बनाए रखने के लिए हर किसी को अनुवाद से सम्बद्ध रहना पड़ेगा। अनुवाद से सम्बद्ध रहे बगैर इस समय किसी भी भाषा का साहित्य समकालिक नहीं हो सकता। हर साहित्य के सैद्धान्तिक विवेचन हेतु विश्व साहित्य और तुलनात्मक साहित्य से संवाद एक अनिवार्य गतिविधि मानी जाती है। ज्ञान-विज्ञान की तमाम शाखाएँ आज वैश्विक परिदृश्य से न्यूनतम संवाद की अपेक्षा रखती हैं। इन दिनों उदार सांस्कृतिक दृष्टिकोण से राष्ट्रीय सीमाओं के पार जाकर तुलनात्मक साहित्य पर गहन पुनरावलोकन किया जा रहा है। अलमगीर हशमी (द‘ कॉमनवेल्थ, कम्परेटिव लिट्रेचर, एण्ड वर्ल्ड), गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक (डेथ ऑफ ए डिसीप्लीन), डेविड डैमरॉश (व्हाट इज वर्ल्ड लिट्रेचर?) स्टीवन टॉटॉसी द जेपेटनेक (कम्परेटिव कल्चरल स्टडीज), पास्कल कसानोवा (द‘ वर्ल्ड रिपब्लिक ऑफ लेटर्स) की कृतियों औरअवधारणाओं से इस दिशा में विचार हो रहा है। तुलनात्मक साहित्य के राष्ट्र-केन्द्रितसोच और राष्ट्र-राज्य के मुद्दों से सम्बद्ध साहित्य का अध्ययन किया जा रहा है। भूमण्डलीकरण और अन्तर्सांस्कृतिकता केवर्तमान परिदृश्य में विश्व साहित्य और तुलनात्मक साहित्य की अहम भूमिका केकारण अनुवाद अध्ययन एक महत्त्वपूर्ण शैक्षिक क्षेत्र के रूप में सामने आया है।फलस्वरूप वैश्विक परिदृश्य में ही नहीं, राष्ट्रीय परिदृश्य में भीसमकालीन साहित्य चिन्तनके लिए अनुवाद अध्ययन एक अनिवार्य घटक दिखता है।
- निष्कर्ष
एक शैक्षिक शाखा के रूप में ‘अनुवाद अध्ययन‘ पदबन्ध का उदय और विकास बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की घटना है। इस समय तक आते-आते ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं और प्रौद्योगिक उन्नयन के कारण दुनिया भर के शैक्षिक वातावरण में बेशुमार तरक्की हुई। शैक्षिक क्षेत्र में विशेषज्ञता सम्पन्न ज्ञानात्मक शाखाओं की यथेष्ट बढ़ोतरी हुई। दुनिया भर के इस उत्थान और उपलब्धियों से परिचित होने के लिए अनुवाद एक बड़ा माध्यम बना। भाषायी सक्षमता के अभाव में इस वैश्विक ज्ञान-सम्पदा से अपनापा स्थापित करना असम्भव था। साहित्यिक समालोचना के नए सैद्धान्तिक दृष्टिकोण को भी अन्तरानुशासनिकता और अन्तस्सांस्कृतिकता से संवाद करने की जरूरत आन पड़ी। विश्व साहित्य और तुलनात्मक साहित्य की अवधारणा साहित्यानुशीलन में इस तरह पैठ गई कि छोटी-छोटी टिप्पणियों तक में इसका सहारा लिया जाने लगा अर्थात समकालीन साहित्य चिन्तन हेतु अनुवाद और अनुवाद अध्ययन महत्त्वपूर्ण हो उठा। अनुवाद अध्ययन का सीधा अर्थ अनुवाद के प्रयोजन, प्रारम्भ, ध्येय-धारणा, इतिहास, परम्परा, विकासक्रम, कोटि-फलक, विधि-विधान, अनुशीलन-मूल्यांकन, प्रयुक्ति क्षेत्र, सावधानी, जोखिम, हस्तक्षेप क्षेत्र… अर्थात अनुवाद से जुड़े समस्त प्रसंगों की विश्लेषणपरक व्यख्या है। जाहिर है कि समकालीन साहित्य चिन्तन हेतु अनुवाद अध्ययन एक अनिवार्य अनुशासन है।
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अतिरिक्त जानें
बीज शब्द
- अनुवाद : एक भाषा में लिखी हुई बात को दूसरी भाषा में लिखना अनुवाद कहलाता है। अनुवाद का व्यावहारिक अर्थ और आचरण मूल रूप से पूर्वप्रदत्त कथन की अनुकृति है।
- समकालिक : एक ही काल से सम्बन्धित।
पुस्तकें
- अनुवाद विज्ञान : सिद्धान्त एवं अनुप्रयोग, सम्पादक- डॉ. नगेन्द्र, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली।
- अनुवाद का भाषिक सिद्धान्त, जे. सी. कैट फोर्ड, (अनुवाद : रविशंकर दीक्षित), मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल।
- अनुवाद विज्ञान, भोलानाथ तिवारी, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली।
- अनुवाद : सिद्धान्त एवं प्रयोग, जी. गोपीनाथ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
- अनुवाद साधना, पूरन चन्द टंडन, अभिव्यक्ति प्रकाशन, नई दिल्ली।
- अनुवाद विज्ञान और सम्प्रेषण, हरिमोहन, तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली।
- अनुवाद और रचना का उत्तर जीवन, डॉ. रमण सिन्हा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
- अनुवाद सिद्धान्त की रूपरेखा, सुरेश कुमार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
- The True Entrepreter: A history of translation theory and practice in west, L.G. Kelley, Basil Blackwell, Oxford.
- Post-colonial translation: Theory and Practice, Susan Bassnett abd Harish Trivedi, Routledge, London, New York.
वेब लिंक्स
- https://en.wikipedia.org/wiki/Translation_studies
- http://www.surrey.ac.uk/postgraduate/translation-studies
- http://www.surrey.ac.uk/subjects/language-communication-translation-studies
- https://benjamins.com/online/hts/
- https://www.ucl.ac.uk/translation-studies
- https://www.youtube.com/watch?v=gP3bheM6fmg
- https://www.youtube.com/watch?v=HZXhzP3mBsA