8 तुलनात्मक साहित्य
रामबक्ष जाट
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के उपरान्त आप
- तुलनात्मक साहित्य के परिचय एवं प्रस्थान सहित उसके मूलाधार की जानकारी हासिल कर सकेंगे।
- प्राच्य-पाश्चात्य विशेषज्ञों की मान्यता सहित तुलनात्मक साहित्य के महत्त्व को जान पाएँगे।
- राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों की समझ बनाने में तुलनात्मक साहित्य के अवदान की जानकारी ले पाएँगे।
- प्रस्तावना
साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन की पद्धति का प्रारम्भ उन्नीसवीं शताब्दी में होता है। सबसे पहले फ्रेंच में सन् 1816 में course de literature compare नामक पुस्तक का प्रकाशन हुआ। जर्मनी में सन् 1844 तथा अंग्रेजी में मैथ्यू अर्नाल्ड ने सन् 1848 में इस पद का प्रयोग किया। ‘तुलनात्मक साहित्य’ अलग से कोई रचनात्मक आन्दोलन नहीं है। यह साहित्य का विशिष्ट प्रकार नहीं है। यह सिर्फ साहित्य के अध्ययन की एक प्रविधि है। इस प्रविधि का उपयोग साहित्य के अध्ययन के लिए किया जाता है। इसमें एक से अधिक भाषाओं के साहित्य की तुलना करके कुछ निष्कर्ष निकाले जाते हैं। अतः यह साहित्य के शोध की सीमा में आता है। इसके केन्द्र विश्वविद्यालय, साहित्यिक संस्थाएँ, सरकारी शैक्षणिक केन्द्र आदि होते हैं। विभिन्न विश्वविद्यालयों और अन्य संस्थाओं में तुलनात्मक साहित्य के विभाग और केन्द्र खोले गए। वहाँ विद्वानों के भाषण और परिचर्चाएँ आयोजित की गईं। इन सबसे तुलनात्मक साहित्य की अवधारणा विकसित हुई।
सूसन बैसनेट ने तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन के स्वरूप को स्पष्ट किया। उनके अनुसार तुलनात्मक साहित्य संस्कृति की सीमा से परे पाठ का अध्ययन करता है जो अपनी प्रकृति में अन्तर्विद्यावर्ती है और जो साहित्य में उन पैटर्नों को ढूँढता है, जो देश और काल की सीमाओं से परे होता है (Comparative literature, Susan Bassne, पृ.-1)। इस परिभाषा में तुलनात्मक साहित्य के मूल तत्त्व समाहित हैं। जिनमें से पहली बात तो यह है कि यह अध्ययन अन्तर्विद्यावर्ती होता है। सिर्फ एक कृति या एक रचना का इसमें स्वतन्त्र रूप से अध्ययन नहीं होता। दूसरा यह कि अध्ययन सीमाहीन होता है, इसमें भारत के समकालीन लेखक की तुलना प्राचीन ग्रीक साहित्य के किसी लेखक से किया जा सकता है। दोनों के बीच समानताएँ और असमानताएँ ढूँढी जा सकती है।
तुलनात्मक अध्ययन और सामान्य साहित्यिक अध्ययन की तुलना करके इसे आसानी से समझा जा सकता है। जब भी हम किसी रचनाकार की कृति का अध्ययन करते हैं, तब सबसे पहले हमें यह जान लेना चाहते हैं कि इस कृति की रचना कब हुई? प्रेमाश्रम की रचना असहयोग आन्दोलन से पहले या बाद में हुई। भले ही प्रेमाश्रम सन् 1922 में प्रकाशित हुआ हो, परन्तु इसका लेखन पहले का है। इसी कारण इसका प्रमुख पात्र इतना निर्दयी और शक्तिशाली है। असहयोग आन्दोलन के बाद ज्ञानशंकर की रचना नहीं हो सकती। इसी तरह कबीर जिस समाज में पले-बढ़े वह समाज जाति-प्रथा के उत्पीड़न का शिकार था। इस कारण उनमें जातीय श्रेष्ठता की धारणा का तीव्र प्रतिकार मिलता है। कबीर का यह उग्र रूप उनके समाज से आया। इसी तरह मीरा स्त्री थी, इसलिए उनमें कुछ विशेष मनोभाव मिलते हैं। उनका उत्पीड़न उनके आत्मीयों ने किया था, अतः मीरा का प्रतिकार अलग तरह का है। फिर वह राजघराने की बहू थी। उसकी कुछ मर्यादाएँ थी। मीरा जब ‘कुल की मर्यादा’ को तोड़ने की बात कहती हैं, तब उसका अर्थ बहुत गहरा है। इस तरह की सारी बातें हम साहित्य का सामान्य अध्ययन करने के लिए करते हैं। यह साहित्य की आलोचना है।
इसी तरह मैला आँचल एक उपन्यास है, अँधेरे में एक लम्बी कविता है, कुँवर नारायण छोटी-छोटी कविताएँ लिखते हैं। यह विधागत भेद बहुत महत्त्वपूर्ण है। फिर चित्रकला, मूर्तिकला या स्थापत्य एकदम अलग तरह की कलाएँ हैं। तुलनात्मक साहित्य इन सब विशिष्टताओं को दरकिनार कर देता है। वह तो काफ्का के नायक से प्रेमचन्द के नायक की तुलना कर सकता है। बिथुवन के संगीत में सूरदास के भजनों का कोई रिश्ता ढूँढ सकता है। जिन सन्दर्भों से सामान्य साहित्य का अर्थ-विश्लेषण होता है, उन सबको छोड़कर तुलनात्मक साहित्य में किसी नए अर्थ की सम्भावना प्रकट हो सकती है।
तुलनात्मक साहित्य का प्रारम्भ यूरोप में हुआ। बाद में अमेरिका और दुनिया के अन्य देशों में भी साहित्य अध्ययन की इस नवीन पद्धति का विकास हुआ। जिस समय यह प्रारम्भ हुआ, उस समय यूरोपीय देश अपने-अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए दुनिया भर में युद्ध कर रहे थे, विशेष रूप से फ़्रांस और इंग्लैण्ड के बीच भीषण टकराहट थी। इसके साथ पुर्तगाल, स्पेन और डच भी एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका टकराव की स्थिति में थे। शान्ति का कहीं कोई प्रयास नहीं हो रहा था। ऐसे समय में विश्वविद्यालयों में शान्ति की पहल के रूप में तुलनात्मक साहित्य के विभाग आगे आए। इन लोगों ने यह स्थापित किया कि तथाकथित शत्रु देश के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार की समानता हमारे अपने प्रिय लेखक से है। समानता के इन बिन्दुओं को खोजा जाना चाहिए।
शान्ति की इस खोज के लिए तुलनात्मक साहित्य में शोध का प्रारम्भ हुआ। सूसन बेसनेट ने सन् 1935 के तुलनात्मक साहित्य पर चार्ल्स फिलारे के व्याख्यान को उद्धृत किया है, जिसमें फिलारे ने कहा– ‘जरा हम विचारों पर विचार के प्रभाव की गणना करें, लोग जिस तरह परस्पर परिवर्तित हुए हैं, हरेक ने एक दूसरे को क्या दिया और एक दूसरे से क्या प्राप्त किया : इस क्रम में सबकी वैयक्तिक राष्ट्रीयता पर इस अविरल विनिमय के प्रभाव की भी गणना करें : मसलन, लम्बे समय से पृथक रही उत्तर की भावना ने अन्तत: कैसे अपने आयत में दक्षिण की भावना के प्रवेश की अनुमति दी; इंग्लैण्ड के प्रति फ्रांस और फ्रांस के प्रति इंग्लैण्ड का कौन-सा चुम्बकीय आकर्षण था; अपने अंगी राज्यों पर समय वर्चस्व के लिए कैसे यूरोप के हर भूभाग ने प्रायश्चित किया और उन्हें पुन: अवसर दिया; धर्मप्राण जर्मनी, कलाप्रेमी इटली, ऊर्जावान फ्रांस, कैथोलिक स्पेन, प्रोटेस्टेण्ट इंग्लैण्ड के प्रभाव का क्या हुआ; शेक्सपियर के गहन विश्लेषण के साथ दक्षिण की मनभावन आभा का तालमेल कैसे बना; रोमन और इतालवी भावनाओं ने मिल्टन की कैथोलिक आस्था को अलंकृत कर कैसे सजाया; और अन्तत: आकर्षण, सहानुभूति जैसे जीवन्त, महान, सुस्त, कुछ सहजात एवं कुछ अध्यवसाय के कारण प्रतिबिम्बित विचार के स्थाई स्पन्दन… सारे के सारे अपने-अपने प्रभाव प्रस्तुत कर रहे हैं; जिन्हें वे उपहार की तरह स्वीकारते हैं और भविष्य में सारे के सारे नए अप्रत्याशित प्रभाव उत्सर्जन में तब्दील हो जाते हैं (Comparative literature, Susan Bassne, पृ.12-13)।’
इस तरह तुलनात्मक साहित्य के प्रारम्भिक विद्वानों का मत है कि किसी लेखक या विचारक के विचार एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। इस प्रभाव से लोग बदल जाते हैं। समाज में प्रत्येक व्यक्ति किसी एक से कुछ पाता है और किसी दूसरे को कुछ देता है। यह लेन-देन भौतिक स्तरों की तरह चिन्तन के स्तर पर भी चलता है। राष्ट्रों के बीच भी वैचारिक विनिमय होता है। इंग्लैण्ड के लिए फ़्रांस में आकर्षण है, फ़्रांस इटली या जर्मनी की तरफ कुछ आशावादी दृष्टि से देखता है। इस ग्रहण से दूसरे राष्ट्र प्रभावित होते हैं। तुलनात्मक साहित्य इस ‘कारण’ और ‘प्रभाव’ का अध्ययन करता है। राष्ट्र की आत्मा कभी अपरिवर्तित नहीं रहती। आजकल भारत की या संसार की आत्मा अमेरिका से प्रभावित है। कभी चीन, जापान और कोरिया भारत से प्रभावित हुए थे। यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान है। इससे आपसी सहयोग और विश्वमैत्री की भावना को बल मिलता है। इस प्रक्रिया में एक संस्कृति दूसरी संस्कृति को कुछ उपहार में देती है। जिस समय फ़्रांस और इंग्लैण्ड के बीच युद्ध हो रहा था, उस समय तुलनात्मक साहित्य के अध्येताओं ने ढूँढ निकाला कि शेक्सपियर का फ्रेंच साहित्य पर प्रभाव पड़ा था तथा फ्रेंच साहित्य का असर शेक्सपियर की रचनाओं में उपलब्ध है।
इस बीच यूरोप में राष्ट्रवाद अपने चरम रूप में था। इस राष्ट्रवाद के कारण सब लोग अपने-अपने राष्ट्र की प्रशंसा के तत्त्व ढूँढते रहते। आलोचकों का विचार है कि तुलनात्मक साहित्य में दिलचस्पी उन विचारकों के मन में ज्यादा थी, जो ‘राष्ट्रों के चौराहे’ पर खड़े थे या वे किसी एक देश के मूल निवासी थे, परन्तु दूसरे देश में रहते थे। अतः उनकी अपनी भौगोलिक और मानसिक स्थितियों में फर्क था। इन लेखकों ने राष्ट्रवाद की सीमाओं को तोड़ने के साथ-साथ राष्ट्रवाद को मजबूत भी किया। अपने-अपने राष्ट्रों की श्रेष्ठता का गुणगान भी हुआ। रैनवेलेक के अनुसार “यह सांस्कृतिक बहीखाते की विचित्र व्यवस्था की ओर ले जाता है, अपने देश के जमाखाते को बढ़ाने की कामना, जिसे यह सिद्ध करके पूरा किया जाता है कि इसके देश ने दूसरे देशों पर यथासम्भव प्रभाव डाले हैं या अधिक सूक्ष्म रूप से यह साबित करना चाहता है कि इसके देश ने विदेशी साहित्यकार को किसी अन्य देश से अधिक आत्मसात किया और समझा है।” (आलोचना की धारणाएँ, पृ-161) इस तरह यह मान्यताएँ प्रकारान्तर से राष्ट्रवाद को पुष्ट ही करती है।
- उपनिवेशों का साहित्य और तुलनात्मक अध्ययन
इस बीच यूरोपीय अध्येताओं का सम्पर्क उपनिवेशों के साहित्य और संस्कृति से हुआ। तब यह भी प्रश्न उठा कि साम्राज्यवादी (मालिक) देशों के साहित्य की तुलना उपनिवेशों (गुलाम) के साहित्य से हो सकती है या नहीं? यहाँ यूरोपीय मनीषा के मन में पुनः राष्ट्रवाद की भावनाएँ मुखर होने लगी। तब तुलनात्मक साहित्य के यूरोपीय अध्येताओं ने मत व्यक्त किया कि तुलना सिर्फ सामान स्तर के साहित्य से ही हो सकती है। अविकसित या अल्पविकसित देशों के साहित्य से यूरोपीय साहित्य की तुलना सम्भव नहीं है। अतः जर्मन साहित्य की तुलना फ्रेंच साहित्य से या अंग्रेजी की तुलना स्पेनिश साहित्य से हो सकती है। उपनिवेशों का साहित्य अभी उस स्तर तक पहुँचा ही नहीं, सो इसकी तुलना नहीं हो सकती। उपनिवेशों का साहित्य आपस में तुलना करना चाहे तो करे। सन् 1835 में लार्ड मैकाले ने बहूद्धृत घोषणा की थी और जिसकी बहुत निन्दा की गई थी कि प्राच्य देशों का साहित्य चाहे भारत का हो या अरब देशों का, यूरोपीय साहित्य की एक अलमारी में समाहित हो सकता है। इस वक्तव्य के मूल में समझ यह थी कि यूरोपीय मनीषा सर्वश्रेष्ठ है, अतुलनीय है, यहाँ का साहित्य श्रेष्ठता का पैमाना है, जबकि एशिया और अफ्रीका के लोग अभी ‘आदिम’ हैं, ‘बर्बर’ हैं। उन्हें अभी यूरोप से सभ्यता सीखनी है। तुलनात्मक साहित्य की यह समझ सिर्फ मेकाले की ही नहीं है, बाद तक यह धारणा मान्य रही है। इसके लिए तुलनात्मक साहित्य के अध्येताओं ने इसकी कई सीमा रेखाएँ निर्धारित की, जिनमें से सर्वमान्य धारणा यह सामने आई कि तुलनात्मक अध्ययन सिर्फ ‘पाठ’ का हो सकता है, उस पाठ का, जिसका कोई लेखक होता है। जिसका एक निश्चित स्वरूप और गठन होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि मौखिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन नहीं हो सकता। इसके साथ-साथ इस तथ्य को भी प्रचारित किया गया कि मौखिक साहित्य से लिखित पाठ श्रेष्ठ होता है। पिछड़े समाजों का अधिकांश साहित्य मौखिक होता है, यहाँ तक कि मौखिक महाकाव्य भी होता है। उस पर तुलनात्मक साहित्य के अध्येता विचार ही नहीं करते। वह तो किसी गिनती में ही नहीं आता। इसीलिए होमर, शेक्सपीयर, मिल्टन और दांते श्रेष्ठ हैं, क्योंकि यह पाठ है।
यूरोप का प्रवेश जब एशिया और अफ्रीका में हुआ, भले ही साम्राज्यवादियों के रूप में हुआ, भले ही सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के तर्कों के साथ हुआ, भले ही यह घोषित करते हुए हुआ कि यूरोपीय मनीषा ही सर्वश्रेष्ठ है, तब भी उपनिवेशों में एक नए ढंग के राष्ट्रवाद का उदय हुआ। उनमें भी अपने साहित्य को यूरोपीय ढंग से जानने की इच्छा जाग्रत हुई। इस कारण उपनिवेशों में अपने साहित्य के पक्ष में कई तर्क सामने रखे गए।
इनमें सबसे पहला यह कि जैसा यूरोप का साहित्य है, वैसा ही हमारा भी साहित्य है। हमारे साहित्य का भी पाठ है और कुछ मामलों में हमारा साहित्य यूरोपीय साहित्य से श्रेष्ठ है। वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि यूरोपीय साहित्य से श्रेष्ठ ही माने जाएँगे।
दूसरे, यदि यह मान भी लिया जाए और उस दौर में बहुत से लेखकों ने मान भी लिया, कि यूरोपीय मनीषा श्रेष्ठ है, अतुलनीय है, तब भी हम उनके जैसा बनने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। प्रयास करके हम उनके कुछ स्तरों तक तो पहुँच ही सकते हैं। उदाहरण के लिए अंग्रेजी साहित्यकार शेक्सपीयर सर्वकालिक, सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य रचनाकार हैं। इस बात को लेकर यूरोप में तो कोई मतभेद है नहीं, भारत में भी कई लोग इसे मानते हैं। इस तरह शेक्सपीयर साहित्य की श्रेष्ठता के मानक हैं। यूरोप के लिए शेक्सपीयर है, उसी तरह भारत के लिए यह महत्ता कालिदास को प्राप्त है। अब शेक्सपीयर और कालिदास की तुलना करते हैं तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कालिदास पूर्व के शेक्सपीयर हैं। अब जैसा और जितने स्तर का पूर्व है, वैसा ही वहाँ का शेक्सपीयर होगा। अर्थात कालिदास का महत्त्व है, सही है। परन्तु भारतीयों को शेक्सपीयर से सीखने की जरूरत है। और शेक्सपीयर से बराबरी करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा की भारत में दो तरह के अंग्रेज आए। एक शेक्सपीयर और मिल्टन के अंग्रेज आए, उनकी रचनाएँ आईं और जो विज्ञान, प्रजातन्त्र, स्वाधीनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये अंग्रेज वैचारिक रूप में आए। दूसरे अंग्रेज अत्याचारी कानूनों को लेकर प्रतिक्रियावादी-साम्राज्यवादी-नस्लवादी रूप में हमारे देश में आए। दोनों ही इंग्लैण्ड के राष्ट्रीय चरित्र के दो हिस्से हैं। अतः हमें दोनों से अपनी तुलना और रिश्ते स्वतन्त्र रूप से निर्धारित करने चाहिए। इस समझ के कारण भारत में शेक्सपीयर का स्वागत हुआ। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय से ही भारतीय भाषाओं में शेक्सपीयर की रचनाओं के अनुवाद और भावानुवाद हुए। स्वयं भारतेन्दु ने उनकी रचनाओं के अनुवाद किए और अपनी पत्रिकाओं में उनका प्रकाशन किया। यही कार्य अन्य भारतीय भाषाओं में भी हुआ। इन अनुवादों से भारतीय साहित्य की अंग्रेजी साहित्य से तुलना का प्रारम्भ हुआ।
- तुलनात्मक साहित्य और ‘अन्य’ का अध्ययन :
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि साहित्य में महत्त्व किस भाषा के साहित्य को दिया जाता है? अपनी भाषा का साहित्य या दूसरी भाषा का साहित्य? क्या दोनों भाषाओं को समान महत्त्व दिया जाता है? क्या ऐसी समानता सम्भव है? तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन करने वाले विद्वानों के कार्यों का परीक्षण करने के उपरान्त विचारक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि तुलना का प्रस्थान बिन्दु अध्येता की अपनी भाषा और उसका साहित्य होता है। व्यवहार में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन में एक भाषा प्रधान होती है और दूसरी भाषा गौण होती है। इस तरह वरिष्ठता का क्रम बन जाता है। भाषा अपनी ही श्रेष्ठ है। अतः हम अपनी भाषा के सन्दर्भ में अन्य भाषा का अध्ययन करते हैं।
अध्येताओं के मनोविज्ञान के जानकारों का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा या संस्कृति की दृष्टि से दूसरी भाषा और संस्कृति को समझता है। उसी माध्यम से वह समझ सकता है। यहाँ तक कि हम अन्य व्यक्ति को भी अपने माध्यम से ही समझ सकते हैं। इस तरह मानक हमारी अपनी भाषा बन जाती है। अन्य भाषाओं का मूल्यांकन हम इन मानकों के द्वारा करते हैं। तुलनात्मक साहित्य के अध्येताओं पर यह आरोप लगाया जाता है कि इसमें महान लेखकों की तुलना सामान्य लेखकों से की जाती है, महान रचनाओं की तुलना सामान्य रचनाओं से की जाती है, सशक्त संस्कृति की तुलना अपेक्षाकृत अल्पविकसित संस्कृति से की जाती है। इस प्रक्रिया में श्रेष्ठ को पुनः श्रेष्ठ सिद्ध किया जाता है। अंग्रेजी के किसी तुलनात्मक साहित्य के अध्येता ने शेक्सपीयर को कहीं कमजोर नहीं ठहराया है।
अपने से भिन्न संस्कृति और सभ्यता को समझने का प्रयास यूरोपीय यात्रियों ने किया। साम्राज्यवाद के प्रारम्भिक दौर में यूरोप के यात्री अनेक देशों की यात्राओं पर गए। इसी यात्रा में वास्को डि गामा भारत पहुँचा, कोलम्बस ने अमेरिका को ढूँढ निकाला। इन लोगों ने अपनी यात्रा के अनुभवों को लिपिबद्ध किया, डायरियाँ लिखीं, पत्र लिखे, जिनमें अन्य संस्कृतियों को समझने का प्रयास किया गया है। इस तरह कह सकते हैं कि यात्रा-साहित्य में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन के बीज मिलते हैं।
ये यूरोपीय यात्री साम्राज्यवाद के अग्रदूत के रूप में दुनिया भर में यात्रा करने निकले थे, अतः उनके लेखन में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं। जिस जमीन पर अब तक खेती नहीं की गई थी उसे अक्षत भूमि के रूप में कल्पित किया गया। अमेरिका में वर्जीनिया नाम इसी कारण पड़ा। नई भूमि का अधिग्रहण बलात्कार के रूप में देखा गया। इन यात्रियों ने रस ले-लेकर अन्य देशों की स्त्रियों, उनके आभूषणों, वस्त्रों और शारीरिक बनावट का वर्णन किया। उदाहरण के लिए एक अंग्रेज यात्री आस्ट्रिया गया। वहाँ उसने देखा कि आस्ट्रिया के लोग फ्रांस से घृणा करते हैं। यात्री बड़ा खुश हुआ और उसने इस बात की तारीफ़ की। अंग्रेजों का फ्रांसीसियों से युद्ध चल रहा था, इसलिए अंग्रेज मानते थे कि फ्रांस यूरोप का शैतान है। यह दृष्टिकोण आस्ट्रिया से मेल खा गया। अतः उसने इस तथ्य का उत्साहपूर्वक उल्लेख किया। तात्पर्य यह है कि यात्रावृतान्त में भी लेखक का दृष्टिकोण हावी रहता है। जिस अन्य को वह देखने गया है, उससे अपने आपको श्रेष्ठ समझता है। इन यात्रियों के साथ कुछ नक्शा-नवीस भी गए। इनके कार्यों का लेखा-जोखा करते हुए सुसन बेसनेट ने कहा कि नक्शा-नवीस, यात्रा-वृतान्त, अनुवादक आदि पाठ का निर्माण करने वाले निर्दोष लोग नहीं होते। वे जिस पाठ का निर्माण करते हैं, उसके द्वारा वे अपने दृष्टिकोण को एक विशेष दिशा देना चाहते हैं, ताकि हम उसी दृष्टि से उस संस्कृति को देख सकें। ये अपने विवरण-विश्लेषण में एक जैसे सन्दर्भ का निर्माण करते हैं, ताकि हम उसी तरह से ‘अन्य’ को देख सकें। इनका यह कार्य वस्तुगत नहीं होता, हालाँकि हम उनसे अपेक्षा करते हैं कि तटस्थ और वस्तुगत चित्र प्रस्तुत करें (Comparative literature, Susan Bassne, पृ.-114)।
- तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद अध्ययन
तुलनात्मक साहित्य को व्यवस्थित रूप देने के लिए अनुवाद बहुत उपयोगी होता है। अध्येताओं का विचार है कि अनुवाद की सहायता के बिना तुलनात्मक अध्ययन सम्भव नहीं है। यदि आपको दूसरी भाषा आती ही नहीं, तब आप तुलना करेंगे कैसे? आमतौर से माना जाता है कि अनुवाद का कार्य कम महत्त्व का है। मूलपाठ का रचनाकार बड़ा होता है। उसकी प्रतिष्ठा अधिक होती है। अनुवाद अध्ययन के विचारकों का मत है कि अनुवाद का कार्य कमतर नहीं है। वह मृत पाठ को पुनर्जीवन देता है, उसे नए पाठक उपलब्ध कराता है। यहाँ तक कि जिस भाषा में अनुवाद की जितनी अधिक सामग्री होती है, वह भाषा उतनी ही समृद्ध मानी जाती है। उस देश का संसार पर बौद्धिक वर्चस्व रहता है। इसलिए यदि तुलनात्मक साहित्य का विकास करना है, विश्व साहित्य को निर्मित करना है तो अनुवाद के महत्त्व को स्वीकार करना चाहिए।
- निष्कर्ष
साहित्य अध्ययन के क्षेत्र में तुलनात्मक साहित्य नवोद्भूत की अध्ययन पद्धति है, जिसमें एकाधिक भाषाओं के साहित्य के साम्य-वैषम्य का अध्ययन किया जाता है। कई बार यह एक ही भाषा के दो रचनाकारों के साहित्य को लेकर भी होता है। अध्येता तुलनात्मकता के किसी व्यवस्थित आधार की कसौटी पर इस अध्ययन को आगे बढ़ाते हैं। इतिहास गवाह है और वर्तमान में देखा जा रहा है कि तुलनात्मक साहित्य के जरिए हम न केवल भिन्न-भिन्न भाषा, साहित्य, जनपद की संस्कृति से परिचित होते हैं बल्कि इस रास्ते हम अपनी चेतना को भव्य और राजनयिक सम्बन्धों को अनुरागमय बनाने के सूत्र भी तलाशते हैं। आधुनिक शिक्षा विधान के क्षेत्र में तुलनात्मक साहित्य मानवीय, राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों को गहनतर बनाने का बेहतरीन साधन है।
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अतिरिक्त जानें
बीज शब्द
- तुलनात्मक अध्ययन : अध्ययन की वह शाखा जिसमें किसी एक विधा या भिन्न विधाओं की अलग-अलग कृतियों को आमने-सामने रखकर अध्ययन होता है। इन कृतियों के कृतिकार, समय, भाषा, अलग-अलग हो सकते हैं । बाल्मीकि रचित रामकथा और तुलसीदास रचित रामकथा अलग भाषा और काल की रचनाएँ है, फिर भी इन दोनों रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन हो सकता है।
- शेक्सपीयर : अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार, कवि और लेखक। अपने त्रासदीय नाटकों के लिए विशेष प्रसिद्ध।
- उपनिवेश : राजनीति और इतिहास में उपनिवेश उस क्षेत्र विशेष को कहते हैं जहां किसी और देश ने अपनी सत्ता कायम कर रखी हो और अपना कानून चलाता हो। उहाहरण के लिए भारत कभी ब्रिटिश साम्राज्य का एक उपनिवेश हुआ करता था।
पुस्तकें :
- तुलनात्मक साहित्य : भारतीय परिप्रेक्ष्य, इन्द्रनाथ चौधरी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
- तुलनात्मक साहित्य, एन. ई. अय्यर, विद्या विहार, दिल्ली।
- तुलनात्मक साहित्य की भूमिका, इन्द्रनाथ चौधरी, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली।
- तुलनात्मक अध्ययन, भारतीय भाषाएँ और साहित्य, बी,एच. राजूरकर और राजमल बोरा (सम्पादक), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
- Comparative Literature, R.K. Dhawan, Bahri Publications, Delhi.
- Comparative Literature: A Critical Introduction, Susan Bassnett, Blacwell Publication, Oxford.
- Comparative Literature: Indian Dimensions, Swapan Majumdar, Papyrus, Calcutta, India.
- Comparative Literature: Concepts of Literature, Henry Gifford, Routledge and Kegan Paul, New York.
- Essays in Comparative Literature, Andre Lefevere, Papyrus, Calcutta, India.
- Comparative Literature: Theory and Practice, Editor- Amiya Dev and Sisir Kumar Das, IIAS Publicatin, Simla, India.
वेब लिंक्स
- https://en.wikipedia.org/wiki/Comparative_literature
- http://complit.yale.edu/
- http://www.bu.edu/mlcl/home/why-study-comparative-literature/
- https://complit.princeton.edu/
- https://www.youtube.com/watch?v=6Bt51MK3_2g