7 साहित्य की समाजशास्‍त्रीय दृष्टि

प्रियम अंकित

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप

  • साहित्य की समाजशास्‍त्रीय दृष्टि से परिचित हो सकेंगे।
  • उसके प्रमुख चिन्तकों की रचना दृष्टि से साक्षात्कार कर पाएँगे।
  • आलोचना के क्षेत्र में समाजशास्‍त्रीय दृष्टि का असर जानेंगे।
  • आने वाले समय की आलोचना पर इस दृष्टि का प्रभाव जानेंगे।
  1. प्रस्तावना

   प्रस्तुत इकाई साहित्य और कला की आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय साहित्य की समाजशास्‍त्रीय दृष्टि के अध्ययन के निमित्त है। साहित्य और समाज के पारस्परिक सम्बन्ध निरूपण में आधुनिक साहित्य-चिन्तकों की शुरू से ही विशेष रुचि रही। पर आलोचकों की व्यक्तिगत रुचि-अरुचि से ऊपर उठकर इस सम्बन्ध की सैद्धान्तिक भूमि को स्पष्ट करने के प्रयास कुछ देर से आरम्भ हुए। किसी समाज के विकास के साथ उस समाज की भाषा और साहित्य में भी नई-नई प्रवृत्तियों का विकास होता जाता है। इसलिए किसी भाषा और साहित्य के विकास को उस समाज के विकास के स्वरूप को समझे बिना वैज्ञानिक रूप में विवेचित नहीं किया जा सकता है। इस बोध ने हमें ‘साहित्य की समाजशास्‍त्रीय दृष्टि’ जैसे अनुशासन की ओर उन्मुख किया।

  1. समाजशास्‍त्र का इतिहास

    पश्‍च‍िम में समाजशास्‍त्रीय आलोचना की शुरुआत का श्रेय फ्रांस की लेखिका मादाम स्तेल को जाता है। इस विषय पर उन्होंने सन् 1800 में एक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने सामाजिक संस्थाओं से साहित्य के जटिल सम्बन्धों पर विचार किया। अपनी पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है– “मैंने साहित्य पर धर्म, नैतिकता और क़ानून के प्रभाव तथा उन सब पर साहित्य के प्रभाव की जाँच परख का प्रयत्‍न किया है।” इस पुस्तक के कई वर्षों बाद काम्ते का चिन्तन आया। काम्ते के चिन्तन का प्रभाव तेन पर पड़ा। तेन ने कला का दर्शन  नामक अपने ग्रन्थ में समाजशास्‍त्रीय आलोचना की पद्धति को स्पष्ट करते हुए लिखा, “मैंने जो पद्धति अपनाई है, वह अब सभी विज्ञानों में चल रही है। उनके अनुसार सभी मानवीय उत्पादन और कलात्मक उत्पादन तथ्य और घटनाएँ हैं, जिनकी विशेषताओं की पहचान और कारणों की खोज आवश्यक है। इससे अधिक कुछ नहीं। वैज्ञानिक दृष्टि न किसी वस्तु की निन्दा करती है, न प्रशंसा, वह विशेषता बताती है और व्याख्या करती है। वह यह नहीं कहती कि डच कला बहुत भद्दी है, इसलिए उसे मत देखो और इटली की कला से प्रेम करो।” तेन ने अंग्रेजी साहित्य का इतिहास लिखते हुए अपनी पुस्तक की भूमिका में लिखा कि कोई कृति न तो एक व्यक्ति की कल्पना की क्रीड़ा है, न किसी उत्तेजित मन की भटकी हुई अकेली तरंग। वह समकालीन रीति-रिवाजों का पुनर्लेखन है और एक विशेष प्रकार के मानस की अभिव्यक्ति। हम महान रचनाओं से यह जान सकते हैं कि किसी समय और समाज में मनुष्य कैसे सोचता और अनुभव करता है।” इस कर्म में तेन ने समाजशास्‍त्रीय आलोचना के चार पक्ष उद्घाटित किए–

  1. साहित्य के भौतिक सामाजिक मूलाधार की खोज
  2. लेखक के व्यक्तित्व का विश्‍लेषण
  3. साहित्य में समाज के प्रतिबिम्ब की व्याख्या
  4. साहित्य का पाठक से सम्बन्ध

   फ्रांस के रोबेर एस्कार्पी ने साहित्य के सामजिक अस्तित्व और आधुनिक समाज में लेखक की स्थिति को स्पष्ट किया है। उनकी राय है कि लेखक, पुस्तक और पाठक के अन्तस्‍सम्बन्ध की जानकारी से ही समाज में साहित्य और साहित्यकार की वास्तविक स्थिति मालूम हो सकती है। एस्कार्पी ने साहित्य को एक सामाजिक उत्पादन मानकर पूरी प्रक्रिया का विवेचन किया, जिसमें साहित्य के उत्पादन, वितरण और उपयोग के अन्तर्गत विभिन्‍न समस्याओं पर विचार हुआ है। (साहित्य के समाजशास्‍त्र की भूमिका, पृ. 20-21)

  1. साहित्य की समाजशास्‍त्रीय दृष्टि का आशय और उसकी व्याख्या की प्रक्रिया

   साहित्य के समाजशास्‍त्र का विकास सिर्फ ‘साहित्यिकता’ के प्रश्‍न से नहीं, बल्कि उसकी ‘सामाजिकता’ की मीमांसा से मुखातिब होते हुए सम्भव हुआ। साहित्य में किसी रचना के दो पक्ष होते हैं– एक पक्ष रचनाकार की प्रतिभा का पता देता है, दूसरा पक्ष जो उसके अनुभवों का पता देता है। रचना में ये दोनो पक्ष संश्‍ल‍िष्ट होते हुए भी इस अर्थ में विशिष्ट होते हैं कि एक का श्रेय व्यक्ति को दिया जाता है तो दूसरे का समाज को। व्यक्ति अपनी प्रतिभा में कितना भी मौलिक हो, अनुभव तो उसे उस समाज से ही मिलते हैं, जिसका वह सदस्य होता है। इन अनुभवों के आधार पर समाज के साथ रचनाकार के जो सम्बन्ध बनते हैं, उनकी अभिव्यक्ति रचना में किस तरह हुई—इन सबसे ही रचना की सामाजिकता का प्रत्यय बनता है। इस प्रत्यय की व्याख्या करते हुए रचना-कर्म को भी एक सामाजिक कार्य के रूप में देखा जाता है। साहित्य का समाजशास्‍त्र ऐसी दृष्टि देता है जिससे हम साहित्य को सामाजिक यथार्थ से सन्दर्भित होता देख पाते हैं।

 

यथार्थ की बात चलते ही हमारी चेतना में दो शब्द और कौंधने लगते हैं- ‘आदर्श’ और ‘कल्पना’। प्रचलन कुछ ऐसा हो गया कि ‘यथार्थ’ और ‘आदर्श’ तथा ‘यथार्थ और कल्पना’ परस्पर विरोधी अर्थ देने वाले शब्द-युग्म माने जाते रहे। साहित्य की समाजशास्‍त्रीय दृष्टि इस प्रचलन को भ्रान्‍ति‍पूर्ण सिद्ध करती है। साहित्य में आदर्श और कल्पना भी किसी न किसी रूप में यथार्थ से ही सन्दर्भित होते हैं, विच्छिन्‍न या निरपेक्ष नहीं। तुलसीकृत रामचरितमानस में राम का आदर्श रूप समाज की सामन्ती संरचना के यथार्थ रूप से सन्दर्भित है; मैथिलीशरण गुप्‍त के साकेत के राम का आदर्श रूप भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के यथार्थ से सन्दर्भित है। कलाओं के क्षेत्र में कल्पना एक सर्जनात्मक शक्ति के रूप में स्वीकार्य रही है। कल्पना सर्जनात्मक होती है क्योंकि वह यथार्थ का पुनर्सृजन करती है। यथार्थ का पुनर्सृजन सर्वत्र एक-सा नहीं होता क्योंकि हर रचनाकार एक-सी कल्पना नहीं करता। कल्पना ही हर रचना में मौलिकता की सृष्टि करती है। पर मौलिकता के भी सामाजिक अभिप्राय होते हैं। कल्पना की मौलिकता के सामाजिक अभिप्रायों का अध्ययन साहित्य की समाजशास्‍त्रीय दृष्टि से किया जाता है। पश्‍च‍िमी चिन्तकों में सी.राईटमिल्स और रिचर्ड होगार्ट आदि ने कल्पना की सामाजिकता की व्याख्या के गम्भीर प्रयास किए हैं। मिल्स ने कल्पना के सामाजशास्‍त्रीय स्वरूप का अभिज्ञान करते हुए लिखा–‘कल्पना एक ऐसी मन:शक्ति है जिसकी सक्रियता के मूल में व्यक्ति की सामाजिक और ऐतिहासिक अर्थवत्ता की खोज की प्रेरणा रहती है’। (Sociological Imagination, 1967, पृ. 14-15) रिचर्ड होगार्ट के अनुसार– ‘जिसे हम रचनाकार की कल्पना या अन्तर्दृष्टि कहते हैं, वह समाज की उसकी समझ का ही पर्याय है। अगर साहित्यिक कल्पना समाज के बारे में महत्त्वपूर्ण अन्तर्दृष्टि देती है तो उसके महत्त्व को केवल साहित्यिक मूल्यों के आधार पर ही नहीं समझा जा सकता’। (Speaking to Each Other, 1973, पृ. 24-25) स्पष्ट है कि कल्पना की सर्जनात्मक भूमिका को सामाजिक सोद्देश्यता की दृष्टि से आकलित करके हम साहित्य की सामाजिकता की व्याख्या अधिक संगत रूप में कर सकते हैं।

  1. समाजशास्‍त्र और साहित्य का समाजशास्‍त्र

   ‘समाज’ नाम की संस्था के जन्म, उसकी संरचना, घटक और स्वरूप का अध्ययन करने वाले अनुशासन को ‘समाजशास्‍त्र’ के नाम से हम पहचानते हैं। इस ज्ञानानुशासन से हम पश्‍च‍िमी चिन्तन के ज़रिये परिचित हुए। पश्‍च‍िम के समाजशास्त्रियों ने सामाजिक विकास के अध्ययन हेतु तथ्य-संग्रह के उपक्रम से शुरुआत की। स्रोत के रूप में उन्होंने भाषा और साहित्य को भी अध्ययन के दायरे में लेने की कोशिशें की। इन कोशिशों का समावेश हम ‘साहित्य की समाजशास्‍त्रीय दृष्टि’ के अन्तर्गत नहीं कर सकते। यहाँ अध्ययन का उद्देश्य न तो साहित्य की विशेषताओं का उद्घाटन करना था, न साहित्य की प्रवृत्तियों के सर्जनात्मक स्वरूप की पहचान। यहाँ तो अध्ययन का मुख्य उद्देश्य समाज की संरचना और उसके विकास के स्वरूप को उद्घाटित करना मात्र था। इसे हम मात्र ‘समाजशास्‍त्र’ कह सकते हैं, ‘साहित्य की समाजशास्‍त्रीय दृष्टि नहीं। ‘समाजशास्‍त्र’ में बल समाज के अध्ययन पर रहता है, जबकि‍ ‘साहित्य की समाजशास्‍त्रीय दृष्टि’ में साहित्य के अध्ययन पर। साहित्य को स्वायत्त और समाज-निरपेक्ष मानने, उसे रचनाकार के वैयक्तिक कौशल के रूप में व्याख्यायित करने के बदले समाज की आशाओं-आकाक्षाओं की समस्वरता में देखने में सहायक दृष्टि को साहित्य की समाजशास्‍त्रीय दृष्टि कह सकते हैं।

 

इस तरह साहित्य और समाज के रिश्तों को दो भिन्‍न पद्धतियों से समझ सकते हैं– एक पद्धति वह है जिसमें हम समाज का अध्ययन करना चाहते हैं। समाज के अध्ययन के स्रोत के रूप में साहित्य का इस्तेमाल किया जाता है। प्रेमचन्द के साहित्य के माध्यम से हम तत्कालीन भारतीय किसानों और भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन को समझना चाहते हैं। इसके लिए भी हमें साहित्य का ठीक-ठीक अर्थ करना आना चाहिए। यह अध्ययन की एक पद्धति है। दूसरी पद्धति में हम समाज को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करते हैं, ताकि साहित्य के मर्म का उद्घाटन कर सकें। यहाँ प्रमुख उद्देश्य साहित्य का विश्‍लेषण है, समाज और बाह्य परिवेश का उपयोग किया जाता है। साहित्य का समाजशास्‍त्र दोनों तरह का हो सकता है, परन्तु अधिकतर विद्वान दूसरी पद्धति को ही साहित्य के समाजशास्‍त्र की पद्धति मानते हैं।

  1. साहित्य : एक सामाजिक संस्था

   सामाजिक संस्था के रूप में साहित्य का विवेचन करने वाले पश्‍च‍िमी विद्वानों में हैरी लेविन, एच.डी. डंकन, पियरे बोर्दिये और सी.ए. वान रीस आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। हैरी लेविन के अनुसार अन्य संस्थाओं के समान ही साहित्य भी मानव-अनुभव की अद्वितीय अवस्था को अपने भीतर सँजोए है। साहित्य नाम की संस्था अपने एक निजी स्वरूप से पहचान में आती है। लेकिन जैसे समाज नाम की संस्था अपने स्वरूप में विकासशील होती है, वैसे ही साहित्य भी। (साहित्य के समाजशास्‍त्र की भूमिका, 1989, पृ.22) एच. डी. डंकन का मानना है कि लेखक, आलोचक और पाठक–तीनों के पारस्परिक सम्बन्ध से साहित्य संस्था का रूप ले लेता है। फ्रांसीसी विद्वान पीयरे बोर्दिये ने साहित्य को संस्था के रूप में महत्त्व दिलाने में शिक्षा-संस्थानों और आलोचना के योगदान की चर्चा की है। सी.जे.वान रीस ने तो आलोचना को भी एक संस्था ही माना। उनके मतानुसार आलोचना एक संस्था के रूप में किसी कृति को साहित्य होने की सनद देती है; उसी से कृति की साहित्यिकता का प्रमाण मिलता है।

 

समाजशास्‍त्रीय आलोचना का अगला व्यवस्थित विकास फ्रैंकफर्ट स्कूल में हुआ। इन लोगों ने मार्क्सवाद से सहायता ली तथा नया चिन्तन विकसित किया, जिनमें अडोर्नो, वॉल्टर बेन्जामिन, हर्बर्ट मारकूस, लियो लेवन्थाल आदि मुख्य हैं। इसी परम्परा में आगे चलकर लूसिए गोल्डमान हुए। उन्होंने उपन्यास की आलोचना की नई पद्धति विकसित की।

  1. साहित्य के समाजशास्‍त्र की मूल मान्यताएँ

   ‘साहित्य के समाजशास्‍त्र की भूमिका’ में मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है, “साहित्य के समाजशास्‍त्र के क्षेत्र में तीन दृष्टियाँ सक्रि‍य हैं, जिनका लक्ष्य है–

  1. साहित्य में समाज की खोज
  2. समाज में साहित्य की सत्ता और साहित्यकार की स्थिति का विवेचन
  3. साहित्य और पाठक के सम्बन्ध का विश्‍लेषण

    साहित्य का कथ्य और भाषा समाज से निर्मित होता है। भ्रमरगीत में गोपियों और उद्धव का संवाद होता है, इस संवाद में वे सामाजिक जीवन की ही चर्चा करते हैं। तुलसीदास के रामचरितमानस के रामराज्य और कलि‍युग की परिकल्पना तत्कालीन समाज से ही आई है।

 

समाजशास्‍त्रीय आलोचना की आधारभूत मान्यता है कि साहित्य और समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। किसी भी साहित्यिक कृति का सृजन किसी अद्वितीय प्रतिभा से नहीं होता, बल्कि उसका अपने समय के समाज, युग और परिवेश के बिना साहित्य की कल्पना सम्भव नहीं है। पाठ का निर्माण सिर्फ लेखक नहीं करता। कुछ चीजें पहले से निश्‍च‍ित होती हैं, उसी के भीतर लेखक रचना करता है। ये चीजें उसे समाज से मिलती हैं। उदाहरण के लिए संगीत में तबला पहले से बना हुआ है, उसके ‘बोल’ पहले से ही निश्‍च‍ित हैं। कलाकार इनके माध्यम से कला प्रस्तुत करता है। यह माध्यम उस रचना को प्रभावित करता है। साहित्य में यह माध्यम भाषा है, जिसका अर्थ समाज द्वारा निश्‍च‍ित किया हुआ होता है।

 

इसी तरह लिखने के बाद कृति‍ रचनाकार से स्वतन्त्र हो जाती है। उस पाठ को हर बार पढ़ना पुन: सृजन जैसा हो जाता है। उसका ‘अर्थ’ बदल जाता है। यह परिवर्तन लेखक नहीं करता। इसलिए कृति में लेखक का नाम कामचलाउ होता है। उदाहरण के लिए तुलसीदास की रचना रामचरितमानस को लेते हैं। लेखन से पहले तुलसीदास ने नाना पुराण निगमागमों का अध्ययन किया था। रामकथा पहले से मौजूद थी। तुलसीदास ने उस कथा को फिर से पढ़ा, उसे नया अर्थ दिया और तब लिखा। रामकथा के पात्र, घटनाएँ, प्रकरण और प्रसंग निश्‍च‍ित हैं। पात्रों का चरित्र स्पष्ट है। उसमें छेड़छाड़ नहीं हो सकती। वह पहले से तय है। फिर महाकाव्यों के वर्णन की शैली भी निश्‍च‍ित है। इन तयशुदा प्रकरणों के बाद तुलसीदास को सृजनात्मकता का प्रश्‍न आता है। यहाँ भी तुलसी के जीवन मूल्य, उस युग के अन्तर्विरोध, युग की आवश्यकता, तुलसी का अपना वर्ग और जातीय चरित्र, अपना जीवनानुभव भूमिका निभाते हैं। इन सबको मिला देने पर तुलसी की अद्वितीयता के लिए बहुत कम स्थान बचता है। ये सब चीजें सामाजिक होती हैं।

 

इसलिए सृजन रहस्यमयी क्रिया नहीं है। यहाँ श्रम की भूमिका आती है। इसलिए साहित्य भी निर्माण है, या कहें कि उसका बड़ा हिस्सा निर्माण है। अतः वह समाजशास्‍त्रीय अध्ययन की परिधि में आता है। फिर पाठक भी पाठ को प्रभावित करता है। हम किसको सम्बोधित करते हैं? इससे कृति बदल जाती है। यदि आप अपढ़, मूढ़, अश्‍लील और अभद्र लोगों को सम्बोधित करते हैं या अत्यन्त सुरुचि सम्पन्‍न लोगों को सम्बोधित करते हैं, इससे बात बदल जाती है। इसलिए साहित्य को सिर्फ लेखक तक सीमित नहीं रखा जा सकता। विचारकों ने इस विषय की भी चर्चा की है कि साहित्य का माध्यम भाषा है। और इस भाषा का निर्माण कोई एक लेखक नहीं करता। भाषा का निर्माण समाज करता है। समाज द्वारा दी गई भाषा के माध्यम से ही लेखक अपनी बात कह पाता है। यह अवश्य है कि लेखक अपने सृजन कर्म द्वारा इस भाषा को समृद्ध करता है। इस समृद्ध भाषा का उपयोग अगला लेखक करता है। इसी तरह साहित्य के विविध रूप और विधाएँ भी लम्बी परम्परा में विकसित होते हैं। रचनाकार इस ढाँचे को अपना लेता है। महाकाव्य का निर्माण एक लेखक ने नहीं किया, न उपन्यास की रचना एकाएक हो गई। इस सब में समाज की भूमिका होती है। इसका अध्ययन, विश्‍लेषण और मूल्यांकन साहित्य के समाजशास्‍त्र का विषय है।

 

साहित्य की विषयवस्तु लेखक की कल्पना से आती है, परन्तु लेखक की कल्पना का सम्बन्ध भी समाज से होता है। यूनान में ट्रेजडी की रचना होती थी, लेकिन भारतीय संस्कृति में ट्रेजडी को मान्यता नहीं मिली। इसलिए भारतीय साहित्य में ‘अन्त भला सो सब भला’ की मान्यताओं से रचनाओं की कल्पना की जाती है। दुष्यन्त और शकुन्तला अन्त में फिर मिल जाते हैं। प्रेमचन्द ने गोदान में किसानों के जीवन का चित्रण किया, तो जयशंकर प्रसाद ने कामायनी  में किसान जीवन की कल्पना क्यों नहीं की? मीरा कृष्ण में अगाध विश्‍वास करती है, तब भी कृष्ण से मिलन क्यों नहीं हो पाता? मीरा यह नहीं लिख पाई कि कृष्ण से उनका मिलन हो गया। यह कल्पना भी वह कर सकती थी। असहयोग आन्दोलन से यह स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज भारतीयों के हित-चिन्तक नहीं हैं, बल्कि वे उनके प्रमुख शत्रु हैं। यह धारणा समाज में आई और प्रेमचन्द ने रंगभूमि उपन्यास में इसको अभिव्यक्त किया। सूरदास की रचना असहयोग आन्दोलन के बिना सम्भव नहीं थी। इसी तरह दलित लेखकों की आत्मकथाओं में व्यक्त जीवन उनके अपने जीवन की सचाई है। उसे इन लेखकों ने कल्पित नहीं किया है। मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है, “समाज में कलाकार की बदलती हुई स्थितियों का विवेचन पहले कला के इतिहास के अन्तर्गत होता था। यूरोपीय समाज के विकास के साथ कला के विकास का इतिहास लिखने वालों ने यह किया है। अर्नाल्ड हाउजेर ने कला का सामाजिक इतिहास नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है। उसके चार खण्डों में विभिन्‍न कालों और समाज व्यवस्थाओं में कलाकारों की बदलती सामाजिक स्थितियों का विश्‍लेषण है। समाजशास्‍त्रीय दृष्टि से कलाकारों और साहित्यकारों की सामाजिक स्थितियों का विश्‍लेषण बीसवीं सदी में विकसित हुआ। यही पूँजीवादी समाज में कलाकारों और साहित्यकारों की जटिल त्रासद स्थितियों को समझने के प्रयत्‍न का परिणाम है। वैसे स्वतन्त्र कलाकार या साहित्यकार की धारणा भी आधुनिक युग की ही देन है।” (साहित्य के समाजशास्‍त्र की भूमिका, पृ. 20)

 

लेखक रचना करता है, परन्तु वह अपने लिए नहीं करता। वह दूसरे को सुनाना चाहता है। उसे समझाना चाहता है। उसे बताना चाहता है। उसे बदलना चाहता है। वह उससे समर्थन की आशा करता है। वह उससे स्वीकृति चाहता है। अतः हम कह सकते हैं कि कोई कृति पाठक तक पहुँचकर ही पूर्ण होती है। कई बार लेखक अपने युग के पाठक से निराश होता है, तब भवभूति की तरह वह भविष्य के पाठकों को सम्बोधित करता है। कई कृतियाँ स्वयं अपने साहित्य के पाठकों का निर्माण करती है।

 

आधुनिक काल में स्वछन्दतावादी दौर में लेखक चिन्तन के केन्द्र में था। वही कल्पना करता था और कृति का सृजन करता था। इसके बाद रूपवादी आलोचना आई। रूपवादियों ने लेखक और पाठक से स्वतन्त्र कृति की वकालत की। इसके बाद पाठ के स्थान पर पाठक आलोचना के केन्द्र में आ गए। रोलाँ बार्थ ने इस अभियान की घोषणा करते हुए लिखा कि लेखन का लक्ष्य है पाठक, इसलिए आलोचना में लेखक की मौत की कीमत पर पाठक का जन्म आवश्यक है।

 

साहित्य के समाजशास्‍त्र में पाठक का महत्त्व स्वीकार करने का अर्थ है साहित्य के उत्पादन से आगे बढ़कर उसके उपभोग पर ध्यान केन्द्रित करना, उत्पादन की परिस्थितियों के बदले उपभोग की स्थितियों का विवेचन करना। यह साहित्य की सामाजिकता की पहचान के लिए पाठक समुदाय के बीच साहित्य की सत्ता और महत्ता के विवेचन की ओर ले जाने वाली प्रक्रिया है। इसके अन्तर्गत पाठक द्वारा कृति का चयन, चयन के कारण, उसकी मानसिकता, कृति का बोध, कृति के अर्थ की पुनर्रचना, पाठक पर प्रभाव और उसकी प्रतिक्रियाओं का विवेचन होता है। इस तरह एक ओर पाठक समुदाय की बदलती मानसिकता उधर दूसरी ओर किसी लेखक या रचना की घटती-बढ़ती लोकप्रियता सामने आती है। यही नहीं, पाठकीय अभिरुचि के विकास में रचना की भूमिका और साहित्य के स्वरूप के विकास में पाठक वर्ग की भूमिका भी स्पष्ट होती है। (साहित्य के समाजशास्‍त्र की भूमिका, पृ. 24)

 

साहित्य में पाठक-समुदाय की भूमिका के अध्ययन का यह प्रश्‍न साहित्य के समाजशास्‍त्र के अन्तर्गत आता है। इस विषय पर यूरोपीय आलोचना में अनेक पठनीय ग्रन्थों की रचना हुई है।

  1. निष्कर्ष

    साहित्य के समाजशास्‍त्र का विश्‍लेषण करते हुए आलोचकों का ध्यान साहित्य के कलात्मक रूप पर नहीं होता। ऐसे लोग साहित्य में समाज की विविध भूमिकाओं को लेकर ही चिन्तित होते हैं। परन्तु ऐसे सभी विचारक साहित्य के क्षेत्र में तभी मान्‍य होते हैं, जब उनकी साहित्य की समझ परिपक्‍व हो। ऐसा नहीं हो सकता कि साहित्यिकता की उथली समझ से ही कोई साहित्य की समाजशास्‍त्रीय भूमिका स्पष्ट कर सका हो। हिन्दी आलोचना में अभी यह अनुशासन फुटकर अवस्था में है। आलोचक विभिन्‍न पश्‍च‍िमी विद्वानों के मतों को उद्धृत करके साहित्य का विश्‍लेषण मूल्यांकन कर लेते हैं। आज भी हिन्दी में कोई शुद्ध समाजशास्‍त्रीय आलोचक नहीं है। हिन्दी के आलोचक आवश्यकतानुसार या प्रसंगवश समाजशास्‍त्रीय आलोचना की कुछ मान्यताओं और सूत्रों का उपयोग कर लेते हैं। प्राचीन संस्कृत आलोचना कृति केन्द्रित थी, उसमें परिवेश या समाज की भूमिका का अध्ययन प्रायः नहीं होता। हिन्दी आलोचना प्रारम्भ से ही साहित्य और समाज के रिश्ते को स्वीकार करके विकसित हुई है। प्रगतिशील आलोचना में इस रिश्ते पर अधिक गहराई से विचार किया है, परन्तु यह सारी परम्परा समाजशास्‍त्रीय आलोचना की परम्परा में नहीं आती। समाजशास्‍त्रीय आलोचना को समझने-समझाने का काम नगेन्द्र, निर्मला जैन, मैनेजर पाण्डेय आदि विद्वानों ने किया है। साहित्य के आलोचकों के अलावा कुछ इतिहासकारों और समाज वै‍ज्ञानिकों ने इस विषय पर काम किया है, जिनमें डी. पी. मुखर्जी, डी.डी. कौशाम्बी, रोमिला थापर, पूरनचन्द जोशी आदि उल्लेखनीय हैं।

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अतिरिक्त जानें

 

बीज शब्द

  1. समाजशास्त्र : समग्र रूप में समाज से सम्बन्धित भूमण्डलीय तथा साथ ही विशेष सामाजिक प्रणालियों के विकास  तथा प्रकार्यात्मकता की नियम-संगतियों  का विज्ञान।
  2. साहित्य का समाजशास्त्र : साहित्य और समाज के सम्बन्धों की पड़ताल करनेवाला शास्त्र। इसमें किसी कृति की रचना-प्रक्रिया में उसके कृतिकार और उसके समय की भूमिका का विश्लेषण किया जाता है।
  3. आधुनिकता : आधुनिकता एक मूल्यबोध है। कोई प्राचीन या मध्यकालीन व्यक्ति भी अपने विचारों में आधुनिक हो सकता है।

    पुस्तकें-

  1. साहित्य का समाजशास्त्र, डॉ. नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
  2. साहित्य सिद्धान्त, ऑस्टिन वारेन एवं रैनेवेलेक, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
  3. आलोचना का समाजशास्त्र, मुद्राराक्षस, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
  4. समाजशास्त्र का परिचय, आनंद कुमार, विवेक प्रकाशन, दिल्ली।
  5. समाजशास्त्र कोश, हरिकृष्ण रावत, रावत पब्लिकेशन, जयपुर।
  6. साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, मैनेजर पाण्डेय, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, हरियाणा।
  7. Sociology Of Literature And Drama, (Ed.) Elizabeth And Tom Burns, penguin books England
  8. Notes to Literature, T.W. Adorno (Tramslation), Columbia University Press, New York.
  9. Literature and the Image of the Man, Leo Lowenthal, The Beacon Press, Boston.
  10. Literature, Popular Culture and Society, Leo Lowenthal, Pacific Book Publication, California.
  11.  Literature and Mass Culture, Leo Lowenthal, New Brunswick, USA

    वेब लिंक्स

  1. https://www.youtube.com/watch?v=4ogeGVpBFZ0
  2. https://www.youtube.com/watch?v=dQZ-2S7RXT0https://en.wikipedia.org/wiki/Sociology_of_literature
  3. http://www.newliteraryhistory.org/articles/41-2-english.pdf
  4. https://en.wikipedia.org/wiki/Sociology_of_literature
  5. https://www.marxists.org/reference/archive/lowenthal/1932/literature.htm
  6. http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/36080/8/08_chapter_01.pdf