35 टेरी ईगलटन की साहित्य दृष्टि

विभास चन्द्र वर्मा

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • टेरी ईगलटन का साहित्यिक परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • मार्क्‍सवादी आलोचना में ईगलटन के साहित्यिक अवदान को जान पाएँगे।
  • साहित्य और विचारधारा पर ईगलटन के विचार से अवगत हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

  ब्रिटेन के टेरेंस फ्रांसिस ‘टेरी’ ईगलटन (22 फरवरी, 1943) वर्तमान समय के चर्चित मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तकों में से एक हैं। उन्होंने अंग्रेज़ी के साथ-साथ कई दूसरी भाषाओं में हो रहे साहित्य-चिन्तन और आलोचना को भी प्रभावित किया। ईगलटन की मार्क्सिज़्म एण्ड लिटरेरी क्रिटिसिज़्म (1976) तथा लिटरेरी थियरी : एन इन्ट्रोडक्शन (1983)साहित्य के विद्यार्थियों के लिए सर्वाधिक लोकप्रिय प्रवेश-पुस्तकों में रही हैं। इसके अलावा उनकी कई चर्चित किताबों में एग्जाइल्स एण्ड एमिग्रेज़ : स्टडीज़ इन मॉडर्न लिट्रेचर (1970), क्रिटिसिज़्म एण्ड आइडियॉलजी: ए स्टडी इन मार्क्सिस्ट लिटररी थियरी (1976),वाल्टर बेंजामिन, ऑर टवर्ड्स ए रिवॉल्यूनरी क्रिटिसिज़्म”(1981), “द रेप ऑफ़ क्लैरिसा : राइटिंग, सेक्सुऎलिटी एण्ड क्लास-स्ट्रगल”(1982), दि आइडियालॉजी ऑफ़ दी एस्थेटिक्स (1990), दिइल्यूज़न्स ऑफ़ पोस्टमॉडर्निज़्म (1996), आफ़्टर थियरी (2003), हाउ टू रीड अ पोएम”(2007), व्हाई मार्क्स वाज़ राइट (2011) आदि प्रमुख हैं। सेण्‍ट्स एण्ड स्कॉलर्स (1987) उनका उपन्यास है। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे हैं। द गेटकीपर : अ मेमॉयर (2001) नामक उनकी आत्मकथा भी काफी चर्चित रही है। लेखन की अपनी इस विविधता और प्रचुरता के कारण ही ईगलटन को लगता है कि वे पुस्तक-विक्रेताओं के लिए किसी पहेली की तरह हैं। पुस्तक-विक्रेता यह समझ नहीं पाते कि ईगलटन की पुस्तकों को किस श्रेणी में रखा जाए।

 

साहित्यिक अध्ययन और सांस्कृतिक राजनीति को साथ मिलाकर चलने के प्रयत्‍न में उन्होंने कई साहित्य-सैद्धान्तिकियों का प्रयोग किया है। इनमें कुछ सैद्धान्तिकियाँ परस्पर विरोधी भी रही हैं। अतः वे आलोचना के पात्र भी बने। इसके बावज़ूद ईगलटन की लोकप्रियता और विवाद-प्रियता में कोई कमी नहीं आई है। वे साहित्य-चर्चाओं में प्रासंगिक बने हुए हैं। उनके लेखन की विपुलता और विविधता को देखते हुए उन्हें किसी एक श्रेणी में रखना कठिन कार्य है।

  1. मार्क्सवादी आलोचना : एक बहुआयामी पाठ

   ईगलटन मार्क्सवाद की किसी एकल अवधारणा में विश्वास नहीं करते। उनके अनुसार “मार्क्सवाद एक पाठ है जो कई विभिन्‍न अर्थों और पठनों के लिए खुला है”। अपने आलोचना-जीवन में ईगलटन इस बात को अनवरत जाँचते-परखते रहे हैं कि मार्क्सवादी बने रहने का अर्थ क्या है। शायद इसीलिए उन्होंने अपने समकालीनों के अलावा कई पुराने मार्क्सवादी लेखकों और विचारकों के लेखन और सिद्धान्तों पर विचार किया है। मार्क्स, एंगेल्स, जार्ज लुकाच, रेमण्ड विलियम्स, लूसिएँ गोल्डमान, वाल्टर बेंजामिन, बर्तोल्त ब्रेख्त आदि को उन्‍होंने अपनी आलोचना और चिन्तन का विषय बनाया है। ईगलटन ने अपने लेखन की शुरुआत रेमण्ड विलियम्स के सिद्धान्तों के अनुप्रयोग से की। अपनी पहली पुस्तक शेक्सपीयर एण्ड सोसायटी (1967) में उन्होंने व्यक्ति और समाज के बीच, स्वत:स्फूर्त जीवन और सामाजिक संरचना के बीच तयशुदा सम्बन्धों के विघटन की बात की थी।

 

एग्जाइल्स एण्ड एमिग्रेज़ : स्टडीज़ इन मॉडर्न लिट्रेचर में ईगलटन ने लुकाच का अनुगमन करते हुए कहा कि यथार्थवादी उपन्यास अपने इतिहास के प्रारूपिक घटकों का पुनरुत्पादन करता है। वह अस्तित्वमान सामाजिक सम्बन्धों की गहन समग्रता के रूप में फलित होता है। ईगलटन ने आधुनिकतावाद की विचारधारा के बारे में अपेक्षाकृत अधिक सकारात्मक मत जताते हुए यह मानने से इनकार किया कि आधुनिकतावादी प्रयोगवाद में अनिवार्य रूप से ‘अनुभूति का क्षरण’ हो जाता है। उन्होंने यह दिखाया कि डी.एच.लारेंस जैसे आधुनिकतावादी उपन्यासकार भी द रेनबो उपन्यास के अन्त तक आते-आते अनुभूति की चमत्कारी “समग्रता” प्राप्‍त कर लेते हैं। टॉमस हार्डी और ब्रॉन्टे बहनों की कृतियों पर लूसिएँ गोल्डमान के सिद्धान्तों को आजमाते हुए उन्होंने कुछ अध्ययन किया। जल्द ही वे इन मार्क्सवादी चिन्तकों, जिनके ‘समग्रतावाद’ में वे ‘सन्तुलन के प्रति अत्यधिक रुझान’ देखते थे, के विचारों को छोड़कर अल्थूसर और उनके सहयोगी पियरे मैकरे के विचारों की ओर आकर्षित हुए। इस दौरान उन्होंने ‘पाठ का विज्ञान’ स्थापित करने का प्रयास किया। यह उनके लिए एक ज्ञानमीमांसात्मक मोड़ था जिसके तहत कला को सामाजिक यथार्थ के प्रतिबिम्ब मात्र के रूप में न देखकर उसे इस यथार्थ के सक्रिय घटक के रूप में भी देखा जाना था। ये बातें उनकी पुस्तक क्रिटिसिज़्म एण्ड आइडियालॉजी (1976) तथा प्राय: उसके साथ ही प्रकाशित मार्क्सिज़्म एण्ड लिटररी क्रिटिसिज़्म (1976) में आई हैं।

 

ईगलटन के अनुसार मुख्य समस्या साहित्य और विचारधारा के सम्बन्ध को परिभाषित करने की है। पाठ (टेक्स्ट) ऐतिहासिक यथार्थ को प्रतिबिम्बित नहीं करता। वह विचारधारा रचकर उससे ‘यथार्थ’ के असर का उत्पादन करता है। कोई पाठ यथार्थ के सन्दर्भ से मुक्त लग सकता है, लेकिन वह अपनी विचारधारा के उपयोग से मुक्त नहीं होता। ईगलटन के अनुसार विचारधारा कुछ सिद्धान्तों का संग्रह मात्र नहीं है। वह एक वर्ग-विभक्त समाज में लोगों की भूमिकाएँ, मूल्य, विचार और बिम्ब और उनके सामाजिक कार्यों के सम्बन्धों की सूचना भी है। इनको जाने बिना समाज के समग्र रूप तक पहुँचना कठिन है। फ्रांस के मार्क्सवादी विचारक अल्थूसर के हवाले से वे बताते हैं कि कला (या साहित्य) विचारधारा में निहित भी होती है और उससे एक दूरी भी बनाए रखती है। इस दूरी के कारण ही रचना विचारधारा को ‘अनुभव’ कर सकने, उसे ‘गोचर’ कर सकने में समर्थ हो पाती है। ऐसा करते हुए कला विचारधारा के ज्ञान तक नहीं पहुँचाती है, क्योंकि अल्थूसर के अनुसार ज्ञान वैज्ञानिक ज्ञान है और कला वैज्ञानिक ज्ञान नहीं बन सकती। उदाहरणार्थ, किसी मार्क्सवादी साहित्यिक रचना को पढ़कर वह अवधारणात्मक ज्ञान हासिल नहीं हो सकता जो कार्ल मार्क्स के कैपिटल  को पढ़कर हो सकता है। यानी विज्ञान और कला के बीच यह भेद नहीं है कि वे अलग- अलग चीजों से सम्बद्ध हैं, बल्कि यह है कि वे एक ही चीज से अलग-अलग तरीकों से सम्बद्ध हैं।

 

ईगलटन अल्थूसर के इस कथन को पूरी तरह स्वीकार नहीं करते कि कला विचारधारा से दूरी बनाए रख सकने में समर्थ है। उनके अनुसार यह पहले से अस्तित्वमान विचारधारात्मक विमर्श की ही एक जटिल पुनर्रचना है। साहित्यिक परिणाम सिर्फ़ अन्य विचारधारात्मक विमर्शों का प्रतिबिम्ब नहीं है, बल्कि विचारधारा की एक विशिष्ट प्रस्तुति (उत्पाद) भी है। इसी कारण आलोचना का सम्बन्ध सिर्फ़ साहित्यिक रूप (फॉर्म) के महज नियमों या विचारधारा के सिद्धान्त तक ही नहीं है। वह “साहित्य के रूप में विचारधारात्मक विमर्शों के उत्पादन के नियमों” से भी सम्बन्धित है। जॉर्ज इलियट से लेकर डी.एच.लॉरेंस तक की शृंखला के उपन्यासों का सर्वेक्षण करते हुए ईगलटन ने विचारधारा और साहित्यिक रूप के बीच के अन्तर्सम्बन्धों को दिखाया है। उनका तर्क है कि 19वीं सदी की बुर्जुआ विचारधारा ने एक बंजर उपयोगितावाद के साथ समाज के आवयविक अवधारणाओं (जो मुख्यत: रोमाण्टिक मानवतावादी परम्परा से ली गई थीं) की एक शृंखला का मिश्रण किया था। उनके अनुसार जैसे- जैसे विक्टोरियाई पूँजीवाद ‘कारपोरेटीकृत’ होता गया, उसे रोमाण्टिक परम्परा के सामाजिक और सौन्दर्यबोधात्मक अवयववाद के सहारे की और जरूरत पड़ती गई।

 

ईगलटन ने कई लेखकों की विचारधारात्मक स्थिति को जाँचा तथा उनके चिन्तन में बढ़ते विरोधाभासों और उनके लेखन में उन विरोधाभासों के निराकरण के प्रयासों का विश्‍लेषण किया है। उदाहरण के लिए उन्होंने पाया कि रोमाण्टिक मानवतावाद के प्रभाव में लॉरेंस का यह विश्वास था कि उपन्यास जीवन की प्रवाहमयता का उदार या गैर-हठधर्मी प्रतिबिम्ब है और आधुनिक इंग्लैण्ड के पराए पूँजीवादी समाज के बरक्स समाज वस्तुत: एक आवयविक व्यवस्था है। प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान उदार मानवतावाद के नष्ट हो जाने के बाद लॉरेंस ने ‘पुरुष’ और ‘स्‍त्री’ सिद्धान्तों का एक द्वैतवाद विकसित किया। यह एण्टी-थीसिस उसकी रचनाओं के विविध चरणों में विकसित-संशोधित की जाती रही और अन्ततोगत्वा मेलर्स (लेडी चैटर्लीज़ लवर्स) के चरित्र-चित्रण में इसका निराकरण हुआ जो निर्वैयक्तिक ‘पुरुष-शक्ति’ और ‘स्‍त्री’-कोमलता का समन्वय थे। यह विरोधाभासी समन्वय जो लारेंस के उपन्यासों में विभिन्‍न रूप ग्रहण करता है, इसका सम्बन्ध तत्कालीन समाज में निहित ‘गहरे विचारधारात्मक संकट’ से है। ईगलटन को लगा कि यह विश्‍लेषण अल्थूसर के ‘वैज्ञानिक’ उपागम से अधिक पियरे मैकरे के साहित्यिक उत्पादन के सिद्धान्त से प्रभावित है, जो यह बताता है कि विचारधारा पाठ (टेक्स्ट) के पदार्थ में ही कार्य करती है–उसके वाचाल मौन में, उसके महत्त्वपूर्ण अन्तरालों या दरारों में। मैकरे पाठ की अपूर्णता/असमाप्यता के हामी थे, जिसमें पाठ विचारधारात्मक बन्धनों के कारण स्वयं को पूरी तरह प्रकट नहीं करता या नहीं कर पाता है। यह उनके कार्य को उत्तर-संरचनावाद के ‘टेक्सचुएलिटी’ के सिद्धान्तों से जोड़ता है और एक सशक्त मार्क्सवादी विखण्डन का मॉडल बनाता है। लेकिन मैकरे इस तथ्य की अनदेखी कर रहे थे कि साहित्य या पाठ का उत्पादन होने के साथ उसका उपभोग भी होता है और साहित्य/पाठ के पठन की प्रक्रिया इतिहास के अनुरूप बदलती भी है। यानी मैकरे एक आदर्श तथा अनुभवातीत पाठक का पूर्वानुमान कर रहे थे, पाठ के प्रति जिसकी प्रतिक्रिया समान ही रहनी है।

 

ईगलटन यह भी देख रहे थे कि अल्थूसर या मैकरे की विचारधारा सम्बन्धी दृष्टि वर्ग-संघर्ष की समस्याओं से अलग जा खड़ी हुई है। इसलिए ईगलटन वॉल्टर बेंजामिन और बर्तोल्त ब्रेख़्त के भौतिकवादी सौन्दर्यशास्‍त्र की ओर मुड़े और एक ज्यादा असरकारक और उत्पादक सांस्कृतिक आलोचना की जरूरत पर बल दिया। ल्टर बेंजामिन, ऑर टवर्ड्स ए रिवॉल्यूनरी क्रिटिसिज़्म (1981) शीर्षक कृति‍ में उन्होंने संकीर्ण पाठपरक या अवधारणामूलक विश्‍लेषणों को छोड़कर सांस्कृतिक उत्पादन और कलाकृतियों के राजनीतिक उपयोग की समस्याओं को सुलझाने की जरूरत पर बल दिया।

 

बेंजामिन की ओर ईगलटन के आकर्षण का कारण सिर्फ़ यह नहीं था कि उनमें उत्तर-संरचनावाद के कुछ अद्भुत लक्षणों का पूर्वाभास मिलता है, बल्कि यह भी कि वह दिखाते हैं कि मार्क्सवाद के लिए प्रतिबद्धता त्यागे बगैर कैसे विखण्डन का प्रयोग किया जा सकता है। इस पुस्‍तक के एक अध्याय में ईगलटन ने देरिदा और उनके उत्तर-अमेरिकी शिष्यों की तीखी आलोचना इसलिए की कि उनमें ‘वस्तुनिष्ठता’ और भौतिक ‘हितों’ (खासकर वर्ग-हितों) का पेट्टी-बुर्जुआ नकार है। विखण्डन के प्रति उनका यह द्वैध तब स्पष्ट होता है जब इस किताब में ईगलटन द्वारा सैद्धान्तिकी के लिए अल्थूसर के बजाए लेनिन की दृष्टि का प्रयोग सामने आता है। लेनिन के अनुसार केवल वास्तविक जन-आधारित और वास्तविक क्रान्तिकारी आन्दोलन की व्यावहारिक गतिविधि में ही सही सैद्धान्तिकी अपना अन्तिम आकार लेती है। इसलिए ईगलटन कहते हैं कि सच्ची मार्क्सवादी आलोचना के कर्त्तव्य राजनीति द्वारा निर्धारित होंगे, दर्शन या विचार द्वारा नहीं। ‘साहित्यिकता’ की प्रभावशाली धारणाओं को ध्वस्त कर आलोचक को वह विचारधारात्मक स्वरूप उद्घाटित करना होगा जो पाठकों की ‘सब्जेक्टिविटी’ का निर्माण करता है।

 

ईगलटन ने ‘क्रान्तिकारी साहित्यिक आलोचना’ के जिस रूप की, वकालत की उसके लिए इस पुस्तक और इसके बाद की द रेप ऑफ़ क्लैरिसा : राइटिंग,सेक्सुऎलिटी,एण्ड क्लास-स्ट्रगल में नारीवादी और मनोविश्‍लेषणवादी आलोचना से कई औजार लिए। इन पुस्तकों में एक अनूठा सार-संग्रहवाद और उस दौर में सैद्धान्तिकी के व्यापक प्रसार के प्रति एक खुलापन मिलता है। इन्हीं विशेषताओं ने उनकी अगली पुस्तक लिटररी थियरी : एन इन्ट्रोडक्शन को अभूतपूर्व सफलता दिलाई। इसके सन् 2008 के नए संस्करण की भूमिका में उन्होंने लिखा कि “मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि इस बात पर खुश होऊँ या नाराज़ कि अमेरि‍का के एक बिजनेस स्कूल ने इस किताब को अपने अध्ययन का विषय यह जानने के लिए बनाया है कि एक साहित्य-चिन्तन की किताब बेस्ट-सेलर कैसे बन सकती है।” इस किताब में ईगलटन ने सैद्धान्तिकी या थियरी के इतिहास का एक सर्वेक्षण ही नहीं किया है बल्कि उसमें विवादमूलक हस्तक्षेप भी किया है। नई समीक्षा, संरचनावाद, उत्तर-संरचनावाद, तथा मनोविश्‍लेषण के साथ एक जीवन्त बहस छेड़ी है जो हर अवसर पर उसमें राजनीतिक समीक्षा का आग्रह करती है। ईगलटन ने इस किताब में मार्क्सवादी समीक्षा का कोई अध्याय नहीं रखा। वे किताब के उपसंहार में लिखते हैं कि जो भी इस किताब में मार्क्सवादी सिद्धान्तों की व्याख्या का इन्तजार कर रहा है, वह इस किताब को ध्यान से नहीं पढ़ रहा। दरअसल वे मार्क्सवाद को कोई तयशुदा साहित्यिक सिद्धान्त नहीं मानते बल्कि एक विमर्श मानते हैं। यह विमर्श उनकी कृतियों में उसी प्रकार व्याप्‍त है, जैसे बेंजामिन के अनुसार बॉदलेयर की कविताओं में जनता बिना स्पष्ट उल्लेख के भी व्याप्‍त है, एक निरन्तर पार्श्‍ववर्ती गूँज की तरह। ईगलटन कहते हैं कि मैं इस किताब में उल्लिखित सिद्धान्तों को किसी अन्य ‘साहित्यिक सिद्धान्त’ से भिड़ा नहीं रहा बल्कि एक भिन्‍न प्रकार के विमर्श से भिड़ा रहा हूँ। आगे वे कहते हैं कि यह विमर्श उन वस्तुओं को शामिल करता है जो इन दूसरे सिद्धान्तों का विषय (साहित्य) है, लेकिन उन्हें एक वृहत्तर सन्दर्भ देते हुए उन्हें बदल भी देता है। आखिर सवाल साहित्यिक सिद्धान्तों के क्षेत्र की व्याख्या करने का नहीं, उसे चुनौती देने और बदल देने का है।

  1. आलोचना के प्रकार्य

    ईगलटन कभी किसी स्थिर पद्धति के कायल नहीं रहे। वे समकालीन बौद्धिक गतिविधियों पर बड़ी बेचैनी और मौलिकता के साथ प्रतिक्रिया देते रहे हैं। उनका रास्ता अपेक्षाकृत जटिल है। उनके लेखन ने अपने समय के महत्त्वपूर्ण बहसों में विवादमूलक हस्तक्षेप करते हुए अपनी स्थिति को लगातार अनुकूलित किया है, प्रत्युत्तर दिया है और विकसित किया है। ऐसा करते हुए उन्होंने बौद्धिक आन्दोलनों और गतिविधियों को भाँपकर उसके जरिए कई सम्वेदनशील और महत्त्वपूर्ण मुद्दों को पहचानने की विलक्षण क्षमता का परिचय दिया है। आलोचना को नए सामाजिक और बौद्धिक मुद्दों तक ले जाने और समाज में एक राजनीतिक भूमिका निभाने के आलोचक के दायित्व का उन्होंने लगातार सन्धान किया है। द फंक्शन ऑफ़ क्रिटिसिज़्म नामक पुस्तक में उन्‍होंने परम्परागत आलोचना का एक पुरातत्त्व-विज्ञान (आर्कियोलॉजी) पुनर्गठित कि‍या और आवयविक बुद्धिजीवी (ऑर्गेनिक इंटेक्लेक्चुअल) के लिए सम्भावित हर राजनीतिक अवसर की पहचान की। ऐसा करते हुए उन्‍होंने विचारधारा की उस अनासक्ति या निष्पक्षता की बारीकी से आलोचना की जो आधुनिक यूरोपीय आलोचना की प्रच्छन्‍न राजनीतिक आकांक्षाओं में अनवरत रही है। आलोचना की राजनीतिक भूमिका को रेखांकित करने के लिए उन्हें लेनिनवादी कहा गया है। लेकिन उन्होंने हमेशा कृति के गहन पठन पर जोर देते हुए यह दिखाया कि ऐतिहासिक भौतिकवादी आलोचक सदा साहित्य का श्रेष्ठ गहन पाठ करने वाले हुए हैं। उनके अनुसार आलोचना का पहला काम कृति और उसके अन्दर के विचारधारात्मक जगत के जटिल और अप्रत्यक्ष सम्बन्धों को समझना है। ये सम्बन्ध उसके ‘विषय’ या ‘विचार’ में ही नहीं बल्कि उसकी शैली, लय, बिम्ब, गुणवत्ता और उसके रूप में भी होते हैं। शब्दों का गहन साहित्यशास्‍त्रीय विश्‍लेषण इसलिए भी जरूरी है ताकि ऐतिहासिक विकास के दौरान रूप (फॉर्म) की विचारधारा की गहरी समझ हो सके। दरअसल भाषा ही वह माध्यम है जिसके जरिए साहित्यिक कलाएँ और मानव समाज दोनों चेतना पाते हैं। इसलिए साहित्यिक आलोचना उस माध्यम की सघनता और गूढता के प्रति एक सम्वेदनशीलता है, जिसने हमें वह बनाया है, जो आज हम हैं। इसलिए साहित्यशास्‍त्रीय विश्‍लेषण एक महत्त्वपूर्ण आलोचकीय कर्त्तव्य है। साथ ही शब्दों के भाव और रूप पर ध्यान देते हुए उनके नितान्त उपकरणात्मक तरीके से देखे जाने से इनकार करना भी है। इसलिए उस संसार को ठुकराना है, जहाँ वाणिज्य और नौकरशाही ने शब्दों को क्षरित कर दिया है।

  1. राजनीतिक आलोचना

   ईगलटन पर अक्सर साहित्यिक अध्ययन को सांस्कृतिक राजनीति की ओर ले जाने के आरोप लगते रहे हैं। साहित्यिक अध्ययन उनके लिए हमेशा से सांस्कृतिक राजनीति ही रहा है। मार्क्सिज्म एण्ड लिटररी क्रिटिसिज्म के नए संस्करण में वे खुद को “पोलिटिकल माइण्डेड लिटरेरी थियरिस्ट” कहते हैं। राजनीतिक से उनका आशय उस तौर-तरीके से है, जिससे हम अपने सामाजिक जीवन को व्यवस्थित करते हैं। जिसमें सत्ता-सम्बन्ध निहित है। उन्होंने साहित्यिक सिद्धान्त की अपनी किताब में बार-बार दिखाया है कि साहित्यिक सिद्धान्तों का इतिहास राजनीतिक और विचारधारात्मक इतिहास का ही अंश है। यह अविच्छिन्‍न रूप से राजनीतिक मतों और विचारधारात्मक मूल्यों से आबद्ध रहा है। इलियट का मत था कि सामान्यत: आलोचक का कार्य ‘बुद्धि का निष्पक्ष प्रयोग’ करना है। विशेषत: ‘कलाकृतियों की व्याख्या और रुचि का परिष्कार’ करना है। ईगलटन इस मत का विखण्डन करते हुए दिखाते हैं कि प्रत्येक आलोचना किसी न किसी प्रकार से राजनीतिक होती है, क्योंकि वह उन विचारधारात्मक परिस्थितियों में अपना आकार लेती है, जिसमें उसकी विविध धाराएँ उभरती हैं। वे अपने को जितनी भी निष्ठा से अराजनीतिक माने, लेकिन वह आलोचना संस्कृति के प्रसार और व्याख्या में एक सुनियोजित भूमिका अदा करती है, जिसके अपरिहार्य राजनीतिक आशय होते हैं। वे अन्तर्वस्तु की राजनीति के साथ-साथ रूप की राजनीति की बात भी करते हैं। उनके विचार में रूप इतिहास से भटकाव नहीं बल्कि इतिहास में पैठ का एक जरिया है। उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी की शुरुआत में यथार्थवाद से आधुनिकतावाद की ओर जो बदलाव हुआ, वह उस समय की ऐतिहासिक हलचलों से जुड़ा है, जब राजनीतिक और आर्थिक खलबली की पराकाष्ठा पहले विश्‍वयुद्ध तक पहुँच गई थी। आधुनिकतावाद की प्रेरणा में अन्य तत्त्व भी शामिल थे, लेकिन ईगलटन का जोर इस बात पर है कि सांस्कृतिक रूपों का गहरा संकट आम तौर पर ऐतिहासिक संकट भी होता है।

 

आलोचना के राजनीतिक होने की बात करते हुए वे समाजवादी तथा नारीवादी आलोचना को उदार मानवतावादी आलोचना के साथ रखते हैं। उनके अनुसार समाजवादी और नारीवादी आलोचना ने उदार मानवतावादी आलोचना का बहिष्कार नहीं किया अपितु उस धारा की आलोचना करते हुए उसे रेडिकल बनाया। उदार मानववादी आलोचना केवल साहित्य को इस तरह से बरतना चाहती थी कि वह हमारे जीवन को और अधिक गहन और समृद्ध कर सके। समाजवादी और नारीवादी आलोचना इस विषय पर उनसे सहमत है। बेंजामिन के एक अन्य मन्‍तव्य का उपयोग करते हुए वे कहते हैं कि मार्क्सवादी आलोचना साहित्य को हमारे दास पूर्वजों की आँखों से हमारे आजाद पोतों-नातियों के लिए पढ़ती है। उनके अनुसार मार्क्सवादी आलोचना एक साथ संशय और मुक्ति का भाष्य है। ईगलटन सम्भवतः पहले ऐसे मार्क्सवादी आलोचक हैं, जिन्होंने कहा कि “साहित्य शिल्प हो सकता है, सामाजिक चेतना का उत्पाद या एक विश्‍व-दृष्टि भी, लेकिन यह अपने में एक उद्योग भी है।”

  1. निष्कर्ष

    ईगलटन वर्तमान समय के सबसे चर्चित और विवादित मार्क्सवादी आलोचकों में से एक हैं। साथ ही ईगलटन मार्क्सवाद के रूढ़िगत पाठ से भी खुद को अलगाते हैं। ईगलटन की आलोचना में ‘पाठ’ (text) का बहुत ही महत्त्‍व है। शायद यही कारण है कि ईगटन ने अपनी एक पुस्‍तक का नाम ही रखा कविता कैसे पढ़ी जाए (how to read a poem)। ईगलटन सिर्फ विचारधारा के चश्मे से ही साहित्य को नहीं देखते। वे साहित्य की अपनी एक अलग पहचान को भी स्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि कोई भी पाठ ऐतिहासिक यथार्थ को प्रतिबिम्बित नहीं करता। वह विचारधारा को रचकर यथार्थ के असर का उत्पादन करता है। दूसरी तरफ उन्होंने यह भी दिखाया कि साहित्यिक सिद्धान्तों के निर्माण में विचारधारा का भी योगदान होता है।

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अतिरिक्त जानें

 

बीज शब्द

  1. आधुनिकता : आधुनिकता एक मूल्य दृष्टि है जिसमें परम्परागत मूल्यों के प्रति प्रश्न उठाये जाते हैं।
  2. आधुनिकतावाद : आधुनिकतावाद एक दार्शनिक सिद्धान्त है जिसका जीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर प्रभाव पड़ा है।

    पुस्तकें      

  1. मार्क्सवाद और साहित्यालोचन, टेरी ईगलटन (अनुवाद : वैभव सिंह), आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा।
  2. Ideology : An introduction, Terry Eagleton, Verso, London, New York.
  3. The Illusions of Postmodernism, Terry Eagleton, Blackwell Publishers, Oxford.
  4. The Task of The Critic : Terry Eagleton in dialogue, terry Eagleton and Matthew Beaumont, Verso, London, New York.
  5. Literary Theory : An Introduction, Terry Eagleton, Blackwell Publishers, Oxford.
  6. The Gate keeper : A memoir, Terry Eagleton, Penguin Press, London, New York.
  7. How to Read a Poem, Terry Eagleton, Blackwell Publisher, Oxford.

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