34 लियोलावेन्थल की साहित्य दृष्टि

मैनेजर पाण्डेय

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस ईकाई के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • लियोलावेन्थल की साहित्य की अवधारणा समझ सकेंगे।
  • साहित्य का समाजशास्‍त्र और मनोविज्ञान के सम्बन्ध को जान पाएँगे।
  • रचनाकारों की सामाजिक चेतना समझ पाएँगे।
  • रूप और अन्तर्वस्तु का सम्बन्ध समझ पाएँगे।
  • लोकप्रिय साहित्य के सम्बन्ध में लावेन्थल का मत जान पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

   संस्कृति के समाजशास्‍त्र का विकास करने में अडोर्नो, हर्वर्ट मारकुस और लियो लावेन्थल की मुख्य भूमिका रही है। ये तीनों फ्रंकफर्ट समुदाय से जुड़े हुए हैं। अडोर्नो और मारकुस यथार्थवाद के आलोचक और आधुनिकतावाद के समर्थक रहे हैं। लावेन्थल ने सचेत और व्यवस्थित रूप से साहित्य के समाजशास्‍त्र का विकास किया है। लावेन्थल ने बीसवीं सदी के तीसरे दशक से लगातार साहित्य के समाजशास्‍त्र की सैद्धान्तिक समस्याओं को सुलझाने तथा साहित्य के व्यवहारिक विवेचन में समाजशास्‍त्रीय दृष्टि को विकसित करने का प्रयास किया।

 

लावेन्थल का लेखन लगभग आधी सदी तक फैला है। उन्होंने जर्मन साहित्य के साथ-साथ पूरे यूरोपीय साहित्य की व्यापक परम्परा के अनेक महत्त्वपूर्ण लेखकों की रचनाओं का विश्‍लेषण और मूल्यांकन किया है। उनकी दृष्टि का पैनापन 16वीं, 17वीं सदी के स्पेनी लेखकों और 19वीं सदी के जर्मन कथाकारों की कृतियों के विवेचन में देखा जा सकता है। स्पेनी उपन्यासकार सर्वान्तेस, अंग्रेजी नाटककार शेक्सपीयर, जर्मन कवि गेटे(गोएथे), रूसी उपन्यासकार दॉस्तोयवस्की आदि की कृतियों के विवेचन में लावेन्थल की समाजशास्‍त्रीय पद्धति की कुशलता और निखरी है। साहित्य और मनुष्य की परिकल्पना, साहित्य, लोकप्रिय साहित्य और समाज  तथा कथा की कला और समाज  लावेन्थल के चर्चित निबन्ध संग्रह हैं।

 

लावेन्थल ने समकालीन साहित्य पर बहुत कम लिखा। वे समकालीन साहित्य की संरचनाओं और समस्याओं के प्रति उदासीन ही रहे। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा – “मैं पुराने ढंग का साहित्य-वैज्ञानिक हूँ। आज भी आधुनिक साहित्य के बारे में समाजशास्‍त्रीय बयान देने की हिम्मत नहीं कर पाता। इसके दो कारण हैं। एक तो आधुनिक साहित्य अब भी इतिहास की कसौटी पर खरा नहीं उतरा है। … दूसरा कारण समाजशास्‍त्रीय है। ”

  1. लावेन्थल की साहित्यिक अवधारणा

   लावेन्थल के लेखन का मूल उद्देश्य साहित्य की सामाजिकता का विश्‍लेषण करना है। इस सामाजिकता की खोज वे साहित्य के विशिष्ट स्वरूप की पहचान के साथ करते हैं। उनके लिए साहित्य का सामाजिक रूप ही प्रमुख है। लावेन्थल कहते हैं कि साहित्य वैयक्तिक अनुभवों का ऐतिहासिक भण्डार है। साहित्य में आई प्रेम और प्रकृति की नितान्त निजी अनुभूतियाँ भी अपने सामाजिक सन्दर्भ से प्रभावित रहती हैं। कलात्मक कल्पना की यही विशिष्टता है। लेखक या रचना की सामाजिक चेतना का विश्‍लेषण करते हुए लावेन्थल यथार्थ के चित्रण की तुलना में उसकी अनुभूति और उसके प्रति दृष्टि को अधिक महत्त्व देते हैं। वे मानते हैं कि साहित्य के पाठक को जो जीवन अनुभव मिलते हैं वे वैयक्तिक के साथ-साथ सामाजिक और ऐतिहासिक भी होते हैं। यानि लेखक अपने समय की सामाजिक स्थितियों का विरोध करता है या समर्थन। वह परिस्थितियों का केवल तटस्थ चित्रण-वर्णन भर नहीं करता।

 

इसी क्रम में लावेन्थल ने वॉल्टर बेंजामिन के इस मत का विरोध किया कि इतिहास में हमेशा विजेताओं की आवाज मुखरित होती है। लावेन्थल के अनुसार सच्ची कला में प्रायः पराजितों की आवाज और उनकी विजय की आकांक्षा व्यक्त होती है। अच्छा साहित्य वही होता है जिसमें सामाजिक ऐतिहासिक अनुभवों की गहरी अभिव्यक्ति होती है। लावेन्थल ने लिखा है कि पूँजीवादी समाज में भी वही कला महत्त्वपूर्ण है जिसमें विरोध का स्वर है। कला और साहित्य के बारे में लावेन्थल का यह दृष्टिकोण उनके साहित्य के समाजशास्‍त्र में जगह-जगह प्रकट हुआ है।

  1. विश्‍लेषण-पद्धति

   लावेन्थल ने साहित्य के समाजशास्‍त्र में मनोविज्ञान के उपयोग को आवश्यक माना है। सामाजिक मनोविज्ञान को समझने के लिए उन्होंने मनोविश्‍लेषण की मदद भी ली है। उनका मानना है कि समाज से साहित्य के सम्बन्ध की खोज के लिए सामूहिक चेतना और व्यक्ति चेतना के बीच सम्बन्धों की समझ जरूरी है। ऐसी समझ मनोविज्ञान से मिलती है, इसलिए मनोविज्ञान साहित्य के समाजशास्‍त्र का सहायक है।

 

लावेन्थल यथार्थवाद के समर्थक हैं। उन्होंने साहित्यकारों की रचनाओं का विश्‍लेषण करते हुए उन साहित्यकारों की यथार्थवादी दृष्टि की भी व्याख्या की है। लावेन्थल यथार्थवाद के चित्रण की जगह यथार्थ के प्रति लेखकों की भावना का विवेचन करते हैं। अपने इस विचार के कारण लावेन्थल स्पेनिस उपन्यासकार सर्वान्तेस की लेखन पद्धति को यथार्थवादी मानते हुए भी उसके अभिप्राय को भाववादी मानते हैं। लावेन्थल का मानना है कि लेखक वस्तुओं, घटनाओं और संस्थाओं के सिर्फ यथार्थ रूप की चिन्ता नहीं करता। वह उन्हें मानवीय यथार्थ के रूप में भी ग्रहण करता है। इसलिए इनकी अभिव्यक्ति में लेखक की मान्यताएँ और अनुभूतियाँ भी शामिल रहती हैं।

 

लावेन्थल के अनुसार साहित्यिक कृतियों में सामाजिक चेतना दो रूपों में व्यक्त होती है। एक रचनाओं में अनेक प्रकार की चेतनाओं का द्वन्द्व होता है। ऐसी रचनाओं में सामाजिक यथार्थ की विविधता के साथ चेतनाओं की अनेकता जुड़ी होती है। सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति का दूसरा रूप वह है जहाँ एक ही चेतना पूरी रचना की संरचना में व्याप्‍त होती है। ऐसी रचनाओं में एक सामाजिक दृष्टिकोण या विचारधारा से रचना की अर्थवत्ता निर्धारित होती है। लावेन्थल के मत से उन रचनाओं और रचनाकारों का महत्त्व अधिक है जिनमें सामाजिक चेतनाओं की अनेकता दिखाई देती है।

  1. साहित्य और विचारधारा

   लावेन्थल ने साहित्य में सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति के विश्‍लेषण के लिए विचारधारा की मार्क्सवादी धारणा का उपयोग किया है। लावेन्थल के अनुसार भौतिकवादी दृष्टि से ही साहित्य की सच्ची व्याख्या हो सकती है। सच्ची आलोचना विचारधारा की मीमांसा होती है। मार्क्सवाद में विचारधारा का अर्थ है सामाजिक चेतना का रूप। लावेन्थल ने लिखा है कि विचारधारा सामाजिक यथार्थ को रहस्य के आवरण से ढकती है। उसको रूपान्तरित करती है। अतः पूँजीवादी समाज के अन्तर्विरोधों को समझना कठिन हो जाता है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक विचारधारा के निर्माण में सामाजिक अन्तर्विरोधों को गौरवमण्डित करने की प्रवृत्ति होती है।

 

लावेन्थल ने रचनाकारों की सामाजिक चेतना, उनकी वर्गदृष्टि और विचारधारा का भी विश्‍लेषण किया है। जर्मन लेखक गेटे पर उनके लेख का उपशीर्षक ही है बुर्जुआ समर्पण। इसी प्रकार केल्लर पर लिखे निबन्ध का शीर्षक बुर्जुआ विश्रान्ति और मेयर्स पर लिखे लेख का शीर्षक उच्‍च मध्य वर्ग की क्षमा याचना है। लावेन्थल किसी रचनाकार की वर्ग चेतना उसके बयानों में ही नहीं ढूँढ़ते। वे रचनाओं की संरचनाओं का विश्‍लेषण करते हुए उपन्यासों तथा नाटकों के चरित्र-चित्रण, वस्तुविधान, विषय के चयन आदि में विचारधारा की भूमिका उजागर करते हैं। मेयर्स पर लिखे उनके निबन्ध में यह पद्धति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। लावेन्थल ने रचनाओं के पाठकीय ग्रहण के सन्दर्भ में भी विचारधारा की क्रियाशीलता का विवेचन किया है। उनका दॉस्तोयवस्की की रचनाओं के पाठकीय ग्रहण का विश्‍लेषण बहुत प्रसिद्ध है।

 

लावेन्थल के लेखन में विचारधारा का महत्त्व तब तक बहुत ज्यादा रहा जब तक वे जर्मनी में रहे। बाद में अमेरिका प्रवास के दौरान वे मार्क्सवाद जैसी सुसंगत विचारधारा से दूर होते चले गए। उनकी मार्क्सवाद की जगह अनुभववाद से निकटता बढ़ती गई। इसलिए उनके परवर्ती लेखन से विचारधारा की मीमांसा की प्रवृति गायब होती चली गई।

  1. रूप और अन्तर्वस्तु का सम्बन्ध

   लावेन्थल किसी रचना के रूप की अपेक्षा उसकी अन्तर्वस्तु के विश्‍लेषण पर अधिक बल देते हैं। वे पुरानी जर्मन परम्परा के अनुरूप रूप और अन्तर्वस्तु के बीच आन्तरिक, अनिवार्य और अविभाज्य एकता को स्वीकार करते हैं। जर्मन समाजशास्‍त्री और दार्शनिक थ्योडोर अडोर्नो ने भी कला की अन्तर्यामी आलोचना को विशेष महत्त्व दिया है। लावेन्थल भी अडोर्नो की मान्यता से सहमत हैं। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि – “मैंने हमसुन (नार्वे के प्रसिद्ध लेखक, जिनका लेखन काल लगभग सत्तर  सालों तक फैला हुआ है।) पर लिखते हुए अपनी स्थापना को उसके राजनीतिक बयानों से प्रामाणिक बनाने के बदले उसकी रचना पद्धति और चरित्रों के विश्‍लेषण का सहारा लिया है। हमसुन और इब्सन पर लिखे निबन्धों में मेरी पद्धति की यह विशेषता प्रकट हुई है। ”

 

लावेन्थल ने रचना के रूप की समग्रता पर कम ध्यान दिया है। उन्होंने शैली तथा भाषा का ही विवेचन किया है। उनका मानना है कि कभी-कभी लेखक की शैली उसकी सामाजिक चेतना का बोध कराने में अधिक सहायक होती है। शायद इसीलिए उन्होंने शेक्सपीयर और इब्सन के नाटकों के पात्रों की भाषा के सामाजिक अभिप्रायों का विश्‍लेषण किया है। इसी क्रम में उन्होंने लोकप्रिय पत्रिकाओं में जीवनी नामक अपने चर्चित निबन्ध में अतिशयोक्तियों के प्रयोग का सामाजिक अर्थ स्पष्ट किया है।

 

साहित्य रूपों के विकास की प्रक्रिया सामाजिक विकास से प्रभावित होती है। इसका विवेचन करते हुए ही साहित्य के समाजशास्‍त्र का विकास किया जा सकता है। जार्ज लुकाच ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक उपन्यास का सिद्धान्त में इस परम्परा की नींव डाली थी। बाद में इस परम्परा का विकास जिन दो बड़े लेखकों ने किया, उनमें लूसिए गोल्डमान और लावेन्थल प्रमुख हैं। लावेन्थल ने नाटक, उपन्यास, जीवनी और लोकप्रिय साहित्य के विभिन्‍न रूपों के विकास को सामाजिक विकास से जोड़कर देखा।

 

साहित्य समाज से प्रभावित ही नहीं होता उसे प्रभावित भी करता है। लावेन्थल ने साहित्यिक रचनाओं के ग्रहण, बोध और प्रभाव के अध्ययन की पद्धति का विकास किसी भी दूसरे समाजशास्‍त्री की तुलना में अधिक गम्भीर और व्यवस्थित रूप में किया है। एक तरह से वे साहित्य के समाजशास्‍त्र में कृतियों के ग्रहण और पाठकीय प्रभाव के विश्‍लेषण की पद्धति के प्रवर्तक हैं। यहाँ प्रभाव विश्‍लेषण के दो पक्ष हैं। पहला है साहित्यिक कृति के अभिग्रहण का विवेचन। दूसरा है कृति का पाठक पर प्रभाव की व्याख्या। लावेन्थल ने इन दोनों ही पक्षों पर ध्यान दिया है। ऐसा करके लावेन्थल ने एक तो कृति का महत्त्व प्रकट किया है, दूसरे पाठक की मानसिकता को भी सामने लाने की कोशिश की है।

 

इसी क्रम में सन् 1880 से 1920 के बीच की दॉस्तोयवस्की की रचनाओं के अभिग्रहण का विवेचन करते हुए लावेन्थल ने लिखा है कि साहित्य के ग्रहण और अनुभव के विवेचन का अर्थ है समाज की जीवन-प्रक्रिया में किसी लेखक या कृति के ग्रहण और अनुभव की प्रक्रिया की पहचान। लावेन्थल ने इसी दृष्टि से दॉस्तोयवस्की और हमसुन की रचनाओं का विश्‍लेषण किया। इस तरह उन्होंने रूढ़िवादी और प्रगतिशील रचनाओं का अन्तर स्पष्ट किया ।

  1. लोकप्रिय साहित्य और लावेन्थल

   जिन कृतियों की महानता इतिहास सिद्ध होती है, आलोचक केवल उनकी व्याख्या करता है और उसे प्रासंगिक बनाता है। इस तरह वह किसी रचना की महानता सिद्ध करने से बच जाता है। जिसे सामान्य, लोकप्रिय, बाजारू और घासलेटी साहित्य कहा जाता है, ऊँची नाक वाले उसकी व्याख्या को कीचड़ में पाँव रखना समझते हैं। कुछ आलोचकों का मानना है कि ऐसे साहित्य में व्याख्या करने लायक कुछ होता ही नहीं। दूसरी तरफ ऐसे साहित्य का पाठक समुदाय बहुत बड़ा होता है। इसलिए ऐसे साहित्य की उपेक्षा उसके पाठक समुदाय की उपेक्षा भी है। शायद इसीलिए लावेन्थल ने लोकप्रिय साहित्य को काफी महत्त्व दिया। लोकप्रिय साहित्य और संस्कृति के अन्तस्सम्बन्ध को समझने का प्रयास किया है।

 

लावेन्थल ने लोकप्रिय साहित्य के विश्‍लेषण और मूल्यांकन के लिए पद्धति सम्बन्धी अनेक सुझाव दिये हैं। जैसे कि –

  • लोकप्रिय संस्कृति की वस्तुपरक स्थिति का तथ्यात्मक ज्ञान जरूरी है जो अनुभववादी पद्धति से प्राप्‍त किया जा सकता है। लेकिन उसके मूल्यांकन के लिए एक नैतिक और सौन्दर्यबोधीय दृष्टि भी आवश्यक है।
  • लोकप्रिय संस्कृति के तथ्यों को ऐतिहासिक सन्दर्भ में ऱखना आवश्यक है। ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि संस्कृति की किसी भी वस्तु को ऐतिहासिक सन्दर्भ में रखकर ही ठीक ढंग से समझा जा सकता है।
  • जिस सामाजिक वातावरण में सांस्कृतिक वस्तु मौजूद हो उसका ज्ञान और सांस्कृतिक वस्तु को ग्रहण करने वाले पाठक समुदाय की मानसिकता का बोध भी जरूरी है।
  • लेखक को यह जानकारी भी होनी चाहिए कि पाठकों के लिए साहित्य के साहित्य का क्या महत्त्व है, पाठक समुदाय की वर्गस्थिति क्या है, वह उदीयमान वर्ग है या पतनशील।
  • सांस्कृतिक स्थिति की व्याख्या के लिए एक व्यवस्थित सैद्धान्तिक ढाँचा भी जरूरी है, जिससे सम्पूर्ण सामाजिक प्रक्रिया के बीच सांस्कृतिक तथ्यों के रूप और अर्थ को समझने में मदद मिल सके।

    लावेन्थल ने साहित्य की सामाजिक अर्थवत्ता की खोज के साथ-साथ समाज में साहित्य की स्थिति का भी विश्‍लेषण किया है। उन्होंने महान रचनाओं और रचनाकारों के साथ ही लोकप्रिय साहित्य के विभिन्‍न रूपों के सामाजिक अर्थ की छानबीन भी की है। उन्होंने साहित्य के उत्पादन, वितरण और उपभोग की पूरी प्रक्रिया को सामाजिक प्रक्रिया से जोड़ कर देखा है। अतः मानना चाहिए कि वे साहित्य की सम्पूर्ण प्रक्रिया के समाजशास्‍त्री हैं। इतना ही नहीं, लावेन्थल के यहाँ किसी रचना के पाठकीय ग्रहण का विवेचन भी है। लावेन्थल सतही साहित्य का भी गम्भीर विवेचन करते हैं।

 

लावेन्थल ने लोकप्रिय कला और लोक-कला में भेद किया है। लोक-कला को उन्होंने सच्ची कला के साथ रखकर देखने की कोशिश की है। भीड़ की संस्कृति या साहित्य के बारे में लावेन्थल की राय है  कि उसमें वह आलोचनात्मक चेतना नहीं होती जो सच्ची कला की अनिवार्य विशेषता है। उसमें यथार्थ की तोड़-मरोड़ होती है। साथ ही यथार्थ का ऐसा रूप होता है जो पाठकों में सहमति या यथास्थति की भावना जगाए। लावेन्थल ने लोकप्रिय साहित्य को आधुनिक समाज में मनुष्य की चेतना और सामाजिक मूल्य व्यवस्था को जानने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत समझा। इसलिए उन्होंने सस्ते उपन्यास, जीवनियाँ, सामाचार-पत्र, पारिवारिक पत्रिकाएँ और पुस्तक समीक्षाओं का अध्ययन किया। इनका विश्‍लेषण करते हुए उन्होंने समाज में प्रचलित प्रतीकों, मान्यताओं और आम जनता की मनोदशा को पहचानने की कोशिश की। उनके यहाँ लोकप्रिय संस्कृति मुख्य रूप में लोकप्रिय साहित्य तक सीमित है। इसलिए उन्होंने लोकप्रिय संस्कृति के अन्य रूपों का अध्ययन नहीं किया है। उन्होंने लोकप्रिय साहित्य को मध्यवर्ग का साहित्य माना है। लावेन्थल का मानना है कि आधुनिक समाज में संस्कृति को जानने की कुंजी साहित्य है। लावेन्थल के लोकप्रिय साहित्य के विवेचन में कहीं भी मजदूरों और किसानों की मानसिकता के लिए कोई जगह नहीं है।

 

लोकप्रिय साहित्य के अध्ययन के प्रयास में लावेन्थल की दृष्टि की कुछ सीमाएँ भी दिखती हैं। उन्होंने भीड़, लोक और सर्वहारा में भेद नहीं किया। इसलिए उनके विवेचन में भीड़ की संस्कृति और जन संस्कृति में कोई भेद नहीं है। बाजारू साहित्य और सच्‍चे लोकप्रिय साहित्य में अन्तर नहीं है। लावेन्थल यह नहीं देख पाते कि भीड़ की कोई मनोवृत्ति तो हो सकती है, संस्कृति नहीं। संस्कृति के पीछे एक मूल्य व्यवस्था होती है जिसमें उस संस्कृति के मूलाधार समुदाय के जीवन की वास्तविकताओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति होती है। लावेन्थल यह भी नहीं देख पाते कि बाजारू साहित्य जनता के लिए होता तो है, लेकिन वह जनता के बारे में नहीं होता। सच्‍चा लोकप्रिय साहित्य जनता के बारे में होता है इसलिए वह जनता के लिए भी होता है। असल में लोकप्रिय संस्कृति और साहित्य सम्बन्धित लावेन्थल के विचारों की कमजोरियाँ फ्रंकफर्ट समुदाय के चिन्तकों की कमजोरियाँ हैं।

  1. निष्कर्ष

   संस्कृति और साहित्य के बारे में लावेन्थल के दृष्टिकोण के निर्माण में यूरोप की ज्ञानोदय की परम्परा से उनका गहरा लगाव और आरम्भिक काल में मार्क्सवाद की ओर झुकाव का विशेष योगदान है। एक दार्शनिक दृष्टि उनके साहित्यिक समाजशास्‍त्र में बराबर मौजूद रही है। अपने अमेरिका काल के प्रवास में वे अनुभववाद से कुछ प्रभावित अवश्य हुए थे, लेकिन उसे पूरी तरह कभी भी स्वीकार नहीं किया। उनकी दृष्टि बराबर आलोचनात्मक और मूल्य सजग बनी रही। कहा जा सकता है कि लावेन्थल साहित्य में समाज की खोज करने वाले समाजशास्‍त्री हैं। साहित्य के समाजशास्‍त्र की उन्नीसवीं सदी की परम्परा को बीसवीं सदी में विकसित करने, उसकी दृष्टि और पद्धति को समकालीन बनाने में लावेन्थल का योगदान अविस्मरणीय है। उनके प्रयत्‍न से साहित्य के समाजशास्‍त्र का क्षेत्र व्यापक बना है और उसमें विविधता आई है। जिस समय प्रलय के मसीहा इतिहास, विचारधारा, विवेक और कला के अन्त की घोषणाएँ कर रहे थे, उस समय लावेन्थल ने अपने लेखन के माध्यम से इन सब में आस्था बनाए रखने की प्रेरणा दी।

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अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  • लोकप्रिय साहित्य : वह साहित्य जो व्यापक रूप से आम जनता के बीच में लोकप्रिय हो, जो सैद्धान्तिक रूप से भले ही श्रेष्ठ न माना जाता हो परन्तु जो पठनीय हो ।
  • साहित्य की सामाजिक चेतना : समाज के विभिन्न वर्गों और समूहों की स्थिति और समस्याओं के प्रति लेखक के विचार।

    पुस्तकें :

  1. साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, मैनेजर पाण्डेय, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, हरियाणा।
  2. इतिहास और आलोचना के वस्तुवादी सरोकार, नित्यानंद तिवारी और निर्मला जैन (सम्पादक), राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  3. साहित्य का समाजशास्त्रीय चिन्तन, निर्मला जैन (सम्पादक), भारत सरकार, दिल्ली।
  4. कला का जोखिम, निर्मल वर्मा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
  5. साहित्य का समाजशास्त्र, डॉ. नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
  6. समाजसास्त्र की रूपरेखा, आई. एम. चौहान (समपादक), मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल।
  7. समाजशास्त्र कोश, हरिकृष्ण रावत, रावत पब्लिकेशन, जयपुर।
  8. Literature and the Image of the Man, Leo Lowenthal,  The Beacon Press, Boston.
  9. Literature, Popular Culture and Society, Leo Lowenthal, Pacific Book Publication, California.
  10.  Literature and Mass Culture, Leo Lowenthal, New Brunswick, USA.
  11. Revisiting the Frankfurt School : Essays on culture, media and theory, David Berry (Editor), Ashgate, England.                                                                               

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