32 रेमण्ड विलियम्स की साहित्य दृष्टि

विभास चन्द्र वर्मा

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप

  • रेमण्ड विलियम्स का संक्षिप्‍त साहित्यिक परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • साहित्य और आलोचना सम्बन्धी उनकी मान्यताओं से परिचित हो सकेंगे।
  • संस्कृति और साहित्य के सम्बन्ध पर उनकी धारणा का परिचय पा सकेंगे।
  • ‘अनुभूति की संरचना’ सम्बन्धी उनकी मान्यता जान सकेंगे।
  • ‘सांस्कृतिक भौतिकवाद’ की उनकी धारणा का परिचय पा सकेंगे।
  • भाषा सम्बन्धी उनकी धारणा जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   रेमण्ड विलियम्स का जन्म सन् 1921 में वेल्स, इंग्लैण्ड में एक मजदूर परिवार में हुआ था। उनकी मृत्यु सन् 1988 में हुई। उन्होंने ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में शिक्षा प्राप्‍त की और बाद में कैम्ब्रिज विश्‍वविद्यालय में ही मॉडर्न ड्रामा के प्रोफेसर नियुक्त हुए। पढाई के दौरान छिड़े दूसरे विश्‍वयुद्ध में वे ब्रिटेन की सेना में भी रहे और अपनी डिग्री पाने के बाद काफी समय तक वयस्क शिक्षा कार्यक्रम से भी जुड़े रहे। उन्होंने जन-माध्यमों को लेकर भी बहुत महत्त्वपूर्ण काम किया।  ‘सांस्कृतिक अध्ययन’ के अनुशासन के निर्माण की शुरुआत इनके लेखन से ही मानी जाती है। उनके लेखन और चिन्तन का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। वे एक समादृत उपन्यासकार और नाटककार भी थे। जन-माध्यमों को लेकर किया गया उनका काम बहुत महत्त्वपूर्ण है। दरअसल वे साहित्य के ऐसे सिद्धान्तकार थे जिसने उपन्यास भी लिखे, नाटकों का ऐसा इतिहासकार जो स्वयं  नाटककार था,टेलीविजन और जनमाध्यमों का ऐसा टिप्पणीकार जिसने इन माध्यमों का काफी उपयोग किया।  टेरी ईगलटन के अनुसार “उनके कार्य को किसी एक नाम में नहीं बाँधा जा सकता यह मात्र समाज-शास्‍त्र, दर्शन-शास्‍त्र, साहित्यालोचन, या राजनैतिक सिद्धान्त नहीं, और यह उतना ही ‘रचनात्मक’ या ‘कल्पनाशील’ है जितना अकादमिक”।  मार्क्सवादी आलोचक होने के साथ इनकी कई धारणाओं पर एफ. आर. लीविस और उनके ‘स्क्रूटिनी’ सम्प्रदाय का भी असर देखा जा सकता है।

 

इनकी प्रमुख कृतियों में रीडिंग एण्ड क्रिटिसिज्म (1950), ड्रामा फ्रॉम इब्सन टू इलियट (1952), कल्चर एण्ड सोसायटी 1780-1950 (1958), द लॉन्ग रिवोल्यूशन(1961), मॉडर्न ट्रैजेडी(1966), द इंग्लिश नॉवेल फ्रॉम डिकेन्स टू लॉरेन्स (1970),  द कन्ट्री एण्ड द सिटी (1973), टेलीविजन: टेकनॉल्जी एण्ड कल्चरल फॉर्म (1974), कीवर्ड्स : ए वोकैब्लरी ऑफ़ कल्चर एण्ड सोसायटी (1976) तथा मार्क्सिज़्म एण्ड लिट्रेचर (1977) हैं। बॉर्डर कन्ट्री, सेकेण्ड जेनेरेशन इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।

  1. साहित्य, आलोचना और संस्कृति

   रेमण्ड विलियम्स ने साहित्य या ऐसे सांस्कृतिक रूपों को एक अलग-थलग सौन्दर्यशास्‍त्रीय प्रक्रम के रूप में नहीं देखा बल्कि उसे एक ऐसी गहरी सामाजिक प्रक्रिया के तौर पर समझने का यत्‍न किया जिसमें लेखकीय विचारधारा, संस्थानात्मक गतिविधियाँ, तथा सौन्दर्यशास्‍त्रीय या सामान्य रूपों की शृंखला सम्बन्धित रहती हैं। दरअसल विलियम्स के यहाँ ‘प्रक्रिया’ और ‘सम्बन्ध’ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। प्रक्रिया और सम्बन्ध को महत्त्व देने के कारण उन्होंने कई बार अपने विचारों को सुधारा या विकसित भी किया।

 

रेमण्ड विलियम्स  आरम्भ में अंग्रेजी आलोचना की मैथ्यू आर्नाल्ड, टी० एस०इलियट और एफ० आर० लीविस की साहित्यिक परम्परा के अन्दर लेकिन उससे संघर्ष करते हुए दिखते हैं। साथ ही वे तीसरे-चौथे दशक के ब्रिटिश मार्क्सवादियों की साहित्यिक आलोचना को  खारिज करते हैं। उन्होंने तत्कालीन मार्क्सवादी आलोचना के वैज्ञानिकतावाद (साइंटिज्म) या यान्त्रिकता को अस्वीकार किया जो कि साहित्य को अधिरचना और समाज की आर्थिक प्रक्रिया को आधार के तौर पर तय करके साहित्य को व्याख्यायित करती थी। विलियम्स के अनुसार यह प्रविधि न सिर्फ जड़ है बल्कि निर्धारणात्मक भी है। इस प्रविधि में साहित्य की ‘वास्तविक प्रकृति’ छूट जाती है जो ‘जीवन के व्यापक अनुभव (डिटेल्ड एक्सपीरियंस ऑफ लिविंग)’ में रहती है जिसे साहित्य मूर्त करता है। यह विचार लीविस की मान्यताओं के करीब था। विलियम्स लीविस के विचार से अधिक अनुभव को महत्त्व देने, साहित्यिक रूपों,रचनाओं और प्रवृत्तियों की पहचान पर बल देने से भी प्रभावित थे। साथ ही वे यह भी मानते थे कि साहित्यिक कृतियों में  ‘मूल्यवत्ता’ होती है अतः उनका विश्‍लेषण मूल्य-निरपेक्ष तरीके से नहीं किया जा सकता। लेकिन रेमण्ड विलियम्स ने आर्नाल्ड, इलियट और लीविस की अभिजात धारणाओं को नहीं स्वीकार किया। साथ ही इनकी कृतियों में निहित अतीत-प्रेम तथा  निराशावाद  से भी सहमत नहीं थे। लीविस तथा उनके स्क्रूटिनी सम्प्रदाय का मत था कि मास-सोसायटी से समाज के नैतिक व सांस्कृतिक तानेबाने को खतरा है तथा साहित्य की ‘महान परम्परा’ ही लोकतांत्रिक क्षरण की इस आँधी को रोक सकती है और इसमें साहित्यिक आलोचक की भूमिका अहम है। संस्कृति की इनकी अवधारणाओं के उलट  विलियम्स ने यह प्रतिपादित किया कि “संस्कृति मामूली या साधारण होती है” (कल्चर इज ऑर्डिनरी)। उन्होंने कहा कि “ संस्कृति केवल बौद्धिक तथा कल्पनाशील कृतियों का समुच्‍चय नहीं बल्कि वह वस्तुतः जीवन की सम्पूर्ण पद्धति (होल वे ऑफ़ लाइफ़) है”। उन्होंने साहित्यिक (इसमें उन्होंने बौद्धिक व कल्पनाशील कृतियों दोनों को रखा है) कृतियों के अध्ययन के प्रसंग में बुर्जुआ और श्रमिक अथवा उच्‍च और निम्‍न, इस आधार पर संस्कृतियों के अन्तर को गौण बताया और इनकी जटिलता का कारण उन समान तत्त्वों में निहित  बताया जो एक समान भाषा होने के कारण उत्पन्‍न होते हैं।  इनके अनुसार अन्तर जीवन-पद्धति में खोजा जाना चाहिए और यह अन्तर मात्र आवास, पहनावे, अवकाश बिताने की पद्धति आदि तत्त्वों तक सीमित नहीं है क्योंकि औद्योगिक उत्पादन के युग में ये तत्त्व समरूप होने की ओर उन्मुख होते हैं। निर्णायक अन्तर सामाजिक सम्बन्धों की प्रकृति के वैकल्पिक विचारों में है। ‘संस्कृति’  को महज कुछ विचारों या यांत्रिक आविष्कारों तक सीमित कर के समझने के बजाय जीवन की संरचना के रूप में समझना चाहिए। विलियम्स संस्कृति को एक प्रक्रिया के रूप में समझने पर जोर देते हैं जो आम लोगों की दैनिक अंतःक्रियाओं या ‘सम्पूर्ण जीवन-पद्धति’ के अंतर्गत मूल्यों और अर्थों के विनिमय और विस्तार में निहित होती है। रेमण्ड विलियम्स के लिए सांस्कृतिक विश्‍लेषण के लिए ‘अनुभूति की संरचना’ पद का प्रयोग करते हैं।

  1. अनुभूति की संरचनाएँ

   रेमण्ड विलियम्स ने यह धारणा सर्वप्रथम ‘प्रिफेस टू फिल्म्स’ (1954) में प्रस्तुत की थी। यह पद नाटक की रूढ़ियों/प्रथाओं और उसके लेखन में सम्बन्ध बताने के लिए प्रयुक्त हुआ था । विलियम्स के अनुसार नाटक एक भौतिक गतिविधि है जिसमें लेखन का मुद्दा नाट्यालेख या पटकथा के तौर पर जुड़ा रहता है।  किसी समुदाय के तमाम उत्पाद तत्त्वतः सम्बन्धित रहते हैं लेकिन उनके सम्बन्ध के प्रकार का वर्णन मुश्किल होता है। ये उत्पाद या तत्त्व अलग-अलग पहचाने जा सकते हैं लेकिन जीवन की प्रक्रिया में ये एक मिश्रित या सम्बन्धित अवस्था में होते हैं, एक जटिल संरचना के अविभाज्य अवयव की तरह। रचना या कला में इसी समग्रता के प्रभाव या प्रभावी अनुभूति की संरचना को अभिव्यक्त या मूर्त किया जाता है। यह किसी युग का पूर्ण या सामान्य अनुभव है। उदाहरण के तौर पर नाट्य-रूढ़ियाँ अनुभूति की इसी संरचना का अंश होती हैं। युग के बदलाव के साथ नई अनुभूति की संरचना नई नाट्य-रूढ़ियों के निर्माण की आवश्यकता तैयार करती है।वस्तुतः नई नाट्य-रूढ़ियाँ महज मंच या तकनीक की सुविधा का मसला नहीं है। रूढ़ियों का परिवर्तन कहीं न कहीं सामाजिक चेतना में आते बदलावों की वजह से होता है। विलियम्स के अनुसार कारगर परिवर्तन तब सम्भव होते हैं जब उन्हें स्वीकारने की एक निहित आकांक्षा कहीं होती है, कम से कम समाज के उन समूहों में जिनसे नाटककार अपना संबल पाता है।

 

‘अनुभूति की संरचना’ का उपयोग विलियम्स ने उपन्यासों के अपने अध्ययन में भी किया है। उन्नीसवीं सदी के कुछ उपन्यासों का विश्‍लेषण करते हुए औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप बदलते ब्रिटेन के समाज और उसकी चेतना को उन्होंने स्पष्ट किया है। एलिजाबेथ गास्केल, चार्ल्स डिकेन्स और जॉर्ज इलियट के उपन्यासों का विवेचन करते हुए उन्होंने पाया कि इस युग के महत्त्वपूर्ण उपन्यासकारों ने बढ़ते हुए पूँजीवाद के दुष्प्रभावों की आलोचना की है लेकिन उस आलोचना से अधिक महत्त्वपूर्ण  उन उपन्यासों से उभर कर सामने आने वाली अनुभूति की संरचना। पूँजीवाद की बुराइयों की पहचान भी है, उनकी आलोचना भी है लेकिन पूँजीवाद से पीड़ित जनसमुदाय के साथ उपन्यास में सहानुभूति वहाँ संघर्ष और कर्म की प्रेरणा नहीं देती, बल्कि उनसे अलग होकर आत्मलीन होने की स्थिति की ओर ले जाती है। अनुभूति की यह संरचना रचना के स्तर पर उस सन्तुलन में दिखती है जिसमें एक ओर बुराई की पहचान है और दूसरी ओर उस बुराई से लड़ने से बचने की कोशिश। उन्होंने उपन्यास को ऐसा साहित्य-रूप माना जिसके माध्यम से मनुष्य अभिव्यक्ति के नए-नए रूपों और भाषा की नई भंगिमाओं के सहारे नए अनुभवों की पहचान करता है और मानवीय सम्बन्धों तथा भावनाओं की दुनिया में सामाजिक परिवर्तनों की पुनर्रचना करते हुए उन पर विजय पाना चाहता है। उपन्यास सम्बन्धी अपने विवेचन (द इंग्लिश नॉवेल फ्रॉम डिकेन्स टू लॉरेंस) में उन्होंने कहा है कि यथार्थवादी उपन्यास की रचना के लिए एक सच्‍चा समुदाय चाहिए। समुदाय से उनका आशय एक ऐसे मानव-समूह से है जिसमें व्यक्ति केवल काम या भिन्‍नता या परिवार के माध्यम से ही न जुड़े हों बल्कि उनमें अनेक स्तरों पर जुड़ाव हो। उन्होंने यह भी कहा कि आधुनिक काल में सच्‍चे समुदाय नहीं हैं इसलिए अब वैसे उपन्यास नहीं लिखे जा सकते। इसका यह अर्थ नहीं कि आधुनिक युग के उपन्यास बेहतर नहीं हैं या कि निकृष्ट हैं बल्कि यह कि आधुनिक काल के उपन्यास  उन्नीसवीं सदी के उपन्यासों से भिन्‍न होंगे। उपन्यास के अध्ययन में उन्होंने ‘ज्ञेय समुदाय’ और ‘अज्ञेय समुदाय’ पदों का भी प्रयोग किया। उपन्यासकार लोगों और उनके सम्बन्धों को बोधगम्य और संप्रेषणीय तरीकों से दिखाता है। इस प्रकार ज्यादातर उपन्यास ज्ञेय समुदाय होते हैं। लेकिन ज्ञेयता सिर्फ वर्ण्य (ऑब्जेक्ट) का मसला नहीं, यह वर्णनकार (सब्जेक्ट) या पर्यवेक्षक का भी कर्म है कि क्या जानने को क्या आवश्यक है और क्या वांछित है। इस प्रकार ‘ज्ञेय समुदाय’ प्रकट तथ्यों के साथ-साथ चेतना का भी विषय है।

 

रेमण्ड विलियम्स ने लूसिएँ गोल्डमान की ‘विश्‍वदृष्टि’ तथा अल्थूसर की ‘विचारधारा’ की धारणाओं, जो अपेक्षतया अधिक व्यवस्थित धारणाएँ हैं,  से अपनी भिन्‍नता दिखाने के लिए ‘अनुभूति’ शब्द का प्रयोग किया। ‘अनुभूति’ से उनका आशय है वे मूल्य और अर्थ जिन्हें वस्तुतः जिया या महसूस किया जाता है तथा उनके एवं संगठित विश्वासों/मान्यताओं से उनके सम्बन्ध व्यवहार में अस्थिर होते हैं। विलियम्स चेतना और सम्बन्धों को स्पन्दित करने वाले उन विशिष्ट तत्त्वों की बात कर रहे थे जो आवेग, संयम और लहजे के अभिलक्षक तत्त्व होते हैं। वे विचार बनाम अनुभूति की बात न करके विचार के अनुभूत होने और  अनुभूति के विचार हो जाने की बात करते हैं। इसे वर्तमान यानी जीवंत व अंतःसम्बन्धित निरन्तरता की व्यावहारिक चेतना भी कह सकते हैं। इसे ‘संरचना’ के तौर पर देखा जाना कतिपय विशिष्ट और आन्तरिक सम्बन्धों के ऐसे समुच्‍चय के रूप में देखना है जो परस्पर गुँथे भी हों और एक तनाव में भी हों। रेमण्ड विलियम्स ने इस पर बल दिया है कि ‘अनुभूति की संरचना’ को पाठ के विश्‍लेषण में ही पाया जा सकता है। रेमण्ड विलियम्स की संस्कृति सम्बन्धी इस मान्यता की आलोचनाएँ भी हुईं। ‘सम्पूर्ण जीवन-पद्धति’ कहने के कारण यह माना गया कि यह विश्‍लेषण अन्ततः सामाजिक

 

समग्रता के ‘अभिव्यंजनात्मक’ या ‘आवयविक’ संस्करण की ओर उन्मुख है। या कि यह विश्‍लेषण अत्यंत मानव-शास्‍त्रीय है जिससे वर्ग-विभक्त समाजों के सार-तत्त्व को नहीं पकड़ा जा सकता। ई० पी० थॉमसन ने इसके संशोधन में “समग्र जीवन संघर्ष (होल वे ऑफ स्ट्रगल)” प्रस्तावित किया। जब ये आलोचनाएँ हो रही थीं तब विलियम्स अपने इस विवेचन को विकसित करने में लगे थे।

 

विलियम्स ने इस अवधारणा को बाद में अपनी पुस्तक  द लाँग रिवोल्यूशन में और विकसित किया। ‘अनुभूति की संरचना’ में जो समग्रता (टोटेलिटी) का बोध था उसकी जगह उन्होंने ‘वर्चस्व’ की बात की। विलियम्स वर्चस्व को मान्यताओं, अर्थ और मूल्यों की औपचारिक व्यवस्था के रूप में न देखकर सामाजिक प्रक्रिया के तौर पर देखते हैं। इसमें सत्ता का तत्त्व तो है पर विलियम्स का जोर इसके दैनंदिन व्यवहार पर था। इस दैनिक संस्कृति में प्रभुत्व और अधीनता के तत्त्व होते हैं। लेकिन ‘वर्चस्व’ सम्पूर्ण व्यवस्था या विचारधारा नहीं है। इसमें प्रभुत्व और अधीनता के सम्बन्ध कई अन्य विविध और ठोस सम्बन्धों और प्रक्रियाओं के साथ या उनके अंग बनकर जुड़े होते हैं। ‘अनुभूति की संरचना’ की नई अवधारणा में नए या परिवर्तित सांस्कृतिक प्रथा के आविर्भाव के पूर्व के क्षण का अध्ययन होता है। प्रथाएँ प्रभुत्व और अधीनता की समसामयिक गतिकी में ही रूप ग्रहण करती हैं। विलियम्स ने एक ओर जहाँ ‘उच्‍च संस्कृति’ और ‘साधारण अनुभव के विरोध का विखंडन किया वहीं आर्थिक प्रक्रियाओं द्वारा संस्कृति के निर्धारण के ‘जड़ (वल्गर)’ मार्क्सवादी मॉडल को खारिज करते हुए एक ऐसा मॉडल प्रस्तावित किया जो सभी सामाजिक स्तरों पर आपस में अन्तः क्रिया करता है। इनके बीच अधिक गूढ़ सम्बन्ध एक अनौपचारिक सामाजिक संजाल (नेटवर्क) का है जिसे विलियम्स ‘बनावट’ (फॉर्मेशन) कहते हैं। किसी भी ऐतिहासिक विश्‍लेषण में अवशिष्ट  (रेसीडुअल) संस्कृतियों की कारगर उपस्थिति की पहचान के साथ-साथ आविर्भावी (इमर्जेंट) संस्कृति की निशानदेही भी आवश्यक है। दोनों में से कोई भी प्रभुत्वशाली, प्रतिरोधी या मात्र वैकल्पिक हो सकता है। द लाँग रिवोल्यूशन में विलियम्स ने जो ऐतिहासिक विश्‍लेषण किया उसमें शिक्षा का सामाजिक इतिहास, पाठक वर्ग (रीडिंग पब्लिक) और प्रेस के अध्ययन तथा नाटकीय रूपों के सामाजिक इतिहास के लेखन का पथप्रदर्शक कार्य किया जिसके कारण यह किताब ‘सांस्कृतिक अध्ययन’ का आधार-ग्रंथ मानी जाती है।

  1. सांस्कृतिक भौतिकवाद

   रेमण्ड विलियम्स ने मार्क्सवाद के आधार/अधिरचना के मॉडल को साहित्य और संस्कृति के अध्ययन के लिए खारिज किया लेकिन उन्होंने अपने सिद्धान्त को मार्क्सवाद की ऐतिहासिक भौतिकवाद की परम्परा से जोड़ते हुए ‘सांस्कृतिक भौतिकवाद’ का नाम दिया। उन्होंने संस्कृति के ऐतिहासिक तथा भौतिकवादी परीक्षण की आवश्यकता पर बल दिया। विलियम्स के अनुसार संस्कृति भी भौतिक उत्पादन का ही एक रूप है, इसे सामाजिक भौतिक प्रक्रिया के हिस्से के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि संस्कृति और संप्रेषण सामाजिक समग्रता के गौण घटक नहीं, प्राथमिक घटक हैं जो सामाजिक व्यवस्था के विकास और रख-रखाव को प्रतिबिम्बित नहीं बल्कि गठित करते हैं। इस प्रकार संस्कृति एक भौतिक-सामाजिक गतिविधि है, भौतिक जीवनप्रक्रिया का परिणाम नहीं। इसे ‘पुनरुत्पादन’ के तौर पर नहीं समझा जा सकता। राजनैतिक व्यवहारों, आर्थिक व्यवहारों व अन्य सामाजिक व्यवहारों की भाँति संस्कृति भी सामाजिक जगत को परिभाषित और व्याख्यायित करने का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यानी सांस्कृतिक प्रक्रिया समाज की दूसरी प्रक्रियाओं से प्रभावित भी होती है और उन्हें प्रभावित भी करती है। इस कारण संस्कृति के विवेचन में सांस्कृतिक प्रक्रिया के परिणामों और प्रभावों की जगह उनके उत्पादन की प्रक्रियाओं, व्यवहारों, साधनों और परिस्थितियों की ऐतिहासिक प्रक्रियाओं का अध्ययन महत्त्वपूर्ण हो जाता है। विलियम्स के शब्दों में “संस्कृति के सिद्धान्त का सर्वोत्तम रूप तब सामने आता है जब वह ऐतिहासिक रूप से विकसित विभिन्‍न प्रकार की मानवीय क्रियाओं पर ध्यान केन्द्रित करता है और ऐतिहासिक स्थितियों के बीच उन सम्बन्धों के गतिशील और विशिष्ट रूप की खोज करता है। ऐतिहासिक परिस्थितियाँ स्वयं व्यवहार के माध्यम से बदलती रहती हैं और उनमें नए-नए परिवर्तन की संभावनाएँ भी छिपी रहती हैं। संस्कृति का कोई भी सिद्धान्त सम्बन्धों के विशिष्ट और परिवर्तनशील स्वरूप की व्याख्या का सिद्धान्त बनकर ही महत्त्वपूर्ण हो सकता है न कि एक ओर विभिन्‍न कला व्यवहारों को समेटने का प्रयास करनेवाला अमूर्तन पर आधारित कला सिद्धान्त और दूसरी ओर इसके विकल्प के रूप में एक सर्वग्रासी समाज सिद्धान्त”।

 

संस्कृति को अवशिष्ट, प्रभुत्वशाली और आविर्भावी तत्त्वों की गतिकी में देखने के कारण किसी भी युग की कृति में  हाशियाकृत या विध्वंसकारी तत्त्वों की पहचान के साथ उसकी जटिल समग्रता की खोज की जा सकती है । इससे यह पहचाना जा सकता है कि हर पराधीनता के इतिहास में प्रतिरोध का इतिहास भी निहित होता है। यह भी कि प्रतिरोध सदैव पराधीनता का चिह्न या प्रमाण ही नहीं होता बल्कि यह ‘भिन्‍नता’ का अमिट चिह्न भी होता है जो सत्ता को परिवर्तन का दरवाजा बन्द करने से सदा बरजता है।  विलियम्स के अनुसार यह पद्धति इस बात का सन्धान कर सकती है कि विभिन्‍न युगों में वर्ग-संघर्ष को किस तरह रोका गया या सम्भाल लिया गया।

  1. भाषा और बीज-शब्द

   विलियम्स के अनुसार भाषा की भौतिकता दो सिद्धान्तों से तय होती है। पहली, भाषा ऐतिहासिक होती है और दूसरी कि यह व्यावहारिक संगठनकर्त्री गतिविधि है, संस्कृति की संरचना करने वाला रूप है। भाषा शुद्ध माध्यम नहीं जिसके द्वारा सामाजिक यथार्थ या अनुभव प्रवाहित होता है बल्कि यह सामाजिक साझेदारी और पारस्परिक गतिविधि है जो सक्रिय सम्बन्धों में निहित होती है और यदि यह माध्यम है भी तो तटस्थ या मूल्य-निरपेक्ष माध्यम नहीं है।  यह स्वयं में सामाजिक, राजनैतिक और विचारधारात्मक संघर्षों का मूर्त रूप है। भाषा सामाजिक प्रक्रियाओं की भौतिक सामग्री है। इसी कारण विभिन्‍न विधाओं को भी वे सामाजिक सम्बन्धों के विभिन्‍न सांस्कृतिक रूप मानते हैं। यह सम्बन्ध व्यक्ति की आकांक्षा का सामूहिक प्रणालियों के साथ सम्बंध है। उनके शब्दों में “अलग-अलग तरीके से लिखना अलग-अलग तरीके से जीना है। यह अक्सर अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग तरीकों से यानी अलग-अलग सम्बन्धों में पढ़ा जाना भी है”। ईगलटन के अनुसार भाषा आजीवन रेमण्ड विलियम्स के बौद्धिक लगन बनी रही। शब्द उनके लिए घनीभूत सामाजिक व्यवहार, ऐतिहासिक संघर्षों के मुकाम तथा राजनीतिक विवेक या प्रभुत्व के कोष थे। इसलिए हम पाते हैं कि विलियम्स की विश्‍लेषण-पद्धति में बीज-शब्दों की अवधारणा बहुत अहम है। इसे उनकी पुस्तक कल्चर एण्ड सोसायटी से उनके लेखन में पाया जा सकता है।इसके परिशिष्ट को संवर्धित करके  उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक कीवर्ड्स का निर्माण किया। बीज-शब्द उनके लिए अनुसन्धान की पद्धति होने के साथ तर्क के संगठन का जरिया भी हैं। इन शब्दों के विवेचन में भले ही भाषा या विचारों का विवेचन दिखता है लेकिन इनमें ब्रिटेन की आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक गतिविधियों का इतिहास समाहित है।

  1. निष्कर्ष

    रेमण्ड विलियम्स बीसवीं सदी के सबसे महत्त्वपूर्ण ब्रिटिश विचारकों में गिने जाते हैं। उनके चिन्तन में संस्कृति और संस्कृति में भी साहित्य केन्द्रीय तत्त्व बना रहा। साहित्य को वे सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया का अंग मानते हैं उस प्रक्रिया के प्रतिबिम्ब या पुनरुत्पादन के तौर पर नहीं देखते। वे साहित्य के गहन पाठ पर बल देते हुए शब्दों के अन्दर निहित ऐतिहासिक व विचारधारात्मक जटिलता को उद्घाटित करते हुए सामाजिक प्रक्रिया के रूप में साहित्य को रखते हैं। उनके अनुसार साहित्य में संस्कृति की पहचान ‘अनुभूति की संरचना’ के रूप में की जा सकती है जिसके कारण किसी विशेष काल में अवशिष्ट, आविर्भावी और प्रभावी तथा वैकल्पिक सांस्कृतिक रूपों की पहचान की जा सकती है। उन्होंने उच्‍च और निम्‍न संस्कृति में कोई भेद न करते हुए संस्कृति को साधारण या एक ‘पूर्ण जीवन-पद्धति’ कहा। उन्होंने नाटक, कविता और उपन्यास का ऐतिहासिक विश्‍लेषण करते हुए इन्हें संस्कृति के विभिन्‍न रूपों की अभिव्यक्ति के तौर पर देखा। उनके कार्यों की प्रेरणा से ‘सांस्कृतिक अध्ययन’ अनुशासन की शुरुआत हुई। उन्होंने अपनी पद्धति को सांस्कृतिक भौतिकवाद कहा क्योंकि उन्होंने यान्त्रिक मार्क्सवादी आधार/अधिरचना के द्वैत को खारिज करते हुए संस्कृति को समाज की भौतिक प्रक्रिया से जुड़ा बताया। भाषा को भी वे इसी भौतिक प्रक्रिया का अंग मानते थे।

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अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  1. यान्त्रिक भौतिकवाद : जो पद्धति आधार और अधिरचना के सम्बन्ध को निश्चित मान कर चलती है।
  2. KEY WORDS : रेमण्ड विलियम्स की पुस्तक जिसमें साहित्य संस्कृति और समाज से जुड़ी हुई मूल अवधारणाओं का ऐतिहासिक अर्थ दिया गया है।

    पुस्तकें

  1. साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका; मैनेजर पाण्डेय ; हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला ।
  2. वसुधा,अंक 54, अप्रैल-जून,2002
  3. Keywords, Raymond Williams, Fontana, London
  4. Reading and Criticism, Raymond Williams, Frederick Muller Ltd., U.K.
  5. Culture and Society 1780-1950, Raymond Williams, Doubleday & Company, Inc
  6. The Long Revolution, Raymond Williams, Chatto & Windus, London
  7. The English Novel From Dickens to Lawrence, Raymond Williams, Oxford University press
  8. The Country and The City, Raymond Williams, Oxford University press
  9. Culture, Raymond Williams, Fontana, London

     वेंब लिंक्स

  1. http://raymondwilliams.co.uk/
  2. http://www.newworldencyclopedia.org/entry/Raymond_Williams
  3. http://www.litencyc.com/php/speople.php?rec=true&UID=4736
  4. https://en.wikipedia.org/wiki/Raymond_Williams
  5. https://www.youtube.com/watch?v=_FtzHwkdhas
  6. https://www.youtube.com/watch?v=CeNZWlsDhr4
  7. https://www.youtube.com/watch?v=W_Mtznrz3F0
  8. https://www.youtube.com/watch?v=rJr_nvvAL9o